अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-14)

अंतर जगत की फाग—(प्रवचन—चौदहवां)

दिनांक 25 मार्च, 1979;   श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

1—आधुनिक मनुष्य की सब से बड़ी कठिनाई क्या है?

2—साधु—संतों को देखकर ही मुझे चिढ़ होती है और क्रोध आता है। मैं तो उन में सिवाय पाखंड के और कुछ भी नहीं देखता हूं, पर आपने न मालूम क्या कर दिया के श्रद्धा उमड़ती है! आपका प्रभाव का रहस्य क्या है?

3—भगवान! बुरे कामों के प्रति जागरण से बुरे काम छूट जाते हैं तो फिर अच्छे काम जैसे प्रेम, भक्ति के प्रति जागरण हो तो क्या होता है, कृपया इसे स्पष्ट करें।

4—भगवान! प्रभु—मिलन में वस्तुतः क्या होता है? पूछते डरता हूं। पर जिज्ञासा बिना पूछे मानती भी नहीं। भूल हो तो क्षमा करें। Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-14)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-13)

अमी झरत बिगसत कंवल—(प्रवचन—तेरहवां)

दिनांक 23 मार्च, 1979; श्री रजनीश आश्रम, पूना

      सारसूत्र:

नाम बिन भाव करम नहिं छूटै।।

साध संग औ राम भजन बिन, काल निरंतन लूटै।।

मल सेती जो मल को धोवै, सो माल कैसे छूटै।।

प्रेम का साबुन नाम का पानी, दोय मिल तांता टूटै।।

भेद अभेद भरम का भांडा, चौड़े पड़-पड़ फूटै।।

गुरमुख सब्द गहै उर अंतर, सकल भरम से छूटै।। Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-13)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-12)

नया मनुष्य—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक 22 मार्च, 1979;  श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

1—भगवान! मेरे आंसू स्वीकार करें। जा रही हूं आपकी नगरी से। कैसे जा रही हूं, आप ही जान सकते हैं। मेरे जीवन में दुख ही दुख था। कब और कैसे क्या हो गया, जो मैं सोच भी नहीं सकती थी; अंदर बाहर खुशी के फव्वारे फूटे रहे हैं! आपने मेरी झोली अपनी खुशियों से भर दी है, मगर हृदय में गहन उदासी है और जाने का सोचकर तो सांस रुकने लगी हैं। आप हर पल मेरे रोम-रोम में समाए हुए हैं। मुझे बल दें कि जब तक आपका बुलावा नहीं आता, मैं आपसे दूर रह सकूं।

2—मैं परमात्मा को पाना चाहता हूं, क्या करना आवश्यक है? Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-12)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-11)

एक राम सारै सब काम—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

दिनांक 21 मार्च, 1979;  श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:

आदि अनादी मेरा सांई।

द्रष्टा न मुष्ट है अगम अगोचर, यह सब माया उनहीं माई।।

जो बनमाली सींचै मूल, सहजै पिवै डाल फल फूल।।

जो नरपति को गिरह बुलावै, सेना सकल सहज ही आवै।।

जो काई कर भान प्रकासै, तौ निस तारा सहजहि नासै।

गरुड़ पंख जो घर में लावै, सर्प जाति रहने नहिं पावै।।

दरिया सुमरै एक हि राम, एक राम सारै सब काम।।

आदि अंत मेरा है राम। उन बिन और सकल बेकाम।। Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-11)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-10)

यह मशाल जलेगी—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 20 मार्च 1979,  श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

1—भगवान! आपने एक प्रवचन में कहा है कि भारत अपने आध्यात्मिक मूल्यों में गिरता जा रहा है। कृपया बताएं कि आगे कोई आशा की किरण नजर आती है?

2—भगवान! आज के प्रवचन में अणुव्रत की आपने बात की। मेरा जन्म उसी परिवार से है, जो आचार्य तुलसी का अनुयायी है। बचपन से ही आचार्य तुलसी के उपदेशों ने कभी हृदय को नहीं हुआ। अभी उन्होंने अपना उत्तराधिकारी आचार्य मुनि नथमल को आचार्य महाप्रज्ञ नाम देकर बनाया है। वे ठीक आपकी स्टाइल में प्रवचन देते हैं मगर उन्होंने भी कभी हृदय को नहीं छुआ। और आपके प्रथम प्रवचन को सुनते ही आपके चरणों में समर्पित होने का भाव पूरा हो गया और समर्पण कर दिया। Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-10)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-09)

मेरे सतगुर कला सिखाई—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 16 मार्च, 1079;   श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:

जाके उर उपजी नहिं भाई। सो क्या जानै पीर पराई।।

ब्यावर जाने पीर की सार। बांझ सर क्या लखे बिकार।।

पतिव्रता पति को ब्रत जानै। बिभचारिन मिल कहा बखानै।।

हीरा पारख, जौहारि पावै। मूरख निरख के कहा बतावै।।

लागा घाव कराहै सोई। कोतगहार के दर्द न कोई।।

रामनाम मेरा प्रान—अधार। सोइ रामरस—पीवनहार।। Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-09)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-08)

सृजन की मधुर वेदना—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक १८ मार्च, १९७९;  श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

1—भगवान! संतों के अनुसार वैराग्य के उदय होने पर ही परमात्मा की ओर यात्रा संभव है और आप कहते हैं कि संसार में रहकर धर्म साधना संभव है। इस विरोधाभास पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।

2—भगवान! कभी झील में उठा कंवल देख आंदोलित हो उठता हूं, कभी अचानक कोयल की कूक सुन हृदय गदगद हो आता है, कभी बच्चे की मुसकान देख विमुग्ध हो जाता हूं। तब ऐसा लगता है जैसे सब कुछ थम गया; न विचार न कुछ। भगवान, लगता है ये क्षण कुछ कुछ संदेश लाते हैं, वह क्या होगा?

3—भगवान! यह शिकायत मत समझना, आपकी एक जिंदादिल भक्त की प्रेम—पुकार है। Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-08)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-07)

जागे सो सब से न्यारा—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 17 मार्च, 1979;  श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:  

सब जग सोता सुध नहिं पावै। बोलै सो सोता बरड़ावै।।

संसय मोह भरम की रैन। अंधधुंध होय सोते अन।।

तीर्थ-दान जग प्रतिमा-सेवा। यह सब सुपना लेवा-देवा।।

कहना सुनना हार औ जीत। पछा-पछा सुपनो विपरती।।

चार बरन औ आस्रम चार। सुपना अंतर सब ब्यौहार।।

षट दरसन आदि भेद-भाव। सपना अंतर सब दरसाव।। Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-07)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-06)

अपने माझी बनो—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 16 मार्च, 1979;   श्री रजनीश आश्रम, पूना

      प्रश्‍नसार:

1—भगवान! उपनिषद कहते हैं कि सत्य को खोजना खड्ग की धार पर चलने जैसा है। संत दरिया कहते हैं कि परमात्मा की खोज में पहले जलना ही जलना है। और आप कहते हैं कि गाते नाचते हुए प्रभु के मंदिर की और आओ। इन में कौन सा दृष्टिकोण सम्यक है?

2—वो नगमा बुलगुले रंगी नवा इक बार हो जाए।

कली की आंख खुल जाए चमन बेदार हो जाए।।

3—भगवान! आपको सुनता हूं तो लगता है कि पहले भी कभी सुना है। देखता हूं तो लगता है कि पहले भी कभी देखा है। वैसे मैं पहली ही बार यहां आया हूं, पहली ही बार आपको सुना और देखा है। मुझे यह क्या हो रहा है? Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-06)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-05)

जागे में फिर जागना—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक १५ मार्च, १९७९;   श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:

तज बिकार आकार तज, निराकार को ध्यान।

निराकार में पैठकर, निराधार लौ लाय।।

प्रथम ध्यान अनुभौ करै, जासे उपजै ग्यान।

दरिया बहुत करत हैं, कथनी में गुजरान।।

पंछी उड़ै गगन में, खोज मंडै नहिं मांहिं।

दरिया जल में मीन गति, मारग दरसै नहिं।।

मन बुधि चित पहुंचै नहीं, सब्द सकै नहिं जाय। Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-05)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-04)

संसार की नींव, संन्यास के कलश—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 14 मार्च 1979;  श्री रजनीश, पूना

प्रश्‍नसार:

1—भगवान! खाओ, पियो और मौज उड़ाओ–चार्वाकों का यह प्रसिद्ध संसार-सूत्र है। नाचो, गाओ और उत्सव मनाओ–यह आपका संन्यास सूत्र है। संसार सूत्र और संन्यास सूत्र के इस भेद को कृपा कर के हमें समझाएं।

2—बंबई के एक गुजराती भाषा के पत्रकार और लेखक श्री कांति भट्ट ने कृष्णमूर्ति के प्रवचन में आए हुए बंबई के लोगों को बुद्धिमत्ता का अर्क कहा है। श्री कांति भट्ट आपसे भी बंबई में मिल चुके हैं और यहां आश्रम में भी आए थे। लेकिन उन्होंने आपके पास आने वाले लोगों को कभी बुद्धिमान नहीं कहा। आप इस बाबत कुछ कहने की कृपा करेंगे।

3—संतों की वीणा में इतना रस किस स्रोत से आता है? और संतों की वाणी से इतनी तृप्ति और आश्वासन क्यों मिलता है? Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-04)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-03)

बिरहिन का घर बिरह में—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 13 मार्च, 1979;  श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:

दरिया हरि करिपा करी, बिरहा दिया पठाय।

यह बिरहा मेरे साध को सोता लिया जगाए।

दरिया बिरही साध का, तन पीला मन सूख।

रैन न आवै नींदड़ी, दिवस न लागै भूख।।

बिरहिन पिउ के कारने, ढूंढन बनखंड जाए।

निस बीती, पिउ ना मिला, दरद रही लिपटाय।।

बिरहिन का घर बिरह में, ता घट लोहु न मांस।

अपने साहब कारने, सिसकै सांसों सांस।

दरिया बान गुरदेव का, कोई झेलैं सूर सुधीर। Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-03)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-02)

कितना है जीवन अनमोल—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 12 मार्च, 1979;   श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार—

1—भगवान! णमो णमो भगवान, फिर—फिर भूले को, चक्र में पड़े को शब्द की गूंज से, जागृति की चोट से, ज्ञानियों की व्याख्या से; विवेक स्मृति, सुरति, आत्म—स्मरण और जागृति की गूंज से फिर चौंका दिया भगवान! णमो णमो भगवान!

2—मानव जीवन की संतों ने इतनी महिमा क्यों गायी है?

3—जीवन सत्य है या असत्य?

4—भगवान! बलिहारी प्रभु आपकी Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-02)”

अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-01)

नमो नमो हरि गुरु नमो—(पहला—प्रवचन)

दिनांक 11 मार्च, 1976;  श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र—

नमो नमो हरि गुरु नमो, नमो नमो सब संत।

जन दरिया बंदन करै, नमो नमो भगवंत।।

दरिया सतगुर सब्द सौं, मिट गई खैंचातान।

भरम अंधेरा मिट गया, परसा पद निरबान।।

सोता था बहु जन्म का, सतगुरु दिया जगाय।

जन दरिया गुर सब्द सौं, सब दुख गये बिलाय।। Continue reading “अमी झरत बिसगत कंवल-(प्रवचन-01)”

अमी झरत बिगसत कंवल—(संत दरिया)

अमी झरत बिगसत कंवल—(दरिया वाणी )

(ओशो द्वारा संत दरिया वाणी पर दिये गये 14 प्रवचनों का अमृत संकलन)

11,मई 1979 tसे 24, मई  1979 पूना ओशो   

नमो नमो हरि गुरु नमो, नमो नमो सब संत। 

जन दरिया बंदन करै, नमो नमो भगवंत।।

दरिया कहते हैं: पहला नमन गुरु को। और गुरु को हरि कहते हैं। नमो नमो हरि गुरु नमो! यह दोनों अर्थों में सही है। पहला अर्थ कि गुरु भगवान है और दूसरा अर्थ कि भगवान ही गुरु है। गुरु से बोल जाता है, वह वही है जिसे तुम खोजने चले हो। वह तुम्हारे भीतर भी बैठा है उतना ही जितना गुरु के भीतर लेकिन तुम्हें अभी बोध नहीं, तुम्हें अभी उसकी पहचान नहीं। गुरु के दर्पण में अपनी छवि को देखकर पहचान हो जाएगी। गुरु तुमसे वही कहता है जो तुम्हारे भीतर बैठा फिर भी तुमसे कहना चाहता है। मगर तुम सुनते नहीं। Continue reading “अमी झरत बिगसत कंवल—(संत दरिया)”

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