जे इक गुरु की सिख सुणी—(प्रवचन—चौथा)
पउडी-6
तीरथि नावा जे तिसु भावा, विणु भाणे कि नाइ करी।
जेती सिरठि उपाई वेखा, विणु करमा कि मिलै लई।
मति बिच रतन जवाहर माणिक, जे इक गुरु की सिख सुणी।
गुरा इक देहि बुझाई–
सभना जीआ का इकु दाता, सो मैं बिसरि न जाई।।
पउड़ी: 7
जे जुग चारे आरजा। होर दसूणी होई।।
नवा खंडा विचि जाणीऐ। नालि चलै सभु कोई।।
चंगा नाउ रखाइकै। जसु कीरति जगि लेइ।।
जे तिसु नदर न आवई। त बात न पुछै केइ।।
कीटा अंदरि कीटु करि। दोसी दोसु धरे।।
‘नानक’ निरगुणि गुणु करे। गुणुवंतिआ गुणु दे।।
तेहा कोई न सुझई। जि तिसु गुणु कोई करे।।
एक रात नानक अचानक घर छोड़कर चले गए। किसी को पता नहीं, कहां हैं। खोजा गया साधुओं की संगत में, मंदिरों में–जहां संभावना थी–पर कहीं भी वे मिले नहीं। और तब किसी ने कहा, मरघट की तरफ जाते देखा है। भरोसा किसी को न आया। मरघट अपनी मर्जी से कोई जाता ही कैसे है? मरघट ले जाने के लिए तो चार आदमियों की जरूरत पड़ती है। बामुश्किल कोई जाता है। मरा हुआ आदमी भी जाना नहीं चाहता, तो जिंदा आदमी के तो जाने का कोई सवाल नहीं। लेकिन जब नानक को कहीं नहीं पाया, तो लोग मरघट पहुंचे। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-04)”
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