मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-02

न मन न सत्य-(प्रवचन-दूसरा) 

झेन बोध कथाएं-( A bird on the wing) 

मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing) “Roots and Wings” – 10-06-74 to 20-06-74 ओशो द्वारा दिए गये ग्यारह अमृत प्रवचन जो पूना के बुद्धा हाल में दिए गये थे।  उन झेन और बोध काथाओं पर अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित प्रवचन माला)

कथा:

डोको नाम के नए साधक ने सदगुरु के निकट आकर पूछा-

किस चित्त-दशा में मुझे सत्य की खोज करनी चाहिए?”

सदगुरू ने उत्तर दिया- वहां मन है ही नहीं, इसलिए तुम उसे

किसी भी दशा में नहीं रख सकते और न वहां कोई सत्य है? इसलिए

तुम उसे खोज नहीं सकते

डोको ने कहा- यदि वहां न कोई मन है और न कोई सत्य फिर

यह सभी शिक्षार्थी रोज आपके सामने क्यों सीखने के लिए आते हैं

सदगुरू ने चारों ओर देखा ओर कहा- में तो यहां किसी को भी

नहीं देख रहा। 

पूछने वाले ने अगला प्रश्न क्रिया- तब आप कौन है? जो शिक्षा

दे रहे है?”

सदगुरू ने उत्तर दिया- मेरे पास कोई जिह्वा ही नहीं फिर मैं

कैसे शिक्षा दे सकता हूं?”

तब डोको ने उदास होकर कहा- मैं आपका न तो अनुसरण

कर सकता हूं और न आप करे समझ सकता हूं

झेन सदगुरु ने कहा- मैं स्वयं अपने आपको नहीं समझ पाता।  

Continue reading “मनुष्य होने की कला–(A bird on the wing)-प्रवचन-02”

शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-05

मूलस्त्रोत की और लोटना-(प्रवचन-पांचवां)

Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)–ओशो

(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 

सूत्र:

जब विचार के विषय विलीन हो जाते है

विचार करने वाला भी विलीन हो जाता है;

जैसे मन विलीन हो जाता है विषय भी विलीन हो जाते है।

वस्तुएं विषय बनती है क्योंकि भीतर विषयी मौजूद है;

वस्तुओं के कारण ही मन ऐसा है। इन दोनों की सापेक्षता को,

और मौलिक सत्य शून्यता की एकात्मकता को समझो।
इस शून्यता में इन दोनों की अलग पहचान खो जाती है

और प्रत्येक अपने आप में संपूर्ण संसार को समाए रहता है
अगर तुम परिष्कृत और अपरिष्कृत में भेद नहीं करते,

तो तुम पूर्वाग्रहों और धारणाओं का मोह नहीं करोगे। Continue reading “शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-05”

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-06)

जागरण—(प्रवचन-छठवां)  

ऋतु आये फल होय–The Gras grow by Itself–ओशो

(ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 26 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)

सूत्र:

महान सदगुरु गीजान के सान्निध्य में

तीन वर्षों के कठोर प्रशिक्षण के बाद भी

कोश सतोरी प्राप्त करने में समर्थ न हो सका था।

सात दिनों के विशिष्ट अनुशासन सत्र के प्रारम्भ में ही

उसने सोचा कि अंतिम रूप से उसके लिए यह अवसर आ पहुंचा है,
वह मंदिर के द्वार की मीनार के ऊपर चढ़ गया।

और बुद्ध की प्रतिमा के सामने जाकर उसने यह प्रतिज्ञा की:

या तो मैं यहां अपने सपने को साकार करूंगा,

अथवा इस मीनार के नीचे गिरे, वे मेरे मृत शरीर को पाएंगे। Continue reading “ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-06)”

22-आदि शंकरा चार्य-(ओशो)

आदि शंकरा चार्य-भारत के संत

भजगोविंद मुढ़मते-ओशो

धर्म व्याकरण के सूत्रों में नहीं है, वह तो परमात्मा के भजन में है। और भजन, जो तुम करते हो, उसमें नहीं है। जब भजन भी खो जाता है, जब तुम ही बचते हो; कोई शब्द आस-पास नहीं रह जाते, एक शून्य तुम्हें घेर लेता है। तुम कुछ बोलते भी नहीं, क्योंकि परमात्मा से क्या बोलना है! तुम्हारे बिना कहे वह जानता है। तुम्हारे कहने से उसके जानने में कुछ बढ़ती न हो जाएगी। तुम कहोगे भी क्या? तुम जो कहोगे वह रोना ही होगा। और रोना ही अगर कहना है तो रोकर ही कहना उचित है, क्योंकि जो तुम्हारे आंसू कह देंगे, वह तुम्हारी वाणी न कह पाएगी। अगर अपना अहोभाव प्रकट करना हो, तो बोल कर कैसे प्रकट करोगे? शब्द छोटे पड़ जाते हैं। अहोभाव बड़ा विराट है, शब्दों में समाता नहीं, उसे तो नाच कर ही कहना उचित होगा। अगर कुछ कहने को न हो, तो अच्छा है चुप रह जाना, ताकि वह बोले और तुम सुन सको। Continue reading “22-आदि शंकरा चार्य-(ओशो)”

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-01)

मन दर्पण कहलाए-(पहला प्रवचन)

जीवन-सत्य के संबंध में थोड़ी सी बातें न केवल हम विचार करेंगे, बल्कि कैसे सत्य के जीवन में प्रवेश किया जाए, कैसे हम स्वयं छलांग लगा सकते हैं और सत्य का स्वाद ले सकते हैं, इस संबंध में प्रयोग भी करेंगे। बात का तो कोई बहुत मूल्य नहीं है, विचारों की कोई बहुत कीमत नहीं है, क्योंकि विचार मनुष्य के सारे प्राणों को न तो छूते हैं और न समस्त प्राणों को डुबाने में समर्थ हैं। जीवन में जो भी अर्थपूर्ण है, उसे पूरे प्राणों से अनुभव करने की तैयारी करनी पड़ती है। जैसे हम किसी को प्रेम करते हैं तो बुद्धि भी डूब जाती है, हृदय भी। देह भी डूब जाती है, श्वास भी डूब जाती है। सारा प्राण और सारा व्यक्तित्व प्राण में डूब जाता है और प्रेम का अनुभव होता है। Continue reading “गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-01)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-15)

जीवन एक समग्रता है-(प्रवचन-पंद्रहवां)

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

लेकिन मजा यह है कि कम्युनिज्म अब बिलकुल क्रांतिकारी नहीं रहा है, अब वह भी एक रिएक्शनरी विचारधारा है। जब कोई विचार पैदा होता है तब तो वह क्रांतिकारी होता है, और जैसे ही वह संगठित हो जाता है, संप्रदाय बन जाता है, व्यवस्था हो जाती है, उसकी क्रांति मर जाती है। बुद्ध जब बात कहे तो वह क्रांतिकारी थी; और जैसे ही बौद्ध धर्म बना, वह खत्म हो गई क्रांति। महावीर ने जब बात कही, बड़ी क्रांतिकारी थी; जैसे ही जैनी खड़े हुए, क्रांति खत्म हो गई।

 

उन्होंने भी बुतपरस्ती शुरू की।

 

हां, वह शुरू हो जाएगी। माक्र्स ने जो बात कही, वह बड़ी क्रांतिकारी थी; लेकिन जैसे ही माक्र्ससिस्ट पैदा हुए कि वह क्रांति गई। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-15)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-07)

नये समाज का आधार– भय नहीं, प्रेम-(प्रवचन-सातवां)

नये समाज की खोज शायद मनुष्य की सबसे पुरानी खोज है। पुरानी भी है और अब तक सफल भी नहीं हो पाई। कोई दस हजार वर्षों का इतिहास एक बहुत ही असफल कहानी का इतिहास है। प्रयास बहुत हुए कि नया समाज पैदा हो, लेकिन हर प्रयास के बाद पुराना समाज फिर नये रूप में स्थापित हो जाता है। नया समाज पैदा नहीं हो पाता है। क्रांतियां हुईं। क्रांति शब्द से पहले बहुत आशा बंधती थी, अब वह शब्द भी बहुत निराशाजनक हो गया है। क्योंकि कोई क्रांति सफल नहीं हो पाई है। चाहे फ्रांस में, चाहे रूस में, चाहे चीन में, क्रांतियां हुईं, रक्तपात हुआ, नये समाज को जन्म देने के लिए प्रसव की पूरी-पूरी पीड़ा सही गई, लेकिन नया समाज पैदा नहीं हुआ। पुराना समाज फिर नये रूप में स्थापित हो गया। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-07)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-06)

शून्य की दिशा-(प्रवचन-छट्ठवां)

आचार्य जी, उस दिन जो बात हुई थी उसमें सबसे बड़ा मूल प्रश्न जो हमारे ध्यान में आया था, जिसके बारे में हमें आपसे कुछ जानना है, वह यह है कि शून्यवाद का असर जो हमें बुद्धिज्म और जैनिज्म में दिखाई देता है, शायद वह शून्य का इंटरप्रिटेशन कितना ही पाजिटिव हो, लेकिन शब्द-प्रयोग से ही लोगों के जनरल खयालातों में इंटरप्रिटेशन हो जाते हैं। हर एक को नई फार्मूला एक पुराने शब्द के लिए नहीं दी जा सकती। लेकिन प्रापर शब्द शायद यूज किया जा सकता है। तो इस संभावना से हमें यह नजर आता है और कई लोगों के माइंड में भी यह फैक्ट आया हुआ है कि शून्य इज़ दि ओनली वर्ड व्हिच कैन डिस्क्राइब योर एप्रोच टु दि ट्रुथ? या और कोई ऐसी चीज है या रास्ता है या शब्द-प्रयोग है कि जिससे सामान्य जनता में यह निगेटिवइज्म के प्रति ले जाने की दृष्टि आप में है, ऐसा प्रतीत न हो। मिसअंडरस्टैंडिंग न हो। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-06)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-04)

अंतस की बदलाहट ही-(प्रवचन-चौथा)

एकमात्र बदलाहट

मेरे प्रिय आत्मन्!

अच्छा होगा कि मैं आज प्रश्नों के ही उत्तर दूं, क्योंकि बहुत प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। संक्षिप्त में ही देने की कोशिश करूंगा ताकि अधिकतम प्रश्नों के उत्तर हो सकें।

एक मित्र ने पूछा है: बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, इन तीन सूत्रों के संबंध में आपका क्या कहना है?

सूत्र तो जिंदगी में एक ही है–बुरे मत होओ। ये तीनों सूत्र तो बहुत बाहरी हैं। भीतरी सूत्र तो–बुरे मत होओ–वही है। और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न देखे, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न सुने, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न बोले, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। ऐसा आदमी सिर्फ पागल हो जाएगा। क्योंकि भीतर बुरा होगा! अगर बुरे को देख लेता तो थोड़ी राहत मिलती। वह भी नहीं मिलेगी। अगर बुरे को बोल लेता तो थोड़ा बाहर निकल जाता, भीतर बुरा थोड़ा कम हो जाता, वह भी नहीं होगा। अगर बुरे को सुन लेता तो भी थोड़ी तृप्ति मिलती, वह भी नहीं हो सकेगी। भीतर बुरा अतृप्त रह जाएगा। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-04)”

नये भारत की खोज-(प्रवचन-08)

नये भारत की खोज-(आठवां प्रवचन)

अच्छे लोग और अहित

प्रश्नकर्ताः आप जो विस्फोटक बातें देश के जीवन और गांधी जी के संबंध में कह रहे हैं, उससे तो लोग आपसे दूर चले जाएंगे।

उत्तरः मैं इसके लिए जरा भी ध्यान नहीं रखता हूं कि लोग मेरे करीब आएंगे या मुझसे दूर जाएंगे। वह मेरा प्रयोजन भी नहीं है। जो ठीक है और सच है, उतना ही मैं कहना चाहता हूं। सत्य का क्या परिणाम होगा, इसकी मुझे जरा भी चिंता नहीं है। अगर वह सत्य है तो लोगों को उसके साथ आना पडेगा, चाहे वह आज दूर जाते हुए मालूम पडे। और लोग पास आएं इसलिए मैं असत्य नहीं बोल सकता हूं। फिर, सत्य जब भी बोला जाएगा, तभी प्राथमिक परिणाम उसका यही होगा कि लोग भागेंगे। क्योंकि हजारों वर्ष से जिस धारणा में वे पले हैं, उस पर चोट पडेगी। सत्य का हमेशा ही यही परिणाम हुआ है। सत्य हमेशा डेवेस्टेटिंग है, एक अर्थों में..कि वह जो हमारी धारणा है, उसको तो तोड डालो। और अगर धारणा तोडने से हम बचना चाहें, तो हम सत्य नहीं बोल सकते। जान कर मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाह रहा हूं, डेलिब्रेटलि मैं किसी को चोट पहुंचाना नहीं चाहता हूं। लेकिन सत्य जितनी चोट पहुंचाता है, उसमें मैं असमर्थ हूं, उतनी चोट पहुंचेगी; उसको बचा भी नहीं सकता। फिर मैं कोई राजनितिक नेता नहीं हूं कि इसकी फिकर करूं कि लोग मेरे पास आएं। कि मैं इसकी फिकर करूं कि पब्लिक ओपीनियन क्या है? Continue reading “नये भारत की खोज-(प्रवचन-08)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-16)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-16) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-26

अहिंसा का अर्थ

मैं उन दिनों का स्मरण करता हूं जब चित्त पर घना अंधकार था और स्वयं के भीतर कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ता था। तब की एक बात ख्याल में है। वह यह कि उन दिनों किसी के प्रति कोई प्रेम प्रतीत नहीं होता था। दूसरे तो दूर, स्वयं के प्रति भी कोई प्रेम नहीं था।  फिर, जब समाधि को जाना तो साथ ही यह भी जाना कि जैसे भीतर सोए हुए प्रेम से अनंत झरने अनायास ही सहज और सक्रिय हो गए हैं। यह प्रेम विशेष रूप से किसी के प्रति नहीं था। यह तो बस था, और सहज ही प्रवाहित हो रहा था। जैसे दीए से प्रकाश बहता है और फूलों से सुगंध, ऐसे ही वह भी बह रहा था। बोध के उस अद्भुत क्षण में जाना था कि वह तो स्वभाव का प्रकाश है। वह किसी के प्रति नहीं होता है। वह तो स्वयं की स्फुरणा है।  इस अनुभूति के पूर्व प्रेम को मैं राग मानता था। अब जाना कि प्रेम और राग तो भिन्न हैं। राग तो प्रेम का अभाव है। वह घृणा के विपरीत है, इसीलिए ही राग कभी भी घृणा में परिणत हो सकता है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-16)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-09)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-9) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-19

समाधि योग

सत्य की खोज की दो दिशाएं हैं- एक विचार की, एक दर्शन की। विचार-मार्ग चक्रीय है। उसमें गति तो बहुत होती है, पर गंतव्य कभी भी नहीं आता। वह दिशा भ्रामक और मिथ्या है। जो उसमें पड़ते हैं, वे मतों में ही उलझकर रह जाते हैं। मत और सत्य भिन्न बातें हैं। मत बौद्धिक धारणा है, जबकि सत्य समग्र प्राणों की अनुभूति में बदल जाते हैं। तार्किक हवाओं के रुख पर उनकी स्थिति निर्भर करती है, उनमें कोई थिरता नहीं होती। सत्य परिवर्तित नहीं होता है। उसकी उपलिंध शाश्वत और सनातन में प्रतिष्ठा देती है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-09)”

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-08)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-8) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-18

जीवन-संपदा का अधिकार

मैं क्या देखता हूं देखता हूं कि मनुष्य सोया हुआ है। आप सोए हुए हैं। प्रत्येक मनुष्य सोया हुआ है। रात्रि ही नहीं, दिवस भी निद्रा में ही बीत रहे हैं। निद्रा तो निद्रा ही है, किंतु यह तथाकथित जागरण भी निद्रा ही है। आंखों के खुल जाने-मात्र से नींद नहीं टूटती। उसके लिए तो अंतस का खुलना आवश्यक है। वास्तविक जागरण का द्वार अंतस है। जिसका अंतस सोया हो, वह जागकर भी जागा हुआ नहीं होता, और जिसका अंतस जागता है वह सोकर भी सोता नहीं है। Continue reading “क्रांति सूत्र-(प्रवचन-08)”

क्रांति सूत्र-(ओशो)

क्रांति सूत्र (23 अध्याय, 22 वां 4 खंड में)

क्रांति सूत्र (1) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-11, मैं कौन हूं

क्रांति सूत्र (2) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-12, धर्म क्या है

क्रांति सूत्र (3) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-13, विज्ञान की अग्नि में धर्म और विश्वास

क्रांति सूत्र (4) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-14, मनुष्य का विज्ञान

क्रांति सूत्र (5) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-15, विचार के जन्म के लिएः विचारों से मुक्ति

क्रांति सूत्र (6) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-16, जीएं और जानें

क्रांति सूत्र (7) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-17, शिक्षा का लक्ष्य

क्रांति सूत्र (8) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-18, जीवन-संपदा का अधिकार Continue reading “क्रांति सूत्र-(ओशो)”

उपनिषद का मार्ग-(प्रवचन-21)

उपनिषद का मार्ग-(इक्कीसवां प्रवचन)

भारत : एक अनूठी संपदा

(Note: Translated only first question from Talk #21 of Osho Upanishad given on 8 September 1986 pm in Mumbai. This is compiled in Mera Swarnim Bharat.)

प्रश्न- प्यारे ओशो!

भारत में आपके पास होना, दुनिया में और कहीं भी आपके सान्निध्य में होने से अधिक प्रभावमय है। प्रवचन के समय आपके चरणों में बैठना ऐसा लगता है जैसे संसार के केन्द्र में, हृदय-स्थल में स्थित हों। कभी-कभी तो बस होटल के कमरे में बैठे-बैठे ही आंख बंद कर लेने पर मुझे महसूस होता है कि मेरा हृदय आपके हृदय के साथ धड़क रहा है।

सुबह जागने पर जब आसपास से आ रही आवाजों को सुनती हूं, तो वे किसी भी और स्थान की अपेक्षा, मेरे भीतर अधिक गहराई तक प्रवेश कर जाती हैं। ऐसा अनुभव होता है कि यहां पर ध्यान बड़ी सहजता से, बिना किसी प्रयास के, नैसर्गिक रूप से घटित हो रहा है।

क्या भारत में आपके कार्य करने की शैली भिन्न है, अथवा यहां कोई ‘प्राकृतिक बुद्ध क्षेत्र’ जैसा कुछ है? Continue reading “उपनिषद का मार्ग-(प्रवचन-21)”

उपनिषद का मार्ग-(प्रवचन-01)

उपनिषद का मार्ग  (पहला प्रवचन)

रहस्य स्कूल- चमत्कार से एक भेंट

(केवल प्रथम प्रवचन 16.8.1986 बंबई, अंग्रेजी से अनुवादित)

प्यारे भगवान,

क्या आप कृपया समझाने की अनुकंपा करेंगे कि रहस्य-स्कूल का ठीक-ठीक कार्य क्या है?

मेरे प्रिय आत्मन्,

बहुत समय से भुला दिए गए, किसी भी भाषा के सर्वाधिक सुंदर शब्दों में से एक, अति जीवंत शब्द, “उपनिषद” का अर्थ है- सदगुरु के चरणों में बैठना। इसका और कुछ अधिक अर्थ नहीं है, बस गुरु की उपस्थिति में रहना, उसे अनुमति दे देना कि वह तुम्हें अपने स्वयं के प्रकाश में, अपने स्वयं के आनंद में, अपने स्वयं के संसार में ले जाए।

और ठीक यही कार्य रहस्य-विद्यालय का भी है।

गुरु के पास वह आनंद, वह प्रकाश है, और शिष्य के पास भी है परंतु गुरु को पता है और शिष्य गहन निद्रा में है।

रहस्य-विद्यालय का कुल कार्य इतना ही है कि शिष्य को होश में कैसे लाया जाए, उसे कैसे जगाया जाए, कैसे उसे स्वयं उसे होने दिया जाए, क्योंकि शेष सारा संसार उसे कुछ और बनाने की चेष्टा कर रहा है। Continue reading “उपनिषद का मार्ग-(प्रवचन-01)”

आठो पहर यूं झूमिये-(प्रवचन-04)

आठ पहर यूं झूमते-प्रवचन-चौथा 

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं सोचता था किस संबंध में आपसे बात करूं, यह स्मरण आया कि आपके संबंध में ही थोड़ी सी बातें कर लेना उपयोग का होगा। परमात्मा के संबंध में बहुत बातें हमने सुनी हैं और आत्मा के संबंध में भी बहुत विचार जाने हैं। लेकिन उनका कोई भी मूल्य नहीं है। अगर हम उस स्थिति को न समझ पाएं जिसमें कि हम मौजूदा होते हैं। आज जैसी मनुष्य की दशा है, जैसी जड़ता और जैसा मरा हुआ आज मनुष्य हो गया है, ऐसे मनुष्य का कोई संबंध परमात्मा से या आत्मा से नहीं हो सकता है।
परमात्मा से संबंध की पहली शर्त है, प्राथमिक सीढ़ी है कि हम अपने भीतर से सारी जड़ता को दूर कर दें। और जो-जो तत्व हमें जड़ बनाते हों, उनसे मुक्त हो जाएं। और जो-जो अनुभूतियां हमें ज्यादा चैतन्य बनाती हों, उनके करीब पहुंच जाएं। Continue reading “आठो पहर यूं झूमिये-(प्रवचन-04)”

आठो पहर यूं झूमिये-प्रवचन-02

आठ पहर यूं झूमते-प्रवचन-दूसरा

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं अत्यंत आनंदित हूं, लायंस इंटरनेशल के इस सम्मेलन में कि शांति के संबंध में थोड़ी सी बातें आपसे कर सकूंगा। इसके पहले कि मैं अपने विचार आपके सामने रखूं, एक छोटी सी घटना मुझे स्मरण आती है, उसे से मैं शुरू करूंगा।
मनुष्य-जाति के अत्यंत प्राथमिक क्षणों की बात है। अदम और ईव को स्वर्ग के बगीचे से बाहर निकाला जा रहा था। दरवाजे से अपमानित होकर निकलते हुए अदम ने ईव से कहा, तुम बड़े संकट से गुजर रहे हैं। यह पहली बात थी, जो दो मनुष्यों के बीच संसार में हुई, लेकिन पहली बात यह थी कि हम बड़े संकट से गुजरे रहे हैं। और तब से अब तक कोई बीस लाख वर्ष हुए, मनुष्य-जाति और बड़े और बड़े संकटों से गुजरती रही है। यह वचन सदा के लिए सत्य हो गया। ऐसा कोई समय न रहा, जब हम संकट में न रहे हों, और संकट रोज बढ़ते चले गए हैं। एक दिन अदम को स्वर्ग के राज्य से निकाला गया था, धीरे-धीरे हम कब नर्क के राज्य में प्रविष्ट हो गए, उसका भी पता लगाना कठिन है। Continue reading “आठो पहर यूं झूमिये-प्रवचन-02”

दि बुक ऑफ ली तज़ु—(053)

दि बुक ऑफ ली तज़ु—(ओशो की प्रिय पुस्‍तकें)

कन्‍फ्यूशियन दर्शन के बाद, ताओ वाद की बहुत बड़ी दार्शनिक परंपरा है। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में ताओ दर्शन प्रौढ़ हुआ। और तभी से ताओ ग्रंथों में किसी ली तज़ु नाम के रहस्‍यदर्शी का उल्‍लेख पाया जाता है। जी तज़ु जो हवाओं पर सवार होकर यात्रा करता था। उसकी ऐतिहासिकता भी संदिग्‍ध है। पता नहीं उसका समय क्‍या था। कुछ सुत्रों के अनुसार वह ईसा पूर्व 600 में हुआ, और कुछ कहते है 400 में पैदा हुआ। ली तज़ु एक व्‍यक्‍ति भी है, और दर्शन भी। कहते है ली तज़ु पु-तिएन शहर में रहता था। और चालीस साल तक किसी ने उसकी दखल नहीं ली। और राज्‍य के उच्‍च पदस्‍थ और राजसी परिवार के लोग उसे सामान्‍य आदमी समझते थे। चेंग में सूखा पडा और ली तज़ु ने वेइ जाने का फैसला लिया। Continue reading “दि बुक ऑफ ली तज़ु—(053)”

बालशेम तोव—(हसीद)-044

बालशेम तोव—(हसीद दर्शन)-ओशो की प्रिय पुस्तके 

The Baal Shem Tov-Tzavaat HaRivash

हसीद की धारा कुछ चंद रहस्यदर्शीयों की रहस्‍यपूर्ण गहराइयों से पैदा हुई है। बालशेम उनमें सबसे प्रमुख है। हमीद पंथ का जा भी दर्शन है वह शाब्‍दिक नहीं है, बल्‍कि उसके रहस्यदर्शीयों के जीवन में, उनके आचरण में प्रतिबिंबित होता है। इसलिए उनका साहित्‍य सदगुरू के जीवन की घटनाओं की कहानियों से बना है। हसीदों की मान्‍यता है कि ईश्‍वर का प्रकरण स्‍तंभ इन ज़द्दिकियों में प्रवेश करता है और उनका आचरण इस प्रकाश की किरणें है अंत:, स्‍वभावत: दिव्‍य प्रकाश से रोशन है। Continue reading “बालशेम तोव—(हसीद)-044”

दि फीनिक्स-(लॉरन्स)-021

दि फीनिक्स—(डी. एच. लॉरेन्स)-ओशो की प्रिय पुस्तकें

The Phoenix and the Flame- D. H. Lawrence

लॉरेन्स इंग्‍लैण्‍ड में 1885 में पैदा हुआ। दुर्भाग्‍य से इस प्रतिभाशाली लेखक को बड़ी छोटी सी जिंदगी मिली। केवल पैंतालीस वर्ष—लेकिन उम्र के इस छोटे से सफर में उसकी सर्जनशीलता जलप्रपात की तरह धुंआधार बहती रही। उसने चालीस से अधिक किताबें लिखी। वह पूर्णतया नैसर्गिक जीवन के हक में था। कारख़ानों और मशीनों के आक्रमण से विकृत हुई इंग्‍लैण्‍ड की संस्‍कृति से वह बेहद दुःखी था। वह स्‍वस्‍थ जीवन, प्रेम और मानवीयता का आलम चाहता था। उसका लेखन अत्‍यंत संवेदनशील, सौंदर्य पूर्ण और नजाकत से भरा हुआ था। सेक्‍स और प्रेम के विषय में उसकी कोई कुंठाएं नहीं थी। Continue reading “दि फीनिक्स-(लॉरन्स)-021”

मैैैन एंड सुपरमैन-(बर्नार्ड शॉ)-020

मैक्‍ज़िम्‍स फॉर रिवोल्‍युशनिस्‍ट-(जॉर्ज बर्नार्ड शॉ)-ओशो की प्रिय पुस्तकें

Man and Superman by Georj Barnad Shaw

     जॉर्ज बर्नार्ड शॉ इस सदी का अद्भुत मेधावी और मजाकिया लेखक था। उसका व्‍यक्‍तित्‍व उतना ही रंगबिरंगा था जितनी कि उसकी साहित्‍य-संपदा। उसकी रोजी रोटी कमाने का मूल व्‍यवसाय था। ‘’नाटकों को लेखन।’’ बर्नार्ड शॉ एक साथ कई चीजें था। उसको किसी एक श्रेणी में रखना संभव नहीं था। उसको किसी एक श्रेणी में रखना संभव नहीं था। वह बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। वह परिष्‍कृत कलाओं का—साहित्‍य, संगीत, चित्र, नाटक—समीक्षक था। वह अर्थशास्‍त्री और जैविकीतज्ञ था। वह अपना धर्म ‘’क्रिएटिव इवोल्‍युशनिस्‍ट, सृजनात्‍मक, विकासवादी बताता था। Continue reading “मैैैन एंड सुपरमैन-(बर्नार्ड शॉ)-020”

श्री भाष्‍य-(रामानुज)-019

श्री भाष्य-रामानुज आचार्य-ओशो की प्रिय पुस्तकें  

Shri Sutra-Rama Nujama

रामानुज लिखित श्री भाष्‍य उस युग का प्रतिनिधित्‍व करता है जिस युग में भारत चित पर पांडित्‍य राज करता था। बुद्धत्‍व की अनुभूति तो बहुत तो बहुत संक्षिप्‍त सुत्रों में लिखी जाती है। ठीक वैसे जैसे विज्ञान के सूत्र होते है। तीन या चार सुगठित शब्‍दों में समुंदर जैसा अनुभव भर देना प्रबुद्ध पुरूषों की प्रिय क्रीड़ा थी। लेकिन इन आणविक सूत्रों पर लंबी-लंबी दार्शनिक टीकाएं लिखना पंडितों का मनपसंद खेल था। इन टीकाओं का जंगल इतना घना होता कि उसमें से रास्‍ता खोजते हुए मूल सूत्रों तक पहुंचना माउंट एवरेस्‍ट पर चढ़ने से कम दूभर नहीं था। पढ़ने वाले भी दार्शनिकों के वाग वैभव का खूब आनंद लेते थे। Continue reading “श्री भाष्‍य-(रामानुज)-019”

दि सांग ऑफ सांगस्–(सालोमन)-016

सोलोमन का गीत—(विच इज़ सोलोमनस्) 

ओशो की प्रिय पुस्तकें

     गीतों का गीत जो कि सोलोमन का है।

यहूदियों के धर्मग्रंथ ‘’दि ओल्‍ड टैस्टामैंट’’ या बाइबिल के कुछ विवादास्‍पद पन्‍ने ‘’सोलोमन का गीत’’ बनकर आज भी यहूदी आरे ईसाई धर्म गुरूओं के लिए शर्म और संकोच की वजह बने हुए है।

गुरु गंभीर धार्मिक संहिता के बीच अचानक लगभग छह गीत ऐसे उभरे है जैसे मजबूत पुराने किले की दीवारों में कहीं लिली का नाजुक गुलाबी ह्रदय खिल उठा हो। Continue reading “दि सांग ऑफ सांगस्–(सालोमन)-016”

विमल कीर्ति निर्देश-सूत्र-012

विमल कीर्ति निर्देश सूत्र—(सार बॉयन)-ओशो की प्रिय पुस्तकें 

Vimalakirti Sutra-Saar Baryan

     विमल कीर्ति बुद्ध के वरिष्‍ठ शिष्‍य थे और स्‍वयं बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हो चूके थे। उनके द्वारा कथित निर्देश सूत्र महायान बौद्धो के साहित्‍य के कोहिनूर हे। लेकिन इन बहुमूल्‍य सूत्रों की मूल संहिता कहीं भी उपलब्‍ध नहीं है। विमल कीर्ति बुद्ध के समय थे (500-600 ईसा पूर्व) लेकिन लगभग पाँच सौ वर्षों तक उनके सूत्रों का कोई अता-पता नहीं था। वह तो नागार्जुन ने ईसा पूर्व पहली सदी या पहली शताब्‍दी ईसवी के बीच महायान परंपरा के ग्रंथ खोज निकाले। उन्‍हीं में से एक थे विमल कीर्ति निर्देश सूत्र। ये सूत्र सात बार चीनी भाषा में अनुवादित हुए, फिर तिब्‍बती भाषा में अनुवादित हुए लेकिन मूल संस्‍कृत सूत्र खो गये। हमारे हाथों में उनका सिर्फ अनुवाद आया है। Continue reading “विमल कीर्ति निर्देश-सूत्र-012”

रोहिणी नदी पर विवाद-(कथा यात्रा-075)

 रोहिणी नदी पर विवाद-(एस धम्‍मो सनंतनो)

शाक्य और कोलीय राज्यों के बीच रोहिणी नामक नदी के पानी को रोककर दोनों जनपदवासी खेतों की सिंचाई करते थे। एक बार ज्येष्ठ मास में फसल के सूखने को देखकर दोनों जनपदवासी शाक्य और कोलियों के नौकर अपने—अपने खेतों की सिंचाई करने के लिए रोहिणी नदी पर आए। दोनों ही पहले अपने खेतों को सींचना चाहते हैं अत: दोनों में झगड़ा हो चला। यह समाचार उनके मालिक शाक्य और कोलियों को मिला। क्षत्रिय तो क्षत्रिय! तलवारें निकल गयीं। वे सेना को साथ लेकर तैयार होकर युद्ध करने के लिए निकल पड़े भगवान बुद्ध रोहिणी तट पर ही ध्यान करते थे। उन्हें यह खबर मिली। वे आकर युद्ध को तत्पर दोनों सेनाओं के मध्य मे खड़े हो गए। शाक्य और कोलियों ने भगवान को देखकर हथियार फेंक वंदना की। Continue reading “रोहिणी नदी पर विवाद-(कथा यात्रा-075)”

श्रेष्‍ठ और अश्रेष्‍ठ घोड़ेे-(कथा यात्रा-073)

बुद्ध ने श्रेष्‍ठ और अश्रेष्‍ठ घोड़ो की बात कही-(एस धम्‍मो सनंतनो)

पहला सूत्र—

दुल्लभो पुरिसाजज्जो न सो सचत्य जायति ।

            यत्थ सो जायति धीरो तं कुलं सुखमेधति ।।

‘पुरुष श्रेष्ठ दुर्लभ है, वह सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता। वह धीर जहा उत्पन्न होता है, उस कुल में सुख बढ़ता है।’

सुखो बुद्धानं उयादो सुखा सद्धम्मदेसना ।

            सुखा संघस्स सामग्री समग्गानं तपो सुखो ।।  Continue reading “श्रेष्‍ठ और अश्रेष्‍ठ घोड़ेे-(कथा यात्रा-073)”

अग्‍निदत्‍त का पांडित्‍य-(कथा यात्रा-072)

अग्‍निदत्‍त का पांडित्‍य-(एस धम्‍मो सनंतनो)

दूसरा सूत्र—

‘मनुष्य भय के मारे पर्वत, वन, उद्यान, वृक्ष और चैत्य आदि की शरण में जाता है। लेकिन यह शरण मंगलदायी नहीं है, यह शरण उत्तम नहीं है, क्योंकि इन शरणों में जाकर सब दुखों से मुक्ति नहीं मिलती।

वहुं के सरण यति पब्बतानि वनानि च ।

            आरामरुक्सचेत्यानि मनुस्सा भयतज्जिता ।।

आदमी भय के कारण ही भगवानों की पूजा कर रहा है। भय के कारण उसने मंदिर बनाए, भय के कारण प्रार्थनाएं खोजीं।

वहुं के सरण यति पब्बतानि वनानि च। Continue reading “अग्‍निदत्‍त का पांडित्‍य-(कथा यात्रा-072)”

बुद्ध का भिक्षु ‘दहर’-(कथा यात्रा-071)

बुद्ध का एक भिक्षु ‘दहर’-(एस धम्‍मो सनंतनो)

पहले सूत्र—

क कहापणवस्सेन तिति कामेसु विज्जति ।

            अप्पस्सादा दुखाकामा इति विज्जाय पंडितो ।।

            अपि दिब्बेसु कामेसु रति सो नाधिगच्छति।

            तण्हक्सयरतो होति सम्मासंबुद्धसावको ।।

‘यदि रुपयों की वर्षा भी हो तो भी मनुष्य की कामों से तृप्ति नहीं होती। सभी काम अल्पस्वाद और दुखदायी हैं, ऐसा जानकर पंडित देवलोक के भोगों में भी रति नहीं करता है। और सम्यक संबुद्ध का श्रावक तृष्णा का क्षय करने में लगता है।’ इसके पहले कि हम सूत्र समझें, सूत्र की पृष्ठभूमि समझ लेनी चाहिए—कब बुद्ध ने यह सूत्र कहा, कब यह गाथा कही? Continue reading “बुद्ध का भिक्षु ‘दहर’-(कथा यात्रा-071)”

बुद्ध का श्रावस्‍ती में वर्षा वास-(कथा यात्रा-069)

बुद्ध का श्रावस्‍ती में तीन माह का वर्षा वास-(एस धम्‍मो सनंतनो)

ये ज्ञानपसुता धीरा नेक्खम्‍मूपसमे रता ।

      देवापि तेसं पिह्यंति संबुद्धानं सतीमतं ।।

‘जो धीर ध्यान में लगे हैं..। ‘

ज्ञानी बुद्ध उसी को कहते हैं जो ध्यान में लगा है। वही है धीरपुरुष, जो ध्यान में लगा है। जो जान का अर्जन कर रहा है, वह जानी नहीं है, विद्वान होगा। जो ध्यान का अर्जन कर रहा है, वही ज्ञानी है, वही धीर है। क्योंकि ज्ञान तो बासा है और उधार है। ध्यान से अपनी अनुभूति संगृहीत होती है। जो ध्यान में लगे, वे धीर।

‘जो परम शात निर्वाण में रत हैं।’ Continue reading “बुद्ध का श्रावस्‍ती में वर्षा वास-(कथा यात्रा-069)”

बुद्ध तपश्‍चर्या-तीन कन्‍याएं-(कथा-068)

बुद्ध की तपश्‍चर्या और मार की तीन कन्‍याएं-(एस धम्‍मो सनंतनो)

आज के सूत्र जिस कथा से संबंधित हैं, वह मैं पहले कह दूं, जिस परिस्थिति में बुद्ध ने ये सूत्र, आज के पहले दो सूत्र कहे। पहले दो सूत्र—

यस्स जित नावजीयति जितमस्स नौ याति कोचि लोके ।

      तं बुद्धमनंतगोचर अपदं केन पदेन नेस्सथ ।।

      यस्स जालिनी विसत्तिका तन्हा नत्थि कुहिन्चि नेतवे ।

      त बुद्धमनंतगोचरं अपद केन पदेन नेस्मथ ।। Continue reading “बुद्ध तपश्‍चर्या-तीन कन्‍याएं-(कथा-068)”

 अनाथपिंडक का दान -(कथा यात्रा-067)

 अनाथपिंडक का दान और काल-(एस धम्‍मो सनंतनो)

यह गाथा बुद्ध ने एक विशेष अवसर पर कही।  

ये सारे अवसर बड़े प्यारे हैं, इसलिए मैं कह रहा हूं।

क बड़ा दानी था उसका नाम था, अनाथपिंडक। वह अनाथों का बड़ा सहारा था। देता लोगों को दिल खोलकर देता। उसके घर काल नाम का एक पुत्र था। उानाथपिंडक बुद्ध को सुनने जाता लेकिन काल कभी बुद्ध को सुनने न जाता था। काल शब्द भी बड़ा अच्छा! अनाथपिडक का मतलब होता है, देने वाला, दान दे ने वाला, अनाथों को सनाथ कर दे जो। और काल का अर्थ होता है, समय, या मौत। न तो समय बुद्ध को सुनने जाना चाहता है और न मौत, क्योंकि दोनों बुद्ध से डरते हैं। Continue reading ” अनाथपिंडक का दान -(कथा यात्रा-067)”

तीस बौद्ध भिक्षु परमहंस हो गए-(कथा यात्रा-066)

 तीस बौद्ध भिक्षु परमहंस हो गये-(एस धम्‍मो सनंतनो)

क दिन तीस खोजी बुद्ध के पास आए। तीसों बुद्ध के भिक्षु हैं बहुत लंबा पाटन करके आए हैं। भिक्षु आनंद द्वार पर पहरा दे रहा है और वे तीस खोजी बुद्ध के कमरे के भीतर बात कर रहे हैं। आनंद को बड़ी देर लग रही है कि बहुत देर हो गयी, बहुत देर हो गयी बात चलती ही जा रही है बुद्ध को वे सताए ही चले जा रहे हैं, अब निकलें भी अब निकलें भी समय मांगा था, उससे दुगुना समय हो गया ! आखिर सीमा आ गयी उसके धैर्य की वह उठा उसने दरवाजे से झांककर देखा, बड़ा हैरान हुआ वहां बुद्ध अकेले बैठे हैं। वे तीस आदमी वहां हैं ही नहीं। उसको तो—अपनी आंखें मीड़ीं—उसको भरोसा न आया क्योंकि दरवाजा एक है, वह दरवाजे पर बैठा है वे जा तो सकते नहीं गए कहां? Continue reading “तीस बौद्ध भिक्षु परमहंस हो गए-(कथा यात्रा-066)”

नरोपा का स्‍वप्‍न-(कथा यात्रा-065)

नरोपा का स्वपन-(एस धम्मो सनंतनो)

अज्ञान ज्ञान के द्वारा नहीं मिट सकता है। वह मिट सकता है केवल होश के द्वारा। ज्ञान तो तुम स्वप्न में भी इकट्ठा किए जा सकते हो; लेकिन वह स्वप्न का हिस्सा ही है, और स्वप्न हिस्सा है तुम्हारी नींद का। कोई चाहिए जो तुम्हें झकझोर दे। कोई चाहिए जो तुम्हें धक्का दे दे। कोई चाहिए जो तुम्हें तुम्हारी नींद से जगा दे। अन्यथा तुम तो ऐसे ही चलते चले जा सकते हो। नींद मादक होती है। अज्ञान मादक होता है, वह एक प्रकार का नशा है। तुम्हें उससे बाहर आना है।

मैं तुम से एक कहानी कहूंगा, जो मुझे सदा प्रीतिकर रही है। वह तिलोपा के शिष्य, सिद्ध नरोपा के विषय में है। नरोपा के अपने गुरु तिलोपा से मिलने के पहले की घटना है। उसके बुद्धत्व को उपलब्ध होने से पहले की घटना है। और यह बहुत जरूरी है प्रत्येक खोजी के लिए, सब के साथ ऐसा ही होगा। Continue reading “नरोपा का स्‍वप्‍न-(कथा यात्रा-065)”

समंजनी सफाई का पागलपन -(कथा यात्रा-063)

समंजनी का सफाई के प्रति पागलपन-(एस धम्‍मो सनंतनो)

यह सूत्र बुद्ध ने एक विशेष घटना के समय कहा था, वह घटना भी समझ लेने जैसी है।

बुद्ध के शिष्यों में एक भिक्षु थे उनका नाम था समंजनी। उन्हें सफाई का पागलपन था। क्योंकि बुद्ध ने कहा स्वच्छ रहो साफ— सुथरे रहो। वह उनको धुन पकड़ गयी पागल तो पागल वह ठीक बात में से भी गलत बात निकाल लेते। उनको ऐसी धुन पकड़ गयी कि चौबीस घंटे वह झाडू ही लिए रहते। इधर जाला दिखायी पड़ गया उधर कचड़ा दिखायी पड़ गया सफाई ही सफाई

कई स्त्रियों को यह रोग रहता है, सफाई ही सफाई। किसके लिए सफाई कर रही हैं, यह भी कुछ पक्का नहीं। Continue reading “समंजनी सफाई का पागलपन -(कथा यात्रा-063)”

कुशीनाला में बुद्ध की अंतिम विदा-(कथा यात्रा-062)

 कुशीनाला के शालवन में बुद्ध की अंतिम विदा-(एस धम्‍मो सनंतनो)

गवान की इस पृथ्वी पर अंतिम घड़ी। भगवान कुसीनाला के शालवन उप्पवतन में अपने भिक्षुको से अंतिम विदा लेकर लेट गए हैं! दो शालवृक्षों के नीचे उन्होंने अपनी मृत्यु का स्वागत करने का आयोजन किया है।

मौत आ रही है। तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा, तुम्हें कुछ पूछना हो तो पूछ लो। कुछ कहना हो तो कह लो, अब मैं चला। अब यह देह जाती है। मैं तो चला गया था बयालीस साल पहले ही, देह भर रह गयी थी, अब देह भी जाती है। तो बौद्ध दो शब्दों का उपयोग करते हैं—निर्वाण और महापरिनिर्वाण। निर्वाण तो उस दिन उपलब्ध हो गया जिस दिन बुद्ध को शान हुआ। फिर महापरिनिर्वाण उस दिन हुआ जिस दिन देह विसर्जित हो गयी। उस दिन वे महाशून्य में खो गए, महाकाश के साथ एक हो गए। आकाश हो गए। Continue reading “कुशीनाला में बुद्ध की अंतिम विदा-(कथा यात्रा-062)”

तीन बार प्रार्थना के पश्‍चात बुद्ध बोले-(कथा यात्रा-061)

 तीन बार प्रार्थना के पश्‍चात बुद्ध बोले-(एस धम्‍मो सनंतनो)

 क दिन कुछ उपासक भगवान के चरणों में धर्म—श्रवण के लिए आए। उन्होंने बड़ी प्रार्थना की भगवान से कि आप कुछ कहें हम दूर से आए हैं बुद्ध चुप ही रहे। उन्होंने फिर से प्रार्थना की तो फिर बुद्ध बोले। जब उन्होंने तीन बार प्रार्थना की तो बुद्ध बोले उनकी प्रार्थना पर अंतत: भगवान ने उन्हें उपदेश दिया लेकिन वे सुने नहीं। दूर से तो आए थे लेकिन दूर से आने का कोई सुनने का संबंध। शायद दूर से आए थे तो थके— मांदे भी थे। शायद सुनने की क्षमता ही नहीं थी। उनमें से कोई बैठे—बैठे सोने लगा और कोई जम्हाइयां लेने लगा। कोई इधर—उधर देखने लगा। शेष जो सुनते से लगते थे वे भी सुनते से भर ही लगते थे उनके भीतर हजार और विचार चल रहे थे पक्षपात पूर्वाग्रह धारणाएं उनके पर्दे पर पर्दे पड़े थे। उतना ही सुनते थे जितना उनके अनुकूल पड़ रहा था उतना नहीं सुनते थे जितना अनुकूल नहीं पड़ रहा था। Continue reading “तीन बार प्रार्थना के पश्‍चात बुद्ध बोले-(कथा यात्रा-061)”

युवक संन्‍यासी का संसार निंदा करना-(कथा यात्रा-060)

 युवक संन्‍यासी का व्‍यर्थ में संसार की निंदा करते रहना-(एस धम्‍मो सनंतनो)

गवान जेतवन में विहरते थे। पास के किसी गांव से आए एक युवक ने संन्यास की दीक्षा ली। वह सबकी निंदा करता था। कारण हो तब तो चूकता ही नही था, कारण न हो तब भी निंदा करता था। कारण न हो तो कारण खोज लेता था। कारण न मिले तो कारण निर्मित कर लेता था। कोई दान नें दे तो निंदा करता और कोई दान दे तो क्हता—अरे यह भी कोई दान है। दान देना सीखना हो तो मेरे परिवार से सीखो। वह अपने परिवार की प्रशंसा में लगा रहता। शेष सारे संसार की निंदा अपने परिवार की प्रशंसा यही उसका पूरा काम था। अपनी जाति, अपने वर्ण अपने कुल सभी की अतिशय प्रशंसा में लगा रहता। उसके अहंकार का कोई अंत न था। शायद इसीलिए वह सन्यस्त भी हुआ था! Continue reading “युवक संन्‍यासी का संसार निंदा करना-(कथा यात्रा-060)”

 लालुदाई की ईर्ष्‍या-(कथा यात्रा-059)

 लालुदाई की ईर्ष्‍या-(एस धम्‍मो सनंतनो)

गवान बुद्ध श्रावस्ती में ठहरे थे। नगरवासी उपासक सारिपुत्र और मौदगल्लायन के पास धर्म—श्रवण करके उनकी प्रशंसा कर रहे थे। अपूर्व था रस उनकी वाणी में अपूर्व था भगवान के उन दो शिष्यों का बोध: अपूर्व थी उनकी समाधि और उनके वचन लोगों को जगाते थे— सोयों को जगाते थे मुर्दो को जीवित करते थे। उनके पास बैठना अमृत में डुबकी लगाना था

एक भिक्षु जिसका नाम था लालूदाई यह सब खड़ा हुआ बड़े क्रोध से सुन रहा था। उसे बड़ा बुरा लग रहा था। वह तो अपने से ज्यादा बुद्धिमान किसी को मानता ही नहीं था। भगवान के चरणों में ऐसे तो झुकता था पर ऊपर ही ऊपर। भीतर तो वह भगवान को भी स्वयं से श्रेष्ठ नहीं मानता था। उसका अहंकार आrते प्रज्वलित अहंकार था। और मौका मिलने पर वह प्रकारांतर से परोक्ष रूप से भगवान की भी आलोचना—निंदा करने से चूकता नहीं था। कभी कहता आज भगवान ने ठीक नही कहा; कभी कहता भगवान को ऐसा नहीं कहना था; कभी कहता भगवान होकर ऐसा नहीं कहना चाहिए आदि—आदि। Continue reading ” लालुदाई की ईर्ष्‍या-(कथा यात्रा-059)”

मरणशय्या पर लम्बी आयु की कामना-(कथा यात्रा-57)

 मरणशय्या पर स्‍वर्णकर द्वारा लम्‍बी आयु की कामना-(एस धम्‍मो सनंतनो)

क स्वर्णकार मरणशध्या पर था। स्वभावत: मृत्यु से बहुत भयभीत क्योकि मृत्यु के लिए कोई तैयारी तो की नहीं थी। कोई भी करता नहीं। जीवन ऐसे ही बीत जाता है और आखिरी घड़ी जब करीब आती है तब बेचैनी होती है। उस दूर की यात्रा के लिए कुछ आयोजन तो किया नहीं था। बहुत घबड़ाने लगा। उसके बेटों ने अपने पिता के जीवन के लिए भिक्षुसंघ के साथ भगवान को नियंत्रित करके दान दिया। भोजनोपरांत पुत्रों ने कहा भंते इस भोजन को हम लोगों ने पिता के जीवन के लिए दिया है आप उन्हें आशीष दें। आशीष दें कि उनकी आयु लंबी हो। Continue reading “मरणशय्या पर लम्बी आयु की कामना-(कथा यात्रा-57)”

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