मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-10)

आओ और डूबो—(प्रवचन—दसवां)

प्रश्न—सार:

 1—ओशो, संन्‍यास लेने के बाद वह याद आती है—

जू—जू दयारे—इश्‍क में बढ़ता गया।

तोमतें मिलती गई, रूसवाइयां मिलती गई।

2—ओशो, आज तक दो प्रकार के खोजी हुए है। जो अंतर्यात्रा पर गए उन्‍होंने बाह्म जगत से अपने संबंध न्‍यूनतम कर लिए। जो बहार की विजय—यात्राओं पर निकले उन्‍हें अंतर्जगत का कोई बोध ही नहीं रहा। आपने हमें जीनें का नया आयाम दिया है। दोनों दिशाओं में हम अपनी यात्रा पूरी करनी है। ध्‍यान और सत्‍संग से जो मौन और शांति के अंकुर निकलते है, बाहर की भागा—भागी में वे कुचल जाते है। फिर बाहर के संघर्षों में जिस रूगणता और राजनीति का हमें अभ्‍यास हो जाता है, अंतर्यात्रा में वे ही कड़ियां बन जाती है।

प्रभु, दिशा—बोध देने की अनुकंपा करे। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-10)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-09)

संगति के परताप महातम—(प्रवचन—नौंवां)

सूत्र:

अब कैसे छूटै नामरट लागी।

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग—अंग बास समानी।

प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनपहिं मिलत सुहागा।।

प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी। जग—जीवन राम मुरारी।। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-09)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-08)

सत्‍संग की मदिरा—(प्रवचन—आठवां)

प्रश्‍न—सार:

1—ओशो, सत्‍संग क्या है? मैं कैसे करूं सत्‍संग—अपके संग—ताकि इस बुझे दीये को भी लौ लगे?

 2—ओशो, आपका धर्म इतना  सरल क्यों है? इसी सरलता के कारण वह धर्म जैसा ना लग कम उत्सव मालूम होता है और अनेक लोगों को इसी कारण आप धार्मिक नहीं मालूम होते है। मैं स्‍वंय तो अपने से कहता हूं: उत्‍सव मुक्‍ति है, मुक्‍ति उत्‍सव है।

3—ओशो, मैं पहली बार पूना आया एवं आपके दर्शन किए। आनंद—विभोर हो गया। आश्रम का माहौल देख कर आंसू टपकने लगे। मैंने, सुना और महसूस किया: यह सूरज सारी धरा को प्रकाशवान कर रहा है। किंतु ओशो, पूना में अँधेरा पाया। कारण बताने की कृपा करें। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-08)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-07)

भगती ऐसी सुनहु रे भाई—(प्रवचन—सातवां)

सूत्र:

      भगती ऐसी सुनहु रे भाई। आई भगति तब गई बड़ाई।।

      कहा भयो नाचे अरू गाए, कहा भयो तप कीन्‍हें।।

      कहा भयो जे चरन पखारे, जौ लौ तत्‍व न चीन्‍हें।।

      कहा भयो जे मूंड मुंडायो, कहा तीर्थ ब्रत कीन्‍हें।।

      स्‍वामी दास भगत अरू सेवक, परमतत्‍व नहीं चीन्‍हें।। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-07)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-06)

आस्‍तिकता के स्‍वर—(प्रवचन—छठवां)

प्रश्‍न—सार:

1—ओशो, नास्‍तिक का क्या अर्थ है?

2—ओशो, शास्‍त्र — विदों का कहना है कि स्‍त्री–जाति के लिए वेदपाठ, गायत्री मंत्र श्रवण और ओम शब्‍द का उच्‍चारण वर्जित है। प्रभु, मेरे मुख से अनायास ही ओम का उच्‍चारण हो जाया करता है, खास कर नादब्रह्म ध्‍यान करते समय तो उच्‍चारण करना ही पड़ता है। तो मन में डर सा लगता है कि ऐसा क्‍यों कहा गया है। क्‍या स्‍त्री–जाति को ओम का उच्‍चार नहीं करना चाहिए? कृपा कर समझाने की दया करें। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-06)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-05)

गाइ—गाइ अब का कहि गाऊं—(प्रवचन—पाँचवाँ)

सूत्र:

गाइ—गाइ अब का कहि गाऊं।

गावनहर को निकट बताऊं।।

जब लगि है इहि तन की आसा, तब लगि करै पुकारा।।

जब मन मिल्‍यौ आस नहीं तन की, तब को गावनहारा।।

जब लगि नदी न समुंद समावै, तब लगि बढै हंकारा।।

जब मन मिल्‍यौ रामसागर सौ, तब यह मिटी पुकारा।।

जब लगि भगति मुकति की आसा, परमत्‍व सुनि गावै।। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-05)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-04)

मन माया है—(प्रवचन—चौथा)

प्रश्न—सार:

1—ओशो,   इस देश में आपका सर्वाधिक विरोध आपके काम, सेक्‍स संबंधी विचारों के गिर्द खड़ा  हुआ है। पंडित—पुरोहित विरोध करें, यह बात समझ में आती है, लेकिन सच्‍चाई यह है कि आधुनिक मनोविज्ञान से सुपरिचित सुधीजन भी यह स्‍वीकारने में घबड़ाते भी यह स्‍वीकारने में घबडाते है कि काम और राम जुड़े है। क्‍या इस संदर्भ में हमें स्‍पष्‍ट दिशा—बोध देने की कृपा करेंगे।

2—ओशो,  गुरु और सदगुरू दो अलग शब्‍’ होने का क्‍य’ कारण है, जब कि गुरु ही सदगुरू है’?

 3—ओशो,  मैं बड़ा संदेहग्रस्‍त क्‍या इससे छूटकारे का कोई उपाय है?

4—ओशो,  संत कहते है कि संसार माया है, फिर भी इतने लोग क्‍यों संसार में ही उलझे रहते है? Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-04)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-03)

क्‍या तू सोया जाग अयाना—(प्रवचन—तीसरा)

सूत्र:

जो दिन आवहि सो दिन जाही। करना कूच रहन थिरू नाही।।

संगु चलत है हम भी चलना। दूरि गवनु सिर ऊपरि मरना।।

क्‍या तू सोया जाब अयाना। तै जीवन जगि सचु करि जाना।।

जिनि दिया सु रिजकु अंबराबै। सब घट भीतरि हाटु चलावै।।

करि बंदिगी छांडि मैं मेरा। हिरदे नामु सम्‍हारि सबेरा।।

जनमु सिरानो पंथु न संवारा। सांझ परी दह दिसि अंधियारा। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-03)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-02)

जीवन एक रहस्‍य है—(प्रवचन—दूसरा)

प्रश्न—सार:

1— ओशो,  मैंने उन्‍हें देखा था खिले फूल की तरह

अस्‍तित्‍व की हवा के संग डोलत हुए

आनंद की सुगंध लुटाते हुए सदा

सब के दिलों में प्रेम का रस घोलत हुए

लवलीन हो गए थे वे परमात्‍मा—भाव में…….

2—ओशो,  दशहरे के दिन मेरी बेटी की शादी तय हुई थी। सब तैयारियां हो चुकी थी। कार्ड बांट दिए गए थे और लड़के ने तीन दिन पहले दूसरी लड़की से शादी कर ली। मैंने तो इस दुर्भाग्‍य के पीछे सौभाग्‍य ही देखा। मगर मेरी बेटी के लिए इसमें कौन सा रहस्‍य छिपा है?

3—ओशो,  आप जो कहते है वह न मो मैं समझता ही हूं और न सुनता ही हूं। मैं क्‍या करू? Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-02)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-01)

आग के फूल—(पहला प्रवचन)

सूत्र:

बिनु देखे उपजै नहि आसा। जो दीसै सो होई बिनासा।।

बरन सहित जो जापै नामु। सो जोगी केवस निहकामु।।

परचै राम रवै जो कोई। पारसु परसै ना दुबिधा होई।।

सो मुनि मन की दुबिधा खाइ। बिनु द्वारे त्रैलोक समाई।।

मन का सुभाव सब कोई करै। करता होई सु अनभे रहै।।

फल कारण फूली बनराइ। फलु लागा तब फूल बिलाई।।

ग्‍यानै कारन कर अभ्‍यासू। ग्‍यान भया तहं करमैं नासू।। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-01)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(संत-रैदास)

मन ही पूजा मन ही धूप—(संत—रैदास)   ओशो

(दिनाांक  01-10-1979 से  10-10-1979 तक रैदास वाणी पर प्रश्‍नोत्‍तर सहित पुणे में ओशो द्वारा दिए गए दस अमृत प्रवचनो का अनुपन संकलन)

आमुख:

दमी को क्या हो गया है? आदमी के इस बगीचे में फूल खिलने बंद हो गए! मधुमास जैसे अब आता नहीं! जैसे मनुष्य का हृदय एक रेगिस्तान हो गया है, मरूद्यान भी नहीं कोई। हरे वृक्षों की छाया भी न रही। दूर के पंछी बसेरा करें, ऐसे वृक्ष भी न रहे। आकाश को देखने वाली आखें भी नहीं। अनाहत को सुनने वाले कान भी नहीं। मनुष्य को क्या हो गया है? Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(संत-रैदास)”

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