आनन्द गंगा-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-एक सीधा सत्य 

एक धर्मगुरु ने एक रात एक सपना देखा। सपने में उसने देखा कि वह स्वर्ग के द्वार पहुँच गया है। जीवनभर उसने स्वर्ग की ही बातें की थी। और जीवनभर स्वर्ग का रास्ता क्या है, यह लोगों को बताया था उसे निश्चित था कि जब मैं स्वर्ग के द्वार पर पहुंचूंगा ता स्वयं परमात्मा मेरे स्वागत को तैयार रहेंगे। लेकिन वहां द्वार पर तो कोई भी नहीं था द्वार खुला भी नहीं था, बन्द था। द्वार इतना बड़ा था कि उसके ओर-छोर को देख पाना सम्भव नहीं था उस विशाल द्वार के समक्ष खड़े होकर, वह एक छोटी चींटी जैस मालूम होने लगा। उसने द्वार को बहुत खटखटाया, लेकिन उस विशाल द्वार पर, उस छोटे-से आदमी की आवाजें भी पैदा हुई या नहीं, इसका पता चल पाना कठिन था। वह बहुत डर गया। Continue reading “आनन्द गंगा-(प्रवचन-05)”

आनन्द गंगा-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन-आलोक का दर्शन

प्रश्न-अस्पष्ट टेप रिकाडिंग

उत्तर-कोई दूसरा प्रश्न पूछें, वे तीनों एक हीं हैं। एक ही बात पूछी गयी है, उसकी मैं चर्चा कर लेता हूँ। और सच में बहुत बातें कुछ पूछने को हैं भी नहीं। प्रश्न तो एक ही है मनुष्य आनन्द को कैसे खोजे? आत्मा को कैसे खोजे, सत्य को कैसे खोजे? और मैंने आपसे कहा कि उस खोज का जो माध्यम है, वह निर्विचार होना है। समाधि के माध्यम से सत्य का अनुभव होता है या आत्मा का अनुभव होता है।

समाधि का अर्थ है सारे विचारों का शून्य हो जाना। ये विचार कैसे शून्य हों, इसके दो रास्ते हैं। एक रास्ता तो यह है कि हम अपने भीतर विचार का पोषण न करें। हम सारे लोग विचार का पोषण करते हैं और संग्रह करते हैं। सुबह से सांझ तक हम विचार को इकट्ठा करते हैं और इकट्ठा कर रहे हैं, फिजूल का कचरा इकट्ठा कर रहे हैं यह कोई सार्थक बात भी इकट्ठी कर रहे हैं। Continue reading “आनन्द गंगा-(प्रवचन-04)”

आनन्द गंगा-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-प्रेम की सुगन्ध

मेरे प्रिय आत्मन्

आज की संध्या, आपके बीच उपस्थित होकर, मैं बहुत आनन्दित हूँ। एक छोटी-सी कहानी से आज की चर्चा को मैं प्रारम्भ करूंगा।

बहुत वर्ष हुए एक साधु मरण-शैय्या पर था। उसकी मृत्यु निकट थी और उससे प्रेम करने वाले लोग उसके पास इकट्ठे हो गये थे। उस साधु की उम्र सौ वर्ष थी और पिछले पचास वर्षों से, सैकड़ों लोगों ने उससे प्रार्थना की कि उसे जो अनुभव हुए हों, उन्हें वह एक शास्त्र में, एक किताब में लिख दे। हजारों लोगों ने उससे यह निवेदन किया था कि वह अपने आध्यात्मिक अनुभवों को, परमात्मा के सम्बन्ध में, सत्य के सम्बन्ध में, उसे जो प्रतीतियां हुई हों, उन्हें एक ग्रन्थ में लिख दे। लेकिन वह हमेशा इन्कार करता रहा था और आज सुबह उसने यह घोषणा की थी कि मैंने वह किताब लिख दी है, जिसकी मुझसे हमेशा माँग की गयी थी और आज मैं अपने प्रधान शिष्य को वह किताब भेंट कर दूंगा। Continue reading “आनन्द गंगा-(प्रवचन-03)”

आनन्द गंगा-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-धैर्य की कला

 

प्रश्न- आनन्द थोड़ी देर के लिये अनुभव होता है और फिर वह आनन्द चला जाता है। वह आनन्द और अधिक देर तक कैसे रहे?

 

उत्तर-यह बहुत महत्त्वपूर्ण है पूछना, क्योंकि आज नहीं कल, जो लोग भी आनन्द की साधना में लगेंगे, उनके सामने यह प्रश्न खड़ा होगा। आनन्द एक झलक की भाँति उपलब्ध होता है-एक छोटी-सी झलक, जैसे किसी ने द्वार खोला हो और बन्द कर दिया हो। हम देख ही नहीं पाते उसके पार कि द्वार खुलता है और बन्द हो जाता है। वह आनन्द बजाय आनन्द देने के और पीड़ा का कारण बन जाता है, क्योंकि जो कुछ दिखता है, वह आकर्षित करता है, लेकिन द्वार बन्द हो जाता है। उसके बाबत चाह और भी घनी पैदा होती है, फिर द्वार खुलता नहीं, बल्कि फिर हम जितना उसे चाहने लगते हैं, उतना ही उससे वंचित हो जाते हैं। Continue reading “आनन्द गंगा-(प्रवचन-02)”

आनन्द गंगा-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन

विसर्जन की कला- जिज्ञासा का लोक

एक अंधेरी रात में एक युवक ने एक साधु से पूछा कि क्या आप मुझे सहारा न देंगे अपने गन्तव्य पर पहुँचने में? गुरु ने एक दीया जलाया और उसे साथ लेकर चला। और जब वे आश्रम का द्वार पार कर चुके तो साधु ने कहा अब मैं अलग हो जाता हूँ। कोई किसी का साथ नहीं कर सकता है और अच्छा है कि तुम साथ के आदी हो जाओ, इसके पहले मैं विदा हो जाऊं इतना कहकर उस घनी रात में, अंधेरी रात में, उसने उसके हाथ के दीये को भी फूंककर बुझा दिया। वह युवक बोला यह क्या पागलपन हुआ? अभी तो आश्रम के बाहर भी नहीं निकल पाये, साथ भी छोड़ दिया और दीया भी बुझा दिया। उस साधु ने कहा दूसरों के जलाये हुए दीये का कोई मूल्य नहीं है। अपना ही दीया हो तो अंधेरे में काम देता है, किसी दूसरे के दीये काम नहीं देते। खुद के भीतर से प्रकाश निकले तो ही रास्ता प्रकाशित होता है और किसी तरह रास्ता प्रकाशित नहीं होता। Continue reading “आनन्द गंगा-(प्रवचन-01)”

आनन्द गंगा-(ओशो) 

आनन्द गंगा-(ओशो) 

भूमिका

मेरे बांसुरी वादन में वे उपस्थित हैं

आज अधिकांश, संवेदनशील लोग विशेषकर कलाकार, सर्जक ओशो से जुड़ गये है। इसलिए मैं निस्संकोच कह सकता हूँ कि आने वाला समय निश्चित ही ओशो का होगा। चारों ओर ओशो के ही जीवन-दर्शन का बोलबाला होगा। मैं अक्सर महसूस करता हूँ कि मेरी बांसुरी वादन में वे उपस्थित हैं, मेरे प्राणों में उनका ही नाद है, उनकी ही अनुगूंज है, उनका ही माधुर्य है।

ओशो जो बोलते हैं, उसमें और संगीत में कोई फर्क नहीं होता। जैसे तानपूरे का सुर बजने लगता है और हम उस सुर के ध्यान में मग्न हो जाते हें एक बार मग्न हो गए तो फिर अन्तर्ध्यान में प्रविष्ट हो जाते हैं उसके बाद जो होता है, उसे केवल हृदय में महसूस किया जा सके। वही तो हमारी देह के रोंए-रोएं में, हमारे आचरण में उतरती है। इसलिए मैंने कहा कि मेरे बांसुरी वादन में वे उपस्थित है।

पंडित हरिप्रसाद चौरसिया Continue reading “आनन्द गंगा-(ओशो) “

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें