नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-10)

दसवां समापन प्रवचन

अभिनय अर्थात अकर्ता-भाव पूर्णक्रांतिः आध्यात्मिक क्रांति परमात्मा को भोगो

प्रश्न-सार

  1. अभिनय में क्या झूठ समाहित न हो जाएगा?
  2. कुशल अभिनेता भी दुखों और परेशान क्यों रहते हैं?
  3. अभिनय क्या प्रेम को झूठा न बना देगा?
  4. जयप्रकाश नारायण की पूर्णक्रांति नर कुछ कहें। आपकी दृष्टि में पूर्णक्रांति का क्या अर्थ है?
  5. भोगवादी या संतों के इस वचन में क्या भिन्नता है कि पल-पल जीओ; खाओ; पीओ, मोज करो?
  6. घर वालों की आज्ञा लि बिना संन्यास कैसे लूं?

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नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन

मुक्ति का सूत्र

सारसूत्र:

बहु बैरी घट में बसैं, तू नहिं जीतत कोय।

निस-दिन घेरे ही रहैं, छुटकारा नहिं होय।।

या मन के जाने बिना, होय न कबहूं साध।

जक्त-वासना ना छुटै, लहै न भेद अगाध।।

सरकि जाय बिष ओरहिं, बहुरि न आवै हाथ।

भजन माहिं ठहरै नहीं, जो गहि राखूं नाथ।।

इन्द्री पलटैं मन विषै, मन पलटै बुधि माहिं।

बुधि पलटै हरि-ध्यान में, फेरि होय लय जाहिं।।

तन मन जारै काम हीं, चित कर डांवाडोल।

धरम सरम सब खोय के, रहै आप हिय खोल।।

मोह बड़ा दुख रूप है, ताकूं मारि निकास।

प्रीत जगत की छोड़ दे, जब होवै निर्वास।।

जग माहीं ऐसे रहो, ज्यों अम्बुज सर माहिं।

रहै नीर के आसरे, जल छूवत नाहिं।।

जग माहीं ऐसे रहो, ज्यों जिहवा मुख माहिं।

घीव घना भच्छन करै, तो भी चिकनी नाहिं।।

जा घट चिन्ता नागिनी, ता मुख जप नहिं होय।

जो टुक आवै याद भी, उहीं जाय फिर खोय।। Continue reading “नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-09)”

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन

संत क्यों बोलते हैं परमात्मा यानी क्या ?

भक्त की आकांक्षी हृदय की भाषा ध्यान और प्रेम विरह

प्रश्न-सार:

  1. सत्य कहा नहीं जा सकता है, फिर भी संत क्यों बोलते हैं?
  2. परमात्मा यानी क्या?
  3. भक्त की आधारभूत आकांक्षा क्या है?
  4. आनन्द ब. रहा है–और पीड़ा भी। यह ब.ते प्रेम का चिह्न है–या पागलपन है कोरा?
  5. जैन संस्कारों में पली हूं लेकिन ध्यान में कृष्णमय रास में डूब जाती हूं। ऐसा क्यों होता है?
  6. भक्त की विरह-दशा के संबंध में कुछ कहें।

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नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन

गुरु-कृपा-योग

सारसूत्र:

किसू काम के थे नहीं, कोइ न कौडी देह।

गुरु सुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।

सीधे पलक न देखते, छूते नाहीं छांहिं।

गुरु सुकदेव कृपा करी, चरनोदक ले जाहिं।।

बलिहारी गुरु आपने, तन मन सदके जावं।

जीव ब्रह्म छिन में कियो, पाई भूली ठावं।।

सतगुरु मेरा सूरमा, करै शब्द की चोट।

मारै गोला प्रेम का, है भ्रम्म का कोट।।

सतगुरु शब्दी तेग है, लागत दो करि देहि।

पीठ फेरि कायर भजै, सूरा सनमुख लेहि।।

सतगुरु शब्दी तीर है, कीयो तन मन छेद।

बेदरदी समझै नहीं, विरही पावै भेद।। Continue reading “नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-07)”

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

पात्रता का अर्जन प्रार्थना कैसी हो एकरसता यानी परमात्मा संन्यासी कौन

प्रश्न-सार

  1. प्रभु-कृपा से ही प्रभु-प्राप्ति होती है, तो क्या प्रभु-प्राप्ति के लिए किया गया मनुष्य का श्रम व्यर्थ है?
  2. हमारी प्रार्थना अनसुनी क्यों रह जाती है?
  3. एकरसता यानी क्या?
  4. रजनीश का संन्यासी कैसा हो?

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नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

भक्ति की कीमिया

सासूत्र:

जागै न पिछलै पहर, ताके मुखड़े धूल।

सुमिरै न करतार कूं, सभी गवाधै मूल।।

पिछले पहरे जागि करि, भजन करै चित लाय।

चरनदास वा जीव की, निस्चै गति ह्नै जाय।।

पहिले पहरे सब जगैं, दूजे भोगी मान।

तीजे पहरे चोर ही, चैथे जोगी जान।।

जो कोई विरही नाम के, तिनकूं कैसी नींद।

सस्तर लागा नेह का, गया हिए कूं बींध।। Continue reading “नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-05)”

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

सदगुरुओं की निंदा ध्यान और साक्षीभाव विचारो पर नियंत्रण ज्वलंत -यास

प्रश्न-सार

  1. सदगुरुओं की निंदा क्यों की जाती है?
  2. क्या बिना ध्यान के साक्षीभाव को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता
  3. विचारों पर नियंत्रण कैसे हो
  4. अपनी बातें हमारा अनुभव कैसे बनें

 

पहला प्रश्नः आप अक्सर कहते हैं कि यह जगत् एक प्रतिध्वनि बिंदु है जहां से हमारे पास वही सब लौट आता है जो हम उसे देते हैं। प्रेम को प्रेम मिलता है और घृणा का घृणा। यदि ऐसा ही है तो क्यों बुद्ध और महावीर को यातनाएं दी गई क्यों ईसा और मंसूर की हत्या की गई और क्यों यहां आपको झूठे लांछन निंदा और गालियां मिल रही हैं और क्या आप जैसों से बस कर भी निश्छल प्रेम और आशीष देने वाले लोग इस जगत को मिल सकते हैं

प्रेम के प्रत्युत्तर में प्रेम और घृणा के प्रत्युत्तर में घृणा यह जगत का सामान्य नियम है। लेकिन सदगुरु सामान्य नियम के भीतर नहीं इसीलिए सदगुरु है। सामान्य नियम के भीतर नहीं है क्योंकि संसार के भीतर नहीं है। संसार में हो कर भी संसार के बाहर है। इसलिए जो नियम सामान्यतया काम करता है वह नियम सदगुरु के लिए काम नहीं करेगा। Continue reading “नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-04)”

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

जग माहीं न्यारे रहौ

सारसूत्र:

गुरु कहै सो कीजिए करै सो कीजै नाहिं।

चरनदास की सीख सुन यही राख मन माहिं।।

अब के चूके चूक है फिर पछतावा होय।

जो तुम जक्त न छोड़िहौ जन्म जायगो खोय।।

जग माहीं न्यारे रहौ लगे रहौ हरिध्यान।

पृथिवी पर देही रहै परमेसुर में प्रान।।

सब सूं रख निरवैरता गहो दीनता ध्यान।

अन्त मुक्ति पद पाइहौ जग में होय न हानि।। Continue reading “नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-03)”

नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

प्रयास और प्रसाद का मिलन आसुंओं की अर्चना राख ही राख है प्रभु-प्रसाद की कुंजी

प्रश्न-सार:

  1. एक धारणा है कि परमात्मा मनुष्य की देह धर कर अवतरित होता है।
  2. ध्यान में और प्रवचन के समय मुझे नाद सुनाई पड़ता है और शरीर में भूकंप आ जाता है। यह क्या है?
  3. संसार राख ही राख है, फिर क्या बात है कि इस राख की ढेर पर ही अरबो लोग अपनी जिंदगी गुजार देते हैं?
  4. मन कभी-कभी निर्लिप्त सा मालुम देता है, और उस क्षण आनंद और प्रसन्नता का अनुभव होता है। ये क्षण कैसे लंबे हों?

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नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-01)

नहीं सांझ नहीं भोर-(चरण दास)

ओशो जी द्वारा संत चरणदास के वचनों पर बोले गये दस अमृत प्रवचनों का संकलन जो ओशो आश्रम पूना में दिनांक 11-09-1977 से 20-09-1977 तक बोले गये थे।

पहला प्रवचन

भक्त का अतंर्जीवन

सारसूत्र:

अजब फकीरी साहबी, भागन सूं पैय।

प्रेम लगा जगदीश का, कछु और न चैये।।

राव रंक सूं सम गिनै, कछु आसा नाहीं।

आठ पहर सिमिटे रहैं, अपने ही माहीं।।

वैर प्रीत उनके नहीं, नहिं वाद-विवादा।

रूठे-से जग में रहैं, सुनैं अनहद नादा।।

जो बोलैं सौ हरिकथा, नहिं मौनै राखैं।

मिथ्या कडुवा दुरबचन, कबहूं नहिं भाखैं।। Continue reading “नहीं सांझ नहीं भोर-(प्रवचन-01)”

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