पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

अहंकार का भ्रम

मेरे प्रिय आत्मन्!

कोई दो हजार वर्ष पहले यूनान में एक फकीर था, डायोजनीज। बड़ा अजीब फकीर था। आधी जिंदगी हाथ में एक लालटेन लिए दिन की दोपहरी में घूमा करता था! लोग उससे पूछते कि हाथ में लालटेन क्यों लिए हो, जब कि सूरज आकाश में प्रकाशित है और पृथ्वी रोशनी से भरी है। तो वह कहता कि हाथ में लालटेन लिए इसलिए घूमता हूं ताकि मैं किसी मनुष्य को खोज सकूं। लेकिन भरी दोपहरी में लालटेन लेकर घूमने से भी मुझे कोई मनुष्य नहीं मिला। फिर उसने नगर छोड़ दिया और एक छोटी सी गुफा में एक कुत्ते के साथ निवास करने लगा। एक रात उसका जीवन मैं पढ़ता था। वह किताब बंद करके मैं सो गया और मैंने एक सपना देखा। Continue reading “पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रवचन-05)”

पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रवचन-04)

प्रवचन -चौथा -(ओशो)

स्वयं का साक्षात

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक बहुत पुराने नगर में एक बहुत पुराना चर्च था। उस चर्च की दीवालें गिरनी शुरू हो गई थीं। उस चर्च के नीचे खड़ा होना खतरनाक था। उस चर्च में आने वाले लोगों ने धीरे-धीरे आना बंद कर दिया। उस बड़े भवन के पास से निकलना भी खतरे की बात थी। वह भवन किसी भी क्षण गिर सकता था। हवाओं के छोटे झोंके भी उस भवन को कंपा देते थे और वर्षा में जब बादल गरजते और बिजलियां चमकतीं, तो नगर के लोग बार-बार सोच लेते कि शायद वह चर्च गिर गया है।

अंततः उस चर्च के संयोजकों, संरक्षकों की कमेटी की बैठक हुई, उन्होंने कुछ प्रस्ताव पास किये। उनका पहला प्रस्ताव था कि पुराने चर्च को गिरा दिया जाना चाहिए। सभी इस पर सहमत थे। उनका दूसरा प्रस्ताव था कि नया चर्च बनाया जाना चाहिए। इससे भी सभी लोग सहमत थे। Continue reading “पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रवचन-04)”

पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

होश से क्रांति

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य कैसे द्वंद्व में, कैसे विरोध में, कैसी जड़ता में ग्रस्त है! किन कारणों से मन की, मनुष्य की पूरी संस्कृति की यह दुविधा है?

पहली बातः हम जब तक जीवन की समस्याओं को सीधा देखने में समर्थ नहीं होंगे और निरंतर पुराने समाधानों से, पुराने सिद्धांतों से अपने मन को जकड़े रहेंगे, तब तक कोई हल, कोई शांति, कोई आनंद या कोई साक्षात्कार असंभव है। आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति इसके पहले कि जीवन सत्य की खोज में निकले, अपने मन को समाधानों और शास्त्रों से मुक्त कर ले। उनका भार मनुष्य के चित्त को ऊध्र्वगामी होने से रोकता है। इन समाधानों से अटके रहने के कारण दुविधा पैदा होती है। Continue reading “पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रवचन-03)”

पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

मनुष्य विक्षिप्त क्यों है?

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक प्रदर्शनी में बहुत भीड़-भाड़ थी। बहुत नई-नई चीजें देखने को आई थीं। बहुत लोग उस प्रदर्शनी को देखने गये थे। एक आदमी एक कंगारू को भी लाया था प्रदर्शनी में दिखाने को। उसके झोपड़े के बाहर भी बड़ी भीड़ थी। लेकिन एक परिवार बड़े विचार में पड़ा था। पति बहुत चिंतित था, पत्नी भी बहुत चिंतित थी। वे सभी देखना चाहते थे। लेकिन उनके अठारह बच्चे और वे दो…कुल बीस थे। दस नये पैसे टिकट थी। लेकिन फिर भी बीस लोंगो के दो रुपये हो जाते थे। जो आदमी कंगारू प्रदर्शित कर रहा था, वह भी उनकी परेशानी देख कर उनके पास आया और उसने कहाः आप बड़े परेशान हैं? Continue reading “पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रवचन-02)”

पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रवचन-01) 

पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रश्नोत्तर)

पहला-प्रवचन-(ओशो)

ब्रह्मचर्य और समाधि

मेरे प्रिय आत्मन्!

सभी महत्वपूर्ण चीजों के संबंध में भ्रांतियां हो जाती हैं। जो भी व्यर्थ है, उसके संबंध में कभी भ्रांति नहीं होती। जो बात जितनी सार्थक है, उतनी भ्रांति पैदा होती है। उसका कारण यह है कि जो जितनी व्यर्थ है, हमारी सबकी समझ के भीतर होती है। और जो जितनी सार्थक है, हमारी समझ के पार पड़ जाती है, बात आगे निकल जाती है। तो जमीन के संबंध में कोई बात हो, तो भ्रांति नहीं होगी; आकाश के संबंध में बात हुई, तो भ्रांति शुरू हो जाती है। तो जितनी ऊंची बात है, उतनी मिसअंडरस्टैंडिंग होनी अनिर्वाय है। क्योंकि हम तो वहीं से पकड़ सकते हैं, जहां हम हैं। और हम वही समझ सकते हैं, जो हम समझ सकते हैं। जो हमारी समझ के पार है, उसको भी समझने की कोशिश करते हैं, इसी से भ्रांति पैदा होती है। Continue reading “पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रवचन-01) “

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