अध्याय—पाँच
कुठालियाँ और चलनियाँ
शब्द प्रभु का और मनुष्य का
प्रभु का शब्द एक कुठाली है। जो कुछ वह रचता है उसको पिघला कर एक कर देता है. न उसमें से किसी को अच्छा मान कर स्वीकार करता है, न ही बुरा मान कर ठुकराता है। दिव्य ज्ञान से परिपूर्ण होने के कारण वह भली—भाँति जानता है कि उसकी रचना और वह स्वय एक हैं, कि एक अंश को ठुकराना सम्पूर्ण को ठुकराना है; और सम्पूर्ण को ठुकराना अपने आप को ठुकराना है। इसलिये उसका उद्देश्य और आशय सदा एक ही रहता है।
जब कि मनुष्य का शब्द एक चलनी है। जो कुछ यह रचता है उसे लड़ाई—झगड़े में लगा देता है। यह निरन्तर किसी को मित्र मान कर अपनाता रहता है तो किसी को शत्रु मान कर ठुकराता रहता है। और अकसर इसका कल का मित्र आज का शत्रु बन जाता है, आज का शत्रु? कल का मित्र। Continue reading “किताबे-ए-मीरदाद-(अध्याय-04)”