अमृत की उपलब्धि मृत्यु के द्वार पर—सतरहवां प्रवचन
शंत चैका च हदयस्य नाद्यस्तासां मूर्धानमभिनि: सुतैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वंङ्न्या उत्क्रमणे भवन्ति।।16।।
अंगुष्ठमात्र: पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्ट:।
तं स्वाच्छरीराह्मवृहेन्दुंजादिवेषीकां धैयेंण
तं विद्याच्छुक्रममृतं विद्याच्छूक्रममृतमिति।। 17।।
मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लम्ब्बा विद्यामेतां योगविधिं च कृत्नम्।
ब्रह्मप्राप्तो विरजोडभूद्विमृत्युरन्योऽप्येवं वो विदध्यात्ममेव।।18।।
हृदय की (कुल मिलाकर) एक सौ एक नाड़िया हैं। उनमें से एक (नाड़ी) मूर्धा ( कपाल) की ओर निकली हुई है (इसे ही सुमुम्ना कहते हैं)। उसके द्वारा ऊपर के लोकों में जाकर (मनुष्य) अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है। दूसरी एक सौ नाड़िया मरणकाल में (जीव को) नाना प्रकार की योनियों में ले जाने की हेतु होती हैं।।16।। Continue reading “कठोउपनिषद–प्रवचन-17”