तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन–आध्यात्मिक साम्यवाद

चार दिनों की चर्चाओं के संबंध में बहुत सारे प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। आज ज्यादा से ज्यादा प्रश्नों पर चर्चा कर सकूं ऐसी कोशिश करूंगा। और इसलिए बहुत थोड़े में उत्तर देना चाहूंगा।

एक मित्र ने पूछा है: क्या आप प्रच्छन्न साम्यवादी हैं?

प्रच्छन्न होने की कोई जरूरत नहीं है, मैं स्पष्ट ही साम्यवादी हूं। किसने कहा कि प्रच्छन्न साम्यवादी हूं? मेरी दृष्टि में जो भी आदमी धार्मिक है वह साम्यवादी हुए बिना नहीं रह सकता। सिर्फ अधार्मिक आदमी साम्यवादी हुए बिना रह सकता है। जिस व्यक्ति को भी यह ख्याल है कि सबके भीतर एक ही परमात्मा का वास है, वह यह मानने को राजी नहीं हो सकता कि समाज में अर्थ की इतनी असमानताएं हों, इतनी गरीबी, इतनी अमीरी, इतने फासले हों। वह यह भी मानने को राजी नहीं हो सकता कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को विकास का समान अवसर न मिल सके। Continue reading “तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-08)”

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन–ज्योति का स्पर्श

सम्राट बूढ़ा हो गया था, और जैसे-जैसे मृत्यु की पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी और जैसे-जैसे मृत्यु की छाया गहरी होने लगी उसे स्मरण आया कि मैं जी तो लिया लेकिन जीवन को अभी जान नहीं पाया हूं। शायद बहुत अधिक लोगों को मृत्यु के आने पर ही पहली बार बोध होता है कि जीवन अपरिचित, अनजाना छूट गया है। मौत करीब आने लगी, मौत की छाया घिरने लगी, तो उसे लगा जीवन तो हाथ से निकल गया और मैं जीवन को जान नहीं पाया।

जो बाहर ही जीते हैं वे जीवन को जान भी नहीं पा सकते हैं; क्योंकि जीना तो बाहर है, जीवन भीतर है। और बहुत लोग जीने मात्र को ही जीवन समझ लेते हैं, तो बड़ी भूल हो जाती है। Continue reading “तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-07)”

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन–फूल खिलने का क्षण

मेरे प्रिय आत्मन्!

पिछली चर्चाओं के संबंध में एक मित्र ने बहुत अजीब प्रश्न पूछा है। अजीब इसलिए कि पहली अजीब बात तो यह है कि वह प्रश्न ही नहीं है। उन्होंने पूछा है, प्रश्न भी पूछा है, साथ लिखा है, अगर आपको पता न हो, तो मैं इसका उत्तर आपको आकर दे सकता हूं।

उन्हें उत्तर पहले से पता है तो व्यर्थ पूछने की परेशानी नहीं करनी चाहिए। और अक्सर ऐसा होता है कि हम पूछते हैं लेकिन उत्तर हमें पता है तो हमारा पूछना झूठा हो जाता है, अॅाथेंटिक नहीं रह जाता। अगर पता ही है, तो बात खत्म हो गई। अगर पता नहीं है, तो ही पूछने में रस है, अर्थ है, खोज का आनंद है। लेकिन हम सभी को… Continue reading “तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-06)”

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन–जीवन का सम्मान

मेरे प्रिय आत्मन्!

बाहर एक जगत है पदार्थ का, उससे हम परिचित हैं। भीतर एक जगत है परमात्मा का, उससे हम अपरिचित हैं। पदार्थ दिखाई पड़ता है, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता है। पदार्थ छुआ जा सकता है, परमात्मा के स्पर्श का कोई उपाय नहीं है। शायद इसीलिए पदार्थ सब कुछ हो गया और परमात्मा कुछ भी नहीं।

कैसे इस भीतर के परमात्मा से संबंध हो सके? कैसे हम बाहर पकड़ गए हैं और रुक गए हैं? किसने हमें पदार्थ के पास बांध रखा है? पदार्थ ने? पदार्थ तो किसी को कैसे बांध सकेगा। हम ही बंध गए होंगे। बंधने की कड़ियां कुछ और होंगी, जो हमने ही निर्मित की होंगी। Continue reading “तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-05)”

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन–जीवन की भाषा

मेरे प्रिय आत्मन्!

बीती चर्चाओं के संबंध में और बहुत से नये भी प्रश्न मित्रों ने किए हैं। आज की सांझ मैं उन प्रश्नों पर बात करना चाहूंगा।

एक मित्र ने पूछा है कि पंद्रहवी अगस्त या इस तरह के और त्यौहार मनाना उचित है या नहीं, आप क्या कहते हैं?

सवाल पंद्रह अगस्त का ही नहीं है, सवाल जीवन के सब रिचुअल, सब क्रियाकांडों का है। चाहे क्रियाकांड धार्मिक हो, चाहे राजनैतिक, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। मन के अंतरभाव से जो भी उठे, वह ठीक है। और जो भी मनाना पड़े, वह बिल्कुल ठीक नहीं है।

आजादी का एक आनंद अगर अनुभव हो, तो वह प्रकट होगा। स्वतंत्रता का एक बोध अगर अनुभव हो, तो वह प्रकट होगा। लेकिन वह बोध किसी को भी अनुभव नहीं होता। फिर एक मरा हुआ त्यौहार हाथ में रह जाता है। फिर हर वर्ष उसे हम दोहराए चले जाते हैं। Continue reading “तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-04)”

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन–अपना जीवन, अपना सत्य

अंधेरे से प्रकाश की ओर जाना तो दूर हम अंधेरे से और गहरे अंधेरे में उतरते चले जाते हैं। उपनिषद के किसी ऋषि ने कहा है: अज्ञान तो अंधकार में ले जाता है, ज्ञान महा अंधकार में ले जाता है। बहुत ही उलझी हुई और विरोधाभासी बात कही है। अज्ञान तो अंधकार में ले जाता है, ज्ञान और महा अंधकार में।

साधारणतः तो हमने यही सुना है कि ज्ञान प्रकाश में ले जाता है। निश्चित ही जो ज्ञान अंधकार में ले जाता होगा वह ज्ञान और ही तरह का ज्ञान होगा। और हम रोज-रोज गहरे से गहरे अंधकार में चले जाते हैं, तो निश्चय ही जिसे हम ज्ञान कहते हैं वह ऐसा ही ज्ञान होगा। Continue reading “तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-03)”

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन–जीवन का नियम

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक युवा संन्यासी किसी आश्रम में मेहमान था। आश्रम के वृद्ध फकीर से उसने आत्मा के संबंध में कुछ बातें पूछीं। लेकिन वह वृद्ध फकीर दिन भर हंसता रहा और कोई जवाब न दिया।

जो भी जानते हैं, उन्हें जवाब देना बहुत मुश्किल है। जो नहीं जानते हैं, उन्हें जवाब देना बहुत ही आसान है।

सांझ हो गई, अंधेरा घिरने लगा, वह युवक खोजी वापस लौटने को हुआ। द्वार पर आया, अमावस की रात है, सूरज ढल गया, अंधेरा घिर गया, जंगल का रास्ता है। सीढ़ियां उतरते समय वृद्ध फकीर से वह कहने लगा, बहुत अंधेरा है, कैसे जाऊं? Continue reading “तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-02)”

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन–परम का विज्ञान

सुबह सूरज उगता है और हम मान लेते हैं कि रात मिट गई। वह मानना बड़ा झूठा है। एक रात तो बाहर है जो मिट जाती है, लेकिन एक रात भीतर भी है जो किसी सूरज के उगने से कभी नहीं मिटती। रात के अंधेरे में भी हम दीया जला लेते हैं और सोचते हैं प्रकाश हो गया, लेकिन एक अंधेरा ऐसा भी है जहां हम कभी कोई दीया नहीं जलाते और जहां कभी कोई प्रकाश नहीं पहुंचता। लेकिन शायद उस अंधेरे का ही हमें कोई पता नहीं है। और जब तक उस अंधेरे का पता न हो, तब तक प्रकाश की आकांक्षा भी कैसे पैदा हो सकती है?

उपनिषदों के किसी ऋषि ने गाया है, परमात्मा से प्रार्थना की है: मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले चल, अंधेरे से प्रकाश की ओर ले चल। यह प्रार्थना हमने सुनी है और यह भी हो सकता है कि यह प्रार्थना किन्हीं क्षणों में हमने भी की हो। लेकिन जिन्हें यह भी पता नहीं कि किस अंधेरे को मिटाना है, उनकी प्रकाश के लिए की गई प्रार्थना का क्या अर्थ हो सकता है? Continue reading “तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-01)”

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