हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-10)

जागो–नाचते हुए—दसवां प्रवचन

: दिनांक १० जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना.

प्रश्नसार:

1—जब से तुझे पाया, तेरी महफिल में दौड़ा आया।

तू ही जाने तू क्या पिलाता, हम तो जानें

तेरी महफिल में सबको मधु पिलाता,

जहां पक्षी भी गीत गाएं और पौधे भी लहराएं।

हम न जानें प्रभु-प्रार्थना, नहीं समझें स्वर्ग-नर्क की भाषा

अब हमें न कहीं जाना, न कुछ पाना,

हमें तो लगे यही संसार प्यारा!… Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-10)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-09)

सदगुरु की महिमा—नौवां प्रवचन

: दिनांक ९ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:

धीरजवंत अडिंग जितेंद्रिय निर्मल ज्ञान गहयौ दृढ़ आदू।

शील संतोष क्षमा जिनके घट लगी रहयौ सु अनाहद नादू।।

मेष न पक्ष निरंतर लक्ष जु और नहीं कछु वाद-विवादू।

ये सब लक्षन हैं जिन मांहि सु सुंदर कै उर है गुरु दादू।।

कोउक गौरव कौं गुरु थापत, कोउक दत्त दिगंबर आदू।

कोउक कंथर कोउ भरथथर कोउ कबीर जाऊ राखत नादू। Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-09)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-08)

पुकारो–और द्वार खुल जाएंगे—आठवां प्रवचन

: दिनांक ८ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—भगवान! गत एक महीने से कुछ विचित्र घट रहा है, ध्यान-मंदिर में आपके चित्र के नीचे आपको नमन व स्मरण करे ध्यान प्रारंभ करता हूं तो कुछ क्षणों में ही त्वचा शून्य हो जाती है, रक्त-संचालन बंद हो जाता है, श्वास रुक सी जाती है, घटे-डेढ़ घंटे पश्चात पूर्व-स्थिति आने में आधा घंटा लग जाता है। परंतु पूरे समय अद्वितीय आनंद और स्फूर्ति अनुभव होती है। कृपा करके करके मार्गदर्शन करें।

2—मेरे ख्वाबों के झरोखों को फूलों से सजानेवाले

तेरे ख्वाबों मेरा कहीं गुजारा है कि नहीं

पूछकर अपनी निगाहों से तू बता दे मुझको

मेरी रातों के मुकद्दर में कहीं सुबह है कि नहीं? Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-08)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-07)

हरि बोलौ हरि बोल—सातवां प्रवचन

: दिनांक ७ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:

बांकि बुराई छाड़ि सब, गांठि हृदै की खोल।

बेगि विलंब क्यों बनत है हरि बोलौ हरि बोल।।

हिरदै भीतर पैंठि करि अंतःकरण विरोल।

को तेरौ तू कौन को हरि बोलौ हरि बोल।।

तेरौ तेरे पास है अपनैं मांहि टटोल।

राई घटै न तिल बढ़ैं हरि बोलौ हरि बोल।।

सुंदरदास पुकारिकै कहत बजाए ढोल। Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-07)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-06)

जो है, परमात्मा है—छठवां प्रवचन

: दिनांक ६ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—परमात्मा कहां है?

2—हम तो खुदा के कभी कायल ही न थे, तुमको देखा खुदा याद आया।

3—ऐसा लगता है कि कुछ अंदर ही अंदर खाए जा रहा है, जिसकी वजह से उदासी और निराशा महसूस होती है।

4—संसार से रस तो कम हो रहा है और एक उदासी आ गयी है। जीवन में भी लगता है कि यह किनारा छूटता जा रहा है और उस किनारे की झलक भी नहीं मिली। और अकेलेपन से घबड़ाहट भी बहुत होती है और इस किनारे को पकड़ लेती हूं। प्रभु, मैं क्या करूं? कैसे यहां तक पहुंचूं?

5—क्या आप मुझे पागल बना कर ही छोड़ेंगे?

चूक-चूक मेरी, ठीक-ठीक तेरा! Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-06)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-05)

सुंदर सहजै चीन्हियां—पांचवां प्रवचन

: दिनांक 5 जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:

हिंदू की हदि छाड़िकै, तजी तुरक की राह।

सुंदर सहजै चीन्हियां, एकै राम अलाह।।

मेरी मेरी करते हैं, देखहु नर की भोल।

फिरि पीछे पछिताहुगे (सु) हरि बोलौ हरि बोल।।

किए रुपइया इकठे, चौकूंटे अरु गोल।

रीते हाथिन वै गए (सु) हरि बोलौ हरि बोल।।

चहल-पहल सी देखिकै, मान्यौ बहुत अंदोल।

काल अचानक लै गयौ (सु) हरि बालौ हरि बोल। Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-05)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-04)

वन समस्या नहीं–वरदान है—प्रवचन-चौथा

: दिनांक 4 जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

पहला प्रश्न: मनुष्य की वस्तुतः अंतिम खोज क्या है?

अपनी ही खोज, अपने से ही पहचान। मनुष्य अकेला है सृष्टि में जिसे स्व-बोध है, जिसे इस बात का होश है कि मैं हूं। पशु हैं, पक्षी हैं, वृक्ष हैं–हैं तो जरूर, लेकिन अपने होने का उन्हें कोई बोध नहीं। होने का बोध नहीं है, इसलिए दूसरा प्रश्न असंभव है उठना कि मैं कौन हूं! हूं सच, पर कौन हूं? और जिसके जीवन में यह दूसरा प्रश्न नहीं उठा, वह पशु तो नहीं है, मनुष्य भी नहीं है। कहीं बीच में अटका रह गया–घर का न घाट का। उसके जीवन में पशु की शांति भी नहीं होगी और उसके जीवन में परमात्मा की शांति भी नहीं होगी। वैसा आदमी बीच में त्रिशुंक की तरह अटका, सदा अशांत होगा। Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-04)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-03)

तुम सदा एकरस, राम जी, राज जी—तीसरा प्रवचन

: दिनांक ३ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

तो पंडित आये, वेद भुलाये, षट करमाये, तृपताये।

जी संध्या गाये, पढ़ि उरझाये, रानाराये, ठगि खाये।।

अरु बड़े कहाये, गर्व न जाये, राम न पाये थाधेला।

दादू का चेला, भरम पछेला, सुंदर न्यारा ह्वै खेला।।

तौ ए मत हेरे, सब हिन केरे, गहिगहि गेरे बहुतेरे।

तब सतगुरु टेरे, कानन मेरे, जाते फेरे आ घेरे।। Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-03)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-02)

संसार अर्थात मूर्च्छा—दूसरा प्रवचन

दिनांक २ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—ज्ञानी परमात्मा को परम नियम कहते हैं, और कहते हैं कि यह नियम अत्यंत न्यायपूर्ण और कठोर है। दूसरी ओर भक्त परमात्मा को परम प्रेम कहते हैं और परम कृपालु। इस बुनियादी दृष्टि-भेद पर कुछ कहने की कृपा करें।

2—कहते हैं कि खेल के भी नियम होते हैं। फिर यह कैसा कि प्रेम में कोई नियम न हो?

3–भगवान, प्रेम स्वीकार न हो तो…?

4—संसार में असफलता अनिवार्य क्यों है?

5–मैं महापापी हूं मुझे उबारें! Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-02)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-01)

नीर बिनु मीन दुखी-प्रहला प्रवचन

दिनांक १ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

नीर बिनु मीन दुखी, छीर बिनु शिशु जैसे,

पीर जाके औषधि बिनु कैसे रहयो जात है।

चातक ज्यों स्वाति बूंद, चंद कौ चकोर जैसे,

चंदन की चाह करि सर्प अकुलात है।

निर्धन ज्यौं धन चाहे कामिनी को कंत चाहै,

ऐसी जाको चाह ताको कछु न सुहात है।

प्रेम कौ प्रभाव ऐसो, प्रेम तहां नेम कैसो,

सुंदर कहत यह प्रेम ही की बात है। Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-01)”

हरि बोलौ हरि बोल (सुंदर दास)-ओशो

हरि बोलौ हरि बोल (संत सुंदर दास)-ओशो

सुंदरदास के पदों पर दिनांक 1 जून से 10 जून, 1979 तक हुए भगवान श्री रजनीश आश्रम पूना में। दस अमृत प्रवचनों की प्रथम प्रवचनमाला।

आमुख

संत सुंदरदास दादू कि शिष्य थे। भगवान श्री का कहना है कि दादू ने बहुत लोग चेताये। दादू महागुरुओं में एक हैं। जिसने व्यक्ति दादू से जागे उतने भारतीय संतों में किसी ने नहीं जागे।

सुंदरदास पर उनके बालपन में ही दादू की कृपा हुई। दादू का सुंदरदास के गांव धौंसा में आना हुआ। सुंदरदास ने उस अपूर्व क्षण का जिक्र इन शब्दों में किया है–

दादू जी जब धौंसा आये

बालपन हम दरसन पाये।

तिनके चरननि नायौ माथा

उन दीयो मेरे सिर हाथा।

यह क्रांति का क्षण जब सुंदर के जीवन में आया तब वे सात वर्ष के ही थे। सात वर्ष! लोग हैं कि सत्तर वर्ष के हो जाते हैं तो भी संन्यासी नहीं होते। निश्चित ही अपूर्व प्रतिभा रही होगी; जो पत्थरों के बीच रोशन दीये की तरह मालूम पड़ रहा होगा।

सुंदरदास ने कहा है–

सुंदर सतगुरु आपनैं, किया अनुग्रह आइ।

मोह-निसा में सोवते, हमको लिया जगाइ।।

दादू ने देख ली होगी झलक। उठा लिया इस बच्चे को हीरे की तरह। और हीरे की तरह ही सुंदर को सम्हाला। इसलिए “सुंदर’ नाम दिया उसे। सुंदर ही रहा होगा बच्चा।

एक ही सौंदर्य है इस जगत में–परमात्मा की तलाश का सौंदर्य।

एक प्रसाद है इस जगत में–परमात्मा को पाने की आकांक्षा का प्रसाद।

धन्यभागी हैं वे–वे ही केवल सुंदर हैं–जिनकी आखों में परमात्मा की छवि बसती है।

तुम्हारी आंखें सुंदर नहीं होती हैं; तुम्हारी आंखों में कौन बसा है, उसमें सौंदर्य होता है।

तुम्हारा रूप-रंग सुंदर नहीं होता; तुम्हारे रूप-रंग में किसकी चाहत बसी है, वहीं सौंदर्य होता है।

और तुम्हें भी कभी-कभी लगा होगा कि परमात्मा की खोज में चलनेवाले आदमी में एक अपूर्व सौंदर्य प्रगट होने लगता है। उसके उठने-बैठने में, उसके बोलने में, उसके चुप होने में, उसकी आंख में, उसके हाथ के इशारों में–एक सौंदर्य प्रगट होने लगता है, जो इस जगत का नहीं है।

“हरि बोलौ हरि बोल’ में संकलित ये दस प्रवचन उस अपूर्व सौंदर्य की ओर आमंत्रण है–उन्हें जिनके हृदय में इसकी प्यास जगी है और जो इस प्यास के लिए अपने सारे जीवन को दांव पर लगा सकते हैं।

“सुंदरदास का हाथ पकड़ो। वे तुम्हें ले चलेंगे उस सरोवर के पास, जिसकी एक घूंट भी सदा को तृप्त कर जाती है।…लेकिन बस सरोवर के पास ले चलेंगे, सरोवर सामने कर देंगे। अंजुली तो तुम्हें बनानी पड़ेगी अपनी। झुकना तो तुम्हें ही पड़ेगा। पीना तो तुम्हें ही पड़ेगा।…लेकिन अगर सुंदर को समझा तो मार्ग में वे प्यास को भी जगाते चलेंगे। तुम्हारे भय सोये हुए चकोर को पुकारेंगे, जो चांद को देखने लगे। तुम्हारे भीतर सोये हुए चकोर को पुकारेंगे, जो चांद को देखने लगे। तुम्हारे भीतर सोये हुए चातक को जगाएंगे, जो स्वाति की बूंद के लिए तड़पने लगे। तुम्हें समझाएंगे कि तुम मछली की भांति हो जिसका सागर खो गया है और जो किनारे पर तड़प रही है।’

ओशो

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें