कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-10)

एकांत की गरिमा—दसवां प्रवचन

कहै कबीर मैं पूरा पाया—

प्रश्न-सार

  1. संत परमात्मा की खोज में समाज और परिवार का छोड़ने जंगल क्यों चले जाते हैं?
  2. आपके आश्रम में यदि कोई एक ही साधना पद्धति हो, तो क्या साधकों को ज्यादा सुविधा नहीं होगी?
  3. एक मस्ती छा रही है, लेकिन भय लगता है कि यह खो तो नहीं जाएगी?
  4. सती-प्रथा का आज क्या मूल्य है?
  5. जीवन का अर्थ क्या है?

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कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-09)

मन लागो यार फकीरी में—नौवां प्रवचन

कहै कबीर मैैं पूरा पाया—

सूत्र :

मन लागो मेरा यार फकीरी में।

जो सुख पायो राम भजन में, सो सुख नाहिं अमीरी में।

भला बुरा सबको सुन लीजै, कर गुजरान गरीबी में।।

प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि बनी आइ सबूरी में।

हाथ में कूरी बगल में सोंटा, चारो दिसि जागीरी में।।

आखिरी यह तन खाक मिलेगा, कहा फिरत मगरूरी में।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहब मिले सबूरी में।।

समझ देख मन मीत पियरवा, आसिक होकर सोना क्या करे। Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-09)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-08)

प्रेम का अंतिम निखार-(परमात्मा)—आठवां प्रवचन

कहै कबीर मैं पूरा पाया—

प्रश्न-सार

  1. आप प्रेम को सर्वोपरि महिमा क्यों देते हैं?
  2. अदृश्य और अश्राव्य परमात्मा कैसे दृश्य और श्राव्य बनता है?
  3. कबीर–आप–बेबूझ हैं। बेबूझ में कैसे डूबें?
  4. चैथा प्रश्नः आपका मूल संदेश क्या है?
  5. मुझे आपका प्रेम है या नहीं इससे मुझे जरा भी आंच नहीं है।
  6. आखिरी प्रश्नः प्रार्थना यानी क्या?

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कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-07)

प्रभु-प्रीति कठिनसातवां प्रवचन

कहै कबीर मैं पूरा  पाया—

 सूत्र :

साई से लगन कठिन है भाई।

जैसे पपीहा प्यासा बूंद का, पिया पिया रट लाई।।

प्यासे प्राण तरफै दिनराती, और नीर ना भाई।।

जैसे मिरगा सब्द-सनेही, सब्द सुनन को जाई।।

सब्द सुने और सत-प्राणदान दे, तनिको नाहिं डराई।

जैसे सती चढ़ी सत-ऊपर, पिया की राह मन भाई।।

पावक देखि डरै वह नाहीं, हंसते बैठे सदा माई।

छोड़ो तन अपने का आसा, निर्भय हवे गुन गाई। Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-07)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-06)

सदगुरु की महत्ताछठवां प्रवचन

कहै कबीर मैं पूरा पाया…

 प्रश्न-सार

  1. कबीर के इन दो विरोधाभासी वचनों पर आपका क्या कहना हैः

 राम ही मुक्ति के दाता हैं, सदगुरु तो केवल प्रभु-स्मरण जगाते हैं।

 हरि सुमिरै सो वार है, गुरु सुमिरै सो पार।

  1. मैं अपने दुखभरे अतीत को क्यों नहीं भूल पाता हूं?
  2. क्या ममता और मेरेपन के भाव के बिना प्रेम संभव है?
  3. संतों ने जीवन को दुखा की भांति क्यों निरूपित किया है? क्या यह दुखवाद उचित है?
  4. आप आश्रम दूसरी जगह ले जा रहे हैं, तो पूना छोड़ आपके साथ चलूं या यहीं रुक कर काम करूं?

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कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-05)

क्या तेरा क्या मेरा-पांचवां प्रवचन

कहैै कबीर मैं पूरा पाया-

सूत्र :

रे यामै क्या मेरा क्या तेरा।

लाज न मरहिं कहत घर मेरा।।

चारि पहर निसि भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा।

जैसे बनिए हाट पसारा, सब जग कासो सिरजनहारा।।

ये ले जारे वे ले गाड़े, इन दुखिइनि दोेऊ घर छाड़े।

कहत कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम्ह विनसि रहेगा सोई।।

मन तू पार उतर कहं जैहौं।

आगे पंथी पंथ न कोई, कूच-मुकाम न पैहों।। Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-05)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-04)

चौथा –प्रवचन–आनंद पर आस्था-

कहै कबीर मैं पूरा पाया-

प्रश्न-सार

  1. सच में ही आनंद बरस रहा है, या मैं कल्पना और अतिशयोक्ति कर रहा हूं?
  2. मैं अकारण ही उदास क्यों रहता हूं?
  3. यह पूछूं कि वह पूछूं? आज पूछूं कि कल पूछूं?
  4. प्रभु-खोज कहां से शुरू करूं?

पहला प्रश्नः मुझ पर आनंद की वर्षा हो रही है, उसके लिए आपको धन्यवाद देने की इच्छा होती है। लेकिन पता नहीं है कि सच में आनंद बरसता है या मैं कल्पना कर रहा हूं या अतिशयोक्ति कर रहा हूं!

मनुष्य का मन बड़ा उपद्रवी है। दुख हो तो भरोसा करता है और आनंद हो तो संदेह करता है। दुख पर कभी संदेह नहीं आता कि कहीं यह कल्पना तो नहीं है! दुख को तो तुम एकदम मान लेते हो–बड़ी निष्ठा, बड़ी श्रद्धा से। मैंने आदमी ही नहीं देखा, जो दुख पर संदेह करता आता हो कि मैं बहुत दुखी हूं, मुझे संदेह होता है कि सच में मैं दुखी हूं कि मैं कल्पना कर रहा हूं! कोई ऐसा कहता नहीं कि कहीं मैं दुख के संबंध में अतिशयोक्ति तो नहीं कर रहा!

दुख को हम मान लेते हैं। दुख में हमारी बड़ी आस्था है। लेकिन जब आनंद की लहर आती है तो संदेह उठने शुरू होते हैं कि कहीं कल्पना न हो, कि कहीं सपना न होे, कि कहीं आत्मसम्मोहन न कर लिया हो। किसी भ्रांति में तो नहीं पड़ गया हूं! अतिशयोक्ति तो नहीं हो रही! पागल तो नही हो गया हूं! ऐसे हजार प्रश्न खड़े हो जाते हैं। इसमें झांकने की जरूरत है।

दुख को तुम मान लेते हो, क्योंकि दुख मन का स्वभाव है। आनंद को तो तुम नहीं मान पाते, क्योंकि आनंद मन का स्वभाव नहीं है। आनंद मन के पार है। दुख मन के भीतर है। दुख मन है। और आनंद अ-मन की दशा है। मन कैसे माने!

अंधेरा अंधेरे को मान लेता है, लेकिन रोशनी को कैसे माने! रोशनी बहुत बेबूझ है; किसी अज्ञात से आती है–कहां से आती है, पता नहीं। इतना तो तय है कि अंधेरे के भीतर से नहीं आती।

जो तुम्हारे मन में से पैदा होता है, जो पत्ते तुम्हारे मन में लगते हैं, वे तो स्वाभाविक मालूम होते हैं; क्योंकि मन से तुम्हारा तादात्म्य है और आत्मा से तुम्हारा तादात्म्य नहीं।

आनंद है आत्मा का स्वभाव। दुख है मन का स्वभाव।

तुम मन में रहने के आदी हो। आत्मा से तुम्हारी पहचान ही छूट गई! तो जब कभी अज्ञात से…। अज्ञात कहता हूं इसलिए, क्योंकि तुम्हें आत्मा का कोई बोध नहीं; जब किसी इस अनजान रास्ते से कोई किरण उतरती है–नाचती, घूंघर बजाती–मन चैंक कर कहता है कि यह कल्पना होनी चाहिए। क्योंकि मन ने जब भी सुख पाया है, तो सिर्फ कल्पना में ही पाया है। वस्तुतः तो कभी पाया नहीं।

यह बड़ा मकान दिखाई पड़ता है, यह मुझे मिल जाए तो बड़ा सुख होगा–ऐसी कल्पना में मन ने सुख पाया है। यह सुंदर स्त्री मुझे मिल जाए, यह सुंदर पुरुष मुझे मिल जाए, यह सुंदर बेटा मेरा हो, ये फूल मेरे बगीचे में खिलें, ऐसी मेरी प्रतिष्ठा हो, ऐसा मेरा नाम हो, यह पद मुझे मिले–ऐसी कल्पना में मन ने खूब सुख पाया–बस कल्पना में; आशा में; वासना में। जब वह मकान तुम्हें मिल जाएगा, तब मन को कोई सुख नहीं मिलता। जब उस स्त्री को तुम पा लोगे, तो मन को कोई सुख नहीं मिलता। मन सुख लेना जानता ही नहीं। मन सुख की भाषा से अपरिचित है।

तो मन ने केवल कल्पना में सुख पाया है; वस्तुतः यथार्थ में दुख पाया है।

इसलिए जब तुम्हारे जीवन में पहली आत्मा की किरण उतरेगी–नाचती, गुनगुनाती, आह्लाद से भरती, सुगंध को जगाती, हजार फूलों को खिलाती–जब तुम पर वसंत आएगा आनंद का, तो मन कहेगाः फिर कोई कल्पना हो रही है। जन्मों-जन्मों का यही अनुभव है मन का। मन कहेगाः मैं अतिशयोक्ति करे ले रहा हूं। मन कहेगाः यह हो नहीं सकता। ऐसा कभी हुआ है? यह कैसे हो सकता है?

दुख होता है, हुआ है; अनुभूत है, जाना-माना है, इतिहास है हमारा। और यह जो आनंद आ रहा है, इसे उस इतिहास का कोई संबंध नहीं जुड़ता। यह तुम्हारी आत्मकथा के बाहर से आ रही है बात। तुम्हारी आत्मकथा तो दुख और पीड़ा की है, संताप की है। तुम्हारी आत्मकथा तो नरक की है। और यह स्वर्ग उतरने लगा! जरूर तुम किसी सपने में खो गए हो, किसी नशे में पड़ गए हो, किसी दीवानेपन में उलझ गए हो।

मन की इस स्थिति को समझना।

और अगर तुमने मन की बात मान ली, तो जो आनंद उतर रहा है, वह सपना हो जाएगा, क्यांेकि तुम उसे स्वीकार न करोगे। द्वार आए मेहमान को वापस लौटा दोगे। जो आंनद उतर रहा था, वास्तविक था, वास्तविक हो सकता था–तुम्हारे जीवन की संपदा बन जाता। लेकिन तुम्हारा मन कहता हैः ‘कल्पना है; मैं नहीं मान सकता। ऐसा, और मुझे हो! नहीं-नहीं! असंभाव्य है। ऐसा अगर तुमने कहा और अगर तुमने इसमें ही अपने पैर रोके रखे, तो तुम द्वार न खोलोगे। अतिथि द्वार आया, लौट जाएगा। और फिर निश्चित ही सपना हो जाएगा। तब मन कहेगाः देखो, मैंने पहले ही कहा था! इसलिए मैं कहता हूं कि मन का बड़ा उपद्रव है। मन कहैगाः देखो, मैंने पहले ही कहा था सपना है; अब देखो? सपना हो गया।

मन ने कह कर ही सपना करवा दिया।

मन को तो सुख के साथ जीना आता नहीं। मन की मौज तो दुख है।

यह वक्तव्य विरोधाभासी लगे तो लगे, लेकिन ऐसा है कि मन सुखी होता है, जब दुखी होता है। और मन दुखी हो जाता है, जब सुख होता है।

मुझे अब जिंदगी बेकार-सी मालूम होती

कयामत हो गया है नशा-ए-गम का उतर जाना।

और जब दुख का नशा उतर जाता है तो मन मरने लगता है। ‘मुझे अब जिंदगी बेकार-सी मालूम होती!’ फिर जिंदगी में कुछ काम नहीं मालूम होता, अर्थ नहीं मालूम होता।

इसलिए तुम यह जान कर चकित होओगे कि जिनके पास जीवन में कुछ भी नहीं है, वे लोग धर्म की तरफ उत्सुक नहीं होते; क्योंकि अभी उनके मन को फैलने के काफी उपाय हैं। मकान नहीं है, मकान की कल्पना कर सकते हैं। पत्नी नहीं है, पत्नी की कल्पना कर सकते हैं। बच्चे नहीं, बच्चे की कल्पना कर सकते हैं। जितना नहीं है, उतनी कल्पना को सुविधा है। मन आशाएं बनाए रख सकता है।

लेकिन अगर यह सब तुम्हें मिल जाए जो तुम्हारा मन मांगता है, तब क्या करोगे? तब तो और आशा को जगह न रही, स्थान न रहा फैलने को। सब आशाएं पूरी हो गई, फिर क्या करोगे? सब दुख कट गए, फिर क्या करोगे?

मुझे अब जिंदगी बेकार-सी मालूम होती है।

कयामत हो गया है नशा-ए-गम का उतर जाना।

दुख का भी एक नशा है। जब वह उतर जाता है, तो एकदम ऐसा लगेगाः अब जीने में क्या सार? इसलिए लोग दुख को पकड़ते हैं। इधर कहे भी चले जाते हैं कि दुख से मुक्त होना है, उधर दुख को छोड़ते भी नहीं। इधर कहे चले जाते हैः कैसे दुख से छूटूं, और उधर नीचे जड़ें दुख में फैलाए चले जाते है। कहते हैंः क्रोध बुरा है, लेकिन छोड़ते नहीं। कहते हैंः मोह बुरा है, लेकिन छोड़ते नहीं। कहते हैंः ईष्र्या जलाती है आग की तरह–और क्या लपटें होंगी नरक की!–लेकिन छोड़ते नहीं। ये सब कहने की बातें हैं। तुम्हारे कहने पर कोई भरोसा कर ले, तो बड़ी मुश्किल मे पड़ जाएगा; क्याोंकि तुम जो कहते हो, उससे उलटा करते हो।

सुख के सूत्र बहुत सीधे-साफ हैं। लेकिन अड़चन यहां है कि दुख को पकड़ कर तुम रखना चाहते हो। यह भी एक काम है तुम्हारे मन के लिए कि दुख है, दुख से छुटकारा पाना है। तुम डरते हो कि कहीं छुटकारा हो ही न जाए, अन्यथा फिर क्या करूंगा! ऐसी तुम्हारी दशा है अभी।

पूछते होः ‘आनंद की वर्षा हो रही है। उसके लिए आपको धन्यवाद देने की इच्छा होती है।’

उसमें भी कंजूसी! इच्छा होती है; अभी दिया नहीं है धन्यवाद। सोच रहे हो! इच्छा होती है, दबा रहे होओगे। धन्यवाद देने में भी इतनी कृपणता!

मन धन्यवाद देना भी नहीं जानता। वह भी उसकी भाषा नहीं है। मन शिकायत करना जानता है। मन शिकायती है। क्योंकि शिकायत से भी दुख होता है। शिकायत से भी पीड़ा होती है। शिकायत से भी कांटा चुभता है। और जितनी तुम शिकायत करते हो, उतना दुख बढ़ता जाता है। जितना तुम धन्यवाद दोगे, उतना सुख बढ़ता जाएगा।

धन्यवाद का अर्थ हैः तुमने सुख को अंगीकार किया। तभी तो धन्यवाद दोगे न! अभी तो तुमने स्वीकार ही नहीं किया, धन्यवाद किस बात का! अभी तो तुम्हें शक ही है कि यह जो हो रहा है, सच भी है? अगर कल्पना ही है, तो फिर धन्यवाद क्या देना! अभी तो तय करना है कि सच है, तो फिर सोचेंगे।

सच भी हो, तब भी लोग धन्यवाद देने में बड़ी कृपणता करते हैं।

मैंने सुना है, अमरीका में एक बड़ी जौहरी की दुकान, सबसे बड़ी दुकान; उस दुकान के सौ वर्ष पूरे हो गए। तो उस दुकान के मालिकों ने तय किया था कि जो व्यक्ति भी कल सुबह पहला ग्राहक दुकान में प्रवेश करेगा, उसको लाख रुपये का हार भेंट करोंगे। सौ वर्ष दुकान के पूरे हो गए हैं; यह उन्होंने सौ वर्ष की पूर्ति पर समारोह मनाने का आयोजन किया, इससे समारोह शुरू होगा। जो भी पहला ग्राहक प्रविष्ट होगा….।

और दुकान के दरवाजे खुले और एक स्त्री बड़ी तेजी से भीतर प्रविष्ट हुई। उन्होंने बैंड-बाजे बजाए, सबने उसे घेर लिया-दुकान के सभी कार्यकर्ताओं ने। मालिक आया; उसके गले में लाख रुपये का हार पहनाया। मगर वह स्त्री वैसे ही खड़ी रही। समझाया उसे कि हमने यह तय किया था कि एक लाख रुपये का हार भेंट करेंगे, जो भी पहला ग्राहक आएगा; तुम धन्यभागी हो।

तब उन्होंने पूछा कि किसलिए आई हो? तो उसने कहा, ‘शिकायत दर्ज करने।’ अमरीका की बड़ी दुकानों पर शिकायत का रजिस्टर रखा रहता है। ‘शिकायत दर्ज करने’! और वह स्त्री लाख रुपये का हार पा कर भी शिकायत दर्ज करना न भूली। वह लाख रुपये का हार कुछ भी नहीं है!

जैसे ही वह उत्सव-समारोह पूरा हुआ, वह भागी और गई दफ्तर के अंदर और शिकायत के रजिस्टर में, उसे जो शिकायत लिखनी थी, वह लिखी। यह लाख रुपये की भेट भी उसे प्रसन्न न कर सकी! यह लाख रूपये की भेंट भी उसे धन्यवाद देने के लिए तैयार न कर सकी। शिकायत तो करनी ही है। शिकायत होगी कोई छोटी-मोटी। कभी कुछ गहना खरीदा होगा यां कुछ होगा, कुछ शिकायत की बात होगी।

मन शिकायत में पटु है। मन बड़ा वाचाल है शिकायत में।

जब तुम शिकायतें करने लगते हो, तब तुमने देखा कि तुम कितनी कुशलता से बोलते हो! लोगों के दुख सुनो। दुख की बात करते वक्त हर व्यक्ति वक्ता होता है; बड़ी कुशलता से बोलता है। दुख की चर्चा करते वक्त हर व्यक्ति कवि हो जाता है। बड़ी ठीक-ठीक उपमाएं खोजता है।

तुम लोगों का जरा दुख सुनो। घंटों लगा देते हैं! सुनाए ही चले जाते हैं; अंत नहीं आता। सुख में जबान एकदम लड़खड़ा जाती है।

अब तुम पूछते हो कि ‘धन्यवाद देने की इच्छा होती है!’…दबा रहे हो उसको क्या? धन्यवाद देने में इतनी कृपणता क्यों? धन्यवाद तुम्हारा क्या ले जाएगा? धन्यवाद में खोता क्या है? खोता कुछ भी नहीं, मिलता बहुत है। और शिकायत में खोता बहुत है, मिलता कुछ भी नहीं।

मगर तुम अपने दुश्मन हो। तुम काम ही ऐसा करते हो, जो अपने ही साथ घात है–आत्मघात है। इसमें पूछना क्या है? धन्यवाद दे दो! और चैंक कर तुम पाओगे कि जैसे ही धन्यवाद दिया, और आनंद उतरा। क्योंकि धन्यवाद देने का मतलब ही यह होता है कि तुमने, आनंद जो उतरा था, उसे स्वीकार किया–उसके सत्य को स्वीकार किया, उसकी प्रामाणिकता को अंगीकार किया। तभी तो धन्यवाद दे सके।

‘इच्छा होती है कि धन्यवाद दूं, लोकिन पता नहीं कि सच में आनंद बरसता है या कि कल्पना है या कि अतिशयोक्ति!’

अब इसका कैसे पता करोगे? आनंद बरस रहा है।

यह हवाई जहाज गुजर रहा है, यह आवाज सुनाई पड़ रही है (प्रवचन में इसी क्षण ऊपर से हवाई जहाज गुजरा) अब कैसे और पता करोगे कि यह कल्पना तो नहीं है? ये सूरज की किरणें वृक्षों को पार करके तुम तक आ रही हैं, अब कैसे और पता करोगे कि यह कल्पना तो नहीं है? ये पक्षियों के गीत तुम्हें सुनाई पड़ रहे हैं, अब और कैसे पता करोगे कि यह कल्पना तो नहीं है? और क्या उपाय है?

सिर में दर्द होता है, तो तुम जानते हो कि सिर में दर्द है। नासापुटों में फूलों की गंध भर जाती है, तो तुम जानते हो कि सुगंध ने तुम्हे घेरा है। देखते हो, आंख चांद-तारों से भर जाती है, तो जानते हो कि चांद-तारे हैं! और क्या उपाय है?

आनंद के साथ तुम और अतिरिक्त शर्तें क्यों बांधना चाहते हो? इतना काफी नहीं है कि आनंद बरस रहा है, ऐसा तुम्हें अनुभव हो रहा है? इस बरसते आनंद में डूबो। इस बरसते आनंद में पिघलो; खो जाओ। उठने दो अहोभाव को। नहीं तो कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि पहुंचते-पहुंचते आदमी चूक जाता है; करीब आते-आते रुक जाता है। कभी-कभी मंजिल पर एक कदम और, और मंजिल मिल जाती–और आदमी लौट पड़ता है।

मुखालिफ वक्त हो तो बन-बन बिगड़ता है।

सफीना जा पड़ा मझधार में टकरा के साहिल से।

कभी-कभी ऐसा हो जाता है, नाव किनारे से टकरा कर दूर निकल जाती है किनारे से और मझधार में जा कर डूब जाती है। किनारे से टकरा कर मझधार में पहुंच जाती है।

‘सफीना जा पड़ा मझधार में टकरा के साहिल से।’

किनारे पर हो, हिम्मत करो! मैं कहता हूंः हिम्मत करो आनंद को स्वीकार कर लेने की! बड़ी हिम्मत की जरूरत है, तो ही स्वीकार कर सकोगे।

दुख को तो कोई भी स्वीकार कर लेता है। दुख को स्वीकार करने में किसी हिम्मत की कोई जरूरत नहीं। आनंद को स्वीकार करना बड़ी हिम्मत की बात है, बड़े साहस की। क्यांेकि आनंद तुम्हारे अहंकार को मिटा देगा। क्यांेकि आनंद तुम्हारी अब तक की चली आई पुरानी धारा को तोड़ देगा। क्योंकि आनंद तुम्हारे अतीत को पोंछ देगा और एक नये जन्म और एक नये भविष्य की शुरुआत होगी। क्योंकि आनंद में मृत्यु है और पुनर्जन्म है।

हिम्मत करो। स्वीकार करो। आनंद ही बरस रहा है। और तुम धन्यभागी हो कि तुम पर प्रभु का प्रसाद हुआ है। अब इसे इन बातों में मत खो देना। नहीं तो पीछे पछताओगे।

मुखालिफ वक्त हो तो काम बन-बन कर बिगड़ता है

सफीना जा पड़ा मझधार में टकरा के साहिल से।

फिर बहुत पछताओगे, क्योंकि यह किनारा दुबारा मिले, न मिले! तुम कितने दूर निकल जाओ किनारे से, कौन जाने! आज तुम यहां मेरे साथ हो, आज तुम इस हवा में हो, आज ये चारों तरफ नाचते हुए प्रसन्न लोगों का समूह तुम्हें मिला है–फिर दुबारा मिले, न मिले! आज ध्यान का सरगम तुम्हारे भीतर बैठने लगा है; कौन जाने, कल भी ऐसा सौभाग्य हो, न हो! कल की प्रतीक्षा न करो; आज जो हो रहा है, इसे हृदय में भर लो। आलिंगन कर लो! मस्त हो उठो।

खोएगा क्या! समझ लो यही कि कल्पना थी।

कभी-कभी मैं हैरान होता हंू कि अगर यही बात मान ली जाए कि कल्पना है, तो भी कल्पना में सुखी होना ज्यादा बेहतर है, बजाय यथार्थ में दुखी होने के। हालांकि यह कल्पना नहीं है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि चलो यही मान लो कि कल्पना है, तो हर्ज क्या? थोड़ी देर को सुखी अगर कल्पना में भी हो लिए… इतना-सा विश्राम भी नहीं देना चाहते अपने को! दुखी होने की ऐसी जिद कर रखी है!

चलो, कल्पना ही सही, तो थोड़ी देर कल्पना में ही रस ले लो। आज जो कल्पना मंे है, शायद कल यथार्थ बन जाए। यद्यपि

दोहरा दूं कि कल्पना नहीं है। और तुम से यह भी कह दूं कि तुम्हारे सब दुख कल्पना हैं; और आनंद कल्पना नहीं है।

इसीलिए ज्ञानियों ने आनंद को स्वभाव कहा है। स्वभाव का मतलब होता हैः जो तुम्हारे भीतर पड़ा ही है। और दुख पर-भाव है। है नहीं तुम्हारे भीतर, माना हुआ है; तुम्हारी मान्यता है। किसी आदमी ने कुछ कहा, तुमने समझा कि अपमान हो गया और तुम

दुखी हो गए। कोई रास्ते पर खड़ा हंस रहा था और हो सकता है किसी और बात पर हंसता हो, तुम समझे कि तुम पर हंस रहा है और तुम दुखी हो गए।

दुख बाहर से आता है। आनंद भीतर से आता है। दुख दूसरों की तरफ से आता है। दुख संसार से आता है और आंनद स्वयं से। दुख कल्पना है, क्योंकि जो भी तुम बाहर से ले लेते हो, वह वस्तुतः तुम्हारा नहीं है। ये बाहर की दी गई गालियां भी पड़ी रह जाएगी, सम्मान भी पड़े रह जाएंगे। बाहर का कोई बहुत मूल्य नहीं है। बाहर–ज्यादा से ज्यादा तुम्हारी सतह को छूता है।

जैसे सागर पर लहरें उठती हैं, हवा के उत्तुंग वेग आते हंै और सागर में लहरें फैल जाती हैं–लेकिन सतह पर ही फैलती हैं लहरें। सागर गहराई में तो शून्य है, मौन है; वहां कोई तरंग नहीं है; वहां कोई हालचल नहीं है; वहां कोई परिवर्तन नहीं है। वहां शाश्वत का वास है। वहां समाधि की दशा है।

ऐस ही तुम्हारी हालत है। तुम्हारी आत्यंतिक गहराई में सब शांत है, सब मौन है, सब आनंद से भरा है। सिर्फ तुम्हारी सतह पर…। उस सतह का नाम ही मन है। वहीं बाहर के झंझावात आ जाते हैं, आंधियां आ जाती हैं और तुम्हें आंदोलित कर जाता है।

दुख उधार है। आनंद स्वयं का है।

आनंदित अगर कोई होना चाहे, तो अकेले में भी हो सकता है; दुखी होना चाहे, तो दूसरे की जरूरत है। इस बात को तुमने कभी खोजा कि दूसरे के बिना आदमी दुखी नहीं हो सकता। दूसरा चाहिए ही दुख के लिए।

तुम अपने दुखों की तलाश करना। तुम पाओगेः सब दुख दूसरे से जुड़े हैं। ऐसा कोई दुख नहीं है, जो दूसरे से न जुड़ा हो। कोई धोखा दे गया; किसी ने गाली दे दी; कोई तुम्हारे मन के अनुकूल न पड़ा; किसी ने ऐसा व्यवहार किया, जैसी अपेक्षा न थी–सब दुख दूसरे से जुड़े हैं। और आनंद का दूसरे से कोई संबंध नहीं है। आनंद स्व-स्फूर्त है। इसलिए हिमालय की गुफा में बैठा हुआ आदमी भी आनंदित हो सकता है। दुखी होना हो, तो बाजार में आना जरूरी है। वहां बैठे-बैठे दुखी नहीं हो सकता।

इसलिए लोग अगर जंगल में भागने लगे, तो अकारण नहीं। वह इसीलिए कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी; दूसरे को छोड़ कर भाग जाओ। दूसरा बचेगा ही नहीं, तो फिर कैसा दुख!

लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि दूसरे को छोड़ कर तुम भाग गए तो शायद दुखी तो तुम न होओ, यह तो हो सकता है; लेकिन आनंदित भी तुम न हो पाओगे। क्योंकि दूसरे को छोड़ कर भागे हो, तो दूसरे का डर तो बना ही हुआ है। और जिसको छोड़ कर भागे हो, उसकी तंरगें मन में घूमती रहेंगी। जिसको छोड़ कर आ गए हो, वह मन में खड़ा रहेगा।

तो अक्सर ऐसा हो जाएगा, जंगल में भाग गए आदमी को…

आज न कोई दूर न कोई पास है

फिर भी जाने क्यांे मन आज उदास है?

आज न सूनापन भी मुझसे बोलता

पात न पीपल पर भी कोई डोलता

ठिठकी-सी है वायु, थका-सा नीर है

सहमी-सहमी रात, चांद गंभीर है

गुप-चुप धरती, गुम-सुम सब आकाश है

फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?

आज शाम को झरी नहीं कोई कली

आज अंधेरी नहीं रही कोई गली

आज न कोई पंथी भटका राह में

जला पपीहा आज न प्रिय की चाह में

आज नहीं पतझार, नहीं मधुमास है।

फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?

आज अधूरा गीत न कोई रह गया

चुभने वाली बात न कोई कह गया

मिल कर कोई मीत आज छूटा नहीं

जुड़ कर कोई स्वप्न आज टूटा नहीं

आज न कोई दर्द न कोई प्यास है

फिर भी जाने क्यांे मन आज उदास है?

तो दुखी तो न रह जाओगे, अगर संसार से भाग गए–उदासी हो जाओगे।

संसार छोड़ कर भागने का प्रश्न नहीं है। वह तो नकारात्मक बात हुई। विधायक बात है–परमात्मा को अपने में निमंत्रित कर लेना। इसकी बजाय कि तुम हिमालय की गुफा में जाओ, हिमालय की गुफाओं को अपने हृदय में बसाओ। इसकी बजाय कि तुम हिमालय की शांति और शीतलता खोजो, हिमालय की शांति और शीतलता को अपने भीतर आमंत्रित करो, बुलाओ। वह तुम्हारे भीतर बसे। हिमालय तुम्हारे भीतर बस जाए; फिर तुम बाजार में रहो, व्यवसाय में रहो, भीड़-भाड़ में रहो–कोई अंतर न पड़ेगा।

आनंद निश्चित बरस रहा है, लेकिन इतना नया है कि तुम जो भी जानते हो, उससे उसका कोई तालमेल नहीं बैठता। तो चलो यही मान लो कि अभी कल्पना है। कल्पना भी मानो, मगर स्वीकार करो। कल्पना भी क्या बुरी! आनंद की कल्पना है। शायद यही आनंद की पदचाप हो, जो अभी पदचाप की तरह दूर सुनाई पड़ती है, वह धीरे-धीरे पास आती जाएगी। जो अभी स्वप्न है, कल सत्य हो सकता है। मगर सत्य करने के मार्ग पर पहली जरूरत है कि उसे तुम स्वीकार करो, अंगीकार करो। तो ही तुम्हारे भीतर बीजारोपण होगा। तो ही तुम बदलोगे।

लेकिन हमारी पुरानी समझ हमें गलत व्याख्याओं में ले जाती।

मैंने सुना है प्रेमिका बार-बार मुल्ला नसरुद्दीन से कह रही थीः ‘तुम डैडी से कहना कि तुम मुझसे विवाह करोगे।’ पर मुल्ला था कि चुप। ऐसा चुप कि जैसे न सुन सकता है, या कि बोल नहीं सकता, गूंगा है; बहरा है कि गंूगा है। अंत में प्रेमिका ने झल्ला कर कहाः ‘कहो न, डैडी से कहोगे, बेवफूक!’ इस पर मुल्ला खूब खुश हो गया और खुश होकर बोलाः ‘कहंूगा, जरूर कहूंगा!’ ‘क्या कहोगे?’–प्रेमिका उल्लासित हो कर बोली।

‘बेवफूक’–मुल्ला ने कहा। अपनी व्याख्या है। अपने चुनाव हैं।

आनंद बरस रहा है, उसे तो तुम नहीं स्वीकार कर रहे; तुम एक नयी चिंता पैदा कर रहे हो कि कहीं यह कल्पना तो नहीं है! तुम संदेह उठा रहे हो । संदेह के धुंए में खो जाएगा। संदेह का बादल जोर से घिर गया, तो यह रोशनी की किरण फिर दिखाई न पड़ेगी। सूरज ढंक जाता है बादलों में, तो यह तो चांद अभी बहुत छोटा-सा है, तुम्हारे भीतर जो उगा है आनंद का; संदेह के बादलों में छिप जाएगा। भरोसा करो।

और हर्ज क्या है? खो क्या जाएगा? आनंद पर भरोसा करने में खो क्या सकते हो? हर्ज क्या हो सकता है? दुख पर भरोसा मत करो। दुख पर भरोसा करने में सदा कुछ खोता है।

लेकिन दुख पर भरोसा करने को तुम सदा तैयार हो और आनंद पर भरोसा करने को कभी तैयार नहीं।

इधर यह बात रोज घटती है। यह प्रश्न तुम्हारा ही नहीं है, अनेकों का है। कोई न कोई रोज आ कर कहता है कि बड़ी शांति मिल रही है; मगर शक होता है कि यह सच है! कोई कभी आ कर कहता हैः बड़ी मस्ती छा रही है; मगर शक होता है कि कहीं मैं अपने को भुलावा तो नहीं दे रहा!

तुमने इतने भुलावे दिए हैं अब तक कि तुम्हें लगता है कि तुम शायद यह भुलावा भी अपने को दे लोगे। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि कोई आज तक अपने को आनंद का भुलावा नहीं दे सका। यह असंभव है।

आनंद का भुलावा हो ही नहीं सकता। क्योंकि जो भुलावा देने वाला मन है, उसमें आनंद होता ही नहीं। भुलावा देने वाला मन केवल नये-नये दुख खोजता है। भुलावा दुखों को खोजने की व्यवस्था है।

इसलिए डरो मत। भयभीत न होओ। पुराने मन को बीच में न आने दो। नया अतिथि आया है, उसे अंगीकार करो। उसे भीतर ले जाओ। उसे हृदय के सिंहासन पर विराजमान करो।

दूसरा प्रश्न: भी पहले से थोड़ा जुड़ा है, इसलिए साथ-साथ ले लें। पूछा हैः मैं अत्यंत उदास क्यों हूं, यद्यपि उदासी का कोई भी कारण नहीं है?’

शायद इसीलिए।

उदासी का कारण भी हो तो आदमी को समझ में आता है कि चलो कारण तो है; कम से कम कारण तो है, इसलिए उदास हूं। बहाना तो है। कोई पागल तो न कह सकेगा। बता सकता हूं कि पत्नी मर गई, कि बेटा जेल चला गया, कि दुकान डूब गई, दिवाला निकल गया।

तो उदासी में तर्क है। तर्क है तो तुम सुरक्षित हो। तुम यह कह सकते हो कि उदास होना बिलकुल स्वाभाविक है। कर भी क्या सकता हूं? तुम्हारी पत्नी मरती, तो तुम भी उदास होते। और तुम्हारी दुकान का दिवाला निकलता, तो तुम भी रोते। तो कोई मैं ही रो रहा हूं, ऐसा नहीं है।

तो तुम्हारे आंसुओं के लिए तुम तर्क दे सकते हो। सबसे बड़ी उदासी तो तब होती है, जब उदास होने का कोई कारण भी नहीं होता। तब बड़ी बेबूझ बात हो जाती है। तब तुम कह भी नहीं सकते कि क्यों उदास हूं। अपनी उदासी की रक्षा भी नहीं कर सकते। अपनी उदासी के लिए तर्क भी नहीं जुटा सकते। तब तुम बिलकुल असहाय हो जाते हो। ऐसा भी होता है।

ऐसे होने के पीछे कई कारण हैं। एकः तो हो सकता है कारण आज ना हो, लेकिन जिंदगी भर तुम उदास ही उदास रहे, तो

उदास होना तुम्हारी आदत हो गई। ऐसा बहुत बार हो जाता है कि क्रोधी आदमी को क्रोध की आदत हो जाती। फिर क्रोध का कारण न हो, तो भी उसको तो क्रोध करना ही है। वह तो बिना क्रोध किए नहीं रह सकता। वह तो कोई न कोई उपाय खोजेगा।

तुम सब ऐसे आदमियों को जानते हो, जो क्रोध के लिए उपाय खोजते रहते हैं। क्रोध भीतर है। अकारण करेंगे, तो पागल समझे जाएंगे। कोई कारण खोज लेना होता है। कोई भी कारण! तुम भी पीछे लौट कर सोचते हो, तो पाते होः कारण पर्याप्त नहीं था–इतने क्रोध के लिए पर्याप्त नहीं था। कारण में और क्रोध में कोई अनुपात नहीं था। तुम भी पीछे पछताते हो कि बात बड़ी छोटी थी!

मेरे पास आ जाता है कभी कोई व्यक्ति और कहता है, ‘बड़ा क्रोध हो गया। पत्नी की पिटाई कर दी; कि अपने बच्चे को पीट दिया। हालांकि इतनो क्रोध करने का कोई कारण न था।’

कारण पूछता हूं, तो कहता हैः ‘कारण न पूछिए। कहता है, कारण तो क्षुद्र था। ऐसा ही था, बेकार था; उसका कोई मतलब भी न था। बात-बात में से बात निकल गई।’

आदत…अगर तुम रोज-रोज क्रोध करते रहे हो, तो तुम्हें आज भी क्रोध की तलाश करनी पड़ेगी। क्रोध की भी तलफ लगती है। जैसे कोई सिगरेट पीता है, हुक्का पीता है, चुरूट पीता है, शराब पीता है–उसकी तलफ लगती है। एक घड़ी आ जाती है, जब उसे पीने के लिए मजबूर होना पड़ता है। हालांकि बात बिलकुल फिजूल हैः धूएं को भीतर ले जाता है, बाहर ले जाता है; किसी मतलब की नहीं है। लेकिन आदत हो गई है, छूटती नहीं।

ऐसे ही क्रोध की आदत हो जाती है। ऐसे ही उदास होने की आदत हो जाती है। थिर हो जाता है एक भाव। स्थायी भाव बन जाता है।

कभी-कभी उदास हो जाने को क्षमा किया जा सकता है। जिंदगी में हजार अड़चने हैं। आदमी कमजोर है। आदमी की सीमाएं हैं। समझ में आती है बातः कभी उदासी भी आ जाती है। कोई मर गया, तो उदास न होओगे तो क्या करोगे? जिस पर बड़ा भरोसा था, वह धोखा दे गया–उदासी स्वाभाविक है। जिसके साथ सोचा था कि जिंदगी भर साथ-साथ रह लेंगे, वह अचानक बीच में विदा हो गया–उदासी स्वाभाविक है। क्षमा की जा सकती है।

क्षणभुंगर भाव क्षमा किए जा सकते हैं। लेकिन धीरे-धीरे होता यह है कि जो क्षणभंगुर भाव है, वे स्थायी-भाव बन जाते हैं। आदमी उदास ही रहने लगता है। उदासी उसको स्वाभाविक हो जाती। उसको हंसते देखना बहुत कठिन है। वह हसंता भी है, तो उसकी हंसी में भी उदासी ही झरती है।

ऐसा ही कुछ हुआ होगा। तुम्हें उदासी का कारण दिखाई नहीं पड़ता–इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि जितने तुम अतीत के दिनों में उदास रहे हो, वे सब उदासियां इक्ट्ठी होती गई हैं। आज उनका ढेर लग गया है। उस ढेर का कोई भी कारण नहीं दिखाई पड़ता। एक-एक बूंद इकट्ठा करते-करते गागर भर गई है। तुमने तो एक-एक बूंद भरी थी, इसलिए गागर कैसे भर गई? गागर के भरे होने का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन कारण तो रहा होगा, क्योंकि इस जगत में अकारण कुछ भी नहीं–चाहे प्रत्यक्ष न हो।

ये दिल अब खराब है

ऐसा खराब कि बर्गे-मुर्सरत तो क्या इसमें खारे-अलम तक नहीं है

न जश्न-ए-बहारां,

न मातम खिजां का

ये दिल अब खराब है लेकिन हमेशा खराब नहीं था

खिले थे यहां फूल भी आरजू के

चुभे थे यहां खार भी जुस्तजू के

ये दिल अब खराब है लेकिन सदा बेनियाजे-बहारो-खिजां तो नहीं था

मैं वो आशिके-रंगो-बू हूं कि जिसने

लहू अपना सर्फे-बहारां किया था।

‘ये दिल अब खराब है!’ अब यह दिल बड़ा खराब हो गया, खंडहर हो गया, उदास हो गया, मरघट हो गया। ऐसा खराब कि बर्गे-मुर्सरत तो क्या, खुशी का पत्ता तो क्या, इसमें खारे-अलम तक नहीं है, दुख का कांटा भी नहीं है–ऐसा खाली हो गया।

दुख भी हो, तो आदमी इतना उदास नहीं होता। कम से कम कुछ तो रहता है करने को; व्यस्त रहने को कुछ तो रहता है हाथ में; उलझन तो रहती है, उपाय तो रहता है–उलझे रहो कहीं, अपने को भुलाए रहो। कभी ऐसी घड़ी आ जाती है कि उदास होने का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। सुखी होने की कोई नजर मिलती नहीं मालूम होती। सुख का कोई द्वार नहीं खुलता। दुख का कोई कारण नहीं दिखता। आदमी बिलकुल बीच में लटक कर रह जाता है–घर का, न घाट का।

न जश्न-ए-बहारां…अब न तो वसंत का कोई उत्सव है; न मातम खिजां का…और न पतझड़ का रोना है। ‘ये दिल अब खराब है, लेकिन हमेशा खराब नहीं था। खिले थे यहंा फूल भी आरजू के!’ कभी यहां वासनाओं के, इच्छाओं के, कामनाओं के फूल भी खिले थे। ‘चुभे थे यहां खार भी जुस्तजू के’…और जीवन के कांटे भी चुभे थे। ‘यह दिल खराब है, लेकिन सदा बेनियाजे-बहारों-खिजां तो नहीं था।’ आज ऐसा है, लेकिन सदा ऐसा नहीं था। ‘मैं वो आशिको-रंगो-बू हूं कि जिसने लहू अपना सर्फे-बहारां किया था।’ और मैं वह प्रेमी हूं, जिसने कभी वसंत पर अपने खून को न्योछावर किया था।

अतीत में झांकना होगा। तुम आज उदास हो, तो अतीत में देखना होगा। तुम्हारा अतीत उदासी को सघन करता गया है। बंूद-बूंद गागर ही नहीं भरती, सागर भी भर जाता है। तुम्हारा अतीत तुम्हारी रात को अंधेरा करता चला गया है। सब तारे छुप गए। आज अचानक कारण नहीं दिखाई पड़ता है, लेकिन कारण पीछे होंगे। तुम्हारी असफल वासनाएं, तुम्हारे वसंतों का पतझारों में बदल जाना, तुम्हारे प्रेम का घृणा में बदल जाना, मित्रों का शत्रु हो जाना–तुम्हारी आशाओं पर सब पानी फिर गया है।

लेकिन यह तुम्हारा ही नहीं है; जिसने पूछा है, उसका ही नहीं है यह मामला–सभी का यही है। एक न एक दिन सभी को ऐसी उदासी आती है। सिकंदरों को भी आती है। जो सब पा लेते हैं, उनको भी आती है। जो हारते हैं, उनको भी आती है। जो जीतते हैं, उनको भी आती है। क्योंकि जीतने पर पता चलता है कि जीतने में कुछ सार नहीं था। व्यर्थ ही मेहनत की। व्यर्थ दौड़े-धूपे। व्यर्थ आपा-धापी की। सब पा कर भी पता चलता है कि कुछ हाथ न लगा, हाथ खाली हैं! हाथ ही खाली नहीं हैं, हृदय भी खाली है। सारा जीवन ऐसे ही मरुस्थल में खो गया। तब एक उदासी घेरती है।

वैसी ही उदासी ने तुम्हें घेरा है। इस उदासी में एक तो तुम्हारा अतीत है। एक कारण खोजना जरूरी नहीं है। तुम्हारा सारा अतीत का इकट्ठा संस्कार उदास तुम्हें कर गया है।

और दूसरी बात, इस उदासी में अभी भी कहीं छिपी हुई भविष्य की आशा है। नहीं तो उदासी टूट जाए। यह तुम्हें समझना थोड़ा कठिन होगा। जब किसी आदमी को तुम निराश देखो, तो यह मत समझना कि उसने आशा छोड़ दी है।

निराश होने का मतलब ही यही होता है कि आशा अभी भी कायम है। हालांकि जिंदगी ने आशा के सब उपाय तोड़ दिए हैं; लेकिन आशा अभी भी कहीं कायम है; नहीं तो बिना आशा के निराश भी कैसे होओगे। जितनी बड़ी आशा होगी, उतनी बड़ी निराशा होती है–उसी अनुपात होती है। अगर किसी आदमी की सारी आशाएं ही छूट गईं, तो फिर निराशा भी नहीं हो सकती; फिर निराशा क्या!

उसी व्यक्ति को हम संन्यस्त कहते हैं, जिसने आशा करना ही छोड़ दिया। और आशा करना छोड़ा, तो आशा की जो छाया है–निराशा–वह भी विदा हो जाती है।

साधारण तर्क तो कहता है कि जब आशा टूटेगी, तो आदमी निराश हो जाएगा। लेकिन वह सच नहीं है। जीवन का अनुभव कुछ और कहता है। अगर आशा सच में ही टूट जाए, आशा का कोई एक धागा भी शेष न रह जाए–अखंड, अविच्छिन्न–तो तुम पाओगे निराशा भी उसी के साथ चली गई।

तुम कहते होः ‘मन उदास है, कारण दिखाई नहीं पड़ता’। तो तुम्हारे मन में अभी भी सुख को पाने की आशा है; अभी भी तुम इस संसार में कुछ बना लेना चाहते हो, कर लेना चाहते हो। हालांकि जिंदगी कहती हैः हो न पाएगा। तुम कर चुके बहुत बार। जो भी घर तुमने बनाए, गिर गए। जो भी मनसूबे तुमने बांधे, असफल हुए। जो भी नाव तुमने चलाई, वह तुमने डूबते देखी।

तुम्हारे जीवन भर का, अतीत भर का अनुभव कहता हैः कुछ हो नहीं सकता। लेकिन तुम्हारे हृदय में छिपी हुई वासना का बीज कहता हैः ‘कौन जाने इस बार करो, और हो जाए! निन्यानबे दफा हार गए हो, लेकिन सौवीं बार आदमी जीत जा सकता है।’

कहीं अभी भी वासना कुलबुला रही है। बहुत गहरे में दबी होगी, क्योंकि अतीत के अनुभव का ढेर लग गया। है उदासी का। लेकिन उस उदासी की राख में कहीं अभी भी वासना का अंगारा है।

रात आई है तो दिलेजार ने सोचा अक्सर

कौन आंखों में सिमट आएगा आंसू बन कर

किसकी जुल्फों के दरीचे से किरन फूटेगी

कब ये जंजीरे-गरां टूटेगी

जाने कब तक इस शबे-तन्हाई से जां छूटेगी।

आज की रात भी शायद न मुझे नींद आए

किसकी आहट है कि बढ़ने लगी दिल की धड़कन

कौन हमदर्द है कि तन्हाई के वीराने में

कौन महबूब है इस शब के सियह-खाने में

किसका पैकर है तसव्वुर के सनम-खाने में

जाने जां तुम हो कि अहसास का बहलावा है

नर्म झोंका है कि आहट है कि खामोशी है

हां, वही हसरत-ओ-मायूसी है।

‘रात आई है तो दिलेजार ने सोचा अक्सर’… रात आती है, तो रोता हुआ दिल सोचने लगता; हारा हुआ दिल फिर भरोसे जगाने लगता; थका-मांदा दिल फिर सपने देखने लगता। सोचता हैः कल सुबह होगी; कल फिर यात्रा पर निकलेंगे।

रोज सांझ, दिन भर की हार के बाद, तुम फिर अपने को जुड़ाने लगते हो, फिर इकट्ठा करने लगते हो। दिन तोड़ जाता है, रात तुम फिर अपने को जोड़ लेते हो। सुबह तुम उठ कर फिर चले बाजार।

रात आई है तो दिलेजार ने सोचा अक्सर

कौन आंखों मे सिमट आएगा आंसू बन कर

किसकी जुल्फों के दरीचे से किरन फूटेगी

और अगर दिन में नहीं मिल सका प्रेमी, नहीं मिल सकी प्रेयसी, नहीं मिल सका जो चाहा था–तो

आदमी सोचता हैः सपने में मिलन हो जाएगा।

कोई आखों में सिमट आएगा आंसू बन कर

किसकी जुलफों के दरीए से किरन फूटेगी

कब ये जंजीरे-गरां टूटेगी

जाने कब इस शबे-तन्हाई से जां छूटेगी

कब ये जंजीरे-गरां टूटेगी

जाने कब इस शबे-तन्हाई से जा छूटेगी

सोचने लगता है, हर हारा-थका आदमीः यह बोझिल जंजीर कब टूटेगी दुख की! और यह एकाकी रात कब तक एकाकी रहेगी! कब प्यारा मिलेगा! कब प्रिय से मिलन होगा?

और फिर जब तुम इस तरह की कामनाओं से भरते हो, तो मन में सपने उठने शुरू हो जाते है।

‘आज की रात भी शायद न मुझे नींद आए

किसकी आहट है कि बढ़ने लगी दिल की धड़कन!’

किसी की आहट नहीं है। कोई न आया है, न कोई आएगा। कोई कभी आता नहीं। तुम अकेले हो। तुम्हारा अकेलापन आत्यंतिक है। दूसरे की तलाश व्यर्थ है। दूसरा न मिलता है, न मिल सकता है।

कुछ भी जो पाया जा सकता है, वह तुम्हारे भीतर है। तुम अपने को ही पा लो, तो सब पा लिया।

‘किसकी आहट है कि बढ़ने लगी दिल की धड़कन!’ किसी की आहट से दिल की धड़कन नहीं बढ़ती है। दिल की धड़कन बढ़ती है, तो तुम आहट को सोचने लगते हो कि कोई आता होगा। कोई मिलने की उम्मीद बनती है।

कौन हमदर्द है कि तन्हाई के वीराने में

कौन महबूब है इस शब के सियह-खाने में!

–कौन प्यारा चला आ रहा है इस अंधेरी रात में! अंधेरा ही अंधेरा है, कोई प्यारा नहीं है।

लेकिन कभी-कभी जब तुम प्रतीक्षा में रत होते हो, तो राहगीर के पैरों की आवाज भी तुम्हें लगती हैः शायद प्यारा आ गया! हवा का झोंका द्वार को हिला जाता है, तुम सोचते होः शायद किसी ने थपकी दी, किसी ने द्वार खटखटाया! सूखे पत्ते रास्ते पर उड़ते है हवा में और खड़खड़ की आवाज होती है, तुम चैंक कर बैठ जाते हो कि शायद प्रेमी आ गया।

इंतजार, वासना से भरा इंतजार, उम्मीदों से भरा इंतजार–बड़ी कल्पनाएं, बड़ी कामनाएं करने लगता है।

कौन महबूब है इस शब के सियह-खाने में

किसका पैकर है तसव्वुर के सनम-खाने में

‘जाने जां, (हे प्रेयसी!) तुम हो कि अहसास का बहलावा है?’ तुम हो कि यह भी मन को बहलाने का एक ढंग है?

‘नर्म झोंका है, कि आहट है, कि खामोशी है?’ यह क्या है? हवा का झोंका है? तेरे पैरों की आवाज है? यह तेरे आने की आहट है कि या सिर्फ रात का सन्नाटा हैे, रात की खामोशी है?

‘हां, वही हसरत-ओ-मायूसी है।’ फिर वही आशा है मन में और फिर वही उदासी है। वही हसरत और मायूसी है।

आशा और निराशा साथ चलते हैं–एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; एक ही पक्षी के दो पंख। एक पंख गिर जाए, तो दूसरा भी व्यर्थ हो जाता है।

तुम उदास हो, तो निश्चित ही तुम्हारे भीतर कहीं अभी आशा का अंगारा दबा पड़ा है। अभी तुम सोचते होः इस जिंदगी से कुछ मिल सकता, अनुभव कहता हैः नहीं मिल सकता, लेकिन अनुभव पर अभिलाषा की जीत होती चली जाती है।

अतीत उदास बना रहा है और भविष्य में अभी भी सोचते होः शायद…शायद ऐसा हो जाए! असंभव भी तो होता है! चमत्कार भी तो घटते हैं।

इस आशा को जाने दो।

इस संसार में कोई चमत्कार नहीं होता। इस संसार में कभी कोई विजय नहीं मिलती। हार यहां भाग्य है। पराजय यहां नियति है। हारते हैं, वे हारते ही है; जीतते हैं, वे भी हारते हैं। असफल तो असफल होते ही हैं; सफल भी असफल होते हैं। इस संसार में हम जो भी करें, वह पानी पर किए गए हस्ताक्षरों से ज्यादा नहीं हैं; बन भी नहीं पाते और मिट जाते हैं।

आशा को पूरा विदा कर दो। और तुम अचानक पाओगेः उस विदाई में उदासी भी गई, निराशा भी गई। और तुम पाओगेः एक शांति उतरने लगी; कोलाहल मिटने लगा; दूसरे की इच्छा न रही। उसी में तुम अंतर्यात्रा शुरू करते हो। अपने भीतर आना हो, तो बाहर से सब आशा-निराशा छूट जानी चाहिए; नहीं तो आंखें भीतर कैसे मुड़ें? कान भीतर कैसे सुनें!

जब तक तुम्हारा मन कहता है, ‘बाहर चलो, कहीं चलो; शायद यहां नहीं मिला राज्य, वहां मिल जाए; शायद यहां सुख नहीं मिला तो वहां मिल जाए’–तब तक तुम भटकते ही रहोगे।

संसार का इतना ही अर्थ हैः बाहर की भटकन। और ध्यान का इतना ही अर्थ हैः बाहर की भटकन गई, तुम अपने भीतर आ गए; अपने घर में विराजे, विश्राम किया। उस विश्राम में ही तुम पाओगे आनंद।

तीसरा प्रश्नः कई बार सोचती हंू कि आपसे कुछ पूछूं, आपसे कुछ कहूं। सवाल उठते भी हैं, प्रश्न बनते भी हैं; लेकिन फिर सोचती हूंः ‘यह पूंछू कि वह पूछूूं? आज पूछंू कि कल पूछूं? आंखों-आंखों से कुछ पूछूं कि कोरा कागज ही भेजूं?’ फिर बात टल जाती है। घड़ी निकल जाती है। और मन की जिज्ञासा मौन प्रतीक्षा में बदल जाती है। अचानक आपके किसी प्रवचन में, किसी मीठी कथा के कथन में, कोई भूला प्रश्न याद आ जाता है, जो उत्तर बन कर मुस्कुराता है।

पहली बातः पूछो या न पूछो, उत्तर दिए जा रहे हैं। उत्तर मैं दे ही रहा हूं। अगर तुमने धैर्य रखा और न पूछा, तो भी उत्तर मिल जाएगा। अधैर्य किया, पूछा, तो भी उत्तर मिल जाएगा।

और मजे की बात यह है कि जब तुम प्रश्न पूछते हो तो जो उत्तर मैं देता हूं, उससे दूसरों को तो शायद उत्तर मिल जाए, तुम्हें शायद ही मिले। क्योंकि पूछने वाले का मन बड़ा तनाव से भरा होता है कि ‘मेरे प्रश्न का उत्तर दिया जा रहा है।’ वही अड़चन हो जाती है? वह डरा रहता है, घबड़ाया रहता है–मैं क्या कहूंगा? मैं चोट करूंगा? हिलाऊंगा, डुलाऊंगा, जगाऊंगा?–क्या करूंगा? फूल की तरह मेरा उत्तर आएगा कि पत्थर की तरह मेरा उत्तर आएगा?

जो पूछता है, वह बेचैन हो जाता है। वह तनाव से भर जाता है। ‘उसका’ उत्तर दिया जा रहा है! और अक्सर वह चूक जाता है। दूसरे शांति से सुन लेते हैं। उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है। प्रश्न तो उनका भी यही है। आदमियों के प्रश्नों में भेद क्या है! वही तो समस्याएं हैं। वही प्रश्न हैं। आदमी-आदमी में कहां बड़े फर्क हैं? अगर फर्क भी होते हैं, तो बहुत अनुपात के होते हैं। किसी को क्रोध ज्यादा है, किसी को काम ज्यादा है; किसी को लोभ ज्यादा है; किसी को मोह ज्यादा है। बस, अनुपात के भेद होते हैं। मात्रा के भेद होते हैं। मूलतः तो प्रश्न वही के वही हैं, क्यांेकि आदमी एक जैसे हैं। अज्ञान एक जैसा है। अंधेरा एक जैसा है। भटकन एक जैसी है।

और उत्तर भी कहां अलग-अलग हो सकते हैं! उत्तर भी एक ही है। प्रश्न तो बहुत होंगे; उत्तर एक ही है। सारे उत्तरों में एक ही आकांक्षा है कि तुम भीतर लौट जाओ; अपने भीतर आ जाओ। अपने को देख लो। अपने को पहचान लो।

यह ‘सुषमा’ ने पूछाः ‘कई बार सोचती हूं आपसे कुछ पूछूं, आपसे कुछ कहूं। सवाल उठते भी, प्रश्न बनते भी; फिर सोचती हूंः यह पूछूं, वह पूछंू? आज पूछूं, कल पूछूं? आंखों-आंखों से पूछूं कि कोरा कागज ही भेजूं?’

इसी में समय निकल जाता होगा। कोई चिंता न करो। उत्तर तो आ ही जाएगा। तुमने नहीं पूछा, तो भी आ जाएगा। मैं उत्तर दे ही रहा हूं। कोई और पूछ लेगा। किसी बहाने उत्तर आ जाएगा।

लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि मन की यह दशा कि इतना भी तय न कर पाए कि पूछूं कि न पूछूं–शुभ नहीं है। पूछना–तो पूछना। नहीं पूछना–तो नहीं पूछना। लेकिन मन की यह डांवाडोल स्थिति को सहारा नहीं देना चाहिए। मन हर चीज में डांवाडोल होता है; छोटी-छोटी चीज में डांवाडोल होता है।

अब क्या हर्जा है पूछ लिया तो? इसमें इतना सोचना क्या है? इतना समय सोचने में खराब क्यांे करना? मन की एक गलत आदत को इस तरह साथ मिलता है, सहयोग मिलता है। फिर मन धीरे-धीरे सोचने में असमर्थ ही हो जाता है। हर बात में विकल्प खड़े हो जाते हैं; ऐसा करूं, ऐसा करूं!

अब यह ‘सुषमा’ ने पूछा है; उसको विकल्प खड़ा हो जाता होगाः ‘आज यह साड़ी पहननी, कि यह साड़ी पहननी! आज यह खाना बनाना, कि यह खाना बनाना! ऐसे छोटे-छोटे विकल्प खड़े हो जाते हैं। और उन छोटे-छोटे विकल्पों में बहुत समय जाया होता है।

जिंदगी को सरल करो। और सरल करना हो, तो मन के विकल्पों को बहुत सहारा मत दो। और धीरे-धीरे मन के विकल्प गिरते चले जाएं, तो निर्विकल्प की दशा करीब आएगी। ये सब विकल्प हैंः ऐसा करूं, वैसा करूं! जो लगे करने जैसा, कर लेना। फिर उस पर और ज्यादा ऊहापोह मत करना।

फिर यह तो प्रश्न की ही बात है। कुछ हर्ज हुआ नहीं जा रहा है पूछा तो, नहीं पूछा तो, कुछ खोया नहीं जा रहा है। पूछना हो, पूछ लेना; नहीं पूछना हो, नहीं पूछ लेना। लेकिन यह डांवाडोल होते मन को सहारा मत देना। नहीं तो यह मन की जड़ आदत हो जाएगी।

लोग मेरे पास आ जाते हैं, वे कहते हैंः ‘संन्यास लें कि ना लें? ‘मैं उनसे कहता हूंः अगर मैं तुमसे कहूं–कुछ भी कहूं–तो तुम्हारा मन सोचेगाः ‘इनकी मानें कि न मानें?’ यही तो मन है–यह जो विकल्प खड़ा कर रहा है। यह फिर भी विकल्प खड़ा कर देगाः ‘आज लें, कल लें?’

आज जो भाव उठा हो, उसमें गुजरो, उसमें जाओ।

एक ही सूत्र मैं देना चाहता हूं–वह यह हैः अगर किसी को हानि न होती हो, तो उसे कर ही लो। उसमें क्या विचार करना है? शुभ करना हो, ता तत्क्षण कर लो। अशुभ करना हो, तो कल पर टालो। पाप को कल पर टालो, पुण्य आज कर लो।

लेकिन आदमी खूब उलटी खोपड़ी है। पाप करना हो, तो अभी कर लेता है! पुण्य करना हो तो कल; सोचता हैः कल कर लेंगे, परसों कर लेंगे। कोई तुम्हें गाली देता है, तो तुम यह नहीं सोचते कि इसको गाली का उत्तर दें कि न दें; कि आज दें कि कल दें। तुम तत्क्षण दे देते हो। तुम एक क्षण नहीं चूकते।

गलत को करने में हम बड़ी तत्परता दिखलाते हैं। दुनिया में निन्यानबे प्रतिशत गलत समाप्त हो जाए, अगर हम जरा-सा भी रुक जाएं।

डेल कारनेगी ने अपना एक संस्मरण लिखा है कि उसे एक पत्र मिला। डेल कारनेगी ने लिंकन के ऊपर एक व्याख्यान दिया था रेडियो पर और उसमें कुछ तारीख की भूल हो गई। तो लिंकन की भक्त किसी महिला ने उसे पत्र लिखा, खूब गालियां दीं–कि ‘तुम्हें जब तारीखों तक का पता नहीं है, तो तुमने यह जुर्रत कैसे की कि तुम रेडिओ पर व्याख्यान करने जाओ? पहले अपनी तारीखें ठीक करो। यह तो छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं। इतना भी तुम्हें पता नहीं है! तुम इसके लिए क्षमा मांगो–सामूहिक। यह लिंकन का अपमान है।’

ऐसा उसने कुछ-कुछ लिखा होगा। डेल कारनेगी भी गुस्से में आ गया पत्र को पढ़ कर। खून खौल गया। उसने भी उत्तर लिखा–उतना ही जहरीला। लेकिन रात हो गई थी। और उस वक्त तो नौकर भी जा चुका था, तो उसने सोचाः सुबह डाल देंगे। चिट्ठी रख कर टेबल पर, सो गया। गाली-गालौज जितनी देनी थी, वे उसने भी दे डाली। निशिं्चत, हलका मन हो कर सो गया। सुबह उठा, लिफाफे में बंद करते वक्त उसने फिर पत्र को पढ़ा। लगाः यह जरा ज्यादती है। बात तो स्त्री की ठीक ही है कि मुझसे भूल तो हुई है। बजाय क्षमा मांगने के मैं और उलटा नाराज हो रहा हूं!

पत्र उसने सरका कर रख दिया, दूसरा पत्र लिखा। दूसरा पत्र लिखते वक्त उसे खयाल आया कि अगर मैंने रात ही यह पत्र पोस्ट करवा दिया होता, अगर नौकर न गया होता, तो…? सुबह में इतना फर्क हो गया। उसने दोनों पत्र देखेः वह जमीन-आसमान का भेद है! तो उसने सोचाः यह दूसरा पत्र भी अभी नहीं डालूंगा। जल्दी तो कुछ है नहीं, सांझ को फिर एक दफा देखूंगा।

सांझ को देखा, तो तीसरा पत्र लिखा। अब तो बहुत फर्क हो गया। फिर तो उसे लगा कि अभी जल्दी क्या है; वह स्त्री कोई पागल नहीं हुई जा रही है मेरे पत्र के लिए! सात दिन रुका। रोज सुबह पढ़ता-बदलता; रोज शाम पढ़ता-बदलता। सातवें दिन जब वह निशिं्चत हो गया कि अब कुछ बदलने को नहीं बचा, लेकिन पत्र का पूरा रूप बदल गया। कहां वह घृणा और जहर से भरा पत्र था; कहां यह मैत्री और प्रेम से भरा पत्र हो गया।

इस पत्र में उसने लिखा था कि मैं अनुगृहीत हूं। और कभी अगर इस गांव आओ, मेरे गांव आओ, तो मेरे घर ठहरना। मिल कर मुझे खुशी होगी। मेरे ज्ञान में वर्धन होगा। लिंकन के संबंध में मैं ज्यादा नहीं जानता; और जानना चाहता हूं। और क्षमा मांगता हूं, जो भूल हो गई।

छह महिने बाद वह स्त्री उसके गांव आई। इस बीच पत्र-व्यवहार होता रहा। उसके घर ठहरी। और तुम हैरान होओगे कि हालत क्या हुई! वह उसकी पत्नी हो गई! ऐसे ही वह प्रेम में पड़ा। वह पहला पत्र… तो सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती थीं दो आदमियों के बीच की।

जब बुरा करना हो, तो थोड़ा ठहराना। कल कर लेना, परसों कर लेना। जल्दी क्या है!

गुरजिएफ का दादा मरा, तो उसने कहा गुरजिएफ से–वह छोटा ही था, नौ साल का था–कि तुझसे मेरी एक ही प्रार्थना और एक ही मेरी आज्ञा है; यही मेरी वसीयत है; मेरे पास देने को कुछ भी नहीं; लेकिन मेरे पिता जब मरे थे, मुझे दे गए थे, और उसने मुझे जीवन में बड़े सुख दिए और बड़े आनंद मैंने जीवन में पाए। तू भी याद रखना। तू अभी छोटा है, खूब याद कर ले, ताकि भूल न जाए।

तो गुरजिएफ ने याद कर लिया। दादा इतना ही कह गया था कि अगर कभी क्रोध आए तो जिस पर क्रोध आ जाए, उससे इतना कहना की मैं चैबीस घंटे बाद आ कर जबाब दूंगा। फिर चैबीस घंटे विचार कर लेना, फिर जबाब दे देना–जैसा भी देना हो।

गुरजिएफ ने लिखा है कि इस एक बात ने मेरी जिंदगी में क्रांति ला दी। क्योंकि चैबीस घंटे बाद जवाब देने जैसा ही न लगा। या तो ऐसा लगा कि उस आदमी ने ठीक ही कहा, तो मैं जा कर क्षमा मांग आया; या ऐसा लगा कि उस आदमी ने बिलकुल झूठ कहा है, तो झूठ के खिलाफ जबाब देने की जरूरत भी क्या है! चैबीस घंटे में वह जरूरत नहीं है।

शुभ करना हो, तो तत्क्षण कर लेना। ऐसा कुछ करना हो जिससे किसी की कोई हानि नहीं हो रही, तो एक क्षण भी सोचने की कोई जरूरत नहीं है।

अब तुम्हें प्रश्न पूछना हो, तो पूछ ही लेना। किसी की कोई हानि नहीं होगी; किसी को लाभ ही हो सकता है। तुम्हारे प्रश्न से शायद किसी को उत्तर मिल जाए। जब किसी दूसरे के प्रश्नों के उत्तर से तुम्हें उत्तर मिलता है, तो तुम्हारे प्रश्न के उत्तर से भी किसी कोे उत्तर मिल सकता है। कंजूसी क्या? पूछ ही लेना।

‘यह पूछंू कि वह पूछूं? आज पूछूं कि कल पूछूं?’

कोई रुकावट तो है नहीं। यह भी पूछो, वह भी पूछो। और आज भी पूछो और कल भी पूछो। कुछ ऐसा थोड़े ही है कि आज पूछ लिया, तो फिर कल नहीं पूछ सकते; यह पूछ लिया, तो वह नहीं पूछ सकते! पूछने की तुम्हें जैसी सुविधा है, दुनिया में शायद किसी को हो। तुम्हारे सारे प्रश्नों का स्वागत है। तुम्हें कुछ पूछना हो, तो पूछो। तुम्हें कुछ कहना हो, तो कहो।

मेरे तुम्हारे बीच संवाद चल रहा है। यह कोई विवाद नहीं है। इसलिए चिंता ही नहीं है।

तुम पूछते हो–जिज्ञासा से, मुमुक्षा से। जब भी मैं देखता हूं कि किसी ने विवाद की दृष्टि से पूछा है, उसका मैं उत्तर ही नहीं

देता हूं, क्योंकि विवादियों में मेरा कोई रस नहीं है।

जब मैं देखता हूंः किसी ने ज्ञान के कारण पूछा है, कि उसको ज्यादा ज्ञान सिर पर चढ़ा है–किसी ने जब इस तरह पूछा कि उसका प्रश्न ‘ज्ञान’ से आ रहा है, तो मैं उत्तर नहीं देता। उसके पास तो ज्ञान है ही, उसे उत्तर की और क्या जरूरत है? उसके पास उत्तर खुद ही है।

जब कोई इस तरह पूछता है कि उसे मालूम ही है, तब मैं उत्तर नहीं देता। लेकिन जब भी कोई इस तरह पूछता है कि उसे मालूम नहीं है, जानने की आतुरता है, प्यास है–तो फिर प्रश्न कैसा भी हो, मैं जरूर उत्तर देता हूं। आज उत्तर न दूं तो कल दूंगा; कल न दूं, तो परसों दूंगा। क्योंकि मैं प्रतीक्षा करता हूं–ठीक क्षण की। जब भी ठीक क्षण आ जाएगा, तुम्हारा प्रश्न उत्तर पाएगा।

पूछ लो, फिर मुझ पे छोड़ दो, फिर जल्दी भी मत करना। कुछ लोग पूछ लेते हैं, फिर वे दूसरे दिन से ही राह देखने लगते हैं। फिर उनको कुछ और सुनाई नहीं पड़ता। उनको अपने प्रश्न की फिक्र लगी रहती है–कि हमारे प्रश्न का उत्तर अभी तक नहीं दिया!

एक संन्यासिनी है–मुक्ता। नैरोबी से आई है। काफी पूछती है। और उसको मैं उत्तर देता नहीं। तो अब तो वह लिखलिख कर पत्र भेजने लगी है कि आप सबके उत्तर देते हैं, मेरे उत्तर क्यों नहीं देते? ‘मेरे’ प्रश्न का क्या?

धैर्य रखो। या तो समय अनुकूल न होगा, या तुम्हारी पात्रता न होगी; या तुमने जो पूछा है, उसका उत्तर पाने की अभी तुम्हें जरूरत न होगी; जब जरूरत होगी, तब मिल जाएगा।

‘आंखों-आंखों से कुछ पूछूं कि कोरा कागज ही भेजूं?’ कुछ भी तो करो। आंखों-आंखों से पूछना है, तो आंखों-आंखों से पूछो। कोरा कागज भेजना है, तो कोरा कागज भेजो। कुछ तो करो। ऐसे बैठे ही बैठे सोच-विचार में ही मत पड़ेे रहो। कुछ लोग होते हैं, ऐसे ही सोच-विचार में जीवन गंवा देते हैं।

मैंने सुना हैः एक गणितज्ञ को दूसरे महायुद्ध में युद्ध पर जाना पड़ा। सभी लोग सेना में भरती किए जा रहे थे, उसे भी जाना पड़ा। वह बड़ा विचारक था, दार्शनिक था। जो जनरल उसकी कवायद देखने गया, वह हैरान हुआ। जो कैप्टन उसे कवायद करवाता था, वह भी परेशान था, क्योंकि कहा जाए ‘लैफ्ट टर्न’, बाएं घूम–वह खड़ा ही रहे। सारी दुनिया बाएं घूम जाए, सारी रेजीमेंट बाएं घूम गई, वह वहीं खड़े हैं! उसका कैप्टन पूछे, ‘आप क्यांे खड़े है?’ वह कहेः ‘मैं सोच रहा हंू कि बाएं घूमूं कि नहीं?’ या घूमने से फायदा क्या? या फिर अभी थोड़ी देर में दाएं घूमना पड़ेगा, तो ये लोग घूम कर फिर दाएं आ जाएंगे; मैं वहीं खड़ा रहूं; इसमें हर्जा भी क्या है?’

कैप्टन बहुत परेशान हुआ। लेकिन वह प्रसिद्ध दार्शनिक था और गणितज्ञ था। एकदम उसको ऐसा कहा भी नहीं जा सकता था। उसका नाम था; ख्यातिलब्ध आदमी था। उसने जनरल को कहा कि आप कर देख लें, अब मैं क्या करूं इस आदमी के साथ! यह तो कोई छोटी आज्ञा भी मानने को राजी नहीं है! यह कहता है कि सोचता हूं, संगत होगी तो मानूंगा। और फिर मैं देखता हूं कि तुम थोड़ी

देर में बाएं घूम कह देते हो, तो फायदा ही क्या है? हम अपनी ही जगह खड़े रहे; लोग फिर अपने वापस उसी जगह आ गए। तो यह बाएं-दाएं घूमने में कुछ सार भी नहीं है।’ इस आदमी की वजह से दूसरे लोग भी कम सुनते हैं मेरी। वे कहते हैं, उससे कहिए! और यह आदमी प्रतिष्ठित है; मैं इसका अपमान भी नहीं करना चाहता।

जनरल ने देखा। उसने कहा कि इसको ऐसा करो कि मैस में भेज दो। चैके में काम करे कुछ; यह काम का नहीं है मिलिटरी में। क्योंकि यह दाएं-बाएं नहीं घूमता। कल इससे कहें, बंदूक चलाओ; यह कहे, ‘क्यों चलाएं? इसने हमारा क्या बिगाड़ा है? इस आदमी को हम क्यों मारें? इसकी पत्नी होगी, बच्चे होंगे। यह हम नहीं करने वाले।’ यह जब दाएंे-बाएं घूमने में झंझट है इसको, तो और तो आगे जाएगा कहां!

इसीलिए तो मिलिट्री में दायंे-बाएं घुमाते हैं। वह परीक्षा है और प्रशिक्षण है–जड़ बनाने का। तुम्हारा सोच-विचार खत्म हो जाए। बाएं घूम, दाएं घूम–घूमाते-घूमाते-घूमाते एक दिन कहा कि बंदूक चलाओ, तो तब तक आदमी खुद ही हो जाता है–मरने-मारने को तैयार। इतना दाएं-बायां घुमाते हैं कि उस आदमी की खोपड़ी में एकदम आग जलने लगती है। वह कहता है कि ‘ठीक, अब कुछ भी कर दो। एक मौका मिला है, अब चूको मत।’ और धीरे-धीरे उसकी बुध्दि और संवेदना क्षीण हो जाती है। फिर वह गोली चला देता है, बम गिरा देता है।

जिस आदमी ने हिरोशिमा पर बम गिराया, उससे जब दूसरे दिन सुबह पूछा, तो उसने कहाः ‘मैं रात निश्चिंतता से सोया, क्योंकि मैंने आज्ञा का पालन किया।’ एक लाख आदमी मर गए और यह आदमी रात निश्चिंतता से सोया। इसकी बुद्धि बिलकुल क्षीण हो गई। इसने एक भी बार रात यह नहीं सोचा कि एक लाख आदमी! मेरे बम गिराने से राख हो गए!

अपार पीड़ा झेली उन्होंने। नरक भी फीका है उस पीड़ा के सामने। छोटे बच्चे थे, निरीह बच्चे थे। गर्भ में थे बच्चे, वे भी जल कर राख हो गए! स्त्रियां थी, जिन्होंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। नागरिक थे। क्योंकि हिरोशिमा कोई मिलिटरी कैंप नहीं था–आम आदमियों की बस्ती थी। लेकिन इस आदमी को निशिं्चतता रहीं; रात आराम से सोया; काम पूरा कर आया! जो आज्ञा मिली थी, पूरी कर दी।

इस आदमी के साथ जो दूसरा आदमी बैठा था, जिसका जुम्मा था कि वह बताएगा, कब गिराया जाए, जो सिग्नल देगा बम गिराने का–वह आदमी नहीं सो सका रात भर। रात भर क्या, वह तीन महीने तक नहीं सो सका। वे जो लपटें उसने देखी थी, वह जो चीख-पुकार सुनी थी!–उसने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। उसके मन में यह घाव इतना गहरा लगा और उसे पता नहीं था कि यह जो आज्ञा दे रहा है, यह एटम बम गिरेगा। इसका उसे कुछ पता नहीं था कि यह जो आज्ञा दे रहा है, यह एटम बम गिरेगा। इसका उसे कुछ पता नहीं था। वह तो हमेशा ही साथ होता था, बम गिराने के लिए आज्ञा देता था। जैसे साधारण बम थे, उसने सोचा यह भी साधारण बम है। उसे कुछ पता ही नहीं था। उसे तो सिर्फ सिग्नल देना था कि यह ठीक जगह आ गई, अब बम गिरा दो।

बम में क्या है–साधारण बम है कि एटम बम है–इसे कुछ पता नहीं था। यह तो दूसरे दिन से उसे पता चला कि जो भयानक कांड़ हो गया है, उसमें मेरा भी हाथ है। वह बड़ा उद्विग्न हो गया। उसने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और अमरीका में प्रचार करने लगा जा-जा कर, गांव-गांव–अणुबम के विरोध में–अणु-बम पर पांबदी लगनी चाहिए। और उसकी बात का बल था, क्योंकि उस आदमी ने हिरोशिमा अपनी आंख से देखा था। नीचे उठती लपटें और चीख-पुकार और वह नरक! वह तांड़व नृत्य मृत्यु का! उसकी बात में बल था। सरकार थोड़ी भयभीत हुई। उसकी बात लोग सुनते थे, गौर से सुनते थे। सरकार ने एक आयोग नियुक्त किया बीस मनोवैज्ञानिकों का। और उन मनोवैज्ञानिकों के आयोग ने उस आदमी को पागल करार देकर पागलखानें में रख दिया।

अब यह बड़ी अजीब बात हुई! पहला आदमी पागल, मालूम होता है, जिसने एक लाख लोग मार ड़ाले और रात, कहता है, मैं निशिं्चत से सोया, क्योंकि आज्ञा पूरी कर दी। यह दूसरा आदमी पागल नहीं है, मगर सरकार इसको पागल घोषित करवाती है।

इस दुनिया में अगर तुम्हारे पास हृदय है, तोे तुम पागल समझे जाओगे। अगर तुम्हारे पास संवेदनशीलता है, तो तुम पागल समझे जाओगे। यह दुनिया बड़ी अजीब है। यहां पागल राजनेता बने बैठे हैं! यहां पागलों के गिरोह राजधानियों में अड़ड़ा जमाए बैठे हैं!

तो वह दार्शनिक आदमी था। ‘बाएं घूम, दाएं घूम’–सुनता नहीं था। कहताः सोचंूगा, विचारूंगा, फिर करूंगा। बिना सोचे-विचारे तो कोई कृत्य कैसे किया जाए!

उसे भेज दिया गया किचन में। जनरल उसके पीछे आया और उसने कहा, तुम एक छोटा सा काम करो। ये देखते हो मटर के

दाने; बड़े-बड़े एक तरफ कर दो छोटे-छोटे एक तरफ कर दो। दो ढेरी लगा दो।

दो घंटे बाद लौट कर आया देखा कि वह आदमी वहीं बैठा है–सिर पर हाथ लगाए। मटर के दाने वैसे ही एक ढेरी में पड़े हैं। जनरल ने पूछाः ‘अब यह क्या कर रहे हो? अभी तक कुछ शुरू नहीं किया! काम बहुत कठिन है?’

उसने कहाः ‘बहुत कठिन है। क्योंकि कुछ बड़े हैं, कुछ छोटे हैं, कुछ मझोल हैं। और मझोल को कहंा करना। इस तरफ–कि उस तरफ?’

ऐसे ही ‘सुषमा’ का प्रश्न हैः ‘आंखों-आंखों से पूछूं कि कोरा कागज भेजूं? यह पूछूं कि वह पूछूं? आज पूछूं कि कल पूछूं?

अगर किसी का अहित न होता हो, तो देर की कोई भी जरूरत नहीं है। और किसी का अहित होता हो, तो जितनी देर कर सको, उतनी जरूरत है। अगर बम गिराना हो, तो खूब सोचना कि गिराऊं कि न गिराऊं। मटर के दाने ही अगर करने हैं अलग, क्या फर्क पड़ता है कि एकाध मझोल इस तरफ चला गया कि उस तरफ चला गया!

निर्दोष कुछ कृत्य हो, तो देर की जरूरत नहीं है। निर्दोष कृत्य में चिंतन को लाने से देर होगी। दोषी कृत्य में चिंतन को ले आओ। दोष को करने पहले खूब सोचो; और तुम दोष से मुक्त हो जाओगे, क्योंकि कभी न कर पाओगे। और अगर तुमने पुण्य को करने के लिए बहुत सोचा-विचारा, तो तुम पुण्य से छूट जाओगे, तुम पुण्य कभी न कर पाओगे।

शबनमी पलकें उठा लूं या झुका लूं

रश्मियों में चांद की किसका निमंत्रण मिल रहा है

कौन है जो दूर हो कर भी किसी क ो छल रहा है

अनमिले वरदान की कुछ चाह ऐसी आ गई है

प्यार से तुमको बुला लूं या सजा लंू

शबनमी पलकें उठा लूं या झुका लंू!

कल्पनाओं में पलें अरमान मन को छटपटाते

चीर नभ का तम, सजीले मेघ रह-रह मुस्कराते

याद धुंधली पड़ गई है, आज फिर भी कसमसाती

दीप आशा का बुझा लूं या जला लूं

शबनमी पलकें उठा लूं झुका लूं!

जानती मैं भी नहीं, पर चाहती तुमको बताना

भोर की पलकें उनींदी देखती सपना सुहाना

मांग में सिंदूर भर उषा चली रवि को रिझाने

स्वप्न की हर बात कह दूं या छिपा लूं

शबनमी पलकें उठा लूं या झुका लंू!

नहीं, इसी सोच-विचार में ‘सुषमा’ उलझी खड़ी मत रहो। समय के ये क्षण बहुमूल्य हैं, जो तुमने मेरे पास बिताए। इनको व्यर्थ के विकल्पों में नष्ट मत करो। मेरे साथ निर्विकल्प हो कर रहो।

और निर्विकल्प होने का एक ही उपाय हैः शुभ हो–करने में देरी मत करना।

मन की यह डांवाड़ोलपन स्थिति को समाप्त करना है। और जिस दिन मन का डांवाड़ोलपन समाप्त हो जाता है, उसी दिन मन भी समाप्त हो जाता है। क्योंकि मन यानी डांवाड़ोलपन।

तुमने देखा, सागर में लहरें उठ रही हैं! बवंड़र है, तूफान है। फिर लहरें खो गई, शांत हो गई। फिर तुमसे कोई पूछे कि अब तूफान कहां है, तो क्या कहोगे? क्या तुम ऐसा कहोगे कि तूफान अब शांत हो गया है? यह बात ठीक नहीं होगी। तूफान अब नहीं ही है; शांत क्या हो गया है? तब था, अब नहीं है।

ऐसा ही मन हैः डांवाड़ोलपन, तरंगे, यह-वह, विकल्प, हजार-हजार विकल्प, हजार-हजार रास्ते! और आदमी ठिठका खड़ा है; कंप रहा हैः यह करूं, वह करूं! ऐसा ही मन है। जिस दिन तुम पाओगेः यह करने का डांवाड़ोलपन समाप्त हो गया उसी दिन मन भी समाप्त हो गया। फिर सागर है–तरंग रहित।

ऐसा समझोः मन तुम्हारी डांवाड़ोलपन दशा का नाम है; और आत्मा तुम्हारी शांत दशा का नाम है। तुम वही हो। जब डांवाड़ोल हो जाते हो, तो मन बन जाते हो। जब डांवाड़ोलपन चला जाता है, तो आत्मा बन जाते हो।

आत्मा और मन एक ही ऊर्जा की दो दशाए हैं।

लेकिन प्रश्न प्यारा है। चलो, इतना तो पूछा! यह भी पहली बार ही पूछा है। इस बार तो हिम्मत की। कुछ खास इसमें पूछा नहीं है, लेकिन पूछा तो! यह प्रश्न लिख कर तो भेजा!

प्रश्न प्रेमपूर्ण है।

अक्सर ऐसा होता है कि जिनकी बुद्धि बहुत-बहुत विचारो से भरी है, उन्हंे प्रश्न पूछना आसान होता है। लेकिन जब प्रश्न हृदय से उठते हैं, तो वे कठिन होते हैं। पहले तो वे बनते ही नहीं, ठीक-ठीक शब्दों में अंटते नहीं। शायद इसीलिए सुषमा सोचती होगीः आंख ही आंख से पूछूं, कि कोरा कागज भेज दूं? क्योंकि हृदय के प्रश्न भाषा में आते नहीं। प्रेम भाषा में नहीं आता। आता है, तो ऐसा लगता है–बहुत अधुरा आया। अंग-भंग हो जाता है। खंडित हो जाता है। किसी तरह भाषा में समा भी दो, तो ऐसा लगता हैः जो समाने चले थे, वह तो नहीं समाया; यह कुछ और हो गया। रूप बदल जाता है।

ऐसे ही जैसे तुम, अभी सूरज की रोशनी बरसती है, पक्षियों के गीत हैं, हवाओं में गंध है–इस सबको एक पेटी में बंद कर लो और घर ले जाओ और घर जा कर पेटी खोलो, वहां कुछ भी नहीं मिलेगाः न सूरज की किरणें, न पक्षियों के गीत, न हवा की सुवास; कुछ भी नहीं–खाली पेटी! हालांकि तुमने जब पेटी बंद की थी, तो सूरज की किरणें पड़ रही थी पेटी पर; हवा की गंध उड़ रही थी; पक्षियों के गीत हवा में थे; सब था; लेकिन जब पेटी बंद करके ले गए, तो पेटी में कुछ भी न आया।

शब्द ऐसे ही हैं; उनमें प्रेम नहीं बंध पाता। प्रेम बड़ा सूक्ष्म; शब्द बड़े स्थूल।

इसलिए भक्त रोता है; कह नहीं पाता। आंसू से कहता है। इसलिए भक्त नाचता है; कह नहीं पाता। नृत्य से कहता है। इसलिए भक्त बोलता नहीं; मौन हो जाता है। मौन से कहता है।

जो प्रेमी की पीड़ा है, वही भक्त की पीड़ा है–हजार गुनी हो कर।

तुम को बांध चुकी हूं मन में

संध्या की बेला यह सूनी

आकुलता बढ़ जाती दूनी

रवि भी बंधा हुआ है देखो

अपनी किरणों के बंधन में

तुम को बांध चुकी हूं मन में।

बैठ नीड़ में चोंच मिला कर

अपने उर में स्वर्ग बसा कर

पक्षी कहतेः जान गए हम

सुख से रहना इस जीवन में

तुमको बांध चुकी हूं मन में।

बांध तुम्हें क्या, मुक्त बनी मैं

पीड़ाओं की बनी धनी मैं

समझोगे तब, खो जाऊंगी

जब मैं अपने सुनेपन में

तुमको बांध चुकी हूं मन में!

प्रेम बांधता है–मनुष्य को मनुष्य से; सीमा से। तब भी भाषा असमर्थ हो जाती है–उस मिलन को भी प्रगट करने में असमर्थ हो जाती है। लेकिन जब कोई परमात्मा के प्रेम में पड़ता है, तब तो सीमा का असीम से मिलन होता है; सान्त का अनन्त से मिलन होता है। तब तो बात और मुश्किल हो जाती है।

तो कुछ हर्ज नहीं है, अगर कभी कोरा कागज भी भेज दो। मैं समझूंगा; मैं पढ़ लूंगा। और कुछ हर्ज नहीं है, अगर कभी आंखों-आंखों से कह दो। कुछ हर्ज नहीं है–कभी रो कर, कभी नाच कर, कभी गुनगुना कर कह दो। कुछ हर्ज नहीं है–कभी चुप रह कर कहो। मगर कहो। डांवाडोल मत होते रहो। निर्णायक बनो। निर्णय लेते-लेते, थिर होते-होते, मन एक दिन विसर्जित हो जाता है।

अखिरी प्रश्नः आपकी बातें सुनता हूं, तो प्रभु-खोज के विचार उठते हंै। लेकिन समझ नहीं पड़ता कि कहां से शुरू करूं!

कहीं से भी शुरू करो–शुरू करो। परमात्मा सब तरफ है। जहां से भी शुरू करोगे, उसी में शुरू होगा। कहां से शुरू करूं–इस प्रश्न में मत उलझो। क्योंकि परमात्मा तो एक तरह का वर्तुल है। इसलिए तो दुनिया में इतने धर्म हंै, क्योंकि इतनी शुरुआतें हो सकती हंै। दुनिया में तीन सौ धर्म हंै। दुनिया में तीन हजार भी धर्म हो सकते हंै, तीन लाख भी हो सकते हैं, तीन करोड़ भी हो सकते हैं। दुनिया में असल में उतने ही धर्म हो सकते हैं, जितने लोग हैं। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की शुरुआत दूसरे से थोड़ी भिन्न होगी। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति दुसरे से थोड़ा भिन्न है।

कहीं से भी शुरू करो। इस प्रश्न को बहुत मूल्य मत दो। मूल्य दो शुरू करने को। शुरू करो। और ध्यान रखो कि जब भी कोई शुरू करता है, तो भूल-चूक होती है! कहां से शुरू करूं–यह बहुत गणित का सवाल है। इसमें भय यही है कि कहीं गलत शुरुआत न हो जाए; कि कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए! कहां से शुरू करूं!

अगर बच्चा चलने के पहले यही पूछे कि कहां से शुरू करूं, कैसे शुरू करूं, कहीं गिर न जाऊं, घुटने में चोट न आ जाए, तो फिर बच्चा कभी चल नहीं पाएगा। उसे तो शुरू करना पड़ता है। सब खतरे मोल ले लेने पड़ते हैं। सब भय के बावजूद शुरू करना पड़ता है। एक दिन बच्चा उठ कर जब खड़ा होता है पहले दिन, तो असंभव लगता है कि चल पाएगा। अभी तक घसिटता रहा था, आज अचानक खड़ा हो गया।

मां कितनी खुश हो जाती है, जब बच्चा खड़ा होता है! हालांकि खतरे का दिन आया। अब गिरेगा। अब घुटने तोड़ेगा। अब लहू-लुहान होगा। सीढ़ियों से गिरेगा। अब खतरे की शुरुआत होती है। जब तक घसिटता था, खतरा कम था, सुरक्षा थी। मगर सुरक्षा में ही कब तक कैद रहोगे!

बच्चे को चलना पड़ेगा। खतरा मोल लेना पड़ेगा; अन्यथा लंगड़ा ही रह जाएगा। और कई बार गिरेगा…।

जब बच्चा पहली दफा बोलना शुरू करता है, तो तुतलाता ही है; कोई एकदम से सारी भाषा का मालिक तो नहीं हो जाएगा! कौन कब हुआ है! तुतलाएगा। भूले होंगी। कुछ का कुछ कहेगा; कुछ कहना चाहेगा, कुछ निकल जाएगा। लेकिन बच्चे हिम्मत करते हैं–तुतलाने की। इसलिए एक दिन बोल पाते हैं। तुतलाने की हिम्मत करते हैं, इसलिए एक दिन कालिदास और शेक्सपीयर भी पैदा हो पाते हैं। तुतलाने की कोशिश करते हैं, इसलिए एक दिन बुद्ध और क्राइस्ट भी पैदा हो पाते हैं।

तो तुम जब शुरू करोगे, तो यह तुतलाने जैसा होगा। इसमें तुम पूर्णता की अपेक्षा मत करना। यह तो अभी घसिटते थे,अब उठ कर खड़े हुए–खतरनाक है। भूल-चूक होने ही वाली है। भूल-चूक होगी ही। जो भूल-चूक से बचना चाहेगा, वह कभी चल न सकेगा, बोल न सकेगा। वह जी ही न सकेगा।

अक्सर ऐसा हो जाता है कि भूल-चूक से बचने वाले लोग वंचित ही रह जाते हैं–जीवन की संपदा से। दुनिया में एक ही भूल-चूक हैंः और वह भूल-चूक है, भूल-चूक से बचने कि अतिशय चेष्टा।

तुम पूछते होः ‘आपकी बाते सुनता हूं, तो प्रभु-खोज के विचार उठते हैं। लेकिन समझ नहीं पड़ता कि कहां से शुरू करूं।’

कहीं से भी शुरू करो। मस्जिद से शुरू करो, मंदिर से शुरू करो, गुरुद्वारे से शुरू करो, मूर्ति से शरू करो। कुरान-गीता, वेद-पुरान, कहीं से शुरू करो। नदी-पहाड़ पत्थर, किसी की पूजा से शुरू करो। मगर शुरू करो। अगर तुम मेरी सलाह मानना चाहते हो तो मैं कहूंगाः प्रकृति से शुरू करो। क्योंकि प्रकृति में ही परमात्मा छिपा है। वृक्षों-फूलों को देखो; चांद-तारों को देखो; नदी-सागरों को देखो। परमात्मा इन सब में छिपा है। यहीं तलाशो।

तो पहला परमात्मा का कदम प्रकृति से उठाओ। प्रकृति में दिख जाए, तो फिर सब जगह दिखाई पड़ने लगेगा।

अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि टेनीसन ने कहा है…एक फूल को देखा खिला हुआ और एक आश्चर्यजनक स्थिति में देखा खिला हुआ। एक पत्थरों की दीवाल में, जरा सी पत्थरों के बीच में संध थी, उसमें से फूल निकल आया था। चैंक कर खड़े हो गए टेनीसन और उन्होंने अपनी डायरी में लिखाः अगर मैं इस एक फूल को समझ लूं पूरा-पूरा, तो मुझे सारा अस्तित्व समझ में आ जाएगा। और परमात्मा की सारी लीला भी। एक फूल में सब छिपा है। एक फूल में!

सरेशाम फिर बाग में आ गया हूं

इसी मखजने-रंगो-बू की लगन में

की जिसने कभी रूह को ताजगी, कैफो-मस्ती की दौलत अता की

फजां को दिलोवेजी-ए-जाविदा दी

निगाहों को हुस्ने-तलब के नये जाविए

दिल को तहजीबे-जजबात दे कर

रिवायत से प्यार करना सिखाया

यहां कासनी ऊदे-ऊदे, गुलाबी, शहाबी

सभी फूल हैं

सब्जाजारों में जाएं तो बेले की खुशबू

फरावां-फरावां

कहीं मोतिए और चमेली की महकार राहत-बदामां

गुलाबों के तख्तों में हर दीदा-ओ-दील की तसकीं का सामा

यहां ढाक है

जिसके फूलों से मुगलों ने अपनी तस्वीर के रंग उभारे

उसी ढाक के रंग की दिलकशी से

‘बसावन’ ने, ‘दसवंत’ ने मुगल-ए-आजम के दरबार में दाद पाई

यहा एक बूढ़ा शजर भी है

जो जीस्त के खारजारों से तंग आ के गौतम बना

ज्ञान में महब है

सुबक गाम वादे-मुअत्तर के झोंकों से फरहां व शादां

हुजूमे गुलो-रंग पर तब्सिरे कर रहे हैं

सरेशाम फिर बाग में आ गया हूं

–शाम से ही, संध्या से ही बगीचे में आ गया हूं।

इसी मखजने-रंगो-बूकीलगन में

–यह रंग और सुंगध का खजाना मुझे खींच लाया है।

कि जिसने कभी रूह को ताजगी

कैफो-मस्ती की दौलत अता की

क्योंकि इसी से कभी-कभी जीवन में मस्ती आई; और इसी से कभी-कभी आनंद का स्वाद मिला; और इसी से कभी-कभी आत्मा की झलक मिली।

कि जिसने कभी रूह को ताजगी

कैफो-मस्ती की दौलत अता की

इसलिए तो कभी सागर को देखते-देखते ध्यान की झलक आ जाती है। कभी हिमालय पर शांत हरियाली को देखते-देखते तुम्हारे भीतर कुछ हरा हो जाता है। कभी गुलाब की पंखुड़ियों को खुलते देखते-देखते तुम्हारे भीतर कुछ खुल जाता है।

हम इस प्रकृति के हिस्से हैं। हम भी एक पौधे हैं। हमारी भी यहां जड़ें हैं। यह जमीन जितनी वृक्षों की है, उतनी हमारी है। ये वृक्ष जैसे जमीन से पैदा हुए, हम भी पैदा हुए हैं। सागर में जो जल लहरें ले रहा है, वही जल हमारे भीतर भी लहरें ले रहा है। वृक्षों में जो हरियाली है, वही हमारा जीवन भी है।

कि जिसने कभी रूह को ताजगी

कैफो-मस्ती की दौलत अता की

फजां को दिलावेजी-ए-जाविदां दी

और इस सौंदर्य को देखते हो–इसने प्रकृति को कैसे अमरता दी है। वृक्ष आते हैं, चले जाते हैं–हरियाली बनी रहती है; हरियाली अमर है। फूल आते हैं, चले जाते हैं–फुलवारी बनी रहती है; फुलवारी अमर है। आज एक पौधा है। कल दूसरा होगा, परसों तीसरा होगा–लेकिन तीनों किसी एक ही जीवन के अंग हैं। एक ही सिलसिला है। एक ही सातत्य है।

फजां को दिलावेजी-ए-जाविदां दी

निगाहों को हुस्ने-तलब के नये जाविए

और जिसने प्रकृति को देखा, उसी को देखने के नये कोण, नई दृष्टियां, नये दर्शन उपलब्ध होते हैं। ‘निगाहो को हुस्ने-तलब के नये जाविए।’ उसी को सौंदर्य को परखने की नई आंख मिलती है, नई कसौटियां मिलती हंै।

‘दिल को तहजीबे-जजबात दे कर।’…और उसी प्रकृति के माध्यम से भावना को सभ्यता मिलती है। जो लोग प्रकृति से अपरिचित हैं, उनकी भावना असभ्य होती है। जिसने कभी फूल खिलते नहीं देखा, वह आदमी अभी पूरा आदमी नहीं। और जिसने कभी पक्षियों के गीत शांति से बैठ कर नहीं सुने, और जो आदमियों की आवाज ही सुनता रहा है, वह आदमी नहीं। और जिसने कभी रात के चांद-तारोें से गुफ्तगु न की, वह आदमी आदमी नहीं; वह आदमी बहुत अधूरा है।

लंदन में कुछ वर्षों पहले एक गणना की गई–लंदन के बच्चों की। उनसे प्रश्न पूछे गए। जब मैंने गणना देखी, तो मेरा हृदय आंसुओं से भर आया। लंदन के दस लाख बच्चों ने यह कहा है कि उन्होंने गाय नहीं देखी, खेत नहीं देखे।

सीमेंट से पटी सड़कें जिंदगी की खबर नहीं देती, मौत की खबर देती हैं। सीमेंट के खड़े हुए आकाश छूते मकान, जहां से वृक्ष विदा हो गए हैं, वहां से परमात्मा भी विदा हो गया है।

मशीनें और आदमी की बनाई हुई चीजें कैसे तुम्हें परमात्मा की खबर दें! आदमी की बनाई चीजें आदमी को खबर देती हैं। कारें हैं, ट्रेने हंै, हवाई जहाज हैं, बड़े कल-कारखाने हैं, धुआं फेंकती हुई उनकी बड़ी चिमनियां हैं, बड़े ऊंचे मकान हैं, चैड़े सपाट सीमेंट के रास्ते हैं–इसमें तुम परमात्मा को कहां खोजोगे! इससे तुम्हें अगर परमात्मा के संबंध मे शक होने लगे, तो आश्चर्य क्या!

परमात्मा को खोजना हो, तो वहां खोजो, जहां चीजें बढ़ती हैं। बड़े से बड़ा मकान भी अपने-आप नहीं बढ़ता। उसमें जीवन नहीं है। और लंबे से लंबा रास्ता भी अपने-आप नहीं बढ़ता। उसमें जीवन नहीं है। एक बीज में ज्यादा छिपा है; जितना लंदन में, न्यूयार्क या बंबई में छिपा है, उससे ज्यादा एक छोटे से बीज में छिपा है, क्योंकि बीज बढ़ता है। बीज में जीवन छिपा है और जीवन में परमात्मा छिपा है।

‘दिल को तहजीबे जजबात दे कर।’…और जिस आदमी ने आदमी की बनाई चीजें देखीं, वह आदमी कठोर हो जाएगा। जिसने परमात्मा की कोमल बनाई चीजें देखीं, वह आदमी भावनाओं की दृष्टि से सभ्य हो जाएगा।

दिल का तहजीबे-जजबात दे कर

रिवायत से प्यार करना सिखाया

और जिसने प्रकृति को देखा, वही शाश्वतता को प्रेम कर पाएगा, क्योंकि वह देखेगाः यहां शाश्वत है। गुलाबों के फूल बहुत हुए और गए, लेकिन गुलाब का फूल बना है। कुछ फर्क नहीं पड़ता–एक फूल जाता है, दूसरा उसकी जगह भर देता है। परमात्मा का सृजन अनंत है।

यहां कासनी ऊदे-ऊदे गुलाबी, शहाबी

सभी फूूल हैं!

और इस प्रकृति को तुम देखोगे, तो तुम्हें समझ में आएगाः यहां कितने-कितने ढंग के फूल हैं! कितने रंग, कितने ढंग! कितने अद्वितीय! कहां गुलाब, कहां गेंदा, कहां कमल, कहां चंपा, कहां चमेली! सब कितने अलग! और सब में एक का ही वास है। और सब में एक की ही है सुवास है।

ऐसे ही लोग भी अलग-अलग हैं! ऐसे ही लोग भी भिन्न-भिन्न हैं। उनकी प्रार्थनाएं भी भिन्न-भिन्न होंगी। उनकी भावनाएं भी भिन्न-भिन्न होंगी।

प्रकृति को देखोगे, तो तुम्हें भिन्नता में एकता दिखाई पड़ेगी। और जिसको भिन्नता में एकता दिखाई पड़ गई, उसको मनुष्य का अन्तस्तल दिखाई पड़ गया।

यहां कासनी ऊदे-ऊदे, गुलाबी, शहाबी

सभी फूल हैं!

सब्जाजारों जाएं तो बेले की खुशबू

और अगर जरा भीतर घुसें तो बेले की मोहक, बेले की खुशबू! फरावां-फरावां…जैसे-जैसे पास जाओ वैसे-वैसे बढ़ती जाती है। फरावां-फरावां!

‘कहीं मोतिए, कहीं चमेली की महकार राहत-बदामां’…

कहीं मोतिए, कहीं चमेली की महकार, आनंददायी महकार!

‘गुलाबों के तख्तों में हर दीदा-ओ-दिल की तस्कीं का सामां’…

और हर फूल में, अगर तुम्हारे पास देखने की आंख हो, तो तुम्हारे दुखों को छीन लेने की सामथ्र्य है; तुम्हारी बेचैनी को छीन लेने की सामथ्र्य है।

‘गुलाबों के तख्तों में हर दीदा-ओ-दिल की तस्कीं का सामां’…

–नजर और दिल को संतुष्ट कर दे, ऐसा रहस्य, ऐसा जादू चारों तरफ छाया हुआ है। यहां ढाक है।

जिसके फूलों से मुगलों ने अपनी तस्वीर के रंग उभारे।

–वहां ढाक नाम का वृक्ष है, जिसके रंग मुगल चित्रकला में दिखाई पड़ंेगे।

उसी ढाक के रंग की दिलकशी से

‘बसावन’ ने, ‘दसवंत’ ने मुगले-ए-आजम के दरबार में दाद पाई।

ये दो चित्रकार थे अकबर के जमाने में–बसावन और दसवंत। उन्होंने ढाक के रंगों से ही चित्र रंगे हंै और बड़ी दाद पाई, बड़ी इज्जत पाई।

यहां एक बूढ़ा शजर भी है।

–यहां एक बूढ़ा वृक्ष भी है।

यहां एक बूढ़ा शजर भी है।

जो जीस्त के खारजारों से तंग आ के गौतम बना

–जो जिंदगी के दुखों, पीड़ाओं, कष्टों, जो जिंदगी के कांटों से बहुत परेशान हो कर गौतम बन गया है।

यहां एक बूढ़ा शजर भी है।

जो जीस्त के खारजारों से तंग आ के गौतम बना

ज्ञान में महब है।

जो अपने ध्यान में बैठा है। जो शांत हो गया है। जिसने बाहर से आंख बंद कर ली है। जो अपने भीतर डूब गया है।

यहां एक बूढ़ा शजर भी है।

जो जीस्त के खारजारों से तंग आ के गौतम बना

ज्ञान में महब है।

सुबह गान वादे-मुअत्तर के झोंकों से फरहां व शादां

हुजूमे गुलो-रंग पर तब्सिरे कर रहे हैं।

–और मंद गति से सुगंधित हवा आ रही है, प्रसन्न हवा आ रही है। और हवा फूलों के रंगों पर विचार-विमर्श कर रही है। हर फूल के पास थोड़ी देर ठहरती है, देखती है, रस लेती है; आगे बढ़ जाती है, सोचती है।

प्रकृति के पास जाओ।

तुम पूछते होः कहां से शुरू करें?

मैं कहता हूंः प्रकृति से शुरू करो। प्रकृति में डुबने लगो। एक घंटा तो कम से कम खोज ही लो, जो आदमियों से दूर, एक दूसरी भाषा में, एक दूसरे जगत में तुम्हें ले जाए।

आदमी जरूरत से ज्यादा आदमी से भर गया है। उससे छुटकारा चाहिए। थोड़ा दरवाजा खोलो। और प्रकृति श्रेष्ठतम है, जहां से राह बन सकती है। और जब प्रकृति को देखने की तुममें सामथ्र्य आ जाएगी, तो तुम अचानक पाओगेः परमात्मा दूर नहीं, यहीं छिपा है। यह सारा राग-रंग उसी का है। इस सबके पीछे उसी का हाथ है और इस सबके पीछे उसी केे प्राण की धड़कन है। उसी का हृदय धड़क रहा है।

आदमी में ही रहे, आदमी में ही उलझे रहे, तो चूकते चले जाओगे। आदमी को भूलो–बिसारो।

मैं तुमसे यह नहीं कहता हूं कि तुम सदा के लिए जंगल भाग जाओ। मैं तुमसे यह भी नहीं कहता हूं कि तुम सदा के लिए वृक्षों और पौधों के हो जाओ। वह भी गलती होगी। क्योंकि ऐसे तो जिस दिन तुम्हें समझ आएगी, तुम पाओगेः आदमी भी उसी की अभिव्यक्ति है। उसकी सबसे बड़ी अभिव्यक्ति आदमी है। फूलों में कुछ भी नहीं फूला है–आदमी में चैतन्य फूला है।

मगर शुरुआत करो–अ ब स से। आदमी को शायद तुम अभी समझ भी न पाओ। शुरुआत करो–तुतलाने से। फिर आदमी नाम के महाकाव्य को भी समझ पाओगे।

जिस दिन फूल में तुम्हें परमात्मा की छवि दिख जाएगी, उस दिन क्या तुम्हें लोगों की आंखों में परमात्मा नहीं दिखाई पड़ेगा? कौन फूल लोगों की आंखों से मुकाबला कर सकता है? जिस दिन तुम्हें फूलों में परमात्मा दिखाई पड़ेगा उस दिन मुस्कुराहट में किसी के ओठों पर तुम्हें परमात्मा नहीं दिखाई पड़ेगा? कौन फूल आदमी की मुस्कुराहट का मुकाबला कर सकता है? हां, फूल चटखते हैं और उनकी आवाजें होती हैं; लेकिन जब कोई आदमी हंसता है और जब फुलझड़ी झरती है हंसी की, तो कौन फुल उसका मुकाबला कर सकता है!

माना कि वृक्ष हरे हैं, और माना कि वृक्ष बड़े शांत हैं; मगर कौन आदमी की मस्ती और आदमी के जीवन और आदमी की उमंग और आदमी के उत्साह का मुकाबला कर सकता है!

यह सच है कि कभी तुम्हें बूढ़ा वृक्ष मिल जाए, जो अपने भीतर शांत बैठा है, मौन बैठा है, ध्यान में डूबा है। लेकिन गौतम बुद्ध का मुकाबला तो कोई भी वृक्ष न कर पाएगा–वह वृक्ष भी नहीं, जिसके नीचे बैठ कर गौतम बुद्ध बने।

मनुष्य की चेतना तो आत्यंतिक, आखिरी फूल है–जगत का, अस्तित्व का। इसलिए मैं यह नहीं कहता कि आदमी से सदा के लिए भाग जाओ। मैं यह कहता हंूः आदमी को जानना हो तो थोड़ी देर के लिए आदमी से मुक्त हो जाओः थोड़ी दूरी बनाओ; थोड़े वृक्षों से दोेस्ती करो; पशु-पौधों-पक्षियों से दोेस्ती करो। और तब तुम एक दिन जब आदमी पर लौट कर आओगे; और ये पक्षियों, पौधों, वृक्षों से जो तुम पाठ ले कर आओगे और तुम्हारा हृदय, तुम्हारी भावनाएं सभ्य हो गई होंगी; तुम किसी काव्य से, अभिनव काव्य से भरे जब आदमी को फिर से देखोगे, तब तुम पहचानोगे कि आदमी परमात्मा की प्रतिलिपि है।

प्रकृति से शुरू करो।

आज इतना ही।

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-03)

तीसरा–प्रवचन  –साधो, सब्द साधना कीजै

कहै कबीर मैं पूरा पाया

 

सूत्र

साधो, सब्द साधना कीजै।

जेही सब्द ते प्रकट भए सब, सोइ सब्द गहि लीजै।।

सब्द गुरु सब्द सुन सिख भए, सब्द सो बिरला बूझै।

सोई सिष्य सोई गुुरु महातम, जेही अन्तर गति सूझै।।

सब्दै वेद पुरान कहत हैं, सब्दै सब ठहरावै।

सब्दै सुर मुनि संत कहत हैं, सब्द भेद नहिं पावै।।

सब्दै सुन सुन भेष धरत हैं, सब्दै कहै अनुरागी।

खट-दरसन सब सब्द कहत हैं, सब्द कहै वैरागी।। Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-03)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-02)

दूसरा– प्रवचन–शून्य में छलांग

कहै कबीर मैं पूरा पाया

 

प्रश्न-सार

  1. मैं शून्य होता जा रहा हूं; अब क्या करूं?
  2. कबीर का धर्म-गुरु की तरह व्यापक प्रभाव क्यों नहीं पड़ा?
  3. दुख से मुक्ति कैसे मिले?
  4. गुरु-कृपा कब मिलेगी मुझे?

पहला प्रश्नः मैं शून्य होता जा रहा हूं; अब क्या करूं?

भई, अब किए कुछ भी न हो सकेगा! थोड़ी देरी कर दी। थोड़े समय पहले कहते, तो कुछ किया जा सकता था। शून्य होने लगे–फिर कुछ किया नहीं जा सकता। करने की जरूरत भी नहीं है। क्योंकि शून्य तो पूर्ण का द्वार है। Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-02)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-01)

सावधान–पांडित्य से-पहला प्रवचन

दिनांक 21-09-1977 से 30-09-1077 तक, ओशो आश्रम पूना।

सूत्र

पंडित वाद बदंते झूठा।

राम कह्या दुनिया गति पावे, खांड कह्या मुख मीठा।।

पावक कह्या पांव ते दाझै, जल कहि तृषा बुझाई।

भोजन कह्या भूख जे भाजै, तो सब कोई तिरि जाई।।

नर के संग सुवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।

जो कबाहुं उड़ि जाय जंगल में, बहुरि न सुरतैं आनै।।

बिनु देखे बिनु अरस परस बिनु, नाम लिए का होई।

धन के कहे धनिक जो हो तो, निरधन रहत न कोई।। Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-01)”

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