ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-06)

जीवन जीने का नाम है-(प्रवचन-छट्ठवां)

छठवां प्रवचन; दिनांक २६ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

ऋतस्य यथा प्रेत।

अर्थात प्र्राकृत नियमों के अनुसार जीओ।

यह सूत्र ऋग्वेद का है।

भगवान, हमें इसका अभिप्रेत समझाने की कृपा करें।

आनंद मैत्रेय

यह सूत्र अपूर्व है। इस सूत्र में धर्म का सारा सार-निचोड़ है। जैसे हजारों गुलाब के फूलों का कोई इत्र निचोड़े, ऐसा हजारों प्रबुद्ध पुरुषों की सारी अनुभूति इस एक सूत्र में समायी हुई है। इस सूत्र को समझा तो सब समझा। कुछ समझने को फिर शेष नहीं रह जाता। Continue reading “ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-06)”

ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-05)

सत्य की कसौटी -(प्रवचन-पांचवां)

दिनांक 25 सितंबर, 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

मनुस्मृति का यह बहुत लोकप्रिय श्लोक है:

सत्यं ब्रूयात्प्रिंयं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम।

प्रियं च नानृतं बू्रयादेष धर्म: सनातनः।।

अर्थात मनुष्य सत्य बोले, प्रिय बोले, अप्रिय सत्य को न बोले, और असत्य प्रिय को भी न बोले। यह सनातन धर्म है।

भगवान, इस पर कुछ कहने की कृपा करें।

शरणानंद,

मनुस्मृति इतने असत्यों से भरी है कि मनु हिम्मत भी कर सके हैं इस सूत्र को कहने की, यह भी आश्चर्य की बात है। मनुस्मृति से ज्यादा पाखंडी कोई शास्त्र नहीं है। भारत की दुर्दशा में मनुस्मृति का जितना हाथ है, किसी और का नहीं। मनुस्मृति ने ही भारत को वर्ण दिए हैं। शूद्रों का यह जो महापाप भारत में घटित हुआ है, जैसा पृथ्वी में कहीं घटित नहीं हुआ, उसके लिए कोई जिम्मेवार है तो मनु जिम्मेवार हैं। यह मनुस्मृति की शिक्षा का ही परिणाम है, क्योंकि मनुस्मृति है हिंदु धर्म का विधान। वह हिंदु धर्म की आधारशिला है। Continue reading “ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-05)”

ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-04)

ध्यान पर ही ध्यान दो-(प्रवचन-चौथा)

दिनांक 24 सितंबर, 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न:भगवान,

यह एक प्रचलित श्लोक है:

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।

परोपकार: पुण्याय पापाय परपीड़न।।

अठारह पुराणों में व्यास के दो वचन ही मुख्य हैं–परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप।

भगवान, इस पर कुछ कहने की कृपा करें।

शरणानंद,

यह सूत्र निश्चित ही बहुत विचारणीय है, क्योंकि इस देश का सारा आधार इसी सूत्र पर निर्भर है। Continue reading “ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-04)”

ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-03)

अंतर्यात्रा पर निकलो-(प्रवचन-तीसरा)

दिनांक 23 सितंबर, 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

अथर्ववेद में एक ऋचा है–

पृष्ठात्पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहम्

अन्तरिक्षाद्दि विमारूहम्, दिवोनाकस्य

पृष्ठात्ऽ सर्‌वज्योतिरगामहम्।

अर्थात हम पार्थिव लोक से उठ कर अंतरिक्ष लोक में आरोहण करें, अंतरिक्ष लोक से ज्योतिष्मान् देवलोक के शिखर पर पहुंचें, और ज्योतिर्मय देवलोक से अनंत प्रकाशमान ज्योतिपुंज में विलीन हो जाएं।

 भगवान कृपया बताएं कि ये लोक क्या हैं और कहां हैं? Continue reading “ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-03)”

ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-02)

जगत सत्य बह्म सत्य -(दूसरा-प्रवचन)

दिनांक 22 सितंबर, 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

आदिगुरु शंकराचार्य के “जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य’ सूत्र का खंडन करते हुए आपने कहा कि जगत भी सत्य है और ब्रह्म भी सत्य है। लेकिन सत्य की परिभाषा है–वह, जो कि नश्वर नहीं है। इसलिये जगत जो कि नश्वर है, सत्य कैसे होगा? मिथ्या ही होगा। ब्रह्म अनश्वर है, इसलिए सत्य है।

आपसे अनुरोध है कि सत्य की परिभाषा करते हुए इस पहलू पर प्रकाश डालें।

पंडित ब्रह्मप्रकाश,

बड़े भाग्य कि आप भी इस मयकदे में पधारे! ऐसे तो मयकदे में आना अच्छी बात नहीं है और आ ही गये हैं तो बिना पीए जाना अच्छी बात नहीं है। जाम हाजिर है। जी भर कर पी कर लौटें। Continue reading “ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-02)”

ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-01)

अपने-अपने काराग्रह-(पहला प्रवचन)

दिनांक २१ सितंबर, १९8०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

संत रज्जब ने क्या हम सोए हुए लोगों को देख कर ही कहा है: ज्यूं मछली बिन नीर। समझाने की अनुकंपा करें।

नरेंद्र बोधिसत्व,

और किसको देख कर कहेंगे? सोए लोगों की जमात ही है। तरहत्तरह की नींदें हैं। अलग-अलग ढंग हैं सोए होने के। कोई पद की शराब पी कर सोया है। लेकिन सारी मनुष्यता सोयी हुईं है। जिन्हें तुम धार्मिक  कहते हो वे भी धार्मिक नहीं है, क्योंकि बिना जागे कोई धार्मिक नहीं हो सकता है। हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं–लेकिन धार्मिक मनुष्य का कोई पता नहीं चलता। धार्मिक मनुष्य हो तो हिंदू नहीं हो सकता है। ये सब सोए होने के ढंग हैं। कोई मस्जिद में सोया हुआ है, कोई मंदिर में सोया है। Continue reading “ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-01)”

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-10)

बुद्धत्व और पांडित्य-(प्रवचन-दसवां)

दसवां प्रवचन; दिनांक २० सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

किसी को चैन से देखा न दुनिया में कभी मैंने।

इसी हसरत में कर दी खतम सारी जिंदगी मैंने।।

कहते हैं लोग मौत से भी बदतर हैं इंतिजार।

बस राह देखते ही गुजारी जिंदगी मैंने।।

उठाए क्यों लिए जाते हो मुझको बागे-दुनिया से।

नहीं देखी है दिल भर के बहारे जिंदगी मैंने।।

लोग घबरा कर यूं ही कह देते हैं कि मर जाएं।

मर के भी लेकिन सुकूं पाते नहीं देखा मैंने।। Continue reading “ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-10)”

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-09)

आचरण नहीं–बोध से क्रांति-(प्रवचन-नौवां)

नौवां प्रवचन; दिनांक १९ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

जमाना हो गया घायल

तेरी सीधी निगाहों से

खुदा ना खासता तिरछी

नजर होती तो क्या होता?

मुहम्मद हुसैन!

सीधी नजर काफी हो, तो तिरछी नजर की जरूरत क्या! और सीधे-सीधे जो काम हो जाए, वह तिरछे होने से नहीं होता। तिरछा होना तो मन की आदत है; सीधा होना हृदय का स्वभाव।

मैं जो कह रहा हूं, वह दो और दो चार जैसा सीधा-साफ है। जिसकी समझ में न आए, उसकी समझ तिरछी होगी, उसके भीतर विकृतियों का जाल होगा। अगर तुम्हारे पास भी सीधा-सादा हृदय हो, तो मेरी बात का तीर ठीक निशाने पर पहुंच ही जाएगा, पहुंच ही जाना चाहिए। प्रेम से सुनोगे तो सुनते-सुनते ही क्रांति घट जाएगी। Continue reading “ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-09)”

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-08)

इक साधे सब सधै-(प्रवचन-आठवां)

आठवां प्रवचन; दिनांक १८ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, योगवासिष्ठ में यह श्लोक है:

न यथा यतने नित्यं यदभावयति यन्मयः।

यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति नान्यथा।।

मनुष्य नित्य जैसा यत्न करता है, तन्मय हो कर जैसी भावना करता है, और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है; अन्यथा नहीं।

भगवान, क्या ऐसा ही है?

सहजानंद!

ऐसा जरा भी नहीं है। यह सूत्र आत्मसम्मोहन का सूत्र है–आत्मजागरण का नहीं। कुछ होना नहीं है। जो तुम हो उसे आविष्कृत करना है। कोहिनूर को कोहिनूर नहीं होना है, सिर्फ उघड़ना है। कोहिनूर तो है। जौहरी की सारी चेष्टा कोहिनूर को निखारने की है–बनाने की नहीं। कोहिनूर पर परतें जम गई होंगी–मिट्टी की उन्हें धोना है। कोहिनूर को चमक देनी है, पहलू देने हैं। Continue reading “ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-08)”

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-07)

दुख से जागो-(प्रवचन-सातवां)

सातवां प्रवचन; दिनांक १७ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, श्रीमदभागवत में यह श्लोक है:

यश्च मूढ़तमो लोके यश्च बुद्धे: परं गतः।

तावुभौ सुखमेघेते क्लिश्यत्यंतरितो जनः।।

संसार में जो अत्यंत मूढ़ है और जो परमज्ञानी है, वे दोनों सुख में रहते हैं। परंतु जो दोनों की बीच की स्थिति में है, वह क्लेश को प्राप्त होता है।

क्या ऐसा ही है भगवान?

आनंद मैत्रेय!

निश्चय ही ऐसा ही है। मूढ़ का अर्थ है–सोया हुआ, जिसे होश नहीं। जी रहा है, लेकिन पता नहीं क्यों! चलता भी है, उठता भी है, बैठता भी है–यंत्रवत! जिंदगी कैसे गुजर जाती है, जन्म कब मौत में बदल जाता है, दिन कब रात में ढल जाता है–कुछ पता ही नहीं चलता। जो इतना बेहोश है, उसे दुख का बोध नहीं हो सकता। बेहोशी में दुख का बोध कहां! झेलता है दुख, पर बोध नहीं है, इसलिए मानता है कि सुखी हूं। Continue reading “ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-07)”

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-06)

गुरु कुम्हार, शिष्य कुंभ है-(प्रवचन-छट्ठवां)

छठवां प्रवचन; दिनांक १६ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, मैं ध्यान क्यों करूं?

दिवाकर भारती!

जीवन में कुछ चीजें हैं, जो साधन नहीं–साध्य हैं। और बहुत चीजें हैं, जो साधन हैं–साध्य नहीं। पूछा जा सकता है कि मैं धन क्यों अर्जित करूं। नहीं पूछा जा सकता कि मैं ध्यान क्यों करूं। क्योंकि धन साधन है–क्यों का उत्तर हो सकता है।

धन की कोई उपयोगिता है; ध्यान की कोई उपयोगिता नहीं है। ध्यान अपने आप में साध्य है–जैसे प्रेम। कोई पूछे कि मैं प्रेम क्यों करूं! क्या उत्तर होगा? प्रेम! क्यों का प्रश्न ही नहीं; हेतु की बात ही नहीं; अंतरभाव है। जैसे फूल में सुगंध है; क्यों की कोई बात नहीं। ऐसे हृदय का फूल खिलता है, तो प्रेम की सुगंध उठती है। Continue reading “ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-06)”

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-05)

जागो-डूबो-(प्रवचन-पांचवां)

पांचवां प्रवचन; दिनांक १५ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, अहमक अहमदाबाद मिल गया। वही मारवाड़ी चंदूलाल का पिता और ढब्बूजी का चाचा! लेकिन है बहुरूपी। देखती हूं–अदृश्य हो जाता है। अचानक दूसरे रूप में प्रकट होता है। इसकी लीला विचित्र है। जन्मों-जन्मों से स्वामी बन कर बैठा है। अब तो मैं थकी। बूढ़ा, कुरूप, गंदा–पीछा नहीं छोड़ता। आपके सामने होते हुए भी आपसे मिलने नहीं देता। आपके प्रेम-सागर में डूबने नहीं देता। जीवन सौंदर्य की उड़ान नहीं लेने देता। इसी के कारण मैं विरह अग्नि में जली जा रही हूं। मैं असहाय, असमर्थ हूं। Continue reading “ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-05)”

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-04)

संन्यास, सत्य और पाखंड-(प्रवचन-चौथा)

चौथा प्रवचन; दिनांक १४ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, जीवन की शुरुआत से सभी को यही शिक्षा मिलती रहती है कि सच बोलो। अच्छे काम करो। हिंसा न करो। पाप न करो। लेकिन हम संन्यासी तो इसी रास्ते पर जाने की कोशिश करते हैं, फिर हमारा विरोध क्यों? इस विरोधाभास को समझाने की कृपा करें।

रजनीकांत!

मनुष्यजाति आज तक विरोधाभास में ही जी रही है। इस विरोधाभास को ठीक से समझो, तो मुक्त भी हो सकते हो।

विरोधाभास यह है कि जो तुम से कहते हैं–सत्य बोलो, वे भी सत्य नहीं बोल रहे हैं। उनका जीवन कुछ और कहता है। उनकी वाणी कुछ और कहती है। उनके व्यक्तित्व में पाखंड है। और बच्चों की नजरें बड़ी साफ होती हैं। Continue reading “ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-04)”

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-03)

आचार्यो मृत्युः-(प्रवचन-तीसरा)

दिनांक १३ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, संत सफियान, अब्दुल वहीद आमरी और हसन बसरी राबिया को मिलने गए। उन्होंने कहा, आप साहिबे-इल्म हैं। कृपा कर हमें कोई सीख दें। राबिया ने सफियान को एक मोमबत्ती, अब्दुल वहीद आमरी को एक सुई और हसन को अपने सिर का एक बाल दिया और वे बोलीं, लो, समझो!

भगवान, इस पर सूफी लोग अपना मंतव्य प्रकट करते हैं। प्रभु जी! आप इस पर कुछ कहें कि राबिया ने वे चीजें देकर उन तीनों को क्या सीख दी?

दिनेश भारती!

राबिया बहुत इने-गिने रहस्यवादियों में एक है; गौरीशंकर के शिखर की भांति। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट और लाओत्सू, जरथुस्त्र–उस कोटि में थोड़ी-सी ही स्त्रियों को रखा जा सकता है। राबिया उनमें अग्रगण्य है। Continue reading “ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-03)”

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-02)

संस्कृति का आधार: ध्यान-(प्रवचन-दूसरा)

दूसरा प्रवचन; दिनांक १२ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न : भगवान, भारतीय संस्कृति संसद अपने पच्चीस वर्ष पूरे कर रही है, उसके उपलक्ष्य में डाक्टर प्रभाकर माचवे ने आपको चिंतक, विचारक और मनीषी का संबोधन देते हुए भारतीय संस्कृति ग्रंथ के लिए आपके विचार आमंत्रित किए हैं, जिसे वे ग्रंथ के प्रारंभ में प्रकाशित करके धन्यता अनुभव करेंगे।

भगवान, निवेदन है कि कुछ कहें!

चैतन्य कीर्ति!

मैं न तो चिंतक हूं, न विचारक, न मनीषी। चिंतन को हम बहुत मूल्य देते हैं; विचारक को हम बड़ा सौभाग्य समझते हैं; मनीषा तो हमारी दृष्टि में जीवन का चरम शिखर है। Continue reading “ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-02)”

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-01)

स्वभाव में थिरता-(प्रवचन-पहला)

पहला प्रवचन; दिनांक ११ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, आज प्रारंभ होने वाली प्रवचनमाला को जो शीर्षक मिला है, वह बहुत अनूठा और बेबूझ है–ज्यूं था त्यूं ठहराया! भगवान, हमें इस सूत्र का अर्थ समझाने की अनुकंपा करें।

आनंद मैत्रेय!

यह सूत्र निश्चय ही अनूठा है और बेबूझ है। इस सूत्र में धर्म का सारा सार आ गया है–सारे शास्त्रों का निचोड़। इस सूत्र के बाहर कुछ बचता नहीं। इस सूत्र को समझा, तो सब समझा। इस सूत्र को जीया, तो सब जीया। Continue reading “ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रवचन-01)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–08)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-आठवां-(योग: कर्म की कुशलता)

प्रश्न: क्या ध्यान का परिणाम केवल धर्म-जीवन के लिए ही उपयोगी है अथवा उसका परिणाम रोज के व्यावहारिक जीवन में भी उपयोगी है? कृपया यह समझाएं।

मूलतः तो धर्म के लिए ही उपयोगी है। लेकिन धर्म व्यक्ति की आत्मा है। और उस आत्मा में परिवर्तन हो, तो व्यवहार अपने आप बदलता ही है। भीतर बदले, तो बाहर बदलाहट आती है। वह बदलाहट लेकिन छाया की भांति है, परिणाम की भांति है। वह पीछे चलती है। जैसे हम किसी से पूछें कि कोई आदमी दौड़े, तो आदमी ही दौड़ेगा या उसकी छाया भी दौड़ेगी? ऐसा ही यह सवाल है। आदमी दौड़ेगा तो छाया तो दौड़ेगी ही। हां, इससे उलटा नहीं हो सकता कि छाया दौड़े तो आदमी दौड़ेगा क्या? पहली तो बात छाया दौड़ नहीं सकती। और अगर दौड़े भी, तो भी आदमी के उसके पीछे दौड़ने का उपाय नहीं है। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–08)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–07)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-सातवां-(शक्ति के साथ आनंद भी)

इसके पहले कि हम आज की आखिरी बैठक में प्रवेश करें, ध्यान के संबंध में दो-चार बातें पूछी गई हैं, वह समझ लेना उचित होगा।

एक मित्र ने पूछा है कि घर जाकर हम कैसे इस विधि का उपयोग कर सकेंगे? पास-पड़ोस के लोगों को आवाज, चिल्लाना अजीब सा मालूम होगा। घर के लोगों को भी अजीब सा मालूम होगा।

होगा ही। लेकिन घर के लोगों से भी प्रार्थना कर लें, पास-पड़ोस के लोगों से भी प्रार्थना कर आएं कि एक घंटा मैं ऐसी विधि कर रहा हूं। इस विधि से चिल्लाना, रोना, हंसना, नाचना होगा। आपको तकलीफ हो तो माफ करेंगे। और घर के लोगों को भी निवेदन कर दें। तो ज्यादा अड़चन नहीं होगी।

और एक-दो दिन में लोग परिचित हो जाते हैं, फिर कठिनाई नहीं होती। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–07)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–06)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-छट्ठवां-(यही है मार्ग प्रभु का)

मेरे प्रिय आत्मन्!

इसके पहले कि हम ध्यान के प्रयोग में संलग्न हों, एक-दो बातें आपसे कह देनी उचित हैं। आज शिविर का आखिरी दिन है। दो दिनों में बहुत से मित्रों ने पर्याप्त संकल्प का प्रमाण दिया है। शायद थोड़े से ही लोग हैं जो पीछे रह गए हैं। आशा करता हूं कि आज वे भी पीछे नहीं रह जाएंगे। एक-दो मित्र ऐसी स्थिति में आ गए हैं कि आपको परेशानी मालूम पड़ी होगी। लेकिन उससे परेशान न हों। मनुष्य के भीतर नई शक्तियों का जन्म होता है तो सब अस्तव्यस्त और अराजक हो जाता है। इसके पहले कि नई व्यवस्था उपलब्ध हो, बीच में एक संक्रमण का समय होता है, तब करीब-करीब उन्माद की अवस्था जैसी मालूम पड़ती है। लेकिन वह उन्माद नहीं है, वह शिविर के साथ ही विदा हो जाएगा। उससे कोई चिंता न लें। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–06)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–05)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-पांचवां-(ध्यान का अनिवार्य तत्व: होश)

बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि रात्रि का ध्यान का प्रयोग क्या एकाग्रता का ही प्रयोग नहीं है? और इस प्रयोग के क्या परिणाम होंगे और क्या आधार हैं?

एकटक आंख को खुली रखना, पहले तो संकल्प का प्रयोग है, आंख को बंद नहीं होने देना। आंख को बंद नहीं होने देना, यह संकल्प का प्रयोग है, विल-पावर का प्रयोग है। और अगर चालीस मिनट तक आंख खुली रख सकते हैं, तो इसके बड़े व्यापक परिणाम होंगे। चालीस मिनट मनुष्य के मन की क्षमता का समय है। इसलिए हम स्कूल में, कालेज में चालीस मिनट का पीरिएड रखते हैं। चालीस मिनट जो काम हो सकता है पूरा, फिर वह कितना ही आगे किया जा सकता है। अगर आप चालीस मिनट तक आंख खुली रख सकते हैं, यह छोटा सा संकल्प पूरा हो सकता है, तो इसके बहुत परिणाम होंगे। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–05)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–04)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-चौथा-(अमृत का सागर)

मनुष्य का जीवन बाहर अंधेरे से भरा हुआ है, लेकिन भीतर प्रकाश की कोई सीमा नहीं है। मनुष्य के जीवन की बाहर की परिधि पर मृत्यु है, लेकिन भीतर अमृत का सागर है। मनुष्य के जीवन के बाहर बंधन हैं, लेकिन भीतर मुक्ति है। और जो एक बार भीतर के आनंद को, आलोक को, अमृत को, मुक्ति को जान लेता है, उसके बाहर भी फिर बंधन, अंधकार नहीं रह जाते हैं। हम भीतर से अपरिचित हैं तभी तक जीवन एक अज्ञान है।

ध्यान भीतर से परिचित होने की प्रक्रिया है।

ध्यान मार्ग है स्वयं के भीतर उतरने का। ध्यान सीढ़ी है स्वयं के भीतर उतरने की। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–04)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–03)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)ओशो

प्रवचन-तीसरा-(संकल्प : संघर्ष का विसर्जन)

मेरे प्रिय आत्मन्!

थोड़े से प्रश्न साधकों ने पूछे हैं, उस संबंध में हम बात करेंगे।

एक मित्र ने पूछा है कि संकल्प की साधना में क्या थोड़ा सा दमन, सप्रेशन नहीं आ जाता है? संकल्प की साधना में क्या थोड़ा काय-क्लेश नहीं आ जाता है?

इस संबंध में दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक, कि यदि किसी वृत्ति को दबाने के लिए संकल्प किया है, तब बात दूसरी है। जैसे किसी आदमी को ज्यादा भोजन की आदत है। इस आदत से छुटकारे के लिए अगर उसने उपवास का संकल्प किया है, तब दमन होगा। लेकिन ज्यादा भोजन की न कोई आदत है, न ज्यादा भोजन से लड़ने का कोई खयाल है। तब यदि उपवास का संकल्प किया है तो वह सिर्फ संकल्प है, उसमें दमन नहीं है। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–03)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–02)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-दूसरा-(ध्यान के संबंध में)

मेरे प्रिय आत्मन्!

ध्यान के संबंध में दोत्तीन बातें हम समझ लें, और फिर प्रयोग के लिए बैठेंगे।

एक बात तो यह समझ लेनी जरूरी है, ध्यान में हम सिर्फ तैयारी करते हैं, परिणाम सदा ही हमारे हाथ के बाहर है। लेकिन यदि तैयारी पूरी है, तो परिणाम भी सुनिश्चित रूप से घटित होता है। परिणाम की चिंता छोड़ कर श्रम की ही हम चिंता करें। और परिणाम की चिंता छोड़ कर पूरी चिंता हम अपने श्रम की कर सकें, तो परिणाम भी सुनिश्चित है। लेकिन परिणाम की चिंता में श्रम भी पूरा नहीं हो पाता और परिणाम भी अनिश्चित हो जाते हैं। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–02)”

जो घर बारे आपना-(प्रवचन–01)

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-पहला–(जीवन के रहस्य की कुंजी)

मेरे प्रिय आत्मन्!

जीवन एक रहस्य है। जिसे हम जीवन जानते हैं, जैसा जानते हैं, वैसा ही सब कुछ नहीं है। बहुत कुछ है जो अनजाना ही रह जाता है। शायद सब कुछ ही अनजाना रह जाता है। जो हम जान पाते हैं वह ऐसा ही है जैसे कोई लहरों को देख कर समझ ले कि सागर को जान लिया। लहरें भी सागर की हैं, लेकिन लहरों को देख कर सागर को नहीं समझा जा सकता। और जो लहरों में उलझ जाएगा वह सागर तक पहुंचने का शायद मार्ग भी न खोज सके। असल में जिसने लहरों को ही सागर समझ लिया, उसके लिए सागर की खोज का सवाल भी नहीं उठता। Continue reading “जो घर बारे आपना-(प्रवचन–01)”

जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–05)

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर)–ओशो

साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक 12 दिसंबर, 1969; रात्रि.

प्रवचन-पांचवां  

मेरे प्रिय आत्मन् ,

जीवन ही है प्रभु, इस संबंध में और बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।

एक मित्र ने पूछा है–बुराई को मिटाने के लिए, अशुभ को मिटाने के लिए, पाप को मिटाने के लिए विधायक मार्ग क्या है? पाजिटिव रास्ता क्या है? क्या ध्यान और आत्मलीनता में जाने से बुराई मिट सकेगी?

ध्यान और आत्मलीनता तो एक तरह का पलायन, एस्केप है, जिंदगी से भागना है। ऐसा कोई मार्ग, विधायक, सृजनात्मक, जो भागना न सिखाता हो, जीना सिखाता हो, उस संबंध में कुछ कहें? Continue reading “जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–05)”

जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–04)

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर)–ओशो

साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक 11 दिसंबर, 1969; रात्रि.

प्रवचन-चौथा

मेरे प्रिय आत्मन् ,

‘जीवन ही है प्रभु’ इस संबंध में एक मित्र ने पूछा है, कैसे दिखाई पड़े फिर हमें कि जीवन ही प्रभु है। क्योंकि हमें तो चारों ओर दोष ही दिखायी पड़ते हैं। सबमें दोष दिखायी पड़ते हैं। ‘क्यों दिखाई पड़ते हैं सबमें दोष?’ इस संबंध में उन्होंने पूछा है।

प्रभु की खोज में एक सूत्र यह भी है, इसलिए इसे समझ लेना जरूरी है। निश्चित ही दोष दिखायी पड़ते हैं दूसरों में। कारण क्या है? कारण है सिर्फ एक–अपने अहंकार की तृप्ति। दूसरे में दोष दिखायी पड़ता है। दूसरे में दोष की खोज चलती है। उसका राज छोटा-सा है। Continue reading “जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–04)”

जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–03)

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर)–ओशो

साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक 10 दिसंबर, 1969; रात्रि.

प्रवचन-तीसरा

मेरे प्रिय आत्मन् ,

एक मित्र ने पूछा है कि यदि ध्यान से जीवन में शांति हो जाती है, तो फिर ध्यान सारे देश में फैल क्यों नहीं जाता है?

पहली बात तो यह कि बहुत कम लोग हैं पृथ्वी पर जो शांत होना चाहते हैं। शांत होना बहुत कठिन है। असल में शांति की आकांक्षा को उत्पन्न करना ही बहुत कठिन है। और कठिनाई शांति में नहीं है। कठिनाई इस बात में है कि जब तक कोई आदमी ठीक से अशांत न हो जाये तब तक शांति की आकांक्षा पैदा नहीं होती। पूरी तरह अशांत हुए बिना कोई शांत होने की यात्रा पर नहीं निकलता है। और हम पूरी तरह अशांत नहीं हैं। यदि हम पूरी तरह अशांत हो जायें तो हमें शांत होना ही पड़े। लेकिन हम इतने अधूरे जीते हैं कि शांति तो बहुत दूर, अशांति भी पूरी नहीं हो पाती। Continue reading “जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–03)”

जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–02)

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर)–ओशो

साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक 10 दिसंबर, 1969; प्रात्य.

प्रवचन-दूसरा

ध्यान के संबंध में थोड़ी सी बातें समझ लेनी जरूरी हैं। क्योंकि बहुत गहरे में तो समझ का ही नाम ध्यान है।

ध्यान का अर्थ है–समर्पण। ध्यान का अर्थ है–अपने को पूरी तरह छोड़ देना परमात्मा के हाथों में। ध्यान कोई क्रिया नहीं है, जो आपको करनी है। ध्यान का अर्थ है–कुछ भी नहीं करना है और छोड़ देना है उसके हाथों में, जो कि सचमुच ही हमें सम्हाले हुए हैं। Continue reading “जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–02)”

जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–01)

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर)–ओशो

साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक 09 दिसंबर, 1969; रात्रि.

प्रवचन-पहला-(प्रभु की खोज)

मेरे प्रिय आत्मन् ,

जीवन के गणित के बहुत अदभुत सूत्र हैं। पहली अत्यंत रहस्य की बात तो यह है कि जो निकट है वह दिखायी नहीं पड़ता, जो और भी निकट है, उसका पता भी नहीं चलता। और मैं जो स्वयं हूं उसका तो स्मरण भी नहीं आता। जो दूर है वह दिखायी पड़ता है। जो और दूर है और साफ दिखायी पड़ता है। जो बहुत दूर है वह निमंत्रण भी देता है, बुलाता भी है, पुकारता भी है। Continue reading “जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–01)”

जीवन संगीत-(प्रवचन–09)

जीवन संगीत-(साधना-शिविर)–ओशो

नौवां-प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

तीन दिनों की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न मित्रों ने भेजे हैं। जितने प्रश्नों के उत्तर संभव हो सकेंगे, मैं देने की कोशिश करूंगा।

एक मित्र ने पूछा है कि आप नये विचारों की क्रांति की बात कहते हैं। क्या अब भी कभी हो सकता है जो पहले नहीं हुआ है? इस पृथ्वी पर सभी कुछ पुराना है, नया क्या है?

इस संबंध में जो पहली बात आपसे कहना चाहता हूं, वह यह कि इस पृथ्वी पर सभी कुछ नया है, पुराना क्या है? पुराना एक क्षण नहीं बचता, नया प्रतिक्षण जन्म लेता है। पुराने का जो भ्रम पैदा होता है, इसलिए पैदा होता है, कि हम दो के बीच जो अंतर है, उसे नहीं देख पाते। Continue reading “जीवन संगीत-(प्रवचन–09)”

जीवन संगीत-(प्रवचन–08)

जीवन संगीत-(साधना-शिविर)–ओशो

आठवां-प्रवचन

मैंने कहा है कि क्रांति तो एक विस्फोट है। सडन एक्सप्लोजन है। और फिर मैं ध्यान की प्रक्रिया और अभ्यास के लिए कहता हूं कि इन दोनों में विरोध नहीं है? नहीं, इन दोनों में विरोध नहीं है।

यदि मैं कहूं कि पानी जब भाप बनता है, तो एक विस्फोट है, सौ डिग्री पर पानी भाप बन जाता है। और फिर मैं किसी से कहूं कि पानी को धीरे-धीरे गरम करो, ताकी वह भाप बन जाए। वह आदमी मुझसे कहे कि आप तो कहते हैं, पानी एकदम से भाप बन जाता है। फिर हम धीरे-धीरे गरम करने का अभ्यास क्यों करें? Continue reading “जीवन संगीत-(प्रवचन–08)”

जीवन संगीत-(प्रवचन–07)

जीवन संगीत-(साधना-शिविर)–ओशो

सातवां–प्रवचन

तीन दिन की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि यदि आत्मा सब सुख-दुख के बाहर है, तो दूसरों की आत्माओं की शांति के लिए जो प्रार्थनाएं की जाती है, उनका क्या उपयोग है?

यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है और समझना उपयोगी होगा। पहली तो बात यह है कि आत्मा निश्चय ही सब सुख-दुखों सब शांतियों, अशांतियों, सब राग द्वेषों मूलतः सभी तरह के द्वंद्व और द्वैत के अतीत है। Continue reading “जीवन संगीत-(प्रवचन–07)”

जीवन संगीत-(प्रवचन–06)

जीवन संगीत-(साधना-शिविर)–ओशो

छठवां–प्रवचन

सत्य की खोज में, उसे जानने की दिशा में, जिसे जान कर फिर कुछ और जानने को शेष नहीं रह जाता है। और उसे पाने के लिए; जिसे पाए बिना हम ऐसे तड़फते हैं, जैसे कोई मछली पानी के बाहर, रेत पर फेंक दी गई हो। और जिसे पा लेने के बाद हम वैसे ही शांत और आनंदित हो जाएं, जैसे मछली सागर में वापस पहुंच गई हो। उस आनंद, उस अमृत की खोज में, एक और दिशा और द्वार की चर्चा आज की संध्या में करूंगा।

सत्य को खोजने का उपकरण क्या है? रास्ता क्या है? साधन क्या है? मनुष्य के पास एक ही साधन मालूम पड़ता है विचार। एक ही शक्ति मालूम पड़ती है कि मनुष्य सोचे और खोजे। Continue reading “जीवन संगीत-(प्रवचन–06)”

जीवन संगीत-(प्रवचन–05)

जीवन संगीत-(साधना-शिविर)–ओशो

पांचवां-प्रवचन

…ताकि पूरे प्रश्नों के उत्तर हो सकें। सबसे पहले तो एक मित्र ने पूछा है कि कल मैंने कहा कि खोज छोड़ देनी है। और अगर खोज हम छोड़ दें, फिर तो विज्ञान का जन्म नहीं हो सकेगा।

मैंने जो कहा है, खोज छोड़ देनी है, वह कहा है उस सत्य को पाने के लिए जो हमारे भीतर है। खोज करनी व्यर्थ है, बाधा है। लेकिन हमारे बाहर भी सत्य है। और हम से बाहर जो सत्य है, उसे बिना तो खोज के कभी नहीं पाया जा सकता। Continue reading “जीवन संगीत-(प्रवचन–05)”

जीवन संगीत-(प्रवचन–04)

जीवन संगीत-(साधना-शिविर)–ओशो

चौथा-प्रवचन

प्रिय आत्मन्!

मनुष्य दुख में है और सुख की केवल कल्पना करता है। मनुष्य अज्ञान में है और ज्ञान की केवल कल्पना करता है। मनुष्य ठीक अर्थों में जीवित नहीं है। जीवन की केवल कल्पना करता है।

आज की सुबह की इस बैठक में इस संबंध में मैं कुछ कहना चाहूंगा कि हम जो कल्पना करते हैं, उसके कारण ही हम जो हो सकते हैं, वह नहीं हो पाते हैं। Continue reading “जीवन संगीत-(प्रवचन–04)”

जीवन संगीत-(प्रवचन–03)

जीवन संगीत-(साधना-शिविर) —ओशो

तीसरा-प्रवचन

एक अदभुत व्यक्ति हुआ, नाम था च्वांगत्सु। रात सोया, एक स्वप्न देखा। स्वप्न देखा कि एक तितली हो गया हूं, फूल-फूल उड़ रहा हूं। सुबह उठा तो बहुत उदास था। मित्र उसके पूछने लगे, कभी उदास नहीं देखा, इतने उदास क्यों हो? दूसरे उदास होते थे, तो पूछते थे राह च्वांगत्सु से, मार्ग पाते थे। और उसे तो कभी किसी ने उदास नहीं देखा था।

च्वांगत्सु ने कहा, क्या बताऊं, क्या फायदा है, एक बहुत उलझन में पड़ गया हूं। रात एक सपना देखा कि मैं तितली हो गया हूं!

मित्र कहने लगे, पागल हो गए हो, इसमें चिंता की क्या बात है? Continue reading “जीवन संगीत-(प्रवचन–03)”

जीवन संगीत-(प्रवचन–02)

जीवन संगीत-(साधना-शिविर) —ओशो

दूसरा-प्रवचन

उसे अनबंधा किया जा सकता है, जो कारागृह में हो, उसे मुक्त किया जा सकता है। जो सोया हो, उसे जगाया जा सकता है। लेकिन जो जागा हो और इस भ्रम में हो कि सो गया हूं, उसे जगाना बहुत मुश्किल है। और जो मुक्त हो और सोचता हो कि बंध गया हूं, उसे खोलना बहुत मुश्किल है। और जिसके आस-पास कोई जंजीरें न हों, और आंख बंद करके सपना देखता हो कि मैं जंजीरों में बंधा हूं और पूछता हो कैसे तोडूं इन जंजीरों को? कैसे मुक्त हो जाऊं? कैसे छुटूं? तो बहुत कठिनाई है।

रात्रि इस संबंध में पहले सूत्र पर मैंने आपसे कुछ कहा। मनुष्य की आत्मा परतंत्र नहीं है और हम उसे परतंत्र माने हुए बैठे हैं। मनुष्य की आत्मा को स्वतंत्र नहीं बनाना है। बस यही जानना है कि आत्मा स्वतंत्र है। Continue reading “जीवन संगीत-(प्रवचन–02)”

जीवन संगीत-(प्रवचन–01)

जीवन संगीत-(साधना-शिविर)  ओशो

पहला-प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

अंधकार का अपना आनंद है, लेकिन प्रकाश की हमारी चाह क्यों? प्रकाश के लिए हम इतने पीड़ित क्यों? यह शायद ही आपने सोचा हो कि प्रकाश के लिए हमारी चाह हमारे भीतर बैठे हुए भय का प्रतीक है। फियर का प्रतीक है।

हम प्रकाश इसलिए चाहते हैं, ताकि हम निर्भय हो सकें। अंधकार में मन भयभीत हो जाता है। प्रकाश की चाह कोई बहुत बड़ा गुण नहीं। सिर्फ अंतरात्मा में छाए हुए भय का सबूत है। भयभीत आदमी प्रकाश चाहता है। और जो अभय है, उसे अंधकार भी अंधकार नहीं रह जाता। अंधकार की जो पीड़ा है, जो द्वंद्व है, वह भय के कारण है। और जिस दिन मनुष्य निर्भय हो जाएगा, उस दिन प्रकाश की यह चाह भी विलीन हो जाएगी। Continue reading “जीवन संगीत-(प्रवचन–01)”

जीवन रहस्‍य-(प्रवचन–13)

जीवन क्‍या है?—(प्रवचन—तैहरवां)

मेरे प्रिय आत्मन्!

जीसस से कोई पूछ रहा था कि आपका जन्म कब : हुआ? तो जीसस ने जो उत्तर दिया वह बहुत हैरानी का है। यहूदियों का एक बहुत पुराना पैगंबर हुआ है अब्राहम, जीसस से कोई दो हजार साल पहले। अब्राहम यहूदियों के इतिहास में पुराने से पुराना नाम है। जीसस ने कहा कि अब्राहम था, उसके भी पहले मैं था।

विश्वास नहीं हुआ होगा सुनने वाले को। क्योंकि विश्वास हमें केवल उसी बात का होता है, जिसका हमें अनुभव हो। बात पहेली ही मालूम पड़ी होगी, क्योंकि अब्राहम के पहले जीसस के होने की कोई संभावना नहीं मालूम होती। शरीर तो हो ही नहीं सकता। लेकिन जीसस जैसा आदमी व्यर्थ ही झूठ बोले, यह भी संभव नहीं है। Continue reading “जीवन रहस्‍य-(प्रवचन–13)”

जीवन रहस्‍य-(प्रवचन–12)

धन्‍य है वे जो सरल है—(प्रवचन—बाहरवां)

क छोटी सी कहानी कहूं और उससे ही अपनी चर्चा शुरू करूं।

एक रात, एक सराय में, एक फकीर आया। सराय भरी हुई थी, रात बहुत बीत चुकी थी और उस गांव के दूसरे मकान बंद हो चुके थे और लोग सो चुके थे। सराय का मालिक भी सराय को बंद करता था, तभी वह फकीर वहां पहुंचा और उसने कहा, कुछ भी हो, कहीं भी हो, मुझे रात भर टिकने के लिए जगह चाहिए ही। इस अंधेरी रात में अब मैं कहां खोजूं और कहां जाऊं! सराय के मालिक ने कहा, ठहरना तो हो सकता है, लेकिन अकेला कमरा मिलना कठिन है। एक कमरा है, उसमें एक मेहमान अभी—अभी आकर ठहरा है, वह जागता होगा, क्या तुम उसके साथ ही उसके कमरे में सो सकोगे? वह फकीर राजी हो गया। एक कमरे में दो मेहमान ठहरा दिए गए। Continue reading “जीवन रहस्‍य-(प्रवचन–12)”

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