पांचवां प्रवचन-मन का पात्र कभी भरता नहीं
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
एक राजमहल के द्वार पर बहुत भीड़ लगी हुई थी। भीड़ सुबह से लगनी शुरू हुई थी, दोपहर आ गई थी और भीड़ बढ़ती चली गई थी। जो भी उस द्वार पर आकर रुका था वह रुका ही रह गया था। वहां कोई बड़ी अभूतपूर्व घटना घट गई थी। और जिसको भी राजधानी में खबर लगी वह भागा हुआ महल की तरफ चला आ रहा था। सांझ भी आ गई। करीब-करीब सारी राजधानी महल के द्वार पर इकट्ठी हो गई थी। लाखों लोग इकट्ठे थे।
उस द्वार पर सुबह-सुबह एक भिक्षु आया था। और उस भिक्षु ने राजा से कहा था, मुझे कुछ भिक्षा मिल सकेगी? राजा ने कहा था कोई कमी नहीं है, तुम जो चाहो मांग लो। उस भिखारी ने एक बड़ी अजीब शर्त रखी। उसने कहा कि मैं भिक्षा तभी लेता हूं जब मुझे यह आश्वासन मिल जाए, यह वचन मिल जाए कि मेरा पूरा भिक्षापात्र भर दिया जाएगा। मैं अधूरा भिक्षापात्र लेकर नहीं जाऊंगा। तो यदि यह वचन देते हों कि मेरा पूरा भिक्षापात्र भर देंगे तो मैं भिक्षा लूं अन्यथा मैं किसी और द्वार पर चला जाऊं। Continue reading “अज्ञात की ओर-(प्रवचन-05)”