सुख और शांति-(प्रवचन-12)

बारहवां प्रवचन-(विश्वास नहीं, विवेक

थोड़ी सी अपने हृदय की बातें आपसे कह सकूंगा। आनंदित इसलिए और भी ज्यादा हूं, क्योंकि जिनकी उम्र अभी थोड़ी है, जो अभी बूढ़े नहीं हो गए हैं, उनसे कुछ आशा भी की जा सकती है। युवकों के बीच, जिनके चित्त पर अभी जीवन का भार नहीं है और जो अतीत के ज्ञान के बोझ से भी नहीं दबे है, वे कुछ समझ और सोच सकते हैं, यह भी आशा बंधती है। लेकिन कोई मात्र शरीर से युवा होने से युवा नहीं होता है। और हमारे इस देश में तो एक बड़ा दुर्भाग्य और दुर्घटना घटी है, हमारे देश में मुश्किल से कोई युवा होता हो। हम या बच्चे होते हैं, या बूढ़े हो जाते हैं। बीच के युवा मन के क्षण आते ही नहीं।

उस व्यक्ति को जो सदा भविष्य के संबंध में सोचता हो, बचपन में कहना चाहिए। और जो निरंतर बीते हुए के संबंध में विचार करने लगे, बूढ़ा हो जाता है। युवा मस्तिष्क वह है, जो निरंतर वर्तमान में जीने की क्षमता रखता है। यह मैं आशा करता हूं कि आप में से बहुतों का मन अभी युवा होगा। आशा इसलिए कि बहुत कम इसकी संभावना है। समाज, सभ्यता और संस्कार, इसके पहले कि हमारा मस्तिष्क पूरी ताजगी का उपलब्ध हो, उसे बूढ़ा करना शुरू कर देते हैं। फिर भी, कुछ संभावना इस बात की है कि सोच-विचार आपके भीतर चलता होगा। उस सोच-विचार को ध्यान में रख कर मैं कुछ थोड़ी सी बाते आपसे कहूंगा। Continue reading “सुख और शांति-(प्रवचन-12)”

सुख और शांति-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां प्रवचन-(सुख नहीं, आनंद)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैंने सुना है कि बुद्ध एक गांव में गए थे। बहुत बार उस गांव से निकले थे। एक आदमी ने आकर उनसे पूछाः तीस वर्षों से समझा रहे हैं लोगों को शांति की बात, कितने लोग शांत हो गए? देखता हूं, सुबह से शाम तक समझाते रहते हैं सत्य की खोज के लिए, कितने लोगों को सत्य मिल गया है? श्वास-श्वास में एक ही बात है आपकी–मोक्ष की, मुक्ति की। कितने लोग मोक्ष में प्रवेश कर गए हैं?

उसकी बात का बुद्ध ने कुछ उत्तर नहीं दिया, बल्कि उससे कहाः कल शाम को आकर मिलना। छोटा सा तो तुम्हारा गांव है। हर आदमी से पूछकर एक छोटे से कागज पर लिख लेना–गांव में कोई है जो शांत होना चाहता है।

वह आदमी सोचता था कि सभी शांत होना चाहते हैं। उसने कहाः यह भी कोई पूछने की बात है? सभी शांत होना चाहते हैं। कौन है जो अशांत होना चाहता है? Continue reading “सुख और शांति-(प्रवचन-11)”

सुख और शांति-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन-(जीवन ही आनंद है)

लेकिन कभी आप अपने साथ रहे हैं कभी एकाध क्षण को? अपने साथ मुश्किल से कोई रहता है–मित्रों के साथ लोग रहते हैं, कल्पनाओं के साथ लोग रहते हैं, कामनाओं के साथ लोग रहते हैं, अपने साथ कोई भी नहीं रहता। अपने साथ कभी रहे हैं कभी एकाध क्षण को भी, जब आप ही हों और कोई न हो; कोई भविष्य न हो, कोई अतीत न हो, कोई मित्र न हो, कोई शत्रु न हो, आप ही हों अकेले। कभी रहे हैं? अगर रहे हों, तो फिर आनंद को कहीं और नहीं खोजेंगे। फिर हंसेंगे अपने पर कि मैं कहां खोजता था? जो मौजूद था, उसे खोजता था। जो निरंतर साथ था उसे खोजता था। लेकिन उस तरफ, उस तरफ हमने कोई ध्यान नहीं दिया है। धर्म का संबंध है आपके उस अकेलेपन से जहां आप बस अकेले हैं। लेकिन हम तो सदा किसी के साथ हैं, अगर अकेले जंगल में भी आपको छोड़ दें, तो भी मन किसी के साथ होगा, कहीं आगे, कहीं पीछे, कहीं और। वहां नहीं होगा, जहां आप हैं। Continue reading “सुख और शांति-(प्रवचन-10)”

सुख और शांति-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन-(अमृत-मंथन)

मेरे प्रिय आत्मन्!

बहुत से प्रश्न आपके दो दिनों में बाकी रह गए हैं, कुछ के संबंध में मैंने चर्चा की है। जो शेष हैं, उनमें सबसे पहले पूछा हैः मैंने आपको कहा प्रेम को विकसित करें–स्वयं पर, अन्य पर और परमात्मा पर। क्यों? क्योंकि मैं प्रेम को ही प्रार्थना मानता हूं। और साथ ही मैंने यह भी कहा कि शून्य हो जाएं।

 

तो प्रश्न पूछा है कि एक ओर मैं कहता हूं प्रेम करें और दूसरी ओर मैं कहता हूं शून्य हो जाएं, तो इन दोनों में संबंध क्या है?

 

निश्चित ही प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। और किसी को भी दिखाई पड़ेगा कि प्रेम करने में और शून्य होने में विरोध है। लेकिन मैं आपको कहूंगा, जो प्रेम करता है, वही केवल शून्य हो सकता है। और जो शून्य हो जाता है, वही केवल पूर्ण प्रेम को करने में समर्थ हो पाता है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि प्रेम मनुष्य का स्वभाव है और शून्य भी मनुष्य का स्वभाव है। जब हम शून्य हो जाते हैं तो आत्मा का दर्शन होता है, और जब अपनी आत्मा का दर्शन होता है, तो चारों ओर अपनी ही आत्मा का सबमें दर्शन होने लगता है, वही प्रेम है। और यदि हम सबके भीतर प्रेम को फैला दें, तो भी उसका दर्शन प्रारंभ हो जाता है, जो भीतर बैठा हुआ है। दुनिया में सत्य को जानने के दो रास्ते हैं, एक रास्ता है, खुद शून्य हो जाएं तो भी सत्य जान लिया जाता है। क्योंकि शून्य हो जाने पर, सब चुप हो जाने पर, मौन हो जाने पर भीतर जो है, उसकी अनुभूति शुरू हो जाती है। लेकिन इस भांति जो शून्य होगा, शून्य के बाद पाएगा कि उसके जीवन में प्रेम के अनंत झरने फूट रहे हैं। Continue reading “सुख और शांति-(प्रवचन-09)”

सुख और शांति-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन-(परिपूर्ण स्वीकृति)

मेरे प्रिय आत्मन्!

इसके पहले कि मैं कुछ आपसे कहना शुरू करूं, एक छोटी सी कहानी आपसे कहूंगा।

मनुष्य की सत्य की खोज में जो सबसे बड़ी बाधा है, अक्सर तो उस बाधा की ओर हमारा ध्यान भी नहीं जाता, और फिर जो भी हम करते हैं वह सब मार्ग बनने की बजाय मार्ग में अवरोध हो जाता है। एक अंधे आदमी को यदि प्रकाश को जानने की कामना पैदा हो जाए, यदि आकांक्षा पैदा हो जाए कि मैं भी प्रकाश को और सूर्य को जानूं, तो वह क्या करे? क्या वह प्रकाश के संबंध में शास्त्र सुने? क्या वह प्रकाश के संबंध में सिद्धांतों को सीखे? क्या वह प्रकाश के संबंध में बहुत उहापोह और विचार में पड़ जाए? क्या वह प्रकाश की कोई फिलासफी, कोई तत्वदर्शन, अपने सिर से बांध ले? और क्या इस भांति उसे प्रकाश का दर्शन हो सकेगा? नहीं जिस अंधे को प्रकाश की खोज पैदा हुई हो, उसे प्रकाश के संबंध में नहीं, अपने अंधेपन के संबंध में, अपने अंधेपन को बदलने के संबंध में निर्णय लेने होंगे। Continue reading “सुख और शांति-(प्रवचन-08)”

सुख और शांति-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन-(अनूठी दिशा)

मेरे प्रिय आत्मन!

अपने हृदय की थोड़ी सी बातें आपसे कर सकूंगा। मैं कोई उपदेशक नहीं हूं, और न ही मेरी कोई शिक्षाएं हैं, जो आपको स्वीकार करनी हैं। उपदेशकों से तो मनुष्य-जाति पीड़ित और परेशान रही है, बहुत उपदेशों का यह फल हुआ है, जो हम हैं। इन उपदेशों और शिक्षाओं में कुछ और जोड़ने की जरूरत नहीं है, जरूरत है कि कोई इस सारे बोझ को अलग कर ले। और मनुष्य का मन निर्दोष और ताजा हो सके।

मैं कोई शिक्षा आपको देने को नहीं हूं। Continue reading “सुख और शांति-(प्रवचन-07)”

सुख और शांति-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-(क्षण में भगवान)

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं।

एक राजमहल के द्वार पर बहुत भीड़ लगी हुई थी। सुबह से भीड़ का लगना शुरू हुआ और फिर भीड़ बढ़ती ही गई। धीरे-धीरे सारा नगर ही उस महल के द्वार पर इकट्ठा हो गया। जो भी आया, फिर भीड़ से वापस नहीं लौटा, वह खड़ा ही हो गया। कुछ बड़ी अजीब बात उस द्वार पर घट गई थी। और सभी उत्सुक थे कि अंतिम परिणाम क्या होता है? सुबह ही सुबह एक भिखारी ने आकर अपना भिक्षापात्र राजा के सामने किया था। और राजा से एक शर्त रखी कि मैं तभी भिक्षा स्वीकार करूंगा, जब मेरा पूरा पात्र भर दिया जाए। चाहे मिट्टी से, चाहे सोने से। लेकिन एक ही शर्त पर भिक्षा लूंगा कि मेरा पूरा पात्र भर दिया जाए। Continue reading “सुख और शांति-(प्रवचन-06)”

सुख और शांति-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(विधायक संकल्प)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं अत्यंत आनंदित हूं कि इन थोड़े से क्षणों में कुछ अपने हृदय की बातें आपसे कह सकूंगा। मैं कोई उपदेशक नहीं हूं और समझता हूं कि उपदेशों से मनुष्य-जाति का कोई हित भी नहीं हुआ है। वरन शायद कोई अहीत और अमंगल ही हुआ है। सारी जमीन पर कोई तीन हजार वर्षों के इतिहास में इतनी बातें कही गई हैं, इतने विचार प्रकट किए गए हैं, इतने शब्दों का जाल निर्मित हुआ है कि उस जाल को तोड़ कर उन शब्दों और सिद्धातों से ऊपर आंख उठाना भी मुश्किल होता गया। और हमारे इस देश में तो दुर्भाग्य और भी गहरा है, हम तो इस जमीन पर भाषण देेने वाली कौम की तरह ही प्रसिद्ध हो गए हैं। Continue reading “सुख और शांति-(प्रवचन-05)”

सुख और शांति-(प्रवचन-04)

प्रवचन चौथा-(आदर्श नहीं, तथ्य )

जीवन की समस्याओं पर कुछ कहूं, उसके पहले एक छोटी सी बात निवेदन कर दूं। मेरे देखे जीवन में कोई समस्या नहीं होती है। समस्याएं होती हैं, मनुष्य के चित्त में। जीवन में कोई समस्या नहीं है, समस्याएं होती हैं, चित्त में, मन में। जो मन समस्याओं से भरा होता है, उसके लिए जीवन भी समस्याओं से भर जाता है। जो मन समस्याओं से खाली हो जाता है, उसके लिए जीवन में भी कोई समस्या नहीं रह जाती। फिर भी उन्होंने मुझसे कहा कि जीवन की समस्याओं पर कुछ कहूं, तो मैं थोड़ी अड़चन में पड़ गया हूं। क्योंकि जीवन तो यही है, कुछ लोग इसी जीवन में इस भांति जीते हैं, जैसे कोई समस्या न हो, और कुछ लोग इसी जीवन को अत्यंत उलझी हुई समस्याओं में बदल लेते हैं। इसलिए मूलतः सवाल, मूलतः प्रश्न व्यक्ति के चित्त और मन का है। फिर भी कैसे चित्त में समस्याएं जन्म लेती हैं, और कैसे मनुष्य के जीने की विधि, सोचने के ढंग, जीवन का दृष्टिकोण, उसके विचार की पद्धतियां; कैसे जीवन को निरंतर उलझाती चली जाती हैं, और बजाय इसके कि जीवन एक समाधान बने, अंततः, अंततः हम पाते हैं, जीवन के सारे धागे उलझ गए। बचपन से ज्यादा सुखद समय फिर जीवन में दोबारा नहीं मिलता। इससे ज्यादा दुखद और कोई बात नहीं हो सकती। क्योंकि बचपन तो प्रारंभ है, अगर प्रारंभ ही सबसे ज्यादा सुखद है, तो शेष सारा जीवन क्या होगा? Continue reading “सुख और शांति-(प्रवचन-04)”

सुख और शांति-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

परिधि नहीं, केंद्र है महत्वपूर्ण

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं सोचता था कि क्या आपसे कहूं। सच ही कोई उपदेश देने का सवाल नहीं है। और न ही उपदेश से कभी कोई लाभ हुआ है। वरन उपदेशों के कारण ही मनुष्य विभाजित हुआ है, खंडित हुआ है, संप्रदाय और पंथ बने हैं। मैं जो कह रहा हूं वह कोई उपदेश नहीं है, बल्कि मेरे अंतःकरण का आपके सामने खोलना है। ऐसी कोई आकांक्षा नहीं है कि मैं जो कहूं, उसे आप सत्य मानें। वरन यही मैं कहना चाहता हूं कि कोई भी दुनिया में कुछ कहे, उस किसी को भी सत्य मानना उचित नहीं है, जब तक कि खुद उसका अनुभव न हो जाए। यदि हम दूसरों की बातों को सत्य मान लेंगे, तो स्वयं सत्य को जानने से वंचित रह जाएंगे। जो भी विश्वास बना लेता है, और दूसरों को स्वीकार कर लेता है, वह खुद के उदघाटन से अपने ही हाथों, अपने ही हाथों, अपने उदघाटन से दूर हो जाता है। लेकिन हम सारे लोग ही विश्वास किए हुए हैं, हम सारे लोग ही किसी धर्म को, किसी पंथ को, किसी शास्त्र को अंगीकार किए हुए हैं, और यही कारण है कि हम सत्य को जानने में समर्थ नहीं हो पाएंगे। Continue reading “सुख और शांति-(प्रवचन-03)”

सुख और शांति-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(भागना नहीं, जागना)

मैं किस संबंध में आपसे कहूं, यह अभी सोचता रहा। जीवन में सुख पाने की आकांक्षा है–सभी को है। लेकिन जो भी सुख पाने की आकांक्षा से भरता है, वह साथ ही साथ दुख भी पाता है। यह स्वाभाविक है। यदि दुख का अनुभव न हो तो, सुख का कोई अनुभव नहीं होगा। इसलिए मैं सुख और शांति को अलग बातें मानता हूं, सुख और शांति को एक ही बात नहीं मानता। महावीर या बुद्ध की खोज सुख के लिए नहीं शांति के लिए है। हम सबकी खोज सुख के लिए है।

सुख और शांति में भेद है, वह थोड़ा हम समझेंगे तो कुछ और बातें समझनी आसान हो जाएंगी। सुख भी बहुत विचार करके देखा जाए, तो एक उत्तेजना की अवस्था है, सुख भी एक अशांति है। इसलिए यह भी हो सकता है बहुत सुख मिल जाए तो इतनी अशांति हो कि प्राण का अंत हो जाए। बहुत सुख में लोग मर जाते हैं। तो सुख शांति की अवस्था नहीं है। दुख भी शांति की अवस्था नहीं है। सुख-दुख दोनों उत्तेजनाओं की अवस्थाएं हैं। दोनों चित्त की बड़ी उद्वेलित अवस्थाएं हैं। थोड़ा सा भेद है। सुख प्रीतिकर उत्तेजना है और दुख अप्रीतिकर उत्तेजना है, लेकिन दोनों उत्तेजनाएं हैं। और यह भी हो सकता है कि जो उत्तेजना अभी प्रीतिकर लगे, वह अगर बार-बार पुनरुक्त हो, तो अप्रीतिकर हो जाए। जो सुख है, वह दुख में परिवर्तित हो सकता है। Continue reading “सुख और शांति-(प्रवचन-02)”

सुख और शांति-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(अमृत-बिंदु)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं अत्यंत आनंदित हूं कि जीवन के संबंध में थोड़ी सी बातें आपसे कर सकूंगा। मनुष्य के जीवन में बहुत पीड़ा, बहुत कष्ट है। ऐसा मनुष्य खोजना कठिन है जो ठीक से जी रहा हो। ऐसा मनुष्य भी खोजना कठिन है जो जीवन में आनंद का और धन्यता का अनुभव कर रहा हो। यदि हम अपने से पूछें या अपने पड़ोसी से पूछें तो यह ज्ञात करना कठिन होगा कि किसी ने जीवन को इस भांति अनुभव किया हो कि वह फिर से उसी जीवन को पाने के लिए उत्सुक हो जाए। ऐसा कष्ट, ऐसी पीड़ा स्वाभाविक है कि जीवन को एक उदासी से, निराशा से और अंधेरे से भर दे। बहुत कम लोगों की आंखों में प्रकाश मालूम होता है, बहुत कम लोगों की आंखों में ज्योति मालूम होती है, बहुत कम लोगों के हृदय में संगीत मालूम होता है। और तब, तब यह स्वाभाविक ही है कि हम एक बोझ की भांति अपने जीवन को ढोते हों, और यह स्वाभाविक ही है कि हम जीवन के रस से वंचित रह जाएं, और जिसे हम जीवन समझें वह केवल मृत्यु का, एक लंबी मृत्यु का दूसरा नाम हो। Continue reading “सुख और शांति-(प्रवचन-01)”

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