परिशिष्ट प्रकरण-05

(सत्‍य का आचरण)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….

एक दिन मैं खेल रहा था। मेरी आयु चार पाँच साल कि रही होगी, उससे अधिक नहीं। जिस समय किसी ने दरवाजे पर दस्‍तक दी, उस समय मेरे पिता अपनी दाढ़ी बना रहे थे। मेरे पिता ने मुझसे कहा, जरा चले जाओ और उनसे कह दो, ‘मेरे पिता जी धर पर नहीं है।’

मैं बहार चला गया और मैंने कहा: ‘मेरे पिता दाढ़ी बना रहे है और वे आपको बताने के लिए कह रहें है कि मेरे पिता घर पर नहीं है।‘

उस व्‍यक्ति ने कहा: ‘क्‍या? वे भीतर है।’

मैंने कहा: ‘हां लेकिन जो उन्‍होंने मुझसे कहा वह यही है। मैंने आपको पूरा सत्‍य बता दिया है।’ Continue reading “परिशिष्ट प्रकरण-05”

परिशिष्ट प्रकरण-04

एक विश्वास चमत्‍कार-(साईं बाबा)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….

कल ही मेरी मां मुझे बता रही थीं…..ओर विवेक ने पहली बार इस उत्‍साह से इतनी देर तक बात‍ करते हुए सुना; वरना जो कुछ भी उनसे पूछा जाता है वह एक या दो वाक्‍यों में, हां या नहीं में उत्‍तर दिया करती है और वार्तालाप संपन्‍न हो जाता है। लेकिन कल उन्‍होंने लंबे समय बात की और वे काफी उत्‍साहित थी, इसलिए विवेक ने मुझसे पूछा, ‘आपकी मां आपको क्‍या बता रही थी।’

मैंने उससे कहा: ‘वे कुछ बातें याद कर रही थी। मैंने उसे अभी तक नहीं बताया कि वे मुझे क्‍या बता रही थी, क्‍योंकि यह एक लंबी कहानी थी। वे मुझको बता रही थी कि उनके गर्भ में जब मैं पाँच माह का था तब एक चमत्‍कार घटित हुआ था।’ Continue reading “परिशिष्ट प्रकरण-04”

परिशिष्ट प्रकरण-03

(दूकान पर मेरा नग्न आना)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….

एक बार मेरे पिता ने मेरी सभी सलवारें और मेरे कुर्ते और मेरी तीनों तुर्की टोपियों एक पोटली में बाँध कर घर के तहखाने में ऐसे स्‍थान पर रख दीं जहां अनेक प्रकार की बेकार टूटी-फूटी चीजें पड़ी हुई थी। मुझे पहनने के लिए उनमें से कुछ नहीं मिला, इसलिए जब मैं स्‍नानगृह से बहार आया तो अपनी आंखें बंद करके नग्नावस्था में दुकान में पहुंच गया। जैसे ही मैं बाहर निकल रहा था, मेरे पिता ने कहा: ‘ठहरो, जरा भीतर तो आओ, अपने वस्‍त्र लिए जाओ।’

मैंने कहा: ‘वे जहां कहीं भी हैं आप उनको लेकर आइए।’ Continue reading “परिशिष्ट प्रकरण-03”

परिशिष्ट प्रकरण-02

(मृत्युं कि प्रतीक्षा)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….

एक ज्यो‍तिषी ने मेरी जन्म -कुंडली तैयार करने का वादा किया था, लेकिन उससे पहले कि वह यह काम कर पाता उसकी मृत्यु हो गई, इसलिए उसके बेटे को जन्मा-कुंडली तैयार करनी पड़ी। लेकिन वह भी हैरान था। उसने कहा: ‘यह करीब-करीब निश्चित है कि यह बच्चा इक्कीपस वर्ष की आयु में मर जाएगा। प्रत्ये क सात साल के बाद उसको मृत्यु को सामना करना पड़ेगा।’

इसलिए मेरे माता-पिता, मेरा परिवार सदैव मेरी मृत्यु को लेकर चिंति‍त रहा करते थे। जब कभी मैं नये सात वर्ष के चक्र के आरंभ में प्रवेश करता, वे भयभीत हो जाते। और वह सही था। सात वर्ष की आयु में मैं बच गया। लेकिन मुझे मृत्यु का गहन अनुभव हुआ—मेरी अपनी मृत्यु का नहीं बल्कि मेरे नाना की मृत्यु का। Continue reading “परिशिष्ट प्रकरण-02”

परिशिष्ट प्रकरण-01

(पीपल का वृक्ष और मेरे आंसू)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….

इस बारे में तुम मेरी मां से पूछ सकते हो—क्‍योंकि इस समय वे यहीं है…। अपने जन्‍म के बाद तीन दि‍नों तक मैंने जरा भी दुध नहीं पिया, और वे सभी परेशान थे, चिंतित थे। चिकित्‍सक चिंतित थे कि यदि यह बच्‍चा दूध पीने से इनकार कर रहा है तो वह किस प्रकार जी सकेगा। लेकिन उन्‍हें मेरी परेशानी का कोई भी अनुमान नहीं था, कि वे मेरे लिए क्‍या कठिनाई पैदा कर रहे थे। वे प्रत्‍येक संभव उपाय से मुझे दुध पीने के लिए बाध्‍य करने का प्रयास कर रहे थे। और ऐसा कोई उपाय न था जिससे मैं उनको समझा सकूँ, या वे स्‍वयं ही मेरी कठिनाई को समझ लेते। Continue reading “परिशिष्ट प्रकरण-01”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-50)

 निकलंक–मैैरा दीवाना साधक–(सत्र-पचासवां) 

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

यह अच्‍छा है कि मैं देख नहीं सकता…..पर मुझे पता है कि क्‍या हो रहा है। पर मैं क्‍या कर सकता हूं—तुम्‍हें तुम्‍हारी टेकनालॉजी के हिसाब से चलना होगा। और मेरे जैसे आदमी के साथ स्‍वभावत: तूम बड़ी मुश्‍किल में हो। मैं बंधा हूं और तुम्‍हारी कोई मदद नहीं कर सकता।

आशु, क्‍या तुम कुछ कर सकती हो? तुम्‍हारी थोड़ी सी हंसी उसे शांत रखने में मदद करेगी। वह बहुत अजीब बात है कि जब कोई और हंसने लगता है तो पहला आदमी रूक जाता है। उनको नहीं, पर मुझे कारण साफ है। जो हंस रहा होता है वह तुरंत सोचता है कि वह कुछ गलत कर रहा है। और तुरंत गंभीर हो जाता है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-50)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-49)

नीम का पेड़ और भूत–(सत्र–उन्नचासवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

च्‍छा, मैं उस आदमी को याद करने की कोशिश कर रहा था। मुझे उसका चेहरा तो दिखाई दे रहा है। किंतु शायद मैंने उसका नाम जानने की कभी कोशिश नहीं की। इसलिए मुझे वह याद नहीं है। मैं तुम्‍हें वह सारी कहानी सुनाता हूं।

जब मेरी नानी ने देखा कि मुझे स्‍कूल भेजने से कोई फायदा नहीं । मैं पढ़ता-वढ़ाता नहीं हूं, केवल शैतानी ही करता हूं तो उन्‍होने मेरे माता-पिता को यह समझाने की कोशिश की कि वह लड़का दूसरे लड़कों के लिए एक मुसीबत बन गया है। लेकिन कोई उनकी बात सुनने को तैयार ही न था। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-49)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-48)

महर्षि महेश योगीयों सबसे चालाक–(सत्र–अडतालीसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

मैं तुम लोगों को यह बता रहा था कि मैं स्‍कूल नियमित रूप से हाजिरी लगाने नहीं जाता था। मैं तो वहां कभी-कभी जाता था। और वह भी उस समय जब मुझे कोई शैतानी सूझती,शरारत और शैतानी करने में मुझे बड़ा मजा आता था और एक प्रकार से यही आरंभ था मेरे शेष जीवन के ढंग का। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-48)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-47)

 स्‍कूल का हाथी फाटक और शरारते–(सत्र-सैतालीसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

मैं अपने प्राइमरी स्‍कूल की बात कर रहा था। मैं वहां कभी-कभार ही जाता था। मेरे न जाने से स्‍कूल के सब लोगों को बडी राहत मिलती थी और मैं भी उन्‍हें तकलीफ देना नहीं चाहता था। मैं तो उनको शत-प्रतिशत राहत देना चाहता था। क्‍योंकि मुझे भी उनमें बहुत प्रेम था—मेरा मतलब है लोगों से, वहां के अध्‍यापकों से,अन्‍य नौकरों से तथा मालियों से। कभी-कभी मैं उनसे मिलना चाहता था, खासकर जब तब मैं उनको को विशेष चीज दिखाना चाहता तो मैं वहां चला जाता। एक छोटा बच्‍चा चाहता है कि वह अपनी खास चीजें अपने प्रियजनों को दिखाए। किंतु ये चीजें खतरनाक भी होती थीं। अभी भी मुझे यह याद करके बहुत हंसी आती है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-47)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-46)

सत्‍य साईं बाबा एक जादूगर–(सत्र-छियालीसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

ठीक है। मैं प्राइमरी स्‍कूल के दूसरे दिन से शुरूआत करता हूं। कितनी देर वह घटना इंतजार कर सकती है। पहले ही बहुत इंतजार कर चुकी है। सच मैं स्‍कूल में मेरा प्रवेश दूसरे दिन हुआ। क्‍योंकि काने मास्‍टर को निकाल दिया गया था। इसलिए सब लोग खुशी मना रहे थे। सब बच्‍चे खुशी से नाच रहे थे। मुझे तो विश्‍वास ही नहीं हो रहा था। किंतु उन्‍होंने मुझे बताया तुम्‍हें काने मास्‍टर के बारे में मालूम नहीं है। अगर वह मर जाए तो हम सारे शहर में मिठाई बांटें गे और अपने घरों में दिए जलाएंगे। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-46)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-45)

महात्‍मा गांधी से भेट–(सत्र–पैतालीसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

.के.। सारी दुनिया स्‍तब्‍ध रह गई जब जवाहर लाल नेहरू रेडियो पर महात्‍मा गांधी की मृत्‍यु की सूचना देते समय एकाएक रो पेड। यह तैयार किया गया भाषण नहीं था। वे अपने ह्रदय से बोल रहे थे। और अगर अचानक  उनके आंसू उमड़ पड़े तो वे क्‍या करते? और अगर कुछ क्षणों के लिए उन्‍हें रूकना पडा तो इसमें उनका कोई कसूर नहीं था। यह तो उनकी महानता थी। अन्‍य कोई मूढ़ राजनीतिज्ञ अगर चाहता भी तो ऐसा नहीं कर सकता था। क्‍योंकि उनके सैक्रेटरी को अपने तैयार किया गए भाषण में यक भी लिखना पड़ता कि अब रोना शुरू कीजिए और रोते-रोते थोड़ा रुकिए ताकि लोग समझें कि यह रोना सच्‍चा है। जवाहरलाल ऐसे किसी भाषण को पढ़ नहीं रहे थे। सच तो यह है कि उनके सैक्रेटरी बहुत चिंतित थे। कई बरसों बाद उनका एक सैक्रेटरी संन्‍यासी बन गया था। उसने यह बताया कि हम लोगों ने एक भाषण तैयार किया था परंतु उन्‍होंने उसको हमारे मुहँ पर फेंकते हुए कहा: बेवक़ूफ़ों, क्‍या तुम समझते हो कि मैं तुम्‍हारा लिखा हुआ भाषण पढ़ूंगा। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-45)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-44)

मस्‍तो की भविष्‍य वाणी—मोरारजी प्रधानमंत्री बनेगा-(सत्र–चव्वालीसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

कल मुझे अचरज हो रहा था कि परमात्‍मा ने इस दुनियां को छह दिनों में कैसे बना लिया। मुझे अचरज इस लिए हो रहा था, क्‍योंकि मैं तो अभी प्राइमरी स्‍कूल के दूसरे दिन पर ही अटका हुआ हूं, दूसरे दिन के पार भी जा सका। और उसने यह कैसी दुनिया बनाई है। शायद यह यहूदी था, क्‍योंकि यहूदियों ने ही इस विचार को फैलाया है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-44)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-43)

मृत्‍यु के बाद भी मैं उपल्‍बध रहूंगा–(सत्र–तैैरालीसवां )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

ओके.। मुझे हमेशा इत बात पर आश्‍चर्य हुआ है कि परमात्‍मा ने इस दुनिया को छह दिनों में कैसे बना दिया। ऐसी दुनिया, शायद इसीलिए अपने बेटे को जीसस कहा। अपने ही बेटे के लिए ये कैसा नाम चुना? उसने जो किया उसके लिए यह किसी दूसरे को सज़ा देना चाहता था। किंतु दूसरा कोई तो वहां था नहीं। होली घोस्‍ट तो सदा गैर-हाजिर रहता है। वह तो घोड़े की पीठ पर बैठा रहता है। इसीलिए मैंने चेतना को उसे खाली करने को कहा है। क्‍योंकि किसी घोड़े पर बैठना जिस पर पहले से ही कोई बैठा हो, ठीक नहीं है। मेरा मतलब है कि घोड़े के लिए ठीक नहीं है। और चेतना के लिए भी। जहां तक होली घोस्‍ट का सवाल है, मुझे इससे कोई मतलब नहीं है। मुझे होली घोस्‍ट से या अन्‍य प्रकार के भूतों से काई हमदर्दी नहीं है। मैं जीवित लोगों के साथ हूं।

भूत तो मृत की छाया है और अगर वह होली या पावन है तो भी उसका क्‍या फायदा। और वह बदसूरत भी है। चेतना, मुझे होली घोस्‍ट की जरा भी चिंता नहीं थी। अगर तुम उस पर सवार हो जाओ तो मुझे कोई आपत्‍ति नहीं है। होली घोस्‍ट की सवारी करो, परंतु यह कुर्सी तो एक पूरे आदमी के लिए भी नहीं बनी है। यह बैठने के लिए बनी ही नहीं है। आधा आदमी ही बैठ सकता है। यह इस तरह बनी हुई है कि कोई इस पर बैठ कर सो न सके।

जब उस कुर्सी पर कोई बैठ भी नहीं सकता तो सोएगा कैसे? यह कुर्सी इस छोटे से नोऑज-आर्क में भी रखी नहीं जा सकी, फिट ही नहीं हुई। नोऑज-आर्क इतना छोटा है कि खुद नोह को बाहर खड़े होना पडा। क्‍योंकि तुम सब प्राणि यों के लिए भी जगह रखनी थी।

देव गीत, मैं क्‍या कह रहा था?

होली घोस्‍ट सदा गैर-हाजिर रहता है। और इस समय वह घोड़े पर सवार बैठा है।

(हंसी..sssss)

हां, यह तो मुझे याद है। मुझे मालूम था कि तुम नोट नहीं लिख सके इसलिए  ध्यान रखो। किंतु मैं काम चला लुंगा। मैंने तो जीवन भी बिना कोई नोट लिखे काम चला लिया है।

उस अंतिम दिन जवाहरलाल ने मुझसे जो पूछा वह सचमुच बहुत अजीब था। उन्‍होंने पूछा: तुम्‍हारे विचार में क्‍या राजनीतिक संसार में रहना ठीक है?

मैंने कहा: नहीं, यह ठीक नहीं है, यह एक प्रकार का अभिशाप है। पिछले जन्‍म में आपने कोई खराब कर्म किया होगा इसीलिए आज आपको भारत का प्रधान मंत्रि बनना पडा।

उन्‍होंने कहा: हां, तुम बिलकुल ठीक कहते हो। मैं इससे सहमत हूं।

मस्‍तो को भरोसा ही न आया कि मैं प्रधानमंत्री को इस प्रकार से उत्‍तर दे सकता हूं। और भी अधिक आश्‍चर्य तब हुआ कि वे मुझसे सहमत भी हो गए है।

मैंने कहा: इससे मेरे और मस्‍तो के बीच चल रही लंबी बहस आज खत्‍म होती है। और वह भी मेरे पक्ष में। मस्‍तो तुम इससे सहमत हो।

उसने कहा: अब तो सहमत होना ही पड़ेगा।

मैंने कहा: होना पड़ेगा, जैसे शब्‍द मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। इससे तो अच्‍छा है असहमत होना। कम से कम उस असहमति में कुछ जान तो होगी। ऐसा मरा हुआ चूहा मुझे मत दो। ऐ तो वह चूहा है, वह भी मरा हुआ। तुमने मुझे चील समझ रखा है?

जवाहरलाल ने बारी-बारी से हम दोनों की और देखा।

मैंने कहा: आपने निर्णय कर दिया, मैं आपका बहुत आभारी हूं। वर्षो से मस्‍तो इसी दुविधा में है, वह तय ही नहीं कर पाता था कि अच्‍छे आदमी को राजनीति में होना चाहिए कि नहीं?

हम लोगों ने बहुत विषयों पर चर्चा की। उस घर में अर्थात प्रधानमंत्री के घर में शायद की कोई मीटिंग इतने समय तक चली हो। जब हमने बात समाप्‍त की, साढे नौ बज चुके थे। पूरे तीन घंटे। जवाहरलाल ने भी कहा कि यह मेरे जीवन की शायद सबसे लंबी मीटिंग रही और बहुत सफल और सार्थक भी।

मैंने उनसे कहा: इससे आपको क्‍या मिला? आपको क्‍या लाभ हुआ?

उन्‍होंने कहा: मुझे मिली एक ऐसे व्‍यक्‍ति की मित्रता जो इस दुनिया का नहीं है और न कभी होगा। मेरे लिए तो इस मित्रता की याद बहुत पावन रहेगी। और उनकी सुंदर आंखों से आंसू आ रहे थे।

मैं जल्‍दी से बाहर चला गया ताकि उन्‍हें किसी प्रकार का संकोच न हो। किंतु वे मेरे पीछे-पीछे आए और उन्‍होंने कहा- इतनी तेजी से बाहर जाने की कोई जरूरत नहीं थी।

मैंने कहा: आंसू तेजी से आ रहे थे। वे एक साथ हंसे और रोंए भी।

ऐसा बहुत ही कम होता है—और सिर्फ या तो पागल आदमी ऐसा व्‍यवहार करता है या बहुत ही प्रतिभाशाली। वे पागल नहीं थे। वे अत्‍यंत प्रतिभाशाली थे।

बाद में मस्तो और मैं प्राय: इस भेंट की चर्चा करते रहते थे। विशेषत: उनकी हंसी और उनके आंसुओं का एक साथ दिखाई देना क्‍यों? इसलिए कि सदा की भांति हम दोनों सहमत नहीं हो रहे थे। वह एक सामान्‍य बात हो गई थी। अगर मैं सहमत हो जाता तो उसे भरोसा ही नहीं आता। वह बहुत ही बड़ा झटका, शॉक होता। मैंने कहा: वे रोंए तो अपने लिए थे और हंसे थे मेरी स्वतंत्रता पर। और मस्‍तो का कहना था कि वे अपने लिए नहीं बल्‍कि तुम्‍हारे लिए रोंए। उन्‍हें यह दिखाई दे रहा था कि तुम एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण राजनीतिज्ञ शक्‍ति बन सकते है, और अपने इस विचार पर वे स्‍वयं ही हंस पड़े। मस्‍तो की व्याख्या यही थी। अब तो इसका फैसला नहीं हो सकता था परंतु सौभाग्‍य से संयोगवश जवाहरलाल ने ही हमारी इस बहस का निर्णय कर दिया। मस्‍तो ने ही मुझे बताया, तो कोई समस्‍या न थी।

मस्‍तो ने हिमालय में गायब होने से पहले, मुझे सदा के लिए छोड़ कर जाने से पहले और मेरे पुनर्जीवित हो के लिए मेरे मरने से पहले मस्‍तो ने मुझे बताया कि जवाहरलाल तुम्‍हें बार-बार याद कर रहे थे। पिछली भेंट में उन्‍होंने मुझसे कहा था कि अगर उस विचित्र लड़के से तुम्‍हारी मुलाकात हो और अगर आप उसके शुभचिंतक है तो उसे राजनीति से दूर रखना। मैंने तो इस मूर्खों के साथ अपना जीवन बरबाद कर दिया। मैं नहीं चाहता कि यह लड़का इन निहायत बेवकूफ लोगों से वोट की मांग करे। अगर उसके जीवन में तुम कोई दिलचस्‍पी रखते हो तो राजनीति से उसे सुरक्षित रखना।

मस्‍तो ने कहा: बस उनकी इस बात ने हमारी बहस का निर्णय तुम्‍हारे पक्ष में कर दिया। जब कि मैं तुमसे बहस कर रहा था। और मैं तुमसे सहमत नहीं था। फिर भी दिल से में तुम्‍हारे साथ था।

इसके बाद जवाहरलाल कई वर्षो तक जीवित रहे किंतु मैं उनसे दुबारा नहीं मिला। परंतु जैसी उनकी इच्‍छा थी और जैसा निर्णय मैं ले चुका था—उनकी सलाह ने मेरे निर्णय की पुष्‍टि की—मैंने अपने जीवन में कभी किसी को वोट नहीं दिया और न मैं किसी राजनीतिज्ञ दल का सदस्‍य बना। स्‍वप्‍न में भी नहीं। सच तो यह है कि पिछले तीस वर्षों से मैंने स्‍वप्‍न ही नहीं देखा। मैं देख ही नहीं सकता हूं।

मैं स्‍वप्‍न देखने का रिहर्सल कर सकता हूं ये थोड़ा अजीब लगेगा—स्‍वप्‍न की रिहर्सल परंतु वास्‍तव में सपना नहीं देख सकता। क्‍योंकि उसके लिए अचेतन मन की आवश्‍यकता है, और वह मेरे पास नहीं है। अगर तुम मुझे बेहोश भी कर दो तो भी मैं सपना नहीं देख सकूंगा। मुझे बेहोश करने के लिए किसी विशेष तकनीक की आवश्‍यकता नहीं होगी—मेरे सिर पर प्रहार करने से ही मैं बेहोश हो जाऊँगा। परंतु मैं इस प्रकार की बेहोशी की बात नहीं कर रहा हूं।

बेहोशी से मेरा तात्‍पर्य यह है कि दिन के समय या रात के समय जब तुम अनेक प्रकार के काम करते हो तो बिना जाने ही उन्‍हें किए चले जाते हो—उसको करते समय तुम्‍हें ख्‍याल ही नहीं आता कि तुम क्‍या कर रहे हो—उसका होश नहीं रहता, उसका बोध नहीं रहता। एक बार होश आ जाए तो सपना देखना समाप्‍त हो जाता है। सपना देख ही नहीं सकते। दोनों एक साथ होना संभव नहीं है। इन दोनों का सह-अस्‍तित्‍व असंभव है। जब तुम सपना देखते हो तो बेहोशी में ही देखते हो। और अगर होश बना रहे, सजगता बनी रहे तो तुम सपना नहीं देख सकते। हां, सपना देखने का ढोंग कर सकते हो। ओर उसको सपना नहीं कहा जा सकता। यह तुम्‍हें भी मालूम है।

में क्‍या कहा रहा हूं।

तीस साल से आपने स्‍वप्‍न नहीं देखा है। हालांकि जवाहरलाल कई वर्षो तक जीवित रहे, परंतु मैं दुबारा उनसे कभी नहीं मिला।

ठीक। उनसे दुबारा उनसे मिलने की जरूरत ही नहीं थी। हालांकि बहुत लोगों ने मुझसे कहा। लोगों को विभिन्‍न स्रोतों से पता चल गया—जवाहर लाल के घर से, उनके सैक्रेटरी से कि मैं उनको जानता था ओर वे मुझे बहुत प्रेम करते थे। इसलिए जब उन लोगो को अपना कोई काम कराना होता तो वे मेरे पास आते कि मैं उनकी सिफारिश कर दूँ।

मैं कहता: क्‍या तुम पागल हो? मैं उनको बिलकुल नहीं जानता।

वे कहते: लेकिन हमारे पास इसका प्रमाण है।

मैंने कहा: आप अपने प्रमाण अपने पास ही रखिए। शायद सपने में हम दोनों मिले होंगे किंतु वास्‍तव में नहीं।

उन्‍होंने कहा: हम तो पहले ही ये शक था कि तुम थोड़े पागल हो किंतु अब हमें पक्‍का विश्‍वास हो गया है।

मैंने कहा: हां, बहुत अच्‍छा हो अगर तुम इस खबर को फैला दो और मेरे थोडे पागल होने की बात ही मत करना—मैं पूरा पागल हूं। इस खबर को फैलाने मैं कंजूसी मत करना।

मैं पूरा पागल हूं।

मुझे धन्‍यवाद दिए बगैर वे लोग चले गए परंतु मैं तो उन्‍हें धन्‍यवाद देना चाहता था। इसलिए मैने कहा: मैं आपको अच्‍छा धन्‍यवाद देता हूं। उन्‍होंने  एक-दूसरे से कहां: लो, देखो, यह हमें अच्‍छा धन्‍यवाद दे रहा है। पागल है पागल।

मुझे पागल कहलाना अच्‍छा लगता था। अभी भी लगता है। जिस पागलपन को मैं जान गया हुं उससे अधिक सुदंर और कुछ नहीं हो सकता है।

हिमालय जाने से पहले एक दिन मस्‍तो ने मुझसे कहा कि जवाहरलाल ने मुझे इस आदमी का नाम दिया है—घनश्याम दास बिरला। यह भारत में सबसे अमीर आदमी है। वह जवाहरलाल के परिवार के बहुत नजदीक है। किसी भी प्रकार की आवश्‍यकता होने पर उससे सहायता ली जा सकती है। और जब जवाहरलाल उसका पता मुझे दे रहे थे तो उन्‍होंने कहा कि यह लड़का मेरे दिलो-दिमाग पर छा गया है। मैं भविष्‍यवाणी करता हूं कि एक दिन वह…ओर मस्‍तो चुप हो गया।

मैंने कहा: क्‍या हुआ? वाक्‍य तो पूरा करो। मस्‍तो ने कहा: हां, अभी पूरा करता हूं। यह मौन भी उनका ही था। मैं तो उनकी नकल कर रहा हूं। तुम जो पूछ रहे हो वहीं मैंने उनसे पूछा था। तब जवाहरलाल ने वाक्‍य को पूरा किया। मस्‍तो ने कहा कि मैं तुम्‍हें बताता हूं कि कारण क्‍या था।

जवाहरलाल ने का कि एक दिन वह बनेगा….ओर फिर चुप हो गए। शायद वे अपने भीतर शब्‍दों को नाप-तौल रहे थे या वे जो कहना चाहते थे वह स्‍पष्‍ट नहीं हो रहा था। तब उन्‍होंने कहा: शायद वह एक दिन महात्‍मा गांधी बनेगा। इन शब्‍दों द्वारा जवाहरलाल मुझे सबसे बड़ा सम्मान दे रहे थे। महात्‍मा गांधी उनके गुरु थे और उन्‍होंने ही यह फैसला किया था कि जवाहरलाल नेहरू ही भारत के पहले प्रधानमंत्री बनेंगे। इसलिए यह स्वभाविक था कि महात्‍मा गांधी को जब गोली लगी तो जवाहरलाल रो पड़े। रोते हुए उन्‍होंने रेडियों पर कहा था। रोशनी बुझ गई, मैं और कुछ नहीं कहना चाहता। वे हमारी रोशनी थे, हमारे प्रकाश थे। अब हमें अंधेरे में रहना पड़ेगा।

अगर उन्‍होंने मस्‍तो से यह बात थोड़ी झिझक के साथ कही, तो या तो वे सोच रहे थे कि क्‍या इस अनजाने लड़के की तुलना विश्‍वविख्‍यात महात्‍मा से की जा सकती है। या वे महात्‍मा के साथ अन्‍य प्रसिद्ध नामों के बारे में सोच रहे थे…..मेरा ख्‍याल है कि संभावना इसी की है, क्‍योंकि मस्‍तो ने उनसे कहा: अगर मैंने यह बात इस लड़के को बताई तो वह तुरंत कहेगा: गांधी, उनके जैसा तो मैं कभी नहीं बनना चाहता। महात्‍मा गांधी बनने के बजाए तो मैं नरक मैं जाना पसंद करूंगा। उसकी यही प्रतिक्रिया होगी। मैं उसे अच्‍छी तरह से जानता हूं। इस तुलना को वह सहज नहीं कह सकेगा। यह आपसे प्रेम करता है। किंतु इस नाम के कारण उसे प्रेम को नष्‍ट न करें।

मैंने कहा मस्‍तो: यह तो ज्‍यादती है, उनसे यह सब कहने की कोई जरूरत न थी। वे वृद्ध हैं। और जहां ते मेरा प्रश्‍न है में जानता हूं कि उन्‍होंने मेरी तुलना अपनी समझ के अनुसार एक महानतम व्‍यक्‍ति से की है।

मस्‍तो ने कहा: जरा रुको तो। जब मैंने यह कहा तो जवाहरलाल ने कहा: हां, मुझे यही शक था। इसीलिए मैं सोच में पड़ गया था कि कहूं या न कहूं। अच्‍छा, उसे यह मत बताना, इसे बदल दो। शायद वह गौतम बुद्ध बन जाए।

भारत के महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा है कि जवाहरलाल गुप्त ढंग से गौतम बुद्ध से बहुत प्रेम करते थे। गुप्‍त ढंग से क्‍यो? क्‍योंकि उन्‍हें कोई भी संगठित धर्म पसंद नहीं था। और वे परमात्‍मा में विश्‍वास नहीं करते थे। और जवाहरलाल भारत के प्रधान मंत्रि थे।

मस्‍तो ने कहा: तब मैंने जवाहरलाल से कहा: क्षमा करना, आपने जो कहा वह ठीक ही है। किंतु सच तो यह है कि इस लड़के को कोई भी तुलना पसंद नहीं है। तब मस्‍तो ने मुझसे पूछा: क्‍या तुम्हें मालूम है कि जवाहरलाल ने क्‍या कहा। उन्होंने कहा: ऐसे ही व्‍यक्‍ति का में आदर करता हूं। ऐसा ही व्‍यक्ति मुझे प्रिय है। हर संभव ढंग से उसकी रक्षा करना, उसे सुरक्षित रखना ताकि राजनीति में वह फंस न जाए। उसे उस राजनीति से दूर रखना जिसने मुझे बरबाद कर दिया। मैं नहीं चाहता कि उसे भी इसी दुर्भाग्‍य का सामना करना पड़े।

इसके बाद मस्‍तो गायब हो गया। मैं भी गायब हो गया। इसलिए शिकायत करने के लिए कोई नहीं बचा। परंतु स्‍मृति चेतना नहीं है। और स्‍मृति बिना चेतना के भी काम कर सकती है। शायद अघिक कुशलता से। आखिर कंप्‍यूटर क्‍या है। स्‍मृति की एक प्रणाली। अहं मर चुका है। अहं के पीछे जो है वह शाश्‍वत है। परंतु दिमाग को जो अंश है वह अस्‍थायी है और वह मर जाएगा।

मृत्‍यु के बाद भी मैं अपने लोगों को उतना ही उपलब्‍ध रहूंगा जितना अभी हूं। परंतु यह उस पर निर्भर है। इसीलिए अब मैं धीरे-धीरे उनकी दुनिया से गायब हो रहा हूं ताकि अधिक से अधिक यह उनकी बात होती जाए।

     मैं तो शायद एक प्रतिशत ही हूं। और उनका प्रेम, उनकी श्रद्धा और उनका समर्पण निन्यानवे प्रतिशत है। किंतु जब मैं चला जाऊँगा तब इससे भी अधिक की आवश्‍यकता होगी—एक सौ प्रतिशत। तब मैं शायद और भी अधिक अपलब्‍ध रहूंगा उनके लिए जो ‘’अफॅर्ड’’ कर सकते है। जो अफॅर्ड कर सकते है। इसे बड़े मोटे अक्षरों में लिखों। क्‍योंकि अधिकतम धनी वही है जो प्रेम और श्रद्धा में शत-प्रतिशत समर्पण अफॅर्ड कर सकता है।

     और मेरे पास ऐसे लोग है। इसलिए मृत्‍यु के बाद भी में उनको निराश नहीं करना चाहता। मैं चाहता हूं कि इस पृथ्‍वी पर वे सर्वाधिक परिपूर्ण लोग हों। मैं यहां पर रहूँ या न रहूँ, मैं बहुत आनंदित होऊंगा। मुझे बहुत खुशी होगी।

–ओशो

 

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-42)

जवाहरलाल बोधिसत्‍व थे–(सत्र–बयालीसवां) 

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

      ओके. । मैं क्‍या बता रहा था तुम्‍हें?

आप बता रहे थे कि सत्य भक्त और मोरार जी देसाई किसी प्रकार आपके दुश्‍मन बन गए। वे और अंत में आपने यह कहा था कि मोरार जी देसाई कह आंखों से धूर्तता और चालाकी झलकती रही थी। और यह आपको अच्‍छी तरह याद है।

ठीक है, उसे याद न रखना ही अच्‍छा है। शायद इसीलिए मुझे याद नहीं आ रहा था, अन्‍यथा मेरी याददाश्‍त खराब नहीं है। कम से कम ऐसा किसी ने आज तक मुझसे कहा नहीं है। यहां तक कि जो लोग मुझसे सहमत नहीं हे वे भी कहते है कि मेरी स्‍मृति आश्‍चर्यजनक है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-42)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-41)

चौबीस तीर्थकर एक परम्‍परा–(सत्र–इक्कतालीसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

ओं. के. । मैं जो तुम्‍हें बताना चाहता था उसे बताना शुरू भी न कर सका। शायद ऐसा नहीं ही होना था क्‍योंकि कई बार मैंने उसकी चर्चा करने की कोशिश कि किंतु कर नहीं सका। परंतु यह मानना पड़ेगा कि यह सत्र बहुत ही सफल रहा, लाभदायक रहा। हालांकि न कुछ कहा गया, न कुछ सुना गया। अच्‍छा खासा हंसी-मजाक होता रहा परंतु मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैं कारावास में हूं। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-41)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-40)

मैं कल्‍कि अवतार नहीं हूं–(सत्र-चालीसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

     मैं खड़ा हूं—अजीब बात है, इस समय तो मैं आराम कर रहा हूं—मेरा मतलब है अपनी स्मृति में मैं मस्‍तो कि साथ खड़ा हूं। निश्‍चित ही तो ऐसा कोई और नहीं है जिसके साथ मैं खड़ा हो सकता हूं। मस्‍तो के बाद दूसरे किसी का संग-साथ तो बिलकुल अर्थहीन है।

मस्‍तो तो पूर्णतया समृद्ध थे—भीतर से भी और बाहर से भी। उनके रोम-रोम से उनकी आंतरिक समृद्धि झलकती थी। अपने विविध संबंधों का उन्‍होंने जो विशाल जाल बुन रखा था उसका हर तंतु मूल्‍य वान था और इसके बारे मैं उन्‍होंने मुझे धीरे-धीरे अवगत किया। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-40)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-39)

पंडित जवाहरलाल नेहरू से भेट–(सत्र–उन्नतालिसवां) 

देव गीत, मुझे लगता है तुम किसी बात से परेशान हो रहे हो। ।तुम्‍हें परेशान नहीं होना चाहिए, ठीक है?

ठीक है।

….नहीं तो नोट कौन लिखेगी, अब लिखने वाले को तो कम से कम लिखने वाला ही चाहिए।

अच्‍छा। ये आंसू तुम्‍हारे लिए है, इसीलिए तो ये दाईं और है। आशु चुक गई। वह बाईं और एक छोटा सा आंसू उसके लिए भी आ रहा है। मैं बहुत कठोर नहीं हो सकता। दुर्भाग्‍यवश मेरी केवल दो ही आंखें है। और देवराज भी यहीं है। उसके लिए तो मैं प्रतीक्षा करता रहा हूं। और व्‍यर्थ में नहीं। वह मेरा तरीका नहीं है। जब में प्रतीक्षा करता हूं। तो वैसा होना ही चाहिए। अगर वैसा नहीं होता तो इसका मतलब है कि मैं सचमुच प्रतीक्षा नहीं कर रहा था। अब फिर कहानी को शुरू किया जाए। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-39)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-38)

मोज़ेज और जीसस—पहलगाम (कश्‍मीर)में मरे-(सत्र-अडतिसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

    ओ. के.। मैं तुम्‍हें एक सीधा-सादा सरल सा सत्‍य बताना चाहता था। शायद सरल होने के कारण ही वह भुला दिया गया है। और कोई भी धर्म उसका अभ्‍यास नहीं कर सकता। क्‍योंकि जैसे ही तुम किसी धर्म के अंग बन जाते हो वैसे ही तुम न तो सरल रहते हो और न ही धार्मिक। मैं तुम्‍हें एक सीधी सह बात बताना चाहता था। जो कि मैंने बड़े मुश्‍किल ढंग से सीखी है। शायद तुम्‍हें तो यह बहुत सस्‍ते में मिल रही है। साधी और सरल सदा सस्‍ता ही माना जाता है। यह सस्‍ता बिलकुल नहीं है। यह बड़ा कीमती है। क्‍योंकि इस सरल से सत्‍य के मूल्‍य को चुकाने के लिए अपने सारे जीवन को दांव पर लगाना पड़ता है। और वह है समर्पण, श्रद्धा।   Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-38)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-37)

बे घर का मुसाफिर–(सत्र–सैतीसवां) 

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

ओ. के. । हम लोग अभी मेरे प्राइमरी स्‍कूल के दूसरे दिन पर ही है। बस, ऐसा ही होगा, हर रोज नई-नई बातें खुलती जाएंगी। अभी तक मैंने दूसरे दिन का वर्णन समाप्‍त नहीं किया आज में उसे समाप्‍त करने की पूरी कोशिश करूंगा।

जीवन अंतर्संबंधित है। इसे टुकड़ो में काटा नहीं जा सकता। यह कपड़े का टुकड़ा नहीं है। इसको तुम काट नहीं सकते। क्‍योंकि जैसे ही इसको अपने सब संबंधों से काट दिया जाएगा, यह पहले जैसा नहीं रहेगा—यह श्‍वास नहीं ले सकेगा और मृत हो जाएगा। मैं चाहता हूं कि अपनी गति से बहता रहे। मैं इसे किसी विशेष दिशा की और उन्‍मुख नहीं करना चाहता। क्‍योंकि मैंने इसका दिशा-निर्देश पहले से ही नहीं किया। यह बिना किसी पथ-प्रदर्शन के अपनी ही गति से चलता रहा है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-37)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-36)

कहानियां विचित्र प्राणी है–(सत्र-छत्तीसवां) 

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

भी-अभी मैं एक कहानी के बारे में सोच रहा था। मुझे नहीं मालूम कि इस कहानी को किसने रचा

और क्‍यों? और मैं उसके निष्‍कर्ष से भी सहमत नहीं हूं फिर भी यह कहानी मुझे बहुत प्रिय है। कहानी बहुत सरल है। तुमने इसे सुना होगा किंतु शायद समझा नहीं होगा क्‍योंकि यह इतनी सरल है। यह अजीब दुनिया है। हर आदमी को यह खयाल है कि वह सरलता को समझता है। लोग जटिलता को समझने की कोशिश करते है और सरलता की और ध्‍यान ही नहीं देते यह सोच कर कि इसकी कोई जरूरत ही नहीं है। शायद तुमने भी इस कहानी पर अधिक ध्‍यान नहीं दिया होगा किंत1 जब मैं इसे तुम्‍हें सुनाऊंगा तो निशचित ही तुम्‍हें याद आ जाएगी। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-36)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-35)

अल्‍लाउद्दीन खां और पं रविशंकर–(सत्र–पैतीसवां) 

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

ओ. के.। मैं रविशंकर को सितार बजाते हुए सुना है। हम जो सोच सकें, वे सब गुण उनमें है। उनका व्‍यक्‍तित्‍व गायक का है। अपने वाद्ययंत्र पर उनका पूर्ण अधिकार है। और उनमें नवीनता उत्‍पन्‍न करने की योग्‍यता है। जो कि शास्त्रीय संगीतज्ञों में दुर्लभ ही होती है। रविशंकर को नवीनता से बहुत प्रेम है। इन्‍होंने यहूदी मैन हून की वायलिन के साथ अपनी सितार की जुगल बंदी की है। दूसरा कोई भी भारतीय सितारवादक इसके लिए तैयार नहीं होता। क्‍योंकि इसके पहले किसी ने ऐसा प्रयोग नहीं किया। वायलिन के साथ सितार वादन। क्‍या तुम पागल हो? परंतु नये की खोज करने वाल लोग थोड़े पागल ही होते है। इसीलिए तो वे नवीनता को जन्‍म दे सकते है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-35)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-34)

प्रोफेसर एस. एस. राय–(सत्र-चौतिसवां) 

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

आज सुबह मैंने मस्‍तो से एकाएक विदा ली और दिन भर मुझे यह बात खटकती रही। कम से कम इस मामले में तो ऐसा नहीं किया जा सकता इससे मुझे उस समय की याद आ गई जब मैं कई बरसों तक नानी के साथ रहने के बाद उनसे विदा लेकर कालेज जा रहा था।

नानी की मृत्‍यु के बाद जब वे बिलकुल अकेली हो गई तो मेरे सिवाय उनके जीवन में और कोई न था। उनके लिए यह आसान न था और न ही मेरे लिए। मैं सिर्फ नानी के कारण ही उस गांव में रहता था। मुझे अभी तक सर्दी के मौसम की वह सुबह याद है जब गांव के लोग मुझे विदा देने के लिए एकत्रित हुए थे। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-34)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-33)

 मस्‍तो का सितार बजाना—(नानी का नवयौवना होना)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

.के.। अभी उस दिन मैं तुम लोगों को मस्‍तो के गायब हो जाने के बारे में बता रहा था। मुझे लगता है कि वह अभी भी जीवित है। सच तो यह है कि मैं जानता हूं कि वह जीवित है। पूर्व में यह एक अति प्राचीन प्रथा है। मरने से पहले व्‍यक्‍ति हिमालय में खो जाता है। किसी और जगह रहने से तो इस सुंदर स्‍थल में मरना ज्‍यादा मूल्‍य बान है। वहां पर मरने में भी शाश्‍वतता का कुछ अंश है। इसका कारण शायद यह है कि हजारों वर्षों तक ऋषि मुनि वहां पर जो मंत्रोच्‍चार कर रहे थे। उसकी तरंगें अभी भी वहां के वातावरण में पाई जाती है। वेदों की रचना वहां हुई, गीता वहां लिखी गई। बुद्ध वहां पर जन्मे और मरे। लाओत्से भी अपने अंतिम दिनों में हिमालय में ही खो गया था। और मस्‍तो ने भी ऐसा ही किया। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-33)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-32)

( भगवान )—मस्‍तो बाबा का उद्घोष–(सत्र–बत्तीसवां) 

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

मुझे सदा यह हैरानी होती है कि आरंभ से ही मेरे साथ कुछ ठीक हुआ है। किसी भी भाषा में ऐसा कोई मुहावरा नहीं है। कुछ गलत हो गया, जैसा मुहावरा तो पाया गया है। लेकिन ‘कुछ ठीक हो गया’ जैसा मुहावरा है ही नहीं। पर मैं भी क्‍या कर सकता हूं। जब से मैंने पहली श्‍वास ली है तब से अब तक सब ठीक चलता रहा है। आशा है कि आगे भी यह क्रम इसी प्रकार चलता रहेगा। उसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा, क्‍योंकि यही उसका ढंग बन गया है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-32)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-31)

मस्‍तो बाबा से मिलन–(सत्र-इक्कतिसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

पागल बाबा अपने अंतिम दिनों में हमेशा कुछ चिंतित रहते थे। मैं यह देख सकता था, हालांकि उन्‍होंने कुछ कहा नहीं था, न ही किसी और ने इसका उल्‍लेख किया था। शायद किसी और को इसका अहसास भी नहीं था कि वे चिंतित थे। अपनी बीमारी, बुढ़ापा या आसन्‍न मृत्‍यु के बारे में तो निशचित ही उन्‍हें कोई फ़िकर नहीं थी। उनके लिए इनका कोई महत्‍व नहीं था।

एक रात मैं जब उनके साथ अकेला था, मैंने उनसे पूछा, सच तो यह है कि मुझे आधी रात को उन्‍हें नींद से जगाना पड़ा, क्‍योंकि ऐसा कोई क्षण खोजना जब उनके पास कोई न हो बहुत ही कठिन था। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-31)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-30)

विजय भैया….मेरे लक्ष्‍मण-(सत्र–तीसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

मैं पागल बाबा और उन तीन बांसुरी वादकों के बारे में बता रहा था। जिनसे उन्‍होंने मुझे परिचित करवाया था। अभी भी वह याद बड़ी सुंदर और ताजा है। कि वे किस प्रकार से इन लोगों से मेरा परिचय कराते थे—विशेषत: उनसे जो बहुत सम्‍मानित थे, जिनको बहुत आदर दिया जाता था। सबसे पहले वे उनसे कहते, ‘ इस लड़के के पैर छुओ।‘

मुझे याद है कैसे विभिन्‍न प्रकार से लोग प्रतिक्रिया करते थे। और बाद में हम दोनों कैसे हंसते थे। पन्‍ना लाल घोष को मुझसे परिचित करवाया गया था। कलकत्ता में, उनके अपने घर में। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-30)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-29)

पागल बाब एक रहस्‍य–(सत्र–उन्नतीसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

सारी रात हवा पेड़ों में से सरसराती हुई बहती रही। यह आवाज इतनी अच्‍छी लगी कि मैंने पन्‍ना लाल घोष के संगीत को सुना। उन बांसुरी वादकों में से जिनको पागल बाबा ने मुझसे परिचित करवाया था। अभी-अभी मैं उनके संगीत को सुन रहा था। उनका बांसुरी बजाने का ढंग अपना ही है। उनकी प्रस्‍तावना बहुत लंबी होती है। गुड़िया ने जब मुझे बुलाया तो अभी भूमिका ही चल रही था—मेरा मतलब है कि तब तक उन्‍होने अपनी बांसुरी को बजाना आरंभ नहीं किया था। सितार और तबला उनकी बांसुरी के बजने की पृष्‍ठभूमि तैयार कर रहे थे। पिछली रात शायद दो साल के बाद मैंने उनके संगीत को दुबारा सुनी। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-29)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-28)

पन्‍न लाल घोष और सचदेवा-(सत्र–अट्ठठाईसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

अभी-अभी मैं फिर सुन रहा था—हरी प्रसाद चौरासिया को नहीं, बल्‍कि एक दूसरे बांसुरी वादक को। भारत मैं बांसुरी के दो आयाम है: एक दक्षिणी और दूसरा उत्‍तरी। हरी प्रसाद चौरासिया उत्‍तरी बांसुरी वादक है। मैं ठीक इसके उलटे, आयाम, दक्षिणी को सुन रहा था। इस आदमी से भी मेरा परिचय पागल बाबा ने ही करवाया था। मेरा परिचय देते हुए उन्‍होंने उस संगीतज्ञ से कहा: शायद यह तुम्‍हारी समझ में नहीं आएगा कि मैं इस लड़के से तुम्‍हारा परिचय क्‍यों करा रहा हूँ। अभी तो तुम्‍हारी समझ में नहीं आएगा, लेकिन शायद एक दिन प्रभु-इच्‍छा से तुम समझ जाओगे। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-28)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-27)

पागल बाबा और हरी प्रसाद-(सत्र–सत्ताईसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

यहां आने से पहले मैं सुप्रसिद्ध बांसुरी वादकों में से एक, हरि प्रसाद की बांसुरी सुन रहा था। इससे बहुत सी यादें ताजा हो गई।

संसार में अनेक प्रकार की बांसुरियां हैं। सबसे महत्‍वपूर्ण अरबी है और सबसे सुंदर है जापानी—ओर, और भी कई है। लेकिन भारत की छोटी सा बांस की बांसुरी की मधुरता की तुलना दुसरी कोई बांसुरी नहीं कर सकती। और बांसुरी वादक का जहां तक सवाल है तो उस पर तो हरि प्रसाद का पूर्ण अधिकार है। उन्‍होंने एक बार नहीं, कई बार मेरे सामने बांसुरी बजाईं है। जब कभी उनके भीतर पूरी तरह डूब कर, उच्‍चतम बांसुरी बजाने का भाव उठता तो मैं जहां कही भी होता वे वहां आ जाते—कभी-कभी तो हजारों मील का सफर तय करके मेरे पास पहुंचते, सिर्फ अकेले में घंटे भर मुझे जी भर कर अपनी बांसुरी सुनाने के लिए। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-27)”

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