रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-12)

प्रार्थना की गूंज—बारहवां प्रवचन

दिनांक १० अप्रैल १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—क्या लिखूं, कुछ समझ में नहीं आता। बस प्रणाम उठता है। कैसे करूं; करना भी नहीं आता! इतना संवारा आपने, आप ही आप रह गए हैं। अहंकार आपसे ही गलेगा। गलाएं और इस पीड़ा से छुड़ाएं, यही मेरी प्रार्थना है। मेरी प्रार्थना गूंजती है, आगे भी गूंजेगी–क्या ऐसी आशा रख सकता हूं।

1—तुसी सानूं परमात्मा दे दरसन करा देओ। तुहाडी बड़ी मेहरबानी होगी! Continue reading “रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-12)”

रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-11)

समाधि के फूल—ग्यारहवां प्रवचन

दिनांक ९ अप्रैल; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्नसार:

1—इसका रोना नहीं कि तुमने क्यों किया दिल बरबाद,

इसका गम है कि बहुत देर में बरबाद किया।

मुझको तो नहीं होश तुमको तो खबर हो शायद,

लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बरबाद किया।।

2—जीवन में तो कुछ मिला नहीं और अब मृत्यु द्वार पर खड़ी है। क्या मृत्यु में कुछ मिलेगा?

3—क्या परमात्मा तक पहुंचने के लिए दर्शन-शास्त्र पर्याप्त नहीं है? Continue reading “रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-11)”

रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-10)

कस्तूरी कुंडल बसै—दसवां प्रवचन

दिनांक ८ अप्रैल, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—मैं कौन हूं, कहां से आया हूं और क्या मेरी नियति है?

2—आदर और श्रद्धा में क्या फर्क है?

3—मैं राजनीति में हूं। क्या आप मुझे भी बदलेंगे नहीं? क्या मुझ पर कृपा न करेंगे?

4—मोहम्मद ने चार शादियों की आज्ञा दी थी। आप कितनी शादियों की आज्ञा देंगे? Continue reading “रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-10)”

रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-09)

अज्ञात का वरण करो—नौवां प्रवचन

दिनांक ७ अप्रैल, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—संन्यास का मार्ग अपरिचित है और भयभीत हूं। क्या करूं?

2—आप कहते हैं, अनुभव से सीखो। लेकिन हम सोए-सोए बेहोश आदमियों के अनुभव का कितना मूल्य! क्या झूठे आश्वासन दे रहे हैं? हम तो ऐसे गधे हैं जो बार-बार उसी गङ्ढे में गिरते चले जाते हैं। कृपा करके कुछ सीधा मार्ग-दर्शन दें! Continue reading “रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-09)”

रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-08)

स्वानुभव ही मुक्ति का द्वार है—आठवां प्रवचन

दिनांक ६ अप्रैल; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—आप अतीत-विरोधी हैं। क्या इससे युवकों में अराजकता पैदा होने का डर नहीं है?

2—रहिमन बिआह व्याधि है, सकहु तो लेहु बचाय।

पांयन बेड़ी परत है, ढोल बजाया-बजाय।।

रहीम के इस दोहे से क्या आप सहमत हैं? Continue reading “रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-08)”

रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-07)

मैं मधुशाला हूं—सातवां प्रवचन

दिनांक ५ अप्रैल १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—जार्ज गुरजिएफ अपने शिशयों का अंतरतम जाने के लिए उन्हें भरपूर शराब पिलाया करता था। और जब वे मदहोश हो जाते थे तो उनकी बातों को ध्यान से सुनता था। आप भी ऐसा क्यों नहीं करते हैं?

2—एकटक आपकी ओर देखते हुए, अपलक आपके रूप को निहारते हुए, जब आपके मुख से झरते हुए पुशपों को आंचल में भरती हूं, तब एक प्रकार का नशा। जब नशे से बोझिल होती बंद आंखों में आपकी मधुर वाणी के स्वर कानों में गुंजित होते हैं तो एक प्रकार का नशा! आप जो रस पिला रहे हैं, उसको क्या नाम दूं? Continue reading “रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-07)”

रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-06)

प्रेम का मार्ग अनूठा—छठवां प्रवचन

दिनांक १ अप्रैल, १९८०; श्री रजनीश आश्रम पूना,

प्रश्नसार:

01-ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय।

न मैं जानूं आरती-वंदन, न पूजा की रीत,

लिए री मैंने दो नयनों के दीपक लिए संजोय।

ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय!

02-आंसुओं के सिवाय कुछ नहीं है। मैं आपको क्या चढ़ाऊं?

03-आपका युवकों के लिए क्या संदेश है?

04-शिशय और अनुयायी में क्या फर्क है? Continue reading “रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-06)”

रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-05)

प्रार्थना और प्रतीक्षा—पांचवां प्रवचन

दिनांक ३१ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—और कितनी प्रतीक्षा करूं? और कितनी देर है? प्रभु-मिलन के लिए आतुर हूं और अब और विरह नहीं सहा जाता है!

2—किन अज्ञात हाथों से पैरों में घुंघरू बांध दिए हैं कि अब मैं छम-छम नचंदी फिरां!

3—आपने कहा: कमा लिटिला नियर, सिप्पा कोल्डा बियर। मैं आपसे कहता हूं: आई एम हियर, व्हेयर इज़ दि बियर? Continue reading “रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-05)”

रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-04)

श्रद्धा की अनिवार्य सीढ़ी: संदेहचौथा प्रवचन

दिनांक ३० मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—क सिवाय ध्यान के आपकी हर बात को मैंने सहजता से स्वीकार नहीं किया–संन्यास भी, कपड़े भी और माला भी। हर बात पर मैंने विरोध किया, विद्रोह किया और अवज्ञा भी। बार-बार भागने को चाहा, और हर बार और ज्यादा खिंचता चला आया। फिर भी मुझ अपात्र को आपने स्वीकार किया। आज आपके प्रेम में डूबा जा रहा हूं। भीतर न कोई विरोध है, न विद्रोह; सब शांत और मौन है। फिर भी एक अपराध-भाव सताता है। प्रभु, आप जीते, मैं हारा। मुझे माफ कर दें। आपकी असीम अनुकंपा के लिए अनुगृहीत हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें! Continue reading “रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-04)”

रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-03)

रसो वै सः—तीसरा प्रवचन

दिनांक 29 मार्च, 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—ईश्वर को खोजना है। कहां खोजें?

2—आप कहते हैं, संन्यासी को सृजनात्मक होना चाहिए। सो मैंने काव्य-सृजन शुरू कर दिया है। मगर कोई मेरी कविताएं सुनने को राजी नहीं है। आपका आशीष चाहिए।

3—आपकी “नारी के समान अधिकार‘ की बातें बहुत अच्छी लगीं। इसके अतिरिक्त जो आप इच्छाओं को न दबाने और उनसे न लड़ने की बात कहते हैं, वह भी हृदय को स्पर्श करती है। किन्तु इसके साथ-साथ जब आद्य शंकराचार्य, पतंजलि और तुलसी वगैरह की बातें याद आ जाती हैं तो द्वंद्व खड़ा होता है। शंकराचार्य ने नारी की निंदा किस दृशिट से की है? अद्वय ब्रह्म का अनुभवी क्या ऐसी निंदा कर सकता है? क्या वे भी केवल एक विद्वान मात्र थे, अनुभवी नहीं? पतंजलि समाधि के लिए यम-नियम पर विशेष जोर देते हैं, आप नहीं। इसका क्या कारण हैं? Continue reading “रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-03)”

रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-02)

ध्यान ही मार्ग है-(दूसरा प्रवचन)

दिनांक 28 मार्च; 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—यह संसार माया है। यहां सब झूठ है। मुझे इसमें डूबने से बचाएं!

2—मैं अज्ञान में बच्चे पैदा करता चला गया। दस बच्चे हैं मेरे, अब क्या करूं?

3—वह पांचवां क क्या है? बहुत सोचा लेकिन नहीं सोच पाया। किसी और से पूछूं, हो सकता था कोई बता देता। लेकिन फिर सोचा आप से ही क्यों न पूछूं? Continue reading “रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-02)”

रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-01)

आंसू: चैतन्य के फूल—(पहला प्रवचन)

दिनांक २७ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रशनसार:

1–आपकी पहली मुलाकात आंसुओं से हुई थी। इतने साल बीत गए हैं, आंसू अभी मिटते नहीं, मिटने की संभावना लगती नहीं। चाहती हूं इसी तरह मिट जाऊं!

जीवन व्यर्थ लगता है। मैं क्या करूं?

2–आप हमेशा “लिवा लिटिल हॉट, सिप्पा गोल्ड स्पॉट’ कहते हैं। आप इसके स्थान पर कभी ऐसा क्यों नहीं कहते–“लिव ए लिटिल हॉट, सिप ए कोल्ड बियर’? आखिर बियर में बहुत प्रोटीन रहता है। Continue reading “रहिमन धागा प्रेम का-(प्रवचन-01)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-15)

संकल्प से साक्षी और साक्षी से आगे तथाता की परम उपलब्धि—(प्रवचन—पंद्रहवां)

 (साक्षी की साधना करना बहुत बड़ा संकल्प है और तथाता की साधना करना तो साक्षी से भी बड़ा संकल्प है। यह महासंकल्प है। जब एक आदमी यह तय करता है कि मैं साक्षी बनकर जीऊंगा, तो इससे बड़ा संकल्प नहीं है दूसरा।)

भगवान श्री आपने कहा है कि यदि कोई साधक तीव्र संकल्प के साथ यह प्रयोग करे कि मैं मरना चाहता हूं मैं अपने केंद्र पर वापस लौटना चाहता हूं तो कुछ ही दिनों में उसके प्राण भीतर सिकुड़ने लगेंगे और साधक पहले भीतर से बाद में बाहर से अपने ही शरीर को मरा हुआ पड़ा देख सकता है तब उसका मृत्यु का भय सदा के लिए मिट जाता है। तो प्रश्न है कि क्या इस स्थिति में पुन: शरीर में सुरक्षापूर्वक वापस लौट सकें इसके लिए किसी विशेष तैयारी और सावधानी की आवश्यकता है? या वापस लौटना अपने आप हो जाता है? कृपया इस पर प्रकाश डालें। Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-15)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-14)

धर्म की महायात्रा में स्वयं को दांव पर लगाने का साहस—(प्रवचन—चौहदवां)

 (प्रतीक्षा बना देती है दर्पण चेतना को। और जिस दिन हम दर्पण बन जाते हैं उसी दिन सब मिल जाता है। क्योंकि सब तो सदा ही था सिर्फ हम नहीं थे। दर्पण होकर हम हो जाते है।)

भगवान श्री जाति— स्मरण अर्थात पिछले जन्मों की स्मृतियों में प्रवेश की विधि पर आपने द्वारका शिविर में चर्चा की है। आपने कहा है कि चित्त को भविष्य की दिशा से पूर्णत: तोड़ कर ध्यान की शक्ति को अतीत की ओर फोकस करके बहाना चाहिए। प्रक्रिया का क्रम आपने बताया पहले पांच वर्ष की उम्र की स्मृति में लौटना फिर तीन वर्ष की फिर जन्म की स्मृति में फिर गर्भाधान की स्मृति में फिर पिछले जन्मों की स्मृति में प्रवेश होता है। आपने आगे कहा है कि मैं जाति— स्मरण के प्रयोग के पूरे सूत्र नहीं कह रहा हूं। पूरे सूत्र क्या हैं? क्या आगे के सूत्र का कुछ स्पष्टीकरण करने की कृपा कीजिएगा? Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-14)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-13)

सूक्ष्‍म शरीर, ध्यान—साधना एवं तंत्र—साधना के कुछ गुप्‍त आयाम—(प्रवचन—तैरहवां)

(दो शरीर के मिलने से तो सिर्फ हम एक शरीर को जन्मने की सुविधा देते हैं। लेकिन जब दो आत्माएं भी मिलती है, तब हम एक विराट आत्‍मा को उतरने की सुविधा देते है।)

भगवान श्री आपने एक प्रवचन में कहा है कि समाधि के प्रयोग में अगर तेजस शरीर अर्थात सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर के बाहर चला गया तो पुरुष के तेजस शरीर को बिना स्त्री की सहायता के वापस नहीं लौटाया जा सकता या स्त्री के तेजस शरीर को बिना पुरुष की सहायता के वापस नहीं लौटाया जा सकता। क्योंकि दोनों के स्पर्श से एक विद्युत— वृत्त पूरा होता है और बाहर गई चेतना तीव्रता से भीतर लौट आती है आपने अपना एक अनुभव भी कहा है कि वृक्ष पर बैठकर ध्यान करते थे और स्थूल शरीर नीचे गिर गया और सूक्ष्म शरीर ऊपर से देखता रहा। फिर एक स्त्री का छूना और सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर में वापस लौट जाना। तो प्रश्न है कि पुरुष को स्त्री की और स्त्री को पुरुष की आवश्यकता इस प्रयोग में क्यों है? कब तक है? क्या दूसरे के बिना लौटना संभव नहीं है? क्या कठिनाई है? Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-13)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-12)

नाटकीय जीवन के प्रति साक्षी चेतना का जागरण—(प्रवचन—बाहरवां)

(रुक जाएं और एक क्षण को किसी भी क्षण को, जागने का क्षण बना लें और क्या हो रहा है। आप साक्षी रह जाए सिर्फ।)

भगवान श्री मृत्यु में भी जागे रहने के लिए या ध्यान में सचेतन मृत्यु की घटना को सफलतापूर्वक आयोजित करने के लिए शरीर— प्रणाली श्वास— प्रणाली श्वास की स्थिति प्राणों की स्थिति ब्रह्मचर्य मनशक्ति आदि के संबंध में क्या— क्या तैयारियां साधक की होनी चाहिए इस पर सविस्तार प्रकाश डालने की कृपा करें।

मृत्यु में जागे हुए रहने के लिए सबसे पहली तैयारी दुख में जागे रहने की करनी पडती है। Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-12)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-11)

संकल्यवान—हो जाता है आत्‍मवान—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

(वापस लौटना सदा आसान मालूम पड़ता है। क्यों? क्योंकि जहां हम लौट रहे हैं वह परिचित भूमि है। आगे बढ़ना हमेशा खतरनाक मालूम पड़ता है क्योंकि जहां हम जा रहे हैं वहां का हमें कोई भी पता नहीं है।)

भगवान श्री,

द्वारका शिविर में आपने कहा है कि सब साधनाएं झूठी हैं क्योंकि परमात्मा से हम कभी बिछुड़े ही नहीं हैं तो क्या झूठी है? शरीर और मन का विकास झूठा है? संस्कारों की निर्झर? झूठी है? स्थूल से सूक्ष्म की ओर की साधना हठी है? प्रथम शरीर से सातवें शरीर की यात्रा का आयोजन झूठा है? क्या कुंडलिनी साधना की लंबी प्रक्रिया हठ है? इन बातों को समझाने की कृपा करें। Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-11)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-10)

अंधकार से आलोक और मूर्च्छा से परम जागरण की और—(प्रवचन—दसवां)

( यान मूल तत्व जिसकी तरलता जिसकी सघनता विरलता जिसका ठोसपन तय करता है कि आपको जाग्रत कहें या आपको सोया हुआ कहें। जागरण और मूर्च्छा के बीच जो तत्व यात्रा करता है, वह ध्‍यान है।)

भगवान श्री सजग मृत्यु में प्रवेश की प्रक्रिया पर चर्चा करने के पहले मैं पूछना चाहूंगा कि और जागृति में क्या भेद है? बेहोशी चेतना की किस स्थिति को कहते हैं? अर्थात होश और बेहोशी में जीवात्मा की चेतना की कौन— सी स्थिति होती है?

मूर्च्छा और जागृति, इन दोनों को समझने के लिए पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि ये दोनों विपरीत अवस्थाएं नहीं हैं। साधारणत: दोनों विपरीत अवस्थाएं समझी जाती हैं। Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-10)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-09)

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं—(प्रवचन—नौवां)

आने वाले भविष्य में अगर मनुष्य को विक्षिप्त होने से पागल होने से बचाना हो तो पूरी जिंदगी को स्वीकार करना पड़ेगा। को के को। उसमें कोई खंड काटकर विरोध में खड़े नहीं करने पड़ेगे।

मेरे प्रिय आत्मन्।

आज बहुत से सवाल जो बाकी रह गए हैं उन पर बात करनी है। एक मित्र ने पूछा है कि क्या मैं लोगों को मरने की बात सिखा रहा हूं? मृत्यु लिखा रहा हूं, सिखाना तो चाहिए जीवन।

उन्होंने ठीक ही पूछा है। मैं मृत्यु की बात ही सिखा रहा हूं। मैं मरने की कला है। सिखा रहा हूं। क्योंकि जो मरने की कला सीख लेता है, वह जीवन की कला में भी निष्णात हो जाता है। जो मरने के लिए राजी हो जाता है, वह परम जीवन का अधिकारी भी हो जाता है। सिर्फ वे ही जो मिटना जान लेते हैं, वे ही होना भी जान पाते है। Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-09)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-08)

विचार नहीं, वरन् मृत्‍यु के तथ्‍य का दर्शन—(प्रवचन—आठवां)

मृत्यु के तथ्य का दर्शन करना है विचार नहीं।

मृत्यु अज्ञान का अनुभव है अमरत्व ज्ञान का अनुभव है।

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि मृत्यु के संबंध में हम सोचें ही क्यों? जीवन मिला है उसे जीएं। वर्तमान में जो है उसमें रहें। मृत्यु के विचार को ही हम क्यों बीच में आने दें?

उन्होंने ठीक बात पूछी है। लेकिन अगर इतना भी सोचा कि मृत्यु के विचार को क्यों बीच में आने दें? तो भी मृत्यु का विचार आ ही गया। और अगर इतना भी सोचा कि हम जीएं ही, Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-08)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-07)

मूर्च्छा में मृत्यु है—और जागृति में जीवन—(प्रवचन—सातवां)

बिना विचारे कुछ करने की प्रवृत्ति पहली चीज है जिसको तोड़ डालना है। विचार करने की प्रवृत्ति पैदा करनी है और बिना विचार किए मान लेने की प्रवृत्ति तोड़ देनी है।

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि मृत्यु से बड़ा कोई सत्य नहीं ऐसा मैने कभी कहा है; और फिर यह भी कभी कहा है कि मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं है। इन दोनों में वे पूछते हैं कि कौन— सी बात सच है? Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-07)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-06)

निद्रा, स्‍वप्‍न, सम्‍मोहन और मूर्च्‍छा से जागृति की और—(प्रवचन—छठवां)

निद्रा में भी हम वहीं पहुंचते हैं जहां ध्यान में पहुंचते हैं लेकिन फर्क इतना ही है कि निद्रा में हम बेहोश होते हैं और ध्यान में हम जाग्रत होते हैं। अगर कोई निद्रा में भी जाग्रत होकर पहुंच जाए तो वही हो जाएगा जो ध्यान में होता है।

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान या साधना से मृत्यु पर विजय मिल सकती है तो क्या वही स्थिति निद्रा में नहीं होती है? और यदि होती है तो निद्रा से मृत्यु पर विजय क्यों नहीं मिल सकती? Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-06)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-05)

 स्‍व है द्वार—सर्व का—(प्रवचन—पांचवां)

जो अपने भीतर प्रवेश करता हे, वह भीतर पहुंचते ही पाता है कि वह सबके भीतर पहुंच गया है। क्‍योंकि बाहर से हम सब भिन्‍न–भिन्‍न नहीं है। 

मेरे प्रिय आत्मन्।

एक मित्र ने पूछा है कि मैने सत्य को या परमात्मा को पाने की जो विधि बताई है— सबका निषेध कर के और स्वयं को जानने की— क्या इससे उलटा नहीं हो सकता है कि हम सबमें ही परमात्मा को जानने का प्रयास करें? सर्व में वही है यह भाव करें? Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-05)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-04)

सजग मृत्‍यु और जाति—स्‍मरण के रहस्‍यहों में प्रवेश—(प्रवचन—चौथा)

जितनी घनी अंधेरी रात हो, तारे उतने ही चमकते दिखाई पड़ते है। और जितने काले बादल हों, बिजली की चमक चाँदी बन जाती है। जब मृत्‍यु पूरी तरह चारों तरफ खड़ी हो जाती है, तब वह जीवन का जो बिंदु है, वह पूरी चमक में प्रकट होता है, उसके पहले कभी प्रकट नहीं होता है।

मेरे प्रिय आत्मन्। कल रात की चर्चा के संबंध में कुछ प्रश्न पूछे गए हैं। एक मित्र ने पूछा है,  होश से मरा तो जा सकता है लेकिन होश मे जन्मा कैसे जा सकता है? Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-04)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-03)

जीवन के मंदिर में द्वार है मृत्‍यु का—(प्रवचन—तीसरा)

मृत्‍यु से न तो मुक्‍त होना है और न मृत्‍यु को जीतना है।

मृत्‍यु को जानना है। जानना ही मुक्‍ति बन जाता है। जानना ही जीत जाता है।

मरने से हम इतने डरे हुए लोग हैं कि मरते वक्त हम स्वेच्छा से ही बेहोश हो जाते हैं। मरने के थोड़ी देर पहले ही बेहोश हो जाते हैं। बेहोशी में ही मरते हैं, फिर बेहोशी में ही नया जन्म हो जाता है। न हम मृत्यु को देख पाते हैं, न जन्म को देख पाते हैं। और इसलिए हम कभी भी नहीं समझ पाते हैं कि जीवन शाश्वत है। मृत्यु और जन्म बीच में आए हुए पड़ाव से ज्यादा नहीं हैं, जहां हम वस्त्र बदल लेते हैं। Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-03)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-02)

आध्यात्मिक विश्व आंदोलन—ताकि कुछ व्‍यक्‍ति प्रबुद्ध हो सकें—(प्रवचन—दूसरा)

जिनके भीतर भी पुकार है उनके ऊपर एक बड़ा दायित्व है आज जगत के लिए। आज तो जगत के कोने— कोने में जाकर कहने की यह बात है कि कुछ थोड़े से लोग बाहर निकल आएं और सारे जीवन को समर्पित कर दें ऊंचाइयां अनुभव करने के लिए।

मेरे प्रिय आत्मन्।

कल संध्या की चर्चा में कुछ बातें मैने कही हैं। उस संबंध में स्पष्टीकरण के लिए कुछ प्रश्न आए हैं। एक मित्र ने पूछा है कि यदि मां के पेट में पुरुष और स्त्री आत्मा के जन्मने के लिए अवसर पैदा करते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि आत्माएं अलग— अलग हैं और सर्वव्यापी आत्मा नहीं है। उन्होने यह भी पूछा है कि मैने तो बहुत बार कहा है कि एक ही सत्य है एक ही परमात्मा है एक ही आत्मा है फिर ये दोनों बातें तो कंट्राडिक्टरी विरोधी मालूम होती हैं। Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-02)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-01)

योजित मृत्यु अर्थात ध्यान और समाधि के प्रायोगिक रहस्य—(प्रवचन—पहला)

यह शरीर एक बीज है और जीवन चेतना और आत्मा का एक अंकुर भीतर है। जब वह अंकुर फूटता है तो मनुष्य का बीज होना समाप्त होता है और मनुष्य वृक्ष बनता है।

संकल्प हम करें तीव्रता से, टोटल, समग्र, कि मैं वापस लौटता हूं अपने भीतर। सिर्फ आधा घंटा भी कोई इस बात का संकल्प करे कि मैं वापस लौटना चाहता हूं, मैं मरना चाहता हूं? मैं डूबना चाहता हूं अपने भीतर, मैं अपनी सारी ऊर्जा को सिकोड़ लेना चाहता हूं, तो थोड़े ही दिनों में वह इस अनुभव के करीब पहुंचने लगेगा कि ऊर्जा सिकुड़ने लगी है भीतर। शरीर छूट जाएगा बाहर पड़ा हुआ। एक तीन महीने का थोड़ा गहरा प्रयोग, और आप शरीर अलग पड़ा है, इसे देख सकते हैं। Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(प्रवचन-01)”

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(साधना-शिविर)-(ओशो)

प्रसतावना:

 
जीवन के गर्भ में क्‍या छुपा है उसकी शुन्‍य अंधेरी तलहेटी की जड़े किस स्‍त्रोत की और बह रही है…..कहां से और किन छुपे रहस्‍यों से उनको पोषण मिल रहा है….ये कुदरत का एक अनुठाओर अनसुलझा रहस्‍य है। और यही तो है जीवन का आंनद….लेकिन न जाने क्‍या हम इस रहस्‍य को जानना चाहते है, कभी ज्‍योतिष के माध्‍यम से, कभी दिव्‍य दृष्‍टी या और तांत्रिक माध्‍यमों से परंतु सब नाकाम हो जाते है। और कुदरत अपने में अपनी कृति को छपाये ही चली आ रही है।
ठीक इसी तरह कभी नहीं सूलझाया जा सकता उस रहस्‍य का नाम परमात्‍मा है। परंतु कृति के परे प्रकृति और कही दूर अनछुआ सा कर्ता जो पास से भी पास और दूर से भी दूर। परंतु जब कृति जब प्रकृति में उतपति ओर लवलीन होती है,

Continue reading “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं-(साधना-शिविर)-(ओशो)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-42)

संन्यास का निर्णय और ध्यान में छलांग—(प्रवचन—बयालीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?’:  

से संकलित प्रवचनांश

गीता—ज्ञान—यज्ञ पूना।

दिनांक 26 नवम्बर 1971

 क्या संन्यास ध्यान की गति बढ़ाने में सहायक होता है?

संन्यास का अAर्थ ही यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र ध्यान होगा। और कोई अर्थ ही नहीं है संन्यास का। जीवन का केंद्र धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंद्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा—ऐसे निर्णय का नाम ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने की प्रक्रिया संन्यास है। वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है—इंद्रियों की, वासनाओं की, इच्छाओं की, उनकी जगह शइक्त की, मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु—मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा ध्यान है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-42)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-41)

की पूरब श्रेष्ठतम देन : संन्यास—(प्रवचन—इक्‍कतालिसवां)

‘नव— संन्यास क्या?’:   (से संकलित ‘संन्यास: मेरी दृष्टि में’ 🙂

रेडिओ—वार्ता आकाशवाणी बम्बई से प्रसारित

दिनांक 3 जुलाई 1971

नुष्‍य है एक बीज—अनन्त सम्भावनाओं से भरा हुआ। बहुत फूल खिल सकते हैं मनुष्य में, अलग—अलग प्रकार के। बुद्धि विकसित हो मनुष्य की तो विज्ञान का फूल खिल सकता है और हृदय विकसित हो तो काव्य का और पूरा मनुष्य ही विकसित हो जाए तो संन्यास का। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-41)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-40)

सावधिक संन्यास की धारणा—(प्रवचन—चालीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?’:  (से संकलित प्रवचनांश)

साधना—शिविर, लोनावाला (महाराष्‍ट्र)

दिनांक 24 दिसम्‍बर 1976

मेरे मन में इधर बहुत दिन से एक बात निरंत्तर खयाल में आती है और वह यह है कि सारी दुनियां से आनेवाले दिनों में संन्यासी के समाप्त हो जाने की संभावना है। संन्यासी आनेवाले पचास वर्षों के बाद पृथ्वी पर नहीं बच सकेगा, वह संस्था विलीन हो जाएगी। उस संस्था की नीचे की ईंटें तो खिसका दी गयी हैं और अब उसका मकान भी गिर जाएगा। लेकिन संन्यास इतनी बहुमूल्य चीज है कि जिस दिन दुनियां से विलीन हो जाएगा उस दिन दुनियां का बहुत अहित हो जाएगा। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-40)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-39)

संन्यास का एक नया अभियान—(प्रवचन—उन्‍नतालीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?’:

गीता—सत्र से संदर्भ प्रवचनांश

बम्बई प्रथम सप्ताह जनवरी 1971  

एवं ला प्रथम सप्ताह फरवरी 1971

जो भी मैं कह रहा हूं संन्यास के संबंध में ही कह रहा हूं। यह सारी गीता संन्यास का ही विवरण है। और जिस सन्यास की मैं बात कर रहा हूं वह वही संन्यास है जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं—करते

हुए अकर्त्ता हो जाना, करते हुए भी ऐसे हो जाना जैसे मैं करने वाला नहीं हूं। बस संन्यास का यही लक्षण है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-39)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-38)

आनंद व अहोभाव में डूबा हुआ नव—संन्‍यास—(प्रवचन—अडतीसवां)

नव—संन्‍यास क्‍या? :

चर्चा व प्रश्‍नोत्‍तर

अहमदाबाद, दिनांक 6 दिसम्‍बर 1970

भी—अभी साधना मंदिर में जो भजन चल रहा था। उसे देखकर मुझे एक बात खयाल में आती है। वहां सब इतना मुर्दा, इतना मरा हुआ था जैसे जीवन कि कोई लहर नहीं है, सब औपचारिक था—करना है, इसलिए कर लिया। तुम्‍हारा भजन, तुम्हारा नृत्य, तुम्‍हारा जीवन भी औपचारिक न हो, फॉरमल न हो। उदासी के लिए तो नव—संन्यास ‘में जरा भी जगह न हो। क्‍योंकि संन्यास अगर मरा तो उदास लोगों के हाथ में पड़कर मरा। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-38)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-37)

संन्‍यास के फूल: संसार की भूमि में—(प्रवचन—सैंतीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?’:

चर्चा व प्रश्रोत्तर

जबलपुर प्रथम सप्ताह नवम्बर 1970

गवान श्री आपने कहा है कि बाहर से व्यक्तित्व व चेहरे आरोपित कर लेने में सूक्ष्म चोरी है तथा इससे पाखष्ड और अधर्म का जन्म होता है। लेकिन देखा जा रहा है कि आजकल आपके आसपास अनेक नये—नये संन्यासी इकट्ठे हो रहे हैं और बिना किसी विशेष तैयारी और परिपक्‍कता के आप उनके संन्यास को मान्यता दे रहे हैं। क्या इससे आप धर्म को भारी हानि नहीं पहुंचा रहे हैं? कृपया इसे समझाएं? Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-37)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-36)

संन्यास और संसार—(प्रवचन—छत्‍तिसवां)

‘नव— संन्यास क्या?’:  चर्चा एवं प्रश्रोत्तर 

दिनांक 20 अक्टूबर 1970

संसार को छोड़कर भागने का कोई उपाय ही नहीं है, कारण हम जहां भी जाएंगे वह होगा ही, शक्लें बदल सकती हैं। इस तरह के त्याग को मैं संन्यास नहीं कहता। संन्यास मैं उसे कहूंगा कि हम जहां भी हों वहा होते हुए भी संसार हमारे मन में न हो। अगर तुम परिवार में भी हो तो परिवार तुम्हारे भीतर बहुत प्रवेश नहीं करेगा। परिवार में रहकर भी तुम अकेले हो सकते हो और ठेठ भीड़ में खडे होकर भी अकेले हो सकते हो। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-36)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-35)

संन्यास : नयी दिशा, नया बोध—(प्रवचन—पैंतीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?’

से संकलित एक प्रवचन साधना—शिविर मनाली (हिमाचल प्रदेश),

दिनांक 28 सितम्बर 197० रात्रि

पको अपने संन्यास का स्मरण रखकर ही जीना है ताकि आप अगर क्रोध भी करेंगे तो न केवल आपको अखरेगा, दूसरा भी आप से कहेगा कि आप कैसे संन्यासी हैं। साथ ही साथ उनका नाम भी बदल दिया जाएगा। ताकि अन्य पुराने नाम से उनकी जो आइडेन्टिटी, उनका जो तादात्थ था वह टूट जाए। अब तक उन्होंने अपने व्यक्तित्व को जिससे बनाया था उसका केन्द्र उनका नाम है। उसके आस—पास उन्होंने एक दुनियां रचायी, उसको बिखेर देना है ताकि उनका पुनर्जन्म हो जाए। इस नये नाम से वे शुरू करेंगे यात्रा और इस नये नाम के आस—पास अब वे संन्यासी की भांति कुछ इकट्ठा करेंगे। अब तक उन्होंने जिस नाम के आस—पास सब इकट्ठा किया था वह गृहस्थ की तरह इकट्ठा किया था। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-35)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-34)

नव—संन्यास का सूत्रपात—(प्रवचन—चौतीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?’

से संकलित एक प्रवचन साधना—शिविर मनाली (हिमाचल प्रदेश),

दिनांक 28 सितम्बर 197० रात्रि

संन्यास मेरे लिए त्याग नही, आनन्द है। संन्यास निषेध भी नहीं है, उपलब्धि है। लेकिन आज तक पृथ्वी पर संन्यास को निषेधात्मक अर्थों में ही देखा गया है—त्याग के अर्थों में, छोड़ने के अर्थों मे—पाने के अर्थ में नहीं। मैं सन्यास को देखता हूं पाने के अर्थ में। निश्चित ही जब कोई हीरे—जवाहरात पा लेता है तो कंकड़ —पत्थरों को छोड देता है। लेकिन कंकड—पत्थरों को छोडने का अर्थ इतना ही है कि हीर—जवाहरातों के लिए जगह बनानी पड़ती है। कंकड़—पत्थरों का त्याग नहीं किया जाता। त्याग तो हम उसी बात का करते हैं जिसका बहुत मूल्य मालूम होता है। कंकड़—पत्थर तो ऐसे छोड़े जाते है जैसे घर से कचरा फेंक दिया जाता है। घर से फेंके हुए कचरे का हम हिसाब नहीं रखते कि हमने कितना कचरा त्याग दिया। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-34)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-33)

ब्रह्म के दो रूप—(प्रवचन—तैतिसवां)

‘अमृत— वाणी’  (से संकलित सुधा— बिंदु 1971—71)

भी विगत पन्द्रह वर्षों की गहन खोज ने विज्ञान को एक नयी धारणा दी है— ‘एक्सपेंडिंग युनिवर्स’ की, फैलते हुए विश्व की। सदा से ऐसा समझा जाता था कि विश्व जैसा है, वैसा है। नया विज्ञान कहता है, विश्व उतना ही नहीं है जितना है—रोज फैल रहा है, जैसे कि कोई गुब्बारे में हवा भरता चला जाए और गुब्बारा बड़ा होता चला जाए! यह जो विस्तार है जगत का, यह उतना नहीं है, जितना कल था। यह निरंत्तर फैल रहा है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-33)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-32)

जागते—जागते…..(प्रवचन—बत्‍तीसवां)

‘अमृत—वाणी’ (से संकलित सुधा—बिंदु 1970—71)

 1—परमात्मा की चाह नहीं हो सकती

न मांगता रहता है संसार को, वासनाएं दौड़ती रहती हैं वस्तुओं की तरफ, शरीर आतुर होता है शरीरों के लिए, आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए। हमारा जीवन आग की लपट है, वासनाएं जलती हैं उन लपटों में— आकांक्षाएं इच्छाएं जलती हैं। गीला ईंधन जलता है इच्छा का, और सब धुआं— धुआं हो जाता है। इन लपटों में जलते हुए कभी—कभी मन थकता भी है, बेचैन भी होता है, निराश भी, हताश भी होता है। Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-32)”

मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-31)

भगवत—प्रेम—(प्रवचन—इक्कतीसवां)

‘अमृत—वाणी’ से संकलित  (सुधा—बिंदु 1970—1971)

गत में तीन प्रकार के प्रेम हैं—एक : वस्तुओं का प्रेम, जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर हम वस्तुओं के प्रेम से ही परिचित हैं। दूसरा : व्यक्तियों का प्रेम। कभी लाख में एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं सिर्फ इसलिए कि आपको अपने बचाने की सुविधा रहे कि मैं तो लाख में एक हूं ही। नहीं, इस तरह बचाना मत! Continue reading “मैं कहता आंखन देखी-(प्रवचन-31)”

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