माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-12)

बारहवां प्रवचन–माटी कहै कुम्हार सूं

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी घटना से मैं आज की चर्चा शुरू करना चाहूंगा। एक काल्पनिक घटना ही मालूम होती है, एक सपने जैसी झूठी, एक किसी कवि ने सपना देखा हो ऐसा ही।

लेकिन जिंदगी भी बहुत सपना है और जिंदगी भी बहुत कल्पना है और जिंदगी भी बहुत झूठ है। Continue reading “माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-12)”

माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां प्रवचन–माटी कहै कुम्हार सूं

मेरे प्रिय आत्मन्!

बीती चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न हैं।

एक मित्र रोज ही पूछ रहे हैं कि व्यवहार के संबंध में कुछ बोलिए। शायद उन्हें प्रतीत होता होगा कि जो मैं बोल रहा हूं वह व्यवहार के संबंध में नहीं है। व्यवहार से लोग न मालूम किस बात को सोचते और समझते हैं। शायद वे सोचते हैं: किस भांति के कपड़े पहने जाएं, किस भांति का खाना खाया जाए, कब सोया जाए, कब उठा जाए, सच बोला जाए या झूठ बोला जाए, ईमानदारी की जाए या बेईमानी की जाए। आचरण की और सारी बातों को वे व्यवहार समझते होंगे। इसलिए मैं रोज बोल रहा हूं लेकिन उनका प्रश्न रोज लौट आता है। वे द्वार पर ही मुझे मिल जाते हैं कि वह व्यवहार के संबंध में आपने अब तक कुछ भी नहीं कहा। तो आज पहले उनके संबंध में ही बात कर लेनी उचित होगी। Continue reading “माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-11)”

माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन–माटी कहै कुम्हार सूं

प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से मैं अपने आज की बात शुरू करना चाहूंगा।

एक नया मंदिर निर्मित हो रहा था, सैकड़ों मजदूर उसे बनाने में लगे थे। नये पत्थर तोड़े जा रहे थे, नई मूर्तियां बनाई जा रही थीं। एक कवि भी भूला-भटका हुआ उस मंदिर के पास से गुजर गया। उसने एक पत्थर तोड़ते मजदूर से पूछा कि मेरे मित्र, क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने क्रोध से भरी हुई आंखें ऊपर उठाई, तो उसकी आंखों में जैसे आग जलती हो और उतने ही क्रोध से उसने कहा, क्या तुम अंधे हो? Continue reading “माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-10)”

माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन–माटी कहै कुम्हार सूं

बीते दो दिनों की चर्चाओं के संबंध में मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं। उनमें से कुछ पर अभी विचार हो सकेगा।

किसी ने पूछा है: कल मैंने कहा कि आश्चर्य, विस्मय और रहस्य की भावना जितनी तीव्र और गहरी होगी मनुष्य के जीवन में ईश्वर का संपर्क उतना ही ज्यादा हो सकता है। उन्होंने पूछा है, विस्मय का यह भाव कैसे गहरा हो? कैसे तीव्र हो? आश्चर्य की यह दृष्टि कैसे मिले? हम कैसे जीवन को रहस्य की भांति देख सकें? Continue reading “माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-09)”

माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन–माटी कहै कुम्हार सूं

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य-जाति के, मनुष्य-चेतना के भंडार से कौन सा रत्न खो गया है, अगर मैं यह अपने से पूछता हूं तो मुझे ऐसा नहीं मालूम होता कि नीति खो गई हो, धर्म खो गया हो, दर्शन या फिलासफी खो गई हो। न तो मनुष्य के जीवन से नीति खो गई है, आचरण खो गया है, न धर्म खो गया है, न दर्शन खो गया है। क्योंकि आज से हजारों वर्ष पहले मनुष्य के चित्त की जैसी अनैतिक दशा थी, ठीक वैसी ही दशा आज भी है। लोग सोचते हैं कि शायद पहले के लोग बहुत नैतिक और बहुत आचारवान थे, तो एकदम सौ प्रतिशत गलत सोचते होंगे। अगर बुद्ध और महावीर के समय के लोग नीतिवान और आचारवान रहे हों, तो बुद्ध और महावीर की शिक्षाओं की कोई भी जरूरत नहीं हो सकती थी। Continue reading “माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-08)”

माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन—माटी कहै कुम्हार सूं

मेरे प्रिय आत्मन्!

कल संध्या, सत्य की खोज में साधक के मन की पात्रता कैसी चाहिए, उस संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने कही हैं। उन बातों पर कुछ प्रश्न पूछे गए हैं, उनकी हम चर्चा करेंगे।

एक मित्र ने पूछा है कि अतीत को छोड़ देने पर, परंपरा को छोड़ देने के लिए, मेरा इतना आग्रह क्यों है?

एक आदमी हाथ में कंकड़-पत्थर लिए हुए चल रहा हो, उसके हाथ कंकड़-पत्थरों से भरे हों और हमें पता हो कि उसी रास्ते पर तो हीरे-जवाहरात भी मिल सकते हैं और उस आदमी से हम कहें कि तुम अपने हाथ खाली कर लो, कंकड़-पत्थर छोड़ दो।

वह आदमी पूछने लगे कि आप मेरे हाथों के कंकड़-पत्थर छुड़ाने के लिए इतना आग्रह क्यों करते हैं? कंकड़-पत्थरों से मुझे कोई भी आग्रह नहीं है। लेकिन कंकड़-पत्थर से जो हाथ भरे हैं, वे हीरे-जवाहरातों से नहीं भर सकते हैं। हीरे-जवाहरातों से भर जाएं, इसके लिए मेरा आग्रह जरूर है, लेकिन उसके लिए खाली हाथ चाहिए।

परंपरा को छोड़ देने पर कोई आग्रह नहीं है, लेकिन परंपरा को जो पकड़े हुए है, अतीत को, बीते हुए को जो पकड़े हुए है, उसका भविष्य हाथों से छूट जाता है। अतीत को जो पकड़े हुए है, उसका वर्तमान भी हाथों से छूट जाता है। जितना आदमी पीछे की तरफ देखता रहता है, उतना ही जो मौजूद है और जो होने वाला है वह उसे दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। तो जिसके हाथ में बीते हुए कंकड़-पत्थर हैं, वह जीवन के वर्तमान के और भविष्य के हीरे-जवाहरातों को नहीं बीन पाता है, इसलिए मेरा जोर है। वह जोर, वह एंफेसिस अतीत को छोड़ देने पर नहीं, वह जोर वर्तमान को और भविष्य को उपलब्ध कर लेने पर है। लेकिन एकदम से शायद यह दिखाई नहीं पड़ता है।

एक सुबह, एक घुड़सवार, एक रेगिस्तानी रास्ते से निकल रहा है। एक आदमी सोया हुआ है और उस घुड़सवार ने देखा, उस आदमी का मुंह खुला हुआ है और एक छोटा सा सांप उसके मुंह में चला गया है। वह घुड़सवार उतरा। उसके पीछे उसके दो साथी थे, उसको भी उसने बुलाया। उस आदमी को उठाया और जबरदस्ती उसे घसीट कर पास ही नदी के किनारे ले गए और जबरदस्ती उन तीन-चार लोगों ने उसे पानी पिलाना शुरू किया। वह आदमी चिल्लाने लगा, तुम क्या मनुष्यता के शत्रु हो, तुम क्यों मुझे पानी पिला रहे हो? तुम क्यों मुझे परेशान कर रहे हो? क्या जबरदस्ती है यह?

लेकिन उन्होंने बिलकुल भी नहीं सुना। वे उसे जबरदस्ती पानी पिलाते गए। वह नहीं पीने को राजी हुआ, तो उन्होंने धमकी दी कि वे उसे कोड़ों से मारेंगे। उस गरीब आदमी को जबरदस्ती पानी पीना पड़ा। लेकिन वह पानी पीता गया और चिल्लाता गया, विरोध करता गया कि यह तुम क्या कर रहे हो? मुझे पानी नहीं पीना है।

जब बहुत पानी वह पी गया, तो उसे उलटी हो गई और उस पानी के साथ वह छोटा सा सांप भी बाहर निकला। तब तो वह हैरान रह गया! और वह आदमी कहने लगा कि तुमने पहले क्यों न कहा? मैं खुद ही अपनी मर्जी से पानी पी लेता।

उस घुड़सवार ने कहा कि मुझे जीवन का अनुभव है। पहली तो बात, अगर मैं तुमसे कहता कि सांप तुम्हारे मुंह में चला गया है, तो तुम हंसते और कहते, क्या मजाक करते हैं? सांप और कहीं मुंह में जा सकता है!

दूसरी बात, अगर तुम विश्वास कर लेते, तो यह भी हो सकता था कि तुम इतना घबड़ा जाते कि तुम बेहोश हो जाते और तुम्हें बचाना मुश्किल हो जाता। तीसरी बात, यह भी हो सकता था कि तुम पानी भी पीने को राजी होते, तो हमारे समझाने-बुझाने में इतनी देर लग जाती कि फिर उस पानी पीने का कोई अर्थ न रह जाता। मुझे क्षमा करना? उस घुड़सवार ने कहा, मजबूरी में हमें तुम्हारे साथ जोर करना पड़ा। उसके लिए क्षमा कर देना?

लेकिन वह आदमी धन्यवाद देने लगा, हजार-हजार धन्यवाद देने लगा। यही आदमी थोड़ी देर पहले चिल्ला रहा था कि क्या तुम आदमियत के शत्रु हो, तुम यह क्या कर रहे हो? एक अनजान आदमी के साथ यह क्या जबरदस्ती हो रही है?

मैं जब आपसे कहता हूं कि परंपरा, अतीत, बीते हुए को छोड़ दें, तो ऐसा ही लगता है कि मैं व्यर्थ ही आपको आग्रह कर रहा हूं, कोई जबरदस्ती कर रहा हूं। मनुष्यता का शत्रु ही मालूम होता हूं। लेकिन थोड़ा सोचेंगे, थोड़ा समझेंगे, थोड़ा विचार करेंगे, तो एक बात दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी, मनुष्य का चित्त यदि अतीत से बंधा हो, तो भविष्य की ओर उन्मुख नहीं हो सकता। यह इंपासिबिलिटी है, यह असंभावना है। या तो अतीत की ओर उन्मुख होता है मनुष्य का चित्त और या भविष्य की ओर उन्मुख होता है।

और स्मरण रहे, कि जो व्यक्ति अतीत की ओर उन्मुख होता है, वह वर्तमान की ओर भी उन्मुख नहीं होता। वही वर्तमान उसे दिखाई पड़ता है, जो अतीत बन जाता है। वर्तमान प्रतिक्षण अतीत बन रहा है। अतीत की तरफ देखने वाले आदमी को वर्तमान का भी वही हिस्सा दिखाई पड़ता है, जो अतीत बन चुका होता है। जो भविष्य की ओर उन्मुख होता है, उसे वर्तमान का वह हिस्सा दिखाई पड़ता है, जो अभी अतीत नहीं बना है। जो अभी है, इस क्षण जो मौजूद है।

जीवन की अनुभूति वर्तमान के साक्षात में है। लेकिन परंपराओं को पकड़ लेने के लिए, मैं तो आग्रह नहीं कर रहा हूं कि छोड़ दें, लेकिन हम सबका आग्रह जरूर है कि हम पकड़े रहेंगे। वह हमारा आग्रह क्यों है इतना? क्यों हम इतने पागल की तरह बीते हुए को पकड़ लेना चाहते हैं? कुछ वजह होगी। कुछ एक-दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं।

पहली बात तो यह, जिन्हें भविष्य का कोई भरोसा नहीं होता, वे अतीत की स्मृतियों में ही अपने को भुलाए रखना चाहते हैं। बच्चे हमेशा भविष्य की तरफ देखते हैं, बूढ़े हमेशा अतीत की तरफ देखते हैं। बच्चों का कोई अतीत नहीं होता, कोई पास्ट नहीं है उनका, जो भी है भविष्य है। बच्चा हमेशा आगे की तरफ देख रहा है। बूढ़े हमेशा पीछे की तरफ देख रहे हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है, जो कुछ है अतीत है, बूढ़े अतीत की ओर देखते हैं।

इससे यह सूत्र भी समझ ले सकते हैं कि जो भी अतीत की ओर देखता है, वह बूढ़ा हो जाता है! वह लक्षण बुढ़ापे का है! और बुढ़ापा मृत्यु की ओर उठाया हुआ जीवन का अंतिम कदम है! बुढ़ापा मृत्यु की ओर उठाया हुआ जीवन का अंतिम कदम है, और जिसने पीछे की तरफ देखना शुरू कर दिया, समझ लेना, उसने जीना बंद कर दिया है। वह आदमी मरना शुरू हो गया है, या मर चुका है। जब तक भविष्य होता है देखने को, तब तक कोई पीछे की तरफ नहीं देखता है। जवान कौमें भी पीछे की तरफ नहीं देखती हैं। बूढ़ी कौमें ही पीछे की तरफ देखती हैं और जितना वे पीछे की तरफ देखती हैं, उतनी ही बूढ़ी होती चली जाती हैं, एक विसियस सर्किल पैदा हो जाता है, एक दुष्टचक्र पैदा हो जाता है।

क्यों हम पीछे की तरफ देखते हैं? क्या हमें भविष्य में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता? क्या वर्तमान में हमें कोई भी आनंद के क्षण मालूम नहीं होते, जो हम पीछे-पीछे लौट कर देखते रह हैं और उन बातों को सोचते रह हैं जो कभी बीत चुकी हैं? और बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि जब वे बातें बीत रही थीं, तब भी हम उनको नहीं देख रहे थे, तब हम और पीछे देख रहे थे।

न हमने महावीर को देखा, न हमने बुद्ध को देखा, न हमने राम को देखा, न हमने कृष्ण को देखा। जब राम मौजूद है, तब हम पीछे की तरफ देख रहे हैं, उन लोगों को जो राम के पहले हो चुके हैं। जब बुद्ध मौजूद है, तब हम पीछे की तरफ देख रहे हैं, उन लोगों को जो बुद्ध के पहले हो चुके हैं। बुद्ध को देखा हमने। क्राइस्ट को देखा हमने। क्राइस्ट को नहीं देखा, क्राइस्ट के सामने जो लोग मौजूद थे, उन्होंने तो उसे फांसी लगा दी। लेकिन दो हजार साल से दूसरे लोग लौट-लौट कर क्राइस्ट को देख रहे हैं।

बुद्ध को गांव से भागना पड़ा, महावीर को पत्थर मारे गए, सुकरात को जहर पिला दिया, उन लोगों ने जो मौजूद थे। लेकिन दो हजार साल से सुकरात की पूजा चलती है, सुकरात का आदर चलता है। और आज सुकरात पैदा हो जाए, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूं, हम फिर वही करेंगे सुकरात के साथ, जो हमने पहले किया था। क्योंकि हम जिंदा आदमी के साथ, मौजूद के साथ, ठीक सलूक करना जानते ही नहीं। हम तो मरे हुए के साथ व्यवहार करना जानते हैं।

यह जो हमारी पीछे लौट कर देखने की आदत है, आप शायद सोचते होंगे कि यह हमारी महापुरुषों को आदर देने की आदत है? झूठी है यह बात। इसमें महापुरुषों के प्रति कोई आदर नहीं, केवल मुर्दों के प्रति आदर है। महापुरुष जिंदा हो तो कोई आदर नहीं है। वही हम करेंगे, जो हमने पहले किया था।

दोस्तोवस्की ने एक छोटी सी कहानी लिखी है। उसने लिखा है, जीसस क्राइस्ट ने अठारह सौ वर्ष बाद सोचा कि अब तो करीब-करीब एक तिहाई दुनिया ईसाई हो गई है। अब मैं वापस जाऊं। अब तो मेरा स्वागत हो सकेगा, अब तो लोग मेरी बात सुन सकेंगे। अब तो वे पुरोहित न रहे, जिन्होंने मुझे फांसी दी थी। अब तो वे लोग न रहे जो हंसे थे और मजाक उड़ाया था। अब तो वे लोग न रहे, जिनके सामने मैं असफल हो गया और मेरी मृत्यु के सिवाय कुछ भी फलित न हुआ था। मैं जाऊं।

जेरुसलम में एक सुबह, रविवार के दिन, जब कि लोग चर्च से वापस लौट रहे हैं, जीसस क्राइस्ट एक झाड़ के नीचे उतर कर खड़े हो गए। चर्च से लौटते हुए लोग, जो चर्च में जीसस क्राइस्ट की प्रार्थना करके आ रहे हैं, उन्होंने जीसस क्राइस्ट को खड़े देखा, तो भीड़ लगा ली और वे हंसने लगे और वे कहने लगे, कोई अभिनेता मालूम होता है, बिलकुल जीसस क्राइस्ट बन कर खड़ा हुआ है। जीसस क्राइस्ट ने कहा, मैं अभिनेता नहीं, मैं कोई एक्टर नहीं, मैं खुद जीसस क्राइस्ट हूं।

वे लोग हंसने लगे, उन्होंने कहा कि ऐसे पागलपन की बातें मत करो। जीसस क्राइस्ट सिर्फ एक बार हुए हैं और हो चुके हैं। अब दुबारा नहीं हो सकते। जीसस क्राइस्ट ने कहा, मैं खुद कह रहा हूं कि मैं जीसस क्राइस्ट हूं। तुम नहीं मानते? उन्होंने कहा, कहां लिखा है बाइबिल में कि तुम दुबारा आओगे, और इस तारीखों में आओगे। किस शास्त्र में लिखा है, तुम्हारे आने की खबर, जरूर कोई धोखेबाज आदमी मालूम होता है।

जीसस क्राइस्ट तो मन में बहुत घबड़ाने लगे। यह तो वही की वही बातें हैं, जो अठारह सौ वर्ष पहले उनसे लोगों ने कहीं। लेकिन तब तो पुरोहित दूसरों के थे, मंदिर दूसरों के थे, शास्त्र दूसरों के थे। अब तो पुरोहित मेरे हैं, शास्त्र मेरे हैं, ये लोग मेरे हैं, ये भी मुझसे वही बातें कह रहे हैं! जीसस क्राइस्ट को पता नहीं था, जिंदा आदमी के साथ हमेशा वही बातें कही जाती हैं।

और तभी चर्च का पादरी भीड़ लगी देख कर बाहर आ गया। लोगों ने जीसस क्राइस्ट को तो कोई आदर नहीं दिया, लेकिन झुक-झुक कर उस पादरी को वे नमस्कार करने लगे, जो जीसस क्राइस्ट का पादरी है, जो उनका क्रास अपने गले पर लटकाए हुए है। लोग झुक-झुक कर नमस्कार करने लगे। जीसस को बड़ी हैरानी हुई कि मैं स्वयं मौजूद हूं, लेकिन लोग मुझे आदर नहीं कर रहे, इस पुरोहित को…।

लेकिन जीसस क्राइस्ट को पता नहीं, पुरोहित को आदर नहीं दिया जा रहा है। पुरोहित मुर्दा आदमी है, पुरोहित परंपरा का प्रतीक है, उसको आदर दिया जा रहा है। पुरोहित अपनी तरफ से बोले तो अभी अनादर शुरू हो जाएगा। वह परंपरा की तरफ से बोल रहा है, इसलिए उसको आदर है। मुर्दे का आदर है, वह जो डेड, जो समाप्त हो गया है, उसका आदर है। जीवित का कोई आदर नहीं है।

उस पुरोहित ने आकर कहा कि उतर बदमाश, नीचे वहां क्यों खड़ा हुआ है? कौन है तू? जीसस हंसे और उन्होंने कहा, तू भी मुझे नहीं पहचान रहा है, तू तो सुबह से सांझ मेरी ही प्रार्थनाएं करता है। और तभी उस पुरोहित ने कहा, चार आदमी पकड़ कर इसे नीचे उतारो। कोई शरारती आदमी मालूम पड़ता है। उसे ले जाकर चर्च की एक कोठरी में जीसस क्राइस्ट को बंद कर दिया गया। जीसस तो अपने मन में बहुत हैरान हुए। क्या फिर से फांसी लगाई जाएगी? क्या दुबारा सूली पर लटकना पड़ेगा?

आधी रात, दिन बीत गया, जीसस बंद हैं कोठरी में। आधी रात वह पुरोहित आया। उसने ताला खोला। अंधेरे में जाकर लालटेन रखी। जीसस के पैरों पर गिर पड़ा। जीसस ने कहा, क्या करते हो? क्या तुम्हें समझ में आ गया? उसने कहा, समझ में मुझे वहां भी आ गया था, लेकिन बाजार में हम तुम्हें नहीं पहचान सकते हैं। तुम हमारा सारा धंधा खराब कर दोगे। हम मुश्किल से अठारह सौ साल में दुकान जमा पाए, आप फिर आ गए। आप जैसे लोग हमेशा डिस्टर्ब करते हैं, हमेशा गड़बड़ कर देते हैं। सब जमा हुआ उखाड़ देते हैं। हम भीड़ में आपको नहीं पहचान सकते हैं। आप स्वर्ग में रहो, वह बहुत अच्छा, हम पूजा करेंगे। जमीन पर आपकी कोई भी जरूरत नहीं। हम आपका काम भलीभांति सम्हाल लेते हैं। आपके यहां आने की कोई जरूरत नहीं। नहीं तो याद रखना, फिर वही होगा, फिर हमें सूली लगानी पड़ेगी। और मैं तुम्हें बताए देता हूं, उस पुरोहित ने कहा, जिन पुरोहितों ने तुम्हें पहले सूली लगाई थी, वे भी भलीभांति पहचानते थे कि तुम आदमी ठीक हो। लेकिन ठीक आदमी हमेशा गड़बड़ करते हैं। आप कृपा करें, आपका स्वर्ग में ही निवास अच्छा है, पृथ्वी पर आने की कोई भी जरूरत नहीं है।

शायद जीसस क्राइस्ट उसकी बात से राजी हो गए होंगे, क्योंकि उस कोठरी के बाद क्या हुआ, फिर कुछ भी पता नहीं। वे वापस लौट गए होंगे।

अगर महावीर वापस लौट आएं, तो मैं आपसे कहता हूं, जैनियों के अतिरिक्त और कोई भी उन्हें पहचान सकता है, जैनी उन्हें नहीं पहचान सकते। अगर राम वापस लौट आएं, तो हिंदुओं के अतिरिक्त कोई भी उन्हें पहचान सकता है, लेकिन हिंदू उन्हें नहीं पहचान सकते। हमारी आंख अतीत के प्रति इतने व्यामोह से घिरी है कि वर्तमान को कभी भी नहीं देख पाती।

यह झूठा है आपका खयाल कि अतीत के प्रति आदर, महापुरुषों के प्रति आदर है। महापुरुषों के प्रति नहीं; मुर्दों के प्रति, मृत के प्रति, जो बीत गया।

मृत के प्रति हम क्यों आदर देते हैं? उसके पीछे भी कारण है। मृत के हम पूरे मालिक हो सकते हैं, ओनरशिप हो सकती है। जीवित के हम मालिक नहीं हो सकते। अगर राम जिंदा हैं, तो हम कुछ भी नहीं कह सकते कि राम क्या करेंगे और क्या नहीं करेंगे? लेकिन मरे हुए राम क्या करेंगे और क्या नहीं करेंगे, हम उसकी व्याख्या कर सकते हैं, निर्णय कर सकते हैं। मरे हुए राम हमारे विरोध में कुछ भी नहीं कह सकते, मरे हुए राम हमारे हाथ की कठपुतली हैं।

सब मृत महापुरुषों को हमने हाथ की कठपुतली बनाया हुआ है। जिंदा छोटा सा आदमी भी हाथ की कठपुतली नहीं हो सकता, महापुरुष तो हाथ की कठपुतली कैसे हो सकते हैं? इसलिए मृत को हम आदर दे पाते हैं, क्योंकि वह हमारे हाथ में होता है, पूरे हमारे शिकंजे में होता है। वह कैसे उठे, कैसे बैठे, हम सब निर्णय कर सकते हैं। वह क्या बोले और क्या न बोले, इसका हम निर्णय कर सकते हैं। वह कपड़े पहने या न पहने, इसका हम निर्णय कर सकते हैं।

हम सब निर्णय कर सकते हैं मृत के बाबत, क्योंकि मृत विरोध करने को नहीं आ सकता। लेकिन जीवित के बाबत हम कुछ भी निर्णय नहीं कर सकते और जितना जीवंत व्यक्ति होगा, उतना ही अनिर्णीत होता है। उसके बाबत हम कोई घोषणा नहीं कर सकते। यह महापुरुषों के प्रति आदर नहीं, यह अपने अहंकार की तृप्ति है। उनको हम अपनी मुट्ठी में बंद करके बैठ जाते हैं और वे बेचारे कोई विरोध नहीं कर सकते, क्योंकि जीवित होते तो विरोध करते।

हम बदला ले रहे हैं महापुरुषों से। जब वे जीवित थे, तब हम उनको अपने हाथों में बंद नहीं कर सके, उनको अपना गुलाम नहीं बना पाए, उन पर हम जंजीरें नहीं पहना पाए। जब से वे मर जाते हैं, तब से हम उनके मालिक हो जाते हैं। और हम हर तरह की जंजीरें और हम हर तरह की गुलामी लेकर पूरा बदला चुका देते हैं। यह महापुरुषों के प्रति आदर नहीं, रिवेंज है, बदला है।

गांधी जिंदा है, तो हम गांधी को मुट्ठी में नहीं बांध सकते। गांधी मर जाएं, बस फिर हमारी मुट्ठी काम करना शुरू कर देगी। फिर गांधी के पंडित और गांधी के अनुयायी और गांधी के वाद को मानने वाले पीछे खड़े हो जाएंगे। वे गांधी के ऊपर सब तरह का शिकंजा कस लेंगे। गांधी फिर उनकी मुट्ठी की चीज हैं। गांधी से क्या बुलवाना है, वे गांधी बोलेंगे। क्योंकि मुर्दा गांधी क्या कर सकते हैं?

जीवित व्यक्ति बहुत अनिश्चित घटना है। उस पर हमारा कोई कब्जा नहीं होता। यह परंपरा के प्रति हमारा जो मोह है, आप सोचते होंगे कि शायद यह हमारे जीवन को सुधारने की कला के प्रति मोह है, शायद हम जीवन को समृद्ध करना चाहते हैं?

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि अगर परंपरा को हम छोड़ दें, संस्कृति को छोड़ दें, तो फिर हमारे जीवन का संस्कार कैसे होगा, हमारा जीवन विकसित कैसे होगा?

यह मामला वैसे ही है जैसे कोई बीमार आदमी कहे कि अगर मैं बीमारी को छोड़ दूं, तो मैं स्वस्थ कैसे होऊंगा! संस्कृति इतने दिनों से है, मनुष्य संस्कृत हुआ? परंपराएं इतने दिनों से हैं, मनुष्य के जीवन में कौन सी सभ्यता आ गई? मनुष्य के जीवन में क्या अवतरित हो गया? इतने हजारों साल से बातें सिखाई गई हैं, आदमी वहीं के वहीं है। आदमी में कौन सा बुनियादी भेद पड़ गया है? आदमी की चोरी बदल गई? आदमी की बेईमानी बदल गई? आदमी की अनैतिकता बदल गई? क्या बदल गया? कौन सी बात बदल गई?

आदमी वही का वही है, आदमी में कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ गया। और मैं आपसे कहना चाहता हूं, यह फर्क पड़ेगा भी नहीं, क्योंकि जिस चीज को हम इलाज समझ रहे हैं, वह बीमारी का कारण है।

पुराने संस्कारों के कारण आदमी का जीवन नहीं बदलता। आदमी का जीवन बदलता है–जीवंत चेतना के विकसित होने से। संस्कारों से चेतना क्षीण होती है, दबती है। जैसे दर्पण पर कोई धूल जमा दे, तो धूल से दर्पण निखरता नहीं; दब जाता है, ओझल हो जाता है, फिर उसमें प्रतिबिंब बनने बंद हो जाते हैं। धूल दर्पण को सजाती नहीं है, मिटाती है। धूल संस्कार करती है उसके ऊपर। लेकिन हम सारी धूल को झाड़ दें, दर्पण अकेला रह जाए, तो दर्पण प्रतिबिंब पकड़ने में समर्थ हो जाता है, स्वच्छ हो जाता है।

मनुष्य की चेतना पर संस्कार जितने शून्य हो जाएं, चेतना का दर्पण उतना ताजा, उतना जीवंत, उतना नया हो जाता, उतनी फ्रेशनेस चेतना को उपलब्ध होती है। चेतना पर संस्कारों की कोई भी जरूरत नहीं है। चेतना पर तो जितने संस्कार शून्य हो, चेतना जितनी अनकंडीशंड हो; उतनी ही चेतना जीवंत, ताजी और नई होती है।

लेकिन इसका क्या मतलब? क्या मैं यह कह रहा हूं कि मनुष्य की स्मृति मिटा दी जाए? नहीं; मनुष्य की स्मृति अलग बात है और मनुष्य की चेतना का संस्कारों में दबा होना अलग बात है।

स्मृति चेतना का हिस्सा नहीं है। जैसे आप अपने घर में घर के कूड़े-कबाड़ को इकट्ठा करने के लिए एक स्टोर रूम बना रखते हैं, वहां सब जो घर में व्यर्थ है, इकट्ठा कर देते हैं। कभी जरूरत होती है तो निकाल लाते हैं, अन्यथा उसे बंद रखते हैं। न मेहमानों को उसके भीतर ले जाते हैं, न घर में आए लोगों को उस स्टोर रूम में घुमाते हैं। स्टोर रूम को इस भांति रखते हैं कि किसी को पता ही न चले कि स्टोर रूम भी है। वह बैठक घर में नहीं है, स्टोर रूम के सामान आप रखे होते हैं।

स्मृति स्टोर रूम है चेतना का। चेतना ने जो जान लिया, उसे स्मृति के स्टोर रूम में इकट्ठा कर देती है। जरूरत होगी तो निकाल लेगी, नहीं जरूरत होगी तो स्टोर रूम बंद पड़ा रहेगा। स्मृति चेतना पर छानी नहीं चाहिए। स्मृति चेतना का स्टोर रूम है। जो जान लिया गया, उसे छोड़ दिया गया। कभी जरूरत होगी, उसे हम निकाल लेंगे।

जब मैं यह कहता हूं कि अतीत को भूल जाइए, उसका मतलब यह नहीं कि अभी आप यहां से उठ कर जाएंगे, तो आप भूल जाएं कि आपका घर कहां है, क्योंकि वह तो अतीत हो गया, कि आप रास्ते पर भूल जाएं कि बाएं चलना है कि दाएं चलना है। यह मैं नहीं कह रहा हूं। ये आपकी स्मृति के हिस्से हैं। ये आपके एक कोने में मन के रखे हुए हैं। चेतना को जरूरत होती है, इन्हें निकाल लेती है। लेकिन ये चेतना के ऊपर छाए हुए नहीं रहते। ये चेतना के ऊपर चेतना को ढांके हुए नहीं रहते। चेतना मुक्त है निरंतर। और वही चेतना स्मृति का ठीक उपयोग कर सकती है, जो स्मृति से मुक्त हो। जितनी स्मृति से बंधी होगी, उतनी ही स्मृति का ठीक उपयोग करना मुश्किल हो जाता है।

आपको याद होगा, एक मित्र दिखाई पड़ता है, आपको खयाल आता है, चेहरा पहचाना हुआ है, नाम भी मालूम है, लेकिन भूल गया–लगता है कि मुझे मालूम है कहीं, लेकिन स्मरण नहीं आ रहा है। आप पूरी कोशिश करते हैं याद करने की और याद नहीं आता। फिर आप छोड़ देते हैं खयाल। आप बैठ कर चाय पीने लगते हैं या अपनी बगिया में काम करने लगते हैं, अचानक आप पाते हैं, आधा घड़ी बाद, वह नाम चेतना में उठ कर ऊपर आ गया है, आपको खयाल आ गया है, उस आदमी का नाम क्या है।

क्या हुआ?

जब आप याद करने की कोशिश कर रहे थे, तब याद नहीं आया और जब आपने याद करने की कोशिश छोड़ दी, तब याद आया। यह क्यों हुआ? जब आप याद करने की कोशिश कर रहे थे, तब स्मृति चेतना से जकड़ गई। जब आप याद करने की कोशिश नहीं कर रहे थे, चेतना मुक्त हो गई। मुक्त चेतना स्मृति का ज्यादा उपयोग कर पाती है, बंधी हुई चेतना की बजाय। तो जितना व्यक्ति की चेतना स्मृतियों से, संस्कारों से मुक्त होगी, उतना ही सम्यक उपयोग जीवन ने जो जाना है, उसका किया जा सकता है। लेकिन उसके साथ बंधने की कोई भी आवश्यकता नहीं है।

एक छोटे बच्चे को स्कूल में सिखाते हैं, ग–गणेश का; उसे हम सिखाते हैं, ग–गणेश का। एक-एक शब्द सिखाते हैं–कौन किसका। अगर बड़ा होकर भी वह जब पढ़े, तो पढ़े कि ग–गणेश का, तो हम कहेंगे, यह बच्चा पागल है। भूल जाना था यह कि ग–गणेश का। गणेश भूल जाना था, ग रह जाना था। गणेश को भी अगर पकड़ लिया जाए, तब तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। जो तरकीब हमने ग सिखाने के लिए ईजाद की थी, वही तरकीब ग को नष्ट करने का कारण हो जाएगी।

स्मृतियां, संस्कार उपयोगिताएं हैं, उनकी यूटिलिटी है, लेकिन वे चेतना के बंधन नहीं बन जाने चाहिए। चेतना उनसे जकड़ नहीं जानी चाहिए। चेतना हमेशा मुक्त होनी चाहिए। जितनी चेतना मुक्त होगी, उतने प्रतिक्षण जीवन से आते नये संस्कारों को अंगीकार कर सकेगी, जितनी मुक्त होगी, उतना अंगीकार कर सकेगी। और अंगीकार करके अगर उनसे जकड़ जाएगी, तो आगे के द्वार फिर बंद हो जाएंगे। संस्कारों को आने दें और स्मृति के कोषगृह में जाने दें और चेतना को मुक्त रहने दें। तो चेतना निरंतर जानने को मुक्त है। द्वार खुला है, ओपन है, जीवन जो भी लाएगा, हम उसे स्वीकार करने को हमेशा तैयार हैं, अन्यथा फिर हम जकड़ जाते हैं।

एक घटना मुझे स्मरण आती है। पेरिस महानगरी का एक मेयर न्यूयार्क गया था। उसे जाकर स्वतंत्रता की प्रतिमा, न्यूयार्क के मेयर ने उसे दिखाई। स्वतंत्रता की प्रतिमा जब वह देख रहा था, तब न्यूयार्क के मेयर ने उससे पूछा कि मित्र, आपको इस प्रतिमा को देख कर किस बात की याद आती है? उस फ्रेंच मेयर ने कहा, आई एम रिमाइंडेड ऑफ सेक्स। उसने कहा, मुझे सिर्फ सेक्स की याद आती है। वह न्यूयार्क का मेयर थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा, मुझे कामवासना की याद आती है इस मूर्ति को देख कर। फिर उसने सोचा न्यूयार्क के मेयर ने, हो भी सकता है, स्त्री की प्रतिमा है, स्मरण आ सकता है।

फिर उसे वह यू.एन.ओ. की बिल्डिंग दिखाने ले गया और उसने उससे फिर पूछा कि आपको इस भवन को देख कर किस बात की याद आती है? उसने कहा, सेक्स। वह तो बहुत हैरान हुआ! उसने फिर कहा कि मुझे कामवासना की याद आती है। उस न्यूयार्क के मेयर ने कहा कि अब तो मेरे बरदाश्त के बाहर है। इस भवन को देख कर आपको सेक्स की याद आती है? उस फ्रेंच मेयर ने कहा, एवरी थिंग रिमाइंड्स मी ऑफ सेक्स, बिकाज आई एम ए फालोअर ऑफ सिगमंड फ्रायड। मुझे तो हर चीज पर सेक्स की याद आती है, क्योंकि मैं सिगमंड फ्रायड का अनुयायी हूं। मुझे तो हर चीज में बस एक ही चीज की याद आती है।

एक सिद्धांत ने उसकी चेतना को जकड़ लिया। अब हर चीज को देखता है, तो वही सिद्धांत बीच में खड़ा हो जाता है। हर चीज को देखता है तो वही…। वह फालोअर है किसी का। कोई संस्कार उसने जोर से पकड़ लिया, चेतना पर एक संस्कार छा गया। हमें क्रोध आएगा उस आदमी पर, हमें हैरानी होगी। लेकिन गीता से जो पकड़ जाता है, उसे हर चीज में गीता की ही याद आती है, तब हमें हैरानी नहीं होती। जो आदमी रामायण से जकड़ जाता है, उसे जीवन का कोई भी मसला हो, रामायण की चौपाई फौरन याद आती है। तब हमें खयाल नहीं आता कि यह आदमी जकड़ गया। जो आदमी माक्र्स से जकड़ जाता है, उसे कुछ भी बात हो जाए, उससे कम्युनिज्म निकलता हुआ मालूम होता है।

ये सारी चेतनाएं कंडीशंड हो गईं। ये किसी संस्कार से जकड़ गईं। इन्होंने किसी परंपरा को पकड़ लिया। अपनी स्वतंत्रता खो दी। और अब जीवन को जिस ढंग से भी वे देखेंगे, वह पुराना नक्श, वह पुरानी पकड़ हमेशा बीच में आ जाएगी। कोई चश्मा आंख पर हो गया, उससे ही वे देखेंगे। यह देखना दूषित देखना है, यह देखना दर्शन नहीं है, यह देखना अंधापन है।

एक आदमी बहुत दिन से गाय खरीदने की सोच रहा था। उसने बहुत पैसे इकट्ठे किए और फिर एक गाय खरीद लाया। लेकिन वह बहुत गरीब आदमी था। जहां से गाय खरीद कर लाया था, वह राजमहलों की गाय थी। उसे अच्छे से अच्छा घास खाने को मिलता था। उस गरीब के पास तो सूखा भूसा था। उसके पास हरी घास नहीं थी। उसने गाय के सामने रखी। गाय ने खाने से इनकार कर दिया। गाय को तो हरी घास खाने की आदत थी। सूखा भूसा भी भोजन हो सकता है, यह उसकी कल्पना के बाहर था। उसने देखा, वहां हरी घास नहीं है, उसने मुंह एक तरफ फेर लिया।

एक दिन बीत गया, दो दिन बीत गया, वह गरीब आदमी तो घबड़ा गया। गाय तो बीमार पड़ने लगी। उसने गांव के एक फकीर से जाकर पूछा कि मैं क्या करूं? मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं, मैं गरीब आदमी हूं, मैं राजमहल की गाय खरीद लाया। गरीब आदमी अक्सर ऐसी भूल में पड़ जाते हैं। राजमहलों की गायें खरीद लाते हैं, फिर पीछे पछताते हैं। मैं क्या करूं? और उस फकीर ने कहा, तू एक काम कर। बाजार से जाकर एक हरे रंग का चश्मा खरीद ला और गाय को पहना दे। उसने कहा, क्या गाय धोखा खा जाएगी? उस फकीर ने कहा, आदमी धोखा खा जाता है, गाय का क्या है! बस चश्मा हरे रंग का खरीद ला। गाय कंडीशंड है। गाय को हरी घास ही भोजन मालूम पड़ती है, और कोई चीज भोजन नहीं मालूम पड़ती। हरी घास देखने की पकड़ है उसकी चेतना पर, हरी घास दिखाई पड़नी चाहिए, काम हो जाएगा।

उस आदमी को विश्वास तो नहीं हुआ, लेकिन मजबूरी थी, एक चश्मा खरीद लाया और गाय की आंख पर पहना दिया। वह देख कर हैरान हुआ! गाय चश्मे के लगाते ही भूसे को चरना शुरू कर दी। अब उसको अपनी आंख से जो देखने की आदत थी वह दिखाई पड़ने लगा, हरी चीजें दिखाई पड़ने लगीं।

हम सब भी इसी तरह कंडीशंड हैं। अगर कुरान हमारे सामने कोई रख दे, तो गीता पढ़ने वाले को कुरान में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है; सूखा भूसा दिखाई पड़ता है, हरी घास दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन कोई विनोबा या कोई और कुरान में से वे पंक्तियां निकाल कर रख दें, जो गीता में लिखी हुई हैं, फिर हरी घास दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है, फिर दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है कि ठीक बात है।

हमारी आंखें निर्णीत हो गई हैं। हमने द्वार बंद कर लिए हैं। हमारी प्रिज्युडिस, हमारा पक्षपात मजबूत और पक्का हो गया है। इसको हम परंपरा कहते हैं। और इस परंपरा से जो आदमी जकड़ा हुआ है, उसे सत्य का साक्षात कैसे हो सकता है? फिर वह इन्हीं कंकड़-पत्थरों में जीएगा, हीरे-जवाहरात उसे नहीं मिल सकते।

एक और मित्र ने पूछा है कि अगर हम परंपरा को छोड़ दें, तब तो सारा ज्ञान ही छूट जाएगा।

ज्ञान परंपरा से न तो मिलता है और न छूट सकता है। परंपरा से ज्ञान मिलता होता, तो परंपरा के छोड़ने से ज्ञान छूट जाता। परंपरा से मिलते हैं केवल शब्द, कोरे और थोथे शब्द, और मिलता है अहंकार इस बात का कि मैं जानता हूं। ज्ञान नहीं मिलता।

आपने ईश्वर के संबंध में इतनी बातें सुनी हैं, क्या आपको ईश्वर का ज्ञान हो गया? ईश्वर के संबंध में कितनी किताबें पढ़ी हैं, ईश्वर का ज्ञान हो गया?

नहीं; शब्द इकट्ठे हो गए हैं। और कोई आपसे पूछेगा, ईश्वर को जानते हैं? तो शायद अहंकारवश यह कहना भी मुश्किल हो कि मैं नहीं जानता हूं। कहेंगे हां, जानता हूं, ईश्वर है। अगर कोई कहे, ईश्वर नहीं है, तो विवाद करने को और झगड़ा करने को भी खड़े हो सकते हैं। और कभी नहीं पूछेंगे कि आप जानते क्या हैं? जानते हैं हम ईश्वर को? बिलकुल भी नहीं।

जानने के तल पर हमारी कोई समझ नहीं है। लेकिन शब्द इकट्ठे हो गए हैं। और कोई भी आदमी यह बात मानने को राजी नहीं होना चाहता कि मैं नहीं जानता हूं। इसलिए हम उन बातों को भी हां भरते चले जाते हैं, जिन्हें हम नहीं जानते हैं–सिर्फ अहंकार के कारण। और इस तरह दुनिया में हजारों झूठ प्रचलित हो गए हैं। और बच्चों को हम बचपन से ही झूठ सिखाना शुरू कर देते हैं। जो हम नहीं जानते, वह भी बच्चों से कहते हैं कि हम जानते हैं। और उनको भी कहते हैं कि तुम भी मानो। मानने से धीरे-धीरे तुम भी जान लोगे। मानने से कभी कोई जानता है? मानने से धीरे-धीरे यह भूल जाएगा कि मैं नहीं जानता हूं। जान नहीं सकेगा। मानने से शुरू करेगा, धीरे-धीरे भ्रम पैदा हो जाएगा कि मैं जानता हूं। फिर इनकार करना उसे मुश्किल हो जाएगा।

दूसरे महायुद्ध में, किसी देश में सैनिकों की भर्ती हो रही थी। जल्दी-जल्दी सैनिक चाहिए थे। हर कोई भर्ती हो रहा था। एक आदमी सैनिक भर्ती के दफ्तर में गया, एक जवान आदमी। उसने फार्म भरा। जो अफसर उसे भर्ती करने को था, उसने पूछा, वह नौ-सेना का, जल-सेना का अधिकारी था और जल-सेना की भर्ती कर रहा था। उसने पूछा कि मित्र, तुम अब तक कौन सा काम करते रहे हो? उस आदमी ने कहा, मैं? उसने कहा, आई एम एन ऊगल-गूगल मेकर, कि मैं ऊगल-गूगल बनाने वाला आदमी हूं।

अब यह ऊगल-गूगल कभी उस अफसर ने जीवन में सुना भी नहीं था कि क्या चीज है? यह ईश्वर, आत्मा जैसा शब्द मालूम पड़ा। लेकिन अगर वह यह कहे कि मैं नहीं जानता, ऊगल-गूगल क्या है, तो यह आदमी क्या सोचेगा? इतना बड़ा आफिसर, और जानता नहीं कि ऊगल-गूगल क्या है? उसने कहा, अच्छा-अच्छा, तो तुम ऊगल-गूगल बनाते हो? जल-सेना में तो जरूरत भी होती है ऐसे आदमियों की। उसने जल्दी से उसको फार्म दिया कि कहीं इसे पता न चल जाए कि मैं नहीं जानता हूं कि ऊगल-गूगल क्या होता है। उसने सोचा जरूर जल-सेना में कोई चीज होती होगी–ऊगल-गूगल!

उस आदमी को उसने, जल-सेना का जो इंजीनियर था, उस स्टाफ में, उसके पास भेजा। उसने भी पूछा, आप क्या करते हैं? उसने कहा, मैं ऊगल-गूगल बनाता हूं। उस आदमी ने कहा, जब बड़े आफिसर ने इसे भर्ती किया है, तो ऊगल-गूगल जरूर कोई चीज होती होगी। और मैं क्यों फंसूं, कहूं कि मैं नहीं जानता। मैं हूं इंजीनियर, मुफ्त फंस जाऊंगा कि तुम इंजीनियर हो, तुम्हें यह भी पता नहीं कि ऊगल-गूगल क्या होता है? उसने कहा, अच्छा तो आप ऊगल-गूगल बनाते हैं। यह काम तो सीधे कैप्टेन के अंतर्गत आता है, आप कैप्टेन के पास चले जाइए।

वह आदमी कैप्टेन के पास पहुंच गया। उसने भी पूछा, आप क्या बनाते हैं? उसने कहा, मैं ऊगल-गूगल बनाता हूं। कैप्टेन ने कहा, दो आदमियों ने इसे भेज दिया है, उन्होंने इस बात को स्वीकार नहीं किया कि हम नहीं जानते हैं। मैं क्यों फंसूं? उसने कहा, अच्छा तो आप ऊगल-गूगल बनाते हैं। तो बाजार में जैसे ऊगल-गूगल बिकते हैं, वैसे ही बनाते हैं कि कोई स्पेशल क्वालिटी बनाते हैं? उस आदमी ने कहा कि मैं तो जरा अलग ही ढंग की चीज बनाता हूं। कैप्टेन ने कहा, अच्छी बात है, तो आपके लिए क्या सामान की जरूरत होगी बनाने के लिए? क्योंकि जहाज में बड़ी जरूरत होती है ऊगल-गूगल की।

उसने कहा, मुझे छोटी सी वर्कशाप चाहिए। कुछ नहीं, एक छोटा कमरा चाहिए और ताला चाहिए, ताकि मैं भीतर बैठ कर काम कर सकूं। और मेरा सीक्रेट किसी को पता न चल जाए इसलिए यह दरवाजा बंद रहना चाहिए। एक ऊगल-गूगल कितने दिन में बन जाता है, उस कैप्टेन ने पूछा? उसने कहा, तीन दिन लगते हैं। सामान क्या चाहिए? उसने कहा, औजार मेरे पास हैं, सिर्फ टीन के कुछ चद्दर-पत्तर मुझे चाहिए। वह आप पहुंचा दें।

आप शुरू करिए। ऊगल-गूगल हमने बहुत देखे हैं, लेकिन विशेष आप बनाते हैं, तो हम देखना चाहते हैं। अब वह मन में प्राण चिंतित हो रहा कि यह ऊगल-गूगल बला क्या है? लेकिन कोई इस बात को मानने को राजी नहीं होना चाहता है कि मैं नहीं जानता हूं।

उस आदमी को एक केबिन दे दी गई, ताला डाल दिया गया। वह भीतर तीन दिन तक ठोंक-पीट करता रहा। बड़ी आवाजें आती रहीं। पूरे जहाज पर खबर फैल गई, ऊगल-गूगल! लेकिन सब अपने मन में सोचते थे कि ऊगल-गूगल क्या है? यह ईश्वर क्या है? आत्मा क्या है? मोक्ष क्या है? लेकिन कौन कहे कि ऊगल-गूगल क्या है? क्योंकि जो पूछेगा, वही समझा जाएगा अज्ञानी। बाकी लोग हंसेंगे। बाकी लोग सब ऐसा मालूम पड़ रहे हैं कि जानते हैं। कौन फंसे? सब कहते थे भई, ऊगल-गूगल बन रहा है, तीन दिन के भीतर बन जाएगा।

कोई पूछता नहीं था, यह ऊगल-गूगल है क्या? तीन दिन में तो सारे जहाज में एक ही हवा हो गई। हर आदमी उत्सुक हो गया। लोगों की नींद खो गई कि बला क्या है यह ऊगल-गूगल?

तीसरा दिन आ गया। सारे लोग केबिन के आस-पास इकट्ठे हो गए। अंदर ठोंक-पीठ चल रही है। फिर कैप्टेन की भी हिम्मत टूट गई, उसने जाकर दरवाजा ठोंका और कहा, भई, तीन दिन हो गए, अगर बन गया हो तो बाहर आओ। उसने कहा, पांच मिनट और। चीज तैयार हुई जा रही है। फिर आखिरी चोटें हुईं। सारी भीड़ इकट्ठी हो गई है। कोई किसी से नहीं कह रहा है कि ऊगल-गूगल क्या है? सब जानना चाहते हैं, क्या है? किसी को पता नहीं है।

फिर दरवाजा खुला, वह आदमी बाहर निकला। सब उसकी तरफ देखने लगे। कैप्टेन ने पूछा, कहां है ऊगल-गूगल? उसने अपने पीठ के पीछे से एक चीज निकाली, जैसे कोई टीन के डिब्बे को सब तरफ से पीटा गया हो, इस तरह की शक्ल थी उसकी। उसने कहा, यह ऊगल-गूगल है। अब सब बड़े हैरान हुए! उन्होंने कहा, इसका उपयोग क्या है? यह किस काम में आता है? उसने कहा, आइए मेरे साथ। वह जाकर जहाज के किनारे ले गया और उसने अपने ऊगल-गूगल को पानी में फेंका। जब वह डब्बा पानी में डूबने लगा, तो उससे आवाज निकली–ऊगल-गूगल! यह ऊगल-गूगल था!

लेकिन एक भी आदमी उस जहाज पर यह नहीं कह सका, यह क्या बेवकूफी है? किस चीज का नाम है? क्योंकि हमारे भीतर यह अहंकार बड़ा प्रबल है कि हम जानते हैं।

एक आदमी ईश्वर के बाबत बातें करता रहता है, आत्मा के बाबत, पुनर्जन्म के बाबत। मृत्यु के बाद–मोक्ष, नरक और स्वर्ग। और लोग बैठे सुनते रहते हैं, जैसे कि वह आदमी किन्हीं चीजों की बात कर रहा हो, जिनको जानता है। सुनने वाले भी ऐसे सुनते हैं कि हम भी जानते हैं। बोलने वाला भी शब्द जानता है, सुनने वाले भी शब्द जानते हैं। उनके शब्द मेल खाते हैं, परिचित मालूम होते हैं। वे दोनों राजी मालूम होते हैं कि बिलकुल ठीक है, बिलकुल ठीक है। बिलकुल ठीक है, यह बात बिलकुल सही कही जा रही है।

दुनिया में एक गहरा डिसेप्शन, एक प्रवंचना, एक धोखा चल रहा है शब्दों के नाम पर–ज्ञान का। परंपरा से कोई ज्ञान उपलब्ध नहीं होता, केवल शब्द उपलब्ध होते हैं। और शब्दों को हम ज्ञान समझ कर बैठ जाते हैं।

इसलिए जब मैं कहता हूं, छोड़ दें, तो डर लगता है, हमारा ज्ञान छूट जाएगा। ज्ञान है ही नहीं। क्योंकि स्मरण रखें, अगर ज्ञान है, तो इस दुनिया में कोई भी उसे छीन नहीं सकता है। उसके छूटने का कोई उपाय नहीं है। ज्ञान से आप छूट नहीं सकते हैं। जो छूट सकता है, वह अज्ञान है। जो नहीं छूट सकता है उसका नाम ज्ञान है।

ज्ञान है स्वभाव, उसे आपसे अलग नहीं किया जा सकता। अज्ञान आपसे अलग किया जा सकता है। तो अगर किसी ज्ञान के छूटने का डर हो, तो फौरन समझ लेना कि छूटने का डर इस बात की खबर देता है कि वह ज्ञान नहीं है। जो चीज छूट सकती है, वह ज्ञान नहीं हो सकती।

आपके पास कोई ऐसा ज्ञान है, जिसके छूटने का डर पैदा नहीं होता हो?

धर्मग्रंथ कहते हैं, विरोधी की बात मत सुनना, कान बंद कर लेना। क्योंकि उसकी बात सुनने से ज्ञान छूट जाता है। ईश्वर विश्वासी कहते हैं, नास्तिक की बातें मत सुनना, बातें सुनने से विश्वास डिग जाता है। यहां तक मजे की बातें है, हिंदुस्तान में, हिंदुस्तान के बाहर भी–हिंदुस्तान में जैनों और हिंदुओं के बीच, पुराने विवाद रहे सिद्धांतों के, शब्दों के, परंपराओं के। तो जैन ग्रंथों में लिखा हुआ है कि अगर कोई पागल हाथी भी किसी हिंदू के पीछे दौड़ रहा हो और जैन मंदिर आ जाए, तो जैन मंदिर में शरण मत लेना; पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना बेहतर है, लेकिन जैन मंदिर में शरण मत लेना, वह ज्यादा बड़ा पाप है। क्योंकि वहां ऐसी बातें सुनाई पड़ सकती हैं कि तुम्हारा सारा ज्ञान गड़बड़ हो जाए।

ठीक यही बात हिंदुओं के ग्रंथ में भी लिखी है, ठीक यही बात जैनों के ग्रंथ में भी लिखी है। जैनों के ग्रंथ भी यही कहते हैं कि हिंदू मंदिर में शरण मत लेना, पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना। दुनिया भर के धर्म यह कहते हैं, दूसरे की बात मत सुनना, दूसरे की किताब मत पढ़ना, दूसरे से बचना, कहीं तुम्हारा ज्ञान गड़बड़ न हो जाए! और कोई भी यह नहीं पूछता कि जो चीज गड़बड़ हो सकती है, उसे ज्ञान कहने का कोई भी कारण है? जो चीज डगमगा सकती है, उसे भी ज्ञान मानने की कोई वजह है?

असल में, वह ज्ञान ही नहीं है; केवल शब्द हैं और विपरीत शब्दों से शब्द कट सकते हैं। वह ज्ञान नहीं है, केवल आर्ग्युमेंट है, केवल तर्क है और विपरीत तर्क से तर्क कट सकते हैं। वह ज्ञान नहीं है, केवल परंपरा है और भिन्न परंपरा से दूसरी परंपरा कट सकती है। परंपरा परंपरा को काट सकती है, शब्द शब्द को काट सकते हैं, तर्क तर्क को काट सकते हैं, लेकिन ज्ञान को कोई भी नहीं काट सकता है। ज्ञान अकाटय है। जब आप कुछ जानते हैं वस्तुतः तो इस जगत में कुछ भी उसे नहीं काट सकता है। ज्ञान सब कुछ काट देता है, लेकिन ज्ञान स्वयं अकाटय है और अगर ज्ञान भी कटता हो, तो दो कौड़ी मूल्य का है। उसे सम्हाल रखने की कोई भी जरूरत नहीं।

ज्ञान नहीं नष्ट हो जाएगा, शब्द नष्ट हो जाएंगे और शब्द नष्ट हो जाएं, तो ज्ञान के जन्म की संभावना शुरू होती है। जितना निःशब्द मन हो, शब्दों पर जितनी पकड़ कम हो, उतना ही मन शांत, शून्य में प्रवेश करता है और उस शून्य से उसका जन्म हो सकता है, जिसे हम ज्ञान कहते हैं।

ज्ञान के लिए शब्दों से भरा हुआ मन नहीं, निःशब्द चेतना चाहिए। ज्ञान के लिए शांत और मौन मन चाहिए, सायलेंट माइंड चाहिए। इतना चुप कि कोई शब्द न हो। जैसे अंधेरी रात में घनी चुप्पी है, किसी जंगल में मौन है–ऐसा मौन, ऐसी शांति जब भीतर हो, तब, तब उस तरफ हमारे पैर बढ़ते हैं, जो ज्ञान का मंदिर है।

लेकिन हम शब्दों को इकट्ठा करके सोचते हैं कि हमने ज्ञान पा लिया है। इससे बड़ी भूल और कुछ भी नहीं हो सकती है। शब्दों से आज तक ज्ञान नहीं मिला और न मिल सकता है। शब्द केवल संकेत हैं। शब्द केवल संकेत हैं, संकेतों से कोई ज्ञान नहीं मिलता। ज्ञान तो मिलता है अनुभूति से, एक्सपीरिएंस से, और अनुभूति बड़ी और बात है।

एक आदमी तैरने के संबंध में सारे शास्त्र पढ़ डाले और उसे ले जाकर आप अगर भाषण करवाना हों, तो वह तैरने के बाबत भाषण कर सके। अगर पी.एच.डी. की थीसिस लिखवानी हो, तो वह तैरने के संबंध में थीसिस लिख सके। अगर विवाद करवाना हो, तो तैरने के संबंध में विवाद कर सके। लेकिन भूल कर भी उसे समुद्र में धक्का मत दे देना। उसका पढ़ा हुआ ज्ञान तैरने के काम नहीं आ सकता है। उसके तैरने के संबंध में दिए गए व्याख्यान और थीसिस तैरने की जगह नहीं ले सकती। वह आदमी डूबने लगेगा और चिल्लाने लगेगा कि मुझे बचाओ, मैं तैरना नहीं जानता हूं।

वह तैरना जानता है या नहीं जानता है, यह तो सागर में उतरने पर पता चलेगा। यह कोई शब्दों से पता नहीं चल सकता है। लेकिन जीवन के संबंध में हमने शब्द सीख रखे हैं और उन शब्दों से ही हम समझते हैं कि हम जीवन का सागर पार हो जाएंगे।

मैं आपसे कहता हूं, एक तैरना न जानने वाला, हो सकता है नदी पार भी हो जाए, लेकिन जीवन के सत्य को न जानने वाला, जीवन के सागर को पार नहीं हो सकता।

लेकिन यह धोखा चल जाता है। यह धोखा इसलिए चल जाता है कि हमारे आस-पास भी शब्दों को जानने वाले लोग ही होते हैं। यह धोखा इसलिए चल जाता है कि जो शब्द हम जानते हैं, उन्हीं को हमारा पड़ोसी भी जानता है। हम दोनों म्युचुअल डिसेप्शन में सहयोगी हो जाते हैं, पारस्परिक धोखा पूरा हो जाता है।

इसीलिए तो हिंदू हिंदू के घर में शादी करता है, मुसलमान मुसलमान के घर में, जैन जैन के घर में, पारसी पारसी के घर में। क्यों? क्योंकि वह जो पारस्परिक धोखा चल रहा है ज्ञान का, वह एक से शब्द जानने वालों में ठीक रहता है। अन्य, अन्य शब्द जानने वालों में बड़ी गड़बड़ पैदा हो जाती है।

वह जो धोखा चल रहा है पारस्परिक, वह अपनी ही कम्युनिटी के भीतर आसान है। दूसरे के समुदाय के भीतर जाने पर बहुत मुश्किल हो जाएगी। इसलिए दुनिया भर में लोगों ने अपने-अपने घेरे बना रखे हैं, शब्दों के घेरे हैं वे। जिन शब्दों से मैं परिचित हूं, उन्हीं से आप परिचित हैं, तो हमारे बीच दोस्ती बन जाती है, मित्रता हो जाती है, प्रेम हो जाता है, विवाह हो सकता है, हम एक-दूसरे के सुख-दुख में सम्मिलित हो सकते हैं, क्योंकि हम दोनों एक पारस्परिक धोखे में सम्मिलित हैं। लेकिन दूसरे शब्दों वाला आदमी कठिनाई खड़ी कर देता है, क्योंकि उसकी मौजूदगी मेरे ज्ञान पर शक हो जाती है; मेरी मौजूदगी उसके ज्ञान पर शक हो जाती है। हम दोनों सही कैसे हो सकते हैं? कोई एक ही सही हो सकता है।

इस धोखे के कारण ही दुनिया में सेक्ट पैदा हुए, संप्रदाय पैदा हुए। संप्रदाय शब्दों के पारस्परिक धोखे के लिए पैदा किए गए, अन्यथा उनकी कोई भी जरूरत नहीं है। और शब्द और परंपराएं अगर आदमी छोड़ दे और शांत और निःशब्द में प्रवेश करे, तो दुनिया में कोई संप्रदाय नहीं होगा–दुनिया में धर्म होगा, लेकिन संप्रदाय नहीं होंगे। दुनिया में ज्ञान होगा, लेकिन परंपराओं के थोथे घेरे नहीं होंगे। मनुष्यता होगी, लेकिन मनुष्यता को बांटने वाली दीवालें नहीं होंगी।

एक बात और अपनी चर्चा में पूरी करूंगा।

शब्दों के अतिरिक्त मनुष्य और मनुष्य के बीच और कोई दीवाल नहीं है। परंपराओं के अतिरिक्त मनुष्य और मनुष्य को तोड़ने वाला कोई फासला, कोई दूरी नहीं है। संस्कारों और जिसको हम संस्कृति कहते हैं, उसके अतिरिक्त एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य का शत्रु बनाने वाला कोई भी नहीं है। सारा जगत मित्रों का एक देश हो सकता है और यह सारी पृथ्वी प्रेम करने वाले लोगों का एक समाज हो सकती है। यह सारी पृथ्वी एक परिवार हो सकती है, अगर आदमी इस बात के लिए तैयार हो जाए कि वह शब्दों के आग्रह को छोड़ देगा; परंपराओं के आग्रह को छोड़ देगा; मृत के आग्रह को छोड़ देगा; जो जीवित है, जो जीवंत है उसे देखेगा और पहचानेगा, तो मनुष्य के जीवन में, सारी मनुष्यता के जीवन में एक आमूल क्रांति संभव हो सकती है।

ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। आने वाली चर्चाओं में इस संबंध में और भी स्पष्ट करने की कोशिश करूंगा।

आपने मेरी बातों को…इतने शब्द आपके भीतर घिरे हैं, इतनी परंपरा आपके भीतर बैठी है, इतने पक्षपात आपके हैं, फिर भी मेरी बातों को इतनी शांति से आप सुनते हैं, इससे बहुत आशा बंधती है। क्योंकि जो अंधा होता है, जो पक्षपाती होता है, वह तो सुनने को भी राजी नहीं होता। लेकिन ऐसा न हो कि आपके कान सुनते हों और आपकी चेतना तक ये बातें न पहुंच पाएं। कान सुन सकते हैं और चेतना बंद हो सकती है। चेतना बंद है या खुली, उसका तो हमें कोई पता नहीं चलता। कान जरूर खुले हुए दिखाई पड़ते हैं।

परमात्मा करे, जैसे कान खुले हैं, वैसी चेतना भी खुली हो। नये के लिए, अज्ञात के लिए, अपरिचित के लिए, हमारे मन में विरोध, पक्ष, बंधी हुई धारणा न हो, तो जीवन निश्चित ही रोज-रोज नये-नये आयाम में ऊपर उठ सकता है।

मेरी बातों को सुनने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन–माटी कहै कुम्हार सूं

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक सुबह, अभी सूरज निकला ही था; एक बड़ी राजधानी में उस देश के सम्राट का, नगर के बाहर से आगमन हो रहा था। वह अपने घोड़े पर सवार था। रास्ते में उसने देखा–एक गरीब बूढ़ा मजदूर पत्थर की एक बड़ी चट्टान अपने कंधे पर उठाए हुए जा रहा है। सुबह की ठंडी हवाओं में भी उसके माथे से पसीने की बूंदें टपक रही हैं। वह इतना बूढ़ा और कमजोर है कि उसके हाथ कंप रहे हैं, उसके पैर कंप रहे हैं। पत्थर बहुत वजनी है। उस सम्राट ने चिल्ला कर कहा, मजदूर, पत्थर को नीचे गिरा दो! वह पत्थर नीचे गिरा दिया गया। Continue reading “माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-06)”

माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन–(जीवन क्या है?)

मेरे प्रिय आत्मन्!

जीसस से कोई पूछ रहा था कि आपका जन्म कब हुआ? तो जीसस ने जो उत्तर दिया वह बहुत हैरानी का है। यहूदियों का एक बहुत पुराना पैगंबर हुआ है इब्राहिम, जीसस से कोई दो हजार साल पहले। इब्राहिम यहूदियों के इतिहास में पुराने से पुराना नाम है। जीसस ने कहा कि इब्राहिम था, उसके भी पहले मैं था। विश्वास नहीं हुआ होगा सुनने वाले को। क्योंकि विश्वास हमें केवल उसी बात का होता है, जिसका हमें अनुभव हो। बात पहेली ही मालूम पड़ी होगी, क्योंकि इब्राहिम के पहले जीसस के होने की कोई संभावना नहीं मालूम होती। शरीर तो हो ही नहीं सकता, लेकिन जीसस जैसा आदमी व्यर्थ ही झूठ बोले यह भी संभव नहीं है। Continue reading “माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-05)”

माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन  —माटी कहै कुम्हार सूं

मेरे प्रिय आत्मन्!

बीती चर्चाओं में जो बहुत सी बातें मैंने आपसे कहीं, उनके संबंध में अनेक प्रश्न आए हैं। कुछ थोड़े से प्रश्नों पर आज की अंतिम रात हम और बात कर सकेंगे।

एक प्रश्न जो बहुत से मित्रों ने पूछा है, बहुत-बहुत रूपों में पूछा है, उसे मैं सबसे पहले ले लूं: उन्होंने पूछा है कि मैं शब्दों, सिद्धांतों और शास्त्रों के विरोध में मालूम पड़ता हूं। क्या परमात्मा की खोज में सिद्धांत और शास्त्र सहयोगी नहीं हैं? क्या वे हमारे और प्रभु के बीच में बाधा बनते हैं? Continue reading “माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-04)”

माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-03)

तीसरा–प्रवचन-(जिज्ञासा और खोज)

बहुत से प्रश्न मेरे सामने आए हैं। सबसे पहले, सुबह मैंने कहा, जो हम नहीं जानते हैं, भलीभांति जानना चाहिए कि हम नहीं जानते हैं। इस संबंध में पूछा है कि हम अपने बच्चों को न बताएं कि ईश्वर है? क्या धर्म के संबंध में उन्हें कुछ भी न कहें? आत्मा के लिए कोई उन्हें विश्वास न दें? ऐसे कुछ प्रश्न पूछे हैं।

जिसे हम नहीं जानते हैं, उसे हम देना भी चाहेंगे, तो क्या दे सकेंगे? और जो हमें ही ज्ञात नहीं है, क्या उस बात की शिक्षा, हमारे संबंध में बच्चे के मन में आदर पैदा करेगी? Continue reading “माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-03)”

माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-02)

दूसरा–प्रवचन–(अहंकार है दूरी)

मेरे प्रिय आत्मन्!

कल रात्रि, प्रभु उपलब्धि सरल है, इस संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं। मनुष्य को परमात्मा से रोक लेने वाली धारणाओं में पहली धारणा यही रही है कि परमात्मा को पाना कठिन है, बहुत कठिन है। मनुष्य के चित्त पर यह दीवाल की भांति खड़ी हो गई–यह धारणा। इस धारणा ने ही जीवन की सरिता को प्रभु के सागर की ओर बहने से रोक लिया। लेकिन यह अकेली ही धारणा नहीं। इस भांति की दीवाल बन जाने में और धारणाएं भी हैं। आज दूसरी धारणा पर आपसे मैं बात करूंगा। Continue reading “माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-02)”

माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-01)

प्रवचन—पहला  —परमात्मा सरल है

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक आश्चर्यजनक दुर्भाग्य मनुष्य-जाति के ऊपर रोज-रोज अपनी काली छाया बढ़ाता गया है। अब तो शायद हमें उस दुर्भाग्य का कोई पता भी नहीं चलता है। जैसे कोई जन्म से ही बीमार पैदा हो तो उसे स्वास्थ्य का कभी कोई पता नहीं चलता। जैसे कोई जन्म से ही अंधा पैदा हो, तो जगत में कहीं प्रकाश भी है, इसका उसे कोई पता नहीं चलता। ऐसे ही हम एक अदभुत अनुभव से जन्म के साथ ही जैसे वंचित हो गए हैं। धीरे-धीरे मनुष्य-जाति को यह खयाल भी भूलता गया है कि वैसा कोई अनुभव है भी। उस अनुभव को इंगित करने वाले सब शब्द झूठे और थोथे मालूम पड़ने लगे हैं। Continue reading “माटी कहै कुम्हार सूं-(प्रवचन-01)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-21)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

ओशो !   ओशो !   ओशो !

जब ओशो के देहावसान पर मैंने एक अध्याय लिखना प्रारम्भ किया तो मुझे लगा कि यह सम्भव नहीं क्योंकि ओशो की मृत्यु नहीं हुई है। यदि उनकी मृत्यु हो गई होती तो मुझे उनका अभाव महसूस होता, परन्तु जब से वे हमें छोड़कर गए हैं मुझे कुछ खो जाने का एहसास नहीं हुआ। मेरा अभिप्राय यह नहीं कि मैं उनकी आत्मा को एक प्रेत की भांति अपने आसपास मंडराते हुए पाती हूं या बादलों में से आती उनकी आवाज़ को सुनती हूं। नहीं, केवल इतना ही है कि मैं आज भी उन्हें इतना अनुभव करती हूं जितना तब करती थी जब वे शरीर में थे । जब वे ‘जीवित’ थे, उनके आसपास मैं जिस ऊर्जा का अनुभव करती थी वह वही शुद्ध ऊर्जा होगी जो अमर है। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-21)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-20)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

क्‍या हम दस हजार बुद्धों का उत्‍सव मना सकते है?

      आनन्‍दो तथा निर्वाणों ने ओशो के लिए उद्यान में ‘वाक-वे’बनने का निश्‍चय किया ताकि वे कुछ घूम-फिर सकें और अस्‍वस्‍थ होने के कारण जब प्रवचन देने के लिए न जा सकें तो उद्यान को देख सकें। वे मान गए यद्यपि उन्‍हें ज्ञात था कि वह एक दो बार से अधिक उसका उपयोग नहीं कर सकेंगे। इन दोनों का विचार ओशो के लिए एक चित्र कला कक्ष बनाने का था। वर्षों पहले वे बहुत चित्र बनाया करते थे। परंतु उन्‍हें ‘फैल्‍ट पैन’ तथा स्‍याही की गंध ऐ एलर्जी हो गई थी। उनके बेड़ रूम के साथ वाले कमरे को चित्रकला-कक्ष बनाया गया। जहां वे चित्र बना सकें हम उनके लिए ऐसे एयर ब्रश,इंक और रंग ढूंढने में सफल हो गए थे जिनमें किसी प्रकार की कोई गंध नहीं आती थी। यह कमरा सफेद तथा हरे संगमरमर से बनाया गया और यह उन्‍हें इतना पसंद अया कि बहुत ही छोटी होने के बावजूद वे वहां नौ महीने सोए। वे इसे अपनी छोटी सी कुटिया कहते थे। परंतु उन्‍होंने इसमें एक ही बार पेंटिंग बनाई। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-20)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-19)

माई डायमंड डे विद ओशो–(मां प्रेम शुन्‍यो)-आत्म कथा

अन्‍तिम स्‍पर्श—

वे कुछ सप्‍ताह ही अस्‍वस्‍थ रहे और मार्च में फिर प्रवचन के लिए आने लगे। मैने उनसे अंतिम प्रश्‍न पूछा और पहली बार हमने अपने प्रश्‍न बिना हस्‍ताक्षर के भेजे। यद्यपि मैंने पुनर्जन्‍म के सम्‍बंध में कुछ नहीं पूछा था, ओशो ने उत्‍तर दिया।

…..पुनर्जन्‍म की धारणा जो पूर्व के सभी धर्मों में है, कहती है कि आत्‍मा एक शरीर से दूसरे में, एक जीवन से दूसरे जीवन में प्रवेश करती है। यह धारणा उन धर्मों में नहीं है जो यहूदी धर्म से निकले है। जैसे ईसाई और मुस्‍लिम धर्म। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-19)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-18)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

क्‍या हम दस हजार बुद्धों का उत्‍सव मना सकते है?

      आनन्‍दो तथा निर्वाणों ने ओशो के लिए उद्यान में ‘वाक-वे’बनने का निश्‍चय किया ताकि वे कुछ घूम-फिर सकें और अस्‍वस्‍थ होने के कारण जब प्रवचन देने के लिए न जा सकें तो उद्यान को देख सकें। वे मान गए यद्यपि उन्‍हें ज्ञात था कि वह एक दो बार से अधिक उसका उपयोग नहीं कर सकेंगे। इन दोनों का विचार ओशो के लिए एक चित्र कला कक्ष बनाने का था। वर्षों पहले वे बहुत चित्र बनाया करते थे। परंतु उन्‍हें ‘फैल्‍ट पैन’ तथा स्‍याही की गंध ऐ एलर्जी हो गई थी। उनके बेड़ रूम के साथ वाले कमरे को चित्रकला-कक्ष बनाया गया। जहां वे चित्र बना सकें हम उनके लिए ऐसे एयर ब्रश,इंक और रंग ढूंढने में सफल हो गए थे जिनमें किसी प्रकार की कोई गंध नहीं आती थी। यह कमरा सफेद तथा हरे संगमरमर से बनाया गया और यह उन्‍हें इतना पसंद अया कि बहुत ही छोटी होने के बावजूद वे वहां नौ महीने सोए। वे इसे अपनी छोटी सी कुटिया कहते थे। परंतु उन्‍होंने इसमें एक ही बार पेंटिंग बनाई। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-18)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-17)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

पुणे दो विश्‍लेषण: थैलीयम ज़हर (अध्‍याय—17)

     पुलिस कमिशनर ने आदेश को रद्द करने से इनकार कर दिया। लेकिन आश्रम के लिए आचार-प्रतिमानों के रूप में कुछ शर्तों पर उसे स्‍थापित कर देने की इच्‍छा  प्रकट की शर्तें चौदह थी। उनमें से कुछ शर्तें ऐसी थी जो यह भी निश्चित करती थी कि ओशो किस विषय पर और कितना समय प्रवचन दें। वे किसी धर्म के विरूद्ध न बोले या कोई भड़काने वाली बात न कहें। केवल एक सौ विदेशियों को ही आश्रम के द्वार के भीतर प्रवेश कर सकते है; प्रत्‍येक विदेशी का नाम पुलिस के पास होना चाहिए, हमें कितने ध्‍यान करने होंगे और ध्‍यान की समयावधि क्‍या होगी यह भी निर्धारित किया जाएगा; पुलिस को किसी भी समय आश्रम में प्रवेश करने और प्रवचन में सम्‍मिलित होने का अधिकार होगा। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-17)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-16)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

रिश्‍ते—(अध्‍याय—16)

      ओशो के भारत चले जाने के बाद मैंने लंदन में एक माह प्रतीक्षा की। फिर मुझे लगा कि भारत में प्रवेश करने का प्रयत्‍न सुरक्षित होगा। विवेक दो महीने पहले ही चली गई थी। उसने मुझे बताया कि जब मेरे भार आने की तिथि आई तो उसने ओशो से कहा कि मेरे बारे में कोई समाचार नहीं मिला और वह चिंतित थी कि मैं पहुंची हूं या नहीं। ओशो बस मुस्‍कुरा दिए। मैं पहले ही पहुंच चुकी थी। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-16)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-15)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

तुम मुझे छुपा नहीं सकते—(अध्‍याय-15)

      ओशो को संसार से छिपाए रखना उचित नहीं लग रहा था। एक हीरे के इन्द्रधनुष रंग प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति पर प्रतिबिम्‍बित होने चाहिए ताकि वह चकाचौंध हो जाए। इसी कारण उन्‍होंने भारत छोड़ा था। हम ओशो के लिए विश्‍व में एक ऐसा स्‍थान ढूंढ़ रहे थे जहां वे अपने लोगों से जो कहना चाहते है कह सकें। उन्‍हें कुछ ज्‍यादा नहीं चाहिए था—बस इतना ही कि वे अपने अनुभव को दूसरों के साथ बांट सकें।   Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-15)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-14)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

उरूग्‍वे—(अध्‍याय—14)

      चार अंगरक्षकों सहित मैं लंदन एयरपोर्ट से उरूग्‍वे रवाना हुई। हास्‍या तथा जयेश ने सुरक्षा कर्मियों का प्रबंध किया। जो प्रति-विद्रोह प्रति आतंकवाद के कार्य में निपुण थे तथा सूचना पहुंचाने, विध्‍वंस तथा गोलाबारी में प्रशिक्षित थे। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति अपने-अपने विशेष कार्य में प्रवीण था। उरूग्‍वे में वे ओशो की सुरक्षा के लिए तैयार किए गए थे क्‍योंकि हमें मालूम नहीं था कि वहां कैसा रहेगा। वे मेरे आस-पास सिपाहियों की भांति खड़े थे और उनकी सूरतें धमकाने वाली रही थी। और मुझे लगा कि मेरी अच्‍छी देख भाल हो रही है। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-14)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-13)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

मौन प्रतीक्षा—(अध्‍याय—13)

6मार्च 1986, रात्रि 1.20बजे।

ओशो के साथ एक छोटे जैट विमान में विवेक देवराज,आनंदों, मुक्‍ति और जॉन सवार हुए। एथेंस से विमान ने एक अज्ञात लक्ष्‍य की और उड़ान भरी—जिसका पता पायलेटों को भी नहीं था। आकाश में उन्‍होंने जान से पूछा, ‘किधर।’ जॉन भी यह नहीं जानता था। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-13)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-12)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

क्रीट—(अध्‍याय—12)

यह फरवरी का मध्‍य था और ‘’एजियन’’ समुंद का पानी ठंडा था, लेकिन चट्टानों के बीच बन गए गहरे और स्‍वच्‍छ ताल में, जहां समुंद चट्टानों के ऊपर से धीमे-धीमे बहकर आ रहा था, मुझे उसमे नग्‍न तैरना बहुत ही अच्‍छा लगता था। सूर्य चमक रहा था, और मैंने चट्टान में बने घर और उस तक जाती चट्टान में से कांट कर बनाई गई घुमावदार सीढ़ियों की और देखा। मकान के सबसे ऊपरवाले कमरों में ओशो रहते थे। और उनकी बैठक की गोलाकार खिड़की से समुद्र व खड़ी चट्टानें दिखाई देती थी। उनका शयनकक्ष मकान के पिछवाड़े में बना हुआ था। इसलिए वहां अँधेरा रहता था। और वह गुफा जैसा लगाता था। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-12)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-11)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

नेपाल—(अध्‍याय—11)

      विमान के धरती को छूने से पहले ही में नेपाल के जादू को महसूस कर रही थी। मैं धीरे से फुसफुसाई, ‘मैं घर लौट रही हूं।’ एयरपोर्ट अधिकारी भद्र व्‍यक्‍ति थे। उनके चेहरे पर मुस्कराहट थी तथा सड़को पर आ जा रहे लोगों के चेहरे इतने सुंदर थे जो मैंने पूरे विश्‍व में कही नहीं देखे थे1 यद्यपि नेपाल भार से अधिक निर्धन है परंतु वहां के लोगों में एक गरिमा है। जो इस तथ्‍य का खंडन करती है। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-11)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-10)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

कूल्लू मनाली—(अध्‍याय–10)

      हवाई जहाज़ ने दिल्‍ली से प्रात: दस बजे कूल्‍लू मनाली के लिए उड़ान भरी। वह सुबह पहल ही बहुत व्‍यस्‍त रही थी क्‍योंकि सात बजे हयात रिजेंसी होटल में एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस बुलाई थी। जिसमें ओशो ने अमरीका के प्रति अपने विचारों को निर्भीकता पूर्वक व्‍यक्‍त किया था। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-10)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-09)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

सूली देने का अमेरिकी ढंग—(अध्‍याय—09)

      जब हम मध्‍य नवम्‍बर की एक शाम को बारिश से भीगी पोटलैंड़ की सड़कों पर ड्राइव कर रहे थे। प्रिसीडेंट के मोटर काफ़िले जितने एक दस्‍ते ने रोल्‍स रायस को घेर लिया। कम से कम पचास पुलिसवाले होंगे जो चमकते काले कपड़ों में दैत्‍यों जैसे लग रहे थे। उनके चेहरे ऐनक तथा हैल्मेट से ढँके हुए थे तथा वे शक्‍तिशाली हारले डेविडसन मोटर साइकिलों पर सवार थे। सभी सड़कों के प्रत्‍येक जंकशन पर घेरा डाल लिया गया था। मोटरसाइकल सवारों ने बड़ी नाटकीय ढंग अपनाया ऐसे कि अगले दो कार के दानों और खड़े दो लोगों का स्‍थान आसानी से ले सकते थे। वे ट्रैफिक के बीच में तथा उसके आस-पास कला बाजों के समान ड्राइव कर रहे थे। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-09)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-08)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

अमरीका—क़ैद—(अध्‍याय—08)

      अक्‍टूबर 28, 1985

अलियर जैट शारटल उतरी कैरोलिया के हवाई-अड्डे पर उतरने वाला था और मैंने बाहर अंधेरे में देखा, हवाई अड्डा सूनसान पडा था। कुछ लम्‍बी, पतली झाड़ियां जैट द्वारा उड़ाई गई हवा में झूल रही थी।     जैसे ही जैट ने ज़मीन को छुआ और इंजन बंद हुआ। निरूपा ने हान्‍या को देखा। हास्‍या,जिसके हाथ हम शारलट में रहनेवाले थे निरूपा की अत्‍यंत युवा सास थी। वह तारकोल की विमान पट्टी पर अपने मित्र प्रसाद के साथ खड़ी थी। निरूपा ने उत्‍साहपूर्वक हान्‍या को पुकारा और ठीक उसी समय कई दिशाओं से आई ‘हैंड्स आप’ की आवाज़ों ने मुझे किसी अन्‍या सच्‍चाई में पहुंचा दिया। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-08)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-07)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

जनीशपुरम—02 (अध्‍याय—07)

               जब तक न्‍यायालय हमारे पक्ष में कोई निर्णय न दे व्‍यावसायिक क्षेत्र (कमार्शियल-जोन) में न होने के कारण हम कोई व्‍यवसाय स्‍थापित नहीं कर सकते थे; पर्याप्‍त टेलीफ़ोन भी लगवा सकते थे। निकटतम क़सबा एंटिलोप था जिसके लगभग चालीस निवासी थे। यह क़सबा ऊंचे-ऊंचे पॉपलर (पहाड़ी पीपल) वृक्षों के बनों में बसा हुआ था। तथा रजनीशपुरम से अठारह मील की दूरी पर था। व्‍यापार के लिए हम वहां एक ट्रेलर ले गए थे। मात्र एक ट्रेलर और थोड़े से संन्‍यासी, और हम पर कस्बे पर अधिकार जमाने का आरोप लगा। भय के कारण स्‍थानीय निवासियों ने अपने नगर का ‘अनिवासी करण’ कर दिया। हमने उनके विरूद्ध न्‍यायालय में मुकदमा दायर कर दिया। जीत हमारी हुई। इस घटना ने ऐसे कुरूप नाटक का रूप ले लिया कि अमरीका वासियों में इसकी चर्चा उनके नवीनतम धारावाहिकों से भी अधिक होने लगी। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-07)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-06)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

रजनीश पुरम—भाग-1 (अध्‍याय—06)

            रजनीशपुरम अमरीका में नहीं था। वह अपने में एक देश था—अमरीकी स्‍वप्‍नों से मुक्‍त। शायद  यही कारण था कि अमरीका राजनीतिज्ञों ने उसके साथ युद्ध छेड़ दिया।

आशीष, अर्पिता, गायन और मैं हवाई जहाज़ से अमरीका के पार आ गए।

आशीष लकड़ी का जादूगर था। वह केवल एक उत्‍कृष्‍ट बढ़ई ही नहीं था जो ओशो के लिए कुर्सीया बनाता है। बल्‍कि और कोई भी तकनीकी या बिजली का काम हो तो वह उसे करने में सक्षम है। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-06)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-05)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

न्‍यूजर्सी—दुर्ग  (अध्‍याय—05)

               ओशो ने लगभग बीस शिष्‍यों के साथ भारत छोड़ दिया। अलविदा कहते हुए उनके संन्‍यासी हाथ जोड़े उनके द्वार के बाहर रास्‍ते, कार पोर्च में तथा आश्रम की सड़क के दोनों और कतार में खड़े थे। विवेक और निजी चिकित्‍सक देवराज के साथ उन्‍होंने मरसीडीज़ से प्रस्‍थान किया।

विवेक, जिसमें बच्‍चों जैसी सुकुमार चंचलता थी जो उसके चारित्र्य बल और किसी भी परिस्‍थिति को संभालने की उसकी योग्‍यता को छिपाए रखती और देवराज जो एक लम्‍बा उँचा चाँदी जैसे बालों वाला सुशिष्‍ट-सुरुचिपूर्ण युवक था-दोनों एक सुंदर जोड़ी बना रहे थे। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-05)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-04)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

ऊर्जा दर्शन—(अध्‍याय—04)  

       ओशो 21 मार्च 1953 में बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हुए। उसी दिन से वे उन लोगों की खोज में है जो उन्‍हें समझ सकें। और बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हो सकें। उन्‍होंने उन सैंकड़ों सशस्त्रों की सहायता की है जो आत्‍म-बोध के मार्ग पर है।

मैंने उन्‍हें कहते सूना है :

‘मनुष्‍य की सत्‍य के लिए प्‍यास जन्‍मों-जन्‍मों तक चलती है। कई जन्‍मों के पश्‍चात वह उसे पाने में समर्थ होता है। और जो इसकी खोज करते है सोचते है कि इसकी प्राप्‍ति के बाद वे शान्ति का अनुभव करेंगे। लेकिन जो इसे पाने में सफल हो जाते है, पाते है उन्‍हें पता चलता है कि उनकी सफलता एक नई प्रसव-पीड़ा की शुरूआत है, बिना किसी पीड़ा-मुक्‍ति के। सत्‍य जब एक बार मिल जाता है, एक नई प्रसव-पीड़ा को जन्‍म देती है।’ Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-04)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-03)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 

प्रेम मुख विहीन आता है—(अध्‍याय—03)

       लाओत्से हाउस (ओशो-गृह) एक महाराजा की सम्‍पति था। जिसका चुनाव इसके बीच खड़े बादाम के उस विशाल पेड़ के कारण किया गया था। जिसके रंग गिरगिट की भांति लाल से केसरी पीले फिर हरे रंग में बदल जाते है। इसके मौसम कुछ सप्‍ताह उपरान्‍त बदलते रहते है। और फिर भी मैंने इसकी शाखाओं को कभी पत्र-विहीन नहीं देखा। उधर एक पत्‍ता गिरा कि नया चमकीला हरा पत्‍ता उसका स्‍थान लेने को आतुर होता है। पेड़ के पत्‍तों की छाया के नीचे एक छोटा सा झरना है और एक रॉक गार्डन है। जिसका निर्माण एक सनकी दीवाने इटालियन ने किया था। जो उसके बाद कभी दिखाई नहीं दिया। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-03)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-02)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शूून्यो )-आत्म कथा 

ज्‍योतिर्मय अंधकार—(अध्‍याय—02)

       भारत में पूना के एक होटल में प्रथम रात्रि व्‍यतीत करने के बाद मैंने सत्‍य की खोज का परित्‍याग करने का निश्‍चय किया। यह होटल बाहर से देखने में अच्‍छा लग रहा था। मैं भारतीय हवाई-अड्डे और रेलवे स्‍टेशन के अपने प्रथम अनुभव के उपरान्‍त थकी-घबराई, कुछ डांवाडोल सी यहां पहुंची थी। स्‍टेशन किसी शरणार्थी शिविर जैसा लग रहा था। वहां प्‍लेटफार्म के ठीक मध्‍य में लोग अपने पूरे परिवार के साथ गठरियों पर सोये हुए थे। और दूसरे यात्री उनके उपर से; उनके आसपास से आ-जा रहे थे। लंगड़े-लूले व भूखे से पीड़ित लोग मेरी और टूट पड़े। भीख मांगने लगे और मुझे यूं घूरकर देखने लगे जैसे मुझे ही खा जाएंगे। Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-02)”

हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-01 )

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शूून्यो )-आत्म कथा 

मैं यहीं हूं  (अध्‍याय—01 )

कुछ कहना है?

एक आवाज भीतर पुकार-पुकार कर कहती है। ‘मैं यहीं हूं, मैं यहीं हूं।’ मैं अवाक हूं। और तभी वे आंखें।

जब गुरु शिष्‍य की आंखों में देखता है, यह देखता है, और वह देखता है। वह पूरी कहा कहानी देख रहा है अतीत वर्तमान और भविष्‍य—सभी कुछ। गुरु के सामने शिष्‍य पारदर्शी है। और यह उसमें छिपे अप्रकट बुद्ध को देख सकता है। मैं वहां बैठी ही रह सकती थी ताकि ‘वे मेरे भीतर तक पहुंच जाएं…..क्‍योंकि हीरे को पाने का बस यही एकमात्र उपाय है। भीतर एक भय है कि कहीं वे मेरे अचेतन में पड़ी उन बातों को ने देख लें। जिन्‍हें मैं छिपाए रखना चाहती थी। परंतु वह मेरी ओर ऐसी प्रेम पूर्ण दृष्‍टि से देखते है कि मैं केवल इतना ही कह पाती हूं, ‘हां।’ Continue reading “हीरा पाया बांठ गठियायों-(अध्याय-01 )”

महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-25)

महावीर: मेरी दृष्टि में—(प्रवचन—पच्‍चीसवां)

हावीर पर इतने दिनों तक बात करनी अत्यंत आनंदपूर्ण थी। यह ऐसे ही था, जैसे मैं अपने संबंध में ही बात कर रहा हूं। पराए के संबंध में बात की भी नहीं जा सकती। दूसरे के संबंध में कुछ कहा भी कैसे जा सकता है? अपने संबंध में ही सत्य हुआ जा सकता है।

और महावीर पर इस भांति मैंने बात नहीं की, जैसे वे कोई दूसरे और पराए हैं। जैसे हम अपने आंतरिक जीवन के संबंध में ही बात कर रहे हों, ऐसी ही उन पर बात की है। उन्हें केवल निमित्त माना है, और उनके चारों ओर उन सारे प्रश्नों पर चर्चा की है, जो प्रत्येक साधक के मार्ग पर अनिवार्य रूप से खड़े हो जाते हैं। महत्वपूर्ण भी यही है। Continue reading “महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-25)”

महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-24)

दुख, सुख और महावीर-आनंद—(प्रवचन—चौबीसवां)

दुख, सुख और आनंद,

इन तीन शब्दों को समझना बहुत उपयोगी है।

दुख और सुख भिन्न चीजें नहीं हैं, बल्कि उन दोनों के बीच जो भेद है, वह ज्यादा से ज्यादा मात्रा का, परिमाण का, डिग्री का है। और इसलिए सुख दुख बन सकता है और दुख सुख बन सकता है। जिसे हम सुख कहते हैं, वह भी दुख बन सकता है; और जिसे दुख कहते हैं, वह भी सुख बन सकता है। इन दोनों के बीच जो फासला है, जो भेद है, वह विरोधी का नहीं है। भेद मात्रा का है। Continue reading “महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-24)”

महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-23)

महावीर: आत्यंतिक स्वतंत्रता के प्रतीक—(प्रवचन—तेईसवां)

 प्रश्न:

 यह सच है कि आत्मा अमर है, ज्ञानस्वरूप है, फिर कैसे अज्ञान में गिरती है? कैसे बंधन में गिरती है? कैसे शरीर ग्रहण करती है–जब कि शरीर छोड़ना है, जब कि शरीर से मुक्त होना है? यह कैसे संभव हो पाता है?

 ह सवाल महत्वपूर्ण है और बहुत ऊपर से देखे जाने पर समझ में नहीं आ सकेगा। थोड़े भीतर गहरे झांकने से यह बात स्पष्ट हो सकेगी कि ऐसा क्यों होता है। जैसे, इस कमरे में आप हैं और आप इस कमरे के बाहर कभी भी नहीं गए हैं, कभी गए ही नहीं। Continue reading “महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-23)”

महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-22)

जागा सो महावीर: सोया सो अमहावीर—(प्रवचन—बाईसवां)

प्रश्न:

अगर मन ही जागरण है, तो इसकी मूर्च्छा का क्या कारण है? यह मूर्च्छा कहां से पैदा हुई?

हावीर से किसी ने पूछा, साधु कौन है?

स्वभावतः अपेक्षा रही होगी कि महावीर साधु की परिभाषा करेंगे। लेकिन महावीर ने जो किया, वह परिभाषा नहीं थी, इशारा था।

उन्होंने कहा, साधु वह है, जो जाग्रत है; और असाधु वह है, जो मूर्च्छित है। Continue reading “महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-22)”

महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-21)

अनेकांत: महावीर का दर्शन-आकाश—(प्रवचन—इक्‍कीसवां)

प्रश्न:

आपने पिछले दिनों भगवान महावीर के संबंध में एकांत वाली बात कही थी। वह क्या रियलाइजेशन जो भगवान महावीर का था–वह भी एकांत ही था? क्या वह संपूर्ण नहीं था? यह मेरा प्रश्न है।

इस संबंध में दो बातें समझनी चाहिए, दो शब्द समझने चाहिए। एक शब्द है दृष्टि और दूसरा शब्द है दर्शन।

दृष्टि होगी एकांगी, सदा ही एकांत होगी, अधूरी होगी, खंड होगी। दृष्टि का मतलब है, एक जगह मैं खड़ा हूं, वहां से जैसा दिखाई पड़ता है। जो दिखाई पड़ता है, वह भी उतना ही महत्वपूर्ण है। Continue reading “महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-21)”

महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-20)

महावीर: परम-स्वातंत्र्य की उदघोषणा—(प्रवचन—बीसवां)

प्रश्न:

कस्तूर भाई ने पूछा है कि महावीर प्राकृत भाषा में क्यों बोले, संस्कृत में क्यों नहीं?

ह प्रश्न सच में गहरा है। संस्कृत कभी भी लोक-भाषा नहीं थी, सदा से पंडित की भाषा है, दार्शनिक की, विचारक की। प्राकृत लोक-भाषा थी–साधारणजन की, अशिक्षित की, अपढ़ की, ग्रामीण की। शब्द भी बड़े अदभुत हैं।

प्राकृत का मतलब है: नेचुरल, स्वाभाविक।

संस्कृत का मतलब है: रिफाइंड, परिष्कृत।

प्राकृत से ही जो परिष्कृत रूप हुए थे, वे संस्कृत बने। प्राकृत मौलिक, मूल भाषा है। संस्कृत उसका परिष्कार है। Continue reading “महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-20)”

महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-19)

महावीर: सत्य अनेकांत—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

 प्रश्न:

भगवान महावीर ने इंद्र को स्पष्ट कहा कि मुझे स्वयं कर्मों से युद्ध करना है, तो भी वह एक देवता को देख-रेख के लिए नियुक्त कर गया! इस घटना में क्या कोई औचित्य है?

समें दो बातें समझने योग्य हैं।

एक तो कर्मों से युद्ध, अज्ञान से युद्ध स्वयं ही करना है। महावीर इस बात की जरा भी तैयारी में नहीं थे कि कोई भी उनके संघर्ष में सहयोगी बने। सहयोगी को बिलकुल ही स्वीकार न करना, बड़े मूल्य की बात है। चाहे स्वयं देवता ही सहयोग के लिए क्यों न कहें, महावीर सहयोग के लिए राजी नहीं हैं। क्योंकि महावीर की दृष्टि यह है कि इस खोज में कोई संगी-साथी नहीं हो सकता है। और इस खोज में जो संगी-साथी के लिए रुकेगा, ठहरेगा; वह खोज से ही वंचित रह जाएगा। यह नितांत अकेले की खोज है। Continue reading “महावीर मेरी दृष्‍टी में-(प्रवचन-19)”

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