मनुष्यत्व : बढ़ते हुए होश की धारा—(प्रवचन—सत्ताइसवां)
दिनांक 12 सितम्बर,1972, द्वितीय पर्युषण व्याख्यानमाला, पाटकर हाल, बम्बई।
चतुरंगीय—सूत्र :
चत्तारि परमंगाणि, टुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं।।
कम्माणं तु पहाणए, आणुपुव्वी क्याई उ। जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययन्ति्र मणुस्सयं।।
माणुसत्तम्मि आयाओं, जो धम्मं सोच्च सद्हे। तवस्सी वीरियं लडूं, संबुडे निद्धृणे स्व।।
संसार में जीवों को इन चार श्रेष्ठ अंगों का प्राप्त होना बड़ा दुर्लभ है—मनुष्यत्व, धर्म—श्रवण, श्रद्धा और संयम के लिए पुरुषार्थ। Continue reading “महावीर वाणी-(प्रवचन-27)”