मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-42)

संन्यास का निर्णय और ध्यान में छलांग—(प्रवचन—बयालीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?’:  

से संकलित प्रवचनांश

गीता—ज्ञान—यज्ञ पूना।

दिनांक 26 नवम्बर 1971

 क्या संन्यास ध्यान की गति बढ़ाने में सहायक होता है?

संन्यास का अAर्थ ही यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र ध्यान होगा। और कोई अर्थ ही नहीं है संन्यास का। जीवन का केंद्र धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंद्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा—ऐसे निर्णय का नाम ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने की प्रक्रिया संन्यास है। वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है—इंद्रियों की, वासनाओं की, इच्छाओं की, उनकी जगह शइक्त की, मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु—मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा ध्यान है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-42)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-41)

की पूरब श्रेष्ठतम देन : संन्यास—(प्रवचन—इक्‍कतालिसवां)

‘नव— संन्यास क्या?’:   (से संकलित ‘संन्यास: मेरी दृष्टि में’ 🙂

रेडिओ—वार्ता आकाशवाणी बम्बई से प्रसारित

दिनांक 3 जुलाई 1971

नुष्‍य है एक बीज—अनन्त सम्भावनाओं से भरा हुआ। बहुत फूल खिल सकते हैं मनुष्य में, अलग—अलग प्रकार के। बुद्धि विकसित हो मनुष्य की तो विज्ञान का फूल खिल सकता है और हृदय विकसित हो तो काव्य का और पूरा मनुष्य ही विकसित हो जाए तो संन्यास का। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-41)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-40)

सावधिक संन्यास की धारणा—(प्रवचन—चालीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?’:  (से संकलित प्रवचनांश)

साधना—शिविर, लोनावाला (महाराष्‍ट्र)

दिनांक 24 दिसम्‍बर 1976

मेरे मन में इधर बहुत दिन से एक बात निरंत्तर खयाल में आती है और वह यह है कि सारी दुनियां से आनेवाले दिनों में संन्यासी के समाप्त हो जाने की संभावना है। संन्यासी आनेवाले पचास वर्षों के बाद पृथ्वी पर नहीं बच सकेगा, वह संस्था विलीन हो जाएगी। उस संस्था की नीचे की ईंटें तो खिसका दी गयी हैं और अब उसका मकान भी गिर जाएगा। लेकिन संन्यास इतनी बहुमूल्य चीज है कि जिस दिन दुनियां से विलीन हो जाएगा उस दिन दुनियां का बहुत अहित हो जाएगा। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-40)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-39)

संन्यास का एक नया अभियान—(प्रवचन—उन्‍नतालीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?’:

गीता—सत्र से संदर्भ प्रवचनांश

बम्बई प्रथम सप्ताह जनवरी 1971  

एवं ला प्रथम सप्ताह फरवरी 1971

जो भी मैं कह रहा हूं संन्यास के संबंध में ही कह रहा हूं। यह सारी गीता संन्यास का ही विवरण है। और जिस सन्यास की मैं बात कर रहा हूं वह वही संन्यास है जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं—करते

हुए अकर्त्ता हो जाना, करते हुए भी ऐसे हो जाना जैसे मैं करने वाला नहीं हूं। बस संन्यास का यही लक्षण है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-39)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-38)

आनंद व अहोभाव में डूबा हुआ नव—संन्‍यास—(प्रवचन—अडतीसवां)

नव—संन्‍यास क्‍या? :

चर्चा व प्रश्‍नोत्‍तर

अहमदाबाद, दिनांक 6 दिसम्‍बर 1970

भी—अभी साधना मंदिर में जो भजन चल रहा था। उसे देखकर मुझे एक बात खयाल में आती है। वहां सब इतना मुर्दा, इतना मरा हुआ था जैसे जीवन कि कोई लहर नहीं है, सब औपचारिक था—करना है, इसलिए कर लिया। तुम्‍हारा भजन, तुम्हारा नृत्य, तुम्‍हारा जीवन भी औपचारिक न हो, फॉरमल न हो। उदासी के लिए तो नव—संन्यास ‘में जरा भी जगह न हो। क्‍योंकि संन्यास अगर मरा तो उदास लोगों के हाथ में पड़कर मरा। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-38)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-37)

संन्‍यास के फूल: संसार की भूमि में—(प्रवचन—सैंतीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?’:

चर्चा व प्रश्रोत्तर

जबलपुर प्रथम सप्ताह नवम्बर 1970

गवान श्री आपने कहा है कि बाहर से व्यक्तित्व व चेहरे आरोपित कर लेने में सूक्ष्म चोरी है तथा इससे पाखष्ड और अधर्म का जन्म होता है। लेकिन देखा जा रहा है कि आजकल आपके आसपास अनेक नये—नये संन्यासी इकट्ठे हो रहे हैं और बिना किसी विशेष तैयारी और परिपक्‍कता के आप उनके संन्यास को मान्यता दे रहे हैं। क्या इससे आप धर्म को भारी हानि नहीं पहुंचा रहे हैं? कृपया इसे समझाएं? Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-37)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-36)

संन्यास और संसार—(प्रवचन—छत्‍तिसवां)

‘नव— संन्यास क्या?’:  चर्चा एवं प्रश्रोत्तर 

दिनांक 20 अक्टूबर 1970

संसार को छोड़कर भागने का कोई उपाय ही नहीं है, कारण हम जहां भी जाएंगे वह होगा ही, शक्लें बदल सकती हैं। इस तरह के त्याग को मैं संन्यास नहीं कहता। संन्यास मैं उसे कहूंगा कि हम जहां भी हों वहा होते हुए भी संसार हमारे मन में न हो। अगर तुम परिवार में भी हो तो परिवार तुम्हारे भीतर बहुत प्रवेश नहीं करेगा। परिवार में रहकर भी तुम अकेले हो सकते हो और ठेठ भीड़ में खडे होकर भी अकेले हो सकते हो। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-36)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-35)

संन्यास : नयी दिशा, नया बोध—(प्रवचन—पैंतीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?’

से संकलित एक प्रवचन साधना—शिविर मनाली (हिमाचल प्रदेश),

दिनांक 28 सितम्बर 197० रात्रि

पको अपने संन्यास का स्मरण रखकर ही जीना है ताकि आप अगर क्रोध भी करेंगे तो न केवल आपको अखरेगा, दूसरा भी आप से कहेगा कि आप कैसे संन्यासी हैं। साथ ही साथ उनका नाम भी बदल दिया जाएगा। ताकि अन्य पुराने नाम से उनकी जो आइडेन्टिटी, उनका जो तादात्थ था वह टूट जाए। अब तक उन्होंने अपने व्यक्तित्व को जिससे बनाया था उसका केन्द्र उनका नाम है। उसके आस—पास उन्होंने एक दुनियां रचायी, उसको बिखेर देना है ताकि उनका पुनर्जन्म हो जाए। इस नये नाम से वे शुरू करेंगे यात्रा और इस नये नाम के आस—पास अब वे संन्यासी की भांति कुछ इकट्ठा करेंगे। अब तक उन्होंने जिस नाम के आस—पास सब इकट्ठा किया था वह गृहस्थ की तरह इकट्ठा किया था। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-35)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-34)

नव—संन्यास का सूत्रपात—(प्रवचन—चौतीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?’

से संकलित एक प्रवचन साधना—शिविर मनाली (हिमाचल प्रदेश),

दिनांक 28 सितम्बर 197० रात्रि

संन्यास मेरे लिए त्याग नही, आनन्द है। संन्यास निषेध भी नहीं है, उपलब्धि है। लेकिन आज तक पृथ्वी पर संन्यास को निषेधात्मक अर्थों में ही देखा गया है—त्याग के अर्थों में, छोड़ने के अर्थों मे—पाने के अर्थ में नहीं। मैं सन्यास को देखता हूं पाने के अर्थ में। निश्चित ही जब कोई हीरे—जवाहरात पा लेता है तो कंकड़ —पत्थरों को छोड देता है। लेकिन कंकड—पत्थरों को छोडने का अर्थ इतना ही है कि हीर—जवाहरातों के लिए जगह बनानी पड़ती है। कंकड़—पत्थरों का त्याग नहीं किया जाता। त्याग तो हम उसी बात का करते हैं जिसका बहुत मूल्य मालूम होता है। कंकड़—पत्थर तो ऐसे छोड़े जाते है जैसे घर से कचरा फेंक दिया जाता है। घर से फेंके हुए कचरे का हम हिसाब नहीं रखते कि हमने कितना कचरा त्याग दिया। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-34)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-33)

ब्रह्म के दो रूप—(प्रवचन—तैतिसवां)

‘अमृत— वाणी’  (से संकलित सुधा— बिंदु 1971—71)

भी विगत पन्द्रह वर्षों की गहन खोज ने विज्ञान को एक नयी धारणा दी है— ‘एक्सपेंडिंग युनिवर्स’ की, फैलते हुए विश्व की। सदा से ऐसा समझा जाता था कि विश्व जैसा है, वैसा है। नया विज्ञान कहता है, विश्व उतना ही नहीं है जितना है—रोज फैल रहा है, जैसे कि कोई गुब्बारे में हवा भरता चला जाए और गुब्बारा बड़ा होता चला जाए! यह जो विस्तार है जगत का, यह उतना नहीं है, जितना कल था। यह निरंत्तर फैल रहा है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-33)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-32)

जागते—जागते…..(प्रवचन—बत्‍तीसवां)

‘अमृत—वाणी’ (से संकलित सुधा—बिंदु 1970—71)

 1—परमात्मा की चाह नहीं हो सकती

न मांगता रहता है संसार को, वासनाएं दौड़ती रहती हैं वस्तुओं की तरफ, शरीर आतुर होता है शरीरों के लिए, आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए। हमारा जीवन आग की लपट है, वासनाएं जलती हैं उन लपटों में— आकांक्षाएं इच्छाएं जलती हैं। गीला ईंधन जलता है इच्छा का, और सब धुआं— धुआं हो जाता है। इन लपटों में जलते हुए कभी—कभी मन थकता भी है, बेचैन भी होता है, निराश भी, हताश भी होता है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-32)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-31)

भगवत—प्रेम—(प्रवचन—इक्कतीसवां)

‘अमृत—वाणी’ से संकलित  (सुधा—बिंदु 1970—1971)

गत में तीन प्रकार के प्रेम हैं—एक : वस्तुओं का प्रेम, जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर हम वस्तुओं के प्रेम से ही परिचित हैं। दूसरा : व्यक्तियों का प्रेम। कभी लाख में एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं सिर्फ इसलिए कि आपको अपने बचाने की सुविधा रहे कि मैं तो लाख में एक हूं ही। नहीं, इस तरह बचाना मत! Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-31)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-30)

मृत्यु और परलोक—(प्रवचन—तीसवां)

‘अमृत—वाणी’ से संकलित  (सुधा—बिंदु 1970—1971)

स जगत में अज्ञान के अतिरिक्त और कोई मृत्यु नहीं है। अज्ञान ही मृत्यु है, ‘इग्रोरेन्स इज़ डेथ’। क्या अर्थ हुआ इसका कि अज्ञान ही मृत्यु है? अगर अज्ञान मृत्यु है, तो ही ज्ञान अमृत हो सकता है। अज्ञान मृत्यु है, इसका अर्थ हुआ कि मृत्यु कही है ही नही। हम नहीं जानते इसलिए मृत्यु मालूम पड़ती है। मृत्यु असम्भव है। मृत्यु इस पृथ्वी पर सर्वाधिक असम्भव घटना है जो हो ही नहीं सकती, जो कभी हुई नहीं, जो कभी होगी नहीं, लेकिन रोज मृत्यु मालूम पड़ती है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-30)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-29)

जो बोएंगे बीज वही काटेंगे फसल—(प्रवचन—उन्नतीसवां)

‘अमृत वाणी’ से संकलित  (सुधा—बिंदु 1970—71)

किसे हम कहें कि अपना मित्र है और किसे हम कहें कि अपना शत्रु है। एक छोटी—सी परिभाषा निर्मित की जा सकती है। हम ऐसा कुछ भी करते हों, जिससे दुख फलित होता है तो हम अपने मित्र नहीं

कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुख के बीज बोनेवाला व्यक्ति अपना शत्रु है। और हम सब स्वयं के लिए दुख का बीज बोते हैं। निश्‍चित ही बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है, इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-29)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-28)

यह मन क्‍या है?—(प्रवचन—अट्ठाईसवां)

‘अमृत वाणी’  (से संकलित सुधा—बिन्दु 1970—71)

क आकाश, एक स्पेस बाहर है, जिसमें हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं—जहां भवन निर्मित होते हैं और खंडहर हो जाते हैं। जहां पक्षी उड़ते, शून्य जन्मते और पृथ्‍वीयां विलुप्त होती है—यह आकाश हमारे बाहर है। किंतु यह आकाश जो बाहर फैला है, यही अकेला आकाश नहीं है— ‘दिस स्पेस इज नाट द ओनली स्पेस’ —एक और भी आकाश है, वह हमारे भीतर है। जो आकाश हमारे बाहर है वह असीम है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-28)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-27)

मैं मृत्यु सिखाता हूं—(प्रवचन—सत्‍ताईसवा)

‘मै कौन हूं?’ (से संकलित क्रांतिसूत्र 1966 — 67)

मैं प्रकाश की बात नहीं करता है वह कोई प्रश्‍न ही नहीं है। प्रश्‍न वस्तुत: आंख का है। वह है, तो प्रकाश है। वह नहीं है, तो प्रकाश नहीं है। क्या है वह, हम नहीं जानते हैं। जो हम जान सकते है, वही हम जानते हैं। इसलिए विचारणीय सत्ता नहीं, विचारणीय ज्ञान की क्षमता है। सत्ता उतनी ही ज्ञात होती है, जितना ज्ञान जागृत होता है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-27)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-26)

अहिंसा का अर्थ—(प्रवचन—छब्‍बीसवां)

‘मैं कौन हूं?’   से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67

मैं उन दिनों का स्मरण करता हूं जब चित्त पर घना अंधकार था और स्वयं के भीतर कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ता था। तब की एक बात खयाल में है। वह यह कि उन दिनों किसी के प्रति कोई प्रेम प्रतीत नहीं होता था। दूसरे तो दूर, स्वयं के प्रति भी कोई प्रेम नहीं था।

फिर, जब समाधि को जाना तो साथ ही यह भी जाना कि जैसे भीतर सोए हुए प्रेम से अनन्त झरने अनायास ही सहज और सक्रिय हो गए है। यह प्रेम विशेष रूप से किसी के प्रति नहीं था। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-26)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-25)

नीति, भय और प्रेम—(प्रवचन—पच्‍चीसवां)

‘मैं कौन हूं?’  से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67

मैं सोचता हूं कि क्या बोलूं? मनुष्य के संबंध में विचार करते ही मुझे उन हजार आंखों का स्मरण आता है, जिन्हें देखने और जिनमें झांकने का मुझे मौका मिला है। उनकी स्मृति आते ही मैं दुखी हो जाता हूं। जो उनमें देखा है, वह हृदय में काटो की भांति चुभता है। क्या देखना चाहता था और क्या देखने को मिला! आनंद को खोजता था, पाया विषाद। आलोक को खोजता था, पाया अंधकार। प्रभु को खोजता था, पाया पाप। मनुष्य को यह क्या हो गया है? Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-25)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-24)

प्रेम ही प्रभु है—(प्रवचन—चौबीसवां)

‘मैं कौन हूं?’ से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67

मैं मनुष्य को रोज विकृति से विकृति की ओर जाते देख रहा हूं उसके भीतर कोई आधार टूट गया है। कोई बहुत अनिवार्य जीवन—स्नायु जैसे नष्ट हो गए हैं और हम संस्कृति में नहीं, विकृति में जी रहे हैं।

इस विकृति और विघटन के परिणाम व्यक्ति से समष्टि तक फैल गए हैं, परिवार से लेकर पृथ्वी की समग्र परिधि तक उसकी बेसुरी प्रतिध्वनियां सुनाई पड़ रही हैं। जिसे हम संस्कृति कहें, वह संगीत कहीं भी सुनाई नहीं पड़ता है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-24)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-23)

मांगो और मिलेगा—(प्रवचन—तेइसवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966 — 67

ह क्या देख रहा हूं? यह कैसी निराशा तुम्हारी आंखों में है? और क्या तुम्हें शात नहीं है कि जब आंखें निराश होती हैं, तब हृदय की वह अग्रि बुझ जाती है और वे सारी अभीप्साएं सो जाती हैं, जिनके कारण मनुष्य मनुष्य है।

निराशा पाप है, क्योंकि जीवन उसकी धारा में निश्‍चय ही ऊर्ध्वगमन खो देता है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-23)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-22)

आनंद की दिशा—(प्रवचन—बाईसवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र, 1966—67

ह क्या हो गया है? मनुष्य को यह क्या हो गया है? मैं आश्रर्य में हूं कि इतनी आत्म विपन्नता, इतनी अर्थहीनता और इतनी घनी ऊब के बावजूद भी हम कैसे जी रहे हैं!

मैं मनुष्य की आत्मा को खोजता हूं तो केवल अंधकार ही हाथ आता है और मनुष्य के जीवन में झांकता हूं तो सिवाय मृत्यु के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-22)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-21)

अहिंसा क्या है?—(प्रवचन—इक्किसवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67

मैं अहिंसा पर बहुत विचार करता था। जो कुछ उस संबंध में सुनता था, उससे तृप्ति नहीं होती थी। वे बातें बहुत ऊपरी होती थीं। बुद्धि तो उनसे प्रभावित होती थी, पर अन्त: अछूता रह जाता था। धीरे—धीरे इसका कारण भी दिखा। जिस अहिंसा के संबंध में सुनता था, वह नकारात्मक थी। नकार बुद्धि से ज्यादा गहरे नहीं जा सकता है। जीवन को छूने के लिए कुछ विधायक चाहिए। अहिंसा, हिंसा का छोड़ना ही हो, तो वह जीवनस्पर्शी नहीं हो सकती है। वह किसी का छोड़ना नहीं, किसी की उपलब्धि होनी चाहिए। वह त्याग नहीं, प्राप्ति हो, तभी सार्थक है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-21)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-20)

जीवन की अदृश्य जड़ें—(प्रवचन—बीसवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67

किस संबंध में आपसे बातें करूं—जीवन के संबंध में? शायद यही उचित होगा, क्योंकि जीवित होते हुए भी जीवन से हमारा संबंध नहीं है। यह तथ्य कितना विरोधाभासी है? क्या जीवित होते हुए भी यह हो सकता है कि जीवन से हमारा संबंध न हो? यह हो सकता है! न केवल हो ही सकता है, बल्कि ऐसा ही है। जीवित होते हुए भी, जीवन भूला हुआ है। शायद हम जीने में इतने व्यस्त हैं कि जीवन का विस्मरण ही हो गया है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-20)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-19)

समाधि योग—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67

त्य की खोज की दो दिशाएं हैं—एक विचार की, एक दर्शन की। विचार—मार्ग चक्रीय है। उसमें गति तो बहुत होती है, पर गन्तव्य कभी भी नहीं आता। वह दिशा भ्रामक और मिथ्या है। जो उसमें पड़ते हैं, वे मतों में ही उलझकर रह जाते है। मत और सत्य भिन्न बातें है। मत बौद्धिक धारणा है, जबकि सत्य समग्र प्राणों की अनुभूति में बदल जाते हैं। तार्किक हवाओं के रुख पर उनकी स्थिति निर्भर करती है, उनमें कोई थिरता नहीं होती। सत्य परिवर्तित नहीं होता है। उसकी उपलब्धि शाश्वत और सनातन में प्रतिष्ठा देती है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-19)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-18)

जीवन—संपदा का अधिकार—(प्रवचन—अठरहवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67

मैं क्या देखता हूं? देखता हूं कि मनुष्य सोया हुआ है। आप सोए हुए हैं। प्रत्येक मनुष्य सोया हुआ है। रात्रि ही नहीं, दिवस भी निद्रा में ही बीत रहे हैं। निद्रा तो निद्रा ही है, किन्तु यह तथाकथित जागरण भी निद्रा ही है। आंखों के खुल जाने मात्र से नींद नहीं टूटती। उसके लिए तो अंतस का खुलना आवश्यक है। वास्तविक जागरण का द्वार अंतस है। जिसका अंतस सोया हो, वह जाग कर भी जागा हुआ नहीं होता, और जिसका अंतस जागता है वह सोकर भी सोता नहीं है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-18)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-17)

शिक्षा का लक्ष्‍य—(प्रवचन—सतरहवां)

 ‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र

मैं आपकी आंखों में देखता हूं और उनमें घिरे विषाद और निराशा को देखकर मेरा हृदय रोने लगता है। मनुष्य ने स्वयं अपने साथ यह क्या कर लिया है? वह क्या होने की क्षमता लेकर पैदा होता है और क्या होकर समाप्त हो जाता है! जिसकी अन्तरात्मा दिव्यता की ऊंचाइयां छूती, उसे पशुता की घाटियों में भटकते देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी फूलों के पौधे में फूल न लगकर पत्थर लग गए हों और जैसे किसी दीये से प्रकाश की जगह अंधकार निकलता हो। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-17)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-16)

जीये और जानें—(प्रवचन—सोलहवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67

मैं मनुष्य को जड़ता में डूबा हुआ देखता हूं। उसका जीवन बिलकुल यांत्रिक बन गया है। गुरजिएफ ने ठीक ही उसके लिए मानव यंत्र का प्रयोग किया है। हम जो भी कर रहे हैं, वह कर नहीं रहे हैं, हमसे हो रहा है। हमारे कर्म सचेतन और सजग नहीं हैं। वे कर्म न होकर केवल प्रतिक्रियाएं हैं। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-16)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-15)

विचार के जन्म के लिए : विचारों से मुक्ति—(प्रवचन—पंद्रहवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966— 67

विचार—शक्ति के संबंध में आप जानना चाहते हैं? निश्‍चय ही विचार से बड़ी और कोई शक्ति नहीं। विचार व्यक्तित्व का प्राण है। उसके केंद्र मर ही जीवन का प्रवाह घूमता है। मनुष्य में वही सब प्रकट होता है, जिसके बीज वह विचार की भूमि में बोता है। विचार की सचेतना ही मनुष्य को अन्य पशुओं से पृथक भी करती है। लेकिन यह स्मरण रहे कि विचारों से घिरे होने और विचार की शक्ति में बड़ा भेद है— भेद ही नहीं, विरोध भी है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-15)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-14)

मनुष्य का विज्ञान—(प्रवचन—चौदहवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966 — 67

मैं सुनता हूं कि मनुष्य का मार्ग खो गया है। यह सत्य है। मनुष्य का मार्ग उसी दिन खो गया, जिस दिन उसने स्वयं को खोजने से भी ज्यादा मूल्यवान किन्हीं और खोजों को मान लिया।

मनुष्य के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और सार्थक वस्तु मनुष्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। उसकी पहली खोज वह स्वयं ही हो सकता है। खुद को जाने बिना उसका सारा जानना अन्तत: घातक ही होगा। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-14)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-13)

विज्ञान की अग्‍नि में धर्म और विश्वास—(प्रवचन—तेहरवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966 — 67

मैं स्मरण करता हूं मनुष्य के इतिहास की सबसे पहली घटना को। कहा जाता है कि जब आदम और ईव स्वर्ग के राज्य से बाहर निकाले गए तो आदम ने द्वार से निकलते हुए जो सबसे पहले शब्द ईव से कहे थे, वे थे— ‘हम एक बहुत बड़ी क्रांति से गुजर रहे हैं।’ पता नहीं पहले आदमी ने कभी यह कहा था या नहीं, लेकिन न भी कहा हो तो भी उसके मन में तो ये भाव रहे ही होंगे। एक बिलकुल ही अज्ञात जगत में वह प्रवेश कर रहा था। जो परिचित था वह छूट रहा था, और जो बिलकुल ही परिचित नहीं था, उस अनजाने और अजनबी जगत में उसे जाना पड रहा था। अशांत सागर में नौका खोलते समय ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-13)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-12)

धर्म क्‍या है?—(प्रवचन—बारहवां)

‘मैं कौन हूं’

से संकलित क्रांति?सूत्र 1966—67

मैं धर्म पर क्या कहूं? जो कहा जा सकता है, वह धर्म नहीं होगा। जो विचार के परे है, वह वाणी के अंतर्गत नहीं हो सकता है। शास्त्रों में जो हैं, वह धर्म नहीं है। शब्द ही वहां हैं। शब्द सत्य की ओर जाने के भले ही संकेत हों, पर वे सत्य नहीं है। शब्दों से संप्रदाय बनते हैं, और धर्म दूर ही रह जाता है। इन शब्दों ने ही मनुष्य को तोड़ दिया है। मनुष्यों के बीच पत्थरों की नहीं, शब्दों की ही दीवारें हैं। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-12)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-11)

मैं कौन हूं?—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

मैं कौन हूं?

से संकलित क्रांति—सूत्र

1966—67

एक रात्रि की बात है। पूर्णिमा थी, मैं नदी तट पर था, अकेला आकाश को देखता था। दूर—दूर तक सन्नाटा था। फिर किसी के पैरो की आहट पीछे सुनाई पड़ी। लौटकर देखा, एक युवा साधु खडे थे। उनसे बैठने को कहा। बैठे, तो देखा कि वे रो रहे है। आंखों से झर—झर आंसू गिर रहे है। उन्हें मैंने निकट ले लिया। थोडी देर तक उनके कन्धे पर हाथ रखे मैं मौन बैठा रहा। न कुछ कहने को था, न कहने की स्थिति ही थी, किन्तु प्रेम से भरे मौन ने उन्हें आश्वस्त किया। ऐसे कितना समय बीता कुछ याद नहीं। फिर अन्तत: उन्होंने कहा, ‘मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं। कहिए क्या ईश्वर है या कि मैं मृगतृष्णा में पड़ा हूं।’ Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-11)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-10)

ज्योतिष अर्थात अध्‍यात्‍म–(प्रवचन—दसवां)

‘ज्योतिष अर्थात अध्‍यात्‍म :

(प्रश्रोत्तर चर्चा)

बुडलैण्‍ड बम्बई दिनांक 9 जुलाई 1971

कुछ बातें जान लेनी जरूरी हैं। सबसे पहले तो यह बात जान लेनी जरूरी है कि वैज्ञानिक दृष्टि से सूर्य से समस्त सौर्य परिवार का—मंगल का, बृहस्पति का, चंद्र का, पृथ्वी का जन्म हुआ है। ये सब सूर्य के ही अंग हैं। फिर पृथ्वी पर जीवन का जन्म हुआ—पौधों से लेकर मनुष्य तक। मनुष्य पृथ्वी का अंग है, पृथ्वी सूरज का अंग है। अगर हम इसे ऐसा समझे—स्व मां है, उसकी एक बेटी है और उसकी एक बेटी है—उन तीनों के शरीर का निर्माण एक ही तरह के सेल्‍स से, एक ही तरह के कोष्ठों से होता है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-10)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-09)

ज्योतिष : अद्वैत का विज्ञान—(प्रवचन—नौवां)

‘ज्‍योतिष : अद्वैत का विज्ञान’ :

(प्रश्‍नोतर चर्चा) बुडलैंड बम्बईदिनांक 9 जूलाई 1971

 प्रश्‍न–

मैं भगवान श्री के चरणों में निवेदन करूंगा कि हम एक नये विषय पर आप से मार्गदर्शन चाहते हैं और वह विषय है ज्योतिष। यह अछूता विषय है और भगवान श्री के श्रीमुख से इस पर कभी चर्चा नहीं हुई है। मैं भगवान श्री के चरणों में पुन: निवेदन करता हूं कि आज आप ज्योतिष के संबंध में हमें कुछ कहें। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-09)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-08)

मूर्ति—पूजा : से अमूर्त की और—(प्रवचन—आठवां)

‘गहरे पानी पैठ’.

अंतरंग चर्चा बम्बई दिनांक 16 जून 1971

डाक्टर फ्रेंक रोडाल्फ ने अपना पूरा जीवन एक बहुत ही अनूठी प्रक्रिया की खोज में लगाया। उस प्रक्रिया के संबंध में थोड़ा आपसे कहूं तो मूर्ति—पूजा को समझना आसान हो जाएगा। पृथ्वी पर जितनी भी जंगली जातियां हैं, आदिवासी हैं, वे सब एक छोटे—से प्रयोग से सदा से परिचित रहे हैं। उस प्रयोग की खबरें कभी—कभी तथाकथित सभ्य लोगों तक भी पहुंच जाती हैं। रोडाल्फ ने उसी संबंध में अपना पूरा जीवन लगाया और जिस नतीजों पर वह खोजी पहुंचा है वे बड़े अदभुत हैं। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-08)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-07)

तिलक—टीके : तृतीय नेत्र की अभिव्यंजना–(प्रवचन–सातवां)

गहरे पानी पैठ:

(अंतरंग चर्चा वुडलैण्‍ड) बम्‍बई, 12 जून 1971

तिलक—टीके के संबंध में समझने के पहले दो छोटी—सी घटनाएं आपसे कहूं फिर आसान हो सकेगी बात। दो ऐतिहासिक तथ्य हैं।

अट्ठारह सौ अट्ठासी में दक्षिण के एक छोटे—से परिवार में एक व्यक्ति पैदा हुआ। पीछे तो वह विश्वविख्यात हुआ। उसका नाम था रामानुजम, जो बहुत गरीब ब्राह्मण घर का था और बहुत थोड़ी उसे शिक्षा मिली थी। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-07)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-06)

तीर्थ : परम की गुह्म यात्रा—(प्रवचन—छठवां)

‘गहरे पानी पैठ :

(अंतरंग चर्चा, बुडलैण्‍ड) बम्बई दिनांक 26 अप्रैल 1971

 प्रशांत महासागर में एक छोटे—से द्वीप पर, ईस्टर आईलैंड में एक हजार विशाल मूर्तियां है जिनमें कोई भी मूर्ति बीस फीट से छोटी नहीं है। और निवासियों की कुल संख्या दो सौ है। एक हजार, बीस फीट से बड़ी विशाल मूर्तियां हैं! जब पहली दफा इस छोटे—से द्वीप का पता लगा तो बड़ी कठिनाई हुई। कठिनाई यह हुई कि इतने थोड़े से लोगों के लिए……. और ऐसा भी नहीं है कि कभी उस द्वीप की आबादी इससे ज्यादा हो सकी हो। क्योंकि उस द्वीप की सामर्थ्य ही नहीं है इससे ज्यादा लोगों के लिये जो भी पैदावार हो सकती है वह इससे ज्यादा लोगों को पाल भी नहीं सकती। जहां दो सौ लोग रह सकते हों, वहां एक हजार मूर्तियां विशाल पत्थर की खोदने का प्रयोजन नहीं मालूम पड़ता। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-06)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-05)

मंदिर के आंतरिक अर्थ—(प्रवचन—पांचवां)

”मैं कहता आंखन देखी’’ :

अंतरंग भेंट वार्ता बुडलैड़बम्बई दिनांक 12 मार्च 1971

मंदिर तीर्थ तिलक—टीके मूर्ति—पूजा माला मंत्र—तंत्र शाख—पुराण हवन—यज्ञ अनुष्ठान श्राद्ध ग्रह— नक्षत्र ज्योतिष—गणना शकुन—अपशकुन इनका कभी अर्थ थर पर अब व्यर्थ हो गए हैं। इन्हें समझाने की कृपा करें और बताएं कि क्या ये साधना के बाह्य उपकरण थे? रिमेम्बरिग या स्मरण की मात्र बाह्य व्यवस्था थी जो समय की तीव्र गति के साथ पूरी की पूरी उखड़ गयी? अथवा भीतर से भी इसके कुछ अत्तर संबंध थे? क्या समय इन्हें पुन: लेने को राजी होगा? Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-05)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-04)

धर्म की गति और तेज हो!—(प्रवचन—चौथा)

‘मैं कहता आंखन देखी’ :

(अंतरंग भेट वार्ता) बुडलैण्‍ड बम्बई

दिनांक 12 मार्च 1971

भगवान श्री उस समयातीत अंतराल में आत्मा पर क्या घटित होता है वह तो दर्शाया आपने किंतु एक बात रह गयी कि आत्मा का अशरीरी रूप क्या होता है? वह स्थिर है या विचरण करती है और अपनी परिचित दूसरी आत्माओं को पहचानती कैसे है? और उस अवस्था में आपस में कोई डायलाग की संभावना होती है? Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-04)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-03)

आकाश जैसा शाश्वत है सत्‍य—(प्रवचन—तीसरा)

‘मैं कहता आंखन देखी’.

(अंतरंग भेट वार्ता) बुडलैंड बम्बई

दिनांक 10 मार्च 1971

भगवान श्री जिस इक्कीस दिन के अनुष्ठान की ओर आपने संकेत किया है क्या वह साधना या तत्वानुभूति किसी परम्परागत थी? क्योंकि आपके अभिव्यक्तिकरण से निरन्तर ऐसा भास होता है कि आप भी निशित ही किसी टीचर एवं तीर्थंकर की पद्धति का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी के अलर्गत यह जानने का साहस भी करना चाहता हूं कि आप किसी परम्परा की अध्यात्म—शृंखला की क्ती को जोड़ना चाहते हैं या बुद्ध की भांति किसी पहाड़ में नया मार्ग काटने का प्रयास कर रहे है? Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-03)”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें