सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-10)

प्रवचन-दसवां

न कोई लक्ष्य, न कोई प्रयास

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! झेन परम्परा है कि जब कोई भिक्षु अपनी शिक्षाएं देने बाहर जाता था तो उसके पूर्व उसे अपने सदगुरु के साथ दस वर्षों तक मठ में ठहरना होता था। एक बार एक भिक्षु ने मठ में दस वर्षों का समय पूरा कर लिया था। वह एक दिन भारी बरसात के दौरान अपने सदगुरु ‘नानइन’ से भेंट करने के लिए गया। उसका स्वागत करने के बाद नानइन ने उस से पूछा : ‘निसंदेह रूप से तुमने अपने जूते दालान में उतारे होंगे। तुमने अपने छाते के किस ओर जूते उतारे हैं’ एक क्षण के लिए भिक्षु हिचकिचाया और उसने महसूस किया कि वह प्रतिपल ध्यानपूर्ण नहीं था।

आपने हमें बतलाया है कि जीवन एक स्फुरण है, स्पंदन है : अंदर और बाहर, यिन और यांग, तो क्या हमें प्रत्येक क्षण सचेतन बने रहने का प्रयास करना होगा? अथवा क्या हम भी जीवन के साथ स्पंदित हो सकते हैं और क्या उस समय हमें प्रयास छोड़ देना चाहिए? Continue reading “सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-10)”

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-09)

प्रवचन-नौवां

समर्पण संपूर्ण ही हो सकता है

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! आपने कहा है कि हजारों वर्षों में पृथ्वी पर ऐसा सुअवसर नहीं आया, और आपने यह भी कहा है यह युग अन्य दूसरे युगों के समान ही है। एक ओर आपने कहा है कि एक पत्थर को भी समर्पण कर दो तो घटना घटित हो जाएगी। दूसरी ओर आपने यह भी कहा है कि इस पृथ्वी पर पैर जमाकर आगे बढ़ना बहुत खतरनाक है, जब तक कि तुम एक प्रामाणिक सदगुरु के मार्गदर्शन में नहीं चलते हो।

आपने कहा है कि समर्पण करो और शेष कार्य मैं करूंगा, और आपने यह भी कहा है कि आप कुछ भी नहीं करते। यहीं और अभी मौजूद हम लोगों के लिए, तथा पश्चिम के उन लोगों के लिए जो इन शब्दों को कभी पढ़ेंगें, क्या आप सदगुरु और शिष्य के मध्य घटने वाले रहस्मयी संबंध के बारे में हमें और अधिक बताने की कृपा करेंगें? Continue reading “सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-09)”

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-08)

प्रवचन-आठवां

केवल पका फल ही गिरता है

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! मैं अनुभव करता हूं कि कठिनाइयों में धैर्य व सहनशीलता का दृष्टिकोण विकसित करने के कारण मैं जीवन को परिपूर्ण ढंग से नहीं जी पाता हूं। मैं जीवन से पलायन करने लगा हूं। जीवन का यह परित्याग, ध्यान में जीवंत बने रहने के मेरे प्रयास के विरूद्ध, एक बोझ की तरह प्रतीत हो रहा है। क्या इसका अर्थ यह है कि मैंने अपने अहंकार का दमन किया है और वास्तव में उससे मुक्त होने के लिए मुझे पुनः उसे पोषण देना चाहिए? Continue reading “सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-08)”

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-07)

प्रवचन-सातवां 

संबंधों का रहस्य

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! अपने जीवन साथियों जैसे पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका के बारे में कब तक हमें धैर्य के संग उसका साथ निभाते हुए, संबंध में दृढ़ता से बने रहना चाहिए और कब हमें उस संबंध को निराश अथवा विध्वंसात्मक मानकर छोड़ देना चाहिए? क्या हमारे संबंध हमारे पिछले जन्मों से भी प्रभावित होते हैं?

 

संबंध अनेक रहस्यों में से एक हैं और क्योंकि वे दो व्यक्तियों के मध्य होते हैं, इसलिए वह दोनों पर निर्भर करते हैं। जब भी दो व्यक्ति मिलते हैं, एक नया संसार सृजित होता है। केवल उनके मिलन के द्वारा ही एक नवीन तथ्य सृजित हो जाता है, जो पहले वहां नहीं था, जो कभी भी अस्तित्व में नहीं था। और इस नई घटना के द्वारा दोनों व्यक्ति बदलकर, रूपांतरित हो जाते हैं। Continue reading “सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-07)”

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-06)

प्रवचन-छट्ठवां 

दमन या रूपांतरण?

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

 

पहला प्रश्नः

ओशो! दो भिक्षुओं के बारे में एक झेन कथा है, जो अपने मठ में वापस लौट रहे थे। मार्ग पर आगे बढ़ते हुए प्रौढ़ भिक्षु एक नदी के तट पर पंहुचा। वहां एक सुंदर युवा लड़की खड़ी थी, जो अकेले नदी पार करने से डर रही थी। इस प्रौढ़ भिक्षु ने उसकी ओर देखते ही, तेज़ी से अपनी दृष्टि दूसरी तरफ फेर ली और नदी पार करने लगा। जब वह दूसरे किनारे पंहुचा तो उसने मुड़कर वापस पीछे की ओर देखा और यह देखकर दंग रह गया कि युवा भिक्षु उस लड़की को अपने कंधों पर उठाकर नदी पार कर रहा है। Continue reading “सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-06)”

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-05)

प्रवचन-पांचवां

अहंकार को इसी क्षण छोड़ देना है

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! आपने कहा कि अहंकार को ठीक इसी क्षण छोड़ा जा सकता है। क्या अहंकार को धीमे-धीमे अर्थात क्रमश: भी छोड़ा जा सकता है?

 

छोड़ना हमेशा क्षण में और हमेशा इस क्षण में ही होता है। इसके लिए कोई क्रमिक प्रक्रिया नहीं है और हो भी नहीं सकती। यह घटना क्षणिक होती है। तुम उसके लिए पहले से तैयार नहीं हो सकते, तुम उसके लिए कोई तैयारी नहीं कर सकते, क्योंकि तुम जो कुछ भी करते हो और मैं कहता हूं कि जो कुछ भी करोगे, वह अहंकार को और अधिक मजबूत बनाएगा। Continue reading “सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-05)”

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-04)

प्रवचन-चौथा 

सभी आशाएं झूठी हैं

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! आप हमें बताते रहे हैं कि अपने अहंकार को छोड़ना और श्वेत बादलों के साथ एक हो जाना कितना अधिक सरल है। आपने हमें यह भी बताया है कि हमारे लाखों जन्म हुए हैं और उनमें से अनेक में हम कृष्ण और क्राइस्ट जैसे बुद्धों के साथ रहे हैं, पर तब भी हम अपने अहंकारों को नहीं छोड़ पाए।

क्या आप हमारे अंदर झूठी आशाएं उत्पन्न कर रहे हैं?

 

सभी आशाएं झूठी हैं। आशा करना ही अपने आप में झूठ है, इसलिए यह प्रश्न झूठी आशाएं निर्मित करने का नहीं है। तुम जो भी आशा कर सकते हो, वह झूठी ही होगी। आशा तुम्हारे मिथ्या होने की स्थिति से आती है। यदि तुम वास्तविक और प्रामाणिक हो तो किसी भी आशा की कोई आवश्यकता ही नहीं है। तब तुम भविष्य के बारे में सोचते ही नहीं कि कल क्या घटित होगा? तुम वर्तमान के क्षण में इतने अधिक सच्चे और इतने अधिक प्रामाणिक होते हो कि भविष्य विलुप्त हो जाता है। Continue reading “सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-04)”

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-03)

प्रवचन-तीसरा

प्रसन्नचित्त रहो

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

 

पहला प्रश्नः

ओशो! आपने हमें एक बार एक सौ वर्ष से भी अधिक आयु वाले एक वृद्ध व्यक्ति के बारे में एक कहानी सुनाते हुए यह बताया था कि एक दिन उसकी वर्षगांठ पर उससे यह पूछा गया था कि वह हमेशा इतना अधिक प्रसन्न क्यों रहता है? उसने उत्तर दिया- ‘प्रत्येक सुबह जब मैं जागता हूं तो मेरे पास यह चुनाव होता है कि मैं प्रसन्न रहूं अथवा अप्रसन्न, और मैं हमेशा प्रसन्न बने रहने का चुनाव करता हूं।’

ऐसा क्यों है कि हम प्रायः अप्रसन्न बने रहने का ही चुनाव करते हैं? ऐसा क्यों है कि हम प्रायः चुनाव के प्रति जागरूकता का अनुभव नहीं करते? Continue reading “सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-03)”

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-02)

प्रवचन-दूसरा

मन के पार का रहस्य

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

प्यारे ओशो, आकाश में मँडराते हुये ये सुंदर, शुभ्र बादल और हमारा यह अद्भुत सौभाग्य कि आप हमारे बीच उपस्थित हो और हम आपके संग यहां हैं। किंतु ऐसा ‘क्यों’ है?

 

ऐसे ‘क्यों’ हमेशा ही उत्तररहित होते हैं। जब कभी आप ऐसा ‘क्यों’ पूछते हो, मन हमेशा सोचता है कि उसका कोई उत्तर होगा। लेकिन यह एक बहुत ही भ्रामक कल्पना है। ऐसे किसी ‘क्यों’ का कहीं कोई जबाब नहीं दिया गया है और न ही कभी दिये जाने की संभावना है। यह अस्तित्व बस ‘है’ और इसके बारे में कोई ‘क्यों’ संभव नहीं है। फिर भी यदि तुम पूछते हों और पूछने पर तुले ही हो तो शायद एक उत्तर निर्मित कर सकते हो लेकिन याद रहे कि वह एक निर्मित किया हुआ उत्तर होगा, वह कभी भी असली उत्तर नहीं होगा। ऐसा सवाल पूछना अपने आप में ही असंगत है। Continue reading “सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-02)”

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-01)

सफेद बादलों का मार्ग-(अनुवाद)-ओशो 

(10 से 24 मई 1974 तक श्री रजनीश आश्रम, पूना में सदगुरु ओशो द्वारा दी गई

मूल अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

सफेद बादलों का मार्ग, प्रवचन-1

मेरा मार्गः शुभ्र मेघों का मार्ग

पहला प्रश्नः

प्यारे सदगुरु ओशो, आपका मार्ग सफेद बादलों का मार्ग क्यों कहलाता है?

 

देह त्यागने के ठीक पूर्व गौतम बुद्ध से किसी ने पूछा : ‘जब एक संबुद्ध व्यक्ति शरीर छोड़ता है तो वह कहां जाता है? क्या वह शेष बचता है या शून्य में विलीन हो जाता है’

यह सवाल जरा भी नया नहीं था। यह बड़ा प्राचीन प्रश्न है; जो बहुत बार पूछा जा चुका है। उस दिन भी जब बुद्ध से पूछा गया तो वे बोले : ‘जैसे कोई सफेद बादल देखते-देखते विलीन हो जाता है… !’ Continue reading “सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-01)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-21)

इक्कीसवां समापन प्रवचन

सहजै सहजै सब गया

दिनांक 08 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

ओशो, आपने इस प्रवचनमाला का आरंभ संत कबीर के पदः सहज समाधि भली के विशद उदघाटन से शुरू किया था। इसलिए इस समापन के दिन हम आपसे प्रार्थना करेंगे कि कबीर के कुछ और पदों का अभिप्राय हमें समझाएंः

सहज सहज सब कोइ कहै, सहज न चीन्है कोइ।

जा सहजै साहब मिलै, सहज कहावै सोइ।।

सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम।

एकमेक ह्वै मिली रह्या, दास कबीरा नाम।।

जो कछु आवै सहज में, सोइ मीठा जान।

कडुवा लागै नीम-सा, जामें ऐंचातान।

सहज मिलै सो दूध सम, मांगा मिलै सो पानि।

कह कबीर वह रक्त सम, जामें ऐंचातानि।। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-21)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-20)

बीसवां प्रवचन

साक्षित्व, समय-शून्यता और मन की मृत्यु

दिनांक 08 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

कहते हैं कि एक वृद्ध स्त्री थी भगवान बुद्ध के समय में। वह बुद्ध के ही गांव में जन्मी थी और उनके जन्म-दिन पर ही।

लेकिन वह सदा ही बुद्ध के सामने आने से डरती रही तभी से जब कि वह छोटी सी थी। युवा हो गई, फिर भी डरती रही। और वृद्ध हो गई, फिर भी।

लोग उसे समझाते भी कि बुद्ध परम पवित्र हैं, साधु हैं, सिद्ध हैं। उनसे भय का कोई भी कारण नहीं। उनका दर्शन मंगलदायी है, वरदान-स्वरूप है। लेकिन उस वृद्धा की कुछ भी समझ में नहीं आता। यदि वह कभी भूल से बुद्ध की राह में पड़ भी जाती थी, तो भाग खड़ी होती। अव्वल तो बुद्ध गांव में होते, तो वह किसी और गांव चली जाती।

लेकिन एक दिन कुछ भूल हो गई। वह कुछ अपनी धुन में डूबी राह से गुजरती थी कि अचानक बुद्ध सामने पड़ गए। भागने का समय ही नहीं मिला। और फिर वह बुद्ध को सामने ही पा इतनी भयभीत हो गई कि पैरों ने भागने से जवाब दे दिया। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-20)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-19)

उन्नीसवां प्रवचन

दायित्व की गरिमा और आत्म-सृजन के लिए विद्रोह

दिनांक 08 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक बादशाह को ख्याल था कि उसने जो जाना और माना है, वह सब सही है। एक अर्थ में वह न्यायप्रिय भी था। उसकी तीन बेटियां थी।

एक दिन राजा ने अपनी सभी बेटियों को बुला कर कहाः मेरी सारी संपदा तुम्हारी होने वाली है। मुझसे ही तुम्हें जीवन मिला और मेरी इच्छा से ही तुम्हारा भविष्य और भाग्य निर्मित होगा।

दो राजकुमारियों ने तो यह बात मान ली; लेकिन तीसरी ने कहाः यद्यपि स्थिति का तकाजा है कि मैं कानून का पालन करूं, तो भी यह नहीं मान सकती कि मेरा भाग्य आपकी मरजी से बनेगा। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-19)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-18)

अठारहवां प्रवचन

आत्मिक विस्फोट की पात्रता

दिनांक 07 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

झेन साधक बनजान बाजार से गुजर रहा था। एक कसाई और एक ग्राहक की बातचीत उसके कानों में पड़ी।

ग्राहक ने कहाः मुझे सर्वश्रेष्ठ मांस का टुकड़ा ही देना।

कसाई बोलाः मेरी दुकान में सब कुछ सर्वश्रेष्ठ ही है। यहां कुछ भी नहीं है, जो सर्वश्रेष्ठ नहीं।

बस, इतना सुन कर बनजान ज्ञान को उनलब्ध हो गया।

ओशो, कृपा कर इस कथा का मर्म हमें बताएं। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-18)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-17)

सत्रहवां प्रवचन

अहंकार के तीन रूप–शिकायत, उदासी और प्रसन्नता

दिनांक 06 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक बार राबिया बीमार थी।

सहानुभूति में दो फकीर देखने आए। एक थे हसन और दूसरे मलिक।

हसन ने कहाः राबिया, अल्लाह जो भी सजा दे, फकीर को कोई शिकायत नहीं होती। वह उसे चुपचाप सह लेता है।

फिर मलिक बोलेः राबिया, फकीर शिकायत तो मानता ही नहीं, बल्कि मिले हुए दंड में भी खुशी मानता है।

राबिया थोड़ी देर चुप रही।

फिर वह बोलीः मुझे माफ करना; लेकिन जब मैंने खुदा को जाना है, तब से मुझे दंड जैसी कोई प्रतीति नहीं होती। तो फिर कैसी शिकायत? क्या सहना? और किसकी खुशी?

ओशो, तीन फकीरों की इस परिचर्चा पर प्रकाश डालने की कृपा करें। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-17)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-16)

सोलहवां प्रवचन

ब्राह्मणत्व का निखार–प्रामाणिकता की आग में

दिनांक ५ अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक किशोर, ऋषि हरिद्रुमत गौतम के आश्रम में पहुंचा था। वह सत्य को जानना चाहता था। ब्रह्म के लिए उसकी जिज्ञासा थी। उसने ऋषि के चरणों में सिर रख कर कहा थाः ‘आचार्य, मैं सत्य को खोजने आया हूं। मुझ पर अनुकंपा करें और ब्रह्म-विद्या दें। मैं अंधा हूं और आंखें चाहता हूं।’

उस किशोर का नाम था–सत्यकाम।

ऋषि ने उससे पूछाः ‘वत्स, तेरा गोत्र क्या है? तेरे पिता कौन हैं? उनका नाम क्या है?’

उस किशोर को अपने पिता का कोई ज्ञान न था, न ही गोत्र का पता था। वह अपनी मां के पास गया और उससे पूछ कर लौटा। और उसकी मां ने उससे जो कहा, उसने जाकर ऋषि को कहा। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-16)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-15)

पंद्रहवां प्रवचन

बुद्धपुरुष अर्थात जीवित मंदिर–मौन का

दिनांक 04 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक झेन गुरु थे–सोइची। जिस दिन से सोइची ने तोफुकु के मंदिर में शिक्षण देना शुरू किया, उसी दिन से मंदिर का रूपांतरण हो गया।

दिन आता, दिन जाता; रात आती, रात जाती; लेकिन तोफुकु का मंदिर सदा मौन ही खड़ा रहता। मंदिर एक गहन सन्नाटा ही हो गया। कहीं से कोई आवाज न उठती थी। सोइची ने सूत्रों का पाठ भी बंद करा दिया। यहां तक कि मंदिर के घंटे भी सदा सोए हुए रहते; क्योंकि सोइची के शिष्यों को सिवाय ध्यान के और कुछ नहीं करना था।

फिर बरसों तक ऐसा ही रहा। लोग भूल ही गए कि पड़ोस में मंदिर है। और सैकड़ों संन्यासी थे वहां; आत्मज्ञान के दीये जलते थे; और समाधि के फूल खिलते थे। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-15)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-14)

चौदहवां प्रवचन

एक साधे सब सधै

दिनांक 3 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

याज्ञवल्क्य ने अपनी मित्र-स्त्री मैत्रेयी से कहाः ‘देखो, मैं गृहस्थाश्रम में ही पड़े रहना नहीं चाहता, मैं ऊपर उठना चाहता हूं। आओ, कात्यायिनी के साथ तुम्हारा निपटारा करा दूं।’

मैत्रेयी ने कहाः ‘भगवन, अगर यह सारी पृथ्वी वित्त से पूर्ण होकर मेरी हो जाए, तो क्या मैं उससे अमर हो जाऊंगी?’

याज्ञवल्क्य ने कहाः ‘उस अवस्था में जैसे साधन-संपन्न लोग चैन से जीवन-निर्वाह करते हैं, वैसा तुम्हारा जीवन होगा। धन-धान्य से अमरता पाने की आशा नहीं हो सकती।’

मैत्रेयी ने कहाः ‘जिससे मैं अमर न हो सकूं, उसे लेकर मैं क्या करूंगी? भगवन, अमर होने का जो रहस्य आप जानते हों, उसका मुझे उपदेश कीजिए।’

याज्ञवल्क्य ने कहाः ‘तू तो मेरी प्रिय है, और बड़ा प्रिय वचन बोल रही है। आ, बैठ, तुझे मैं सब खोल कर समझाता हूं। ज्यों-ज्यों मैं बोलता जाऊं, मेरी बात ध्यान देकर सुनते जाना। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-14)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-13)

तेरहवां प्रवचन

आत्मघाती संदेह और आस्था का अमृत

दिनांक २ अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

नूरी बे अलबानिया का निवासी था–विचारवान और प्रतिष्ठित। अपने से बहुत छोटी उम्र की युवती से उसने विवाह किया।

एक संध्या वह समय से पहले घर लौटा, तो उसके वफादार नौकर ने आकर उसे कहाः ‘आपकी पत्नी, मेरी मालकिन, बहुत संदेहजनक ढंग से पेश आ रही हैं। उनके कमरे में एक बड़ा संदूक है–इतना बड़ा है कि एक आदमी उसमें समा जाए। पहले वह आपकी दादी के पास था और उसमें थोड़े से जड़ी के सामान थे। लेकिन अब उसमें शायद बहुत कुछ है। मैं आपका सबसे पुराना नौकर हूं, लेकिन मालकिन मुझे भी उस संदूक के भीतर झांकने नहीं देती हैं।’

नूरी बे अपनी पत्नी के कमरे में जा पहुंचा और देखा कि वह एक लकड़ी के संदूक के पास उदास बैठी है। ‘क्या मैं देख सकता हूं कि इस संदूक में क्या है?’ उसने पूछा। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-13)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-12)

बारहवां प्रवचन

विचार की बोतल और निर्विचार की मछली

दिनांक १ अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

रीको ने एक बार अपने गुरु नानसेन से कहा कि बोतल वाली मछली की समस्या क्या है, कृपा कर मुझे समझा दें!

उसने कहाः ‘अगर कोई आदमी बोतल के भीतर मछली का एक बच्चा रख दे और बोतल के मुंह के द्वारा उसे भोजन देता रहे, तो मछली बढ़ते-बढ़ते इतनी बड़ी हो जाएगी कि बोतल के भीतर उसके बढ़ने की और जगह न रहेगी।

उस हालत में वह आदमी उस मछली को किस तरह बाहर निकाले कि मछली भी न मरे और बोतल भी न टूटे।

‘रीको!’ नानसेन चिल्लाया और जोर से उसने हाथों की ताली बजाई।

‘हां गुरुदेव!’ रीको चौंक कर बोला।

‘देखो,’ नानसेन ने कहाः ‘मछली बाहर निकल आई।’

ओशो, इस झेन पहेली को हमें भी समझाने की कृपा करें। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-12)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-11)

विचार नहीं–अनुभव ही नाव है

ग्यारहवां प्रवचन

दिनांक ३१ जुलाई, १९७४, प्रातः काल, श्री रजनीश आश्रम पूना,

कथा:

एक परंपरावादी दरवेश नैतिक प्रश्नों पर विचार करता हुआ नदी किनारे से जा रहा था। अचानक दूर से आती हुई “ऊ हू’ की आवाज उसके कानों में पड़ी और उसकी विचार-धारा टूट गई। कहीं दूर कोई आदमी दरवेश-मंत्र का पाठ कर रहा था; लेकिन उच्चारण बहुत गलत था।

दरवेश ने सोचा कि एक जानकार के नाते मेरा कर्तव्य है कि मैं जाऊं और मंत्रपाठ की सही विधि उसे बता दूं। और वह नाव खेकर उस छोटे-से द्वीप पर पहुंचा, जहां एक दूसरा दरवेश अपने झोपड़े में सूत्र-पाठ कर रहा था। पास जाकर पहले दरवेश ने उसे सही पाठ बताया और दिल में नेक काम करने की खुशी भरकर अपनी नाव में लौट आया।

इस मंत्र की बड़ी महिमा थी और समझा जाता था कि इसके पाठ से आदमी पानी की लहरों पर भी चल सकता है। पहले दरवेश को, लेकिन इसका विश्वास भर था, अनुभव नहीं था। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-11)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन

अनुग्रहपूर्ण रागशून्यता और मन का अतिक्रमण

दिनांक  30 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

सदगुरु जोशू ने एक बार अपने शिष्यों को यह चेतावनी दीः ‘जहां बुद्ध पुरुष हों वहां ज्यादा देर मत टिकना; और जहां बुद्ध पुरुष नहीं हों, वहां से तुरंत खिसक जाना।’ इसी महान गुरु ने दूसरी बार कहाः ‘यदि बुद्ध का नाम लेना तो पीछे ठीक से मुंह धो लेना।’

और यही जोशू प्रायः संध्या समय बुद्ध की प्रतिमा के सामने फूल चढ़ाते, सुगंध जलाते और सिर टेकते भी देख जाते थे।

ओशो, अंतर्विरोधों से भरे वचन और आचरण को स्पष्ट करने की कृपा करें। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-10)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन

जीवन-सूत्रः दर्पणवत, अव्याख्य, तथाता में जीना

दिनांक 29 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

कहीं एक मंदिर बन रहा था। तीन श्रमिक वहां धूप में बैठ कर पत्थर तोड़ रहे थे। एक राहगीर वहां से गुजर रहा था। बारी-बारी से उसने श्रमिकों से पूछाः ‘क्या कर रहे हो?’

एक से पूछा। वह बोलाः ‘पत्थर तोड़ रहा हूं।’ उसके कहने में बड़ी पीड़ा थी और स्वर भी भारी था।

दूसरे से पूछा। वह बोलाः ‘आजीविका कमा रहा हूं।’ वह दुखी तो नहीं था; लेकिन उसकी उदासी कम भारी नहीं थी।

अजनबी तब तीसरे श्रमिक के पास गया और उससे भी वही सवाल पूछा। वह व्यक्ति गीत गा रहा था, उसकी आंखों में चमक थी और वह आनंदमग्न था। गीत रोक कर उसने कहाः ‘मैं मंदिर बना रहा हूं।’ और फिर वह गीत गुनगुनाने लगा।

ओशो, जीवन और धर्म के संबंध में इशारे करने वाली अपनी इस प्रिय कहानी पर प्रकाश डालने की कृपा करें। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-09)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन

मिटना है द्वार–‘होने’ का

दिनांक 28 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक नदी दूर पहाड़ों से निकल कर यात्रा करती हुई, किसी मरुभूमि में जा फंसी। वहां उसकी धाराएं दहकते बालू में खोने लगीं। नदी घबड़ाई, क्योंकि उसकी जीवन-यात्रा ही समाप्त होने को आ गई।

तभी नेपथ्य से एक आवाज आईः ‘जैसे हवा रेगिस्तान पार करती है, वैसे ही नदी भी कर सकती है। बजाय इसके कि तुम बालू में सूख कर समाप्त हो जाओ, अच्छा होगा कि भाप बन कर तुम बन कर तुम भी हवा के साथ मरुस्थल के पार हो जाओ।’

यह सुन कर नदी बोलीः ‘हवा में घुल जाने पर मैं कैसे जानूंगी कि मैं ही हूं? मेरा तो रूप ही बदल जाएगा! फिर मेरी पहचान क्या रहेगी?’ Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-08)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन

दुख-बोध से दुख-निरोध की ओर

दिनांक 27 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

ओशो, क्रांति-बीज में आपने कहा हैः

‘‘गौतम बुद्ध ने चार आर्य-सत्य कहे हैं–दुख, दुख का कारण, दुख-निरोध और दुख-निरोध का मार्ग। जीवन में दुख है। दुख का कारण है। इस दुख का निरोध भी हो सकता है। और दुख-निरोध का मार्ग है।’’

‘‘मैं पांचवां आर्य-सत्य भी देखता हूं। और यह पांचवां इन चारों के पूर्व है। वह न हो, तो ये चारों भी नहीं रह सकते हैं।

‘‘यह पांचवां या प्रथम आर्य-सत्य क्या है–वह है दुख के प्रति मूर्च्छा।’’

ओशो, इस पांचवें या प्रथम आर्य-सत्य की विशद व्याख्या करने की करुणा करें। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-07)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

समग्रता ही है मार्ग

दिनांक 26 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक शिष्य ने गुरु उमोन से कहा, ‘बुद्ध का प्रकाश समस्त विश्व को प्रकाशित करता है; बुद्ध की प्रज्ञा सारे जगत को आलोकित करती है।’

लेकिन वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि गुरु ने कहा, ‘आह! क्या तुम किसी दूसरे की पंक्तियां नहीं दुहरा रहे हो?’

शिष्य झिझका, तो उमोन ने उसकी आंखों में ध्यान से देखा। घबड़ा कर शिष्य ने कहा, ‘हां।’

उमोन बोला, ‘तब तुम मार्गच्युत हो गए।’

कुछ समय बाद एक दूसरे गुरु शिशिन ने अपने शिष्यों से पूछा, ‘किस बिंदु पर उमोन का शिष्य मार्गच्युत हुआ था?’

ओशो, इस रहस्य भरी परिचर्चा पर प्रकाश डालने की कृपा करें। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-06)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

उन्मुक्त जिज्ञासा, खुला हृदय और जीवन-रहस्य

दिनांक 25 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

मरियम का बेटा जीसस एक दिन, अपने छुटपन में, तालाब के किनारे बैठ कर मिट्टी के पक्षी बना रहा था। दूसरे बच्चे, जो ऐसा नहीं कर सके, ईर्ष्या से भर कर अपने बड़े-बूढ़ों के पास जीसस की शिकायत ले गए। उस दिन शनिवार था; इसलिए बूढ़ों ने कहाः ‘सॅबथ के दिन ऐसा नहीं होने दिया जा सकता।’

फिर बड़े-बूढ़े तालाब पर पहुंच गए और उन्होंने जीसस से अपने पक्षी दिखाने की मांग की। जीसस ने अपने बनाए पक्षियों की ओर इशारा किया, और वे पक्षी उड़ गए।

बुजुर्गों में से एक बोलाः ‘उड़ने वाले पक्षी कोई कैसे बना सकता है; इसलिए सॅबथ का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है।’

दूसरे ने कहाः ‘मैं यह कला सीखना चाहता हूं।’

और तीसरा बोलाः ‘यह कोई कला नहीं, सिर्फ धोखा है।’

फिर एक दिन एक लड़का जोसेफ बढ़ई के कारखाने में बैठा था। जब लकड़ी का एक तख्त छोटा पड़ गया, तब उसने उसे तान कर लम्बा कर दिया। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-05)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

साधक अर्थात सोया हुआ सिद्ध

दिनांक २४ जुलाई, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक शिष्य ने केम्बो से पूछाः ‘क्या सभी बुद्ध-पुरुष निर्वाण के एक ही मार्ग पर अग्रसर होते हैं और सभी युगों में?’

केम्बो ने अपनी छड़ी उठा कर हवा में शून्य की आकृति बनाते हुए कहाः ‘यह रहा वह मार्ग। यहीं से वह शुरू होता है।’

वह शिष्य फिर उमोन के पास गया और उनसे भी वही सवाल पूछा। दोपहरी थी और उमोन के हाथ में पंखा था। उसने सभी दिशाओं में पंखा हिला कर कहाः ‘वह मार्ग कहां नहीं है? उसका आरंभ कहां नहीं है?’

और फिर जब किसी ने ममोन से इसी घटना का राज पूछा, तब उसने कहाः ‘इसके पहले कि पहला कदम उठे, मंजिल आ जाती है। और इसके पूर्व कि जीभ हिले, वक्तव्य पूरा हो जाता है।’

ओशो, इस झेन परिचर्चा का अभिप्राय क्या है? Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-04)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

सहज स्वभाव–लोभ और भय से मुक्त

दिनांक २३ जुलाई, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

मरियम के बेटे ईसा एक गांव से गुजर रहे थे। उन्होंने देखा कि कुछ लोग राह के किनारे एक दीवाल पर बहुत संतापग्रस्त होकर मुंह लटकाए हुए बैठे हैं।

ईसा ने उनसे पूछाः ‘यह हालत कैसे हुई तुम्हारी?’

उन्होंने कहाः ‘नरक के भय से हम ऐसे हो रहे हैं।’

थोड़ा आगे बढ़ने पर ईसा ने कुछ और लोगों को देखा, जो राह के किनारे तरह-तरह के आसनों और मुद्राओं में बैठे हैं। और वे भी बहुत-बहुत उदास हैं।

ईसा ने उनसे भी पूछाः ‘तुम्हारी तकलीफ क्या है?’

उन्होंने कहाः ‘स्वर्ग की आकांक्षा ने हमें ऐसा बना दिया है।’ Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-03)”

सहज समाधि भली-(प्रवचन-02) 

स्वीकार की आग

दूसरा प्रवचन

दिनांक २२ जुलाई, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

जोशू ने नानसेन से पूछाः ‘मार्ग कौन है?’

नानसेन ने कहाः ‘दैनंदिन जीवन ही मार्ग है।’

जोशू ने फिर पूछाः ‘क्या उसका अध्ययन हो सकता है?’

नानसेन ने कहाः ‘यदि अध्ययन करने की कोशिश की, तो तुम उससे दूर भटक जाओगे।’

जोशू ने फिर पूछाः ‘यदि मैं अध्ययन नहीं करूं, तो कैसे जानूंगा कि यह मार्ग है?’

नानसेन ने उत्तर में कहाः ‘मार्ग दृष्ट जगत का हिस्सा नहीं है; न ही वह अदृष्ट जगत का हिस्सा है। पहचान भ्रम है और गैर-पहचान व्यर्थ। अगर तुम असंदिग्ध होकर सच्चे मार्ग पर पहुंचना चाहते हो तो आकाश की तरह अपने को उसकी पूरी उन्मुक्तता में, पूरी स्वतंत्रता में छोड़ दो। और उसे न शुभ कहो और न अशुभ।’

कहते हैं कि ये शब्द सुन कर जोशू ज्ञान को उपलब्ध हो गया। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-02) “

सहज समाधि भली-(प्रवचन-01)  

सहज समाधि भली-(झेन-सूूूूफी बोध कथाएं)  

पहला प्रवचन

दिनांक २१ जुलाई, १९७४; प्रातःकाल, से 10 अगस्त 1974 श्री रजनीश आश्रम, पूना

साधो सहज समाधि भली।

गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन-दिन अधिक चली।।

जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा जो कछु करौं सो सेवा।

जब सोवौं तब करौं दंडवत, पूजौं और न देवा।।

कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावं पियौं सो पूजा।

गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।।

आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।

खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।

शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी। Continue reading “सहज समाधि भली-(प्रवचन-01)  “

योग: नये आयाम-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-संन्यास की दिशा

मेरे प्रिय आत्मन्!

थोड़े से सवाल हैं, उनके संबंध में कुछ बातें समझ लेनी उपयोगी हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि कुछ साधक कुंडलिनी साधना का पूर्व से ही प्रयोग कर रहे हैं। उनको इस प्रयोग से बहुत गति मिल रही है। तो वे इसको आगे जारी रखें या न रखें? उन्हें कोई हानि तो नहीं होगी?

 

हानि का कोई सवाल नहीं है। यदि पहले से कुछ जारी रखा है और इससे गति मिल रही है, तो तीव्र गति से जारी रखें। लाभ ही होगा। परमात्मा के मार्ग पर ऐसे भी हानि नहीं है।

 

दूसरे मित्र ने पूछा है–और और भी दो-तीन मित्रों ने वही बात पूछी है–कि यह रोना, चिल्लाना, हंसना, नाचना कब तक जारी रहेगा? Continue reading “योग: नये आयाम-(प्रवचन-06)”

योग: नये आयाम-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-सरल सत्य

मेरे प्रिय आत्मन्!

विगत वर्ष दुनिया के बायोलाजिस्टों की, जीवशास्त्रियों की एक कांफ्रेंस में ब्रिटिश बायोलाजिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष बादकुन ने एक वक्तव्य दिया था। उस वक्तव्य से ही मैं आज की थोड़ी सी बात शुरू करना चाहता हूं। उन्होंने उस वक्तव्य में बड़ी महत्वपूर्ण बात कही, जो एक वैज्ञानिक के मुंह से बड़ी अदभुत बात है। उन्होंने कहा कि मनुष्य के जीवन का विकास किन्हीं नई चीजों का संवर्धन नहीं है, नथिंग न्यू एडेड, वरन कुछ पुरानी बाधाओं का गिर जाना है, ओल्ड हिंडरेंसेस गॉन। मनुष्य के विकास में कुछ जुड़ा नहीं है, मनुष्य के भीतर जो छिपा है… कोई भी चीज प्रकट होती है, तो सिर्फ बीच की बाधाएं भर अलग होती हैं। पशुओं में और मनुष्य में विचार करें, तो मनुष्य के भीतर पशुओं से कुछ ज्यादा नहीं है, बल्कि कुछ कम है। पशु के ऊपर जो बाधाएं हैं, वे मनुष्य से गिर गई हैं; और पशु के भीतर जो छिपा है, वह मनुष्य में प्रकट हो गया है। Continue reading “योग: नये आयाम-(प्रवचन-05)”

योग: नये आयाम-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन-परम जीवन का सूत्र

मेरे प्रिय आत्मन्!

योग का आठवां सूत्र। सातवें सूत्र मैं मैंने आपसे कहा, चेतन जीवन के दो रूप हैं–स्व चेतन, सेल्फ कांशस और स्व अचेतन, सेल्फ अनकांशस।

आठवां सूत्र हैः स्व चेतना से योग का प्रारंभ होता है और स्व के विसर्जन से अंत। स्व चेतन होना मार्ग है, स्वयं से मुक्त हो जाना मंजिल है। स्वयं के प्रति होश से भरना साधना है और अंततः होश ही रह जाए, स्वयं खो जाए, यह सिद्धि है।

स्वयं को जो नहीं जानते, वे तो पिछड़े ही हुए हैं; जो स्वयं पर ही अटक जाते हैं, वे भी पिछड़ जाते हैं। जैसे सीढ़ी पर चढ़ कर कोई अगर सीढ़ी पर ही रुक जाए, तो चढ़ना व्यर्थ हो जाता है। सीढ़ी चढ़नी भी पड़ती है और छोड़नी भी पड़ती है। मार्ग पर चल कर कोई मार्ग पर ही रुक जाए, तो भी मंजिल पर नहीं पहुंच पाता। मार्ग पर चलना भी पड़ता है और मार्ग छोड़ना भी पड़ता है, तब मंजिल पर पहुंचता है। मार्ग मंजिल तक ले जा सकता है, अगर मार्ग को छोड़ने की तैयारी हो। और मार्ग ही मंजिल में बाधा बन जाएगा, अगर पकड़ लेने का आग्रह हो। Continue reading “योग: नये आयाम-(प्रवचन-04)”

योग: नये आयाम-(प्रवचन-03) 

तीसरा प्रवचन–प्रेम का केंद्र

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक सूत्र मैंने आपसे कहाः जीवन ऊर्जा है और ऊर्जा के दो आयाम हैं–अस्तित्व और अनस्तित्व। और फिर दूसरे सूत्र में कहा कि अस्तित्व के भी दो आयाम हैं–अचेतन और चेतन। सातवें सूत्र में चेतन के भी दो आयाम हैं–स्व चेतन, सेल्फ कांशस और स्व अचेतन, सेल्फ अनकांशस। ऐसी चेतना जिसे पता है अपने होने का और ऐसी चेतना जिसे पता नहीं है अपने होने का।

जीवन को यदि हम एक विराट वृक्ष की तरह समझें, तो जीवन-ऊर्जा एक है–वृक्ष की पींड़। फिर दो शाखाएं टूट जाती हैं–अस्तित्व और अनस्तित्व की, एक्झिस्टेंस और नॉन-एक्झिस्टेंस की। अनस्तित्व को हमने छोड़ दिया, उसकी बात नहीं की, क्योंकि उसका योग से कोई संबंध नहीं है। फिर अस्तित्व की शाखा भी दो हिस्सों में टूट जाती है–चेतन और अचेतन। अचेतन की शाखा को हमने अभी चर्चा के बाहर छोड़ दिया, उससे भी योग का कोई संबंध नहीं है। फिर चेतन की शाखा भी दो हिस्सों में टूट जाती है–स्व चेतन और स्व अचेतन। Continue reading “योग: नये आयाम-(प्रवचन-03) “

योग: नये आयाम-(प्रवचन-02) 

दूसरा प्रवचन-घर–मंदिर

योग के संबंध में चार सूत्रों की बात मैंने कल की। आज पांचवें सूत्र पर आपसे बात करना चाहूंगा।

योग का पांचवां सूत्र हैः जो अणु में है, वह विराट में भी है। जो क्षुद्र में है, वह विराट में भी है। जो सूक्ष्म से सूक्ष्म में है, वह बड़े से बड़े में भी है। जो बूंद में है, वही सागर में है।

इस सूत्र को सदा से योग ने घोषणा की थी, लेकिन विज्ञान ने अभी-अभी इसको भी समर्थन दिया है। सोचा भी नहीं था कि अणु के भीतर इतनी ऊर्जा, इतनी शक्ति मिल सकेगी, अत्यल्प के भीतर इतना छिपा होगा, ना-कुछ के भीतर सब कुछ का विस्फोट हो सकेगा। अणु के विभाजन ने योग की इस अंतर्दृष्टि को वैज्ञानिक सिद्ध कर दिया है। परमाणु तो दिखाई भी नहीं पड़ता आंख से। लेकिन न दिखाई पड़ने वाले परमाणु में, अदृश्य में विराट शक्ति का संग्रह है। वह विस्फोट हो सकता है। व्यक्ति के भीतर आत्मा का अणु तो दिखाई नहीं पड़ता है, लेकिन उसमें विराट ऊर्जा छिपी है और परमात्मा का विस्फोट हो सकता है। योग की घोषणा कि क्षुद्रतम में विराटतम मौजूद है, कण-कण में परमात्मा मौजूद है, यही अर्थ रखती है। Continue reading “योग: नये आयाम-(प्रवचन-02) “

योग: नये आयाम-(प्रवचन-01) 

योग नये आयाम-(योग)

पहला प्रवचन

जगत–एक परिवार

योग एक विज्ञान है, कोई शास्त्र नहीं है। योग का इस्लाम, हिंदू, जैन या ईसाई से कोई संबंध नहीं है।

लेकिन चाहे जीसस, चाहे मोहम्मद, चाहे पतंजलि, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, कोई भी व्यक्ति जो सत्य को उपलब्ध हुआ है, बिना योग से गुजरे हुए उपलब्ध नहीं होता। योग के अतिरिक्त जीवन के परम सत्य तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। जिन्हें हम धर्म कहते हैं वे विश्वासों के साथी हैं। योग विश्वासों का नहीं है, जीवन सत्य की दिशा में किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों की सूत्रवत प्रणाली है।

इसलिए पहली बात मैं आपसे कहना चाहूंगा वह यह कि योग विज्ञान है, विश्वास नहीं। योग की अनुभूति के लिए किसी तरह की श्रद्धा आवश्यक नहीं है। योग के प्रयोग के लिए किसी तरह के अंधेपन की कोई जरूरत नहीं है। नास्तिक भी योग के प्रयोग में उसी तरह प्रवेश पा सकता है जैसे आस्तिक। योग नास्तिक-आस्तिक की भी चिंता नहीं करता है। Continue reading “योग: नये आयाम-(प्रवचन-01) “

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

संन्यासः परम मुक्त जीवन

संन्यास का जो गहरे से गहरा अर्थ हैः पहले तो यह कि जो व्यक्ति संसार को घर मानता है वह गृहस्थी है और जो व्यक्ति संसार को सिर्फ एक पड़ाव मानता है वह संन्यासी है। संसार मुकाम है, बीच का पड़ाव; अंतिम मंजिल नहीं है। ऐसा जिसे दिखाई पड़ना शुरू हो गया वह संन्यासी है। तब वह संसार से गुजरता है, लेकिन वैसे ही जैसे तुम किसी रास्ते से गुजरते हो। गुजरते हो रास्ते से, बिल्कुल ठीक; लेकिन रास्ते को निवास स्थान नहीं बना लेते। उसी रास्ते से वह आदमी भी गुजर सकता है जिसके लिए रास्ता मंजिल हो गया, जिसके लिए रास्ता मंजिल मालूम पड़ता है।

एक ही संसार से हम गुजरते हैं। और जिस व्यक्ति को लगता है कि संसार ही अंत है वह गृहस्थी है। गृहस्थ से मेरा अर्थ हैः संसार को जिसने घर समझा। संन्यास से मेरा अर्थ है कि संसार को जिसने घर नहीं समझा, सिर्फ मार्ग समझा, राह समझी बीच की, जिसे गुजार देनी है, जिससे गुजर जाना है। Continue reading “व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-06)”

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

धर्म, सम्राट बनाने की कला है

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य के जीवन में इतना दुख है, इतनी पीड़ा, इतना तनाव कि ऐसा मालूम पड़ता है कि शायद पशु भी हमसे ज्यादा आनंद में होंगे, ज्यादा शांति में होंगे। समुद्र और पृथ्वी भी शायद हमसे ज्यादा प्रफुल्लित हैं। रद्दी से रद्दी जमीन में भी फूल खिलते हैं। गंदे से गंदे सागर में भी लहरें आती हैं–खुशी की, आनंद की। लेकिन मनुष्य के जीवन में न फूल खिलते हैं, न आनंद की कोई लहरें आती हैं।

मनुष्य के जीवन को क्या हो गया है? यह मनुष्य की इतनी अशांति और दुख की दशा क्यों है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनुष्य जो होने को पैदा हुआ है वही नहीं हो पाता है, जो पाने को पैदा हुआ है वही नहीं उपलब्ध कर पाता है, इसीलिए मनुष्य इतना दुखी है? Continue reading “व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-05)”

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

साक्षी हो जाना ध्यान है

प्रश्नः …

जहां पर ध्यान करने पर आवाज निकलती है, आपने बताया था कल ही कि वहां ध्यान करो। लेकिन कंपन ज्यादा होने से वहां पर एकाग्रता टिकती नहीं...

 

नहीं; पहली तो यह बात आपके ख्याल में नहीं आई कि एकाग्रता ध्यान नहीं है। मैंने कभी एकाग्रता करने को नहीं कहा। ध्यान बहुत अलग बात है। साधारणतः तो यही समझा जाता है कि एकाग्रता ध्यान है। एकाग्रता ध्यान नहीं है। क्योंकि एकाग्रता में तनाव है। एकाग्रता का मतलब यह है कि सब जगह से छोड़ कर एक जगह मन को जबरदस्ती रोकना। एकाग्रता सदा जबरदस्ती है; उसमें कोएर्शन है। क्योंकि मन तो भागता है और आप कहते हैं नहीं भागने देंगे। तो आप और मन के बीच एक लड़ाई शुरू हो जाती है। और जहां लड़ाई है वहां ध्यान कभी भी नहीं होगा। क्योंकि लड़ाई ही तो उपद्रव है हमारे पूरे व्यक्तित्व की, कि वहां पूरे वक्त कांफ्लिक्ट है, द्वंद्व है, संघर्ष है। Continue reading “व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-04)”

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