चेतना का सूर्य-(प्रवचन-06)

प्रवचन-छट्ठवां

परम जीवन का सूत्र

जिस दिन हमें अपने स्वयं को पूरी सम्पदा का, अपने स्वयं के पूरे सुख की पूरी शक्ति का पता चलता है। उस दिन यह खतरा है कि हम भूल जायें कि यह स्व बड़ी छोटी भूमि हें, यह बड़ी अनन्त भूमि का एक छोटा-सा टुकड़ा है। यह ऐसे ही है, जैसे किसी ने मिट्टी के घड़े में पानी के भीतर पानी है सागर की ही। लेकिन सागर की, उस मिट्टी के घड़े बाहर जो सागर है, उससे इसकी तुलना!

 –… इसी अध्याय से

योग का आठवां सूत्र। सातवें सूत्र में मैंने आपसे कहा, चेतन जीवन के दो रूप हैं स्व-चेतन कान्शस और स्व-अचेतन, सेल्फ अनकान्शस। आठवां सूत्र है स्व-चेतना से योग का प्रारम्भ होता है और स्व के विसर्जन से अन्त। स्व-चेतन होना मार्ग है, स्वयं से मुक्त हो जाना मंजिल है। स्वयं के प्रति होश से भरना साधना है और अन्ततः होश ही रह जाये, स्वयं खो जाये, यह सिद्धि है। Continue reading “चेतना का सूर्य-(प्रवचन-06)”

चेतना का सूर्य-(प्रवचन-05)

प्रवचन-पांचवां-(संन्यासी की दिशा)

आने वाले पचास वर्षों में दुनिया में बहुत-सी संन्यास परम्पराएं एकदम विदा हो जायेगी। चीन में एक बड़ी बौद्ध परम्परा थी संन्यास की, वह एकदम विदा हो गयी। तिब्बत से लामा विदा हो रहे हैं, वे बच नहीं सकते। रूस में भी बहुत पुराने ईसाई फकीरो की परम्परा थी, वह नष्ट हो गयी। ओर दुनिया में कहीं भी बचना मुश्किल है। इसलिए मेरी अपनी दृष्टि यह है कि संन्यास जैसा कीमती फूल नष्ट नहीं होना चाहिए। संन्यास की संस्था चाहे विदा हो जाये, लेकिन संन्यास विदा नहीं होना चाहिए।

 … इसी अध्याय से

थोड़े से सवाल हैं, उनके सम्बन्ध में कुछ बातें समझ लेनी उपयोगी हैं। एक मित्र ने पूछा है कि कुछ साधक कुण्डलिनी साधना का पूर्व से ही प्रयोग कर रहे हें। उनको इस प्रयोग से बहुत गति मिल रही है। तो वे इसको आगे जारी रखें या न रखें। उन्हें कोई हानि तो नहीं होगी? Continue reading “चेतना का सूर्य-(प्रवचन-05)”

चेतना का सूर्य-(प्रवचन-04)

प्रवचन-चौथा-(प्रेम का केन्द्र)

अगर दुनिया बहुत होश से भरी हो तो इतने नासमझ आदमी खोजने बहुत मुश्किल होंगे, जो धुएं को भीतर करने और बाहर करने का काम घण्टो करते हो। सिर्फ धुएं को बाहर और भीतर करने के काम को घण्टो करने वाले आदमी खोजना बहुत मुश्किल हो जायेगा। और किसी से आप कहेंगे तो वह कहेगा, मैं कोई पागल तो नहीं हूँ जो धुएं को बाहर और भीतर खींचू। न केवल धुएं को बाहर और भीतर किया जा रहा है, सारी दुनिया चिल्लाती हे, समझाती है कि नुकसान है, उम्र कम होगी, बीमारी होगी, बेहोश, कान कुछ सुनते ही नहीं।

—-… इसी अध्याय से Continue reading “चेतना का सूर्य-(प्रवचन-04)”

चेतना का सूर्य-(प्रवचन-03)

प्रवचन-तीसरा  -( घर क मन्दिर)

आदमी दो ही बातों के चक्कर में जीवन को नष्ट करता है। या तो वह ‘हीनता के बोध’ से पीड़ित होता है, ‘इनफीरिआरिटी’ के बोध से पीड़ित होता है। अभी तो एडलर ने ‘इनफीरिआरिटी कॉम्पलेक्स’ सभी की जबानों पर पहुँचा दिया है। हीनग्रन्थि। या तो व्यक्ति हीनग्रन्थि से पीड़ित होता है और निरन्तर अनुभव करता है कि मैं कछु भी नहीं हूं, न कुछ हूं जैसा के उमर खैयाम की प्रसिद्ध पंक्ति को आपने सुना हागा डस्ट इन टू डस्ट मिट्टी में मिट्टी लौट जाती है और कुछ भी नहीं है।

                                                              इसी अध्याय से

योग के सम्बन्ध में चार सूत्रों की बात मैंने की। आज पांचवें सूत्र पर आपसे बात करना चाहूंगा। योग का पांचवा सूत्र है, जो अणु में है, वह विराट् में भी है। जो क्षुद्र में है, वह विराट् में भी है। जो सूक्ष्म-से-सूक्ष्म में है, वह बड़े-से-बड़े में भी है, जो बूंदों में है, वही सागर में भी है। इस सूत्र की सदा से योग ने घोषण की थी, लेकिन विज्ञान ने अभी-अभी इसका समर्थन किया है। सोचा भी नहीं था कि अणु के भीतर इतनी ऊर्जा, इतनी शक्ति होगी। अत्यंश के भीतर इतना छिपा होगा, न-कुछ के भीतर-कि सब-कुछ का विस्फोट हो सकेगा। Continue reading “चेतना का सूर्य-(प्रवचन-03)”

चेतना का सूर्य-(प्रवचन-02)

चेतना का सूर्य

प्रवचन-दूसरा  जगत एक परिवार

लाओत्से ने एक दिन अपने मित्रों से कहा कि मुझे जिन्दगी में कोई हरा न सका। स्वभावतः उसके मित्र चुप हो गये। उन्होंने पूछा हमें भी बताओ वह राज, वह सीक्रेट कि तुम्हें कोई हरा क्यों नहीं सका? हम भी किसी से हारना नहीं चाहते। पर लाओत्से खिलखिलाकर हंसने लगा और उसने कहा गलत लोगों को मैं सूत्र न बताऊंगा। उन्होंने कहा कैसे गलत हुआ? हमें जरूर बताओ वह मार्ग, जिससे हम भी न हार सके। लाओत्से ने कहा तुम तो हारोगे ही, क्योंकि जो हारना नहीं चाहता, उसने हार को निमन्त्रण दे दिया हमारा सूत्र यही है कि हमे कभी कोई हरा न सका, क्योंकि हमने कभी जीतना ही न चाहा, क्योंकि जो जीतना चाहेगा, वह हारेगा।

                                                           ……इसी अध्याय से Continue reading “चेतना का सूर्य-(प्रवचन-02)”

चेतना का सूर्य-(प्रवचन-01)

प्रवचन-पहला सरल सत्य

एक मूर्तिकार को कोई पूछ रहा था कि तुमने यह मूर्ति बहुत सुन्दर बनायी है तो उसे मूर्तिकार ने कहा-मैंने बनायी नहीं है, मैं तो उस रास्ते से गुजरता था और इस पत्थर में छिपी मूर्ति ने मुझे पुकारा। मैनें जो व्यर्थ पत्थर इसमें जुडे थे, उन्हें अलग कर दिया और मूर्ति प्रगट हो गयी। मैंने कुछ जोड़ा नहीं, कुछ घटाया। बेकार पत्थर जो मूर्ति के चारों तरफ जुड़ें थे, उन्हें मैंने छांट दिया है ओर मूर्ति जो छिपी थी, वह प्रगट हो गयी।

                                                           ……इसी अध्याय से

विगत वर्ष दुनिया के बायोलॉजिरूटों की, जीवशास्त्रियों की एक कान्फ्रेंस में ब्रिटिश बायोलॉजिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष बादकुन ने एक वक्तव्य दिया था। उस वक्तव्य से ही मैं आज की थोड़ी-सी बात शुरू करना चाहता हूँ। उन्होंने उस वक्तव्य में बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कहीं। उन्होंने कहा कि मनुष्य के जीवन का विकास किन्हीं नयी चीजों का संवर्धन नहीं है, नथिंग ऐड इट, वरन्‌ कुछ पुरानी बाधाओं का गिर जाना है। मनुष्य के विकास में कुछ जुड़ा नहीं, मनुद्वय के भीतर जो छिपा है, वह प्रगट होता हैं तो सिर्फ बीच की बाधाएं अलग होती हैं। पशुओं ओर मनुष्य में विचार करें तो मनुष्य के भीतर पशुओं से कुछ ज्यादा नहीं है।, बल्कि कुछ कम है। पशु के ऊपर जो बाधाएं हैं, वह मनुष्य से गिर गयी हैं और पशु के भीतर जो छिपा है, वह मनुष्य से प्रगट हो गया हैं। Continue reading “चेतना का सूर्य-(प्रवचन-01)”

चेतना का सूर्य-(भूमिका)-ओशो

चेतना का सूर्य-ओशो

छः प्रवचन

भूमिका

यह जो जगत है, एक परिवार है। यहाँ सब जुड़ा है, यहाँ टूटा कुछ भी नहीं है। यहाँ पत्थर से आदमी जुड़ा है? जमीन से चाँद-तारे जुड़े हैं, चाँद-तारों से हमारे हृदय की धड़कनें जुड़ी हैं, हमारे विचार सागर की लहरों से जुड़े हैं पहाड़ों के ऊपर चमकने वाली बर्फ हमारे मन के भीतर चलने वाले सपनों से जुड़ी है। यहाँ टूटा हुआ कुछ भी नहीं है, यहाँ सब संयुक्त है, यहाँ सब इकट्ठा है। यहाँ अलग-अलग होने का उपाय नहीं हैं, क्योंकि यहाँ बीच में गैप नहीं है जहाँ से चीजे टूट जायें। टूटा होना सिर्फ हमारा भ्रम है। Continue reading “चेतना का सूर्य-(भूमिका)-ओशो”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें