एक एक कदम–(प्रवचन-05)

विचार क्रांति की आवश्यकता–(प्रवचन-पांचवां)

एक एक कदम (विविध)-ओशो

मेरे प्रिय आत्मन् ,

एक आदमी परदेस गया, एक ऐसे देश में जहां की वह भाषा नहीं समझता है और न उसकी भाषा ही दूसरे लोग समझते हैं। उस देश की राजधानी में एक बहुत बड़े महल के सामने खड़े होकर उसने किसी से पूछा, यह भवन किसका है? उस आदमी ने कहा, कैवत्सन। उस आदमी का मतलब था: मैं आपकी भाषा नहीं समझा। लेकिन उस परदेसी ने समझा कि किसी ‘कैवत्सन’ नाम के आदमी का यह मकान है। उसके मन में बड़ीर् ईष्या पकड़ी उस आदमी के प्रति जिसका नाम कैवत्सन था। इतना बड़ा भवन था, इतना बहुमूल्य भवन था, हजारों नौकर-चाकर आते-जाते थे, सारे भवन पर संगमरमर था! उसके मन में बड़ीर् ईष्या हुई कैवत्सन के प्रति। और कैवत्सन कोई था ही नहीं! उस आदमी ने सिर्फ इतना कहा था कि मैं समझा नहीं कि आप क्या पूछते हैं। Continue reading “एक एक कदम–(प्रवचन-05)”

एक एक कदम–(प्रवचन-04)

विचार क्रांति की आवश्यकता–(प्रवचन-पांचवां)

एक एक कदम (विविध)-ओशो

मेरे प्रिय आत्मन् ,

एक आदमी परदेस गया, एक ऐसे देश में जहां की वह भाषा नहीं समझता है और न उसकी भाषा ही दूसरे लोग समझते हैं। उस देश की राजधानी में एक बहुत बड़े महल के सामने खड़े होकर उसने किसी से पूछा, यह भवन किसका है? उस आदमी ने कहा, कैवत्सन। उस आदमी का मतलब था: मैं आपकी भाषा नहीं समझा। लेकिन उस परदेसी ने समझा कि किसी ‘कैवत्सन’ नाम के आदमी का यह मकान है। उसके मन में बड़ीर् ईष्या पकड़ी उस आदमी के प्रति जिसका नाम कैवत्सन था। इतना बड़ा भवन था, इतना बहुमूल्य भवन था, हजारों नौकर-चाकर आते-जाते थे, सारे भवन पर संगमरमर था! उसके मन में बड़ीर् ईष्या हुई कैवत्सन के प्रति। और कैवत्सन कोई था ही नहीं! उस आदमी ने सिर्फ इतना कहा था कि मैं समझा नहीं कि आप क्या पूछते हैं। Continue reading “एक एक कदम–(प्रवचन-04)”

एक एक कदम–(प्रवचन-03)

क्या भारत धार्मिक है?  (प्रवचन—तीसरा)

एक एक कदम (विविध)-ओशो

एक बहुत पुराने नगर में उतना ही पुराना एक चर्च था। वह चर्च इतना पुराना था कि उस चर्च में भीतर जाने में भी प्रार्थना करने वाले भयभीत होते थे। उसके किसी भी क्षण गिर पड़ने की संभावना थी। आकाश में बादल गरजते थे, तो चर्च के अस्थिपंजर कंप जाते थे। हवाएं चलती थीं, तो लगता था, चर्च अब गिरा, अब गिरा!

ऐसे चर्च में कौन प्रवेश करता, कौन प्रार्थना करता? धीरे-धीरे उपासक आने बंद हो गए। चर्च के संरक्षकों ने कभी दीवार का पलस्तर बदला, कभी खिड़की बदली, कभी द्वार रंगे। Continue reading “एक एक कदम–(प्रवचन-03)”

एक एक कदम–(प्रवचन-02)

जिज्ञासा साहस और अभीप्सा-(प्रवचन-दूसरा )

एक एक कदम (विविध)-ओशो

अभी-अभी आपकी तरफ आने को घर से निकला। सूर्यमुखी के फूलों को सूर्य की ओर मुंह किए हुए देखा और स्मरण आया कि मनुष्य के जीवन का दुख यही है, मनुष्य की सारी पीड़ा, सारा संताप यही है कि वह अपना सूर्य की ओर मुंह नहीं कर पाता है। हम सारे लोग जीवन भर सत्य की ओर पीठ किए हुए खड़े रहते हैं। सूर्य की ओर जो भी पीठ करके खड़ा होगा उसकी खुद की छाया उसका अंधकार बन जाती है। जिसकी पीठ सूर्य की ओर होगी उसकी खुद की छाया उसके सामने पड़ेगी और उसका मार्ग अंधकारपूर्ण हो जाएगा। और जो सूर्य की ओर मुंह कर लेता है उसकी छाया उसके लिए विलीन हो जाती है तथा उसकी आंखें और उसका रास्ता आलोकित हो जाता है। Continue reading “एक एक कदम–(प्रवचन-02)”

एक एक कदम–(प्रवचन-01)

प्रवचन-पहला

एक एक कदम-ओशो -(विविध)

कोई दो सौ वर्ष पहले, जापान में दो राज्यों में युद्ध छिड़ गया था। छोटा जो राज्य था, भयभीत था; हार जाना उसका निश्चित था। उसके पास सैनिकों की संख्या कम थी। थोड़ी कम नहीं थी, बहुत कम थी। दुश्मन के पास दस सैनिक थे, तो उसके पास एक सैनिक था। उस राज्य के सेनापतियों ने युद्ध पर जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह तो सीधी मूढ़ता होगी; हम अपने आदमियों को व्यर्थ ही कटवाने ले जाएं। हार तो निश्चित है। और जब सेनापतियों ने इनकार कर दिया युद्ध पर जाने से…उन्होंने कहा कि यह हार निश्चित है, तो हम अपना मुंह पराजय की कालिख से पोतने जाने को तैयार नहीं; और अपने सैनिकों को भी व्यर्थ कटवाने के लिए हमारी मर्जी नहीं। मरने की बजाय हार जाना उचित है। मर कर भी हारना है, जीत की तो कोई संभावना मानी नहीं जा सकती। Continue reading “एक एक कदम–(प्रवचन-01)”

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-10)

सावन आया अब के सजन-(प्रवचन-दसवां)

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 10 जनवरी सन् 1979 , ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:

01-     भगवान,

            पल भर में यह क्या हो गया,

            वह मैं गई, वह मन गया!

            चुनरी कहे, सुन री पवन

            सावन आया अब के सजन।

      फिर-फिर धन्यवाद प्रभु!

02-     भगवान, जीवन के हर आयाम में सत्य के सामने झुकना मुश्किल है

      और झूठ के सामने झुकना सरल! ऐसी उलटबांसी क्यों है? Continue reading “उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-10)”

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-09)

वेणु लो, गूंजे धरा-(प्रवचन-नौवां)

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 09 जनवरी सन् 1979,  ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:

01-     भगवान, आपका मूल संदेश क्या है?

02-     भगवान,

            जाने क्या ढूंढती रहती हैं निगाहें मेरी

            राख के ढेर में न शोला है न चिनगारी।

      जिंदगी में है तो बहुत कुछ, लेकिन जीत कर कुछ भी न मिला, कुछ न रहा।

      जिसकी आस किए बैठी हूं, वह बार-बार क्यों फिसल जाता है? Continue reading “उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-09)”

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-08)

मेरी आंखों में झांको-(प्रवचन-आठवां)

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 08 जनवरी सन् 1979,  ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:

01-     भगवान, क्या भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति नहीं है?

02-     भगवान, मनुष्य इतना दुखी और इतना उदास क्यों हो गया है?

03-     भगवान, जनता जिस ईश्वर को पूजती है वह ईश्वर और आपका ईश्वर क्या एक ही है? Continue reading “उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-08)”

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-07)

संन्यास : परमात्मा का संदेश-(प्रवचन-सातवां)

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 07 जनवरी सन् 1979 , ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:

01-     भगवान, उन्नीस सौ चौंसठ के माथेरान शिविर में आपसे प्रथम मिलन हुआ था।

      माथेरान स्टेशन पर जिस प्रेम से आपने मुझे बुलाया था, वे शब्द आज भी कान में गूंजते हैं।

      उन दिन जो आंसू झर-झर बह रहे थे, वे आंसू अब तक आते ही रहते हैं।

      आपको सुनते समय, आपके दर्शन के समय यही स्थिति रहती है।

      आपके साथ रहने का, उठने-बैठने का सौभाग्य काफी सालों तक मिलता रहा है।

      आपसे प्राप्त प्रेम की जो परिपूर्ण अवस्था उस दिन थी वही परिपूर्ण अवस्था आज भी है।

      यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी और आश्चर्यजनक घटना मानती हूं।

      यह प्रेम की अवस्था मेरे जीवन के अंत समय तक रहे, ऐसा आशीर्वाद आपसे चाहती हूं! Continue reading “उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-07)”

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-06)

आनंद स्वभाव है-(प्रवचन-छटवां)

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 06 जनवरी सन् 1979,   ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:

01-     भगवान, कभी सोचा भी नहीं था कि जीवन इतना स्वाभाविकता से, आनंदपूर्ण जीया जा

      सकता है! शाम को गायन-समूह में इतनी नृत्यपूर्ण हो जाती हूं! जिस जीवन की खोज थी मुझे,

      वह मिलता जा रहा है। कहां थी–और कहां ले जा रहे हैं आप!

      जितना अनुग्रह मानूं उतना कम है। ऐसा प्यार बहा रहे हो भगवान, चरणों में झुकी जाती हूं मैं!

02-     भगवान, आप अमृत दे रहे हैं और अंधे लोग आपको जहर पिलाने पर आमादा हैं।

      यह कैसा अन्याय है? Continue reading “उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-06)”

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-05)

मैं सिर्फ एक अवसर हूं-(प्रवचन-पांचवां)

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 05 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:

01-भगवान, अनेक संतों और सिद्धों के संबंध में कथाएं प्रचलित हैं कि वे जिन पर प्रसन्न होते थे उन पर गालियों की वर्षा करते थे। परमहंस रामकृष्ण के मुंह से ऐसे ही बहुत गालियां निकलती थीं, बात-बात में गालियां। यही बात प्रख्यात संगीत गुरु अलाउद्दीन खां  के जीवन में भी उल्लेखनीय है। क्या इस पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करेंगे?

02-भगवान, आप कल की भांति हमेशा ही मेरी झोली खुशियों से भर देते हैं। Continue reading “उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-05)”

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-04)

सरस राग रस गंध भरो-(प्रवचन-चौथा)

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 04 जनवरी सन् 1979 ,   ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:

01-    भगवान, आनंद क्या है? उत्सव क्या है?

02-     भगवान, क्या जीवन मात्र संघर्ष ही है–संघर्ष और संघर्ष? या कुछ और भी?

03-     भगवान, इस जीवन में मैंने दुख ही दुख क्यों पाया है?

04-      भगवान, आपका संदेश घर-घर पहुंचाने का संकल्प अपने आप ही सघन होता जा रहा है।

 05-    समाज हजार बाधाएं खड़ी करेगा, कर रहा है। जीवन भी संकट में पड़ सकता है।

  06-   मैं क्या करूं? Continue reading “उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-04)”

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-03)

प्राण के ओ दीप मेरे-(प्रवचन-दूसरा)

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 03 जनवरी सन् 1979 ,ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:

01-     भगवान, परमात्मा जिनका अनुभव नहीं बना है, उनकी प्रार्थना क्या हो? उनका भजन क्या हो?

02-     भगवान, चार्वाक-दर्शन की ग्रंथ-संपदा को क्यों नष्ट किया गया?

      चार्वाक के बारे में आपके क्या विचार हैं?

03-    भगवान, आप ऐसी भाषा में क्यों नहीं बोलते जो मेरी समझ में आ सके?

      आपको सुनता हूं, रोता हूं, लेकिन कुछ समझ में नहीं आता है। Continue reading “उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-03)”

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-02)

डूबो-(प्रवचन-दूसरा)

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 2 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:

01-    भगवान, स्त्री तो बिना प्रेम के नहीं पहुंच सकती। स्त्री तो सिर्फ डूबना जानती है।

      और आप में डूब कर ही जाना हो सकता है। मुझे डुबा लें और उबार लें।

02-     भगवान, सुना है श्री मोरारजी भाई को गीता पूरी कंठस्थ याद है।

      फिर भी वे राजनीति में इतने उत्सुक क्यों हैं?

03-    भगवान, मेरी होने वाली पत्नी मुझे छोड़ना चाहती है, यह बात ही मुझे कटार की भांति चुभती है।

      मैं उसे प्रेम करता हूं और जीते जी कभी छोड़ नहीं सकता हूं। वह किसी और के प्रेम में है।

      कृपया, आप ऐसा कुछ करें कि वह मुझे छोड़े नहीं।

      मैं उसके डर के कारण अपना नाम भी नहीं लिख रहा हूं।

04-     मैं कौन हूं? भगवान, क्या आप बता सकते हैं? Continue reading “उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-02)”

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-01)

जग-जग कहते जुग भये-(प्रवचन-पहला)

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 1 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:

प्रश्न-01     भगवान, नव-आश्रम के निर्माण में इतनी देर क्यों हो रही है?

      हम आस लगाए बैठे हैं कि कब हम भी बुद्ध-ऊर्जा के अलौकिक क्षेत्र में प्रवेश करें।

      और हम ही नहीं, हजारों आस लगाए बैठे हैं। अंधेरा बहुत है, प्रकाश चाहिए।

      और प्रकाश के दुश्मन भी बहुत हैं। इससे भय भी लगता है कि कहीं

      यह जीवन भी और जीवनों की भांति खाली का खाली न बीत जाए!

प्रश्न-02     भगवान, संग का रंग लगता ही है या कि यह केवल संयोग मात्र है? कृपा कर समझावें! Continue reading “उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रवचन-01)”

आपुई गई हिराय-(प्रवचन-10)

प्रवचन-दसवां-(अपने ही प्राणों को पढ़ो)

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो

दिनांक 10-फरवरी, सन् 1981,   ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्न-सार

01-*     जब-जब  आया  द्वार  तिहारे, बस  खाली  हाथ  चला।

      फूल न लगा एक हाथ भी, मन का माली साथ चला।

      तेरे  दया  भंडार  में  मेरे  लिए  ही  कुछ  कम  है।

      हाथ  पसारे  दुआ  मांगते  अब  मेरी  आंखें  नम  हैं।

      अब  तक  न  की  दया  मुझ  पे, बस  इतना  सा  गम  है।

      दया के सागर से अपनी ले, खाली प्याली साथ चला।

      जब-जब  आया  द्वार  तिहारे, बस  खाली  हाथ  चला। Continue reading “आपुई गई हिराय-(प्रवचन-10)”

आपुई गई हिराय-(प्रवचन-09)

प्रवचन-नौवां-(प्रेम अर्थात परमात्मा)

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो

 दिनांक 09-फरवरी, सन् 1981,  ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्न-सार

01-*     है इश्क नहीं आसां, इतना तो समझ लीजे।

      इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।।

      क्या सच ही प्रेम इतना दुस्तर है?

02-*     आश्रम के संबंध में ऐसा कुप्रचार क्यों है? इस कुप्रचार के कारण अनेक लोग आपके सत्य

      और प्रसाद से वंचित हो रहे हैं। Continue reading “आपुई गई हिराय-(प्रवचन-09)”

आपुई गई हिराय-(प्रवचन-08)

प्रवचन-आठवां-(सितारों के आगे जहां और भी हैं)

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो

 दिनांक 08-फरवरी, सन् 1981,  ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्न-सार:

01-*     मैं गुजरात का एक माननीय कथाकार हूं। मैंने अपने वाकचातुर्य से अपने आस-पास एक

      समूह खड़ा किया है। उसमें से पचास व्यक्ति तो ऐसे ही आए कि जिन्होंने मुझे ही भगवान

      माना और कहा कि गुरु-मंत्र दें। लेकिन उनको धोखा देने की मुझमें हिम्मत नहीं। और मेरे

द्वारा जब कोई सत्य को उपलब्ध होने की इच्छा रखते हैं, तब मुझे लगता है कि मैं क्या करूं!

      मुझे चाहने वाले आपके विचारों का सत्कार कर रहे हैं, संन्यास का नहीं। तो क्या बिना

      संन्यास लिए सत्य की उपलब्धि संभव है?

      मुझे क्या करना चाहिए? प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।

02-*     आप क्या कर रहे हैं? आपका इस कलियुग में विशिष्ट कार्य क्या है? Continue reading “आपुई गई हिराय-(प्रवचन-08)”

आपुई गई हिराय-(प्रवचन-07)

प्रवचन-सातवां-(निमंत्रण–दीवानों की बस्ती में)

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो

दिनांक 07-फरवरी, सन् 1981,  ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्न-सार

01-*     पुरुषस्य भाग्यं त्रिया चरित्रम्।

      देवो न जानाति कुतो मनुष्यः।।

      पुरुष का भाग्य, स्त्री का चरित्र देव भी नहीं जानते,

फिर मनुष्य के जानने का तो सवाल कहां।

      क्या आप इससे सहमत हैं? Continue reading “आपुई गई हिराय-(प्रवचन-07)”

आपुई गई हिराय-(प्रवचन-06)

प्रवचन-छठ्टवां-(बांस की पोंगरी का संगीत)

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो

दिनांक 06-फरवरी, सन् 1981,  ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्न-सार

*01-     किं भूषणाद्भूषणमस्ति शीलं

           तीर्थं परं किं स्वमनो विशुद्धम्।

      किमत्र हेयं कनकं च कांता

           श्राव्यं सदा किं गुरुवेदवाक्यम्।।

      क्या आपको आद्य शंकराचार्य के इन उत्तरों पर भी कोई आपत्ति है?

      आप क्या कहेंगे, बताने की कृपा करें।

* 02-    मैं एक छोटा-मोटा कवि हूं। आपके पास बड़ी आशा लेकर आया हूं।

      आशीष दें कि मैं काव्य-जगत में खूब ख्याति पाऊं। Continue reading “आपुई गई हिराय-(प्रवचन-06)”

आपुई गई हिराय-(प्रवचन-05)

प्रवचन-पांचवां-(अहंकार और समर्पण)

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो

दिनांक 05-फरवरी, सन् 1981,  ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्न-सार:

01;     अपने अहंकार को पूरी तरह और सदा के लिए मिटाने का सबसे तेज और सबसे खतरनाक

      ढंग क्या है?

02;     तुम्हारे कदमों में सर झुकाया था हमने,

      अब कहां सर झुकाऊं तुम्हें अपना खुदा बनाने के बाद? Continue reading “आपुई गई हिराय-(प्रवचन-05)”

आपुई गई हिराय-(प्रवचन-04)

प्रवचन-तीसरा-(फिकर गया सईयो मेरियो नी)

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो

दिनांक 04-फरवरी, सन् 1981,  ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्न-सार:

1     आद्य शंकराचार्य की एक और प्रश्नोत्तरी उपस्थित करने के लिए क्षमा चाहता हूं–

      आपसे और शंकराचार्य से भी।

      उपस्थिते प्राणहरे कृतान्ते

           किमाशु कार्यं सुधिया प्रयत्नात्।

      वाक्कायचित्तेः सुधिया यमघ्नं

           मुरारिपादांबुजचिंतनं च।।

      इस प्रश्न का उत्तर देने की अनुकंपा करें।

2     दुख का मूल आधार क्या है? आनंद इतना दुर्लभ क्यों है?

      अनुकंपा करें और मुझे दुख-निरोध का उपाय समझाएं। Continue reading “आपुई गई हिराय-(प्रवचन-04)”

आपुई गई हिराय-(प्रवचन-03)

प्रवचन-तीसरा-(सत्संग अर्थात आग से गुजरना)

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो

दिनांक 03-फरवरी, सन् 1981,  ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्न-सार/:

     01;आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले भगवान बुद्ध के एक श्रावक बिना भिक्षु हुए बुद्ध से जुड़े थे,

      02;और बुद्ध उन्हें भिक्षुओं से अधिक स्वस्थ और निकट मानते थे।

      03;जो लोग आपसे बिना संन्यास लिए शिष्यत्व स्वीकार करके आपसे जुड़ना चाहते हैं,

      04;आप उन्हें अपने साथ जोड़ कर उनका शिष्यत्व क्यों स्वीकार नहीं करते हैं?

      05;ऐसे लोगों में से एक मैं भी हूं। जरा मुझ पर भी दया करें। Continue reading “आपुई गई हिराय-(प्रवचन-03)”

आपुई गई हिराय-(प्रवचन-02)

प्रवचन-दुसरा-(धर्म तो आंख वालों की बात है)

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो

दिनांक 02-फरवरी, सन् 1981,  ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्न-सार:

1-विश्वविख्यात धर्म-चिंतक पाल टिलिक कहते हैं कि अकेला होना हर आदमी की किस्मत में

      बदा है। हर आदमी अकेला रहने के लिए अभिशप्त है।

क्या यह सच है? क्या आप भी आदमी को उसके अकेलेपन से छुटकारा नहीं दिला सकते हैं?

2-बुल्लेशाह ने एक अक्षर का गुण गाया है। बुल्लेशाह कहते हैं: एक अक्षर पढ़ो–और छुटकारा है।

      समझाएं कि यह एक अक्षर क्या है और इसके पढ़ने से मुक्ति का क्या संबंध है। Continue reading “आपुई गई हिराय-(प्रवचन-02)”

आपुई गई हिराय-(प्रवचन-01)

प्रवचन-पहला –(नी सईयो मैं गई गुवाची)

आपुई गई हिराय-(प्रश्नत्तोर)-ओशो

दिनांक 01-फरवरी, सन् 1981,   ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्न-सार

*     आज प्रारंभ होने वाली प्रवचनमाला का शीर्षक है: आपुई गई हिराय।

      संत पलटू के इस वचन का आशय हमें समझाएं।

*     “आपुई गई हिराय’–यह बात कुछ गूढ़ मालूम पड़ती है।

      क्या बात है, खोजने वाला खुद को पा लेता है या खो देता है?

      खोज का क्या अर्थ, जिसमें खोजी न रहा!

पहला प्रश्न: भगवान,

आज प्रारंभ होने वाली प्रवचनमाला का शीर्षक है: आपुई गई हिराय। निवेदन है कि संत पलटू के इस वचन का आशय हमें समझाएं।

आनंद दिव्या, Continue reading “आपुई गई हिराय-(प्रवचन-01)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन-(सत्य की उदघोषणा)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 20, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न:

भगवान, श्री दत्ताबाल आपसे बहुत बुरी तरह जल-भुन गए हैं। लगता है कि उन्हें पहले से ही आपसे व्यक्तिगत रूप से जलन थी। और अब उन्हें विवेकानंद का बहाना मिल गया है। उन्होंने कहा है कि आचार्य रजनीश चरस, गांजा, भांग खिला-पिला कर लोगों को समाधि दिलाते हैं, जब कि विवेकानंद सिर्फ छूकर ही समाधि दिला देते थे!

उन्होंने और भी निम्न बातें आपके संबंध में कही हैं, कृपया प्रकाश डालें।

पहली कि आचार्य रजनीश स्वघोषित भगवान हैं।

दूसरी कि आचार्य रजनीश अज्ञानी हैं।

तीसरी कि आचार्य रजनीश का व्यक्तित्व अत्यंत महत्वहीन है।

चौथी कि आचार्य रजनीश ने हिंदू देवताओं को कामी और भोगी कह कर हिंदू धर्म का अपमान किया है। Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-10)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन-(पहले ध्यान–फिर सेवा)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 19, नवम्बर, सन् 1980,  ओशो आश्रम,  पूना।

पहला प्रश्न:

भगवान, मैं एक विचारशील युवक हूं, जिसे अपने देश के मौजूदा हालात बिलकुल पसंद नहीं। यह अंधविश्वासों तथा दकियानूसी विचारों से दबा हमारा भारत बिलकुल नरक बन गया है। मेरा खून खौल-खौल उठता है इसकी सड़ी-गली स्थिति देख कर और इस अभागे देश के लिए कुछ करने के लिए अधीर हो उठता हूं।

भगवान, एक व्यक्ति के नाते इस देश के प्रति मेरा क्या कर्तव्य है? मैं क्या करूं कि इस देश की दीन-हीनता, भुखमरी, पाखंड, काहिलता और सड़ांध मिट जाए?

 निर्मल घोष!

पहली बात, अकेले विचारशील होने से कुछ भी न होगा। अंधेरा हो, तो रोशनी के विचार से मिटता नहीं। रोशनी चाहिए! बीमारी हो, तो स्वास्थ्य का कितना ही चिंतन करो, कुछ हाथ न लगेगा। औषधि चाहिए! विचार तो नपुंसक है।

विचारशीलता कोई बहुत महत्वपूर्ण बात नहीं। ध्यान चाहिए! Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-09)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन-(चिंतन नहीं–मौन अनुभूति)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 18, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

      उत्तमा तत्त्वचिंतैव मध्यम शास्त्रचिंतनम्।

           अधमा तंत्रचिंता च तीर्थ भ्रांत्यधमाधमा।।

      अनुभूतिं विना मूढ़ो वृथा ब्रह्मणि मोदते।

             प्रतिबिंबितशाखाग्रफलास्वादनमोदवत।।

तत्व का चिंतन उत्तम है, शास्त्र का चिंतन मध्यम है, तंत्र की चिंता अधम है और तीर्थों में भटकना अधम से भी अधम है। जैसे कोई पेड़ की छाया में प्रतिबिंबित फल को खाकर प्रसन्न हो, वैसे ही वास्तविक अनुभव के बिना मूढ़ मनुष्य ब्रह्म का आनंद पाने की व्यर्थ कल्पना करता है।

भगवान, हमें मैत्रेयी उपनिषद के इन दो सूत्रों का अभिप्राय समझाने की अनुकंपा करें।

 पूर्णानंद!

तत्व का चिंतन उत्तम है, क्योंकि तत्व का चिंतन हो ही नहीं सकता। तत्व का चिंतन असंभव है। तत्व वस्तु नहीं है, विषय नहीं है। तत्व तो तुम्हारी जीवन-ऊर्जा है, तुम्हारा स्वरूप है, तुम्हारी चेतना है। तत्व का चिंतन नहीं होता, तत्व की चेतना होती है।

तत्व का अनुभव ही तब होता है, जब सब चिंतन छूट जाता, सब चिंता छूट जाती, सब विचार शून्य हो जाते। जहां कोई तरंग नहीं होती चित्त पर, जहां चित्त निस्तरंग होता है, वहीं अनुभूति है तत्व की।

इसलिए मैत्रेयी उपनिषद का यह सूत्र महत्वपूर्ण है, इशारा कर रहा है। लेकिन शब्दों में इशारा करना असंभव नहीं तो कठिन तो है ही। उन्हीं शब्दों का उपयोग करना होता है जो उपलब्ध हैं। और सभी शब्द आदमी के गढ़े हुए हैं, और तत्व तो आदमी का गढ़ा हुआ नहीं है। इसलिए किसी शब्द में तत्व समाता नहीं।

एक होटल में मुल्ला नसरुद्दीन ने प्रवेश किया। गर्मी के दिन हैं, सूरज से आग बरसती है। थका-मांदा, पसीना-पसीना आकर होटल में बैठा।

मैनेजर ने आकर कहा कि क्या आपकी सेवा करें?

मैनेजर था कुछ दार्शनिक वृत्ति का व्यक्ति। फुरसत के समय में दर्शन पढ़ा करता था।

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, कुछ और नहीं। सबसे पहले तो पानी का एक गिलास!

मैनेजर ने कहा, क्षमा करें। कांच का गिलास तो दे सकता हूं; पानी का गिलास कहां से लाऊं?

पानी का गिलास होता ही नहीं। कहते हम सब हैं, पानी का गिलास। काम चल जाता है, समझने वाला समझ लेता है। ऐसे ही समझना इस सूत्र के प्रारंभ को, पानी के गिलास की भांति। इस पर अटक मत जाना।

“उत्तमा तत्त्वचिंतैव–उत्तम है तत्व का चिंतन।’

ऐसा मत सोच लेना कि तत्व का कोई चिंतन होता है। तत्व का कोई चिंतन होता ही नहीं; तत्व का तो अनुभव होता है। और अनुभव भी तब होता है, जब चिंतन शून्य हो जाता है।

लेकिन किसी भी शब्द का उपयोग करो, कठिनाई खड़ी हो जाती है। अगर कहो, तत्व का ध्यान। उपद्रव शुरू हुआ, क्योंकि ध्यान भी तो तुम किसी विषय का करते हो। धन का लोभी धन का ध्यान करता है। काम से पीड़ित काम का ध्यान करता है। तत्व का कैसे ध्यान होगा? ध्यान भी तो विषय का होता है।

मेरे पास लोग आकर पूछते हैं, किसका ध्यान करें? राम का, कृष्ण का, बुद्ध का, महावीर का–किसका ध्यान करें? कौन सा ध्यान सार्थक होगा?

शब्द ने भरमाया। शब्द ने खूब भरमाया है, सदियों से उलझाया है। जंगलों में भटके लोग तो कभी न कभी घर लौट आते हैं, शब्दों में भटके लोग जन्मों-जन्मों तक भटकते रहते हैं। फिर शब्दों में और-और शब्द लगते चले जाते हैं। शब्दों में और नई-नई शाखाएं निकल आती हैं, नए-नए पत्ते, नए-नए फूल। शब्दों की शृंखला का कोई अंत ही नहीं है।

यह पूछना कि किसका ध्यान करें, बुनियादी रूप से गलत सवाल है। मगर मैं उनकी मजबूरी समझता हूं। वे हमेशा बाहर की भाषा में ही सोच सकते हैं, क्योंकि सारी भाषा ही बाहर के लिए है। भीतर तो मौन है। भीतर की तो कोई भाषा होती नहीं। भीतर तो भाषा की कोई जरूरत भी नहीं। भाषा का उपयोग ही तब है, जब हम किसी और से बोल रहे हों। भाषा संवाद है। जहां मैं और तू हैं, वहां भाषा की उपादेयता है। जहां दो हैं, वहां भाषा है। और जहां एक ही बचा, वहां कैसी भाषा! वहां तो मौन रह जाता है। इसलिए मैं कहता हूं, परमात्मा की तो एक ही भाषा है, मौन। वहां बोल कर चूक जाओगे। न बोले, पा जाओगे। वहां एक शब्द भी उठ गया, तो जमीन और आसमान का फासला हो जाएगा। वहां बोलना ही मत।

पश्चिम के बहुत बड़े विचारक, यहूदी दार्शनिक मार्टिन बूबर ने अपनी प्रसिद्धतम पुस्तक में लिखा है…। पुस्तक का नाम है: मैं और तू–आई एंड दाऊ। इस सदी में लिखी गई महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण किताबों में एक है। लेकिन बूबर एक दार्शनिक हैं, ऋषि नहीं। विचारक हैं, मनीषी नहीं। सोचा है, समझा है; जाना नहीं, पहचाना नहीं, अनुभव नहीं, स्वाद नहीं, पीया नहीं। प्यास वैसी की वैसी है।

शब्दों से प्यास बुझ भी नहीं सकती है। किसी को प्यास लगी हो और तुम सिर्फ पानी की बातें करो, सुंदर-सुंदर बातें करो; वर्षा के गीत गाओ, मेघ मल्हार छेड़ो; तो भी प्यास न बुझेगी। भूख लगी हो, तो पाक-शास्त्र किसी काम के नहीं हैं। रूखी-सूखी रोटी भी ज्यादा उपयोगी है। लेकिन परमात्मा के संबंध में हम पाक-शास्त्रों में उलझे हैं।

और क्या हैं वेद? और क्या हैं कुरान? और क्या हैं पुराण? और क्या हैं बाइबिलें? ब्रह्म की भूख है, सत्य की भूख है, और शब्दों के थाल सजे रखे हैं! सुंदर-सुंदर थाल! तुम भूखे बैठे हो, और रंगीन से रंगीन छपा हुआ मेनू भी तुम्हारे हाथ में पकड़ा दिया जाए, तो क्या करोगे? उलटोगे-पलटोगे, पेट तो न भरेगा! मेनू से तो कभी किसी का पेट भरा नहीं।

वैसी ही स्थिति दार्शनिक की, चिंतक की होती है। बूबर ने किताब तो बड़ी महत्वपूर्ण लिखी। लिखा है कि परमात्मा और व्यक्ति के बीच जो प्रार्थना का संबंध है, वह मैं और तू का संवाद है। लेकिन जहां मैं हो और तू हो, वहां संवाद होता है? वहां तूत्तू मैं-मैं होती है, वहां विवाद होता है। संवाद तो वहां है, जहां मैं और तू मिल कर एक हो जाते हैं। जहां मैं मैं नहीं, तू तू नहीं; जहां दोनों गए; जहां अद्वय बचा।

लेकिन फिर वहां, जब विवाद नहीं है, तो संवाद भी कहां! संवाद की भी क्या जरूरत! मौन में ही बात कह दी गई, मौन में ही बात समझ ली गई। परमात्मा की भाषा मौन है।

बूबर जिस प्रार्थना की बात कर रहे हैं, वह प्रार्थना सच्ची नहीं। मैं और तू का संवाद, वह कहते हैं, प्रार्थना है। मैं तुमसे कहता हूं, मैं और तू जब तक है तब तक कहां प्रार्थना?

जहां मैं नहीं तू नहीं, जहां दोनों गए, जहां कोई नहीं, जहां घर में सन्नाटा हो गया; जहां विवाद क्षीण, जहां संवाद क्षीण, जहां शून्य का साम्राज्य स्थापित हो गया; उस शून्य में जो संगीत बज उठता है, जो हृदयतंत्री कंपित हो उठती है, जो शब्द-शून्य, जो मौन गदगद अवस्था होती है–आंखें आनंद से गीली हो आती हैं; प्राण आनंद से पुलक उठते हैं; एक नृत्य घेर लेता है–उस घड़ी का नाम प्रार्थना है। उसी घड़ी का नाम ध्यान है। ये शब्द ही अलग-अलग हैं। प्रार्थना प्रेमी का शब्द है। ध्यान ज्ञानी का शब्द है। प्रार्थना–मीरा का, चैतन्य का, राबिया का, जीसस का, जरथुस्त्र का। ध्यान–पतंजलि का, लाओत्सु का, महावीर का, बुद्ध का। शब्द का ही भेद है, लेकिन अर्थ? अर्थ तो एक ही है। अर्थ में जरा भी अंतर नहीं है।

एक जर्मन सेनापति दूसरे महायुद्ध के बाद अपने मित्र अंग्रेज सेनापति से बातें कर रहा था। और उसने कहा कि पता नहीं हम क्यों हारे? यह बात राज ही बनी रहेगी। यह रहस्य कभी खुलेगा या नहीं! क्योंकि शक्ति हमारे पास ज्यादा थी। वैज्ञानिक, तकनीकी दृष्टि से हम तुमसे ज्यादा संपन्न थे। फिर भी हम हारे और तुम जीत गए! यह बात गणित में बैठती नहीं!

अंग्रेज सेनापति मुस्कुराया और उसने कहा, उसका राज मैं तुम्हें बताए देता हूं। राज छोटा है। बात छोटी है, मगर गहरी है। हम इसलिए जीते कि हर युद्ध के दिन की शुरुआत में हम प्रार्थना करते थे। हम परमात्मा की प्रार्थना करके ही युद्ध में उतरते थे। माना कि तकनीकी दृष्टि से, वैज्ञानिक दृष्टि से हम तुमसे पीछे थे, मगर परमात्मा जब साथ हो, तो फिर किसी और चीज की जरूरत नहीं है। इसलिए हम जीते और तुम हारे।

जर्मन सेनापति ने कहा, यह बात तो और भी उलझा देती है मामले को, सुलझाती नहीं। क्योंकि प्रार्थना तो हम भी करते थे, रोज करते थे, नियम से करते थे। प्रार्थना के बाद ही युद्ध पर जाते थे। अगर प्रार्थना से ही निर्णय होना था, तो हमारी प्रार्थना तुमसे कुछ कमजोर न थी!

अंग्रेज सेनापति तो खिलखिला कर हंस पड़ा। उसने कहा, तुम समझते नहीं बात। तुम प्रार्थना किस भाषा में करते थे?

स्वभावतः, जर्मन ने कहा कि हम जर्मन भाषा में करते थे!

अंग्रेज ने कहा, बस बात साफ हो गई। अरे, भगवान जर्मन भाषा समझता है? हम अंग्रेजी में करते थे! इसलिए हमारी बात पहुंच गई और तुम्हारी बात नहीं पहुंची।

हंसो मत इस पर। सेनापति तो बुद्धू होते हैं। बुद्धू न हों तो सेनापति न हों! सेनापतियों को माफ किया जा सकता है, लेकिन तुम्हारे पंडित-पुरोहित भी तो यही कहते रहे। वे कहते हैं, संस्कृत देव-भाषा है! वह ईश्वर की अपनी भाषा है। संस्कृत में बोलोगे तो समझेगा। और जैन कहते हैं, प्राकृत में बोलोगे तो समझेगा। और बौद्ध कहते हैं, पाली में बोलोगे तो समझेगा। और यहूदी कहते हैं, हिब्रू के सिवाय उसे कोई भाषा आती नहीं। और मुसलमान कहते हैं, अरबी ही बस उसकी भाषा है। और सब तो आदमियों की ईजादें हैं! अगर अरबी उसकी भाषा न होती, तो कुरान अरबी में क्यों उतरता?

सारी भाषाएं आदमी की हैं। उसकी कोई भाषा नहीं। मौन ही उसकी भाषा है। और चिंतन मौन का अभाव है। तत्व को जानना हो तो शून्य होना होता है।

इसलिए इस पहली बात को ठीक से समझ लो: “उत्तमा तत्त्वचिंतैव।’

तत्व के चिंतन को उत्तम कहता है ऋषि, क्योंकि तत्व का चिंतन चिंतन ही नहीं होता। तत्व का चिंतन अर्थात चिंतन से रिक्त हो जाना, अचिंत्य हो जाना। तत्व का चिंतन अर्थात निर्विचार, निर्विकल्प, निर्बीज। इसलिए उत्तम। उत्तम होने का कारण? क्योंकि जहां शून्य है, वहां पूर्ण है। तुम शून्य हुए, और पूर्ण उतरा। पूर्ण उतरता ही शून्य में है। घड़े को भरना हो, तो पहले उसे कूड़े-करकट से तो खाली कर लेना होगा न! घड़ा खाली हो, तो ही भर सकता है।

इस प्रकृति का एक नियम है कि यह खालीपन को पसंद नहीं करती। यह खालीपन को तत्क्षण भर देती है। तुमने कभी देखा, नदी की जलधार में अंजुलि बना कर पानी को भरा है! और जैसे ही अंजुलि को ऊपर उठाया है, वैसे ही चारों तरफ से जल दौड़ा है और अंजुलि में भरे जल के कारण जो थोड़ा सा गङ्ढा पैदा हो गया था, वह फिर भर गया है। तत्क्षण भर जाता है। देर ही नहीं लगती। ऐसे ही तुम जरा शून्य तो होओ! और तुम पाओगे, तुम्हारे शून्य होने से चारों तरफ से परमात्मा की ऊर्जा दौड़ पड़ती है; तुम्हारी तरफ प्रवाहित होने लगती है। तुम्हें भर देती है। तुम्हें ऐसा भर देती है कि तुम कभी भी न भरे थे।

लेकिन यह भराव तुम्हारे मैं का भराव नहीं है। इस भराव में तुम तो गए, तुम तो मिटे, परमात्मा बचा। यह भराव यूं है जैसे कोई बांसुरी में गीत को बजाए, जैसे कोई बांसुरी में सुर छेड़ दे। बांसुरी तो खाली है, और इसीलिए तो स्वर उससे प्रवाहित हो पाते हैं।

तत्व के चिंतन को उत्तम कहा, क्योंकि तत्व का चिंतन चिंतन ही नहीं है।

मैं आप अपनी तलाश में हूं, मेरा कोई रहनुमा नहीं है।

वो क्या दिखाएंगे राह मुझको, जिन्हें कुछ अपना पता नहीं है।

मसर्रतों की तलाश में है, मगर यह दिल जानता नहीं है,

अगर गमे-जिंदगी न हो, तो जिंदगी में मजा नहीं है।

शऊर-ए-सज्दा नहीं है मुझको, तू मेरे सज्दों की लाज रखना,

यह सर तेरे आस्तां से पहले, किसी के आगे झुका नहीं है।

ये इनके मंदिर, ये इनकी मस्जिद, ये जरपरस्तों की सज्दागाहें,

अगर ये इनके खुदा का घर है, तो इनमें मेरा खुदा नहीं है।

बहुत दिनों से मैं सुन रहा था, सजा वो देते हैं हर खता पर,

मुझे तो इसकी सजा मिली है, कि मेरी कोई खता नहीं है।

ये इनके मंदिर, ये इनकी मस्जिद, ये जरपरस्तों की सज्दागाहें,

अगर ये इनके खुदा का घर है, तो इनमें मेरा खुदा नहीं है।

यह सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है। इस सूत्र में बड़ी आग है। जल सको, तो नए हो जाओ। जल सको इसमें, तो नया जीवन मिल जाए।

“उत्तमा तत्त्वचिंतैव।’

उत्तम है तत्व का चिंतन।

“मध्यम शास्त्रचिंतनम्।’

और शास्त्र का चिंतन मध्यम; नंबर दो का।

क्यों? क्योंकि शास्त्र के चिंतन का अर्थ होता है: उधार, बासा; किसी और ने जाना, किसी और ने जीया, तुमने तो सिर्फ सुना। किसी ने स्वाद लिया, तुम्हारे हाथ तो सिर्फ शब्द पड़े। किसी ने अमृत पीया और अमृत हुआ, और तुम्हारे हाथ में तो बस यह कोरी बात रह गई। जैसे कोई नदी के तट पर चलता है, तो रेत पर पदचिह्न बन जाते हैं। आदमी तो गुजर जाता है, पदचिह्न पड़े रह जाते हैं। शास्त्र पदचिह्न हैं–समय की रेत पर बुद्धों के पैरों के चिह्न।

मगर समय की इस रेत पर बुद्धू भी चलते हैं! और बुद्धों के और बुद्धुओं के पैरों के चिह्नों में कुछ बहुत भेद नहीं होता। एक तो बुद्धों के भी पैरों के चिह्न ही हैं वे, उन पर अगर चले भी तो भी तुम न पहुंच पाओगे। क्योंकि दो व्यक्ति एक जैसे नहीं होते। इसलिए जिसने भी किसी दूसरे व्यक्ति का अनुसरण करने की चेष्टा की, उसने अपने भाग्य में हार लिख ली, उसने अपने को बर्बाद करने का इंतजाम कर लिया।

सुनना सबकी, गुनना अपनी। समझो, बुद्धों ने जो कहा हो; मगर लकीर के फकीर न हो जाना। और शास्त्रों का अध्येता लकीर का फकीर हो जाता है। उसकी आंखों पर शास्त्रों के चश्मे चढ़ जाते हैं। और इतने शास्त्रों के शब्द उसकी आंखों पर इकट्ठे हो जाते हैं कि उसे दिखाई ही पड़ना बंद हो जाता है। शास्त्रों ने जितने लोगों को अंधा किया है, उतना किसी और चीज ने नहीं। इस दुनिया में शास्त्रीय अंधों की भीड़ है, जमघट है! अलग-अलग शास्त्रों के कारण अंधे हैं! मगर किताबों को आंखों पर रख लोगे, तो देखोगे कैसे?

और फिर किताबें एकाध-दो हों, तो भी ठीक। बहुत किताबें हैं! और किताबों पर किताबें हैं! पहाड़ खड़े हो जाते हैं तुम्हारी आंखों पर सिद्धांतों के, शब्दों के जालों के। और फिर तुम उन्हीं शब्दों के जालों को गुनते-बुनते रहते हो। फिर तुम्हें वह नहीं दिखाई पड़ता जो है, जो सामने खड़ा है, जो चारों तरफ से तुम्हें घेरे हुए है; जो तुम्हारे भीतर भी है और जो तुम्हारे बाहर भी है; जिसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है; वह तत्व फिर तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता।

शास्त्र का चिंतन मध्यम है, नंबर दो का। जिसकी हिम्मत न हो तत्व में उतरने के लिए, उस कायर के लिए शास्त्र हैं। चलो, कुछ न बने, तो बुद्धों के वचन ही दोहराते रहो। हालांकि कितना ही दोहराओ, तुम तोते ही रहोगे। तोते कितना ही राम-नाम जपें, तो भी परमात्मा की अनुभूति को उपलब्ध न हो जाएंगे। और तुमने सुना ही है कि वाल्मीकि तो राम का उलटा नाम जप कर भी परमात्म-अनुभव को पा लिए! मरा-मरा जपा, और पहुंच गए। और तोते तो शुद्ध राम-राम जपते हैं, फिर भी नहीं पहुंचते! क्या है बात?

सवाल, तुम क्या जपते हो, इसका नहीं है। भाव का है, प्रगाढ़ता का है, तन्मयता का है, तल्लीनता का है, ओत-प्रोत होने का है, डूबने का है, रंग जाने का है। तोता कहता तो राम-राम है, मगर बस कह ही रहा है।

मैंने सुना, आधी रात एक व्यक्ति थका-मंदा एक होटल के द्वार को खटखटाया। मैनेजर ने कहा, आधी रात है, तुम्हें लौटाऊं, यह भी अच्छा नहीं लगता। थके-मांदे, दूर से आए हो, भूखे-प्यासे हो, यह मैं देख सकता हूं चेहरे से। लेकिन सब कक्ष तो भरे हुए हैं। इतना ही कर सकता हूं, अगर तुम राजी होओ, एक कक्ष में दो बिस्तर हैं, लेकिन एक यहूदी धर्मगुरु, एक रबाई उसमें ठहरा हुआ है। आदमी भला है, इसलिए इनकार न करेगा, तुम भी सो सकते हो।

वह युवक इतना थका-मांदा था कि उसने कहा कि मुझे सिर्फ सोना ही है। कुछ थोड़ा खाने-पीने को दे दो, और फिर मैं जाकर सो जाऊं।

वह ऊपर कमरे में पहुंचाया गया। देख कर हैरान हुआ, थोड़ा चिंतित भी हुआ, थोड़ा किंकर्तव्यविमूढ़ भी मालूम पड़ा। क्योंकि रबाई, यहूदी धर्मगुरु अपने पलंग के बगल में घुटने टेके परमात्मा की प्रार्थना में लीन था। दो पलंग थे कमरे में। कौन सा पलंग मैं चुनूं? उस युवक के मन में सवाल उठा। धर्मगुरु से पूछ लेना जरूरी है, क्योंकि वह पहले से यहां रुका हुआ है। और पता नहीं उसने कोई बिस्तर चुन ही रखा हो! मगर वह कर रहा है प्रार्थना, टोकूं भी तो कैसे टोकूं! और पता नहीं यह प्रार्थना कितनी देर चलेगी, क्योंकि वह ऐसा लीन मालूम हो रहा है कि जल्दी तो टूटने वाली नहीं मालूम होती।

सो उसने सोचा, हिम्मत की, और उसने कहा कि परम पूज्य, बाधा तो नहीं देनी चाहिए आपकी प्रार्थना में, लेकिन मजबूरी है। सिर्फ इतना इशारा कर दें कि कौन सा बिस्तर मैं चुनूं!

डरते-डरते ही पूछा था। लेकिन धर्मगुरु ने प्रार्थना भी जारी रखी और हाथ से इशारा भी कर दिया कि वह दूसरा बिस्तर तुम चुन लो।

युवक निश्चिंत हुआ। बिस्तर ठीक-ठाक करके लेटने जा रहा था, फिर उसके मन में थोड़ी परेशानी हुई। प्यास लगी थी। क्या उठ कर खटर-पटर करे, पानी पी ले? प्रार्थना में बाधा पड?गी। पूछ लेना उचित है।

उसने कहा, परम पूज्य, प्यास लगी है जोर से। क्या पानी पी सकता हूं?

धर्मगुरु ने प्रार्थना जारी रखी और हाथ से इशारा किया कि हां-हां, पीओ!

तब जरा युवक की हिम्मत भी बढ़ी और उसने कहा कि महामहिम, इतनी और बता दें कि क्या मैं अपनी लड़की को भी, प्रेयसी को भी ला सकता हूं?

धर्मगुरु ने प्रार्थना जारी रखी और हाथ से इशारा किया कि दो ले आना!

प्रार्थना चल रही है और यह सब कारबार भी चल रहा है! अब कितनी ही शुद्ध प्रार्थना पढ़ी जाए, बिलकुल हिब्रू में पढ़ी जाए, तो भी क्या होगा! यह प्रार्थना कंठ तक भी नहीं जा रही है, हृदय तो बहुत दूर। इस प्रार्थना में कुछ भीग ही नहीं रहा है। यह तो व्यर्थ की बकवास है।

शास्त्रों को तुम दोहरा सकते हो, कंठस्थ कर सकते हो, लेकिन काश इतना आसान होता कि हम औरों के शब्दों को सीख कर सत्य को जान लेते, तो दुनिया ने कभी का सत्य जान लिया होता! सारे लोगों ने जान लिया होता। एक भी अज्ञानी न बचता। इस पृथ्वी पर सब चलते हुए दीए होते। दीवाली मनाई जा रही होती। हर फूल खिला होता। सुगंध ही सुगंध होती। हर वीणा बजती होती। संगीत ही संगीत होता। अनाहत नाद होता। अनहद में विश्राम होता।

शास्त्र तो सभी जानते हैं। हिंदू गीता पढ़ रहा है, मुसलमान कुरान पढ़ रहा है, ईसाई बाइबिल पढ़ रहे हैं। लेकिन कहीं कुछ भीगता नहीं। हृदय कहीं डुबकी नहीं मारता। शब्दों में डुबकी लगाओगे भी कैसे? अंधेरे कमरे में दीए की तस्वीर टांग भी लो, तो रोशनी तो नहीं हो जाएगी! लाख सुंदर तस्वीर हो, तो भी तस्वीर तस्वीर है।

और शास्त्रों के साथ बहुत खतरा है। खतरा यह कि जब कोई व्यक्ति प्रबुद्धता को उपलब्ध होता है, तो अनुभूति होती है मौन में। और जब वह उस अनुभूति को शब्दों में उतारता है, तभी विकृत हो जाती है, तभी बहुत कुछ खो जाता है। बूंदाबांदी रह जाती है। कहां सागर और कहां बूंद! और फिर जब वह बोलता है, तो और भी कुछ बचा होता है, वह भी खो जाता है। बूंद का भी हजारवां हिस्सा नहीं रह जाता। फिर जब दूसरा सुनता है, तब कुछ अगर बचा भी हो थोड़ा-बहुत, वह भी खो जाता है। क्योंकि दूसरा अपने हिसाब से सुनता है। उसकी अपनी धारणाएं हैं, अपने पूर्व से ही लिए गए निष्कर्ष हैं। वह उनके आधार से सुनता है।

और अक्सर दूसरों ने शास्त्र लिखे हैं। कृष्ण ने गीता बोली, लिखी नहीं। जीसस ने पर्वत का प्रवचन दिया, लिखा नहीं। बुद्ध बोले, लिखा नहीं। आज तक समस्त सदगुरुओं की यह प्रक्रिया रही कि उन्होंने बोला, लिखा नहीं।

क्यों? क्योंकि बोलने में थोड़ी सी संभावना है कि अगर सुनने वाला प्रीतिपगा हो, अगर सुनने वाला भावाविष्ट हो, अगर सुनने वाले ने अपने हृदय के द्वार खोल रखे हों, अगर सुनने वाला गुरु के पास बैठने की कला जानता हो–उपसीदन की कला, उपनिषद की कला, उपासना की कला; अगर गुरु के पास बैठना उसे आता हो–मौन में, चुप्पी में, अहोभाव में, आनंद में, मस्ती में; अगर वह किसी बुद्ध-ऊर्जा-क्षेत्र का हिस्सा हो; किन्हीं रिंदों की जमात में सम्मिलित हो गया हो; किन्हीं दीवानों से उसका संग-साथ हो गया हो; किन्हीं परवानों के साथ परवाना हो गया हो और चल पड़ा हो किसी ज्योति में मर मिटने को–तो शायद गुरु जो कह रहा है, वह तो शब्द ही होगा, लेकिन गुरु की भाव-भंगिमा, उसकी मुद्रा, उसकी आंखें, उसका उठना, उसका बैठना, उसकी सांसों की धड़कन उसके शब्दों के साथ-साथ लिपटी श्रोता के, द्रष्टा के, मन्ता के भीतर पहुंच जाएगी।

लेकिन लिखा हुआ शब्द तो मुरदा होता है, बिलकुल मुरदा होता है। उसमें न तो गुरु की उपस्थिति होती है, न गुरु की भाव-भंगिमा होती है, न गुरु का उठना-बैठना होता है। उसमें तो गुरु की दूर की भी कोई छाप नहीं होती। छापेखाने की छाप होती है, स्याही होती है कागज पर फैली। लाश होती है। जीवंत कुछ भी नहीं होता।

इसलिए सारे गुरुओं ने सदा से बोलने के माध्यम को चुना है, क्योंकि बोलने में थोड़ी सी संभावना है कि शायद शब्दों के आस-पास लिपटी कोई किरण पहुंच जाए। कोई लेने वाला ले ले।

कबीर कहते हैं, है कोई लेवनहारा! है कोई लेवनहारा!

अगर है कोई लेने वाला तो शायद उसकी आंखों में झांक कर ही बात हो जाए। शायद उसका हाथ हाथ में लेकर ही बात हो जाए। शायद वह गुरु के चरणों पर सिर रख दे और बात हो जाए। जो नहीं कही जा सकती, वह कह दी जाए।

शास्त्र तो सदगुरुओं ने लिखे नहीं; जिन्होंने सुने हैं, उन्होंने लिखे हैं। इसलिए बौद्धों के सारे शास्त्र बड़े ठीक ढंग से शुरू होते हैं। बौद्धों के सारे शास्त्रों का जो प्रथम वचन होता है, वह यह: ऐसा मैंने सुना है। यह किसी शिष्य की टिप्पणी है। ऐसा मैंने सुना है कि भगवान आम्रकुंज में विचरते थे; कि निरंजना के तट पर रुके थे; कि फलां-फलां नगर में ठहरे थे; कि श्रावस्ती में उनका वर्षाकाल व्यतीत होता था। ऐसा मैंने सुना है। फिर वे जो बोले, वह मैं लिखता हूं। वह मैं अपनी सामर्थ्य से लिखता हूं। वे बोले थे अपनी सामर्थ्य से, मैं लिखता हूं अपनी सामर्थ्य से। फर्क तो बहुत हो जाने वाला है, बहुत हो जाने वाला है!

तुमने कभी देखा, एक सीधी लकड़ी के डंडे को पानी में डाला; और तुम तब चकित होकर देखोगे, पानी में पहुंचते ही डंडा तिरछा दिखाई पड़ने लगता है! तिरछा हो नहीं जाता। खींच कर देखो, सीधा का सीधा है! फिर पानी में डालो, फिर तिरछा दिखाई पड़ने लगता है। पानी उतनी विकृति तो ले आता है, सीधा डंडा तिरछा हो जाता है।

बुद्धों के सीधे-सीधे वचन भी तुम्हारे भीतर जाकर बहुत तिरछे हो जाते हैं, आड़े हो जाते हैं, कुछ के कुछ हो जाते हैं!

तो शास्त्रों की बात तो दोयम है, नंबर दो।

“मध्यम शास्त्रचिंतनम्, अधमा तंत्रचिंता।’

और उससे भी अधम है तंत्र, मंत्र, यंत्र की चिंता। विधि-विधान, यज्ञ-हवन-कुंड, पूजा-पत्री, ये धर्म के नाम पर जो क्रियाकांड चलते हैं, उन सबका नाम तंत्र। यह तो बिलकुल ही गई-बीती बात हो गई। यह तो बिलकुल तृतीय कोटि की बात हो गई।

लेकिन दुनिया इस तीसरी कोटि में उलझी है। कोई सत्यनारायण की कथा करवा रहा है। कोई विश्व-शांति के लिए यज्ञ करवा रहा है।

अभी किसी तांत्रिक ने चंडीगढ़ में विश्व-शांति के लिए यज्ञ करवाया। और यज्ञ हो जाने के बाद घोषणा कर दी कि यज्ञ सफल हुआ; विश्व में शांति हो गई! और पंद्रह दिन बाद फिर दूसरा यज्ञ दिल्ली में करवाने लगे वे। जब खबर मुझे मिली, तो मैंने कहा, अब किसलिए करवा रहे हो? दुनिया में तो शांति हो चुकी! वह तो चंडीगढ़ में यज्ञ जब हुआ तभी हो गई। अब यह कौन सी दूसरी दुनिया है जिसमें शांति करवानी है? मगर फिर शांति करवा रहे हैं वे।

और यहीं खतम नहीं हो जाएगा। उन्होंने कसम खाई है कि वे एक सौ बीस यज्ञ करवा कर रहेंगे। मतलब एक सौ बीस बार दुनिया में शांति करवा कर रहोगे! बहुत ज्यादा शांति हो जाएगी। आदमी को जिंदा रहने दोगे कि मार ही डालोगे? मरघट हो जाएगा! एक सौ बीस बार शांति होती ही चली गई, होती ही चली गई, तो लोगों की सांसें निकल जाएंगी! शोरगुल ही बंद हो जाएगा! बोलचाल ही खो जाएगा!

मगर यह क्रियाकांड है। मैत्रेयी उपनिषद का यह वचन कहता है: “अधमा तंत्रचिंता।’

अधम है तंत्र की चिंता। अब तो चिंतन भी न रहा, चिंता हो गई! पहला तो था अचिंत्य, तत्व का अनुभव। शास्त्र का चिंतन होता है; वह नीचे गिरना हुआ। और अब तो बात और बिगड़ गई। अब तो चिंतन से भी गिरे। अब तो चिंतन भी न बचा। अब तो चिंता हो गई। अब तो परेशानी और बेचैनी आ गई। अब तो लोभ-मोह का व्यापार शुरू हुआ। यह पा लूं, वह पा लूं! गंडेत्ताबीज की दुनिया आ गई।

और तीर्थों में भटकना अधम से भी अधम!

“च तीर्थ भ्रांत्यधमाधमा।’

और तीर्थों में भटकने को तो मैत्रेयी उपनिषद कहता है, यह तो अधम से भी अधम! इसके पार तो गिरना ही नहीं हो सकता।

कोई काशी जा रहा है। कोई काबा जा रहा है। कोई कैलाश, कोई गिरनार। क्या पागलपन है! परमात्मा भीतर बैठा है, और तुम कहां जा रहे? जिसे तुम खोजने निकले हो, वह खोजने वाले के भीतर छिपा है। और जब तक तुम उसे कहीं और खोजते रहोगे, खोते रहोगे। जिस दिन सब खोज छोड़ दोगे और अपने भीतर ठहरोगे, अनहद में विश्राम करोगे, उस क्षण पा लोगे।

खोया तो उसे है ही नहीं। वह तो तुम्हारे भीतर मौजूद ही है। एक क्षण को नहीं खोया है। सिर्फ भूल गए हो, विस्मरण किया है। स्मरण भर की कोई आवश्यकता है। और यह स्मरण शायद किसी सदगुरु के सत्संग में तो मिल जाए, लेकिन तीर्थों में क्या है!

तीर्थ बने कैसे? कभी कोई सदगुरु वहां था, तो तीर्थ बन गए। लेकिन सदगुरु तो जा चुका कभी का!

बुद्ध कभी बोधगया में थे, तो तीर्थ बन गया। अब सारी दुनिया से बौद्ध आते हैं बोधगया की यात्रा करने। क्या पागलपन है!

कोई समझाए यह क्या रंग है मैखाने का,

आंख  साकी  की  उठे  नाम  हो  पैमाने  का।

वह तो किसी साकी की आंख थी, जिससे नशा छा गया था, खुमारी आ गई थी।

कोई समझाए यह क्या रंग है मैखाने का,

आंख साकी की उठे नाम हो पैमाने का।

गर्मिए-शम्मा का अफसाना सुनाने वालो,

रक्स देखा ही नहीं तुमने अभी परवाने का।

किसको मालूम थी पहले से खिरद की कीमत,

आलमे-होश पर एहसान है दीवाने का।

चश्मे-साकी मुझे हर गाम पे याद आती है,

रास्ता भूल न जाऊं कहीं मैखाने का।

अब तो हर शाम गुजरती है उसी कूचे में,

यह नतीजा हुआ नासेह तेरे समझाने का।

मंजिले-गम से गुजरना तो है आसां “इकबाल’

इश्क है नाम खुद अपने से गुजर जाने का।

बात तो अपने से गुजर जाने की है। हां, किसी बुद्धपुरुष की आंख में शायद झलक मिल जाए। मगर तीर्थों में क्या रखा है? तीर्थ तो मजार हैं।

कोई समझाए यह क्या रंग है मैखाने का,

आंख साकी की उठे नाम हो पैमाने का।

गर्मिए-शम्मा का अफसाना सुनाने वालो,

रक्स  देखा  ही  नहीं  तुमने  अभी  परवाने  का।

तुम्हें तो मस्तों की कोई महफिल खोजनी चाहिए। अगर रक्स ही देखना हो, अगर नाच ही देखना हो, तो परवाने का देखना चाहिए।

हां, जब कोई बुद्ध मौजूद होता है, तो मधुशाला जीवित होती है। तो वहां झरने फूटते हैं शराब के। वहां पियक्कड़ इकट्ठे होते हैं। कभी काबा में इकट्ठे हुए थे। वह काबा के पत्थर की बात न थी, वह मोहम्मद की मौजूदगी थी। मोहम्मद की मौजूदगी में काबा का पत्थर भी लोगों को नशा देने लगा था। आंख साकी की थी और नाम पैमाने का हो गया! तीर्थ यूं बन जाते हैं, और फिर सदियों तक लोग तीर्थों में भटकते रहते हैं!

सूत्र ठीक कहता है:

अधमा तंत्रचिंता च तीर्थ भ्रांत्यधमाधमा।।

अनुभूतिं विना मूढ़ो वृथा ब्रह्मणि मोदते।

प्रतिबिंबितशाखाग्रफलास्वादनमोदवत।।

प्यारी बात है: “जैसे कोई पेड़ की छाया में प्रतिबिंबित फल को खाकर प्रसन्न हो…।’

पेड़ के नीचे बैठो। छाया में फल दिखाई पड़ता हो–छाया में! आम लगे हों वृक्ष पर, और छाया में भी आम दिखाई पड़ेंगे। और उन्हीं को, छाया के आमों को खा-खा कर कोई जैसे प्रफुल्लित होता रहे, ऐसे तुम पागल हो–अगर शास्त्रों में उलझे हो, अगर तीर्थों में उलझे हो, अगर तंत्रों और मंत्रों में उलझे हो।

“वास्तविक अनुभव के बिना सिर्फ मूढ़ मनुष्य ही कल्पना करता रहता है ब्रह्म को पा लेने की।’

अनुभव हो सकता है अभी और यहीं। अनुभव के लिए एक क्षण भी ठहरने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अनुभव होगा–उत्तमा तत्त्वचिंतैव–अनुभव तो उत्तम बात है, श्रेष्ठतम शिखर है। वह तो ध्यान में होगा, शून्य में होगा, मौन में होगा।

आंख से सारे पर्दे हटाओ। बाहर से आंख बंद करो, भीतर आंख खोलो। ठहरो चुप्पी में, मौन में, शून्य में। भीतर जब सारा जल ठहर जाए, तरंग भी न उठे, तो प्रतिफलित होगा परमात्मा। सारा अस्तित्व अपने सारे सौंदर्य के साथ तुम्हारे भीतर झलक उठेगा। वह झलक, बस एक झलक! और काफी है। जन्मों-जन्मों की भूली-बिसरी याद फिर आ जाती है। जिसे कभी खोया नहीं था, वह फिर मिल जाता है।

दूसरा प्रश्न: भगवान, डोंगरे महाराज अपने प्रवचन के बाद श्रोताओं को लस्सी-बूंदी इत्यादि प्रसाद वितरित करवाते हैं। कृपया समझाएं कि ब्रह्मचर्चा और लस्सी-बूंदी में क्या संबंध है।

 सुभाष सरस्वती!

संबंध जरूर है। मैं रोज जब वापस लौटता हूं प्रवचन-स्थल से, तो सुभाष रास्ते में खड़े दिखाई पड़ते हैं। बिलकुल उदास! तभी मैं सोचता हूं कि लस्सी-बूंदी की जरूरत है। सुभाष ऐसे खड़े रहते हैं, जैसे प्राण-पखेरू कभी के उड़ चुके हों! सारे संसार का भार लिए हुए! बोझ इतना कि उनकी गर्दन तक आड़ी रहती है।

तब मैं भी सोचने लगता हूं कि प्रवचन के बाद लस्सी और बूंदी बंटनी चाहिए। ये बेचारे सुभाष को देखो!

प्रसाद का तो बड़ा मूल्य है।

मेरे गांव में एक कबीरपंथी महंत थे, साहबदास जी! महामूढ़ थे। मतलब यह कि डोंगरे महाराज वगैरह कुछ भी नहीं उनके सामने! मगर थे वे महंत, और बड़ा उनका अखाड़ा था, बड़ी जमीन-जायदाद थी। सो लोग मानते थे उन्हें। और मैं इसका लाभ उठाता था। लाभ यह था कि गांव में कोई भी सभा हो, मैं उनको निमंत्रित कर आता। मुझे उनके व्याख्यान में बहुत आनंद आता था। वे ऐसी-ऐसी गजब की बातें कहते थे कि न कभी आंखों देखी, न कभी कानों सुनी! वे क्या चले गए संसार से, संसार में वह बात ही न रही! मैं आमतौर से किसी के मरने पर दुखी नहीं होता, मगर साहबदास जब मरे तो मैं दुखी हुआ।

उनको मैं निमंत्रण कर आता था। कोई भी सभा हो, किसी तरह की सभा हो–राजनीति की सभा हो, साहित्य की सभा हो, धर्म की सभा हो–मैं चला जाता, उनको निमंत्रित कर आता कि आपको आना ही है, बोलना ही है! वे बोलने को बड़े उत्सुक भी रहते थे। कभी-कभी मुझसे पूछते थे कि तू सभी सभाओं का इंतजाम करता है? कोई भी सभा हो, संयोजक तू ही?

मैंने कहा, क्या करूं! गांव के लोग मानते नहीं। वे कहते हैं कि सम्हालो, तो सम्हालना पड़ता है। और आपके बिना तो सभा यूं जैसे दूल्हे के बिना बारात! आपको तो आना ही होगा।

और पक्का कर लेने के लिए कि वे आ ही जाएंगे…। वे तो आ ही जाते; वे तो हमेशा ही आ जाते थे; फिर भी मैं किसी व्यक्ति को भेज देता कि तुम मौजूद ही रहना; देर-अबेर न हो। क्योंकि उनके बिना सभा बेकार है।

और जो भी सभा करते, वे मुझसे डरते। वे मेरे पास हाथ-पैर जोड़ कर खबर पहुंचाते कि आप साहबदास जी को मत बुला लाना। कि हम आपके हाथ जोड़ते हैं, आपके पैर पड़ते हैं, साहबदास जी को भर मत बुला लाना! नहीं तो वे सब खराब कर देंगे। क्योंकि वे कुछ-कुछ बोलते हैं, जिसका कोई मतलब ही नहीं है। और उनसे कोई कुछ कह भी नहीं सकता।

मगर मैं उनको निमंत्रण दे ही आता। और वे जैसे ही आते, मैं मंच के पास ही खड़ा रहता और कहता, साहबदास जी आइए! विराजिए-विराजिए! सो उनको भी भरोसा रहता कि मैं संयोजक हूं। और उनके डर के मारे, क्योंकि थे तो वे महंत बड़े, कोई यह भी नहीं कह सकता था कि भई तुम कौन हो? तुम क्यों उनको बिठाते हो मंच पर जब हमने इनको बुलाया ही नहीं?

सो ऐसे दोनों के बीच में बात चल जाती थी। उनसे कोई कह नहीं सकता था कि आप क्यों मंच पर चढ़ रहे हो? मुझसे कोई कह नहीं सकता था उनके सामने कि तुम क्यों उन्हें मंच पर बिठाल रहे हो? सो उनको भी भ्रांति रहती कि मैं संयोजक हूं और लोगों को भी पक्का था कि मैं बुला कर लाऊंगा, मैं बिना उनके सभा होने नहीं दूंगा।

और फिर मैं अपने पांच-सात विद्यार्थियों को रखता। उनसे चिटें लिखवा कर पहुंचाने लगता कि साहबदास जी का भाषण होना चाहिए! बीच-बीच में मैं खड़ा हो जाता कि अब बहुत हो गई बकवास, साहबदास जी का भाषण होना चाहिए! यह जनता की मांग है! और जनता दुखी होती, मगर करो क्या! साहबदास जी का व्याख्यान होना चाहिए!

जयशंकर प्रसाद की जन्म-जयंती मनाई जा रही थी। मैं उनको बुला लाया। जब मैंने उनको निमंत्रण दिया, उन्होंने कहा, यह प्रसाद है कौन? अरे, मैंने कहा, प्रसाद यानी प्रसाद! अब आप नहीं जानते प्रसाद? मतलब हर सभा के बाद जो बंटता है वही!

उन्होंने कहा, फिर ठीक। फिर मैं बोलूंगा।

फिर आकर उन्होंने जो प्रसाद की महिमा गाई, जनता सिर ठोंके! कि जयशंकर प्रसाद की तो यह जयंती हो रही है और उसमें बूंदी और लस्सी की चर्चा चल रही है! और वे समझा रहे कि बिना प्रसाद के कोई सभा पूरी होती ही नहीं।

वही तो डोंगरे महाराज कहते हैं। और लाभ तो है ही।

तुमने डोंगरे महाराज का अभी कुछ ही दिन पहले तो वक्तव्य देखा कि पहले शक्ति चाहिए। लस्सी और बूंदी के बिना कहीं शक्ति होती है? अरे पंजाबी में जो शक्ति होती है, वह लस्सी के ही कारण तो होती है! जब पूरा पंजाबी गिलास भर कर लस्सी पीओगे, तब शक्ति उतरती है। और फिर उसके ऊपर से बूंदी भी होनी चाहिए। क्योंकि लस्सी में थोड़ी सी खटास होती है। कहीं बुद्धि बिलकुल खट्टी न हो जाए। तो थोड़ी मिठास भी चाहिए।

वही तो उन्होंने समझाया कि शक्ति के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। शक्ति से होती भक्ति! भक्ति से होता ध्यान! डोंगरे महाराज समझाते हैं।

इसलिए तो मैंने तुमसे कहा कि–जैसे मेरी संन्यासिनी है, मां प्रेम शक्ति। अब उसकी शिष्याएं भी हो गईं। राज भारती की पत्नी नीलम उसकी शिष्या हो गई! और नीलम ने मुझे पत्र लिखा है कि भगवान, मुझे ऐसा लगता है कि शक्ति से मेरे जन्मों-जन्मों के संबंध हैं!

अरे, होने ही चाहिए। शक्ति के बिना कहीं भक्ति? भक्ति के बिना ज्ञान? कुछ भी नहीं। और जब नीलम शक्ति की भक्ति हो गई, तो राज भारती भी चले आए दो दिन बाद। वे भी दिखाई पड़ रहे हैं! अरे, जब पत्नी ही भक्ति हो गई, तो अब राज भारती भी क्या करें! पति को तो हमेशा पत्नी का अनुसरण करना पड़ता है। अब शक्ति का प्रचार हो रहा है!

तो उस शक्ति को बढ़वाने के लिए बेचारे मेहनत करते हैं। लस्सी बंटवाते हैं। बूंदी खिलवाते हैं। और प्रसाद की तो महिमा है। प्रसाद के बिना कहीं कोई प्रवचन पूरा होता है!

इसीलिए तो मेरे प्रवचन धार्मिक नहीं हैं, क्योंकि इनमें प्रसाद होता ही नहीं। और लोग जाते ही क्यों हैं धार्मिक प्रवचन में? प्रसाद के लिए! असली चीज तो प्रसाद है। धार्मिक प्रवचन तो मजबूरी है, सुनना पड़ता है; क्योंकि नहीं तो प्रसाद कहां से मिलेगा!

सरदार बिचित्तर सिंह ट्रेन में सफर कर रहे थे। पोपटलाल गुजराती और उसकी पत्नी भी उसी डिब्बे में थे। पोपटलाल की पत्नी ने पोपटलाल से कहा, पप्पू के पिता, गर्मी लग रही है, खिड़की खोल दें!

अब पोपटलाल बेचारे गुजराती! न पी कभी लस्सी, न खाई कभी बूंदी। पोपटलाल ने बड़ी कोशिश की, पर खिड़की सख्त थी, सो न खुली। न खुली सो न खुली।

सरदार बिचित्तर सिंह यह देख रहे थे और मुस्कुरा रहे थे। फौरन उठे और एक क्षण में खिड़की खोल दी। और पोपटलाल से बोले कि लाला, लस्सी पीओ!

पोपटलाल को दुख तो बहुत हुआ कि कमबख्त सरदार! मगर करें भी क्या! और जब उसने खिड़की खोल दी, तो यह भी समझ में आ गया कि इससे झंझट लेना खतरे से खाली भी नहीं। खुद तो खिड़की नहीं खोल पाए थे, यह और भीतर तक की खिड़कियां खोल देगा। सो चुप ही रहे।

थोड़ी देर बाद पोपटलाल की पत्नी को ठंड लगने लगी। सो उसने पति से कहा कि पप्पू के पिता, अब खिड़की बंद कर दो!

सख्त होने के कारण खिड़की पोपटलाल से बंद नहीं हुई। फिर बिचित्तर सिंह उठे और उठ कर खिड़की बंद कर दी। और बोले, लाला, लस्सी पीओ!

पोपटलाल को बहुत बुरा लगा। गुजराती थे, सहनशील थे, शांति रखी। गांधीवादी थे, अहिंसा में भरोसा करते थे। भीतर ही भीतर अहिंसा परमो धर्मः का विचार भी किया। मगर चोट तो बहुत लगी, कि लस्सी पीओ! यह कमबख्त सरदार बार-बार लस्सी पीओ! लस्सी पीओ! इसने समझ क्या रखा है? और फिर पत्नी के सामने ही बेइज्जती हो रही है! एकांत भी होता, पत्नी न होती, तो भी ठीक था। पत्नी पर भी बिचित्तर सिंह का असर पड़ रहा है। वह भी बिचित्तर सिंह की तरफ आंखें फाड़-फाड़ कर देख रही है। अरे, मर्द बच्चा मालूम होता है! पोपटलाल वैसे ही छोटे, और छोटे हुए जा रहे हैं!

पोपटलाल को बहुत बुरा लगा। बदला लेने का इरादा किया। रास्ता ढूंढ़ने लगे। अहिंसावादी कोई रास्ता होना चाहिए, जिसमें झगड़ा-झांसा भी न हो, क्योंकि यह आदमी खतरनाक है। और वहां कोई और है भी नहीं। पत्नी है, पोपटलाल हैं, और बिचित्तर सिंह है। पिटेंगे भी और पत्नी भी हाथ से जाएगी। क्योंकि पत्नी इतने गौर से देख रही है बिचित्तर सिंह को! वह जंजीर खींचने का झूठ-मूठ बहाना करने लगा। पोपटलाल ने तरकीब निकाली, गांधीवादी तरकीब! झूठ-मूठ जंजीर खींचने का बहाना करने लगा।

पोपटलाल से जंजीर न खिंचते देख कर बिचित्तर सिंह ने आव देखा न ताव, थे तो सरदार ही, आ गए चक्कर में, सटाक से जंजीर खींच दी! और पोपटलाल से बोले, लाला, मैंने कहा न कि लस्सी पीओ!

झटके के साथ ट्रेन रुक गई। गार्ड आया। बिना किसी कारण जंजीर खींचने के कारण बिचित्तर सिंह को पांच सौ रुपए का जुर्माना भरना पड़ा।

पोपटलाल प्रसन्न हैं कि क्या मारा! चारों खाने चित्त कर दिया। इशारे से चित्त कर दिया। न हल्दी लगी न फिटकरी, रंग चोखा हो गया। सीना फुला कर गौर से पत्नी की तरफ देख कर मुस्कुरा रहे हैं, कि देखा पप्पू की मां! क्या लस्सी पिलाई सरदार को! अब बोलने की बारी स्वभावतः पोपटलाल की थी। बोले, सरदार जी, लस्सी के साथ थोड़ी-थोड़ी बूंदी भी खाया करो! क्योंकि बूंदी में मिठास होती है। और ज्ञान मीठा होता है। सो थोड़ा ज्ञान भी चाहिए। शक्ति तो चाहिए, मगर ज्ञान भी चाहिए।

इसलिए सुभाष! बेचारे डोंगरे महाराज लस्सी भी बंटवाते हैं, बूंदी भी खिलवाते हैं, जिससे कि शक्ति भी रहे और भक्ति भी रहे। लस्सी से शक्ति! बूंदी से भक्ति!

अरे, कबीरदास जी कह ही गए हैं: समुंद में बुंद समाना, सो कत हेरी जाई! और बुंद में समुंद समाना, सो कत हेरी जाई! अरे, बूंदी में तो समुंद समाया हुआ है, जरा खोजो।

और सुभाष, तुम्हें दोनों चीजों की जरूरत है। तुम लस्सी भी पीओ और बूंदी भी खाओ। लस्सी से थोड़ा सरदारीपन तुममें आएगा। वह जो तुम गर्दन तिरछी करके खड़े रहते हो, वह सीधी हो जाएगी। और बूंदी से तुम्हारा ज्ञान भी थोड़ा बढ़ेगा। नहीं तो अज्ञानी के अज्ञानी रह जाओगे! और तुम्हारी अवस्था पोपटलाल की है; क्योंकि पत्नी सुभाष की गुजराती है! सो तुम पत्नी का भी खयाल रखो। अगर लस्सी न पी लाला, तो हमारे कोई संत महाराज तुम्हारी पत्नी को ले भागेंगे! पहले से ही सावधान कर देना उचित है।

आखिरी सवाल: भगवान, मेरे पिताजी आप पर बहुत नाराज हैं। आपके विचारों से तो सहमत हैं। यहां तक कि संन्यास भी लेना चाहते हैं। नाराजगी का कारण है, आपके चंदूलाल मारवाड़ी के लतीफे। मेरे पिताजी मारवाड़ी हैं और उनका नाम चंदूलाल है!

 विजय!

यह तो बड़ा तुमने अच्छा किया, याद दिला दी। यह आठ-दस दिन से मैं चंदूलाल को बिलकुल भूला ही हुआ था। और तुम्हारे पिताजी हैं, सो तो स्वभावतः अब कभी नहीं भूलूंगा। तुम्हारे पिताजी के लिए कुछ लतीफे।

न्यायाधीश ने अदालत के कठघरे में खड़े सेठ चंदूलाल से कहा, इतनी छोटी सी बात के आधार पर, सेठ, तलाक नहीं दिया जा सकता। क्या तुम्हारे पास कोई ठोस प्रमाण भी हैं जिनसे पता चले कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारे प्रति वफादार नहीं?

चंदूलाल ने कहा, एक नहीं हजारों प्रमाण हैं, माई लार्ड! कल की ही रात की बात है। यह रात को तीन घंटे गायब रही। और पूछने पर सफाई पेश करने लगी कि मैं अपनी सहेली गुलजान के साथ सिनेमा देखने गई थी।

जज ने पूछा, मगर तुम्हें यह कैसे पता चला कि तुम्हारी पत्नी झूठ बोल रही थी?

चंदूलाल ने कहा, क्योंकि कल रात को मैं तो खुद ही गुलजान के साथ सिनेमा देखने गया था! अब आप स्वयं सोचिए कि यह औरत मेरे साथ सरासर धोखा कर रही है या नहीं!

तुम्हारे पिताजी हैं तो मैं क्या करूं विजय, आदमी वे गजब के हैं!

फजलू अपने साथ पढ़ने वाली रीता नामक एक लड़की पर फिदा हो गया। एक दिन यह पता लगा कर कि वह किस मोहल्ले में रहती है, फजलू वहां जा पहुंचा। अब मुश्किल यह थी कि उसका घर कैसे ढूंढा जाए! फजलू ने सामने से चले आ रहे एक वृद्ध सज्जन से पूछा, दादा जी, क्या आपको पता है कि रीता कहां रहती है? मैं उसका भाई हूं। लेकिन पांच-छह सालों के बाद इस शहर में आया हूं। अतः पहचान नहीं पा रहा हूं कि उसका मकान कौन सा है। सब बदला-बदला नजर आ रहा है!

उस बूढ़े आदमी ने फजलू के कंधे पर हाथ रख कर कहा, तुमसे मिल कर बड़ी प्रसन्नता हुई बेटे। मैं रीता का बाप सेठ चंदूलाल मारवाड़ी हूं!

एक मोटा व्यक्ति समुद्रतट पर बैठा सामने की ओर देख रहा था, जहां जवान लड़कियां अल्प वस्त्रों में व्यायाम कर रही थीं। पास से गुजरते हुए दूसरे मोटे व्यक्ति ने कहा, आपका क्या खयाल है सेठ चंदूलाल! क्या इससे वजन घटता है?

चंदूलाल ने जवाब दिया, क्यों नहीं! इसी दृश्य को देखने के लिए तो मैं रोज सुबह तीन मील चल कर आता हूं! अरे, वजन क्यों नहीं घटेगा? घटता है।

सेठ चंदूलाल मारवाड़ी ने अपने दोस्त ढब्बूजी को बताया कि मेरी पत्नी कपड़ों के पीछे दीवानी है। जब देखो तब कपड़ों की मांग करती रहती है। सुबह से शाम तक एक ही रट लगाए रखती है कि नए कपड़े चाहिए। मैं तो यह सुन-सुन कर घनचक्कर हुआ जा रहा हूं। शादी को बीस साल हो गए, एक दिन ऐसा नहीं होता, जब वह कपड़ों की रट न लगाती हो। बस कपड़े! कपड़े! कपड़े!

ढब्बूजी बोले, आश्चर्य की बात है! आखिर वह इतने कपड़ों का करती क्या है?

चंदूलाल ने कहा, मुझे क्या पता! मैंने तो आज तक एक भी कपड़ा खरीद कर दिया नहीं। अरे, जब दहेज में मिले वस्त्रों में सब आराम से चल रहा है, तो नए कपड़ों में भला क्यों पैसा व्यर्थ किया जाए! कल फिर मुझसे कहने लगी कि अब तो कपड़े नाम-मात्र को ही बचे हैं। पड़ोस के छोकरे खिड़की में से झांक-झांक कर तमाशा देखते हैं! अब तो कुछ करो, मोहल्ले भर में हंसी होती है!

ढब्बूजी ने पूछा, तो फिर तुमने कुछ किया?

सेठ चंदूलाल बोले, और भला क्या करता! यही किया कि एक पुरानी साड़ी का पर्दा बना कर खिड़की पर लटका दिया।

पहुंचे हुए व्यक्ति हैं तुम्हारे पिताजी, विजय!

नसरुद्दीन आफिस गया था और फजलू स्कूल। गुलजान घर में अकेली थी। दोपहर को नसरुद्दीन के दोस्त सेठ चंदूलाल आए और धीरे-धीरे बातों ही बातों में एक हजार रुपए के बदले में गुलजान को अपना स्त्रीत्व बेचने के लिए फुसलाने लगे। कुछ समय तक आनाकानी करने के बाद गुलजान तैयार हो गई। चंदूलाल ने उसे नगद एक हजार रुपयों का बंडल थमा दिया।

शाम को नसरुद्दीन ने आफिस से आते ही पूछा, अरे, आज क्या मेरा दोस्त चंदूलाल आया था? उसकी छड़ी वहां कोने में टिकी है। लगता है छड़ी भूल गया!

गुलजान को तो पसीना छूट गया। मगर अब क्या कर सकती थी, कोने में छड़ी टिकी तो थी। बोली, हां, आज दोपहर को आया था।

मुल्ला ने कहा, गजब हो गया। मारवाड़ी से ऐसी आशा न थी। क्या वह पूरे एक हजार रुपए दे गया?

यह सुन कर तो गुलजान पर जैसे बिजली गिर पड़ी हो। घबड़ाहट में उसके मुंह से निकल गया, हां, पूरे एक हजार।

नसरुद्दीन ने खुशी से उछलते हुए कहा, मान गया मैं भी कि मारवाड़ी भी वायदे के पक्के होते हैं। पिछले महीने उसने एक हजार रुपए उधार लिए थे और वचन दिया था कि ठीक एक माह में आज की ही तारीख को लौटा दूंगा!

तुम घबड़ाओ मत विजय, अपने पिताजी को घर लौट कर कहना कि मैं तो चंदूलाल के लतीफे कहना बंद नहीं कर सकता, एक तरकीब है आसान। वे आ जाएं और संन्यासी हो जाएं। उनका नाम बदल दूंगा।

आज इतना ही।

आनहद में विसराम-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन-(गुरु तीर्थ हैं)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 17, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

      बलं वाव विज्ञानाद् भूयः;

      अपि ह शतं विज्ञानवतां

      एको बलवान आकंपयते।

      स यदा बली भवति, अथोत्थाता भवति, उत्तिष्ठन परिचारिता भवति,

      परिचरन उपसत्ता भवति, उपसीदन द्रष्टा भवति,

      श्रोता भवति, मन्ता भवति,

      बुद्धा भवति,र् कत्ता भवति, विज्ञाता भवति।।

विज्ञान से बल श्रेष्ठ है, क्योंकि एक बलवान मनुष्य सौ विद्वानों को डराता है। बलवान होने पर ही मनुष्य उठ कर खड़ा होता है; उठने पर वह गुरु की सेवा करता है; सेवा करने से वह गुरु के पास बैठने लायक बनता है; पास बैठने से द्रष्टा बनता है, श्रोता बनता है, मनन करने वाला बनता है, बुद्ध बनता है, कर्ता बनता है, विज्ञानी बनता है।

भगवान, छांदोग्य उपनिषद के इस अजीब से सूत्र का आशय क्या है, यह हमें विशद रूप से समझाने की अनुकंपा करें।

 सहजानंद! Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-07)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-(ऋषि पृथ्वी के नमक हैं)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 16, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

      लौकिकानां हि साधूनामर्थ वागनुवर्तते।

      ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति।।

लौकिक साधुओं की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है; लेकिन जो आदि ऋषि थे, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता था।

भगवान, वसिष्ठ के इस सूत्र को समझाने की अनुकंपा करें। क्या आदि ऋषि वास्तव में इतने ही श्रेष्ठ थे?

 योग प्रतीक्षा!

साधु, और लौकिक! वह बात ही विरोधाभासी है। फिर साधु और असाधु में भेद क्या रहा? असाधु वह, जो लौकिक; जिसकी दृष्टि पदार्थ के पार नहीं देख पाती, पदार्थ में ही अटक जाती है; अंधा है जो। क्योंकि पदार्थ को ही देखने से बड़ा और क्या अंधापन होगा!

अस्तित्व परमात्मा से भरपूर है–सौंदर्य से, सत्य से, आनंद से; और तुम्हें केवल पदार्थ ही दिखाई पड़ता हो! एक बात जाहिर होती है उससे कि तुम्हारे पास सूक्ष्म को देखने की दृष्टि नहीं; सिर्फ स्थूल तुम्हारी पकड़ में आता है।

असाधु वह, जो स्थूल को ही पहचानता है। इतना ही नहीं, जो अपने अहंकार की रक्षा के लिए सूक्ष्म को इनकार भी करता है। क्षमा किया जा सकता है वह व्यक्ति, जो कहे कि मैं क्या करूं, अभी तो मुझे स्थूल ही दिखाई पड़ता है! हो सकता है, सूक्ष्म भी हो। खोजूंगा, तलाशूंगा, जिज्ञासा करूंगा। मैंने अपने चित्त के द्वार बंद नहीं कर लिए हैं। लेकिन वह व्यक्ति क्षमा नहीं किया जा सकता, जो कहता हो, पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। क्योंकि उसने सूक्ष्म के प्रवेश का मार्ग ही अवरुद्ध कर दिया। अब उसे व्यर्थ ही दिखाई पड़ेगा, सार्थक की कोई प्रतीति नहीं होगी।

इसलिए वसिष्ठ के इस सूत्र में पहला आक्षेप तो मुझे यह है कि वे कहते हैं: “लौकिकानां हि साधूनामर्थ वागनुवर्तते। वह जो लौकिक साधु है, उसकी वाणी अर्थ का अनुसरण करती है।’

लौकिक साधु जैसी कोई घटना ही नहीं होती। और अगर होती है, तो फिर उसे साधु न कहो। जिसको परमात्मा की जरा सी झलक भी न मिलती हो, उसे साधु कहोगे? जिसे किरण भी दिखाई न पड़ती हो, उसे आंख वाला कहोगे? जिसे सौंदर्य का बोध ही न होता हो, उसे कवि कहोगे? सौंदर्य-मर्मज्ञ कहोगे? जिसके जीवन में प्रेम की बूंदा-बांदी भी न हुई हो, उसे प्रेमी कहोगे?

लौकिक साधु तो सिर्फ पाखंडी है। यद्यपि यह सच है–और शायद इसीलिए वसिष्ठ ने यह सूत्र कहा–कि सौ साधुओं में से निन्यानबे लौकिक साधु हैं। ऐसा लगता है, वसिष्ठ कठोर नहीं होना चाहते होंगे, इसलिए बात को मिठास से कह दिया। कबीर जैसे न रहे होंगे।

कबीर ने कहा है: कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।

कि कबीर बाजार में खड़ा है, लट्ठ हाथ में लिए हुए।

कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।

जो  घर  बारै  आपना,  चलै  हमारे  साथ।।

हो हिम्मत घर को जलाने की, तो आ जाओ, चलो हमारे साथ। लट्ठ लिए, कबीर कहते हैं, मैं खड़ा हूं बाजार में!

कबीर सीधी चोट करते हैं। उस चोट में कहीं कोई समझौता नहीं होता। वसिष्ठ सत्य को भी कहते हैं, तो लीप-पोत देते हैं। उसको भी थोड़ी सी मिठास, थोड़ी सी चासनी दे देते हैं!

लौकिक साधु? ऐसी कोई बात ही नहीं होती। लौकिक होगा, तो साधु नहीं। साधु होगा, तो लौकिक नहीं। यह तो विपरीत को एक साथ जोड़ देना हो गया। यह तो यूं हुआ, जैसे कोई कहे, अंधेरा दिन! यह तो आधी रात ऊगा हुआ सूरज हो गया!

लेकिन एक अर्थ में वसिष्ठ ठीक कहते हैं कि निन्यानबे साधु, सौ में से, ऐसे ही हैं। नाम-मात्र के साधु! साधु का वेश है, साधु की आत्मा नहीं। साधु का आवरण है, साधु का अंतस नहीं। और आवरण बड़ी सस्ती बात है। आचरण भी बड़ी सस्ती बात है। कोई कठिनाई नहीं है साधु के आचरण में। थोड़े अभ्यास की बात है। दो बार भोजन न किया, एक बार भोजन किया। यह न खाया, वह न पीया। या जैसा कल डोंगरे महाराज ने बताया कि पानी पीओ, तो पहले प्रभु का स्मरण करो। पानी भी पीओ, तो प्रभु का स्मरण करो। भोजन करो, तो प्रभु का स्मरण करो। अगर अन्न बिना प्रभु के स्मरण के खाया, तो पाप खाया! पानी बिना प्रभु के स्मरण के पीया, तो पाप पीया!

ऐसे एक महापुरुष से मेरा मिलना हो गया था। मैं आगरा से गुजर रहा था; जयपुर से लौटता था, आगरा में कोई छह घंटे का समय था गाड़ी बदलने में। एक मित्र बहुत दिन से पत्र लिखते थे कि कभी आगरा से गुजरें–और आप जरूर गुजरते होंगे, क्योंकि जयपुर की खबरें मिलती हैं; और यहां छह घंटे स्टेशन पर रुकना ही होता होगा, तो मेरे घर को ही पवित्र करें।

तो मैंने कहा, ठीक। उन्हें खबर कर दी।

जानता तो नहीं था, पहचानता तो नहीं था; पत्र से ही मुलाकात थी। जो सज्जन लेने आए थे, उन्होंने आते ही से कहा कि बस, जल्दी करिए! कहीं मेरे बड़े भाई न आ जाएं!

मैंने पूछा कि आप ही मुझे पत्र लिखते थे?

उन्होंने कहा कि नहीं, पत्र तो मेरे बड़े भाई लिखते हैं। मगर मेरी और उनकी जानी दुश्मनी है। यह मौका मैं नहीं दे सकता कि आपका स्वागत वे करें। सो मैं पहले से ही हाजिर हूं! बंटवारा हो गया है। आधे मकान में वे रहते हैं, आधे में मैं रहता हूं। और आपको तो मेरा ही आतिथ्य-ग्रहण स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि मैं ही पहले आया हूं!

मैंने कहा, मुझे क्या फर्क पड़ता है! और आधा घर तुम्हारा, आधा बड़े भाई का! चलो, तुम्हारे साथ ही चल पड़ता हूं; तुम आ गए।

उनको लेकर बीच रास्ते पर ही पहुंचा था कि बड़े भाई आ गए! एकदम भागे हुए चले आ रहे थे! आते ही से बोल, ओम! मैंने पत्र लिखा था, उन्होंने कहा, और यह छोटा भाई आपको कहां ले जा रहा है? यह दुष्ट यहां भी आ गया! चलिए, बैठिए मेरे तांगे में!

छोटे भाई ने कहा कि देखिए, मैंने पहले ही कहा था कि जल्दी करिए। अगर बड़ा भाई आ गया, तो बस मुश्किल हो जाएगी!

और बड़ा भाई था भी पहलवान-छाप! छोटे भाई थे भी दुबले-पतले। तो बड़े भाई ने आव देखा न ताव, उन्होंने तो सामान ही उतार कर मेरा भी हाथ पकड़ कर अपने तांगे में ही बिठा लिया! लेकिन एक उनकी खूबी थी कि कोई भी काम करते थे, तो पहले ओम कहते थे! मेरा हाथ पकड़ कर उतारा, तो ओम! मेरा बिस्तर उतारा, तो ओम! हालांकि कर रहे थे बिलकुल गलत काम। क्योंकि वह छोटा भाई बेचारा चुपचाप खड़ा था। अब क्या कहे! और मैं देख रहा था कि अगर वे उसकी पिटाई भी करेंगे, तो पहले, ओम! और वही हुआ।

उनके घर पहुंच गया। बंटवारा कर लिया था घर का, लेकिन एक कक्ष बीच का, बड़ा कमरा था, वह खाली छोड़ रखा था; वह बांटा नहीं था। उसमें दोनों आ-जा सकते थे। बाकी तो प्रवेश असंभव था एक-दूसरे के घर में, मगर एक कमरा छोड़ रखा था। तो जैसे ही मैं बड़े भाई के घर में प्रविष्ट हुआ, दरवाजे पर ही उन्होंने कहा, ओम। आइए भीतर!

छोटे भाई ने अपने दरवाजे से कहा कि देखिए, आप इतनी कृपा करिए कि कम से कम बीच के कमरे में रुकिए, वहां मैं भी आ सकता हूं, बड़े भाई भी आ सकते हैं। अगर आप उनके ही घर में रुके, तो मैं नहीं आ सकूंगा। मेरे घर में रुके, तो वे नहीं आ सकेंगे!

मैंने कहा, यह बात तो ठीक है।

लेकिन बड़े भाई ने कहा, ओम! और सामान उठा कर वे तो अपने घर में ही ले गए!

बड़े भाई फोटोग्राफर थे। सो उन्होंने कहा, इसके पहले कि छोटा भाई उपद्रव करे, और यह आएगा बार-बार दरवाजे पर और कहेगा कि मेरे घर आइए, और भोजन करिए; यह करिए, वह करिए; मैं आपकी तस्वीर उतार लूं। इसी के लिए असल में मैंने आपको पत्र लिखा था। यही एक आकांक्षा थी।

मैंने कहा, जैसी मर्जी! अब आपके हाथ में हूं, छह घंटे जो करना हो, करिए!

तस्वीर भी क्या उतारी! हर चीज में ओम! बिलकुल डोंगरे महाराज के भक्त थे! प्लग भी लगाएं, तो ओम! प्लग निकालें, तो ओम! मुझे कुर्सी पर बिठालें, तो ओम! कैमरा घुमाएं, तो ओम! प्लेट लगाएं, तो ओम! ओम से ही सब चीज शुरू हो!

एक कंघी ले आए और मेरे बाल बनाने लगे, और बोले, ओम!

मैंने कहा, देखें, मैं जैसा हूं, तुम मुझे वैसा ही छोड़ो!

एकदम नाराज हो गए। आदमी तो गुस्सेबाज थे ही। कहा, जैसी मर्जी! ओम कह कर कंघी फेंक दी और मेरे बाल एकदम छितरा दिए!

जब यह सब चल रहा था, तभी पड़ोस के एक सज्जन आ गए। उनको भी खबर मिल गई कि मैं आया हूं, तो आकर बैठ गए। यह फोटो उतर जाए, तो फिर वे मुझसे कुछ बात करना चाहते थे। तभी बड़े भाई की नौकरानी निकली, और उन सज्जन ने कहा कि बाई, एक गिलास पानी! गरमी के दिन थे। बस, एकदम बोले, ओम! अरे, मर्द बच्चा होकर शर्म नहीं आती स्त्री से पानी मांगते हो! नल सामने लगा है, भर लो और पी लो! मर्द होकर और स्त्री से पानी मांगना! फिर मेरी तरफ धीरे से बोले, ओम! यह मेरे भाई का दोस्त है। साले को ठीक किया!

ओम भी कहते जाते हैं!

ये जो तुम्हारे तथाकथित साधु हैं, ये ओम का उच्चार भी करते रहेंगे और ओम के भीतर क्या-क्या नहीं भरा होगा! क्या-क्या नहीं उपद्रव होंगे! आचरण भी साध लेंगे, मगर ठीक आचरण से विपरीत इनका भीतर का जीवन होगा–ठीक विपरीत।

दो दिगंबर जैन मुनियों में मार-पीट हो गई। होनी तो असंभव ही चाहिए यह बात। एक तो दिगंबर जैन मुनि, जिसने सब छोड़ दिया, कपड़े भी छोड़ दिए, अब क्या मार-पीट को बचा! लोग कहते हैं: जर, जोरू, जमीन, झगड़े की जड़ तीन! वे तो तीनों ही छूट गईं! मगर गजब के लोग हैं, फिर भी झगड़ा निकाल लिया! न जर है, न जोरू है, न जमीन है। कुछ भी नहीं है। दिगंबर जैन मुनि–कपड़े भी नहीं हैं, लंगोटी भी नहीं है–अब झगड़े का क्या उपाय है!

उसी दिन मुझे पता चला कि वह सूत्र पर्याप्त नहीं है। अरे, झगड़ा ही करना हो तो आदमी कर लेगा। जर, जोरू, जमीन की कोई जरूरत नहीं। जर, जोरू, जमीन तो बहाने हैं, खूंटियां हैं। झगड़ा टांगना है, कहीं भी टांग दो। खूंटी हुई, खूंटी पर टांग दो। न हुई, तो खीली पर टांग दो। खीली न हुई, तो खिड़की पर टांग दो, कुर्सी पर टांग दो। नहीं तो अपने ही कंधे पर टांग लो। मगर टांग लोगे। कुछ न कुछ उपाय…!

झगड़ा कहां हुआ? दोनों गए थे सुबह मल-विसर्जन को। एकांत में झगड़ा हो गया। एक-दूसरे की पिटाई कर दी। पिटाई काहे से की? और तो कुछ था नहीं; पिच्छी रखते हैं जैन मुनि। पिच्छी रखी जाती है कि कोई चींटी भी न मर जाए। पिच्छी में ऊन का बना हुआ गुच्छा होता है। छोटी सी डंडी होती है, ऊन का गुच्छा होता है। तो जैन मुनि कहीं बैठे, तो पहले पिच्छी से वह जगह को साफ कर ले। ऊन का गुच्छा इसलिए ताकि पिच्छी की चोट भी न लगे। अगर चींटी भी हो, तो ऊन के धक्के से उसे कोई चोट न लगे, हटा दी जाए; फिर बैठे। स्थान को साफ करके बैठे।

वही पिच्छी थी उनके पास। उसमें डंडा भी होता है लेकिन पिच्छी में! यह महावीर ने सोचा ही न होगा कि पिच्छी तो ठीक है कि चींटी बच जाएंगी, मगर डंडा! कभी मौका आ गया, तो काम आ जाएगा। आ गया उस दिन काम। एक-दूसरे ने पिच्छी से पिटाई कर दी! वह डंडे का उपयोग हो गया!

कुछ गांव के ग्रामीण लोगों ने पकड़ लिया उनको एक-दूसरे को मारते हुए। वे पुलिस थाने ले गए। बामुश्किल उनको बचाया गया। जैनियों में बड़ी हड़कंप मची, क्योंकि उनके जैन मुनि इस तरह का व्यवहार करें, जो निरंतर आत्मज्ञान की बात करते हैं! जो जीवन को तपाते, तपश्चर्या करते, साधना करते!

और इनके झगड़े का कारण क्या? जब पुलिस ने पूछताछ की, तो जो झगड़े का कारण था वह और भी बड़ा मजेदार था! वह जो पिच्छी का डंडा था, बांस का डंडा, उसको भीतर से पोला करके उसमें सौ-सौ के नोट भरे हुए थे! वह उनका बटुआ था, वह जो डंडा था!

अगर जैन मुनियों की पिच्छी देखो, तो डंडा जरूर गौर से देख लेना! क्योंकि वही है उनके पास। और कोई उपाय नहीं है मगर। आदमी इतना होशियार है कि उसको डंडे को पोला करके अंदर उसमें गिड्डियों पर गिड्डियां उन्होंने भर रखी थीं! झगड़ा यह हो गया कि बंटवारा, जो बड़े मुनि थे वे ज्यादा चाहते थे छोटे मुनि से। सीनियारिटी का सवाल था! और छोटे मुनि भी बराबर चाहते थे; नहीं तो, वे कहते थे, हम पोल-पट्टी उखाड़ देंगे! षडयंत्र में कहीं कोई सीनियर-जूनियर होता है! यह कोई सरकारी दफ्तर थोड़े ही है!

इसी पर झगड़ा हुआ। इसी पर मार-पीट हो गई। रुपए भी पकड़े गए। और जैनियों ने किसी तरह रिश्वत खिला कर मामले को दबाया कि कहीं यह पता न चल जाए सबको! मेरे पास आए कि क्या करना चाहिए?

मैंने कहा कि अखबारों में खबर देनी चाहिए! फोटो छापने चाहिए!

उन्होंने कहा, आप क्या कहते हो! अरे, हम यह पूछने आए हैं कि इसको किस तरह रफा-दफा करना! क्योंकि मुनि की प्रतिष्ठा का सवाल है। उसमें हमारे धर्म की भी प्रतिष्ठा का सवाल है।

मैंने कहा कि मेरे लिए भी धर्म की प्रतिष्ठा का सवाल है और मुनि की प्रतिष्ठा का सवाल है। निन्यानबे इस तरह के मुनि उस एक मुनि को डुबाए दे रहे हैं, जो सच्चा होगा। उसको बचाना है कि इन निन्यानबे को बचाना है!

लेकिन लोग निन्यानबे को बचाने में लगे हैं; एक डूबे तो डूब जाए! संख्या का मूल्य है। हर जगह संख्या का मूल्य है।

तो वसिष्ठ इस अर्थों में, प्रतीक्षा, ठीक कहते हैं कि लौकिकानां हि साधूनामर्थ वागनुवर्तते। वे जो लौकिक साधु हैं…!

लौकिक अर्थात जो साधु नहीं हैं, बस दिखाई पड़ते हैं; नाम-मात्र को हैं। लेबिल साधु का है, भीतर कुछ और है। भीतर तो लोक ही है। अभी अलोक से कोई संबंध नहीं हुआ; अलौकिक से कोई नाता नहीं हुआ।

मगर यही तो तुम्हें मिलेंगे। फिर चाहे मुक्तानंद हों, चाहे अखंडानंद हों, और चाहे स्वरूपानंद हों, यही तुम्हें मिलेंगे। लौकिक साधु ही तुम्हें मिलेंगे। और तब यह सूत्र बड़ा सार्थक है। लौकिक साधु की बात को तुम ठीक से खयाल में ले लो, तो सूत्र में बड़ी सार्थकता है।

सूत्र कहता है, ऐसे साधुओं की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है।

ऐसे साधुओं के पास अपनी कोई अंतरवाणी तो होती नहीं। अपना कोई अनुभव तो होता नहीं। ऐसी तो कोई प्रतीति होती नहीं कि जिस शब्द को छू दें, वह जीवित हो जाए। ऐसा कोई जादू तो होता नहीं कि मिट्टी को छुएं और सोना हो जाए।

तो ऐसे व्यक्तियों की वाणी तो शास्त्रों का अनुसरण करेगी। शास्त्र में उनका अर्थ है; जीवन में उनके कोई अर्थ नहीं है। अर्थ गीता में है, वेद में है, कुरान में है, बाइबिल में है, धम्मपद में है। अर्थ स्वयं में नहीं है। और जो अर्थ स्वयं में नहीं है, वह अनर्थ है। उसे अर्थ कहो ही मत। क्योंकि गीता में जो अर्थ है, वह कृष्ण का अर्थ होगा, वह कृष्ण का अनुभव होगा। वह अर्जुन का भी नहीं बन सका! तो तुम्हारा क्या बनेगा?

कभी सोचो इस बात को। कितना सिर मारा कृष्ण ने, तभी तो गीता बनी! काफी सिर मारा! मगर अर्जुन भी बचाव करता गया। वह भी दांव-पेंच लगाता रहा। बड़ी देर तक यह मल्लयुद्ध चला। और अर्जुन ने जब अंततः यह कहा कि मेरे सब संदेह गिर गए; निरसन हो गया मेरे संदेहों का; तो भी मुझे भरोसा नहीं आता! मुझे तो यही लगता है कि वह घबड़ा गया कि बकवास कब तक करनी! मतलब यह आदमी मानेगा नहीं। यह खोपड़ी खाए चला जाएगा। यहां से बचाऊंगा, तो वहां से हमला करेगा।

तर्क उसका हार गया, वह स्वयं नहीं हारा। क्योंकि महाभारत की कथा इस बात को प्रकट करती है कि जब पांडव मरे और उनका स्वर्गारोहण हुआ, तो सब गल गए रास्ते में ही; अर्जुन भी गल गया उसमें! सिर्फ युधिष्ठिर और उनका कुत्ता, दो पहुंचे स्वर्ग के द्वार तक। अगर अर्जुन को कृष्ण की बात समझ में आ गई थी और जीवन रूपांतरित हो गया था, तो गल नहीं जाना चाहिए था। महाभारत की कथा इस बात की सूचना दे रही है कि अर्जुन को भी अनुभव नहीं हुआ। मान लिया, कि अब कब तक तर्क करो! कब तक प्रश्न करो! इससे बेहतर है निपट ही लो। उठाओ गांडीव, जूझ जाओ युद्ध में। मरो, मारो, झंझट खत्म करो। इस आदमी से बचाव नहीं है! इस आदमी के पास प्रबल तर्क हैं।

मगर तर्क से कोई रूपांतरित नहीं होता। अर्जुन भी रूपांतरित नहीं हुआ। कृष्ण का अर्थ अर्जुन का भी अर्थ नहीं बन सका, जो कि आमने-सामने थे; जिनमें मैत्री थी, संबंध था, एक-दूसरे के प्रति सदभाव था। तो तुम्हारे और कृष्ण के बीच तो पांच हजार साल का फासला हो गया। तुम क्या खाक कृष्ण के अर्थ को अपना अर्थ बना पाओगे! तुम्हें तो अपना अर्थ खुद खोजना होगा।

हां, यह बात जरूर सच है, तुम अगर अपना अर्थ खोज लो, तो तुम्हें कृष्ण का अर्थ भी अनायास मिल जाएगा। क्योंकि सत्य के अनुभव अलग-अलग नहीं होते। सत्य को मैं जानूं, कि तुम जानो, कि कोई और जाने; अ जाने, कि ब जाने, कि स जाने; सत्य का अनुभव तो एक होता है। सत्य का अनुभव हो जाए, तो बाइबिल और वेद और जेन्दावेस्ता, सब के अर्थ एक साथ खुल जाएंगे।

लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?

अब जैसे यह सूत्र मैंने इसके पहले कभी पढ़ा ही नहीं। यह वसिष्ठ का सूत्र भी है, यह भी मुझे पक्का नहीं। यह तो जो प्रश्न पूछा है प्रश्नकर्ता ने, उसको मान कर मैं उत्तर दे रहा हूं। मैंने यह सूत्र कभी पढ़ा नहीं। पढ़ने की कोई जरूरत नहीं।

लोग मुझसे पूछते हैं, क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?

पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है। एक शास्त्र मैंने पढ़ा–अपने भीतर। और उसको पढ़ लेने के साथ ही सारे शास्त्रों के अर्थ प्रकट हो गए। अब तुम कोई भी शास्त्र उठा लाओ, मेरे पास अपनी रोशनी है जिसमें मैं उसका अर्थ देख लूंगा। इससे क्या फर्क पड़ता है! मेरे पास दीया जला हुआ है, तुम वेद लाओगे, तो वेद उस दीए की रोशनी में झलकेगा। और तुम कुरान लाओगे, तो कुरान झलकेगी। और तुम धम्मपद लाओगे, तो धम्मपद झलकेगा। तुम जो भी ले आओगे, उस रोशनी में झलकेगा। दीए को क्या फर्क पड़ता है कि वेद सामने रखा है, कि कुरान, कि बाइबिल! दीए की रोशनी तो पड़ेगी सब पर समान, सम-भाव से।

तो मैं तो यह भी नहीं कह सकता कि यह वसिष्ठ का सूत्र ही है। हो या न हो, इतना साफ है कि वह जो लौकिक साधु है, जिसको वसिष्ठ ने लौकिक साधु कहा है, उसके पास कोई अपनी अनुभूति की संपदा नहीं होती। भीतर तो वह बिलकुल थोथा होता है। ईश्वर को मानता है, जानता नहीं। और जब तक जाना नहीं, तब तक मानने में कुछ मूल्य है? तब तक मानना असत्य है, बेईमानी है, पाखंड है। जो जाना है, बस उसको मानना। और जो न जाना हो, तब तक साफ रहे कि मैंने नहीं जाना है, तो कैसे मानूं? कम से कम ईमानदारी तो मत गंवा देना। धार्मिक होने के लिए कम से कम ईमानदारी तो अनिवार्य है।

और तुम्हारे तथाकथित विश्वासियों ने उतनी निष्ठा भी नहीं बरती। कोई हिंदू बन गया, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई जैन। किसी ने जाना नहीं। यहां तक कि जो नास्तिक बना बैठा है, उसने भी कुछ जाना नहीं; उसने नास्तिकता उधार ले ली है। किसी ने आस्तिकता उधार ले ली है! तुम्हारा सारा जीवन उधार है!

स्वभावतः, तुम्हारी वाणी किसी और के अर्थ का अनुसरण करेगी। तुम किसी और का गीत गाओगे। गीत तो गा लोगे, मगर वह थोथा होगा। उसमें कोई गहराई न होगी, ऊपर-ऊपर होगा। शब्द ही शब्द होंगे, शब्दों के भीतर कोई संपदा न होगी। बुझे हुए दीयों की कतार होगी, मगर एक भी दीया जला हुआ नहीं होगा। क्योंकि अगर एक दीया भी जला हो, तो पूरी कतार ही जलाई जा सकती है, सारी दीपावली मनाई जा सकती है।

तो यूं सूत्र ठीक है; सिर्फ लौकिक साधु शब्द पर मेरा एतराज है। उसे साधु नहीं कहना चाहिए। समय आ गया कि हम उसे साधु न कहें। उसकी दृष्टि लौकिक है, तो क्यों साधु कहना? हां, यह हो सकता है, घर छोड़ कर चला गया हो। लेकिन घर छोड़ कर गया, वह भी लौकिकता है।

कैसा मजा है! एक तरफ तो ये तुम्हारे साधु कहते हैं: संसार माया। और दूसरी तरफ कहते हैं: संसार त्याग करो! माया का भी त्याग हो सकता है? जो है ही नहीं, उसका भी त्याग हो सकता है? यह क्या पागलपन की बात है!

रात तुमने सपना देखा कि तुम सम्राट थे। बड?ा तुम्हारा साम्राज्य था। स्वर्ण तुम्हारे महलों में ढेरों से भरा था। हीरे-जवाहरात के अंबार लगे थे। और सुबह तुम्हारी आंख खुली; तुम जाग गए। और तुमने पाया कि वह सपना था! फिर क्या तुमसे यह कहना होगा कि भैया, सपने का अब त्याग करो! छोड़ो सपने को; वह सपना था! और क्या तुम यह कहोगे, छोड़ेंगे भाई। धीरे-धीरे छोड़ेंगे। अभी कैसे छोड़ें! शास्त्र के अनुसार छोड़ेंगे। पचहत्तर वर्ष की उम्र में संन्यास लेंगे, तब छोड़ेंगे! अभी कैसे छोड़ दें! अभी तो भोग लेने दो थोड़ा। अभी तो यह स्वर्ण-महल, ये हीरे-जवाहरात, यह साम्राज्य, यह मजा-मौज, अभी तो भोग लेने दो! अभी तो मैं जवान हूं। अभी छोड़ने की बात न करो। माना कि तुम जो कहते हो, ठीक ही कहते हो; ठीक ही कहते होओगे। क्यों तुम गलत कहोगे! क्यों तुम मुझे भरमाओगे! तुम साधु पुरुष हो! नमन करता हूं; चरण छूता हूं। तुम्हारी पूजा करूंगा, और याद रखूंगा। मगर समय पकने दो। जब पचहत्तर साल का हो जाऊंगा, तब इस सपने का बिलकुल त्याग कर दूंगा। अरे, छोड़ना तो है ही। संसार माया है। कौन नहीं जानता है! मगर अभी नहीं। अभी समय नहीं। अभी समय आया नहीं। क्या तुम ऐसा कहोगे?

सपने को सपने की तरह जानने में ही सपना छूट गया। इसलिए मैं अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को नहीं कहता। मैं कहता हूं, जब सपना ही है, तो छोड़ना क्या!

छोड़ना नहीं है, जागना है। भागना नहीं है, जागना है।

सदियों से तुम्हें भगोड़ापन सिखाया गया है। और भागने का अर्थ है, मूल्य बदलते नहीं; मूल्य वही के वही रहते हैं। कुछ लोग धन की तरफ दौड़े जा रहे हैं। उनका मूल्य भी धन है–कितना इकट्ठा कर लें! और फिर कुछ लोग हैं जो धन छोड़ कर भागे जा रहे हैं। उनका मूल्य भी धन है; उनकी कसौटी भी धन है–कितना छोड़ दें! तुम त्यागियों को भी नापते हो, तो तराजू वही। राकफेलर को और बिड़ला को और टाटा को भी नापते हो, तो तराजू वही। और महावीर को और बुद्ध को नापते हो, तो भी तराजू वही! असली सवाल तराजू का है।

जैन शास्त्र वर्णन करते हैं, इतने हाथी, इतने घोड़े, इतना धन, इतना महल, सब महावीर ने छोड़ दिया! यह हाथी-घोड़ों की गिनती, ये धन के अंबार, इनकी चर्चा शास्त्र इतने रस से करते हैं कि बात जाहिर है, वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हमारे महावीर कोई छोटे-मोटे साधु नहीं थे; बड़े साधु थे! महासाधु थे! देखो, कितना छोड़ा!

मापदंड क्या है? इसीलिए तो कोई गरीब आज तक, न तो हिंदुओं ने उसे अवतार माना, न बौद्धों ने उसे बुद्ध माना, न जैनों ने उसे तीर्थंकर माना! क्योंकि कसौटी ही पूरी नहीं होती। सवाल यह है, छोड़ा क्या? कितना छोड़ा? अब तुम कहो, हमने एक लंगोटी छोड़ दी। तो वे कहेंगे, भाग जाओ यहां से! लंगोटी छोड़ कर और तीर्थंकर होने के इरादे रख रहे हो! राजपाट कहां है? हाथी-घोड़े कितने हैं?

अब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी भविष्य में। तीर्थंकर होने ही मुश्किल हो जाएंगे, क्योंकि राजपाट न रहे। अब तो सिर्फ इंग्लैंड में ही तीर्थंकर हो सकते हैं! या ताश के पत्तों में! कहते हैं, बस पांच ही राजा बचेंगे दुनिया में: चार तो ताश के पत्तों के और एक इंग्लैंड का। और इंग्लैंड का राजा ताश के पत्तों से भी गया-बीता है। ताश के पत्तों में भी कुछ अकड़ होती है; इंग्लैंड के राजा में वह भी नहीं! वह सिर्फ नाम-मात्र का!

तो अब तो इंग्लैंड में ही आशा समझो कि बुद्ध पैदा हों; तीर्थंकर पैदा हों; अवतार पैदा हों। भारत में तो असंभव। अब तो राजपाट रहे नहीं। अब साम्राज्य नहीं, हाथी-घोड़े नहीं, छोड़ोगे क्या? क्या कहोगे कि मैंने एक साइकिल छोड़ दी! कम से कम घोड़ा तो हो! क्या छोड़ोगे? और साइकिल छोड़ कर दावा करोगे तीर्थंकर होने का! लोग कहेंगे, लाज-संकोच न आई! अरे, शरम खाओ! है क्या तुम्हारे पास?

इसीलिए तो कोई कबीर को तीर्थंकर नहीं कहता। हालांकि कबीर में क्या कमी है किसी तीर्थंकर से! मगर कैसे कबीर को तीर्थंकर कहो? जुलाहे! छोड़ने वगैरह को कुछ है ही नहीं। पकड़ने को ही नहीं है; छोड़ने को कहां से लाओ! रोज बुन लेते हैं कपड़ा, रोज बेच लेते हैं। बस, किसी तरह खाना-पीना चल जाए। वह भी पूरा नहीं चल पाता; उसमें भी बड़ी झंझटें आ जाती हैं। बड़ी अदभुत कहानी है; सत्य वेदांत ने लिख कर मुझे भेजी है। बहुत प्यारी है। खूब सोचने जैसी है। और सिर्फ कबीर जैसे आदमी की जिंदगी में हो सकती है। कबीर की कीमत आंकनी मुश्किल है।

कहानी यह है कि कबीर को तो जो भी घर में आ जाए–और सुबह से बहुत से लोग आ जाते! कबीर की मस्ती में कौन न डूबना चाहे! कबीर के आनंद में कौन भागीदार न होना चाहे! दूर-दूर से लोग आ जाते। सुबह से कीर्तन छिड़ जाता। नाच होता, गीत होता। भीतर की शराब बहती। लोग मदमस्त होकर पीते। फिर भोजन का समय हो जाता, तो कबीर की आदत थी, वे लोगों से कहते कि भैया, यूं ही मत चले जाना। अरे, भोजन तो कर जाओ। अब आ ही गए, तो भोजन कर जाओ।

कभी दो सौ आदमी, कभी तीन सौ आदमी, कभी पांच सौ आदमी। गरीब कबीर की हैसियत क्या! बामुश्किल दिन भर कपड़ा बुन कर कितना बुनोगे? उधारी चढ़ती जाती! पत्नी परेशान, बेटा परेशान! एक दिन यह हालत हो गई कि जब पत्नी बाजार गई और दुकानदार से उसने भोजन के लिए प्रार्थना की कि घर में दो सौ आदमी बैठे हैं और मेरे पति ने निमंत्रण दे दिया है! मैं पीछे के दरवाजे से भाग कर आई हूं! जल्दी से कुछ चावल दो, घी दो, आटा दो।

उस दुकानदार ने कहा, अब बहुत हो गया। पहले का कर्ज चुकाओ। यह कर्ज बढ़ता ही जा रहा है। यह चुकेगा कैसे? मेरी दुकान तुम डुबा दोगे! यह कबीर का तो भजन चले और मेरा भंडा फूटा जा रहा है। कबीर तो हर किसी को निमंत्रण दे देते हैं! कबीर को पता है कि बर्बादी मेरी हो रही है! यह चुकेगा कैसे? कर्ज इतना हो गया है कि अब मैं और नहीं दे सकता।

पत्नी ने कहा, कुछ भी करो, आज तो देना ही होगा; इज्जत का सवाल है। मैं किस मुंह से जाकर कहूं! लोग बैठे हैं। भोजन तो कराना ही होगा।

उस दुकानदार की बहुत दिन से कबीर की पत्नी पर नजर थी। कबीर की पत्नी थी, सुंदर रही होगी। कबीर जैसे व्यक्ति की पत्नी हो, असुंदर भी रही होगी तो सुंदर हो गई होगी। कबीर का संग-साथ मिला होगा, रंग-रूप निखर आया होगा, प्रसाद उतर आया होगा। जहां चौबीस घंटे कबीर के आनंद की वर्षा हो रही थी, वहां कोई कुरूप कैसे रह जाएगा! सुंदर थी, बहुत सुंदर थी। नजर तो दुकानदार की बहुत दिन से थी, आज मौका देख लिया उसने कि आज यह फंस गई। उसने कहा कि अगर तेरी सच में ही ऐसी निष्ठा है, तो वायदा कर कि आज रात मेरे पास सोएगी। तो सारा कर्ज समाप्त कर दूंगा।

पत्नी ने कहा, जैसी मर्जी। भोजन तो कराना ही होगा।

कबीर की ही पत्नी थी। कोई साधारण लौकिक साधु की पत्नी नहीं थी। कबीर की ही पत्नी थी। यह कबीर के ही योग्य थी बात। उसने कहा, ठीक है। अगर तुझे इससे ही हल हो जाता हो, तो ठीक है। यह निपटारा हुआ। और यह अच्छा रास्ता मिल गया। तूने पहले ही क्यों न कहा! यह रोज-रोज की परेशानी कभी की मिट गई होती। ठीक है, सांझ मैं आ जाऊंगी।

वह तो ले आई। उसने सब को भोजन करवाया। सांझ वर्षा होने लगी। बड़े जोर से वर्षा होने लगी। वह सजी-संवरी बैठी। कबीर ने पूछा, कहीं जाना है या क्या बात है? तू सजी-संवरी बैठी है। बरसा जोर से हो रही है।

उसने कहा, जाना है, और जरूर जाना है। तुमसे क्या छिपाना है!

इसको प्रेम कहते हैं। तुमसे क्या छिपाना है!

पूरी कहानी कह दी कि यूं-यूं मामला है। कर्ज बहुत बढ़ गया है। आज दुकानदार देने को राजी न था। उसने तो कहा, आज रात अगर तू मेरे पास आकर रुक जाए पूरी रात, तो सारा कर्ज माफ कर दूंगा। तो कुंजी हाथ लग गई। अब कोई चिंता नहीं। अब तुम जितनों को निमंत्रण देना हो दो। यह मूरख इतने दिन तक बोला क्यों नहीं! यह बोल देता, तो कभी की बात ही खतम हो जाती। यह रोज-रोज की अड़चन तो न होती। तो मुझे जाना है।

कबीर ने कहा कि बरसा बहुत जोर की हो रही है। मैं तुझे छोड़ आता हूं!

यह सिर्फ कबीर ही कह सकते हैं। कबीर ने छाता लिया, पत्नी को छाते में छिपाया, उसे ले गए। और कहा कि तू भीतर जा, मैं बाहर बैठा हूं, क्योंकि बरसा बंद हो नहीं रही। जब निपट चुके, तो मैं तुझे घर वापस ले चलूंगा। रात भी अंधेरी है; बरसा भी जोर की है; तो मैं यहां बाहर छप्पर में बैठा रहूंगा!

कबीर छप्पर में बैठ रहे। पत्नी ने दरवाजे पर दस्तक दी। दुकानदार वैसे तो बड़ी उत्सुकता से राह देख रहा था, लेकिन डर भी रहा था। डर इसलिए रहा था कि पत्नी ने इतनी सहजता से हां भर दी थी कि उसे भरोसा ही न आ रहा था! कि एक दफे भी इनकार न किया! अरे, कोई सती-सावित्री होती, तो फौरन चप्पल निकाल लेती! जो चप्पल निकाले, समझ लेना कि यह सती-सावित्री नहीं है! वह चप्पल निकालना ही जाहिर कर रहा है कि लंपट है।

एकदम हां भर दिया! भरोसा नहीं आ रहा था। और कबीर की पत्नी ऐसा हां भर दे! न लाज, न संकोच, न विरोध! एक चेहरे पर बदली भी न आई! जैसे कोई खास बात ही न हो। आएगी भी कि नहीं, यह भरोसा नहीं था। सोचता था कि धोखा दे गई। सोचता था कि ले गई सामान, आने-वाने वाली नहीं है।

लेकिन जब द्वार पर उसने दस्तक दी और दरवाजा खोला और पत्नी सामने खड़ी थी! सज-बज कर आई थी। जो भी घर में सुंदर था, पहन कर आई थी। घबड़ा गया; दुकानदार घबड़ा गया! पसीना छूट गया! सोचा न था कि पत्नी आ जाएगी। एक दफा तो आंख पर भरोसा न आया। और दूसरी बात देख कर और हैरान हुआ कि इतनी धुआंधार बरसा हो रही है, मूसलाधार, और पत्नी बिलकुल भीगी नहीं है!

उसने पूछा कि इतनी मूसलाधार बरसा में मुझे भरोसा न था कि तू आएगी। मगर आई, यह ठीक। मगर यह चमत्कार क्या है कि तुझ पर तो बूंद भी नहीं पड़ी! तेरे कपड़े तो भीगे भी नहीं!

उसने कहा, भीगते कैसे! अरे, कबीर जो मुझे साथ लेकर आए; खुद भीगते रहे, छाते में मुझे छिपाए रहे। कहने लगे, मैं भीग जाऊं तो कोई बात नहीं, लेकिन तुझे तो अब उस दुकानदार के पास जाना है। उस बेचारे का क्या कसूर कि आज बरसा हो रही है!

वह तो दुकानदार और भी लड़खड़ा गया। उसने कहा, कबीर छोड़ गए! कबीर कहां हैं? गए कि यहीं हैं?

उसने कहा, गए नहीं। छप्पर में बैठे हैं। क्योंकि वे कहते हैं, तू निपट जाए, पता नहीं बरसा रुके न रुके, रात अंधेरी है, तो ले जाने के लिए बैठे हैं! तो जल्दी निपट लो, तुम्हें जो करना हो कर लो, क्योंकि उनको ज्यादा देर बिठाए रखना भी ठीक नहीं। सुबह ब्रह्ममुहूर्त में फिर उठ आना होता है, और फिर भजन-कीर्तन, और भक्त इकट्ठे होंगे!

पैरों पर गिर पड़ा वह दुकानदार। भागा; कबीर के पैर छुए। कबीर ने कहा कि तू समय खराब न कर। तू अपना काम निपटा; हमें अपना काम करने दे। तू इन बातों में मत उलझ। अरे, यह पैर छूना वगैरह पीछे हो लेगा। सुबह आ जाना; भजन-कीर्तन कर लेना; वहीं पैर भी छू लेना। मगर अभी तू अपना काम निपटा।

उसने कहा, आप कहते क्या हैं! और मुझे न मारो। और मुझे न दुत्कारो। और मुझे गर्हित न करो। और मुझे अपमानित न करो!

कबीर ने कहा, नहीं, तेरा हम कोई अपमान नहीं कर रहे हैं। इन बातों का मूल्य ही क्या है?

यह होगी ज्ञानी की दृष्टि। कबीर को मैं कहूंगा तीर्थंकर। मेरे लिए कबीर ने कितने घोड़े और कितने हाथी छोड़े, यह सवाल नहीं। एक बात देख ली कि यह संसार और इसके मूल्यों का कोई मूल्य नहीं। इसकी नीति कुछ नीति नहीं, इसकी अनीति कुछ अनीति नहीं। सब व्यावहारिक बातें हैं। और उस परम सत्य को कुछ भी नहीं छूता है। वह परम सत्य सदा कुंवारा है, अछूता है। वह जल में कमलवत है।

मगर कबीर को कौन तीर्थंकर माने? कौन अवतार माने? कौन कबीर को बुद्ध माने? वही मूल्य है। एक बंधा हुआ मूल्य है, धन का। तो जिनको तुम साधु भी कहते हो, उनको भी तुम साधु लौकिक कारणों से ही कहते हो। उन्होंने कुछ छोड़ दिया। जो तुम्हारे लिए बहुत मूल्यवान था, उन्होंने छोड़ दिया। बस, साधु हो गए!

मगर वसिष्ठ के सूत्र में बात कीमत की है। बात यह है कि ऐसे साधु की वाणी थोथी होगी। वह किसी और के अर्थ का अनुसरण करेगी। उसके पास अपना तो कोई अर्थ नहीं है; अपना कोई साक्षात्कार नहीं है। कहेगा कि मधु मीठा होता है, मगर यह उसका अपना स्वाद नहीं है।

और वसिष्ठ ने कहा: “ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति। और आदि ऋषि थे, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता था।’

प्रतीक्षा, इसमें आदि तूने कहां से जोड़ दिया? सूत्र तो सिर्फ इतना है, ऋषीणां! वे जो ऋषि हैं; वे जो ऋषि की अनुदशा को उपलब्ध हुए हैं। इसमें आदि का कोई सवाल नहीं है। लेकिन हम अनुवाद भी जब करते हैं, तो भी हमारी बुद्धि बीच-बीच में व्याघात उत्पन्न करती है। यह जिसने भी अनुवाद किया हो, उसने आदि ऋषि जोड़ दिया! क्योंकि हमारी धारणा यह है कि जो भी होना था श्रेष्ठ, पहले हो चुका। स्वर्णयुग तो बीत चुका; अब तो कलियुग चल रहा है। अब कहां ऋषि! इसलिए आदि ऋषि! हालांकि सूत्र में कुछ आदि का सवाल नहीं है।

सिर्फ सूत्र तो इतना कह रहा है: “ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति।’

वे जो ऋषि हैं, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता है। वे जो भी बोल देते हैं, वही सार्थक हो जाता है। वे जो भी बोल देते हैं…। वे बोलें तो, न बोलें तो; उनका मौन भी सार्थक होता है, उनकी वाणी भी सार्थक होती है। उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता है। उन्हें अपनी वाणी को किसी अर्थ के पीछे नहीं चलाना होता। वे तो बहते हैं, सरिता की भांति। अर्थ उनके साथ बहता है। इसलिए वे जो भी कहें, उसमें ही गरिमा होती है, गौरव होता है। वे जो भी कहें, उसमें ही सौंदर्य होता है।

ऋषि शब्द बड़ा प्यारा है। पहले उस शब्द को समझ लो। हमारे पास दो शब्द हैं–सिर्फ हमारे पास दो शब्द हैं सारी दुनिया में–कवि और ऋषि। दुनिया की सभी भाषाओं में कवि शब्द तो है, लेकिन ऋषि शब्द नहीं है। दोनों का अर्थ एक होता है, लेकिन थोड़े भेद से; जरा सा बारीक भेद, यूं बाल बराबर भेद, लेकिन जमीन और आसमान को अलग कर देता है।

कवि का अर्थ है, जिसे सत्य की कभी-कभी झलक मिलती है। और ऋषि का अर्थ है, जो सत्य में ही ठहर गया। कवि का अर्थ है, जो दूर से, बहुत दूर से हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों को देखता है–मगर दूर से। और ऋषि का अर्थ है, जिसने वहीं निवास बना लिया; वह जो हिमाच्छादित शिखरों पर रहने लगा।

कवि के लिए सत्य एक किरण की तरह आता है और चला जाता है; एक झलक की तरह; एक हवा का झोंका; यह आया, वह गया! मगर उस झोंके में भी कवि के भीतर फूल खिल जाते हैं। ऋषि स्वयं ही फूल हो गया। कवि का वसंत आता है, जाता है। ऋषि के लिए वसंत ही एकमात्र ऋतु है, चौबीस घंटे वसंत है। ऋषि का अर्थ है, जिसने ध्यान से सत्य को अनुभव किया; जिसकी आंखें खुल गईं, असली आंखें खुल गईं; जिसने पदार्थ में परमात्मा को देख लिया; जिसने संसार में मोक्ष को अनुभव कर लिया!

ऐसे ऋषि जो भी बोलें, साधारण से साधारण शब्द भी उनके हाथों में असाधारण अर्थ ले लेते हैं। और जिनको तुम साधु कहते हो, इनके हाथों में सुंदर से सुंदर शब्द भी बड़े कुरूप हो जाते हैं; अपंग हो जाते हैं।

सारी बात आदमी की है। शब्दों में कुछ नहीं होता, व्यक्तियों में होता है, व्यक्तियों की अनुभूतियों में होता है। अगर व्यक्ति के भीतर आह्लाद है, ईश्वर का उन्माद है, मोक्ष की मस्ती है, तो वह जो भी बोल दे, वही मंत्र है, वही श्लोक है, वही ऋचा है। और अगर व्यक्ति के भीतर वह परम उन्माद नहीं है, तो वह सुंदर-सुंदर शब्दों को बिठाता रहे, जमाता रहे–शायद कविता रच लेगा, भाषा के हिसाब से, व्याकरण के हिसाब से, छंद के हिसाब से, मात्रा के हिसाब से–लेकिन उसमें आत्मा नहीं होगी, वह लाश ही होगी।

लाश भी दिखाई पड़ सकती है बिलकुल आदमी जैसी; लाश को भी तुम खूब सजा सकते हो। पश्चिम में तो लाश को सजाने का धंधा होता है। पश्चिम में तो बड़ा भय है मृत्यु का। होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि ईसाइयत, यहूदी, मुसलमान–भारत के बाहर पैदा हुए तीनों धर्म–एक ही जीवन में भरोसा करते हैं। बस, एक ही जीवन; और कोई जीवन नहीं! तो घबड़ाहट स्वाभाविक है। यूं भी आदमी मौत से घबड़ाता है। यहां भी आदमी मौत से घबड़ाता है, जहां कि अनंत जीवनों का विश्वास है। पहले भी हम थे, आगे भी हम होंगे। मगर वह विश्वास ही है। घबड़ाहट तो भीतर होती है कि कौन जाने बचे न बचे! मगर पश्चिम में तो साफ ही है कि बचना नहीं है; एक ही जीवन है। बस, फिर दुबारा लौटना नहीं है। फिर तो कयामत की रात तक पड़े रहना है कब्र में। तो घबड़ाहट स्वाभाविक है।

जरा सोचो तो, कब आएगी कयामत! अनंत-अनंत काल तक कब्र में ही सड़ते रहोगे, सड़ते रहोगे, सड़ते रहोगे। गल जाओगे, हड्डी-हड्डी गल कर मिट्टी हो जाएगी, तब आएगी कयामत! पता नहीं, आएगी भी कि नहीं आएगी। और इतने काल तक तुम्हें पड़े रहना पड़ेगा कब्र में ही। घबड़ाहट है।

तो मृत्यु को झुठलाने का पश्चिम में बहुत उपाय होता है। इसलिए पश्चिम में एक धंधा ही हो गया है; पूरब में वैसा कोई धंधा नहीं है अभी। पश्चिम में धंधा है, मौत को सजाने वालों का धंधा! काफी लाभ वाला धंधा है। जब कोई मर जाता है, तो उस पर हजारों रुपए खर्च होते हैं। उसको सजाया जाता है। जैसे कि कोई अभिनेताओं को सजाता है नाटक में। अब यह नाटक का अंत ही हो रहा है, आखिरी सजावट कर ही लेनी चाहिए। पटाक्षेप हो रहा है। पर्दा गिरने को है। गिर ही चुका है।

तो उसके चेहरे को सुंदर बनाते हैं, रंगते हैं; लाली देते हैं उसके गालों को, उसके ओंठों को। उसकी आंखों को काजल देते हैं। उसके बालों को रंग देते हैं। अगर बाल न हों, तो झूठे बाल लगा देते हैं। अगर दांत गिर गए हों, तो झूठे दांत लगा देते हैं। सुंदर कपड़े पहनाते हैं। इत्र छिड़कते हैं। फूलों से सजा देते हैं। आदमी यूं लगने लगता है, जैसे दूल्हा हो! दूल्हा भी फीका लगे। आदमी यूं लगने लगता है, जैसे यह कोई मरघट नहीं जा रहा है; यह कोई बारात निकल रही है! फिर खूबसूरत से खूबसूरत ताबूत, कीमती से कीमती ताबूत, उनमें उसकी लाश को सजाया जाता है। धोखा! हर तरह का धोखा!

लेकिन लाख उपाय करो, तो भी जिंदा आदमी जिंदा आदमी है और मरा हुआ आदमी मरा हुआ आदमी है। कितना ही सुंदर लगे!

उतना ही भेद कविता में और ऋचा में है। उतना ही भेद कवि में और ऋषि में है। ऋषि है जीवंत। मात्रा का उसे पता नहीं। अब कोई मीरा की कविताओं में मात्राएं हैं, कि कोई छंद है! अगर भाषा और मात्रा और छंद के हिसाब से तौला जाए, तो कबीर और मीरा की गिनती कहीं भी नहीं होगी। तब तो तुलसीदास बड़े कवि मालूम होंगे। कहते भी हैं कि तुलसीदास महाकवि। हैं भी वे महाकवि। बस लेकिन कवि ही हैं, ऋषि नहीं। कबीर कवि नहीं हैं, ऋषि हैं। शब्द अटपटे हैं, लेकिन उन शब्दों के पीछे गहन अर्थ चला आ रहा है। शब्द जीवंत हैं; पंख हैं उनमें, यूं कि अभी उड़ जाएं! किन्हीं पिंजड़ों में बंद नहीं।

तुलसीदास के शब्द कितने ही सुंदर हों, पिंजड़ों में बंद हैं। लेकिन तुलसीदास की महिमा! क्योंकि लोग तो व्यर्थ से प्रभावित होते हैं, सार्थक से तो घबड़ाते हैं। क्योंकि सार्थक तो झकझोर देता है। सार्थक तो आता है झंझावात की तरह, धूल झाड़ देता है। और तुमने धूल को समझ रखा है बड़ी कीमती! सो जो तुम्हारी धूल को और जमा दे, वही प्यारा लगता है।

तुलसीदास महाकवि! कबीरदास तो अटपटे हैं। सधुक्कड़ी उनकी भाषा है। पंडित कहते हैं, सधुक्कड़ी। उसके लिए भाषा ही अलग रख लिया है नाम, सधुक्कड़ी भाषा! संध्या भाषा! उलटबांसी! सीधी बात ही नहीं करते, उलटी बांसुरी बजाते हैं! कुछ का कुछ कहते हैं!

मगर कारण? कारण यह है कि कबीर कोई पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं हैं, कबीर कोई शास्त्रीय व्यक्ति नहीं हैं, मगर सत्य को जाना है। इसलिए बोलचाल की भाषा ही बोलते हैं, मगर उसमें ही वह सारा रस भर दिया है कि फूल फीके पड़ जाएं, वह सारी रोशनी भर दी है कि चांदत्तारे फीके पड़ जाएं। छोटे-छोटे वचन, मगर बड़े से बड़े शास्त्रों का निचोड़ आ गया है।

इसलिए प्रतीक्षा, आदि ऋषि शब्द मत जोड़ो। आदि से क्या लेना-देना है? ऋषि का आदि से क्या संबंध? ऋषि तो आज भी होते हैं। जब भी सत्य को जाना, तभी ऋषि का जन्म हुआ।

ऋषि का अर्थ तो है, जिसे भीतर की देखने की आंख मिल गई। और तब यह बात सच है कि ऋषि की वाणी का अनुसरण अर्थ करता है। वह अर्थ की चिंता नहीं करता, न व्याकरण की चिंता करता, न भाषा की चिंता करता। और इसलिए अनेक बार ऐसा हुआ है कि ऋषियों के बोलने के कारण नई भाषाएं पैदा हो गईं।

महावीर ने संस्कृत में नहीं बोला, प्राकृत में बोला। महावीर के बोलने के कारण प्राकृत बनी। संस्कृत में एक पांडित्य है, एक आभिजात्य है। महावीर ने संस्कृत का उपयोग नहीं किया, बोलचाल की भाषा में बोले। उसमें वह पांडित्य नहीं है, लेकिन जीवंतता है।

बुद्ध पाली में बोले। पाली बोलचाल की भाषा है, बेपढ़े-लिखे आदमी की भाषा है। मगर बड़ी प्यारी! जब लोग शब्दों का उपयोग करते हैं, तो शब्दों के किनारे घिस जाते हैं, शब्दों में गोलाई आ जाती है, सौंदर्य आ जाता है। लोगों के शब्द घिसते-घिसते बड़े प्यारे हो जाते हैं! और जब भी कभी लोगों पर ऊपर से भाषा थोपी जाती है, तो कभी उस भाषा में प्राण नहीं आते। जैसा इस देश में उपयोग किया गया।

स्वतंत्रता के बाद इस देश में जिन्होंने सबसे बड़ी हानि हिंदी को पहुंचाई, वे थे डाक्टर रघुवीर, सेठ गोविंददास। दोनों मेरे निकट से परिचित व्यक्ति थे। और दोनों को मैंने कहा था कि तुम दुश्मन हो हिंदी के! हालांकि दोनों समझे जाते थे कि हिंदी के सबसे बड़े समर्थक हैं। मगर उन्हीं ने नष्ट किया।

भाषाएं ऐसे ऊपर से नहीं थोपी जातीं। रघुवीर ने कैसी भाषा थोपने की कोशिश की! हालांकि गणित ठीक था उनका; व्याकरण ठीक थी उनकी; सब बातें ठीक थीं। मगर भाषाएं जन्मती हैं; ऐसी थोपी नहीं जातीं। भाषाएं कृत्रिम नहीं होतीं। जनता जब सैकड़ों वर्ष तक उपयोग करती है शब्दों का, तो उन शब्दों में एक रस आ जाता है, एक जीवंतता आ जाती है। निरंतर के चलन से उनमें गोलाई आ जाती है। जैसे नदी में बहते हुए पत्थर गोल हो जाते हैं, शंकरजी की पिंडी बन जाते हैं। ऐसे प्रत्येक शब्द में…।

रघुवीर के शब्दों में गोलाई नहीं है और बेहूदापन है। हालांकि हिसाब की दृष्टि से बिलकुल ठीक हैं। अब जैसे रेलगाड़ी। तो रेलगाड़ी शब्द का ठीक-ठीक अनुवाद भाषा में करना हो, तो रघुवीर ने बिलकुल ठीक किया, लोह-पथ-गामिनी!

मगर कौन इसका उपयोग करेगा? जिससे कहोगे, वही हंसेगा! किसी से कहोगे कि लोह-पथ-गामिनी से जा रहे हैं, तो वह पहले चौंक कर देखेगा, तुम होश में हो कि ज्यादा पी गए! क्या हो गया तुम्हें! लोह-पथ-गामिनी से जा रहे हो? तुम्हें जाने के लिए कुछ और उपाय न बचा? हालांकि लोह-पथ-गामिनी बिलकुल ठीक रेलगाड़ी का ही अनुवाद है। रेल का अर्थ होता है, लोह-पथ। और लोह-पथ पर जो दौड़ती है, वह गामिनी, गमन करती है। बिलकुल ठीक है, लोह-पथ-गामिनी!

इससे तो डाक्टर राममनोहर लोहिया बेहतर आदमी थे। उन्होंने जनता के शब्द चुनने की फिक्र की है। जैसे रिपोर्ट की जगह वे रपट लिखते थे। क्योंकि गांव का किसान जब कहता है, तो वह कहता है, भइया, रपट लिखवाई कि नहीं? रिपोर्ट घिस-घिस कर रपट हो गई! स्टेशन घिस-घिस कर टेशन हो गया! मगर जो टेशन में मजा है वह स्टेशन में नहीं। और जो रपट में बात है वह रिपोर्ट में नहीं। रपट में एक सचाई है। कबीर तो रपट लिखवाएंगे; रिपोर्ट नहीं लिखवाएंगे! कबीर टेशन जाएंगे, स्टेशन नहीं जा सकते!

अभी पांच सौ साल पहले ही नानक के कारण गुरमुखी भाषा पैदा हुई। सिर्फ नानक के कारण! क्योंकि नानक ने पंजाब की लोक-भाषा का उपयोग किया, और एक नई भाषा को जन्म दे दिया। मगर वह जन्म ऊपर से थोपा हुआ नहीं है; वह कोई कृत्रिम नहीं है। लोग जिस भाषा का उपयोग कर रहे थे सदियों से, उसी भाषा को छू दिया, और जादू हो गया!

ऋषि की वाणी का अनुसरण अर्थ करता है। ऋषि फिक्र नहीं करता कि शब्द क्या हैं, किन्हीं भी शब्दों को चला देता है, चलते हुए शब्दों को उपयोग में ले आता है, और उनमें बड़े अर्थ के फूल खिल जाते हैं।

यह सूत्र उपयोगी है। लेकिन इसमें से दो बातें छोड़ देना। एक तो लौकिक साधु जैसा कोई व्यक्ति होता नहीं। या तो कोई साधु होता है, या लौकिक होता है।

और दूसरी बात, आदि ऋषि गलत अनुवाद है। ऋषि सदा होते रहे, आज भी हैं, कल भी होंगे। यह दुनिया उस दिन स्वाद खो देगी जिस दिन ऋषि पैदा न होंगे। जब तक ऋषि हैं, तब तक जमीन पर नमक है, तब तक जीवन में स्वाद है।

ऋषि का अर्थ केवल इतना ही है, जिसने देखा, अनुभव किया, जीया; जो जीकर बोला; जिसके बोलने में हृदय की धड़कन है।

 दूसरा प्रश्न: भगवान, मुंडकोपनिषद का लेखक कौन है?

 भोलेराम!

बाबा, क्या मुंडकोपनिषद के लेखक से नाराज हो गए? कि देखें, कौन है यह! कि इसको ठीक करें!

मैं डर रहा था कि कोई यह प्रश्न न पूछ ले! क्योंकि मुझे भी पता नहीं कि मुंडकोपनिषद के लेखक कौन हैं। असल में मैंने भी जब पहली दफा मुंडकोपनिषद पढ़ा था, तो यह सवाल मुझे उठा था। उम्र तब मेरी छोटी थी जब मेरे हाथ में पहली दफा मुंडकोपनिषद पड़ गया। घर में उसकी कापी पुराने दिनों से पड़ी थी। उठा कर मैंने देखा। पहला ही सवाल यह उठा कि मुंडकोपनिषद! यह भी कोई नाम हुआ! किसने लिखा? और क्या नाम दिया! अरे, कम से कम नाम तो ठीक दे देते!

लोग सड़ी-गली चीजों को भी क्या-क्या नाम देते हैं! रसमलाई! चमचम! रसगुल्ला! क्या-क्या नाम देते हैं!

मुंडकोपनिषद! मुझे लगा, हो न हो–मेरे मोहल्ले में एक पहलवान थे; उनका नाम था मुंडे पहलवान। हो न हो इसी आदमी ने लिखा है! थे भी गड़बड़ ही वे। और सभी चीजों में गुणी थे। भांग वे पीएं; गांजा वे पीएं; अफीम का सेवन वे करें; शराब वे पीएं। और जब नशे में होते थे, तो बड़ी ब्रह्मचर्चा करते थे! तो मैंने कहा, जरूर इसी आदमी ने पीनक में आकर मुंडकोपनिषद लिख दिया है! और मुंडे पहलवान, तो मुंडकोपनिषद नाम जंचता है! कि किसी मुंडे ने लिखा है!

मेरा उनसे दोस्ताना था। यूं तो उम्र में बहुत फासला था। दोस्ती हो जाने का कारण था कि मुझे भी एक शौक था और वही शौक उनको भी था, पतंग लड़ाने का शौक। उनको कोई काम-धाम नहीं था; दादागिरी उनका धंधा थी। कमाने वगैरह का कोई सवाल न था। सो वे पतंग लड़ाते थे। और मुझे भी पतंग लड़ाने का शौक था। और वे तो बड़े प्रसिद्ध लड़ाके थे पतंग के। लखनऊ तक पतंग लड़ाने जाते थे। गांव में तो कोई उनसे पतंग लड़ाने की हिम्मत ही नहीं कर सकता था। क्योंकि दिन भर मंजा लगाना! उनका काम ही यह था। सुबह से डंड-बैठक; फिर डट कर दूध-जलेबी; फिर मंजे पर उतर जाते वे। तो उनके शागिर्द घोंट रहे हैं कांच! फिर लुब्दी बनाई जा रही है! फिर मंजा चढ़ाया जा रहा है!

और मुझे भी पतंग लड़ाने का शौक उन्हीं को देख कर पैदा हो गया था। और मेरी उनसे दोस्ती इसलिए हो गई कि मैंने एक बार उनका पतंग काट दिया! उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, बेटा, आज तक मेरा पतंग कोई नहीं काट सका! पहली तो बात, कोई मुझसे पतंग लड़ाने की हिम्मत ही नहीं करता, क्योंकि लोग डरते हैं कि कोई झगड़ा-झांसा खड़ा न हो जाए! एक तो तूने पतंग लड़ाने की हिम्मत की…।

मैंने कहा, मुझे मालूम नहीं था कि पतंग आपका है। नहीं तो मैं भी इस झंझट में नहीं पड़ता।

और गजब कि तूने मेरा पतंग काट दिया!

मस्ती में थे। आशीर्वाद दे गए कि तू बड़ों-बड़ों के पतंग काटेगा! मैंने कहा, यह तो…।

तब से मैं वही काम कर रहा हूं! अब तो छोटे-बड़े का फर्क ही नहीं करता! समदृष्टि से काटता हूं! पतंग होना चाहिए–छोटे का हो, बड़े का हो; शंभु महाराज का हो, कि मोरारजी देसाई का हो, कि मुक्तानंद का हो, कि डोंगरेजी महाराज का हो–पतंग होना चाहिए! छोटे-बड़े का क्या भेद करना! समदृष्टि रखनी चाहिए। मगर वे क्या आशीर्वाद दे गए मुंडे पहलवान, वह काम अभी तक नहीं छूटा! और वह छूटने वाला भी नहीं है।

तो मैंने सोचा कि हो न हो, इन्होंने ही यह मुंडकोपनिषद लिखा है! और तो मैं कुछ समझा नहीं किताब में अंदर, लेकिन बस वह शब्द मुझे मुंडकोपनिषद पकड़ गया। सो सांझ को मैं उनके दरबार में हाजिर हुआ। पास में ही उनका अखाड़ा था। वे भंग चढ़ा कर–एक शागिर्द उनका पैर दबा रहा था, दूसरा शागिर्द उनकी चंपी कर रहा था–खाट पर लेटे हुए थे। मस्ती में कुछ गुनगुना रहे थे। मैं जाकर पास बैठ गया। मैं उनको काका कहता था, आदर के कारण।

मैंने कहा, काका, एक सवाल पूछूं?

उन्होंने कहा, पूछो बेटा, जरूर पूछो। अरे, पूछोगे नहीं, तो जानोगे कैसे!

जब वे पीनक में होते, तो बड़ी गजब की बातें कहते थे!

जरूर पूछो, कहने लगे, जिन खोजा तिन खोइयां, गहरे पानी पैठ।

मैंने कहा, आप कबीर को भी चारों खाने चित्त कर दिए!

जिन खोजा तिन खोइयां, गहरे पानी पैठ! अरे, पूछोगे नहीं, तो जानोगे कैसे! पूछो।

अंग्रेजी के वे दो शब्द बोलते थे। एक, व्हाय नाट!

वे एकदम से मुझसे बोले, व्हाय नाट! पूछो!

व्हाय नाट उनका तकिया कलाम था। किसी भी चीज में व्हाय नाट कह देते थे। जैसे उनसे जय रामजी करो: काका, जय रामजी! वे कहते, व्हाय नाट! जिसमें कोई संबंध ही नहीं होता था!

कि काका, कहां जा रहे हो?

वे कहते, व्हाय नाट!

उन्हें अर्थ का संबंध नहीं था। इसको कहते हैं ऋषि! जो शब्द बोलें, अर्थ उसके पीछे आता है!

वे मुझसे बोले, व्हाय नाट! पूछो, क्या पूछना है?

मैंने कहा कि एक किताब मेरे हाथ लग गई, मुंडकोपनिषद! यह सवाल उठता है कि यह किसने लिखी और किसने यह नाम दिया?

वे कुछ सोच-विचार में पड़ गए! उपनिषद वगैरह से उनका क्या नाता रहा! फिर मैंने ही उनसे कहा कि मुझे यह शक हुआ कि हो न हो, आपने ही लिखी होगी! क्योंकि मुंडे पहलवान, आप ही एक जाहिर आदमी हैं!

बड़े प्रेम से मुस्कुराए और बोले, बेटा, जवानी में आदमी से कई तरह की भूलें हो जाती हैं! अरे, लिख दी होगी! बीती ताहि बिसार दे! अब जो हुआ, सो हो गया। तू भी कहां की पुरानी बातें उखाड़ता है! अब जाने भी दे। जो हो गया, हो गया! तेरे हाथ में कहां से लग गई? लिख दी होगी! कई काम जवानी में कर गया, जो नहीं करने थे। मगर जवानी में कौन भूल-चूक नहीं करता!

मैंने कहा, व्हाय नाट!

मैं भी उनकी भाषा का धीरे-धीरे उपयोग करने लगा था। मुझे भी पता नहीं था कि व्हाय नाट का मतलब क्या होता है!

और दूसरा शब्द उनका अंग्रेजी का था, कि जैसे हम कहते हैं कि तबीयत बाग-बाग हो गई। वे कहते, तबीयत गार्डन-गार्डन हो गई!

जब उन्होंने मेरे मुंह से सुना व्हाय नाट, बोले, तबीयत गार्डन-गार्डन हो गई! क्या बात तूने कही! होनहार बिरवान के होत चीकने पात। वे मुझसे बोले कि तू जरूर कुछ करके दिखाएगा!

मैंने कहा कि देखें, आपका आशीर्वाद रहा, तो लिखूंगा कोई मुंडकोपनिषद!

भोलेराम, तुम पूछ रहे हो, “कौन लेखक था?’

मुझे पता नहीं! अब तो मुंडे पहलवान भी मर चुके!

उपनिषद किसी ने लिखे नहीं। उपनिषद कहे गए। सच में तो कोई ऋषि कभी कुछ नहीं लिखा। जिन्होंने जाना है, उन्होंने लिखा नहीं; और जिन्होंने लिखा है, उन्होंने जाना नहीं। जानने वाले बोले, लिखे नहीं। फिर शिष्यों ने लिख लिए। शिष्यों ने संक्षिप्त नोट्स लिख लिए, ताकि आने वाली सदियों के काम आ सकें।

ये उपनिषद लिखे गए शिष्यों के द्वारा; कहे गए ऋषियों के द्वारा।

ऋषि बोलते हैं, सिर्फ बोलते हैं। क्योंकि बोलने में शब्द जीवित होता है। और जीवित शब्द ही एक हृदय से दूसरे हृदय में प्रवेश कर सकता है। और जीवित शब्द ही मुक्तिदायी है।

आज इतना ही।

आनहद में विसराम-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(अंतःकरण का अतिक्रमण)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 15, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

      यं यं लोकं मनसा संविभाति

           विशुद्धसत्वः कामयते यांश्च कामान्।

      तं तं लोकं जयते तांश्च कामां–

           स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चवेद भूतिकामः।।

जिसका अंतःकरण शुद्ध है, ऐसा आत्मवेत्ता, मन से जिस-जिस लोक की भावना करता है और जिन-जिन कामनाओं की कामना करता है, वह उस-उस लोक को और उन-उन कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। इसलिए जो अपना कल्याण चाहता है, उसे आत्मवेत्ता की अर्चना करनी चाहिए। Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-05)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन-(वर्तमान क्षण की धन्यता)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)  ओशो

दिनांक 14, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्राम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

      भविष्यं नानुसंधत्ते नातीतं चिन्तयत्यसौ।

      वर्तमान   निमेषं   तु   हसन्नेवानुवर्तते।।

भविष्य का अनुसंधान नहीं, न अतीत की चिंता। हंसते हुए वर्तमान में जीना।

लगता है, योगवासिष्ठ का यह श्लोक आपकी देशना का संस्कृत अनुवाद है। इसे हमें फिर एक बार समझाने की कृपा करें।

 सहजानंद!

मन या तो अतीत होता है या भविष्य। वर्तमान में मन की कोई सत्ता नहीं। और मन ही संसार है; इसलिए वर्तमान में संसार की भी कोई सत्ता नहीं। और मन ही समय है; इसलिए वर्तमान में समय की भी कोई सत्ता नहीं। Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-04)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-(तप, ब्रह्मचर्य और सम्यक ज्ञान)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)

दिनांक 13, नवम्बर, सन् 1980,  ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

      सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा

           सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्।

      अंतःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो

             यं पश्यंति यतयः क्षीणदोषाः।।

यह आत्मा सत्य, तप, सम्यक ज्ञान और ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त किया जा सकता है। जिसे दोषहीन यति देखते हैं, वह शुभ्र आत्मा इसी शरीर के अंदर वर्तमान है।

भगवान, मुंडकोपनिषद के इस सूत्र को हमारे लिए बोधगम्य बनाने की कृपा करें।

 शरणानंद!

यह सूत्र तो सरल है, पर हजारों वर्षों की व्याख्याओं ने इसे बहुत जटिल कर दिया है। नासमझ सुलझाने चलते हैं तो और उलझा देते हैं! नीम-हकीम से सावधान रहना जरूरी है। बीमारी इतनी खतरनाक नहीं, जितना नीम-हकीम खतरनाक सिद्ध हो सकता है। Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-03)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(नास्तिकता: अनिवार्य प्रक्रिया)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोउत्तर)   ओशो

दिनांक 12, नवम्बर, सन् 1980, ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान, जीवन के चालीस वर्ष नास्तिक समाजवादी विचारधारा में गंवाने के बाद पिछले पंद्रह वर्षों से आपका संपर्क पाया। और जीवन में जो आनंद और उत्सव का अनुभव किया, उसका कैसे वर्णन करूं? और कैसे अपनी कृतज्ञता प्रकट करूं? शब्द बिलकुल ओछे पड़ गए हैं। आप क्या मिले, बस सब कुछ मिल गया! प्रभु, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

 अमृत बोधिसत्व!

आस्तिक होने के लिए नास्तिक होना अत्यंत अनिवार्य है। अभागे हैं वे जिन्होंने कभी नास्तिकता नहीं चखी, क्योंकि वे आस्तिकता का स्वाद न समझ पाएंगे। आस्तिकता उभर कर प्रकट होती है, नास्तिकता की पृष्ठभूमि चाहिए। जैसे ब्लैकबोर्ड पर लिखते हैं सफेद खड़िया से, अक्षर-अक्षर साफ दिखाई पड़ता है। यूं तो सफेद दीवाल पर भी लिख सकते हैं, मगर तब अक्षर दिखाई न पड़ेंगे। Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-02)”

आनहद में विसराम-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(संसार पाठशाला है)

आनहद में विसराम-(प्रश्नोत्तर)

दिनांक 11, नवम्बर, सन् 1980, ओशाो  आश्रम पूना। 

पहला प्रश्न: भगवान, विश्राम के लिए अनंत आकाश में उड़ने वाला पक्षी घास का छोटा सा घोंसला बनाता है। और विश्राम के लिए आदमी ने पहले गुफा खोजी, और फिर झोपड़ा और मकान बनाया। और आप आज अनहद में बिसराम की चर्चा शुरू कर रहे हैं।

भगवान, यह अनहद में बिसराम क्या है, यह हमें समझाने की कृपा करें।

आनंद मैत्रेय!

विश्राम के लिए पक्षी घोंसला बनाए, इसमें तो कुछ भी अड़चन नहीं। क्योंकि घोंसले में किया गया विश्राम, आकाश में उड़ने की तैयारी का अंग है। आकाश से विरोध नहीं है घोंसले का। घोंसला सहयोगी है, परिपूरक है। सतत तो कोई आकाश में उड़ता नहीं रह सकता। देह तो थकेगी। देह को विश्राम की जरूरत भी पड़ेगी। Continue reading “आनहद में विसराम-(प्रवचन-01)”

असंभव क्रांति-(प्रवचन-10)

प्रवचन-दसवां-(बस एक कदम)

असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 21-10-67 रात्रि   

(अति-प्राचिन प्रवचन)

शिविर की इस अंतिम रात्रि में थोड़े से प्रश्नों पर और हम विचार कर सकेंगे। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जो मेरे शब्दों को, विचारों को ठीक से न सुन पाने, न समझ पाने की वजह से पैदा हो गए हैं। एक शब्द भी यहां से वहां कर लें तो बहुत अंतर पैदा हो जाता है।

उन प्रश्नों के तो उत्तर मैं नहीं दे पाऊंगा। निवेदन करूंगा कि जो मैंने कहा है, उसे फिर एक बार सोचें। उसे समझने की कोशिश करें। जरा सा भेद आप कर लेते हैं, कुछ अपनी तरफ से जोड़ लेते हैं या कुछ मैंने जो कहा उसे छोड़ देते हैं, तो बहुत सी भ्रांतियां, दूसरे अर्थ पैदा हो जाते हैं। और जरा से फर्क से बहुत बड़ा फर्क पैदा हो जाता है।

एक राजधानी में उस देश के धर्मगुरुओं की एक सभा हो रही थी। सैकड़ों धर्मगुरु देश के कोने-कोने से इकट्ठे हुए थे। उस नगर ने उनके स्वागत का सब इंतजाम किया। सभा का जब उदघाटन होने को था तो मंच पर से परदा उठाया गया।

पांच छोटे-छोटे बच्चों के गले में हैलो, इसके पांच अक्षर–एच, ई, एल, एल, ओ–ये पांच बच्चों के गलों में एक-एक अक्षर लटकाकर एक के बाद एक बच्चा बाहर आया स्वागत के लिए।

चार बच्चे आकर खड़े हो गए। पांचवां छोटा बच्चा हैरान हुआ, वह भूल गया, कहां खड़ा होना है। वह पीछे न खड़ा होकर आगे पंक्ति में खड़ा हो गया। हैलो की जगह ओ हेल बन गया। वह, स्वागत की जगह वहां नरक! उतने से एक अक्षर के यहां से वहां होने पर…कहां स्वागत का स्वर्ग था, कहां नरक उपस्थित हो गया!

एक नास्तिक ने अपने घर पर लिख छोड़ा था, गाड इज़ नो ह्वेअर। एक छोटा सा बच्चा पड़ोस का उसे पढ़ रहा था, नया-नया पढ़ने वाला था। उसने पढ़ा गाड इज़ नाउ हिअर! वह नास्तिक सुनकर हैरान हो गया। उसने लिखा था गाड इज़ नो ह्वेअर, ईश्वर कहीं भी नहीं है। और बच्चे ने पढ़ा, गाड इज़ नाउ हिअर, ईश्वर यहीं है–यहीं और अभी!

दो पुरोहित अपनी शिक्षा के लिए एक आश्रम में भर्ती हुए थे। उन दोनों को ही सिगरेट पीने की आदत थी। एक घंटे के लिए उन्हें आश्रम के बगीचे में घूमने का समय मिलता था। उसी समय वे पी सकते थे। लेकिन वह समय भी ईश्वर-चिंतन करने के लिए मिलता था। तो उन्होंने सोचा गुरु से पूछ लेना उचित है। वे दोनों अपने गुरु के पास पूछने गए।

पहला व्यक्ति जब लौटा पूछकर तो उसने देखा कि दूसरा तो उससे पहले ही बगीचे में वापस लौट आया है और एक दरख्त के नीचे बैठकर आराम से सिगरेट पी रहा है! उसे बड़ी हैरानी हुई। उसे तो गुरु ने इनकार कर दिया था। क्या उसके साथी को उन्होंने स्वीकार कर दिया? यह कैसे संभव है कि मुझे मना किया और मेरे साथी को हां भरी।

उसने क्रोध में आकर अपने मित्र को पूछा, तुम सिगरेट पी रहे हो। मुझे तो मना कर दिया है गुरु ने। उस साथी ने कहा, तुमने पूछा क्या था? उस व्यक्ति ने कहा, सीधी सी बात थी। मैंने पूछा था, क्या मैं ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकता हूं। उन्होंने एकदम कहा, नहीं, बिलकुल नहीं। तुमने क्या पूछा था? वह दूसरा मित्र हंसा। उसने कहा, मैंने पूछा था, क्या मैं सिगरेट पीते वक्त ईश्वर-चिंतन कर सकता हूं? उन्होंने कहा, हां, बिलकुल।

ये दोनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं, लेकिन एक ही परिणाम नहीं निकला। दोनों से बिलकुल दूसरा परिणाम निकला। ईश्वर-चिंतन करते समय कौन आज्ञा देगा कि सिगरेट पीओ। लेकिन सिगरेट पीते वक्त अगर ईश्वर-चिंतन करते हो तो अच्छा ही है, इसमें बुरा क्या है। वैसे बात दोनों एक ही हैं। लेकिन इतने ही फर्क से जमीन-आसमान का फर्क पैदा हो जाता है।

तो उन सारे प्रश्नों को तो मैं छोड़ दूंगा, जिनमें अपने शब्दों को, भावों को विचारों को समझने की कोशिश नहीं की है–हेर-फेर कर ली है, बदली कर दी है, अपने मन से कुछ जोड़ लिया या कुछ घटा दिया है। उन सब पर विचार करने का तो समय नहीं है। इतना ही निवेदन करूंगा उन सबके संबंध में कि जो मैंने कहा है, उसे फिर गौर से सोचें, उसका फिर से निरीक्षण करें, समझें। तो जो मुझसे पूछा है, उसके उत्तर आपको अपने से ही मिल जाएंगे।

कुछ और प्रश्न है।

एक मित्र ने पूछा है कितने समय में हम ध्यान को उपलब्ध हो सकेंगे।

कोई सामान्य उत्तर नहीं हो सकता है। क्योंकि ध्यान को कितने समय में उपलब्ध हो सकेंगे, यह मुझ पर नहीं, आप पर निर्भर है। और इसके लिए कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि सभी लोग एक ही समय में उपलब्ध हो सकें। आपकी तीव्रता, आपकी प्यास, आपकी लगन, आपकी अभीप्सा, इस सब पर निर्भर करेगा। एक क्षण में भी उपलब्ध हो सकते हैं, और पूरे जीवन में भी न हों। एक क्षण में भी, तीव्र प्यास का एक क्षण भी, इंटेंसिटी का एक क्षण भी जीवन को बदल सकता है। और नहीं तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे–कोई तीव्रता नहीं है, कोई सीरियसनेस, कोई गंभीरता नहीं है कि उसे हम प्यास की तरह पकड़ें।

एक आदमी प्यासा है तो उसकी पानी की खोज और बात है। और एक आदमी प्यासा नहीं है, उसकी पानी की खोज बिलकुल दूसरी बात है। प्यास तो खोज लेगी पानी को। और जितनी तीव्र होगी, उतनी तीव्रता से खोज लेगी।

एक पहाड़ी रास्ते पर एक यात्री जाता था। एक बूढ़े आदमी को बैठा हुआ देखा उसने और कहा, गांव कितनी दूर है और मैं कितने समय में पहुंच जाऊंगा? वह बूढ़ा ऐसे बैठा रहा, जैसे उसने न सुना हो या बहरा हो। वह यात्री हैरान हुआ। उस बूढ़े ने कुछ भी न कहा। यात्री आगे बढ़ गया, कोई बीस कदम गया होगा, वह बूढ़ा चिल्लाया–सुनो, एक घंटा लगेगा। उस आदमी ने कहा, यात्री ने कि अजीब हो, मैंने जब पूछा था, तुम चुप रहे। उसने कहा, मैं पहले पता तो लगा लूं कि तुम चलते कितनी रफ्तार से हो। तो जब बीस कदम मैंने देख लिए कि कैसे चलते हो, तो फिर मैं समझ गया कि एक घंटा तुम्हें पहुंचने में लग जाएगा। तो मैं क्या उत्तर देता पहले, उस बूढ़े ने कहा, जब मुझे पता ही नहीं कि तुम किस रफ्तार से चलते हो। तुम्हारी रफ्तार पर निर्भर है गांव पर पहुंचना–कितनी देर में पहुंचोगे, इसलिए मैं चुप रह गया।

आपकी रफ्तार पर निर्भर है। आप कैसी तीव्रता से, कितनी गंभीरता से, कितनी सिनसेरिटि से, कितनी ईमानदारी से जीवन को बदलने की आकांक्षा से अभिप्रेरित हुए हैं, इस पर निर्भर है। एक क्षण में भी यह हो सकता है। एक जन्म में भी न हो। समय का कोई भी सवाल नहीं है। समय का रत्तीभर भी सवाल नहीं है। क्योंकि ध्यान में समय के द्वारा हम नहीं जाते हैं। ध्यान में हम जाते हैं अपनी प्यास और तीव्रता के द्वारा।

भीतर कोई टाइम नहीं है, भीतर कोई समय नहीं है। सब समय बाहर है। तो अगर बाहर यात्रा करनी हो, तब तो समय निश्चित लगता है। लेकिन भीतर यात्रा करनी हो, प्यास अगर परिपूर्ण हो, तो समय लगता ही नहीं। बिना समय के एक पल में, एक पल में भी नहीं–भीतर पहुंचा जा सकता है। लेकिन वह निर्भर करेगा–मुझ पर नहीं, आप पर।

और यह जरूर कहूंगा, हमारी गंभीरता, हमारी प्यास अत्यल्प है। अगर अत्यल्प न होती, अगर बहुत कम न होती, तो हम शब्दों और शास्त्रों से तृप्त न हो जाते।

एक आदमी को प्यास लगी है, क्या हम पानी के संबंध में लिखी हुई उसे कोई किताब दें, वह तृप्त हो जाएगा? उस किताब को रोज पढ़ता रहेगा? किताब फेंक देगा। वह कहेगा, किताब का मैं क्या करूंगा। मुझे प्यास लगी है, मुझे पानी चाहिए। पानी के ऊपर लिखा हुआ शास्त्र नहीं।

लेकिन मैं तो देखता हूं परमात्मा के ऊपर लिखे शास्त्रों को लिए लोग बैठे हैं! वे कोई भी नहीं कहते कि हमें किताब नहीं चाहिए, हमें परमात्मा चाहिए! हमें प्यास लगी है, यह वे कोई भी नहीं कहते। रखे बैठे रहें वे शास्त्र को। उनके भीतर प्यास नहीं है, इसलिए वे शास्त्र को पकड़े बैठे हुए हैं। जिसके भीतर प्यास हो, वह शास्त्र से कभी तृप्त हुआ है? वह किताब से, शब्द से कभी तृप्त हुआ है? वह नहीं हो सकता तृप्त।

मैं तो अधिक लोगों को किताबों से तृप्त हुआ देखता हूं। इसलिए लगता है कि कोई प्यास नहीं है। नहीं तो वे परमात्मा को खोजते-खोजते सत्य को, शब्दों को तो नहीं पकड़कर बैठ जाते। हम सब शब्दों को पकड़कर बैठे हुए हैं। यह प्यास की न्यूनता का सबूत, प्रमाण है। शब्दों को पकड़कर बैठे रहिए तो कभी नहीं पहुंच सकेंगे। खोजिए अपनी प्यास को–भीतर कोई प्यास है? सच में कोई भीतर आकांक्षा सरकती है–जीवन को जानने की कोई जिज्ञासा?

और अगर है तो फिर दूसरी बात ध्यान में रखना पड़ेगी। इस जिज्ञासा को बोथला मत कर लीजिए। जिज्ञासा को हम बोथला कर लेते हैं। भीतर जिज्ञासा है जानने की और हम मान लेते हैं दूसरों की बातों को तो जिज्ञासा बोथली हो जाती है, कुंठित हो जाती है। भीतर है जानने की जिज्ञासा? क्या है? और हम मान लेते हैं–आत्मा है, परमात्मा है! मान लेते हैं चुपचाप! इस मान लेने के कारण, इस विश्वास के कारण, ऐसी बिलीह्वस के कारण फिर जिज्ञासा कुंठित हो जाती है, रुक जाती है। फिर जिज्ञासा आगे गहरी नहीं हो पाती है।

विश्वास जिज्ञासा को रोक लेते हैं, ठहरा लेते हैं, फिर जिज्ञासा गहरी नहीं हो पाती। अगर जिज्ञासा को गहरा करना है तो विश्वासों को मत पकड़ना, थोथे ज्ञान को मत पकड़ना; सुने-सुनाए ज्ञान को, पढ़े-पढ़ाए ज्ञान को मत पकड़ लेना–वह सब जिज्ञासा को मार डालेगा। क्यों? क्योंकि बिना जाने हमें यह भ्रम पैदा हो जाएगा कि हम जानते हैं। हम सबको यह भ्रम है कि हम जानते हैं–ईश्वर है! हम सबको यह भ्रम है हम जानते हैं–मोक्ष है! हम सबको यह भ्रम है हम जानते हैं–पुनर्जन्म है! हम सबको यह भ्रम है हम जानते हैं कर्म है, आत्मा है, फलां है, ढिकां है! हम सब कुछ जानते हुए मालूम पड़ते हैं!

यह जानते हुए मालूम पड़ना घातक है। यह आपकी प्यास की हत्या कर देगा। और फिर आपके भीतर वह ज्वलंत प्यास नहीं रह जाएगी, जो पहुंचा सकती है। इस सबको छोड़ देने के लिए इसीलिए मैंने इधर तीन दिनों में आपसे कहा। जानें ठीक से कि मैं अज्ञानी हूं नहीं जानता हूं।

जो व्यक्ति इस बात को ठीक से जानता है कि मैं नहीं जानता हूं, उसकी प्यास अदम्य हो उठती है। क्योंकि अज्ञान से कोई भी तृप्त नहीं हो सकता है। ज्ञान से तृप्त हो सकता है। तथाकथित ज्ञान से तृप्त हो सकता है। लेकिन अज्ञान से कोई कैसे तृप्त हो सकता है? अज्ञान तो धक्के देता है। अज्ञान तो एक अतृप्ति पैदा करता है, एक डिसकंटेंट कि बदलो, इस अज्ञान को बदलो।

लेकिन हम अज्ञान को छिपा लेते हैं शब्दों के ज्ञान में। फिर अज्ञान की ताकत टूट जाती है, वह हमें धक्के नहीं दे पाता। और तब हम एक मीडियाकर, एक बिलकुल ही कुनकुने आदमी जिसके जीवन में कोई उत्तप्त, कोई पेशन, जिसके जीवन में कोई जीवंत-बल, कोई जीवंत-ऊर्जा नहीं है–ऐसे आदमी हो जाते हैं–बुझे-बुझे। जिसकी ज्योति जलती नहीं।

हम सब बुझे-बुझे आदमी हैं। इसलिए देर लगती है पहुंचने में। जलता हुआ आदमी होना चाहिए। पूरा जीवन एक ज्वलंत, एक जीवंत, एक लिविंग शक्ति, एक ताकत होनी चाहिए। और हम सब हो सकते हैं। लेकिन अपने ही हाथों हम नहीं हैं।

मुझ पर नहीं निर्भर है, आप पर निर्भर है। चाहें तो इसी क्षण–अभी और यहीं, बात पूरी हो सकती है। एक क्षण में भी बातें हुई हैं।

एक साधु था। उसके आश्रम में बहुत लोग थे। एक युवक आया था आश्रम में। वह अत्यंत विवादी था, आरग्यूमेंटेटिव था, हर किसी से विवाद करता। बहुत तर्कनिष्ठ भी था। जो बात कहता, उसमें तर्क का बल भी होता। लेकिन चौबीस घंटे विवाद, विवाद।

एक संन्यासी यात्रा करते हुए उस आश्रम में ठहरा। उस संन्यासी के साथ भी उस युवक का विवाद हो गया। और घंटे, दो घंटे में उसने संन्यासी की चिंदियां-चिंदियां अलग कर दीं। संन्यासी पराजित, दुखी वापस लौटा।

उस युवक के गुरु, उस बूढ़े साधु ने, जो उस आश्रम में था, उसने उस युवक को कहा, मेरे बेटे, तुम कब तक व्यर्थ ही बोलते रहोगे? तुम कब तक अपने जीवन को व्यर्थ की बातों में गंवाते रहोगे? कब तक?

पता है आपको–उस युवक ने उत्तर दिया? नहीं, उसने फिर उत्तर देना भी व्यर्थ समझा। उस दिन के बाद सारा जीवन मौन में बीत गया। इसका उत्तर भी नहीं दिया। क्योंकि उसकी भी क्या जरूरत थी। बात खतम हो गई। उसे यह बात दिखाई पड़ गई, यह व्यर्थता। इस सारे विवाद की, तर्क की–इस जाल की व्यर्थता दिखाई पड़ गई। बात खतम हो गई। उसने फिर यह नहीं कहा, कब तक? कल, परसों, अगले वर्ष; एक वर्ष बाद, दो वर्ष बाद। नहीं, बात दिख गई और समाप्त हो गई।

जब कोई बात दिखाई पड़ती है, उसी वक्त समाप्त हो जाती है। दिखाई ही नहीं पड़ती, इसलिए सवाल उठता है कि कब, कितने दिनों में, कैसे? देखने की कोशिश करें। जो चीज दिखाई पड़ जाएगी–दिखाई पड़ने से ही एक परिवर्तन तत्क्षण हो जाता है।

फिर उसके गुरु को कई लोगों ने कहा, यह आदमी तो बड़ा पागल मालूम होता है? कल तक इतना विवाद करता था। इसे क्या हो गया? उसके गुरु ने कहा, मैं खुद हैरान हो गया इसे देखकर, चकित हो गया। मुझे यह कल्पना नहीं थी। मैंने पूछा था, कब तक? उसने इसका भी फिर उत्तर नहीं दिया। बात फिजूल हो गई। दिख गई तो फिजूल हो गई।

एक बहुत बड़ा वैयाकरण था। बहुत बड़ा व्याकरण का विद्वान था। उसका पिता दिन-रात, राम-राम, राम-राम जपा करता था हर समय। विद्वान की उम्र साठ वर्ष हो गई, पिता की कोई अस्सी के करीब होगी। उसके पिता ने एक दिन उसको बुलाकर कहा कि बेटे अब तुम भी बूढ़े हो गए। अब राम के स्मरण का समय आ गया। मैंने तुम्हें कभी मंदिर जाते नहीं देखा! मैंने कभी तुम्हें धर्म की बात करते नहीं देखा! मैंने कभी तुम्हारी इस तरफ, परमात्मा की तरफ उत्सुकता नहीं देखी! अब कब तक? बूढ़े हो गए हो तुम भी, साठ वर्ष पार हो गए तुम्हारे भी। कब तक?

उस बेटे ने कहा, मैं भी आपको देखता हूं वर्षों से राम-राम जपते, मंदिर जाते–रोज वही करते। जो कल भी किया था, आज भी आप करते हैं। लेकिन कल जब उस करने से कुछ उपलब्ध नहीं हुआ, तो आज कैसे उपलब्ध हो जाएगा? तीस वर्षों से मैं भी देखता हूं। तीस वर्षों में रोज मंदिर जाते देखा, ग्रंथ पढ़ते देखा, राम-राम जपते देखा। अगर तीस वर्षों में कुछ नहीं हुआ वही करते हुए, तो आज उसके करने से और क्या हो जाएगा?

उस युवक ने कहा, किसी दिन मैं मंदिर जाऊंगा। लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, वह मेरा मंदिर जाना अंतिम होगा। दो कारणों से। या तो मंदिर से मैं लौटूंगा ही नहीं। और या लौट आया तो फिर मंदिर नहीं जाऊंगा। वह अंतिम और प्रथम मंदिर मेरा जाना होगा।

बाप नब्बे बर्ष का हो गया। लड़का सत्तर वर्ष पार कर गया। सत्तरवीं वर्षगांठ थी उसकी। उस दिन सुबह ही उसने अपने पिता के पैर छुए और कहा, मैं मंदिर जाता हूं। सारे गांव के लोग इकट्ठे हो गए, यह खबर सुनकर कि वह आदमी जो कभी मंदिर के पास नहीं फटका, आज मंदिर जा रहा है। सारा गांव इकट्ठा हो गया।

वह व्यक्ति मंदिर गया। लेकिन वह जाना अंतिम था। मंदिर में वह आंख बंद करके खड़ा हुआ, और श्वास समाप्त हो गई। उसका पिता रोने लगा। उसके पिता ने कहा, बहुत बार मैं मंदिर गया लेकिन आज तक मैं मंदिर नहीं पहुंच पाया। और यह मेरा लड़का आज मंदिर गया और पहुंच भी गया।

प्राण अगर पूरी प्यास से–प्राण अगर पूरी प्यास से, प्राण का कण-कण अगर पूरी प्यास से भरकर एक क्षण भी ठहर जाए, तो परमात्मा से मिलन सुनिश्चित है, सत्य से मिलन सुनिश्चित है। लेकिन बिना प्यास के हम भटकते रहते हैं, भटकते रहते हैं। और पूछते रहते हैं, कैसे होगा, कब होगा, क्या होगा! कभी नहीं होगा, ऐसे कभी नहीं होगा। होने के लिए चाहिए एक त्वरा, एक पेशन–इसी क्षण हो सकता है।

उचित है कि इस अंतिम दिन इसको हम ठीक से समझ लें। तो खोज लें अपने भीतर कि कोई प्यास है। न हो प्यास तो फिजूल क्यों इन सब बातों में समय को गंवाना। न हो प्यास तो ठीक है। जिस बात की प्यास हो, उसी तरफ जाएं। ईमानदार तो होएं अपनी प्यास में कम से कम। कम से कम एक ईमानदारी तो होनी चाहिए। जो मेरी प्यास नहीं है, उस तरफ नहीं जाऊंगा। जिस तरफ मेरी प्यास है, उसी तरफ जाऊंगा। चाहे दुनिया कुछ भी कहे।

अगर इतनी ईमानदारी हो तो एक दिन सारी प्यास व्यर्थ हो जाती है, सिर्फ परमात्मा की प्यास ही फिर शेष रह जाती है। और तब एक बल के साथ, एक त्वरा के साथ, एक गति के साथ सारा जीवन परमात्मा के सागर की तरफ दौड़ने लगता है। जैसे नदियां सागर की तरफ दौड़तीं, पहाड़ों को छलांगती, मैदानों को पार करतीं, पत्थरों को तोड़तीं–किसी दूर अनंत सागर की यात्रा करती रहती हैं, वैसे ही…।

लेकिन अगर हम जीवनभर ऐसी प्यासों के पीछे भी दौड़ते रहें, जिनकी हमें कोई प्यास ही नहीं है तो हमारा मन अगर बोथला हो जाए, कुंठित हो जाए, अगर सारी गति अवरुद्ध हो जाए तो आश्चर्य नहीं है। तो मनुष्य को खोजना चाहिए–मेरी खोज क्या है, मेरी सर्च क्या है, क्या खोजना चाहता हूं?

लेकिन हम दूसरों की बातों से खोज में लग जाते हैं, इसलिए कठिनाई है। हम दूसरों की बातों से खोज में लग जाते हैं! इसलिए कठिनाई है। कुछ लोग ईश्वर की बातें करते हैं, आत्मा की बातें करते हैं, हमारे लोभ को पकड़ जाती हैं वे बातें। हम सोचते हैं, यह भी मिल जाए तो अच्छा है। यह भी हमारे मिलने के जो बहुत से आइटम हैं हमारी लिस्ट में, जो-जो चीजें हमें पानी हैं–फर्नीचर अच्छा, कार, मकान–इनमें इस ईश्वर को भी सम्मिलित कर लेते हैं। यह भी, इसी, इन्हीं कमोडिटीज में, इन्हीं चीजों में एक चीज है; यह भी मिल जाए तो अच्छा ही है।

ईश्वर हमारे सामानों की फेहरिस्त में एक सामान नहीं है। हमारी सामग्री की चाह में एक सामग्री नहीं है। और इस भांति जो सत्य को चाहता होगा, उसे सत्य कभी मिलने वाला नहीं है।

ईश्वर या सत्य बात ही और है। वह हमारे समग्र प्राणों की समग्र प्यास है–पूरी, इकट्ठी, टोटल, उससे कम नहीं। और वह तभी पैदा होती है, जब जीवन की सब चीजों को हम गौर से देख-देखकर, सब तरफ पाते हैं कि कहीं कोई तृप्ति नहीं है, सब जगह असंतोष है। सब जगह जब डिसकंटेंट मिलता है, जब सब जगह हमारा यह भ्रम टूट जाता है कि कहीं भी नहीं कुछ संतोष मिलता, कहीं कोई शांति नहीं मिलती, कहीं कोई आनंद नहीं मिलता…जब सब तरफ हम जांच लेते हैं, दौड़ लेते हैं, खोज लेते हैं…!

मैं कहता हूं, खोज लेना चाहिए। क्योंकि बिना खोजे सबको–हमारी कच्ची खोज, कच्ची प्यास होगी। खोज लेना चाहिए ठीक से जीवन में कहां मिल सकता है आनंद, कहां मिल सकती है शांति, कहां मिल सकता है संतोष। और जब कहीं न मिले, जब सब मोर्चे पराजित हो जाएं, कोई मोर्चा न रह जाए और जब हम खड़े हो जाएं कि नहीं कहीं मिलता है, कहीं भी नहीं, नो ह्वेअर, जब दिखाई पड़े कहीं भी नहीं, उसी क्षण सारी यात्रा एक नए बिंदु पर दौड़ने लगेगी, जो स्वयं का है, जो स्वयं के भीतर है। उस तरफ एक दौड़ शुरू होगी।

लेकिन हमारी दौड़ और तरह की है। हम एक ऐसे मकान में बैठे हुए हैं कि कोई उपदेशक आकर हमको समझाता है कि मकान में आग लगी हुई है। हम उससे पूछते हैं, वह तो ठीक है, लगी होगी, लेकिन हम कब तक निकल पाएंगे इस मकान से। साफ है मतलब। उपदेशक कहता है आग लगी है, इसलिए हमने मान लिया आग लगी है, अब हम पूछ रहे हैं कि कब तक निकल पाएंगे।

हमको आग दिखाई पड़ जाए तो हम यह पूछेंगे कि कब तक निकल पाएंगे? उपदेशक पीछे रह जाएगा, हम पहले निकल जाएंगे। उसको एक धक्का देंगे कि रास्ता छोड़ो, मुझे बाहर जाने दो, तुम भला फिर समझाना किसी को। अब यहां समझने की फुर्सत नहीं है मुझे। हम उसे धक्का देंगे और बाहर निकल जाएंगे।

लेकिन हमें तो आग दिखाई नहीं पड़ती। लोग समझाते हैं कि आग लगी हुई है। जीवन में दुख है, पीड़ा है–लोग समझाते हैं। हमारी समझ में तो कुछ आता नहीं। इसलिए हमारी समझ में कुछ और ही आता है और ये समझाने वाले कुछ और समझाते हैं। एक झूठी प्यास पैदा हो जाती है। उस झूठी प्यास के कारण सवाल उठता है कब तक?

अपनी प्यास को खोजना चाहिए–क्या वह सच्ची है? और न हो सच्ची तो उस प्यास को दो कौड़ी का समझकर फेंक देना चाहिए। चाहे वह ईश्वर की ही प्यास क्यों न हो। झूठी प्यास का कोई मूल्य है? झूठी प्यास का कोई मूल्य नहीं है। फिर जो हमारी प्यास हो, उसी को ठीक से खोजना चाहिए। और जब उस सारी खोज में नहीं मिलेगा कुछ, तब वह खोज पैदा होगी, जो उसकी है–परमात्मा की, सत्य की।

जब सब तरफ से मन हारा, थका–कहीं भी नहीं पाता, तब उठना चाहता है, तब भीतर जाना चाहता है। लेकिन हमें बचपन से ही झूठी प्यासें सिखा दी जाती हैं, उससे सारी मुश्किल हो जाती है। अपनी झूठी प्यास को छोड़ दें। सच्ची प्यास की तलाश करें। और वह तभी होगी सच्ची प्यास की खोज, जब आप, जो भी आपकी प्यास है…। चाहे सारी दुनिया कहती हो कि वह गलत है, कहने दें दुनिया को। यह जिंदगी आपको मिली है और एक बार। इसको आप किसी के कहने पर मत जीएं। हो सकता है, वे सारे लोग गलत कहते हों। कोई महात्मा कहता हो, कोई ज्ञानी कहता हो। मत जीएं उसकी बात को मानकर। हो सकता है वह गलत कहता हो। हो सकता है, वह कुछ भी न जानता हो।

अपनी प्यास का सहारा पकड़ें और खोजें। और पूरे जागरूक होकर खोजते रहें। जागरूकता भीतर रहे और हर प्यास को खोज लें, चाहे वह कोई प्यास हो। तो आप पाएंगे कि जागरूकता बता देगी कि प्यास व्यर्थ है, यह रास्ता कहीं भी नहीं जाता है। और जब कोई रास्ता कहीं जाता हुआ न दिखाई पड़े, तब वह रास्ता उपलब्ध हो जाता है, जो प्रभु तक जाता है। उसके पहले नहीं।

प्यास को एक सजगता, ईमानदारी, एक त्वरा, एक गति, एक स्पष्टता देना जरूरी है। इस संबंध में थोड़ा खोजें-बीनें। अपनी प्यास को देखें, कहीं ये झूठी बातें तो नहीं हैं कि मैं ईश्वर को चाहता हूं। सच में चाहते हैं? तो इसी क्षण हो सकती है बात। लेकिन पूछें अपने से, चाहता हूं? आप खुद को ही डांवाडोल पाएंगे भीतर, चाहता भी हूं या नहीं।

रवींद्रनाथ ने एक अदभुत गीत लिखा है। लिखा है कि मैं ईश्वर को खोजता था बहुत-बहुत जन्मों से। अनेक बार दूर किसी पथ पर उसकी झलक दिखाई पड़ी, मैं भागा, भागा, लेकिन तब तक वह निकल गया और दूर। मेरी सीमा थी, उस असीम की, सत्य की कोई सीमा नहीं। जन्म-जन्म भटकता रहा, कभी कोई झलक मिलती थी किसी तारे के पास। भागता जब मैं उस तारे के पास पहुंचता, तब वह फिर कहीं और निकल गया था।

आखिर बहुत थका, बहुत परेशान, बहुत प्यासा, एक दिन मैं उसके द्वार पर पहुंच गया। मैं उसकी सीढ़ियां चढ़ गया। परमात्मा के भवन की सीढ़ियां मैंने पार कर लीं। मैं उसके द्वार पर खड़ा हो गया। मैंने सांकल हाथ में ले ली। बजाने को ही था, तभी मुझे खयाल आया, अगर वह कहीं मिल ही गया तो फिर क्या होगा? फिर मैं क्या करूंगा? अब तक तो एक बहाना था चलाने का कि ईश्वर को खोजता हूं। फिर तो यह बहाना भी नहीं रह जाएगा। द्वार पर खड़े होकर घबड़ाया मन कि द्वार खटकाऊं या न खटकाऊं। क्योंकि खटकाने के बाद उससे मिलना निश्चित है। यह उसका भवन आ गया। और वह मिल जाएगा फिर? मैं उससे मिलना भी चाहता हूं? या कि केवल एक बहाना था अपने को चलाए रखने का। अपने समय को काटने का एक बहाना था। अपने को व्यर्थ न मानने की, सार्थक बनाने की एक कल्पना थी। चाहता हूं मैं उसे?

और तब मन बहुत घबड़ाया और उसने कहा कि नहीं, दरवाजा मत खटखटाओ। अगर कहीं वह मिल गया तो फिर बड़ी मुश्किल है। फिर क्या करोगे? फिर सब करना गया। फिर सब खोज गई, फिर सब दौड़ गई। फिर सारा जीवन गया।

तब मैं डर गया और मैंने सांकल आहिस्ता से छोड़ी कि कहीं वह सुन ही न ले। और मैंने जूते पैर से बाहर निकाल लिए कि सीढ़ियां उतरते वक्त आवाज न हो जाए–कहीं वह आ ही न जाए। और मैं भागा उसके द्वार से। जब मैं बहुत दूर निकल आया, तब मैं ठहरा, तब मैंने संतोष की सांस ली और तब से मैं फिर उसका मकान खोज रहा हूं। क्योंकि खोजने में जिंदगी चलाने का एक बहाना है। मुझे भलीभांति पता है कि उसका मकान कहां है? उसको बचकर निकल जाता हूं। खोज जारी रखता हूं। जो भी मिलता है, उससे पूछता हूं, ईश्वर कहां है? ऐसे जिंदगी मजे में कट रही है। एक ही डर लगता है, कहीं किसी दिन उससे मिलना न हो जाए। मकान उसका मुझे पता है।

बड़ी अजीब सी बात है। लेकिन हम सबके साथ ऐसा ही है। हम सबको पता है कि उसका मकान कहां है। हम सबको मालूम है कि थोड़ा खटकाएं और द्वार खुल जाएंगे। लेकिन कोई तैयार है? किसी का मन राजी है?

समझ लें आप उसके द्वार पर खड़े हो गए हैं जाकर और खटकाने की बात है। जैसा क्राइस्ट ने कहा, नॉक, एंड द डोर शेल बी थ्रोन ओपन अन टू यू, खटखटाओ और द्वार खुल जाएंगे। द्वार पर ही आप खड़े हैं, खटखटाने की बात है। होता है मन कि खोल लें द्वार? या कि मन डरता है? या कि मन कहता है चलो, वापस लौट चलें? खोज बड़ी अच्छी थी, मिल जाने पर बड़ी मुश्किल होगी, फिर क्या करेंगे?

मैं निश्चित आपसे कहता हूं आप भी द्वार से वापस लौट आएंगे। या कौन जाने लौट आए हों। रोज लौट आते हों। परमात्मा का मकान बहुत दूर तो नहीं हो सकता। है तो कहीं बिलकुल निकट, पास–सब तरफ। उसका द्वार कहीं किसी आकाश में, किसी सितारे के पास तो नहीं हो सकता। है तो हर जगह। उसके रास्ते कहीं बहुत दुर्गम तो नहीं हो सकते। सब रास्ते उसी के हैं। जहां से भी हम चलें, उसी तक पहुंचेंगे, उसके अतिरिक्त कुछ है नहीं।

लेकिन फिर भी हम खोज रहे हैं। तो जरूर कुछ मामला है, जरूर कुछ बात है। यह भी एक बहाना है, यह भी एक मनोरंजन है। कभी फिल्म देख लेते हैं, कभी सत्संग कर लेते हैं। कभी नाच-गान देख लेते हैं, कभी भजन-कीर्तन सुन लेते हैं। कभी ताश खेल लेते हैं, कभी गीता पढ़ लेते हैं। इनमें फर्क थोड़े ही है। ये सब एक जैसे हैं। ये सब जिंदगी को भरने के उपाय हैं। एक मनोरंजन है। जिंदगी फिजूल है, मीनिंगलेस है, उसमें कोई अर्थ नहीं है। सब तरफ से हम अर्थ पैदा करने की कोशिश करते हैं। इसमें ईश्वर को भी ठकठका लेते हैं कि शायद इससे भी कुछ अर्थ पैदा हो। शायद कुछ रस आ जाए, कुछ मजा आ जाए, कोई थ्रिल पैदा हो जाए, कोई एक्साइटमेंट मिल जाए इससे भी। शायद इससे भी एक नया अनुभव मिल जाए। ऐसी खोज चल रही है। यह खोज कोई बहुत गहरी, कोई प्यास की खोज नहीं है। इस सबको सोचना, देखना, जानना चाहिए तो शायद गहरी खोज पैदा हो जाए।

अभी मैं जाऊं आपके पास और एकदम से कहूं, चलो चलते हो मिला दें ईश्वर से। तो आप कहोगे, कल सुबह तो मुझे घर वापस जाना है। और टिकट तो रिजर्व करा ली है। टिकट भी रिजर्व न कराई होती तो शायद आपकी बात पर हम विचार भी करते। फिर कभी, आगे कभी, फिर कभी मिलिए, फिर देखेंगे, फिर सोचेंगे। ऐसा ही मन है। और ऐसा मन कहां जाएगा, कहां पाएगा, क्या करेगा? नहीं, ऐसे मन से कुछ भी नहीं हो सकता है। इस पूरे मन को ही फेंक देना है। एक बिलकुल नया मन चाहिए। उसकी ही हम इधर तीन दिनों में बात करते थे।

लेकिन बार-बार वही बात फिर पूछने हम चले आते हैं। तो लगता है ऐसा…एक मित्र अभी आए कि क्रोध के लिए क्या करें? मैंने उनसे कहा, सुबह मौजूद थे, कल मौजूद थे? वे मौजूद हैं। सुना होगा, समझा होगा, लेकिन फिर पूछते हैं, क्रोध के लिए क्या करें! करना चाहते हैं या नहीं करना चाहते हैं? या कि महज बहाना है कि क्या करें, क्या न करें। तो वही तो कह रहा हूं कि क्या करें। फिर बार-बार पूछते हैं, क्या करें।

शायद ऐसा लगता है कि इस भ्रम में कि हमें पता नहीं है क्या करें, इसलिए हम कुछ नहीं करते हैं–चलता चला जाता है। ठीक-ठीक पता है सब बात का। करना चाहते हैं तो अभी कर सकते हैं। क्या कठिनाई है? कब तक पूछते रहेंगे? कब तक पूछते रहेंगे कि क्या करें, क्या करें, क्या करें? नहीं, यह न पूछें। समझें और करना शुरू कर दें। कुछ एक-आध कदम तो चलें।

एक रात एक गांव के पास एक युवक अपनी लालटेन लिए हुए बैठा था। कोई चार बजे होंगे रात के। पास ही दस मील दूर एक पहाड़ी थी, उसे देखने जा रहा था। लेकिन सुबह चलेगा तो धूप हो जाएगी, कठिनाई होगी। इसलिए तीन बजे रात उठकर चला था। फिर लालटेन लेकर गांव के बाहर पहुंचा तो अमावस की रात, घना अंधकार…तो वह लालटेन रखकर बैठ गया। उसने सोचा कि लालटेन है छोटी सी, फीट-दो फीट तक रोशनी जाती है, दस मील का रास्ता कैसे पार होगा? दस मील तक प्रकाश होता तो चले भी जाते। कुछ दो फीट तक प्रकाश पड़ता है। और दस मील का लंबा रास्ता। हे भगवान, यह नहीं हो सकता। उसने दस मील में दो फीट का भाग दिया होगा, तो समझ में आ गया कि यह तो बहुत कठिन बात है। गणित उसे मालूम था। दो फीट की रोशनी है, दस मील का रास्ता है–अंधेरे से भरा हुआ–काम होगा कैसे?

वह वहां बैठ गया, सूरज निकल आए तो जाऊं। ऐसे तो काम नहीं चल सकता। पीछे से एक बूढ़ा आदमी भी उसी पहाड़ की तरफ जाता था। उसने पूछा कि बेटे, तुम बैठे क्यों हो? उसने कहा कि मैं इसलिए बैठा हूं कि सूरज निकल आए तो जाऊं। क्योंकि रास्ता है दस मील लंबा और मेरे पास छोटी सी लालटेन है और दो फीट रोशनी पड़ती है। कैसे होगा यह? यह पार कैसे पड़ेगी बात?

उस बूढ़े ने कहा, बड़ा पागल है तू। दो फीट रोशनी बहुत है। एक दफे में एक आदमी एक कदम से ज्यादा चलता ही नहीं। एक कदम चल, तब तक रोशनी दो फीट आगे हो जाएगी। फिर एक कदम चल, तब तक रोशनी फिर दो फीट आगे हो जाएगी। तुझे हमेशा दो फीट आगे रोशनी उपलब्ध रहेगी, तू चल तो। दस मील क्या, दस हजार मील छोटी लालटेन से पार हो सकते हैं। लेकिन तू भी अजीब गणित लगाने बैठा है कि दो फीट रोशनी जाती है तो दस मील के लिए कितनी रोशनी चाहिए! इतनी बड़ी लालटेन नहीं बन सकती, बहुत मुश्किल है, फिर तू कभी नहीं जा सकेगा।

तो मैं निवेदन करूंगा, छोटी सी रोशनी जो भी दिखाई पड़ती हो, उसमें चलना शुरू कर दें। रोशनी काफी है, थोड़ी से थोड़ी भी काफी है, क्योंकि एक कदम से ज्यादा कभी कोई चल सकता है? एक कदम चलिएगा, रोशनी और एक कदम आगे हो जाएगी। लेकिन चलना हमें नहीं है। हम हिसाब लगाने में बहुत कुशल हैं, हम बैठकर हिसाब लगाते हैं।

मैंने आपको कहा, निरीक्षण करिए क्रोध का। आप फिर पूछते हैं, क्रोध के लिए क्या करें? निरीक्षण करिए। नहीं आज एकदम से हो सकेगा निरीक्षण। दो फीट ही सही, दस मील न सही, थोड़ा सा ही सही, लेकिन करें तो। कुछ चीजें हैं, जो केवल करके ही जानी जा सकती हैं, जिन्हें जानने का और कोई उपाय नहीं है।

एक आदमी तैरना सीखना चाहता हो, वह कहे कि पहले हमें तैरना सिखा दें, फिर हम पानी में उतरेंगे। तो बड़ी मुश्किल है। क्योंकि वह कहेगा कि जब तक मैं तैरना न सीखूं, तब तक पानी में उतरूं कैसे? और जब तक कोई पानी में न उतरे तब तक तैरना सीखे कैसे? फिर बात खतम हो गई, वह किनारे पर रह जाएगा वह आदमी, क्योंकि उसने एक शर्त लगाई है कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं, तब तक मैं पानी में नहीं उतर सकता! और पानी में उतरना जरूरी है तैरना सीखने के लिए भी।

तो आप पूछते हैं कि क्या करें? पूरी, हमें सारी साधना स्पष्ट हो जानी चाहिए। वह स्पष्ट होगी आपके चलने से। एक कदम भर स्पष्ट हो जाए तो काफी है। फिर आप चलिए। फिर आप उतरिए पानी में। तो फिर आप सीखेंगे चलने से, गति करने से। नहीं तो जीवनभर कभी नहीं सीखेंगे।

इधर तीन दिनों में जो थोड़ी सी बातें हुई हैं, इसमें से कुछ भी–एक कणभर आपको दिखाई पड़ता हो कि करने जैसा है तो करिए। और उस कणभर को करने में आप पाएंगे कि और आगे का रास्ता आलोकित हो गया। उतना और चलिए और आप पाएंगे और बड़ा रास्ता आलोकित हो गया। जितना चलिए, उतना ही रास्ता प्रकाशित होता चला जाएगा।

लेकिन आप शुरू से लेकर आखिरी तक पूरी पंचवर्षीय योजना अभी जान लेना चाहते हों तो उसके लिए गवर्मेंट आफ इंडिया से संबंध स्थापित करना चाहिए। वहां इस तरह की बड़ी कारीगरियां निरंतर चलती रहती हैं! वे बड़ी लंबी योजनाएं बनाते हैं। एक कदम चलने का जिन्हें तमीज नहीं, वे सारे लोग हजारों कदमों की योजनाएं बनाते हैं। तो वे हजारों कदम तो कभी उठते नहीं, वह एक कदम भी जो उठ सकता था, वह भी नहीं उठ पाता है। एक कदम काफी है।

गांधी जी एक भजन गाया करते थे–वन स्टेप इज़ इनफ फार मी–उसमें एक पंक्ति है, एक कदम काफी है। सच है यह बात। एक कदम काफी है। लेकिन एक कदम जो नहीं चलता और हजारों कदमों का विचार करता रहता है, वह खो देता है, जीवन से वंचित रह जाता है।

एक और मित्र ने पूछा है कि मैं ईश्वर के दर्शन कैसे कर सकता हूं?

तो मैं आपसे निवेदन करूंगा, “आप’, अर्थात “मैं’, यह कभी भी ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता है। “मैं’ की कोई भाषा ईश्वर तक ले जाने वाली नहीं है। जिस दिन “मैं’ न रह जाएगा, उस दिन तो कुछ हो सकता है। लेकिन जब तक “मैं’ हूं, कि मुझे करना है ईश्वर के दर्शन–तो यह “मैं’ ही तो बाधा है।

विक्टोरिया, महारानी विक्टोरिया अपने पति से एक दिन लड़ पड़ी थी। उसका पति अल्बर्ट कुछ भी नहीं बोला, चुपचाप जाकर अपने कमरे में बंद होकर द्वार उसने लगा लिया। विक्टोरिया क्रोध में थी, वह भागी हुई पीछे गई। उसने जाकर द्वार पर जोर से धक्के मारे और कहा, दरवाजा खोलो। अल्बर्ट ने पीछे से पूछा, कौन है? उसने कहा, क्वीन आफ इंग्लैंड, मैं हूं इंग्लैंड की महारानी। फिर पीछे से दरवाजा नहीं खुला। फिर वह दरवाजा ठोंकती रही, फिर पीछे से कोई उत्तर भी नहीं आया, कोई आवाज भी नहीं।

घड़ी भर बीत जाने के बाद उसने धीरे से कहा, अल्बर्ट, दरवाजा खोलो, मैं हूं तुम्हारी पत्नी। वह दरवाजा खुल गया। अल्बर्ट, मुस्कुराता हुआ सामने खड़ा था।

परमात्मा के द्वार पर हम जाते हैं–“मैं हूं इंग्लैंड की महारानी’, दरवाजा खोलो। वह दरवाजा नहीं खुलने वाला है। यह “मैं’ जो है, इगो, इसके लिए कोई दरवाजा नहीं खुलता। दरवाजा खुलने के लिए ह्यूमिलिटि चाहिए, विनम्रता चाहिए। और विनम्रता वहीं होती है, जहां “मैं’ नहीं होता है। और कोई विनम्रता नहीं होती।

अहंकार को लेकर कोई कभी ईश्वर तक नहीं पहुंचा है, न पहुंच सकता है। खो देना पड़ेगा स्वयं को तो। छोड़ देना पड़ेगा स्वयं के इस भाव को कि मैं हूं। इसे हम बड़े जोर से पकड़े हुए हैं कि “मैं हूं’। एक सख्त दीवाल बन गई हमारे चारों तरफ, जिसमें कोई किरणें प्रकाश नहीं करतीं, नहीं प्रवेश कर पाती हैं। छोड़ देना होगा इस “मैं’ को। तो मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं–यह भाषा ही गलत है।

और दूसरी बात। ईश्वर के दर्शन की बात भी गलत है। ईश्वर का दर्शन कोई आदमी का दर्शन थोड़े ही है कि आप गए और सामने खड़े हो गए और आपने दर्शन कर लिया! ईश्वर कोई व्यक्ति तो नहीं है। कोई रूप-रंग, कोई रेखा तो नहीं है। ईश्वर के दर्शन का मतलब: किसी व्यक्ति का कोई दर्शन थोड़े ही मिल जाने वाला है! ईश्वर के दर्शन का मतलब है: वह जो जीवंत चेतना है, सर्वव्यापी, वह जो ऊर्जा है, वह जो शक्ति है जीवन की, वह जो सृजन का मूल-स्रोत है, वह जो सब तरफ व्याप्त अस्तित्व है, वह जो एक्जिसटेंस है–वही सब, उस सबका इकट्ठापन, उसकी टोटेलिटी, उसकी होलनेस, यह अस्तित्व की समग्रता और पूर्णता ही, ईश्वर है।

तो जिस दिन मेरे अहंकार की बूंद इस विराट अस्तित्व के सागर में खोने को राजी हो जाती है, उसी दिन मैं उसे उपलब्ध हो जाता हूं, मैं उसे जान लेता हूं। बूंद खो जाए तो सागर के साथ एक हो जाती है। लेकिन बूंद कहे कि मैं सागर को जानना चाहती हूं, फिर बहुत कठिनाई है। बूंद कहे कि मैं मिटने को राजी हूं, तो जिस जगह वह मिट जाएगी, उसी जगह वह सागर को उपलब्ध हो जाती है–वहीं मिल जाएगी सागर से। अहंकार की बूंद लिए रास्ता तय नहीं हो सकता है।

इसलिए यह मत पूछें कि मैं ईश्वर के दर्शन को उपलब्ध हो सकता हूं? नहीं, न तो “मैं’ ईश्वर के दर्शन को उपलब्ध हो सकता है, और न ईश्वर का दर्शन किसी व्यक्ति का दर्शन है।

एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान में बैठता हूं, तो बस अंधकार ही अंधकार दिखाई पड़ता है। कोई प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता।

प्रकाश दिखाई पड़ने की जरूरत क्या है? अंधकार दिखाई पड़ता है, यही एक बीमारी है। धीरे-धीरे यह भी दिखाई नहीं पड़ेगा। जब कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा–कुछ भी; जब कुछ भी अनुभव में नहीं उतरेगा–कुछ भी; रह जाएंगे केवल जागरूक; रह जाएगा केवल ज्ञान, बोध मात्र; रह जाएगी केवल कांशसनेस और सामने कोई भी आब्जेक्ट नहीं, कोई भी विषय नहीं, कोई भी अनुभव नहीं, उसी क्षण जो जान लिया जाता है, वह समग्रता का अनुभव है। उसे हम प्रेम की भाषा में परमात्मा कहते हैं।

परमात्मा शब्द सिर्फ हमारी प्रेम की भाषा है। अन्यथा सत्य ही कहना उचित है। उस दिन हम जान पाते हैं, सत्य क्या है। लेकिन सत्य को जब हम प्रेम की तरफ से देखते हैं, जब हम सत्य को प्रेम से देखते हैं तब सत्य बड़ा दूर मालूम पड़ता है, बड़ा गणित का सिद्धांत मालूम पड़ता है, मैथमेटिकल मालूम पड़ता है। उससे कोई संबंध पैदा होता नहीं मालूम पड़ता, तब हम कहते हैं, परमात्मा। और तब एक संबंध बनता हुआ मालूम पड़ता है। एक प्रेम का नाता और एक सेतु बनता हुआ मालूम पड़ता है।

एक मित्र ने पूछा है कि मैं आखिरी में कहता हूं कि आप सबके भीतर परमात्मा के लिए प्रणाम करता हूं। या कभी कहता हूं कि परमात्मा करे…तो मेरा मतलब क्या है?

मेरा मतलब किसी ऐसे परमात्मा से नहीं, जो ऊपर बैठा है और सब चला रहा है। मेरा मतलब सबके भीतर बैठी हुई, सोई हुई चेतना से है। उस चेतना को ही बुलाता हूं। कोई दूर किसी परमात्मा को नहीं। वह जो आपके भीतर है और कण-कण में, पत्ते में, पत्थर में, सब में है।

और हमारे शब्द और हमारी भाषा सब असमर्थ है ऐसे तो उसके बाबत कुछ कहने में। लेकिन फिर कुछ इशारे अत्यंत जरूरी हैं। तो कोई नाम हम दे दें, परमात्मा कहें, सत्य कहें या कुछ भी कहें, कुछ भी कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मोक्ष कहें, निर्वाण कहें, ब्रह्म कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे सब शब्द एक से असमर्थ हैं, उसे सूचित करने में। लेकिन शब्द के बिना कोई सूचना भी कठिन है।

तो इसीलिए निःशब्द में जाने का हम प्रयोग करते हैं, शब्द को छोड़ने का, ताकि वहां शायद उसका स्पर्श, उसका संस्पर्श हो सके।

एक अंतिम बात फिर हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।

अंतिम बात यह मुझे कहनी है, वह भी एक मित्र ने पूछा है कि हम कैसे हो जाएं कि वह प्रगट हो सके?

एक छोटी सी कहानी अंत में कह देनी है। उसके साथ ही बात पूरी हो जाएगी।

एक पंडित था। बहुत शास्त्र उसने पढ़े थे। बहुत शास्त्रों का ज्ञाता था। उसने एक तोता भी पाल रखा था। पंडित शास्त्र पढ़ता था, तोता भी दिन-रात सुनते-सुनते काफी शास्त्र सीख गया था। क्योंकि शास्त्र सीखने में तोते जैसी बुद्धि आदमी में हो, तभी आदमी भी सीख पाता है। सो तोता खुद ही था। पंडित के घर और पंडित भी इकट्ठे होते थे। शास्त्रों की चर्चा चलती थी। तोता भी काफी निष्णात हो गया। तोतों में भी खबर हो गई थी कि वह तोता पंडित हो गया है।

फिर गांव में एक बहुत बड़े साधु का, एक महात्मा का आना हुआ। नदी के बाहर वह साधु आकर ठहरा था। पंडित के घर में भी चर्चा आई। वे सब मित्र, उनके सत्संग करने वाले सारे लोग, उस साधु के पास जाने को तैयार हुए कुछ जिज्ञासा करने। जब वे घर से निकलने लगे तो उस तोते ने कहा, मेरी भी एक प्रार्थना है, महात्मा से पूछना, मेरी आत्मा भी मुक्त होना चाहती है, मैं क्या करूं? मैं कैसा हो जाऊं कि मेरी आत्मा मुक्त हो जाए?

सो उन पंडितों ने कहा, उन मित्रों ने कहा कि ठीक है, हम जरूर तुम्हारी जिज्ञासा भी पूछ लेंगे। वे नदी पर पहुंचे, तब वह महात्मा नग्न नदी पर स्नान करता था। वह स्नान करता जा रहा था। घाट पर ही वे खड़े हो गए और उन्होंने कहा, हमारे पास एक तोता है, वह बड़ा पंडित हो गया है।

उस महात्मा ने कहा, इसमें कोई भी आश्चर्य नहीं है। सब तोते पंडित हो सकते हैं, क्योंकि सभी पंडित तोते होते हैं। हो गया होगा। फिर क्या?

उन मित्रों ने कहा, उसने एक जिज्ञासा की है कि मैं कैसा हो जाऊं, मैं क्या करूं कि मेरी आत्मा मुक्त हो सके?

यह पूछना ही था कि वह महात्मा जो नहा रहा था, उसकी आंख बंद हो गईं, जैसे वह बेहोश हो गया हो, उसके हाथ-पैर शिथिल हो गए। धार थी तेज, नदी उसे बहा ले गई। वे तो खड़े रह गए चकित। उत्तर तो दे ही नहीं पाया वह, और यह क्या हुआ! उसे चक्कर आ गया, गश्त आ गया, मूर्च्छा हो गई, क्या हो गया? नदी की तेज धार थी–कहां नदी उसे ले गई, कुछ पता नहीं।

वे बड़े दुखी घर वापस लौटे। कई दफा मन में भी हुआ इस तोते ने भी खूब प्रश्न पुछवाया। कोई अपशगुन तो नहीं हो गया। घर से चलते वक्त मुहूर्त ठीक था या नहीं? यह प्रश्न कैसा था, प्रश्न कुछ गड़बड़ तो नहीं था? हो क्या गया महात्मा को?

वे सब दुखी घर लौटे। तोते ने उनसे आते ही पूछा, मेरी बात पूछी थी? उन्होंने कहा, पूछा था। और बड़ा अजीब हुआ। उत्तर देने के पहले ही महात्मा का तो देहांत हो गया। वे तो एकदम बेहोश हुए, मृत हो गए, नदी उन्हें बहा ले गई। उत्तर नहीं दे पाए वह।

इतना कहना था कि देखा कि तोते की आंख बंद हो गईं, वह फड़फड़ाया और पिंजड़े में गिरकर मर गया। तब तो निश्चित हो गया, इस प्रश्न में ही कोई खराबी है। दो हत्याएं हो गईं व्यर्थ ही। तोता मर गया था, द्वार खोलना पड़ा तोते के पिंजड़े का।

द्वार खुलते ही वे और हैरान हो गए। तोता उड़ा और जाकर सामने के वृक्ष पर बैठ गया। और तोता वहां बैठकर हंसा और उसने कहा कि उत्तर तो उन्होंने दिया, लेकिन तुम समझ नहीं सके। उन्होंने कहा, ऐसे हो जाओ, मृतवत, जैसे हो ही नहीं। मैं समझ गया उनकी बात। और मैं मुक्त भी हो गया–तुम्हारे पिंजड़े के बाहर हो गया। अब तुम भी ऐसा ही करो, तो तुम्हारी आत्मा भी मुक्त हो सकती है।

तो अंत में मैं यही कहना चाहूंगा: ऐसे जीएं जैसे हैं ही नहीं। हवाओं की तरह, पत्तों की तरह, पानी की तरह, बादलों की तरह। जैसे हमारा कोई होना नहीं है। जैसे मैं नहीं हूं। जितनी गहराई में ऐसा जीवन प्रगट होगा, उतनी ही गहराई में मुक्ति निकट आ जाती है।

इन तीन दिनों में इस तरह ही जी सकें। उसी के लिए मैंने सारी बातें कहीं हैं। इस तरह जीएं, जैसे नहीं हैं। बस, साधना का इससे ज्यादा गहरा कोई और सूत्र नहीं है।

अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे और फिर विदा होंगे। यह अंतिम रात्रि है, इसलिए बहुत शांति से ध्यान में जाने का प्रयोग करें। इसलिए बहुत शांति से ध्यान में जाने का प्रयोग करें।

सब लोग थोड़े दूर चले जाएं।…अपनी-अपनी जगह रुक जाएं, जो जहां हैं। कोई किसी तरह की बातचीत नहीं करेगा। जो लोग खड़े हैं या बैठे हैं, वे सबका ध्यान रखेंगे–थोड़ी भी गड़बड़ न हो।

शांति से लेट जाएं।…सारे शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। वैसे ही जैसा अभी मैंने कहा, जैसे आप हों ही नहीं। बिलकुल ढीला छोड़ दें। जैसे कोई जीवन भी नहीं है। बिलकुल शिथिल छोड़ दें।…

शरीर शिथिल हो रहा है, छोड़ दें। आंख आहिस्ता से बंद कर लें।…शरीर शिथिल हो रहा है, अनुभव करें। शरीर शिथिल हो रहा है…शरीर शिथिल हो रहा है…शरीर शिथिल हो रहा है…शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है। छोड़ दें। शरीर शिथिल हो गया है।

श्वास शांत हो रही है…श्वास शांत हो रही है…श्वास शांत हो रही है। श्वास भी बिलकुल ढीली छोड़ दें।…अब बिलकुल शांत और मौन चारों तरफ जो भी आवाजें सुनाई पड़ रही हैं, उन्हें सुनें। रात्रि की आवाजें आ रही हैं, जंगल का सन्नाटा बोल रहा है, उसे मौन, जागे हुए सुनते रहें।…सुनें।…शांति से सुनें। भीतर जागे रहें और सुनते रहें।…सुनते-सुनते ही मन शांत होता जाएगा।…सुनते-सुनते मन एकदम नीरव, एकदम शांत हो जाएगा।…सुनें।

…सुनें, रात्रि के सन्नाटे को सुनें। सुनते-सुनते ही मन शांत और मौन होता जाएगा।

मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है।

मन शांत होता जा रहा है…मन शांत हो रहा है।

मन शांत हो गया है…मन शांत हो गया है…मन बिलकुल शांत हो गया है।

मन शांत हो गया है…मन एकदम शांत हो गया है। मन शांत हो गया है। मन शांत हो गया है।

मन बिलकुल शांत और शून्य हो गया है। शून्य, बिलकुल शून्य हो गया है।

अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें।…धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें। फिर बहुत आहिस्ता से आंख खोलें। जैसी शांति भीतर है, वैसी ही बाहर भी है।…धीरे-धीरे आंख खोलें और बाहर देखें।…फिर धीरे-धीरे उठ आएं।…शांति से मौन चुपचाप उठकर बैठते जाएं।…धीरे, आहिस्ता अपनी-अपनी जगह चुपचाप बैठ जाएं।

दुख पहुंचाने वाली बात आपको मैंने कही हो, किसी को भी–स्वप्न में भी दुख पहुंचाने का मेरा मन नहीं है। लेकिन मजबूरी है? कुछ बातें दुख पहुंचाने वाली हो सकती हैं।

अंत में, किसी को दुख पहुंच गया हो, उससे मैं क्षमा मांगता हूं–सभी से। और विदाई के इन क्षणों में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

समाप्‍त

आज इतना ही।

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक २१-१०-६७, रात्रि

असंभव क्रांति-(प्रवचन-09)

प्रवचन-नौवां-(काम का रूपांतरण)

असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 20-10-67 दोपहर

(अति-प्राचीन प्रवचन)

सुबह मैंने उर्वशी की कथा कही। उससे दोपहर उन्हें अत्यंत कामोत्तेजक स्वप्न आया। तो उन्होंने चाहा है कि मैं ऐसी बातें न कहूं जिनसे कामवासना भड़क उठे। मैं तो सिर्फ सत्य जानने का रास्ता बताऊं।

मेरी कथा से उनकी कामवासना जाग्रत हुई है, या कि कामवासना उनमें दबी हुई पड़ी थी, मेरी कथा उसे बाहर निकाल लाई है।

एक कुएं में हम बाल्टी डालते हैं, बाल्टी में पानी भरकर बाहर आ जाता है, क्योंकि कुएं में पानी है। अगर कुआं खाली हो तो बाल्टी हम कितनी ही डालें, और कितनी ही बड़ी, और कितनी ही अच्छी, कुएं से पानी नहीं आ सकेगा। बाल्टी पानी केवल बाहर लाती है, होता कुएं में पानी है। लेकिन अगर हम बाल्टी को दोष दें कि इसकी वजह से ही यह पानी आ गया तो गलती हो जाएगी। बाल्टी केवल खबर ले आती है कि भीतर पानी है। और हम न भी बाल्टी डालें तो पानी विलीन नहीं हो जाता, वह मौजूद है।

उर्वशी की कहानी से अगर मन में वासना उठी, स्वप्न आया तो उसका अर्थ है, दबी हुई वासना मन में है। वह न हो तो उर्वशी की कथा तो दूर, उर्वशी भी खुद आ जाए तो उसे नहीं उठा सकेगी। और अगर उर्वशी की कथा से इतना डर है तो फिर उर्वशी के आने पर क्या होगा? और उर्वशी की कोई कमी तो नहीं है। सब तरफ उर्वशी मौजूद है। फिर क्या करेंगे? ऐसा भयभीत होकर कहां जीएंगे, कैसे जीएंगे?

यह तो अच्छा हुआ कि मैंने कथा कही और आपको स्वप्न आया, यह और भी अच्छा हुआ। इसे थोड़ा निरीक्षण करें, इसे थोड़ा आब्जर्व करें, इस स्वप्न की घटना का थोड़ा विश्लेषण करें, थोड़ी एनालिसिस करें तो शायद बड़ा कीमत का हो सकेगा यह स्वप्न। नहीं कहता कथा तो यह स्वप्न न आता और आप विश्लेषण से भी बच जाते।

यह स्वप्न किस बात की सूचना है? यह उसी बात की सूचना है जो मैं निरंतर कह रहा हूं। यह इस बात की सूचना है कि सप्रेस्ड माइंड, दमित मन एक ज्वालामुखी है, जिसके ऊपर हम बैठे हैं और नीचे आग उबल रही है। जरा सा बहाना और आग ऊपर आ जाएगी।

स्वप्न में वही हमारे चित्त में ऊपर आ जाता है, जो जाग्रत में हम दबाए रहते हैं। स्वप्न में वही हमारे चित्त में चित्र बन जाता है, जिसे हमने जाग्रत में हमने भीतर दबाया। तो स्वप्न बड़े मित्र हैं। वे यह खबर देते हैं आपको कि आप अपने जाग्रत जीवन में कितना दमन कर रहे हैं, किस भांति का दमन कर रहे हैं, और किस चीज का दमन कर रहे हैं। जिस चीज का दमन होगा, वही चीज स्वप्नों में रूप ले लेती है।

स्वप्नों का अध्ययन, अपने स्वप्नों का अध्ययन और विश्लेषण साधक के लिए बहुमूल्य है। क्योंकि उसके स्वप्न खबर देते हैं कि उसका जीवन किन-किन चीजों का दमन कर रहा है। और दमन से मुक्त होना है। जिस दिन दमन से मुक्त हो जाएंगे, उसी दिन स्वप्न से भी मुक्त हो जाएंगे। जिस दिन चित्त में कोई दमन नहीं होगा, उस दिन चित्त में कोई स्वप्न नहीं होगा।

स्वप्न और ड्रीम्स बाई-प्रोडक्ट हैं सप्रेशन की, दमन की। तो जो आदमी जिस चीज का दमन करेगा उसी का स्वप्न देखना शुरू कर देगा। अगर सेक्स का दमन किया है तो सेक्स के स्वप्न होंगे। अगर दिन में उपवास किया है और भूख का दमन किया है, रात में भोजन करने के स्वप्न होंगे। जिस बात का दमन किया है, वही स्वप्न में मौजूद हो जाएगी। स्वप्न दमन की छाया है।

इसलिए स्वप्न को बहुत गौर से देखते रहें कि स्वप्न क्या है? वह आपके चित्त के संबंध में खबर दे रहा है। जो आदमी अपने स्वप्नों को ठीक से समझे वह खुद को ठीक से समझने में समर्थ हो जाता है।

स्वप्न बहुत सूचक हैं। और स्वप्नों को समझना, पूरे गौर से उसकी खोज करनी, अत्यंत महत्वपूर्ण है। जो हमारे भीतर दबा है वह बाहर निकलने की कोशिश करता है। जब हम जागे होते हैं, तब हम उसे दबाए रखते हैं। जब हम सो जाते हैं, दबाने वाला पहरेदार सो गया, अब वह जो भीतर से दिनभर कोशिश कर रहा था बाहर आने की, वह बाहर आएगा।

इस बाहर आने के उसने और भी बहुत से रास्ते खोज लिए हैं। रास्तों पर, सड़कों पर फिल्मों के नग्न और अश्लील पोस्टर लगे हैं, अश्लील और नग्न चित्र हैं, किताबें हैं, फिल्में हैं, ये क्यों हैं? हमने इन-इन चीजों का चित्त में दमन किया है, इन-इन चीजों को लगाकर हमारे मन को आकर्षित किया जा सकता है। ये-ये चीजें हमारे मन में जो दबा है, छिपा है उसे आकर्षित करती हैं, रस पैदा होता है, उस रस का शोषण किया जा सकता है। सारी दुनिया में दमित आदमी का शोषण हो रहा है।

एक गंदी और अश्लील फिल्म बनती है तो आप दोष देते होंगे फिल्म बनाने वालों को। दोषी है हमारा मन, जो गंदी और अश्लील फिल्म देखने की पूरी चेष्टा कर रहा है। सड़क पर देखने की हम में हिम्मत नहीं है, वही बात तो हम जाकर एक सिनेमागृह में चुपचाप बैठकर देख लेते हैं। एकांत में एक किताब में गंदे चित्र देख लेते हैं। अश्लील पोस्टर देख लेते हैं।

हम देखना चाहते हैं, क्योंकि हमने इस चाह को दबाया है, छिपाया है।

और सारे जगत में जितना दमन सेक्स के संबंध में हुआ और किसी चीज के संबंध में नहीं हुआ है। इसलिए सेक्स आदमी की बहुत बुनियादी समस्या है। ईश्वर से भी ज्यादा महत्वपूर्ण समस्या सेक्स है। क्योंकि आदमी के लिए ईश्वर तो एक शब्द है कोरा, सेक्स और वासना एक वास्तविकता, एक रिअलिटी है, जिसके आसपास उसका जीवन घूम रहा है। और अगर हम उसको दबाते चले जाते हैं, जैसी हमारी शिक्षाएं सिखाती हैं दबाओ, दबाओ, दबाओ; धीरे-धीरे हम इतने भाव दबा लेते हैं भीतर कि हमारा सारा जीवन उन्हें दबाने में और व्यवस्थित करने में व्यतीत हो जाता है। फिर स्वप्न आएंगे, कमजोर क्षणों में अभिव्यक्ति होगी उनकी तो हम और घबड़ाएंगे। फिर आदमी सोचता है कि कुछ ऐसा उपाय करें कि सोऊं ही न, नींद ही कम लूं, क्योंकि नींद लूंगा तो सपने आएंगे।

सारी दुनिया में तथाकथित साधक कम सोने की कोशिश करते हैं, उसका कोई और कारण नहीं है, स्वप्न का डर है। नींद आई कि स्वप्न आए। और स्वप्न वही आए जिनसे दिनभर लड़ाई की है। तो भय होता है मन में, घबड़ाहट होती है कि वे न आएं तो नींद ही कम लो।

यह कोई उपाय हुआ? उपाय तो यह होना था कि स्वप्न आते हैं सूचना की तरह, उस सूचना को हम समझें और उस सूचना का कुछ हल करें, कोई समाधान खोजें। समाधान खोजने का तो उपाय नहीं करते, समस्या को दबाने का उपाय करते हैं।

समाधान क्या है? समाधान यह है चित्त का दमन न करें। कोई भी चीज चित्त में दबाई न जाए, जबर्दस्ती न की जाए। निरीक्षण किया जाए। जो मैंने सुबह आपसे कहा, चित्त की सभी वृत्तियों का निरीक्षण करें, खोजें। खोजने पर आप पाएंगे कि भय निर्मूल सिद्ध होता है। कोई भय नहीं है। खोजें, जो भी वृत्ति मन में है खोजें। और वृत्तियों के प्रति दुर्भाव न लें।

सेक्स के प्रति हमने बहुत दुर्भाव इकट्ठा कर लिया है। यह सबसे ज्यादा खतरनाक बात जो मनुष्य की संस्कृति में हो गई है, वह है सेक्स के प्रति दुर्भाव, शत्रुता का भाव। और आप कल्पना नहीं कर सकते कि इस एक केंद्रीय बात ने सारे जीवन को विषाक्त किया हुआ है, जहर से भर दिया है।

सेक्स में क्या बुरा है। सेक्स तो जीवन का जन्म है। सेक्स तो सृजन है, क्रिएटिविटी का उसूल, नियम है। उसी काम से तो सारा जीवन विकसित होता है। पशु, पक्षी, पौधे, मनुष्य जीवन का जो केंद्रीय तत्व है, जिससे सारे जीवन की ऊर्जा जन्मती है और विकसित होती है, उसके आप शत्रु बनकर रह सकेंगे! और उसके शत्रु बनने में सिर्फ अपने को तोड़ सकते हैं और कुछ भी नहीं।

परमात्मा अगर जीवन में कहीं भी काम कर रहा है तो सबसे ज्यादा सेक्स में। परमात्मा का सृजन अगर कहीं भी सर्वाधिक सक्रिय है तो मनुष्य के सेक्स में, प्रकृति के सेक्स में। वही तो सूत्र है जिससे जीवन बनता और विकसित होता है। तो जीवन के इस उदगम के प्रति अगर हमारे मन में दुर्भाव है तो हमारे मन में जीवन के प्रति ही दुर्भाव है। और जब यह दुर्भाव होगा तो इसके दुष्परिणाम होने शुरू होंगे।

पहली बात तो तथ्यों को देखना और स्वीकार करना चाहिए। सेक्स की निंदा करने वाली परंपराएं मनुष्य की शत्रु हैं। सेक्स के प्रति भी सम्मान और रिवरेंस का भाव होना चाहिए। सेक्स के प्रति तो इसलिए सम्मान का भाव होना ही चाहिए कि वह जीवन का केंद्र है; जीवन का उत्स, जीवन का स्रोत। हम मां-बाप के प्रति तो सम्मान का भाव रखते हैं, वह सम्मान का भाव तब तक झूठा रहेगा जब तक सेक्स के प्रति भी हमारे मन में सम्मान का भाव न हो। मां-बाप के प्रति और सम्मान का क्या कारण है? वे जन्म देने वाले सूत्र हैं, यही न। तो जन्म देने वाले सूत्र वे क्यों हैं और कैसे हैं, किस कारण हैं?

हमारा सब मां-बाप के प्रति आदर का भाव झूठा है और झूठा रहेगा। झूठा रहेगा इसलिए कि सेक्स के प्रति तो हमारा दुर्भाव है; ये दोनों बातें कंट्राडिक्ट्री हैं, ये दोनों बातें विरोधी हैं। मां-बाप के प्रति सच्चा आदर और प्रेम तभी हो सकता है जब सेक्स के प्रति भी आदर हो, निंदा और शत्रुता नहीं। पत्नी पति को आदर कैसे दे सकती है जब सेक्स के प्रति निंदा का भाव है। हम कहते हैं पति को परमात्मा समझो। समझे कैसे इस पति को परमात्मा। पति पत्नी को कैसे आदर दे सकता है? जानता है भलीभांति यही नरक का द्वार है। यही उसे सेक्स के जीवन में ले जाने वाली है। यही उपकरण है पाप का। तो इस पाप के उपकरण को कैसे आदर दे? पत्नी पति को कैसे आदर दे, बच्चे मां-बाप को कैसे आदर दें, मां-बाप बच्चों को कैसे आदर दें, यह सेक्स की बाई-प्रोडक्ट हैं। यह तो उसकी ही उत्पत्ति हैं। ये उसी से तो आते हैं, इनके प्रति आदर कैसे हो सकता है?

जीवन हमारा अनादर से भर गया है। जीवन हमारा घृणा, क्रोध से भर गया है, क्योंकि सेक्स के प्रति हमारी कोई रिवरेंस की धारणा नहीं है, आदर का भाव नहीं है। और जब तक यह आदर का भाव पैदा नहीं होगा, मनुष्य के जीवन में शांति बहुत कठिन है, बहुत असंभव है।

क्यों न हम आदर के भाव से भरें। क्यों शत्रुता का भाव लें। जीवन का जो सीधा तथ्य है और सबसे महत्वपूर्ण और सबसे केंद्रीय। अगर अभी यहां मंगल ग्रह से कोई यात्री उतर आए तो सबसे पहली चीज आप क्या देखेंगे, कि वह स्त्री है या पुरुष। अभी एक यात्री मंगल ग्रह से यहां उतर आए, गिर पड़े तो हम सबसे पहली चीज कौन सी नोटिस करेंगे। पहली चीज कौन सी हमारे खयाल में आएगी–स्त्री है या पुरुष। क्यों, यही तथ्य सबसे पहले खयाल में आने का कोई कारण? यही बात सबसे पहले सोचे जाने का कोई कारण? जरूर कारण है।

मनुष्य के सारे व्यक्तित्व का जो विकास है, वह सेक्स के केंद्र पर है। केंद्र तो सेक्स है। इस केंद्र को झुठलाने से काम नहीं चलेगा। और इस केंद्र को जितना हम झुठलाएंगे उतना यह तीव्रता से अपने को प्रगट करने की कोशिश करेगा। फिर दमन शुरू होगा, फिर हम पीड़ा में पड़ेंगे।

जीवन के तथ्यों की स्वीकृति की क्षमता और पात्रता हम में होनी चाहिए।

मेरी दृष्टि में सेक्स, काम केंद्र है जीवन का, सृजन का। हमारे मन में बहुत आदर भाव जरूरी है। और जितना आदर भाव होगा, उतना ही आप पाएंगे कि आप सेक्सुअलिटी से मुक्त होते चले जाते हैं। जितना आदर का भाव होगा, उतना ही आप पाएंगे कामुकता आपके चित्त से विलीन होती चली जाती है। जितना घृणा का भाव होगा, उतना दमन होगा। दमन से कामुकता पैदा होती है, घेरती है, चक्कर काटती है। जितना आदर का भाव होगा, सम्मान का भाव होगा, उतनी ही विलीन होती चली जाएगी। उतनी दूर होती चली जाएगी।

चित्त को बदलने की कीमिया, चित्त को बदलने का विज्ञान बहुत और है। जो हम समझे बैठे हुए हैं हजारों साल से वह नहीं है। और हमने सारी मनुष्य जाति को रोगाक्रांत कर दिया है। सारी मनुष्य जाति को इतने गलत रास्तों पर भेज दिया है कुछ थोड़े से लोगों ने, जिसका कोई हिसाब नहीं है। और आज चूंकि हम हजारों साल से उस घेरे में चल रहे हैं, आज हमें ऐसा लगता है कि वही रास्ता सही है जिस पर हम चलते रहे हैं। वह सही नहीं है।

बच्चों के मन में सेक्स के प्रति बचपन से ही हम घृणा पैदा करते हैं, घबड़ाहट पैदा करते हैं, डर और भय पैदा करते हैं। जैसे सेक्स जीवन का हिस्सा न हो। बच्चे को पता ही नहीं चलता। सोचना शुरू करता है, विचारना शुरू करता है तो हम सब भांति की दीवालें खड़ी करते हैं कि उसको पता न चल जाए। लेकिन जो जीवन का तथ्य है उससे हम बचा सकेंगे! वह तो पता चलेगा, आपके कोई उपाय उसे नहीं रोक सकेंगे। और जब आप रोकेंगे तो वह रुग्ण रूप से उत्सुक हो जाएगा, उसमें आप्सेशन पैदा हो जाएगा। क्योंकि उसके मन में रस पैदा होगा कि क्यों रोका जा रहा हूं मैं, क्यों इस संबंध में कुछ नहीं कहा जाता, क्यों इस संबंध को छुपाया जाता है, बात क्या है? कोई जरूर बहुत गुरु-गंभीर मामला है कोई, कोई छुपाने की बात है, कोई सीक्रेट है।

तो वह चारों तरफ से यह खोजने की कोशिश करेगा, सीक्रेट क्या है इसका। चारों तरफ वह खोज करेगा, खोज करेगा और गलत रास्तों से गलत बातें इकट्ठी करेगा। और डरेगा भी, भयभीत भी होगा, घबड़ाएगा भी कि किसी को पता न चल जाए कि मैं यह जानने लगा हूं जो कि नहीं जानना चाहिए था। और यह रुग्ण चित्त में बच्चे का चित्त बड़ा होकर बीस वर्ष तक आएगा। सेक्स के प्रति उसके मन में घाव पैदा कर दिया आपने। अब जीवनभर इस घाव के इर्द-गिर्द वह घूमेगा इससे छुटकारा नहीं पा सकता है।

अगर बच्चे को हम बचपन से ही सेक्स के सारे तथ्य स्पष्ट बताना शुरू करें, बताने चाहिए, और सेक्स के प्रति एक आदर का भाव पैदा करें, क्योंकि वही जीवन का जन्म देने वाला केंद्र और सूत्र है, तो बच्चे के मन में यह घाव कभी पैदा नहीं होगा। उसे कभी भय होने का कारण नहीं होगा। वह कभी डरेगा नहीं। वह जीवन की इस केंद्रीय शक्ति से कभी आंख नहीं छिपाएगा। उसके मन में घाव पैदा नहीं होगा, चोट पैदा नहीं होगी। उसका मन स्वस्थ रह सकेगा।

हम सबका मन अस्वस्थ हो गया है। फिर यह अस्वास्थ्य जीवनभर चक्कर काटता है क्योंकि बच्चे के मन में जो केंद्र बन जाते हैं, उनको पोंछना और मिटाना बहुत कठिन हो जाता है। एक अच्छी दुनिया तभी बनेगी जब वह सेक्स को परमात्मा की अनूठी बात स्वीकार करके आदर देना शुरू करेगी, नहीं तो अच्छी दुनिया नहीं बन सकती।

जितना-जितना आदर, जैसे कोई मंदिर में प्रवेश करता है, सेक्स की भावना में प्रवेश करना मंदिर में प्रवेश जैसा होना चाहिए। और आप शायद खयाल भी नहीं कर सकते, कल्पना भी नहीं कर सकते कि सेक्स के प्रति निंदा के कारण पति और पत्नी दो शत्रु हैं, मित्र नहीं। मित्र हो नहीं सकते, क्योंकि मित्रता का सेतु घृणा और कंडेमनेशन लिए हुए है। जिससे वे जुड़े हैं; वह चीज ही, जोड़ने वाली चीज ही गलत और बुरी भाव लिए हुए है तो वह जोड़ने वाली चीज मित्रता कैसे बन सकती है? और इस शत्रुता में से बच्चे पैदा होते हैं, वे बच्चे बहुत शुभ, बहुत सुंदर और श्रेष्ठ नहीं हो सकते। इसी तनाव, कांफलिक्ट, इस शत्रुता में से बच्चे आते हैं। इन दोनों का मन भयभीत, घबड़ाया हुआ, पाप से ग्रसित, पाप से दबा हुआ, डरा हुआ, और फिर इससे बच्चे आते हैं! इन दोनों के इस चित्त की अनिवार्य छाप उस आने वाले बच्चे में छूट जाती है।

जिस दिन पति और पत्नी एक-दूसरे से एक पवित्रतम संबंध अनुभव करेंगे, होलीएस्ट कि ये सेक्स के क्षण, ये काम के संबंध के क्षण पवित्रतम क्षण हैं, प्रार्थना के क्षण हैं। जिस दिन उनका यह मिलन एक प्रेयर, एक प्रार्थना बन जाएगा, उस दिन जो बच्चे पैदा होंगे वे बहुत दूसरा संस्कार, बहुत दूसरे बीज की तरह जगत में आएंगे। तब हम एक दूसरी प्रजा के जन्मदाता हो सकते हैं।

फिर ये बच्चे पैदाइश से ही रोग चित्त में लेकर पैदा होते हैं। और उस रोग को फिर समाज और बढ़ाता है, और बढ़ाता है। फिर उस रोग का शोषण करने वाले लोग हैं, वे शोषण करते हैं। और एक चक्कर शुरू होता है जिस पर एक छोटा सा आदमी पिस जाता है बुरी तरह से।

ये सारी गंदी फिल्में, ये सारे गंदे चित्र, यह सारा गंदा वातावरण आपकी सेक्स के संबंध में यह भ्रांत धारणा कि प्रतिक्रिया है, उसका फल है। यह उससे पैदा हुआ है। और जो कौम जितनी ज्यादा सेक्स के प्रति भयभीत और घबड़ाई हुई है, उस कौम का चित्त उतना ही ज्यादा सेक्सुअलिटी से भरा हुआ है।

लेकिन हम तथ्यों को देखना नहीं चाहते, हमने हिम्मत खो दी है। हम सोचना नहीं चाहते, हम विचार नहीं करना चाहते। हम आंख बंद करके जैसा चल रहा है चलते रहना चाहते हैं। ऐसे नहीं हो सकता है। इस संबंध में हमारी पूरी धारणा परिवर्तित होनी चाहिए।

सेक्स के संबंध में किसी तरह की निंदा का कोई कारण नहीं है। और जब निंदा करते हैं और भयभीत होते हैं, घबड़ाते हैं तब भीतर से धक्के आते हैं, चोटें आती हैं, लहरें आती हैं उनमें हम बहते हैं तो पश्चात्ताप होता है। सब मुश्किल हो जाता है। आनंद असंभव हो जाता है। नहीं बहते हैं, रुकते हैं तो पीड़ा हो जाती है। जाते हैं, बहते हैं तो पीड़ा हो जाती है। सब तरफ, दोनों तरफ कुएं-खाई खड़े हो जाते हैं। इस तरफ गिरते हैं तो तकलीफ, उस तरफ गिरते हैं तो तकलीफ।

फिर आदमी क्या करे? तो फिर आदमी आवागमन से छुटकारे का उपाय सोचने लगता है कि किसी तरह से संसार से ही छुटकारा हो जाए। यह संसार बड़ा गड़बड़ है।

यह गड़बड़ हमने किया हुआ है। यह संसार गड़बड़ नहीं है। यह संसार बहुत अदभुत रस, बहुत अदभुत आनंद को देने में समर्थ है। लेकिन हमने सब रस विकृत कर लिया, हम पागल हो गए हैं। और इस पागल के केंद्र पर, हमारे पागलपन के सारे केंद्र पर कामवासना बैठी हुई है।

जितने लोग पागल होते हैं उनके अध्ययन से जाहिर होता है कि उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग सेक्स की ही रोग के कारण पागल होते हैं। और हम भी जो डांवाडोल होते हैं जीवन में, वह भी सेक्स है। इससे हम यह नतीजे लेने लगते हैं, और नतीजे बिलकुल गलत होते हैं, हम अजीब नतीजे लेने के आदी हो गए हैं। हमें क्या नतीजा लेना चाहिए यह बड़ी मुश्किल हो गई है। देखते हैं कि सारे लोग सेक्स के कारण परेशान हैं तो हम सोचते हैं सेक्स को हटाओ, खतम करो जीवन से।

परेशान इसलिए हैं कि आप हटाने की कोशिश कर रहे हैं तीन हजार साल से, उससे परेशान हैं। और परेशानी देखकर आप यह नतीजा लेते हैं कि हटाओ इसको, बिलकुल खतम करो, इसकी परेशानी बंद होनी चाहिए। हम सिखाते हैं कि बच्चों को स्कूल में गीता पढ़ाओ, कुरान पढ़ाओ। नहीं साहब, बच्चों को स्कूल में सेक्स के बाबत सब कुछ पढ़ाओ। गीता-कुरान की कोई जरूरत नहीं है। ये बच्चे स्कूल से स्वस्थ होकर बाहर आएं। इनका मन साफ, अनसप्रेस्ड हो; ये दमन से मुक्त हों। ये स्वस्थ हो सकें, ये संतुलित हो सकें। लेकिन हम नतीजे उलटे लेते हैं।

एक गांव में, एक व्यक्ति शराबबंदी के लिए लोगों को समझा रहा था। वह समझा रहा था कि शराब बहुत बुरी चीज है। वह समझा रहा था कि शराब के कारण जीवन नष्ट हो जाता है। वह समझा रहा था और समझाने के लिए उसने एक प्रश्न पूछा, उसने कहा, तुम्हें पता है गांव में किस आदमी की स्त्री सबसे अच्छे कपड़े पहनती है? शराब घर के मािलक की। कौन सी स्त्री सबसे अच्छे जेवर पहनती है? शराब घर के मालिक की। क्योंकि तुम्हारा….और कौन उसके पैसे चुकाता है? तुम। सार धन वहां इकट्ठा होता है।

सभा विसर्जित हो गई। एक आदमी उसके पास आया, उस उपदेशक के और उसने कहा कि मैं आपसे बिलकुल सहमत हूं और मेरा मन आपने बिलकुल बिल दिया। उपदेशक बहुत प्रसन्न हुआ, उसने उसे गले लगाया और कहा कि चलो, एक आदमी भी बदले तो ठीक। क्या तुमने तय कर लिया शराब छोड़ने का। उसने कहा कि नहीं, मैंने शराबखाना खोलने का विचार पक्का कर लिया। मैं और मेरी पत्नी दोनों सहमत हो गए आपकी बात से कि बिलकुल ठीक है। शराबखाना खोलने का मैंने निश्चय कर लिया।

बड़े अजीब नतीजे हैं। हमारा मन बड़े अजीब नतीजे लेता रहता है। जिनकी कल्पना भी नहीं होती समझाने वालों को, जिनकी कल्पना भी नहीं होती शिक्षा देने वालों को, वह हम नतीजे लेते रहते हैं।

फ्रायड एक दिन अपने बच्चे और अपनी पत्नी के साथ एक बगीचे में, वियना में, घूमने गया था। सांझ जब लौटने लगा, अंधेरा हो गया, बच्चा नदारद था। उसकी पत्नी ने कहा कि बच्चा न मालूम कहां गया, अब अंधेरे में हम कहां खोजेंगे? इतना बड़ा पार्क है। फ्रायड ने कहा, तुमने कहीं उसे जाने को मना तो नहीं किया था? अगर किया हो तो सबसे पहले वहीं देख लें। अगर उसमें थोड़ी भी बुद्धि है तो वह वहां मिलेगा। उसकी पत्नी तो हैरान हुई। उसने कहा, मैंने कहा था कि फव्वारे पर, फाउंटेन पर मत जाना। फ्रायड ने कहा, फिर वहीं चलो। सौ में निन्यानबे मौके तो यह हैं कि वहां हो। और अगर वहां न हो तो हमको चिंतित होना पड़ेगा। क्योंकि लड़का फिर बुद्धिमान नहीं है।

फिर वहां गए। बच्चा पैर लटकाए वहां फव्वारे पर बैठा हुआ था। उसकी पत्नी ने, फ्रायड की पत्नी ने कहा, हैरानी की बात है, तुमने कैसे खोज निकाला कि यह बच्चा वहां होगा। उसने कहा, अब तक यही भूल दुनिया में चल रही है। हम अब तक नहीं खोज निकाल पाए कि जिस चीज का निषेध किया जाता है, इनकार किया जाता है, उसमें आकर्षण पैदा हो जाता है। इस बच्चे को कहा गया, फव्वारे पर मत जाना। सारा बगीचा व्यर्थ हो गया, फव्वारा ही सार्थक हो गया। इसके चित्त में फव्वारे ने केंद्र की जगह ले ली। अब इस बगीचे में जानने और पहचानने और जाने जैसी चीज फव्वारा हो गया। अब बाकी सब बेकार है। बाकी जहां जाया जा सकता है वहां कभी भी जाया जा सकता है। इस फव्वारे पर जाना एकदम जरूरी है। इसे चूक जाना ठीक नहीं है।

आदमी ने सेक्स के बाबत जितना निषेध और विरोध किया है, उतना ही आदमी का चित्त सेक्स के फव्वारे पर ही पैर लटकाए हुए बैठा है। सामान्य नियम है: निषेध आकर्षण पैदा करता है। निषेध विकृति पैदा करता है। स्वीकृति आकर्षण को समाप्त कर देती है। स्वीकार करने का साहस होना चाहिए। तथ्यों को वैज्ञानिक दृष्टि होनी चाहिए देखने की। और जब हम किसी तथ्य को सीधा स्वीकार करते हैं तो एक बड़ा बल, एक बड़ी ताकत पैदा होती है। और फिर एक रोग हमारे भीतर जो पैदा होता है निषेध से, वह बंद हो जाएगा।

यहां इस नगर में हम आए हुए हैं, शायद नगर के, इस गांव के लोगों को पता भी नहीं होगा। अगर आप गांव में दो-चार जगह पोस्टर लगा देते और लिख देते कि फलां-फलां जगह मीटिंग हो रही है, वहां कोई भी नहीं आ सकता है। वहां आना मना है। तो यह मैदान खाली नहीं रह सकता था। फिर इस गांव में शायद ही कोई एकाध बुद्धिमान आदमी होता जो न आ जाता। मामला क्या है? वहां जाना जरूरी हो जाता।

एक दरवाजे पर लिखकर टांग दें, भीतर झांकना मना है। फिर कोई इतना हिम्मत का आदमी वहां से नहीं निकल सकता, जो बिना झांके निकल जाए। और अगर निकल जाए तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। फिर चौबीस घंटे चित्त इसका यही होगा कि उस द्वार पर कैसे चलें, कैसे झांके। फिर रात सपने देखेगा कि द्वार खोल लिया, झांक आए। फिर सपनों के लिए कहेगा कि गड़बड़ हो गयी, मुश्किल में पड़ गया हूं मैं। लेकिन चित्त को निषेध करना, चित्त को आमंत्रित करना है।

ये बातें उलटी दिखाई पड़ती हैं, लेकिन सीधी और साफ हैं। हमने जिन चीजों का निषेध किया, हमने उनमें आकर्षण पैदा कर दिया है। जिन चीजों को हमने छिपाया, उन्हें हमने उघाड़कर देखने की हवा पैदा कर दी है। और अब हम बेचैन और घबड़ाए हुए हैं।

इस बेचैनी का इस तरह कोई हल नहीं हो सकता, जैसा हम सोचते रहे। इस बेचैनी की जड़ पकड़ लेनी है। और जड़ है–दमन। जड़ है–जीवन के तथ्यों का विरोध और निषेध; स्वीकार नहीं।

तो मैं आपको कहना चाहूंगा इस संबंध में: सेक्स के विरोध में मत खड़े रहें, उसे स्वीकार करें। जाने कि वह है। फिर खोजें, फिर निरीक्षण करें, फिर उस वृत्ति को पकड़ें प्रेम से और उतर जाएं गहरे में।

सेक्स की वृत्ति गहरी से गहरी वृत्ति है, क्योंकि उससे ही हम पैदा होते हैं। वह गहरी से गहरी वृत्ति है जो मनुष्य के भीतर है। उसका निषेध नहीं किया जा सकता। उसमें उतरें और गहरे से गहरे जाएं। जितने गहरे आप उतरते चले जाएंगे, उतने ही आप एक मुक्ति अनुभव करेंगे कि आप मुक्त होने शुरू हो गए। और जिस दिन आप बिलकुल जड़ों में पहुंच जाएंगे अपनी चेतना के, जहां से सेक्स का पौधा उत्पन्न होता है, वहां आप एकदम हैरान हो जाएंगे कि यह कोई उलझन की बात न थी। यह तो इतनी सरल थी, इतनी सीधी और साफ थी, इसे बदल देना बहुत आसान था। और जिस दिन वह बदलाहट होगी, उस दिन आपके सारे व्यक्तित्व में प्रेम भरपूर भर जाएगा।

प्रेम सेक्स का ट्रांसफार्मेशन है और कुछ भी नहीं। जो आदमी सेक्सुअल है, वह आदमी लविंग नहीं हो सकता। जो आदमी कामवासना से भरा है, उसमें प्रेम नहीं हो सकता है।

प्रेम सेक्स की ही शक्ति का रूपांतरण है। जब चित्त सब भांति सेक्स से मुक्त हो जाता है, सेक्स को जानकर, परिचय से, ज्ञान से, तब सेक्स की शक्ति का क्या होगा? वह शक्ति है। वह रूपांतरित हो जाती है, वह प्रेम बन जाती है। और यह प्रेम फिर नए ढंग का सृजन शुरू कर देता है, नया क्रिएशन शुरू कर देता है। प्रेम बहुत क्रिएटिव है। फिर प्रेम का एक-एक शब्द अदभुत रूप से सृजन करने में लग जाता है।

टालस्टाय एक दिन सुबह एक गांव की सड़क से निकला। एक भिखारी ने हाथ फैलाया। टालस्टाय ने अपने जेब तलाशे लेकिन जेब खाली थे। वह सुबह घूमने निकला था और पैसे नहीं थे। उसने उस भिखारी को कहा, मित्र! क्षमा करो, पैसे मेरे पास नहीं हैं, तुम जरूर दुख मानोगे। लेकिन मैं मजबूरी में पड़ गया हूं। पैसे मेरे पास नहीं हैं। उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, मित्र! क्षमा करो, पैसे मेरे पास नहीं हैं। उस भिखारी ने कहा, कोई बात नहीं। तुमने मित्र कहा, मुझे बहुत कुछ मिल गया। यू काल्ड मी ब्रदर, तुमने मुझे बंधु कहा! और बहुत लोगों ने मुझे अब तक पैसे दिए थे लेकिन तुमने जो दिया है, वह किसी ने भी नहीं दिया था। मैं बहुत अनुगृहीत हूं।

एक शब्द प्रेम का–मित्र, उस भिखारी के हृदय में क्या निर्मित कर गया, क्या बना गया। टालस्टाय सोचने लगा। उस भिखारी का चेहरा बदल गया, वह दूसरा आदमी मालूम पड़ा। यह पहला मौका था कि किसी ने उससे कहा था, मित्र। भिखारी को कौन मित्र कहता है? इस प्रेम के एक शब्द ने उसके भीतर एक क्रांति कर दी, वह दूसरा आदमी है। उसकी हैसियत बदल गयी, उसकी गरिमा बदल गयी, उसका व्यक्तित्व बदल गया। वह दूसरी जगह खड़ा हो गया। वह पद-दलित एक भिखारी नहीं है, वह भी एक मनुष्य है। उसके भीतर एक नया क्रिएशन शुरू हो गया। प्रेम के एक छोटे से शब्द ने!

प्रेम का जीवन ही क्रिएटिव जीवन है। प्रेम का जीवन ही सृजनात्मक जीवन है। प्रेम का हाथ जहां भी छू देता है, वहां क्रांति हो जाती है, वहां मिट्टी सोना हो जाती है। प्रेम का हाथ जहां स्पर्श देता है, वहां अमृत की वर्षा शुरू हो जाती है।

लेकिन यह प्रेम आता कहां से है? कहां से यह पैदा होता है? कहां यह जन्म पाता है? मेरी दृष्टि में जैसे एक बीज होता है, बीज के ऊपर एक खोल होती है, सेल होती है, उसके ऊपर ढांके रखती है। भीतर बीज छिपा होता है, ऊपर सेल होती है, खोल होती है। खोल बीज की दुश्मन नहीं है, मित्र है। अगर खोल न हो तो बीज कभी का मर जाएगा, उसकी रक्षा न हो सकेगी। लेकिन हम जमीन में डालते हैं बीज को, खोल तो टूटकर नष्ट हो जाती है, बीज अंकुर बन जाता है। बीज बाहर निकल आता है।

तो खोल रक्षा करती थी बीज का लेकिन अगर खोल रक्षा ही करती चली जाए और जब बीज को फूटने का मौका आए तब इनकार कर दे कि मैं टूटने को राजी नहीं हूं, मैं तो तुम्हारी रक्षक हूं। मैं नष्ट होने को राजी नहीं हूं। तो जो रक्षक था वही भक्षक हो जाएगा। फिर खोल बीज का प्राण ले लेगी, फिर बीज में अंकुर नहीं पैदा हो सकेगा। खोल रक्षा करती है एक सीमा तक, और एक सीमा के बाद फिर टूट जाती है ताकि बीज में अंकुर हो सके।

मनुष्य के भीतर जो भी हमें वृत्तियां दिखाई पड़ती हैं वे खोल हैं, उनके भीतर बीज छिपे हुए हैं बहुत अदभुत। सेक्स खोल है। और अगर ठीक से उसे हम समझें तो एक दिन खोल तो विलीन हो जाती है और प्रेम का अंकुर प्रगट हो जाता है। क्रोध खोल है। अगर हम क्रोध को ठीक से समझें तो क्रोध तो विलीन हो जाता है, दया-क्षमा जन्म ले लेती है। लेकिन बड़ी अंडरस्टेंडिंग की, बड़ी समझ की जरूरत है।

एक आदमी एक घर में बहुत सा गोबर और खाद लाकर ढेर इकट्ठा कर ले तो बदबू फैलनी शुरू हो जाएगी। गांव के लोगों का उस रास्ते से निकलना मुश्किल हो जाएगा। उस आदमी का भी घर में रहना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन वही आदमी उस खाद को अपनी जमीन पर फैला दे घर के आगे और बीज डाल दे फूलों के, थोड़े दिनों में गांव के लोग उस रास्ते पर आने को आतुर हो जाएंगे। वहां फूल खिल गए हैं, उनमें सुगंध व्याप्त हो गई है।

वह सुगंध कहां से आती है? वह सुगंध उस खाद की दुर्गंध का ही रूपांतरण है, वह उसका ही ट्रांसफार्मेशन है। वही खाद जो दुर्गंध दे रही थी, फूलों से पार होकर सुंगध बन गई है। लेकिन खाद इकट्ठी कर लें तो प्राण जीना मुश्किल हो जाएंगे। और खाद को बगिया में डाल लें, खाद को ही, तो फूल खिल जाएंगे वहां। वहां जीवन स्वर्ग हो जाएगा।

हमारे चित्त में भी अभी हम खाद को इकट्ठा किए हुए बैठे हैं इसलिए हम परेशान हैं। उस खाद को हमने चित्त की बगिया में सहयोगी नहीं बनाया है, और हमने बीज नहीं बोए हैं जो सुगंध ला सकें। इसलिए हम परेशान हैं–सेक्स से परेशान हैं, क्रोध से परेशान हैं,र् ईष्या से परेशान हैं–हर चीज से परेशान ही परेशान हैं। और इन सबसे लड़ रहे हैं और इस लड़ने में हम पूरे जीवन को दो कौड़ी का कर लेंगे। आखिर में हम पाएंगे हम एक हारे हुए सर्वहारा। जा रहे हैं जमीन से, कुछ भी लेकर नहीं। क्योंकि हम खाद को ही इकट्ठा करने और खाद से ही लड़ने में लगे रहे हैं, हमने बगिया तो बनाई ही नहीं।

बगिया बन सकती है मनुष्य के जीवन की। लेकिन जो तथ्य हैं उन सबको देखना, जानना, पहचानना और उनके रूपांतरण की कीमिया, केमिस्ट्री खोजनी है।

तो सेक्स से घबड़ाए न। क्या आपको पता है आज तक कोई भी नपुंसक, कोई भी इंपोटेंड जगत में कुछ भी पैदा कर सका है? कुछ भी। बच्चे तो नहीं लेकिन और कुछ–कविता, गीत, संगीत–कुछ पैदा कर सका है? कुछ क्रिएट कर सका है? नहीं, उसके पास सेक्स की ऊर्जा नहीं है, सेक्स की एनर्जी नहीं है। वही एनर्जी सब कुछ पैदा करती है–बच्चे भी, गीत भी, कविता भी, चित्र भी, मूर्ति भी, शास्त्र भी–जो कुछ पैदा होता है उसी ऊर्जा से पैदा होता है। जो कुछ भी पैदा होता है सेक्स के अतिरिक्त किसी चीज से पैदा नहीं होता।

एक महान पुस्तक पैदा होती है, एक महान गीत पैदा होता है, एक महान मूर्तिकार एक अदभुत मूर्ति बनाता है पत्थर में फोड़कर, ये सब भी सेक्स का ही उत्पादन हैं। और इसलिए आप एक दूसरी बात देखकर हैरान हो जाएंगे–जो आदमी सुंदर मूर्तियां पैदा कर पाता है, जो आदमी सुंदर गीत लिख पाता है, जो आदमी कुछ पैदा कर पाता है, एक वैज्ञानिक एक आविष्कार, एक नई चीज निर्मित कर पाता है–तो आप हैरान हो जाएंगे, ऐसे आदमी की जिंदगी में सेक्स का प्रॉब्लम होता ही नहीं। क्योंकि उसकी सारी सेक्स की ऊर्जा नए सृजन को खोज लेती है। उसकी जिंदगी में यह बात आती ही नहीं, उसे खयाल में भी नहीं आती।

लेकिन जिस आदमी की जिंदगी में और किसी तरह का कोई सृजन नहीं है, उसके लिए भी परमात्मा ने एक सृजन का काम छोड़ा हुआ है, कम से कम बच्चे पैदा करे। वह सृजन का इतना आनंद तो ले कम से कम। उसने कुछ पैदा किया, उसने कुछ बनाया। वह जमीन को ऐसे ही नहीं छोड़ जा रहा है। कुछ पीछे छोड़ जा रहा है, यह तृप्ति और यह संतुष्टि उसे मिले।

लेकिन सृजन के बहुत तल हैं, बहुत ग्रेड्स हैं। सृजन के बहुत रूप हैं, बहुत ऊंचाइयां है। सृजन की बहुत गहराइयां हैं। लेकिन वे सब गहराइयां, सब ऊंचाइयां सेक्स की ऊर्जा से ही जन्म पाती हैं, वही उनका केंद्र है। उसके प्रति विरोध से नहीं–उसके प्रति समझ, प्रेम, आनंद और सम्मान से आदमी नीचे से ऊपर की तरफ विकसित होता चला जाता है–तब वह बच्चे ही पैदा नहीं करता, कुछ और भी पैदा करता है। तब वह पार्थिव ही पैदा नहीं करता, कुछ अपार्थिव को भी जमीन पर उतार लाता है। तब उसकी चेष्टाएं कुछ अलौकिक, कुछ अपार्थिव जीवन, कुछ अपार्थिव शक्तियों को भी जमीन पर आमंत्रित कर लेती हैं, वह एक सृष्टा बन जाता है।

इसलिए इसे सोचें, इसे खोजें। हजारों साल ने जो कहा है, वही जरूरी रूप से सही न मान लें। वह सही नहीं है। उस पर पुनर्विचार, उस पर री-कंसीडरेशन होना आवश्यक है। कम से कम सेक्स के बाबत तो हमारी सारी दृष्टि नई हो जानी चाहिए। वही हमारा महारोग हमें पीड़ित किए हुए है, उससे हमारा छुटकारा अत्यंत आवश्यक है।

एक और छोटा सा प्रश्न और फिर हम उठेंगे

एक बहन ने पूछा है, नारियां आध्यात्मिक जीवन में उत्सुक होती हैं, तो पुरुष बाधा बनते हैं। नारियां क्या करें?

पहली तो बात यह: आध्यात्मिक जीवन ऐसा जीवन है जिसमें कोई भी बाधा नहीं बन सकता है। कोई बाधा नहीं बन सकता है। सांसारिक जीवन में कोई बाधा बन सकता है।

मुझे एक रास्ते से जाना है और आप रास्ते पर दीवाल खड़ी कर दें, बंदूक लिए खड़े हो जाएं, उधर से मैं नहीं जा सकूंगा। मुझे एक काम करना है, आप मेरे हाथ-पैर बांध दें और जंजीरें कस दें तो मैं नहीं कर सकूंगा। सांसारिक जीवन में दूसरे लोग बाधा बन सकते हैं। क्यों? क्योंकि सांसारिक जीवन में दूसरे लोग सहयोगी भी बन सकते हैं। जहां सहयोग मिल सकता है, वहां बाधा भी मिल सकती है।

आध्यात्मिक जीवन में सहयोग भी कोई नहीं दे सकता, बाधा भी कोई नहीं दे सकता। सहयोग ही नहीं दे सकता तो बाधा कैसे देगा? जहां किसी के कोआपरेशन का ही कोई मूल्य नहीं है, सहयोग का ही कोई मूल्य और अर्थ नहीं है, वहां उसके नान-कोआपरेशन का क्या मतलब है। उसके असहयोग का क्या मतलब है।

नहीं, लेकिन अब तक जिसको हम आध्यात्मिक जीवन समझते रहे हैं उसमें पति बाधा बन सकते हैं, पत्नियां बाधा बन सकती हैं। कोई भी बाधा बन सकता है।

अब आपको मंदिर जाना है, हो सकता है पति कहे मंदिर जाना मुझे पसंद नहीं है। असल में मंदिर जाना आध्यात्मिक जीवन ही नहीं है, संसार की ही एक घटना है। इसमें पति बाधा बन सकता है। अब आपको पूजा करनी है, घर में भजन-कीर्तन करने हैं, पति कह सकता है कि मुझे यह पसंद नहीं है, मेरा दिमाग खराब होता है।

अभी एक मामला मेरे पास आया है। एक महिला ने मुझसे आकर कहा, कुछ दिन हुए कि आप कृपा करके मेरे पति को समझाएं उनके धर्म से हम परेशान हो गए हैं, घर पागल हुआ जा रहा है। क्या हुआ? दो बजे रात से उठ आते हैं और इतने जोर से जपुजी का पाठ करते हैं, इतने जोर से कि बच्चे सो नहीं पाते, हम नहीं सो पाते, मोहल्ले के लोग शिकायत करने लगे हैं कि यह क्या हो रहा है। मैंने उनके पति को बुलाया। वे आए। वे बड़ी खुशी से आए। क्योंकि वे सोचते होंगे कि मैं तो उनके आध्यात्मिक जीवन में साथ दूंगा, सहयोग दूंगा। पत्नी को यह कहूंगा कि तू गलत है, किसी के धार्मिक जीवन में बाधा बननी चाहिए?

वे बोले कि मैं सुबह उठता हूं तो यह उठने नहीं देती है। मैंने कहा, सुबह यानी कितने बजे। उन्होंने कहा, दो बजे। मैंने कहा, दो बजे सुबह होता है? लेकिन वे बोले कि यह तो ऋषि-मुनियों ने बहुत तारीफ की है कि जितने जल्दी उठो उतना अच्छा। और मैं कोई बुरा काम तो करता नहीं, जपुजी का पाठ करता हूं। जिसके भी कान में पड़ जाए उसका भी हित है। मैंने कहा, ऐसा धार्मिक जीवन अगर आपका है तो इसमें आपकी पत्नी और बच्चों को बाधा बनना पड़ेगा। यह तो धार्मिक जीवन न हुआ। यह तो एक पागल का जीवन हुआ, इसका धर्म से क्या वास्ता।

अगर ऐसा कोई जीवन जीना चाहे तो बेचारे पति चिंतित भी हो सकते हैं, पत्नी भी चिंतित हो सकती है कि यह क्या हो रहा है? और पति-पत्नी हजारों साल से चिंतित हैं धार्मिक आदमी से, बहुत घबड़ाए हुए रहते हैं। हालांकि जाते हैं, कोई धार्मिक आदमी आता है उसके पैर भी छूते हैं, नमस्कार भी करते हैं लेकिन डरता है। पति डरता है कहीं पत्नी धार्मिक न हो जाए, पत्नी डरती है कहीं पति धार्मिक न हो जाए।

मेरे पास न मालूम कितने पत्र आते हैं। पत्नियां लिखती हैं कि हमारे पति जरा बहुत ही धर्म में उत्सुक हो गए हैं, इससे घबड़ाहट हो गई है, कोई रास्ता बताइए। क्योंकि धर्म के नाम पर जीवन का जो विरोध चलता रहा है और धर्म के नाम पर जो-जो एब्सर्डिटीस, बेवकूफियां चलती रही हैं, कोई भी समझदार आदमी चिंतातुर हो जाता है कि यह क्या हो रहा है? कुछ भी गड़बड़ हो सकती है। और सब तरह की गड़बड़ को मौका मिल गया है, सब तरह की गड़बड़ की जा सकती है।

एक आदमी सड़क पर नंगा खड़ा हो सकता है कि मैं धार्मिक हो गया। इसकी इस स्टुपिडिटी के लिए, इसकी इस मूढ़ता के लिए घर के मां-बाप, बच्चे, पत्नी चिंतित हो जाएं तो कोई हैरानी की बात तो नहीं। यही आदमी अगर हमें धर्म का खयाल न होता तो हम इसकी चिकित्सा की व्यवस्था करते। फौरन इसको ले जाते अस्पताल, मानसिक चिकित्सक के पास कि इसको कुछ गड़बड़ हो गई है, यह आदमी नंगा खड़ा हो गया है। लेकिन यह हम कह ही नहीं पाते। क्योंकि हम जानते हैं कि इसको…यह तो परम संन्यासी हो गया है, साधु हो गया है।

चिंताएं हैं। लेकिन ये चिंताएं आध्यात्मिक जीवन के कारण नहीं हैं। जिसको हम आध्यात्मिक जीवन समझे हैं, वह आध्यात्मिक जीवन ही नहीं है। उसमें बाधा दी जा सकती है।

लेकिन मैं जिसे आध्यात्मिक जीवन कहता हूं उसमें कोई कैसे बाधा दे सकता है? कैसे कोई बाधा दे सकता है? आप अपने चित्त को शांत करें। कोई पति, कोई पत्नी कैसे बाधा दे सकता है? बल्कि प्रसन्न होगा कोई भी, क्योंकि शांत आदमी के साथ जीना एक आनंद है। अशांत आदमी के साथ जीना तो आनंद नहीं है।

अगर पत्नी अशांत है तो पति के जीवन में एक उपद्रव निरंतर चलता रहेगा, पति अशांत है तो पत्नी के जीवन में उपद्रव चलता रहेगा। लेकिन अगर पत्नी शांत होना चाहती है तो पति क्यों बाधा देगा? कभी किसी पति ने पत्नी के स्वस्थ होने में बाधा दी है, बीमार रखना चाहा है। क्यूं चाहेगा? क्योंकि पत्नी की बीमारी पति को भी तो बीमार करती है, बीमार बना देती है। क्योंकि घर में एक आदमी बीमार है तो कोई आदमी स्वस्थ नहीं रह सकता। सारे घर की हवा रुग्ण हो जाती है। घर में एक आदमी अशांत है तो सारे घर की हवा में अशांति के कीटाणु फेंकता है।

तो अगर कोई शांत होने लगे तो पति बाधा देगा! लेकिन पति को डर है। पुरानी तरह की शांति बड़ी खतरनाक थी, वह दूसरी तरह की अशांति थी। अगर पत्नी शांत होने लगे तो उसको लगेगा कि संबंध टूटे, पुराने ढंग की जो शांति जो हम समझते रहे कि शांति है। अगर वह माला-माला जपने लगे तो पति समझ गया, अब मुश्किल हो गयी। अब यह मेरे साथ सिनेमा देखने नहीं जा सकेगी। अब मेरे और इसके प्रेम के नाते गड़बड़ होंगे, क्योंकि यह माला बीच में खड़ी हो जाएगी। तो पति घबड़ा जाएगा कि यह उपद्रव हो रहा है। यह मैं पत्नी को खो रहा हूं।

लेकिन अगर पत्नी शांत होने लगे, जिसे मैं शांति कहता हूं, तो पति तो हैरान होगा, जिस प्रेम को उसकी पत्नी ने उसे कभी नहीं दिया था वह इस शांति के बाद पैदा होना शुरू होता है। जिस प्रेम को उसने कभी इससे नहीं पाया था, वह उसे उपलब्ध होना शुरू होगा। क्योंकि जो आदमी अशांत है वह हमेशा प्रेम मांगता है, प्रेम कभी देता नहीं। अशांत आदमी का लक्षण है प्रेम मांगता है, देता कभी नहीं। अशांत आदमी दे कैसे दे सकता है। उसके पास है ही नहीं देने को कुछ सिवाय अशांति के। वह मांगता है। अशांति से घबड़ाया है। वह कहता है, मुझे प्रेम दो। और जो आदमी प्रेम मांगता है उसे प्रेम कभी भी नहीं मिलता है, क्योंकि प्रेम मांगने से मिल ही नहीं सकता। वह सिकुड़ जाता है। बहुत डेलीकेट है, बहुत नाजुक है। जब आप मांगने लगते हैं तो वह डर जाता है।

प्रेम हमेशा तभी मिलता है, जब बिना मांगा, अन-मांगा। मांगकर कभी नहीं मिलता, प्रेम की कोई भिक्षा नहीं मिलती। तो जितना कम मिलता है उतनी उसकी डिमांड और मांग बढ़ती है, मुझे प्रेम दो। लेकिन जो व्यक्ति शांत होता है, अगर पत्नी शांत है या पति शांत है तो वह प्रेम देना शुरू कर देगा। मांगेगा नहीं, देगा। और जब प्रेम दिया जाता है तो अपने आप उत्तर में हजार गुना होकर वापस लौटता है। प्रेम जब दिया जाता है तो प्रेम लाता है।

तो अगर एक पत्नी शांत हो रही है, ध्यान में प्रवेश कर रही है तो उसके जीवन में तो गहराई बढ़ेगी ही, रस बढ़ेगा, आनंद बढ़ेगा, प्रेम बढ़ेगा। उसके जीवन की सारी चीजें एक अनूठे रूप से आनंद-मग्नता को उपलब्ध होने लगेंगी। पति इससे दुखी होगा! कोई कारण तो नहीं है इसमें पति के दुखी होने का। पत्नी इससे दुखी होगी! कोई कारण तो नहीं है इसमें पत्नी के दुखी होने का। कोई भी कारण नहीं है।

तो जिसको मैं आध्यात्मिक जीवन कह रहा हूं, अगर वह जगत में आता है तो हर घर एक सुखी घर होगा। अभी जिसको हम आध्यात्मिक जीवन कहते हैं तो उसने हजारों घर बरबाद किए हैं, लाखों घर बरबाद किए हैं। करोड़ों लोगों को इतने कष्ट में डाला है जिसका कोई हिसाब नहीं है। लेकिन हम न मालूम कैसे लोग हैं चुपचाप देख रहे हैं।

दुनिया में क्रिमिनल्स ने, अपराधियों ने इतना नुकसान नहीं किया जितना तथाकथित धार्मिक लोगों ने किया है। कितने घर बरबाद किए हैं, कितने परिवार? कितनी पत्नियों को रोते छोड़ दिया, कितने बच्चों को? कितने मां को, कितने बाप को? अगर उसकी सारी, किसी भी दिन किसी आदमी ने सारे आंकड़े इकट्ठे किए तो हम घबड़ा जाएंगे। अपराधियों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। अपराधी बहुत कम है इस मात्रा में।

लेकिन चूंकि हम इस सबको कहते हैं–यह त्याग है, वैराग्य है, अनासक्ति है। हमने अच्छे-अच्छे शब्द इस अपराध को दे दिए हैं। इस क्रिमिनल एक्ट को हमने बहुत अच्छे-अच्छे, ऊंचे-ऊंचे शब्द दे दिए हैं। उन शब्दों के पीछे सब छिप जाता है। रोती हुई पत्नियां छिप जाती हैं, रोते हुए बच्चे छिप जाते हैं, बरबाद घर छिप जाते हैं, सब छिप जाता है। बूढ़े मां-बाप छिप जाते हैं, उनका रोना सब छिप जाता है। क्योंकि हम इस आदमी को सिर पर उठा लेते हैं, जुलूस निकालते हैं, जोर से बाजा बजाते हैं कि संन्यास हो गया, दीक्षा हो गयी। गांवभर में शोरगुल मचा देते हैं। उस शोरगुल में वह घर जो रोता हुआ पीछे छूट गया है, वह अंधेरे कोने में खड़ा रह जाता है। उसको रोने की भी हिम्मत नहीं होती कि रोएं तो कैसे रोएं? इतना गांव तो खुशी मना रहा है। वह भी उस खुशी में उदास मन, आंसू लिए सम्मिलित हो जाता है।

हजारों घर बरबाद हुए हैं धर्म के नाम पर। और ऐसे धर्म के लिए अगर पति चिंतित हो जाए तो बिलकुल ठीक है। पत्नी चिंतित हो जाए, बिलकुल ठीक है। लेकिन उस धर्म की मैं बात नहीं कर रहा हूं। वह धर्म ही नहीं है।

एक ऐसा धर्म चाहिए जो जीवन को, घर को खुशी से भर दे। जो सामान्य जीवन को, सामान्य घरों को, सामान्य दांपत्य को, परिवार को आनंद से भर दे। दुख और उदास से भरने वाला जीवन नहीं। वैसा धर्म नहीं, वैसा अध्यात्म नहीं। वह अध्यात्म है ही नहीं।

मेरी दृष्टि में तो किसी को भी दुख देने में जिसे रस आता है वह आदमी दुष्ट है। चाहे वह किसी रूप से दुख देने की व्यवस्था करता हो।

व्यवस्था कई तरह की हो सकती है। एक समाज-सम्मत व्यवस्था हो सकती है दुख देने की, एक समाज-असम्मत व्यवस्था हो सकती है। एक आदमी अपनी पत्नी को, बच्चों को छोड़कर वेश्याघर में चला जाता है, तो यह समाज-असम्मत व्यवस्था है पत्नी को दुख देने की। इसका हम सब विरोध करेंगे कि यह गलत बात है, यह बुरी बात है। तुम क्यों दुख दे रहे हो पत्नी को।

लेकिन एक आदमी संन्यासी हो जाता है, यह समाज-सम्मत व्यवस्था है दुख देने की। इसमें हम उसका आदर करेंगे कि तुम बहुत ही अच्छा कर रहे हो और यह सब असार संसार है तुम छोड़ रहे हो। यह आदमी वही है, यह जरा होशियार है। इसने टार्चर का वह रास्ता खोजा जिसमें आप इनकार नहीं कर सकते। और इसके चित्त में सताने की कोई भावना काम कर रही है। अन्यथा, यहां अगर यह परमात्मा को नहीं खोज सकता है तो और कहां खोजेगा? और फिर हम देखते हैं कि पत्नी छोड़कर जाता है, बच्चे छोड़कर जाता है; कल शिष्य और शिष्याएं इकट्ठी कर लेता है, कोई परिवार से बाहर होता नहीं। फिर नया परिवार बना लेता है। फिर वही-वही गोरखधंधा खड़ा कर लेता है तो यह इसको समझ भी नहीं पाता, उसको आश्रम कहता है, इसको घर कहता था। वही सब गोरखधंधा है, वही सब। सब वही उपद्रव चलता है। यहां एक माताजी थीं, वहां आश्रम में एक माताजी बना लेता है। ये माताजी हैं इनके पैर पड़ो। तो घर में ही माताजी के पैर पड़े जा सकते थे। लेकिन घर की माताजी असार हो गईं, ये माताजी बहुत कीमत की हैं। ये आश्रम वाली माताजी हैं।

वहां भी वही घेरा था, वहां बच्चों की चिंता करनी पड़ती थी, यहां शिष्यों की चिंता करता है। वहां भी झगड़े थे, बच्चों के हल करने पड़ते थे; यहां हल करता है शिष्यों के। बदल क्या जाता है? बदल कुछ भी नहीं जाता।

लेकिन यह अध्यात्म, यह पुराना अध्यात्म बिलकुल थोथा है। इस थोथे अध्यात्म ने जीवन को बहुत दुख पहुंचाए। प्रार्थना करनी चाहिए परमात्मा से कि किसी दिन इस थोथे अध्यात्म से छुटकारा हो जाए, ताकि सही अध्यात्म का जन्म हो सके। और उसके लिए किसी का कोई विरोध नहीं हो सकता। हर एक उसका स्वागत करेगा, क्योंकि वह तो आनंद को लाने वाला गीत है। वह तो आनंद को लाने वाला संगीत है। वह तो आनंद को लाने वाला नृत्य है। वह तो जीवन को खुशी और मुस्कुराहटों से भर देगा, आंसुओं से नहीं।

और प्रश्न रह गए हैं वह मैं रात बात करूंगा। दोपहर की यह बैठक समाप्त हुई।

आज इतना ही।

साधना-शिविर माथेरान,

दिनांक २१-१०-६७, दोपहर

असंभव क्रांति-(प्रवचन-08)

प्रवचन-आठवां-(सृजन का सूत्र)

असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 21-10-67 सुबह  

(अति-प्राचीन प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्,

मनुष्य एक तिमंजिला मकान है। उसकी एक मंजिल तो भूमि के ऊपर है, बाकी दो मंजिल जमीन के नीचे। उसकी पहली मंजिल में, जो भूमि के ऊपर है, थोड़ा प्रकाश है। उसकी दूसरी मंजिल में, जो जमीन के नीचे दबी है और भी कम प्रकाश है। और उसकी तीसरी मंजिल में जो बिलकुल भूगर्भ में छिपी है, पूर्ण अंधकार है, वहां कोई प्रकाश नहीं है। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-08)”

असंभव क्रांति-(प्रवचन-07)

प्रवचन-सातवां-(सत्य का संगीत)

असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 20-10-67 रात्री  

 (अति-प्राचीन प्रवचन)

एक मित्र ने पूछा है कि मैं शास्त्रों को जला डालने के लिए कहता हूं। और मेरी बातों से कहीं थोड़े कम समझ लोग भ्रांत होकर भटक न जाएं?

लोग भटकेंगे या नहीं, लेकिन जिन्होंने प्रश्न पूछा है, वे मेरी बात सुनकर जरूर भटक गए हैं। मैंने कब कहा कि शास्त्रों को जला डालें। मैंने सिर्फ अपनी किताबों को–अगर वे किसी दिन शास्त्र बन जाएं तो जला डालने को कहा है। मेरी किताबें हैं, उनको जला डालने के लिए मैं कह सकता हूं। लेकिन दूसरों की किताबें जला डालने को मैं क्यों कहूंगा। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-07)”

असंभव क्रांति-(प्रवचन-06)

प्रवचन-छटवां-(मौन का स्वर)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 20-10-67 रात्रि   

(अति-प्राचीीन प्रवचन)

एक मित्र ने आज सुबह सलाह दी है कि मैं सभी प्रश्नों के उत्तर न दूं। उन्होंने कहा है कि बहुत से प्रश्न तो फिजूल होते हैं, उनको आप छोड़ दें।

मुझे उनकी बात सुनकर एक घटना स्मरण हो आई।

एक धर्मगुरु पहली बार ही चर्च में भाषण देने गया था। उसे डर था कि लोग कहीं कोई प्रश्न न पूछें। तो अपने एक मित्र को उसने दो प्रश्न सिखा रखे थे। इसके पहले कि लोग पूछें, तुम मुझसे यह प्रश्न पूछ लेना, उत्तर मेरे तैयार हैं। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-06)”

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