तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-64)-ओशो

आनंद है अचुनाव में—(प्रवचन—चौसठवां)

प्रश्‍नसार:

1—अधिक लोग दुःख और पीड़ा का जीवन ही क्‍यों चुनते है?

2—हम एक प्रबुद्ध की आशा कैसे कर सकते है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-64)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-63)-ओशो

परमात्‍मा को जन्‍म देना है—(प्रवचन—तेरष्‍ठवां)

सूत्र:

90—आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से

उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है।

और वहां ब्रह्मांड व्‍याप जाता है।

91—हे दयामयी, अपने रूप के बहुत ऊपर और बहुत

नींचे, आकाशीय उपस्‍थिति में प्रवेश करो। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-63)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-62)-ओशो

आरंभ से आरंभ करो—(प्रवचन—बाष्‍ठवां)

      प्रश्‍नसार:

1—मंजिल को पाने की ‘जल्‍दी’ और प्रयत्‍न—रहित खेल’ में संगति कैसे बिठाएं?

      2—अपने शत्रु को भी अपने में समाविष्‍ट करने की शिक्षा क्‍या दमन पर नहीं ले जाती है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-62)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-61)-ओशो

तुम्‍हारा घर जल रहा है—(प्रवचन—इकसठवां)

सूत्र:

88—प्रत्‍येक वस्‍तु ज्ञान के द्वारा ही देखी जाती है। ज्ञान के द्वारा ही आत्‍मा

क्षेत्र में प्रकाशित होती है। उस एक को ज्ञाता और ज्ञेय की भांति देखो।

89—है प्रिये, इस क्षण में मन, ज्ञान, प्राण, रूप, सब को समाविष्‍ट होने दो। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-61)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-60)-ओशो

डरने से मत डरो—(प्रवचन—साठवां)

प्रश्‍नसार:

      1—क्‍या स्‍वतंत्रता और समर्पण परस्‍पर विरोधी नहीं है?

      2—सूत्र का सिर्फ ‘यह यह है’ पर इतना जोर क्‍यों है?

      3—क्‍या भगवता या परमात्‍मा संसार का ही हिस्‍सा है?

            और वह क्‍या है जो दोनों के पार जाता है?

      4—तंत्र के अनुसार भय से कैसे मुक्‍त हुआ जाए?

      5—ऐसी ध्‍वनियां सुनने लगा हूं जो बहती नदी या झरने

            की घ्‍वनियों जैसी है। यह ध्‍वनि क्‍या है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-60)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-59)

स्‍वयं को असीमत: अनुभव करो—(प्रवचन—उन्‍नसठवां)

सूत्र:

86—भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज की चिंतना करता हूं,

जो दृष्‍टि के परे है, जो पकड़ के परे है, जो अनास्तिव के,

न होने के परे है—मैं।

      87—मैं हूं, यह मेरा है। यह यह है। हे प्रिय,ऐसे भाव में ही असीमत: उतरो। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-59)”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-58)-ओशो

अपनी नियति अपने हाथ में लो—(प्रवचन—अट्ठावनवां)

प्रश्‍नसार:

1—क्‍या त्‍वरित विधियां स्‍वभाव के, ताओ के विपरीत नहीं है?

2—हम अब तक बुद्धत्‍व को प्राप्‍त क्‍यों नहीं हुए?

3—यदि समग्र बोध और समग्र स्‍वतंत्रता को उपलब्‍ध होकर प्राकृतिक

      विकास के करोड़ो जन्‍मों का टाला जा सकता है, तो क्‍या यह Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-58)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-57)-ओशो

स्‍वतंत्रता : शरीर—मन के पार——(प्रवचन—सत्‍तावनवां)

सूत्र:

84—शरीर के प्रति आसक्‍ति को दूर हटाओ और यह भाव करो

कि में सर्वत्र हूं। जो सर्वत्र है वह आनंदित है।

85—ना—कुछ का विचार करने से सीमित आत्‍मा हो जाती है। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-57)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-56)-ओशो

अहंकार की यात्रा और अध्‍यात्‍म—(प्रवचन—छप्‍पनवां)

प्रश्‍नसार:

1—कृपया बताएं कि कोई शून्‍यता के साथ जीना कैसे सीखे?

2—क्‍या सारा आध्‍यात्‍मिक प्रयोग झूठे अहंकार के सच्‍चे

      रूपांतरण के लिए है?

3—अगर अहंकार झूठ है तो क्‍या अचेतन मन, स्‍मृतियों

      का संग्रह और रूपांतरण की प्रक्रिया, यह सब भी झूठ है?

4—कोई कैसे जाने कि उसकी आध्‍यात्‍मिक खोज अहंकार की

यात्रा न होकर एक प्रामाणिक धार्मिक खोज है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-56)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-55)-ओशो

दो विचारों के अंतराल में झांको—(प्रवचन—पच्‍चपनवां)

सुत्र—

82—अनुभव करो: मेरा विचार, मैं—पन, आंतरिक इंद्रियां—मुझ।

83—कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं,

कि मैं हूं? विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-55)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-54)-ओशो

समग्र मनुष्‍य : संतुलित संस्‍कृति—(प्रवचन—चव्‍वनवां)

प्रश्‍नसार:

1—ध्‍यानी व्‍यक्‍ति नकारात्‍म तरंगों से अपना बचाव कैसे करे?

2—बोधपूर्ण होने पर भी जो मैं—भाव बना रहता है, उसे कैसे विलीन किया जाए?

3—क्‍या ऐसी संस्‍कृति संभव है जो मनुष्‍य को समग्रता से स्‍वीकार करे? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-54)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-53)-ओशो

जब हरि हैं मैं नाहिं—(प्रवचन—तैरपनवां)

सूत्र:

79—भाव करो कि एक आग तुम्‍हारे पाँव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरिर

      में ऊपर उठ रही है। और अंतत: शरीर जलाकर राख हो जाता है;

      लेकिन तुम नहीं।

80—यह काल्‍पनिक जगत जलकर राख हो रहा है, यह भाव करो;

      और मनुष्‍य से श्रेष्‍ठतर प्राणी बनो। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-53)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-52)-ओशो

ध्‍यान को हंसी—खेल बना लो–(प्रवचन—बावनवो—(प्रवचन—बावनवां)

प्रश्‍नसार:

1—यदि सभी फिलासफी ध्‍यान—विरोधी है तो क्‍यों बुद्ध पुरूष

      दार्शीनिक मीमांसा की मजबूत शृंखला अपने पीछे छोड़ जाते है?

2—क्‍या विचार से समस्‍याएं हल हो सकती है?

3—खुले, निर्मल आकाश को एकटक देखने, प्रज्ञावान सदगुरू के फोटो

      पर त्राटक करने और अंधकार को अपलक देखने में क्‍या फर्क है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-52)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-51)-ओशो

अंधकार की साधना—(प्रवचनइक्‍यावनवां)

सूत्र:

76—वर्षा की अंधेरी रात में प्रवेश करो, जो रूपों का रूप है।

77—जब चंद्रमाहीन वर्षा की रात उपलब्‍ध न हो तो आंखें

      बंद करो और अपने सामने अंधकार को देखो,

      फिर आँख खोल कर अंधकार को देखा।

78—जहां कहीं भी तुम्‍हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर, अनुभव। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-51)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-50)-ओशो

तुम अपने भाग्‍य के मालिक हो—(प्रवचन—पचासवां)

प्रश्‍नसार:

1—क्‍या अंतस के रूपांतरण के लिए बाह्य की बिलकुल उपेक्षा भूल नहीं है?

2—क्‍या सभी ध्‍यान—विधियां भी कृत्य नहीं है?

3—सुस्‍पष्‍टता के लिए क्‍या मन का परिपक्‍व होना जरूरी नहीं है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-50)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-49)-ओशो

कृत्‍य नहीं, होना महत्‍वपूर्ण है—(प्रवचन—उन्‍नचासवां)

सूत्र:

73—ग्रीष्‍म ऋतु में जब तुम समस्‍त आकाश को अंतहीन

निर्मलता में देखो, उस निर्मलता में प्रवेश करो।

      74—हे शक्‍ति, समस्‍त तेजोमय अंतरिक्ष मेरे सिर में ही

            समाहित है, ऐसा भाव करो।

      75—जागते हुए, सोते हुए, स्‍वप्‍न देखते हुए, अपने को

            प्रकाश समझो। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-49)-ओशो”

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