संन्यास, सत्य और पाखंड-(प्रवचन-चौथा)
चौथा प्रवचन; दिनांक १४ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान, जीवन की शुरुआत से सभी को यही शिक्षा मिलती रहती है कि सच बोलो। अच्छे काम करो। हिंसा न करो। पाप न करो। लेकिन हम संन्यासी तो इसी रास्ते पर जाने की कोशिश करते हैं, फिर हमारा विरोध क्यों? इस विरोधाभास को समझाने की कृपा करें।
रजनीकांत!
मनुष्यजाति आज तक विरोधाभास में ही जी रही है। इस विरोधाभास को ठीक से समझो, तो मुक्त भी हो सकते हो।
विरोधाभास यह है कि जो तुम से कहते हैं–सत्य बोलो, वे भी सत्य नहीं बोल रहे हैं। उनका जीवन कुछ और कहता है। उनकी वाणी कुछ और कहती है। उनके व्यक्तित्व में पाखंड है। और बच्चों की नजरें बड़ी साफ होती हैं। Continue reading “ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-04)”