पथ की खोज-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)

सत्य के अज्ञात सागर का आमंत्रण

मैं विचार करता हूं कि किस संबंध में आपसे बातें करूं! बातें इतनी ज्यादा हैं और दुनिया इतनी बातों से भरी है कि संकोच होना स्वाभाविक है। बहुत विचार हैं, बहुत उपदेश हैं! सत्य के संबंध में बहुत से सिद्धांत हैं! डर लगता है कि कहीं मेरी बातें भी उस बोझ को और न बढ़ा दें, जो मनुष्य के ऊपर वैसे ही काफी हैं।

बहुत संकोच अनुभव होता है। कुछ भी कहते समय डर लगता है कि कहीं वह बात आपके मन में बैठ न जाए। बहुत डर लगता है कि कहीं मेरी बातों को आप पकड़ न लें। बहुत डर लगता है कि कहीं वे बातें आपको प्रिय न लगने लगें, कहीं वे आपके मन में स्थान न बना लें। क्योंकि मनुष्य विचारों और सिद्धांतों के कारण ही पीड़ित और परेशान है। उपदेशों के कारण ही वह बंधा है और परतंत्र है। Continue reading “पथ की खोज-(प्रवचन-07)”

पथ की खोज-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(ओशो)

सूर्य की ओर उड़ान

अभी-अभी आपकी तरफ आने को घर से निकला। सूर्य का किरण-जाल चारों ओर फैल गया है और वृक्ष पक्षियों के गीतों से गूंज रहे हैं। मैं सुबह के इस संगीत में तल्लीन था कि अनायास ही मार्ग के किनारे खड़े सूर्यमुखी के फूलों पर दृष्टि गई। सूर्य की ओर मुंह किए हुए, वे बड़े गर्वोन्नत खड़े थे। उनकी शान देखने ही जैसी थी! उनके आनंद को मैंने अनुभव किया और उनकी अभीप्सा को भी पहचाना। मैं उनके साथ एक हो गया और पाया कि वे तो पृथ्वी के आकाश को पाने के स्वप्न में हैं। अंधकार को छोड़ कर वे आलोक की यात्रा पर निकले हैं। मैं उनके साहस का गुणगान करता-करता ही यहां उपस्थित हुआ हूं और उनकी सफलता के लिए हजार-हजार प्रार्थनाएं मेरे हृदय में घनीभूत हो गई हैं। Continue reading “पथ की खोज-(प्रवचन-06)”

पथ की खोज-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

पथ की खोज (पूर्वनाम- सिंहनाद)

मेरे प्रिय!

मैं एक गहरे अंधेरे में था, फिर मुझे सूर्य के दर्शन हुए और मैं आलोकित हुआ। मैं एक दुख में था, फिर मुझे आनंद की सुगंध मिली और मैं उससे परिवर्तित हुआ। मैं संताप से भरा था और आज मेरी श्वासों में आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

मैं एक मृत्यु में था–मैं मृत ही था और मुझे जीवन उपलब्ध हुआ और अमृत ने मेरे प्राणों को एक नये संगीत से स्पंदित कर दिया। आज मृत्यु मुझे कहीं भी दिखाई नहीं देती। सब अमृत हो गया है। और सब अनंत जीवन हो गया है। Continue reading “पथ की खोज-(प्रवचन-05)”

पथ की खोज-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(ओशो)

जीवन-दर्शन

मैं जीवन-दर्शन के संबंध में कुछ कहूं, उससे पहले आपको कुछ कहना चाहूंगा कि जीवन यद्यपि हमें मिला हुआ मालूम होता है, हमें प्रतीत होता है कि हम जी रहे हैं। लेकिन सच में जीवन बहुत कम लोगों को उपलब्ध होता है। जन्म तो बहुत लोगों को मिलता है, सभी को मिलता है। जीवन सभी को नहीं मिलता। जन्म तो आपको मिलता है, जीवन आपको पाना होता है। जन्म तो आपको नेचर से, प्रकृति से मिलता है, जीवन आपको साधना से उपलब्ध करना होता है।

एक स्मरण मुझे आता है, एक साधु के पास एक व्यक्ति दीक्षित हुआ। जो व्यक्ति दीक्षित हुआ था, वह बहुत वृद्ध था। उसकी उम्र काफी थी। उस साधु ने उस वृद्ध साधु को, उस दीक्षित साधु को पूछा, आपकी उम्र क्या है? Continue reading “पथ की खोज-(प्रवचन-04)”

पथ की खोज-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

मूच्र्छा परिग्रह

तीन तरह के प्रश्न पूछे हैं अभी। एक तो ईश्वर संबंधी है, ईश्वर है या नहीं है?

जब भी हम ईश्वर के संबंध में सोचते हैं तो हम एक व्यक्ति की तरह, एक इंडिविजुअल की तरह सोचते हैं। जब हम पूछते हैं, ईश्वर है या नहीं तो हमारा मतलब होता है, एक व्यक्ति की तरह ईश्वर कहीं बैठा हुआ है या नहीं बैठा हुआ। व्यक्ति की तरह ईश्वर की जो कल्पना है, वह मनुष्य की अपनी ही कल्पना में निर्मित हुई है। मनुष्य ईश्वर की कल्पना ऐसी ही करता है जैसा वह स्वयं है। वह काम करता है, ईश्वर काम करता होगा। वह कुछ बनाता और मिटाता है, तो ईश्वर बनाता और मिटाता होगा। ईश्वर की जो कल्पना है, वह मनुष्य के ही रूप का विस्तृत रूपांतरण है। और यह मनुष्य की कल्पना के लिए बिल्कुल स्वाभाविक है, अगर बिल्लियां कल्पना करें तो ईश्वर की कल्पना बिल्ली जैसी होगी। अगर कुत्ते कल्पना करें तो ईश्वर की कल्पना कुत्ते जैसी होगी। बिल्कुल स्वाभाविक है कि हम अपने ही रूप में ईश्वर को कल्पित करते हैं। Continue reading “पथ की खोज-(प्रवचन-03)”

पथ की खोज-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

आत्म-दर्शन

आशा अंत में निराशा में परिणित हो जाती है, आनंद आत्मा में किसी भी तरह उपलब्ध होने को नहीं है, आनंद कोई प्राप्ति नहीं हो सकती, कोई उपलब्धि नहीं हो सकती, आनंद एक आविष्कार है जो इसी क्षण, अभी और यहीं हो सके तो हो सकता है, कल पर उसे नहीं छोड़ा जा सकता है। और उसे स्थगित नहीं किया जा सकता है। सामान्यतया हम सोचते हैं आनंद कभी मिलेगा, और उसके लिए प्रयासरत होते हैं, जैसे हमारे भीतर कहीं यह धारणा बैठी है कि आनंद को कहीं हमें उपलब्ध करना है, कहीं जाकर पाना है। महावीर की, बुद्ध की, क्राइस्ट की या कनफ्यूशियस की, उन सबकी जीवन दृष्टि हमारे इस विचार के विरोध में है। उनका जानना ऐसा जानना है कि आनंद अभी और यहीं अविष्कृत हो सकता है। हम उसे अपने भीतर लिए हैं, वह हमारे साथ है, केवल उघाड़ने के विज्ञान को जानने की बात है। केवल उघाड़ने के विज्ञान को जानने की बात है। अपने भीतर कुछ आविष्कार करने की, कुछ ढका है; उसे अनढंका करने की बात है। इस विज्ञान को ही मैं धर्म कहता हूं। Continue reading “पथ की खोज-(प्रवचन-02)”

पथ की खोज-(प्रवचन-01)

पथ की खोज-(विविध)-ओशो

पहला-प्रवचन

आनंद हमारा स्वरूप है

प्रिय आत्मन्!

मेरा आनंद है और मेरा सौभाग्य, उस अमृत के संबंध में मैं थोड़ी सी बातें करूं। उस स्वार्थ के संबंध में मैं थोड़ी सी बातें करूं, उस अनुभूति के संबंध में थोड़ी सी बातें करूं जिसको कि शब्द में बांधना मुश्किल है। मनुष्य के पूरे इतिहास में कितने लोग प्रकाश को उपलब्ध हुए हैं, कितने जीवन उनसे प्रकाशित हो गए हैं, कितनी चेतनाएं मृत्यु के घेरे को छोड़ कर अमृत के जीवन को पा गई हैं, कितने लोगों ने पशु को नीचे छोड़ कर प्रभु के उच्च शिखरों को उपलब्ध किया है। लेकिन उस अनुभूति को, उस संक्रमण की अनुभूति को आज तक शब्दों में बांधा नहीं जा सका है। उस अनुभूति को जो परम जीवन को उपलब्ध होने पर छा जाती है, उस लक्ष्य को, उस आनंद को, उस पुलक को जो पूरी ही चेतना को नये लोक में बहा देता है, उस संगीत को जो सारे विकास को विसर्जित कर देता है, आज तक शब्दों में बांधा नहीं जा सका है। आज तक कोई भी शब्द उसको प्रकट नहीं कर सके। आज तक कोई शास्त्र उसको कह नहीं सका। परलोक जो कहा नहीं जा सकता उसे कैसे कहूंगा? तब मैं पूछता हूं अपने से कि क्या बोलूं? Continue reading “पथ की खोज-(प्रवचन-01)”

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