आठवां प्रवचन–आध्यात्मिक साम्यवाद
चार दिनों की चर्चाओं के संबंध में बहुत सारे प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। आज ज्यादा से ज्यादा प्रश्नों पर चर्चा कर सकूं ऐसी कोशिश करूंगा। और इसलिए बहुत थोड़े में उत्तर देना चाहूंगा।
एक मित्र ने पूछा है: क्या आप प्रच्छन्न साम्यवादी हैं?
प्रच्छन्न होने की कोई जरूरत नहीं है, मैं स्पष्ट ही साम्यवादी हूं। किसने कहा कि प्रच्छन्न साम्यवादी हूं? मेरी दृष्टि में जो भी आदमी धार्मिक है वह साम्यवादी हुए बिना नहीं रह सकता। सिर्फ अधार्मिक आदमी साम्यवादी हुए बिना रह सकता है। जिस व्यक्ति को भी यह ख्याल है कि सबके भीतर एक ही परमात्मा का वास है, वह यह मानने को राजी नहीं हो सकता कि समाज में अर्थ की इतनी असमानताएं हों, इतनी गरीबी, इतनी अमीरी, इतने फासले हों। वह यह भी मानने को राजी नहीं हो सकता कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को विकास का समान अवसर न मिल सके। Continue reading “तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-08)”