पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-60)

जीवन : अस्‍तित्‍व की एक लीली—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांंक 10 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍न—सार:

1—आपने कहा, मनुष्य एक सेतु है—पशु और परमात्मा के बीच। तो हम इस सेतु पर कहां हैं?

2—कभी आप कहते हैं कि गुरु और शिष्‍य का, प्रेम और प्रेयसी का अंतर्मिलन संभव है। कभी आप कहते हैं कि हम नितांत अकेले है और कोई मिलन संभव नहीं है। कृपया इस विरोधाभाष को समझाये।

3—यदि जीवन अस्‍तित्‍व की एक आनंदपूर्ण लीला है,

तो फिर सभी जीव दुख क्यों भोग रहे हैं?

4—कभी—कभी ऐसा लगता है जैसे कि आप एक स्‍वप्‍न हैं…!

5—ऐसा कैसे है कि मैं अभी भी भटका हुआ हूं….? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-60)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-59)

प्रत्‍याहार—स्‍त्रोत की और वापसी—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

दिनांंक  9 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।

योग—सूत्र: (साधनापाद)

तत: क्षीयते प्रकाशावरणम् ।। 52।।

फिर उस आवरणप का विसर्जन हो जाता है,

तो प्रकाश को ढके हुए है।

धारणासु च योग्‍यता मनस:।। 53।।

और तब मन धारणा के योग्‍य हो जाता है।

स्‍वविषयासम्‍प्रयोगे चित्‍तस्‍वरूपानुकार इवेन्‍द्रियाणां प्रत्‍याहार:।। 54।।

योग का पांचवां अंग है प्रत्‍याहार—स्‍त्रोत पर लौट आना।

यह मन की उस क्षमता की पुनर्स्‍थापना है जिससे

बाह्म विषय जनित विक्षेपों से मुक्‍त हो इंद्रियों वश में हो जाती है।

तत: परमा वश्‍यतोन्‍द्रियाणाम्।। 55।।

फिर समस्‍त इंद्रियों पर पूर्ण वश हो जाता है।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-59)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-58)

ध्‍यान : अज्ञात सागर का आमंत्रण—(प्रवचन—अट्ठहरवां)

दिनांंक  8 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍न—सार: 

1—कई बार आपके प्रवचनों के दौरान मैं ‘छ’ खुली नहीं रख पाता और एकाग्र नहीं हो पाता, और पता नहीं कहां चला जाता हूं, और एक झटके से वापस लौटता हूं। कोई स्मृति नहीं रहती कि मैं कहां रहा! क्‍या मैं कहीं गहरे उतर रहा हूं या बस नींद में जा रहा हूं?

2—आपने कहा कि पतंजलि का योग—सूत्र एक संपूर्ण शास्त्र है।

लेकिन इसमें कहीं भी चुंबन के योग क्यों नहीं आती है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-58)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-56)

साक्षी: परम विवेक—(प्रवचन—सौहलवां)

दिनांंक  6 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍न—सार:

     1—क्‍या कुछ लोग दूसरों की उपेक्षा अधिक मूढ़ होते है?

    2—आत्‍म—विश्‍लेषण और आत्‍म—स्‍मरण के बीच क्‍या फर्क है?

     3—अब प्रवचन के दौरान कई बार आप दबी—दबी हंसी हंसते है?

     4—विजय आनंद की एक फिल्‍म की सफलता के लिए क्‍या आपने आर्शीवाद दिया था?

     5—आत्‍म—स्‍मरण ओर साक्षी के बीच क्‍या भेद है?

     6—कुछ समय तक शुद्ध चेतना का अनुभव करने के बाद क्‍या फिर नीचे गिरना संभव है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-56)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-55)

शुद्धता, शून्‍यता और समर्पण—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांंक  5 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।

योग—सूत्र  (समाधिपाद)

कायेन्‍द्रियसिद्धिपशुद्धिक्षयात्‍तपस:।। 43।।

तपश्‍चर्या अशुद्धियों को मिटा देती है। और इस प्रकार हुई शरीर तथा इंद्रियों की परिपूर्ण शुद्धि के साथ शारीरिक और मानसिक शक्‍तियों जाग्रत होती है।

स्‍वाध्‍यायदिष्‍टदेवतासम्‍प्रयोग:।। 44।।

स्‍वाध्‍याय द्वारा दिव्‍यता के साथ एकत्‍व घटित होता है।

समाधिसिद्धिरीश्‍वरप्रणिधानात्।। 45।।

समाधि का पूर्ण आलोक फलित होता है, ईश्‍वर के प्रति समर्पण घटित होने पर।

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पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-54)

आत्‍म—सुख से परोपकार का जन्‍म–(प्रवचन—चौहदवां)

दिनांंक  4 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—प्रेमपूर्ण हृदय वाला व्‍यक्‍ति स्‍वार्थी कैसे हो सकता है?

2—स्वार्थी होकर भी कोई दूसरों के प्रति सजग हो सकता है या नहीं?

3—निराश होने में क्‍या आपके प्रति निराश होना भी सम्‍मिलित है? बिना आशा के विकास कैसे होता है?

4—आपने कहा कि आप लोगों पर ‘काम’ नहीं करते, तो शिष्‍य बनाने का क्‍या अर्थ है?

 5—सुख पाने के लिए मनुष्‍य पुन: गर्भ को खोजना है, तो क्‍या आप हम शिष्‍यों के लिए एक गर्भ है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-54)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-53)

शरीर और मन की शुद्धता—(प्रवचन—तैरहवां)

दिनांंक  3 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।

‘योग—सूत्र (साधनपाद)

शौचात्‍स्‍वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्ग:।। 40।।

जब शुद्धता उपलब्‍ध होती है, तब योगी में स्वयं के शरीर के प्रति एक जुगुप्सा और दूसरों के साथ शारीरिक संपर्क में आने के प्रति एक अनिच्‍छा उत्पन्न होती है।

सत्‍वशुद्धिसौमनस्‍यैकग्रयैन्‍द्रियजयात्‍मदर्शनयोग्‍यत्‍वानि च।। 41।। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-53)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-52)

कर्तव्‍य नहीं—प्रेम—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांंक  2 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्न—सार:

1—सत्संग—सदगुरु की उपस्थिति में होना—अत्‍यंत महत्वपूर्ण है, तो यदि संभव हो तो क्या आप विश्व भर के अपने सन्‍यासियों को साथ ही रखना पसंद करेंगे?

2—आप विवाह के पक्ष में नहीं है, फिर भी आप अनेक लोगों को विवाह का सुझाव क्‍यों देते हैं?

3—आश्रम में आपके निकट मैं शांत और सुखी हो जाता हूं, लेकिन बाहर निकलते ही सड़क पर बैठे भिखारियों को देख कर दुःखी हो जाता हूं, इस दुख के लिए मैं क्या करूं? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-52)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-51)

योग का आधार—पंच महाव्रत—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

दिनांंक  1 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।

योग—सूत्र (साधनपाद)

अहिंसाप्रतष्‍ठायां तत्‍सन्‍निधौ वैरत्‍याग:।। 35।।

जब योगी सुनिश्चित रूप से अहिंसा में प्रतिष्ठित हो जाता है,

तब जो उसके सान्‍निध्‍य में आते हैं, वे शत्रुता छोड़ देते हैं।

सत्‍यप्रतिष्‍ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।। 36।।

जब योगी सुनिश्चित रूप से सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है,

तब वह बिना कर्म किए भी फल प्राप्‍त कर लेता है।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-51)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-50)

ध्‍यान का स्‍वाद: योग की उड़ान—(प्रवचन—दसवां)

दिनांंक  10 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—क्‍या यह बहुत शुभ संकेत है कि पूछने के लिए कोई प्रश्न न रहे?

2—ऐसा कहा जाता है कि मनुष्यता पर महासंकट की घड़ी आती है, तब महाशुभ भी संभव होती। क्‍या आपके निकट आज हमें वही आज हमें वही अवसर मिल रहा है?

3—गंदी के बुद्धत्व के लिए किया गया प्रयास कैसे झु० हो सकेगा?

4—विकास का वह कौन सा बिंदु है जहां रेचन छोड़ा जा सकता है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-50)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-49)

योग का दूसरा चरण: अंतस शोधन—(प्रवचन—नौवां)

दिनांंक  9 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।

योग—सूत्र (साधनापाद)  

शौचसंतोषतप: स्‍वाध्‍यायेश्‍वरप्रणिधानानि नियमा:।। 32।।

शुद्धता, संतोष, तप, स्‍वाध्‍याय और ईश्‍वर के प्रति समर्पण—

ये नियम पूरे करने होते है।

वितर्कबाधने प्रतिपक्षभानम्।। 33।।

जब मन अशांत हो असद् विचारों से, तो मनन करना विपरीत विचारों पर।

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पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-48)

एक सार्वभौम धार्मिकता की तैयारी—(प्रवचन—आठवां)

दिनांंक  8 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍न—सार:

1—ऐसा क्‍यों है कि करने में तो तनाव रहता ही है न करने में भी तनाव रहता है?

2—कृपा करके क्‍या आप मुझे वचन देंगे कि इस जीवन में मैं जागने से चूकूंगा नहीं—और आप मेरे अंतिम गुरु होंगे?

3—क्‍या सभी मन एक ही तत्‍व से बने होते है—मूढता से?

4—आपके आश्रम की व्‍यवस्‍था केवल स्‍त्रियों के हाथ में क्‍यों है?

5—आप आनंदबांट रहे है, लेकिन इस दुःखी दुनियां में लेने वाले इतने कम क्‍यों है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-48)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-47)

पहले शुद्धता—फिर शक्‍ति—(प्रवचन—सातवां)

दिनांंक  7 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।

योग—सूत्र   (साधनपाद)

अहिंसासत्‍यास्‍तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:।। 30।।

योग के प्रथम चरण यम के अंतर्गत आते है ये

पांचव्रत: अहिंसा, सत्‍य, अस्‍तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।

जातिदेशकालसमयानवच्‍छिन्‍ना: सार्वभौमा महाव्रतम।। 31।।

ये पाँच व्रत बनाते है एक महाव्रत जो कि फैला हुआ है

जाति, स्‍थान, समय और स्‍थिति की सीमाओं से परे

संबोधि की सातों अवस्‍थाओ तक।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-47)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-46)

ऊर्जा का रूपांतरण—(प्रवचन—छट्ठवां)

दिनांंक  6 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्न—सार:

1—आप हमारे लिए कौन सा मार्ग उदघाटित कर रहे हैं?

2—आपके पास आकर ध्यानमय जीवन सरल और स्वाभाविक हो गया है। लेकिन मैंने बुद्धत्व की’ आशा छोड़ दी है। क्या ये दोनों बातें विरोधाभासी हैं?

3—क्या अस्‍तित्‍व मुझसे प्रेम करता है?

4—क्या दमन के मार्ग से चेतना की ऊंचाइओं को छूना संभव है?

5—झेन की सहजता और योग का अनुशासन क्या कहीं आपस में मिलते हैं? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-46)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-45)

योग के आठ अंग—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांंक  5 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।

योग—सूत्र’ (साधनपाद)

योगाड्गानुष्‍ठानात् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्‍तिरा विवेकख्‍याते:।। 28।।

योग के विभिन्‍न अंगों के अभ्‍यास द्वारा

अशुद्धि के क्षय होने से आत्‍मिक प्रकाश का अविर्भाव होता है,

जो कि सत्‍य का बोध बन जाता है।

यमनियमासनप्राणायामप्रत्‍याहारधारणाध्‍यानसमाधयोउष्‍टावाड्गानि।। 29।।

यम, नियम,आसन,प्राणायन, प्रत्‍याहार, धारणा, ध्‍यान और समाधि।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-45)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-44)

पहेली : बुद्धत्‍व में छलांग की—(प्रवचन—चौथी)

दिनांंक  4 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍न सार: 

1—बुद्धत्व यदि ऊर्ध्‍वगमन है, तो नीचे से ऊपर छलांग कैसे संभव है?

2—अचानक घटित होने वाले बुद्धत्‍व के लिए शिष्‍य को गुरु के पास वर्षों—वर्षों तक क्यों रहना पड़ता है?

3—बीज छलांग लगाकर कर फूल नहीं बन सकता, तो व्यक्ति एक छलांग में बुद्ध कैसे बन

सकता है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-44)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-43)

ज्ञान नहीं—जागरण—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांंक  3 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।

योग—सूत्र: (साधनापाद)

तदाभावात्‍संयोगाभावो हानं तद्ददृशे: कैवल्यम्।। 25।।

अज्ञान के विर्स्‍जन द्वारा द्रष्टा और दश्य का संयोग विनष्ट किया जा सकता है।

यहीं मुक्‍ति का उपाय है।

विवेकख्‍यातिरविप्‍लवा हानोपाय:।। 26।।

सत्‍य और असत्‍य के बीच भेद करने के सतत अभ्‍यास द्वारा

अज्ञान का विसर्जन होता है।

तस्‍य सप्‍तधा प्रान्‍तभूमि: प्रज्ञा।। 27।।

 संबोधि की परम अवस्‍था उपलब्‍ध होती है सत चरणों में।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-43)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-42)

साधना, बुद्धत्‍व और सहभागिता—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांंक  2 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍न सार:

1—बुद्ध पुरुष दैनंदिन जीवन में समग्ररूपेण कैसे भाग लेते हैं?

2—तामसिक, राजसिक और सात्‍विक व्यक्तियों के लिए——कौन सी ध्यान विधियां अनुकूल होती है? आप हमेशा सक्रिय ध्यान की विधि ही क्‍यों देते हैं?

3—बुद्धत्व व्‍यक्‍तिगत है, तो क्या बुद्धत्व के बाद भी व्‍यक्‍तित्‍व बना रहता है?

4—हम कहां से आए और हमारा होना कैसे घटित हुआ? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-42)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-41)

योग है परम मिलन—(प्रवचन—पहला)

दिनांंक  1 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।

योग—सूत्र  (साधनपाद)

प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्‍द्रियात्‍मकं भोगापवर्गार्थं दृश्‍यम्।।18।।

दृश्य, जो कि प्राकृतिक तत्‍वों से और इंद्रियों से संघटित होता है,

उसका स्वभाव होता है—प्रकाश थिरता सक्रियता और निष्‍क्रियता।

और द्रष्टा को अनुभव उपलब्ध हो तथा अंतत: मुक्‍ति फलित हो, इस हेतु यह होता है।

विशेषाविशेषलिड्गमात्रालिड्गानि गुणपर्वाणि।।19।।

ये तीन गुण–प्रकाश (थिरता) सक्रियता और निष्‍क्रियता

इनकी चार अवस्‍थाएं हैं : निश्चित, अनिश्चित, सांकेतिक और अव्यक्त। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-41)”

पतंजलि: योग-सूत्र (भाग-03)-ओशो

पतंजलि—(योग—सूत्र) भाग—तीन

(‘योग: दि अल्‍फा एक दि ओगेगा’ शीर्षक से ओशो द्वारा अंग्रेजी में दिए गए सौ अमृत प्रवचनों में सक तृतीय बीस प्रवचनों का हिंदी अनुवाद)

र्म की जड़ें साधना में है, योग में है। योग के अभाव में साधु का जीवन या तो मात्र अभिनय हो सकता है। या फिर दमन हो सकता है। दोनों ही बातें शुभ नहीं है।

योग न भोग है, न दमन है। वह तो दोनों जागरण है। अतियों के द्वंद्व में से किसी को भी नहीं पकड़ना है। द्वंद्व का कोई भी पक्ष द्वंद्व के बाहर नहीं है। उसके बाहर जाना उनमें से किसी को भी चून कर नहीं हो सकता। जो उनमें से किसी को भी चुनता है और पकड़ता है। वह उसके द्वारा ही चुन और पकड़ लिया जाता है। Continue reading “पतंजलि: योग-सूत्र (भाग-03)-ओशो”

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