ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-04)

संन्यास, सत्य और पाखंड-(प्रवचन-चौथा)

चौथा प्रवचन; दिनांक १४ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, जीवन की शुरुआत से सभी को यही शिक्षा मिलती रहती है कि सच बोलो। अच्छे काम करो। हिंसा न करो। पाप न करो। लेकिन हम संन्यासी तो इसी रास्ते पर जाने की कोशिश करते हैं, फिर हमारा विरोध क्यों? इस विरोधाभास को समझाने की कृपा करें।

रजनीकांत!

मनुष्यजाति आज तक विरोधाभास में ही जी रही है। इस विरोधाभास को ठीक से समझो, तो मुक्त भी हो सकते हो।

विरोधाभास यह है कि जो तुम से कहते हैं–सत्य बोलो, वे भी सत्य नहीं बोल रहे हैं। उनका जीवन कुछ और कहता है। उनकी वाणी कुछ और कहती है। उनके व्यक्तित्व में पाखंड है। और बच्चों की नजरें बड़ी साफ होती हैं। Continue reading “ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-04)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–08)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-आठवां-(योग: कर्म की कुशलता)

प्रश्न: क्या ध्यान का परिणाम केवल धर्म-जीवन के लिए ही उपयोगी है अथवा उसका परिणाम रोज के व्यावहारिक जीवन में भी उपयोगी है? कृपया यह समझाएं।

मूलतः तो धर्म के लिए ही उपयोगी है। लेकिन धर्म व्यक्ति की आत्मा है। और उस आत्मा में परिवर्तन हो, तो व्यवहार अपने आप बदलता ही है। भीतर बदले, तो बाहर बदलाहट आती है। वह बदलाहट लेकिन छाया की भांति है, परिणाम की भांति है। वह पीछे चलती है। जैसे हम किसी से पूछें कि कोई आदमी दौड़े, तो आदमी ही दौड़ेगा या उसकी छाया भी दौड़ेगी? ऐसा ही यह सवाल है। आदमी दौड़ेगा तो छाया तो दौड़ेगी ही। हां, इससे उलटा नहीं हो सकता कि छाया दौड़े तो आदमी दौड़ेगा क्या? पहली तो बात छाया दौड़ नहीं सकती। और अगर दौड़े भी, तो भी आदमी के उसके पीछे दौड़ने का उपाय नहीं है। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–08)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–07)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-सातवां-(शक्ति के साथ आनंद भी)

इसके पहले कि हम आज की आखिरी बैठक में प्रवेश करें, ध्यान के संबंध में दो-चार बातें पूछी गई हैं, वह समझ लेना उचित होगा।

एक मित्र ने पूछा है कि घर जाकर हम कैसे इस विधि का उपयोग कर सकेंगे? पास-पड़ोस के लोगों को आवाज, चिल्लाना अजीब सा मालूम होगा। घर के लोगों को भी अजीब सा मालूम होगा।

होगा ही। लेकिन घर के लोगों से भी प्रार्थना कर लें, पास-पड़ोस के लोगों से भी प्रार्थना कर आएं कि एक घंटा मैं ऐसी विधि कर रहा हूं। इस विधि से चिल्लाना, रोना, हंसना, नाचना होगा। आपको तकलीफ हो तो माफ करेंगे। और घर के लोगों को भी निवेदन कर दें। तो ज्यादा अड़चन नहीं होगी।

और एक-दो दिन में लोग परिचित हो जाते हैं, फिर कठिनाई नहीं होती। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–07)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–06)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-छट्ठवां-(यही है मार्ग प्रभु का)

मेरे प्रिय आत्मन्!

इसके पहले कि हम ध्यान के प्रयोग में संलग्न हों, एक-दो बातें आपसे कह देनी उचित हैं। आज शिविर का आखिरी दिन है। दो दिनों में बहुत से मित्रों ने पर्याप्त संकल्प का प्रमाण दिया है। शायद थोड़े से ही लोग हैं जो पीछे रह गए हैं। आशा करता हूं कि आज वे भी पीछे नहीं रह जाएंगे। एक-दो मित्र ऐसी स्थिति में आ गए हैं कि आपको परेशानी मालूम पड़ी होगी। लेकिन उससे परेशान न हों। मनुष्य के भीतर नई शक्तियों का जन्म होता है तो सब अस्तव्यस्त और अराजक हो जाता है। इसके पहले कि नई व्यवस्था उपलब्ध हो, बीच में एक संक्रमण का समय होता है, तब करीब-करीब उन्माद की अवस्था जैसी मालूम पड़ती है। लेकिन वह उन्माद नहीं है, वह शिविर के साथ ही विदा हो जाएगा। उससे कोई चिंता न लें। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–06)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–05)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-पांचवां-(ध्यान का अनिवार्य तत्व: होश)

बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि रात्रि का ध्यान का प्रयोग क्या एकाग्रता का ही प्रयोग नहीं है? और इस प्रयोग के क्या परिणाम होंगे और क्या आधार हैं?

एकटक आंख को खुली रखना, पहले तो संकल्प का प्रयोग है, आंख को बंद नहीं होने देना। आंख को बंद नहीं होने देना, यह संकल्प का प्रयोग है, विल-पावर का प्रयोग है। और अगर चालीस मिनट तक आंख खुली रख सकते हैं, तो इसके बड़े व्यापक परिणाम होंगे। चालीस मिनट मनुष्य के मन की क्षमता का समय है। इसलिए हम स्कूल में, कालेज में चालीस मिनट का पीरिएड रखते हैं। चालीस मिनट जो काम हो सकता है पूरा, फिर वह कितना ही आगे किया जा सकता है। अगर आप चालीस मिनट तक आंख खुली रख सकते हैं, यह छोटा सा संकल्प पूरा हो सकता है, तो इसके बहुत परिणाम होंगे। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–05)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–04)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-चौथा-(अमृत का सागर)

मनुष्य का जीवन बाहर अंधेरे से भरा हुआ है, लेकिन भीतर प्रकाश की कोई सीमा नहीं है। मनुष्य के जीवन की बाहर की परिधि पर मृत्यु है, लेकिन भीतर अमृत का सागर है। मनुष्य के जीवन के बाहर बंधन हैं, लेकिन भीतर मुक्ति है। और जो एक बार भीतर के आनंद को, आलोक को, अमृत को, मुक्ति को जान लेता है, उसके बाहर भी फिर बंधन, अंधकार नहीं रह जाते हैं। हम भीतर से अपरिचित हैं तभी तक जीवन एक अज्ञान है।

ध्यान भीतर से परिचित होने की प्रक्रिया है।

ध्यान मार्ग है स्वयं के भीतर उतरने का। ध्यान सीढ़ी है स्वयं के भीतर उतरने की। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–04)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–03)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)ओशो

प्रवचन-तीसरा-(संकल्प : संघर्ष का विसर्जन)

मेरे प्रिय आत्मन्!

थोड़े से प्रश्न साधकों ने पूछे हैं, उस संबंध में हम बात करेंगे।

एक मित्र ने पूछा है कि संकल्प की साधना में क्या थोड़ा सा दमन, सप्रेशन नहीं आ जाता है? संकल्प की साधना में क्या थोड़ा काय-क्लेश नहीं आ जाता है?

इस संबंध में दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक, कि यदि किसी वृत्ति को दबाने के लिए संकल्प किया है, तब बात दूसरी है। जैसे किसी आदमी को ज्यादा भोजन की आदत है। इस आदत से छुटकारे के लिए अगर उसने उपवास का संकल्प किया है, तब दमन होगा। लेकिन ज्यादा भोजन की न कोई आदत है, न ज्यादा भोजन से लड़ने का कोई खयाल है। तब यदि उपवास का संकल्प किया है तो वह सिर्फ संकल्प है, उसमें दमन नहीं है। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–03)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–02)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-दूसरा-(ध्यान के संबंध में)

मेरे प्रिय आत्मन्!

ध्यान के संबंध में दोत्तीन बातें हम समझ लें, और फिर प्रयोग के लिए बैठेंगे।

एक बात तो यह समझ लेनी जरूरी है, ध्यान में हम सिर्फ तैयारी करते हैं, परिणाम सदा ही हमारे हाथ के बाहर है। लेकिन यदि तैयारी पूरी है, तो परिणाम भी सुनिश्चित रूप से घटित होता है। परिणाम की चिंता छोड़ कर श्रम की ही हम चिंता करें। और परिणाम की चिंता छोड़ कर पूरी चिंता हम अपने श्रम की कर सकें, तो परिणाम भी सुनिश्चित है। लेकिन परिणाम की चिंता में श्रम भी पूरा नहीं हो पाता और परिणाम भी अनिश्चित हो जाते हैं। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–02)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–01)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-पहला–(जीवन के रहस्य की कुंजी)

मेरे प्रिय आत्मन्!

जीवन एक रहस्य है। जिसे हम जीवन जानते हैं, जैसा जानते हैं, वैसा ही सब कुछ नहीं है। बहुत कुछ है जो अनजाना ही रह जाता है। शायद सब कुछ ही अनजाना रह जाता है। जो हम जान पाते हैं वह ऐसा ही है जैसे कोई लहरों को देख कर समझ ले कि सागर को जान लिया। लहरें भी सागर की हैं, लेकिन लहरों को देख कर सागर को नहीं समझा जा सकता। और जो लहरों में उलझ जाएगा वह सागर तक पहुंचने का शायद मार्ग भी न खोज सके। असल में जिसने लहरों को ही सागर समझ लिया, उसके लिए सागर की खोज का सवाल भी नहीं उठता। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–01)”

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