अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन

अंधेरे कूपों में हलचल

एक मित्र ने पूछा है कि क्या महापुरुष भी कभी भूलें करते हैं?

 

हां, करते हैं। महापुरुष भी भूलें करते हैं। एक बात है कि महापुरुष कभी छोटी भूल नहीं करते और जब भी भूल करते हैं, बड़ी ही करते हैं। अतः इस भ्रम में रहने की आवश्यकता नहीं है कि महापुरुष भूल नहीं करते। कोई भी महापुरुष इतना पूर्ण नहीं है कि भगवान कहलाने लगे। महापुरुष भूल करता है और कर सकता है। अतः यह आवश्यक नहीं है कि आने वाले लोग उनकी भूलों पर विचार न करें। यह आवश्यक नहीं है कि हम हिंदुस्तान के पांच हजार वर्षों के इतिहास पर विचार करें, वरन यदि हिंदुस्तान के पांच महापुरुषों पर ही ठीक से विचार कर लें तो आने वाले लोग जिस गलत रास्ते पर चलने वाले हैं–उसकी ओर संकेत हो सकेगा। ठीक समय पर भूल सुधार हो जाएगी। Continue reading “अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-08)”

अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन

उगती हुई जमीन

एक मित्र ने पूछा कि आप गांधी जी की अहिंसा में विश्वास नहीं करते हैं क्या? और यदि अहिंसा में विश्वास नहीं करते हैं गांधी की, तो क्या आपका विश्वास हिंसा में है?

 

पहली बात यह कि मेरा विश्वास हिंसा में तनिक भी नहीं है और दूसरी बात यह कि गांधी की अहिंसा में भी विश्वास नहीं करता हूं। गांधी की अहिंसा में भी बहुत अहिंसा नहीं मालूम देती, इसलिए गांधी की अहिंसा बहुत लचर, बहुत कमजोर है। गांधी की अहिंसा मुझे बहुत अधकचरी इसलिए लगती है क्योंकि पूर्ण अहिंसा में मेरी आस्था है। गांधी जी की अहिंसा के वास्तविक अंतराल में झांकने पर मुझे अचंभा सा होता है।

गांधी जी अफ्रीका में बोर युद्ध में स्वयंसेवक की तरह सम्मिलित हुए। बोर अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे और गांधी जी गोरों की आजादी की लड़ाई को दबाने के लिए, जो साम्राज्यशाही प्रयास कर रही थी उस साम्राज्यशाही की ओर से स्वयंसेवक की तरह भरती हुए। गांधी जी पहले महायुद्ध में अंग्रेजों के एजेंट की तरह भारत में लोगों को फौज में भरती करवाने का काम करते रहे। यह बहुत अचंभे की बात मालूम पड़ती है कि पहले महायुद्ध में गांधी ने लोगों को फौज में भरती होने और युद्ध में जूझने की प्रेरणा दी। Continue reading “अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-07)”

अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

तोड़ने का एक और उपक्रम

मेरे प्रिय आत्मन्!

मित्रों ने बहुत से प्रश्न से पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा हैः महापुरुषों की आलोचना की बजाय उचित होगा कि सृजनात्मक रूप से मैं क्या देखना चाहता हूं देश को, समाज को, उस संबंध में कहूं।

 

लेकिन आलोचना से इतने भयभीत होने की क्या बात है। क्या यह वैसा ही नहीं है हम कहें कि पुराने मकान को तोड़ने की बजाय नये मकान को बनाना ही उचित है? पुराने को तोड़े बिना नये को बनाया कब किसने है? और कैसे बना सकता है? विध्वंस भी रचना की प्रक्रिया का हिस्सा है। तोड़ना भी बनाने के लिए जरूरी हिस्सा है। अतीत की आलोचना भविष्य में गति करने का पहला चरण है और जो लोग अतीत की आलोचना से भयभीत होते हैं, वे वे ही लोग हैं जो भविष्य में जाने में सामर्थ्य भी नहीं दिखा सकते हैं। Continue reading “अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-06)”

अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

अतीत के मरघट से मुक्ति

मेरे प्रिय आत्मन्!

आज ही एक पत्र में मुझे स्वामी आनंद का एक वक्तव्य पढ़ने को मिला। और बहुत आश्चर्य भी हुआ, बहुत हैरानी भी हुई। स्वामी आनंद से किसी ने पूछा कि मैं जो कुछ गांधी जी के संबंध में कह रहा हूं उसके संबंध में आपके क्या खयाल हैं? स्वामी आनंद ने तत्काल कहाः उस संबंध में मैं कुछ भी नहीं कहना चाहता हूं। शिष्टाचार वश शायद उनके मुंह से ऐसा निकल गया होगा, क्योंकि यह कहने के बाद वे रुके नहीं और जो कहना था वह कहा। ऊपर से ही कह दिया होगा कि कुछ नहीं कहना चाहता हूं, लेकिन भीतर आग उबल रही होगी वह पीछे से निकल आई, इससे रुकी नहीं। आश्चर्य लगा मुझे कि पहले कहते हैं कि कुछ भी नहीं कहना चाहता हूं और फिर जो कहते हैं! आदमी ऐसा ही झूठा और प्रवंचक है। शब्दों में कुछ है, भीतर कुछ है। कहता कुछ है, कहना कुछ और चाहता है। उन्होंने जो कहा वह और भी हैरानी का है। Continue reading “अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-05)”

अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

लकीरों से हट कर

 

मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि गांधी जी ने दरिद्रों को दरिद्रनारायण कहा, इससे उन्होंने दरिद्रता को कोई गौरव-मंडित नहीं किया है, कोई ग्लोरिफाई नहीं किया है।

 

शायद आपको पता न हो, दरिद्रनारायण शब्द गांधी जी की ईजाद है। हिंदुस्तान में एक शब्द चलता था, वह था लक्ष्मीनारायण। दरिद्रनारायण शब्द कभी नहीं चलता था, चलता था लक्ष्मीनारायण। मान्यता यह थी कि लक्ष्मी के पति ही नारायण हैं। ईश्वर को भी हम ईश्वर कहते हैं, ऐश्वर्य के कारण। वह शब्द भी ऐश्वर्य से बनता है। लक्ष्मी के पति जो हैं वह नारायण हैं। समृद्धनारायण, ऐसी हमारी धारणा थी। हजारों साल से वही धारणा थी। धारणा यह थी कि जिनके पास धन है उनके पास धन पुण्य के कारण है, परमात्मा की कृपा के कारण है। धन का एक महिमावान रूप था, धन गौरव-मंडित था, धन की ग्लोरी थी हजारों वर्षों से। दरिद्र दरिद्र था पाप के कारण, अपने पिछले जन्मों के पापों के कारण दरिद्र था। धनी धनी था अपने पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण। धन प्रतीक था उसके पुण्यवान होने का, दरिद्रता प्रतीक थी उसके पापी होने का। यह हमारी धारणा थी। Continue reading “अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-04)”

अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-03) 

तीसरा प्रवचन

एक और असहमति

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं और न ही मैंने अपने किसी पिछले जन्म में ऐसे कोई पाप किए हैं कि मुझे राजनीतिज्ञ होना पड़े। इसलिए राजनीतिज्ञ मुझसे परेशान न हों और चिंतित न हों। उन्हें घबड़ाने की और भयभीत होने की कोई भी जरूरत नहीं है। मैं उनका प्रतियोगी नहीं हूं, इसलिए अकारण मुझ पर रोष भी प्रकट करने में शक्ति जाया न करें। लेकिन एक बात जरूर कह देना चाहता हूं, हजारों वर्ष तक भारत के धार्मिक व्यक्ति ने जीवन के प्रति एक उपेक्षा का भाव ग्रहण किया था।

गांधी ने भारत की धार्मिक परंपरा में उस उपेक्षा के भाव को आमूल तोड़ दिया है। गांधी के बाद भारत का धार्मिक व्यक्ति जीवन के और पहलुओं के प्रति उपेक्षा नहीं कर सकता है। गांधी के पहले तो यह कल्पनातीत था कि कोई धार्मिक व्यक्ति जीवन के मसलों पर चाहे वह राजनीति हो, चाहे अर्थ हो, चाहे परिवार हो, चाहे सेक्स हो–इन सारी चीजों पर कोई स्पष्ट दृष्टिकोण दे। धार्मिक आदमी का काम था सदा से जीवन जीना सिखाना नहीं, जीवन से मुक्त होने का रास्ता बताना। धार्मिक आदमी का स्पष्ट कार्य था लोगों को मोक्ष की दिशा में गतिमान करना। लोग किस भांति आवागमन से मुक्त हो सकें, यही धार्मिक दृष्टि की उपदेशना थी। इस उपदेश का घातक परिणाम भारत को झेलना पड़ा। Continue reading “अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-03) “

अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-02) 

दूसरा प्रवचन

संचेतना के ठोस आयाम

कुछ मित्रों ने कहा है कि गांधी जी यंत्र के विरोध में नहीं थे। और मैंने कल सांझ को कहा कि गांधी जी यंत्र, केंद्रीकरण, विकसित तकनीक के विरोध में थे।

 

गांधी जी की उन्नीस सौ अठारह से लेकर उन्नीस सौ अड़तालीस तक की चिंतना को हम देखेंगे तो उसमें बहुत फर्क होता हुआ मालूम पड़ता है। वे बहुत सजग ऑब्जर्वर थे। वे रोज-रोज, जो उन्हें गलत दिखाई पड़ता, उसे छोड़ते, जो ठीक दिखाई पड़ता उसे स्वीकार करते हैं। धीरे-धीरे उनका यंत्र-विरोध कम हुआ था, लेकिन समाप्त नहीं हो गया था।

अगर वे जीवित रहते और बीस वर्ष, तो शायद उनका यंत्र-विरोध और भी नष्ट हो गया होता। लेकिन वे जीवित नहीं रहे, और हमारा दुर्भाग्य सदा से यह है कि जहां हमारा महापुरुष मरता है वहीं उसका जीवन-चिंतन भी हम दफना देते हैं। महापुरुष तो समाप्त हो जाते हैं, उनकी जीवन-चिंतना आगे बढ़ती रहनी चाहिए। जहां महापुरुष समाप्त होते हैं वहीं उनका जीवन-दर्शन समाप्त नहीं हो जाना चाहिए। महापुरुष का शरीर समाप्त हो जाता है, Continue reading “अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-02) “

अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-01) 

अस्वीकृति में उठा हाथ-(राष्ट्रीय-सामाजिक)

पहला प्रवचन

एक मृत महापुरुष का जन्म

मेरे प्रिय आत्मन्!

वेटिकन का पोप अमरीका गया हुआ था। हवाई जहाज से उतरने के पहले उसके मित्रों ने उससे कहाः एक बात ध्यान रखना, उतरते ही हवाई अड्डे पर पत्रकार कुछ पूछें तो थोड़ा सोच-समझ कर उत्तर देना। और हां और न में तो उत्तर देना ही नहीं। जहां तक बन सके, उत्तर देने से बचने की कोशिश करना; अन्यथा अमेरिका में आते ही परेशानी शुरू हो जाएगी।

पोप जैसे ही हवाई अड्डे पर उतरा, वैसे ही पत्रकारों ने उसे घेर लिया और एक पत्रकार ने उससे पूछाः वुड यू लाइक टु विजिट एनी न्युडिस्ट कैंप वाइल इन न्यूयार्क? क्या तुम कोई दिगंबर क्लब, कोई न्युडिस्ट क्लब, कोई नग्न रहने वाले लोगों के क्लब में, न्यूयार्क में रहते समय जाना पसंद करोगे? Continue reading “अस्वीकृति में उठा हाथ-(प्रवचन-01) “

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