संन्यास का निर्णय और ध्यान में छलांग—(प्रवचन—बयालीसवां)
‘नव—संन्यास क्या?’:
से संकलित प्रवचनांश
गीता—ज्ञान—यज्ञ पूना।
दिनांक 26 नवम्बर 1971
क्या संन्यास ध्यान की गति बढ़ाने में सहायक होता है?
संन्यास का अAर्थ ही यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र ध्यान होगा। और कोई अर्थ ही नहीं है संन्यास का। जीवन का केंद्र धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंद्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा—ऐसे निर्णय का नाम ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने की प्रक्रिया संन्यास है। वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है—इंद्रियों की, वासनाओं की, इच्छाओं की, उनकी जगह शइक्त की, मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु—मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा ध्यान है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-42)”