ध्यान के कमल-(प्रवचन-10)

ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-दसवां-(ध्यान: जीवन में  क्रांति)

जीसस ने कहा है: जो भारग्रस्त हैं, चिंता से भरे हैं, जिनका मन विक्षिप्तता का बोझ हो गया है, वे मेरे पास आएं, मैं उन्हें निर्भार कर दूंगा।

यही मैं तुमसे भी कहता हूं। चिंताएं, दुख, पीड़ाएं, संताप इसलिए हैं, क्योंकि तुमने इन्हें जोर से पकड़ रखा है। चिंताएं किसी को पकड़ती नहीं, दुख किसी को पकड़ते नहीं, आदमी ही उन्हें पकड़ लेता है। Continue reading “ध्यान के कमल-(प्रवचन-10)”

ध्यान के कमल-(प्रवचन-09)

ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-नौवां-(ध्यान: चुनावरहित सजगता)

ध्यान के संबंध में थोड़े से प्रश्न हैं। एक मित्र ने पूछा है कि वृत्तियों का देखना, ऑब्जर्वेशन भी क्या एक तरह का दमन नहीं है? एक प्रकार का सप्रेशन नहीं है?

आपकी आंतरिक आकांक्षा पर निर्भर करता है कि वृत्तियों का देखना भी दमन बन जाए या न बने।

यदि कोई व्यक्ति वृत्तियों का ऑब्जर्वेशन, निरीक्षण, देखना, साक्षी होना, इसीलिए कर रहा है कि वृत्तियों से मुक्त कैसे हो जाए, तो यह देखना दमन बन जाएगा, सप्रेशन बन जाएगा। यदि आपकी आकांक्षा निरीक्षण में केवल इतनी ही है कि मैं वृत्तियों से मुक्त कैसे हो जाऊं? मुक्त होने की बात आपने पहले ही तय कर रखी है, Continue reading “ध्यान के कमल-(प्रवचन-09)”

ध्यान के कमल-(प्रवचन-08)

ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-आठवां-(ध्यान: मन की मृत्यु)

थोड़े से सवाल हैं। एक मित्र ने पूछा है कि सुबह के ध्यान में शरीर बिलकुल ही गायब हो जाता है। और जो बचता है वह बहुत विशाल, ओर-छोर से परे लगता है। पर ध्यान के बाद शेष दिन में शरीर का बोध फिर शुरू हो जाता है, फिर क्षुद्र शरीर का अनुभव होने लगता है। तो क्या यह सब अहंकार की ही लीला है?

इस संबंध में तीन बातें खयाल में लेनी चाहिए। एक तो ध्यान में जैसे ही गहराई बढ़ेगी, शरीर तिरोहित हो जाएगा। या कभी-कभी बहुत विशाल हो जाएगा। या कभी ऐसा भी हो सकता है कि बहुत क्षुद्र, बहुत छोटा भी हो जाएगा; जितना है उससे भी छोटा मालूम पड़ेगा। शरीर की प्रतीति मन पर निर्भर है। यदि मन बहुत फैल जाता है तो शरीर फैला हुआ मालूम पड़ने लगता है। Continue reading “ध्यान के कमल-(प्रवचन-08)”

ध्यान के कमल-(प्रवचन-07)

ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-सातवां-(ध्यान: प्रकाश का जगत)

एक मित्र ने पूछा है: जब आप ध्यान में कहते हैं कि प्रकाश के सागर में डूब जाएं, तो हमें तो यही पता चलता रहता है कि जमीन पर पड़े हैं, तो सागर में कैसे डूब जाएं?

निश्चित ही पता चलता रहेगा कि आप जमीन पर पड़े हैं, अगर आपने इससे पहले के दो चरणों में पूरा श्रम नहीं उठाया। यदि पहले चरण में आप अपने को बचा कर कीर्तन करते रहे हैं, अगर कीर्तन में पूरे नहीं डूबे; अगर कीर्तन के बाद पंद्रह मिनट में, जब आपको कहा है कि आप अब कीर्तन की धुन पर सवार हो जाएं, अगर उस पर सवार नहीं हुए, अगर उस लहर में बहे नहीं, तो तीसरे चरण में आप पाएंगे कि आप जमीन पर ही पड़े हैं। Continue reading “ध्यान के कमल-(प्रवचन-07)”

ध्यान के कमल-(प्रवचन-06)

ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-छट्ठवां-(ध्यान: प्रभु के द्वार में  प्रवेश)

प्रभु के द्वार में प्रवेश इतना कठिन नहीं है, जितना मालूम पड़ता है। सभी चीजें कठिन मालूम पड़ती हैं, जो न की गई हों। अपरिचित, अनजान कठिन मालूम पड़ता है। जिससे हम अब तक कभी संबंधित नहीं हुए हैं, उससे कैसे संबंध बनेगा, यह कल्पना में भी नहीं आता।

जो तैरना नहीं जानता है, वह दूसरे को पानी में तैरता देख कर चकित होता है। सोचता है बहुत कठिन है बात। जीवन-मरण का सवाल मालूम पड़ता है। Continue reading “ध्यान के कमल-(प्रवचन-06)”

ध्यान के कमल-(प्रवचन-05)

ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-पांचवां-(ध्यान: द्वैत से अद्वैत की ओर)

दोत्तीन मित्रों ने एक ही सवाल पूछा है कि ध्यान का प्रयोग करते समय, जब मैं कहता हूं कि आप अपने शरीर के बाहर निकल जाएं, छलांग लगा लें, और पीछे लौट कर देखें, तो उन्होंने पूछा है, यह हमारी समझ में नहीं आता कि कैसे निकल जाएं और कैसे पीछे लौट कर देखें?

जिनको छलांग लग जाती हो उनके लिए तो किसी विधि की जरूरत नहीं है। इसीलिए मैंने विधि की बात नहीं कही। क्योंकि कुछ लोग सहज ही बाहर निकल जाते हैं, किसी विधि की जरूरत नहीं है। निकलने का खयाल ही उन्हें बाहर ले जाता है। जिनको ऐसा न होता हो, उनके लिए मैं विधि कहता हूं। Continue reading “ध्यान के कमल-(प्रवचन-05)”

ध्यान के कमल-(प्रवचन-04)

ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-चौथा-(ध्यान: जीवन की बुनियाद)

जीवन में दुख भी है और सुख भी, क्योंकि जन्म भी है और मृत्यु भी। लेकिन इस बात पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि दोनों में से हम किसको चुन कर जीवन की बुनियाद बनाते हैं।

यदि कोई व्यक्ति मृत्यु को चुन कर जीवन की बुनियाद रखे, तो फिर जन्म भी केवल मृत्यु की शुरुआत मालूम पड़ेगी। और अगर कोई जीवन को ही बुनियाद रखे, तो फिर मृत्यु भी जीवन की परिपूर्णता और जीवन की अंतिम खिलावट मालूम पड़ेगी। कोई व्यक्ति अगर दुख को ही जीवन का आधार चुन ले, तो सुख भी केवल दुख में जाने का उपाय दिखाई पड़ेगा। और अगर कोई व्यक्ति सुख को जीवन का आधार बना ले, तो दुख भी केवल एक सुख से दूसरे सुख में परिवर्तन की कड़ी होगी। यह निर्भर करता है चुनाव पर। Continue reading “ध्यान के कमल-(प्रवचन-04)”

ध्यान के कमल-(प्रवचन-03)

ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-तीसरा- (ध्यान: मनुष्य की आत्यंतिक संभावना)

पहले ध्यान के संबंध में कुछ बातें और फिर हम ध्यान में प्रवेश करेंगे।

सबसे पहली बात, साहस न हो तो ध्यान में उतरना ही नहीं। और साहस का एक ही अर्थ है: अपने को छोड़ने का साहस। और सब साहस नाम मात्र के ही साहस हैं। एक ही साहस–अपने से छलांग लगा जाने का साहस, अपने से बाहर हो जाने का साहस–ध्यान बन जाता है। जैसे कोई वस्त्रों को उतार कर रख दे, नग्न हो जाए, ऐसे ही कोई अपने को उतार कर रख कर नग्न हो सके तो ही ध्यान में प्रवेश कर पाता है। Continue reading “ध्यान के कमल-(प्रवचन-03)”

ध्यान के कमल-(प्रवचन-02)

ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-दूसरा (ध्यान: एक गहन मुमुक्षा)

ध्यान के संबंध में एक-दो बातें आपसे कह दूं और फिर हम ध्यान में प्रवेश करें।

एक तो ध्यान में स्वयं के संकल्प के अभाव के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। यदि आप ध्यान में जाना ही चाहते हैं तो दुनिया की कोई भी शक्ति आपको ध्यान में जाने से नहीं रोक सकती है। इसलिए अगर ध्यान में जाने में बाधा पड़ती हो तो जानना कि आपके संकल्प में ही कमी है। शायद आप जाना ही नहीं चाहते हैं। यह बहुत अजीब लगेगा! क्योंकि जो भी व्यक्ति कहता है कि मैं ध्यान में जाना चाहता हूं और नहीं जा पाता, वह मान कर चलता है कि वह जाना तो चाहता ही है। लेकिन बहुत भीतरी कारण होते हैं जिनकी वजह से हमें पता नहीं चलता कि हम जाना नहीं चाहते हैं। Continue reading “ध्यान के कमल-(प्रवचन-02)”

ध्यान के कमल-(प्रवचन-01)

ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)–ओशो

प्रवचन-पहला (ध्यान: एक बड़ा दुस्साहस)

प्रश्न: सांझ आप कहते हैं कि इंद्रियों की पकड़ में जो नहीं आता वही अविनाशी है। और सुबह कहते हैं कि चारों तरफ वही है; उसका स्पर्श करें, उसे सुनें। क्या इन दोनों बातों में विरोध, कंट्राडिक्शन नहीं है?

इंद्रियों की पकड़ में जो नहीं आता वही अविनाशी है। और जब मैं कहता हूं सुबह आपसे कि उसका स्पर्श करें, तो मेरा अर्थ यह नहीं है कि इंद्रियों से स्पर्श करें। इंद्रियों से तो जिसका स्पर्श होगा वह विनाशी ही होगा। लेकिन एक और भी गहरा स्पर्श है जो इंद्रियों से नहीं होता, अंतःकरण से होता है। और जब मैं कहता हूं, उसे सुनें, या मैं कहता हूं, उसे देखें, तो वह देखना और सुनना इंद्रियों की बात नहीं है। Continue reading “ध्यान के कमल-(प्रवचन-01)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-10)

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

दसवां—प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

अभी एक भजन आपने सुना। मैंने भी सुना। मेरे मन में खयाल आया, कौन से घूंघट के पट हैं जिनकी वजह से प्रीतम के दर्शन नहीं होते हैं? बहुत बार यह सुना होगा कि घूंघट के पट हम खोलें। तो वह जो प्यारा हमारे भीतर छिपा है उसका दर्शन हो सकेगा? लेकिन कौन से घूंघट के पट हैं जिन्हें खोलें? आंखों पर कौन सा पर्दा है? कौन सा पर्दा है जिससे हम सत्य को नहीं जान पाते हैं? और जो सत्य को नहीं जान पाता, जो जीवन में सत्य का अनुभव नहीं कर पाता, उसका जीवन दुख की एक कथा, चिंताओं और अशांतियों की कथा से ज्यादा नहीं हो सकता है। सत्य के बिना न तो कोई शांति है, न कोई आनंद है। और हमें सत्य का कोई भी पता नहीं है। सत्य तो दूर की बात है, हमें स्वयं का भी कोई पता नहीं है। हम क्यों हैं और क्या हैं, इसका भी कोई बोध नहीं है। ऐसी स्थिति में जीवन भटक जाता हो अंधेरे में, दुख में और पीड़ा में, तो यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-10)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-09)

धर्म और आनंद-(प्रश्नोंत्तर-विविध)-ओशो

नौवां प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

अभी एक भजन आपने सुना। मैंने भी सुना। मेरे मन में खयाल आया, कौन से घूंघट के पट हैं जिनकी वजह से प्रीतम के दर्शन नहीं होते हैं? बहुत बार यह सुना होगा कि घूंघट के पट हम खोलें। तो वह जो प्यारा हमारे भीतर छिपा है उसका दर्शन हो सकेगा? लेकिन कौन से घूंघट के पट हैं जिन्हें खोलें? आंखों पर कौन सा पर्दा है? कौन सा पर्दा है जिससे हम सत्य को नहीं जान पाते हैं? और जो सत्य को नहीं जान पाता, जो जीवन में सत्य का अनुभव नहीं कर पाता, उसका जीवन दुख की एक कथा, चिंताओं और अशांतियों की कथा से ज्यादा नहीं हो सकता है। सत्य के बिना न तो कोई शांति है, न कोई आनंद है। और हमें सत्य का कोई भी पता नहीं है। सत्य तो दूर की बात है, हमें स्वयं का भी कोई पता नहीं है। हम क्यों हैं और क्या हैं, इसका भी कोई बोध नहीं है। ऐसी स्थिति में जीवन भटक जाता हो अंधेरे में, दुख में और पीड़ा में, तो यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-09)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-08)

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

आठवां प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

इसके पहले कि मैं कुछ आपसे कहना चाहूं, एक छोटी सी कहानी आपसे कहनी है। नी

मनुष्य की सत्य की खोज में जो सबसे बड़ी बाधा है…उस बाधा की और हमारा ध्यान भी नहीं जाता। और उस पर जो भी हम करते हैं वह सब मार्ग बनने की बजाय मार्ग में अवरोध हो जाता है।

एक अंधे आदमी को यदि प्रकाश को जानने की कामना पैदा हो जाए, यदि आकांक्षा पैदा हो जाए कि मैं भी प्रकाश को और सूर्य को जानूं, तो वह क्या करे? क्या वह प्रकाश के संबंध में शास्त्र सुने? क्या वह प्रकाश के संबंध में सिद्धांतों को सीखे? क्या वह प्रकाश के संबंध में बहुत ऊहापोह और विचारों से भर जाए? क्या वह प्रकाश की जांच ले गति और तत्वदर्शन अपने सिर पर बांध ले? और क्या इस…से प्रकाश का दर्शन हो सकेगा? Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-08)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-07)

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

सातवां प्रवचन–आंतरिक परिवर्तन का विज्ञान

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं एक छोटी सी कहानी से अपनी आज की बात को प्रारंभ करूंगा।

एक बहुत काल्पनिक कहानी आपसे कहूं और उसके बाद आज की बात आपसे कहूंगा। एक अत्यंत काल्पनिक कहानी से प्रारंभ करने का मन है। कहानी तो काल्पनिक है लेकिन मनुष्य की आज की स्थिति के संबंध में, मनुष्य की आज की भाव-दशा के संबंध में उससे ज्यादा सत्य भी कुछ और नहीं हो सकता।

मैंने सुना है कि परमात्मा ने यह देख कर कि मनुष्य रोज विकृत से विकृत होता जा रहा है, उसकी संस्कृति और संस्कार नष्ट हो रहे हैं, उसके पास शक्ति तो बढ़ रही है लेकिन शांति विलीन हो रही है, उसके पास बाहर की समृद्धि तो रोज बढ़ती जाती है लेकिन साथ ही भीतर की दरिद्रता भी बढ़ती जा रही है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-07)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-06)

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

छठवांप्रवचनहर वासना अनंत के लिए है

मैं जिस घर में पैदा हुआ हूं बचपन से मुझे कुछ बातें समझाई गई, सिखाई गई हैं, वे बातें मेरे चित्त में बैठ गई हैं। वे मेरे इतने अबोधपन में सिखाई गई हैं मुझे कि उनके बाबत मेरे मन में कोई विरोध पैदा नहीं हुआ। मैंने उनको सीख लिया। उन्हीं को मैं कहता हूं मेरी श्रद्धा है। यह बिल्कुल संयोग की बात है कि मैं जैन घर था; यह संयोग की बात है कि मैं मुसलमान घर में होता। और यह संयोग की बात है कि मैं नास्तिक घर में हो सकता था; जहां मुझे सिखाया जाता कि कोई ईश्वर नहीं है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-06)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-05)

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

पांचवां—प्रवचन-मिथ्या साधना पहुंचाते नहीं

अपूर्ण से अपूर्ण हम हों लेकिन पूर्ण तक उन्मुक्त होने की एक अनिवार्य प्यास सबके साथ जुड़ी है। हम सब प्यासे हैं आनंद के लिए, शांति के लिए। और सच तो यह है कि जीवन में भी जो हम दौड़ते हैं..धन के, पद के, प्रतिष्ठा के पीछे, उस दौड़ में भी भाव यही होता है कि शायद शांति, शायद समृद्धि मिल जाए। वासनाओं में भी जो हम दौड़ते हैं, उस दौड़ में भी यही पीछे आकांक्षा होती है कि शायद जीवन की संतृप्ति उसमें मिल जाए, शायद जीवन आनंद को उपलब्ध हो जाए, शायद भीतर एक सौंदर्य और शांति और आनंद के लोक का उदघाटन हो जाए। लेकिन निरंतर एक-एक इच्छा में दौड़ने के बाद भी वह गंतव्य दूर रहता है, निरंतर वासनाओं के पीछे चल कर भी वह परम संपत्ति उपलब्ध नहीं होती है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-05)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-04)

धर्म और आनंद-(प्रशनोंत्तर-विविध)-ओशो

चौथा प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

सुबह की चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।

एक मित्र ने पूछा है: मंदिर, मस्जिद, गिरजे, पूजा-पाठ, ये सब तो सत्य तक पहुंचने के साधन हैं, साधनों का विरोध आप क्यों करते हैं? साधन को साध्य न समझा जाए यह तो ठीक है, लेकिन साधन का ही विरोध क्यों करते हैं?

मैं उन्हें साधन मानता तो विरोध नहीं करता। मैं उन्हें साधन नहीं मानता हूं। वे साधन नहीं हैं, झूठे साधन हैं। और झूठे साधन जिन्हें पकड़ जाएं वे सच्चे साधन खोजने में असमर्थ हो जाते हैं। झूठा साधन साधन के अभाव से भी बदतर और खतरनाक है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-04)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-03)

धर्म और आनंद-(प्रश्नोंत्तर-विविध)-ओशो  

तीसरा प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं एक बड़े अंधकार में था, जैसे कि सारी मनुष्यता है, जैसा कि आप हैं, जैसे कि जन्म के साथ प्रत्येक मनुष्य होता है। अंधकार के साथ अंधकार का दुख भी है, पीड़ा भी है, चिंता भी है; अंधकार के साथ भय भी है, मृत्यु भी है, अज्ञान भी है। आदमी अंधकार में पैदा होता है, लेकिन अंधकार में जीने के लिए नहीं और न अंधकार में मरने के लिए। आदमी अंधकार में पैदा होता है लेकिन प्रकाश में जी सकता है; और प्रकाश में मृत्यु को भी उपलब्ध हो सकता है। और बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जो प्रकाश में जीता है, वह जानता है कि मृत्यु जैसी कोई घटना ही नहीं है। अंधकार में जो मृत्यु थी, प्रकाश में वही अमृत का द्वार हो जाता है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-03)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-02)

धर्म और आनंद-(प्रश्नोंत्तर-विविध)-ओशो  

दूसरा प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

धर्म के संबंध में कुछ आपसे कहूं, इसके पहले कि धर्म के संबंध में कुछ बात हो, यह पूछ लेना जरूरी है, धर्म के संबंध में विचार करने के पहले यह विचार कर लेना जरूरी है, धर्म के संबंध में हम सोचें इसके पूर्व यह जानना और विचार करना जरूरी है कि धर्म की मनुष्य को आवश्यकता क्या है? जरूरत क्या है? हम क्यों धर्म में उत्सुक हों? क्यों हमारी जिज्ञासा धार्मिक बनें? क्या यह नहीं हो सकता कि धर्म के बिना मनुष्य जी सके? क्या धर्म कुछ ऐसी बात है जिसके बिना मनुष्य का जीना असंभव होगा? कुछ लोग हैं जो मानते हैं धर्म बिलकुल भी आवश्यक नहीं है। कुछ लोग हैं जो मानते हैं धर्म व्यर्थ ही, निरर्थक ही मनुष्य के ऊपर थोपी हुई बात है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-02)”

धर्म और आनंद-(प्रवचन-01)

धर्म और आनंद-(प्रश्नोंत्तर-विविध)-ओशो  

पहला प्रवचन

प्रश्न: पिछली दफे प्रवचन करते समय कहा कि तलवार से तलवार नहीं काटा जा सकता, तो वैर नहीं मिटाया जा सकता, बल्कि द्वेष को प्रेम से जीता जाता है।…की तरफ से जीता जाता है, अगर ये सब परिस्थितियों में सत्य है तो मर्यादा पुरुषोत्तम व मूर्तिमंत…ने क्यों भूल किया, वे अपने…(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

इंद्रियजनित ज्ञान और अतींद्रियज्ञान में क्या अंतर है?

मैं आपके प्रश्नों को सुन कर आनंदित हुआ हूं। प्रश्न हमारे सूचनाएं हैं। हमारे भीतर कोई जानने को उत्सुक है, कोई प्यासा है, कोई व्याकुलता है, वही हमारे प्रश्नों में प्रकट होती है। Continue reading “धर्म और आनंद-(प्रवचन-01)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-30)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

तीसवां प्रवचन–देख कबीरा रोया

एक आदमी को परमात्मा का वरदान था कि जब भी वह चले, उसकी छाया न बने, उसकी छाप न पड़े। वह सूरज की रोशनी में चलता तो उसकी छाया नहीं बनती थी। जिस गांव में वह था, लोगों ने उसका साथ छोड़ दिया। उसके परिवार के लोगों ने उसको घर से बाहर कर दिया। उसके मित्र और प्रियजन उसको देख कर डरने और भयभीत होने लगे। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति बन गई कि उसे गांव के बाहर जाने के लिए मजबूर हो जाना पड़ा। वह बहुत हैरान हुआ, तो उसने परमात्मा से प्रार्थना की कि मैंने केवल छाया खो दी है, और लोग मुझसे इतने भयभीत हो गए हैं, लेकिन लोग तो आत्मा भी खो देते हैं, और तब भी उनसे कोई भयभीत नहीं होता है। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-30)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-28)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

अट्ठाईसवां प्रवचन–अनिवार्य संतति-नियमन

प्रश्न: आप तीसरी बार यहां आए हैं। आपकी दो बातों का हम पर असर रहा–एक तो आप बुद्धिनिष्ठा की हिमायत करते हैं और दूसरी विचारनिष्ठा की बात करते हैं आप। गुरु को मानने के लिए आप मना करते हैं।

मैं तो इतना कह रहा हूं कि जो खबरें मेरे बाबत पहुंचाई जाती हैं, वे इतनी तोड़ते-मरोड़ते हैं, इतनी बिगड़ कर पहुंचाई जाती हैं–जब आप मुझे कहते हैं तो मुझे हैरानी हो जाती है। वह जो पत्रकारों से नारगोल में बात हुई थी, उनसे सिर्फ मजाक में मैंने कहा; उनसे सिर्फ मजाक में मैंने यह कहा कि जिसको तुम लोकतंत्र कह रहे हो, इस लोकतंत्र से तो बेहतर हो कि पचास साल के लिए कोई तानाशाह बैठ जाए। यह सिर्फ मजाक में कहा। और उनकी बेवकूफी की सीमा नहीं है, जिसको उन्होंने कहा कि मैं पचास साल के लिए देश में तानाशाही चाहता हूं। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-28)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-27)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

सत्ताईसवां प्रवचन–गांधी पर पुनर्विचार

मेरे प्रिय आत्मन्!

डॉ. राममनोहर लोहिया मरणशय्या पर पड़े थे। मृत्यु और जीवन के बीच झूलती उनकी चेतना जब भी होश में आती तो वह बार-बार एक ही बात दोहराते। बेहोशी में, मरते क्षणों में वे बार-बार यह कहते सुने गए। मेरा देश सड़ गया है, मेरे देश की आत्मा सड़ गई है। यह कहते हुए उनकी मृत्यु हुई। पता नहीं उस मरते हुए आदमी की बात आप तक पहुंची है या नहीं पहुंची। लेकिन राममनोहर लोहिया जैसे विचारशील व्यक्ति को यह कहते हुए मरना पड़े कि मेरा देश सड़ गया, मेरे देश की आत्मा सड़ गई है, तो कुछ विचारणीय है। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-27)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-25)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

पच्चीसवां प्रवचन–समाजवाद: परिपक्व पूंजीवाद का परिणाम

प्रश्न: आपने अभी-अभी ऐसा कहा था कि हमारे यहां अभी सोशलिज्म की जरूरत नहीं है। अभी जो कैपिटलिज्म है, वह यहां फ्लरिश होना चाहिए। उसके बारे में क्या आप कुछ विस्तार से प्रकाश डालेंगे?

हां, मेरी ऐसी दृष्टि है कि समाजवाद पूंजीवाद की परिपक्व अवस्था का फल है। और समाजवाद यदि अहिंसात्मक और लोकतांत्रिक ढंग से लाना हो तो पूंजीवाद परिपक्व हो, इसकी पूरी चेष्टा की जानी चाहिए। पूंजीवाद की परिपक्वता का अर्थ है, एक औद्योगिक क्रांति–कि देश का जीवन भूमि से बंधा न रह जाए, और देश का जीवन आदिम उपकरणों से बंधा न रह जाए। आधुनिकतम यंत्रीकरण हो तो संपत्ति पैदा हो सकती है। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-25)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-24)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

चौबीसवां प्रवचन–राष्ट्रभाषा: अ-लोकतांत्रिक

प्रश्न: परमात्मा तक जाने के लिए क्या विश्वास के द्वारा ही जाया जा सकता है?

मेरी समझ ऐसी है कि परमात्मा और विश्वास का कोई संबंध ही नहीं है। और जो भी विश्वास करता है, उसको मैं आस्तिक नहीं कहता। विश्वास का मतलब है कि जिसे हम नहीं जानते हैं, उसे मानते हैं। और मेरा कहना है कि जिसे हम नहीं जानते, उसे मानने से बड़ा पाप नहीं हो सकता। अगर कोई ईश्वर को इनकार करता है और कहता है कि मुझे अविश्वास है, तो भी मैं कह रहा हूं कि वह गलत बात कह रहा है। क्योंकि जब तक उसने खोज न लिया हो, समस्त को खोज न लिया हो और ऐसा पा न लिया हो कि ईश्वर नहीं है, तब तक ऐसा कहना ठीक नहीं कि विश्वास है। और एक आदमी कहता है, मुझे विश्वास है, हालांकि मैंने जाना नहीं, देखा नहीं, लेकिन विश्वास करता हूं। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-24)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-23)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

तेईसवां प्रवचन–गांधी की रुग्ण-दृष्टि

मेरे प्रिय आत्मन्!

जॉर्ज बर्नार्डशा ने एक छोटी सी किताब लिखी है। वह किताब सूक्तियों की मैक्सिम्स की किताब है। उसमें पहली सूक्ति उसने बहुत अदभुत लिखी है। पहला सूत्र उसने लिखा है: द फर्स्ट गोल्डन रूल इज़ दैट देअर आर नो गोल्डन रूल्स। पहला स्वर्ण-सूत्र यह है कि जगत में स्वर्ण-सूत्र हैं ही नहीं।

यह मुझे इसलिए स्मरण आता है कि जब मैं सोचते बैठता हूं, गांधी-विचार पर बोलने के लिए, तो पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूं कि गांधी-विचार जैसी कोई विचार-दृष्टि है ही नहीं। गांधी-विचार जैसी कोई चीज नहीं है। “गांधी-विश्वास’ जैसी चीज है, “गांधी-विचार’ जैसी चीज नहीं है। गांधी के विश्वास हैं कुछ, लेकिन गांधी के पास कोई वैज्ञानिक दृष्टि और कोई वैज्ञानिक विचार नहीं है। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-23)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-22)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

बाईसवां प्रवचन–विचार-क्रांति की भूमिका

प्रश्न: पिछली बार जब अहमदाबाद आए थे तो आपको सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग उपस्थित हुए थे। तथा आपकी विचारधारा समाचारपत्रों में भी प्रकाशित हुई थी। उनमें से कुछ लोगों का कहना है कि आपके विचार कम्युनिस्ट विचारधारा से बहुत मेल खाते हैं और उसके बहुत समीप हैं। कृपया इस संबंध में आप अधिक प्रकाश डालें।

पहली बात तो यह है कि मेरी दृष्टि में कोई भी विचारशील आदमी किसी न किसी रूप में कम्युनिज्म के निकट होगा ही। यह असंभव है, इससे उलटा होना। और अगर हो तो यह तो वह आदमी विचारशील न होगा, या बेईमान होगा।उसके कुछ कारण हैं। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-22)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-21)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

इक्कीसवां प्रवचन,–गांधीवादी कहां हैं?

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं निरंतर सोचता रहा, व्हेअर आर द गांधीयंस? गांधीवादी कहां हैं? लेकिन मेरे भीतर सिवाय एक उत्तर के और कुछ शब्द नहीं उठे। मेरे भीतर एक ही उत्तर उठता रहा–वहीं हैं, जहां हो सकते थे। यही सोचते हुए रात मैं सो गया और सोने में मैंने एक सपना देखा। उसी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। शायद यही सोचते हुए सोया था कि गांधीवादी कहां हैं, इसलिए वह सपना निर्मित हुआ होगा। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-21)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-20)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

बीसवां प्रवचन–वैज्ञानिक विकास और बदलते जीवन-मूल्य

प्रश्न: इस औद्योगिक युग में आत्म-अभिव्यक्ति के द्वारा मनुष्य आत्म-साक्षात्कार कैसे करे?

दोत्तीन बातें–एक तो मनुष्य सदा से ही औद्योगिक रहा है, इंडस्ट्रियल रहा है। चाहे वह छोटे औजार से काम कर रहा हो या बड़े औजार से काम कर रहा हो–छोटे पैमाने पर काम कर रहा हो, बड़े पैमाने पर काम कर रहा हो, आदमी जब से पृथ्वी पर है तब से इंडस्ट्रियल एक साथ है, वह आदमी के साथ ही था। और जैसे आज हम लगता है कि दो हजार साल पहले आदमी इंडस्ट्रियल नहीं था, दो हजार साल हम भी इंडस्ट्रियल नहीं मालूम होंगे। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-20)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-19)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

उन्नीसवां प्रवचन–परस्पर-निर्भरता और विश्व नागरिकता

नॉन-प्राडक्टिव वेल्थ के लिए हम टैक्सेस ज्यादा लगाएं और प्राडक्टिव वेल्थ के लिए हम जितना प्रमोशंस दे सकें, दें। दो ही तो उपाय हैं। अगर एक आदमी लाख रुपया पाया है मुफ्त में तो उस पर टैक्स भारी होना चाहिए और एक आदमी लाख रुपये से कुछ प्रॉडयूस कर रहा हो, डेढ़ लाख पैदा कर रहा हो तो उस पर टैक्सेस कम होने चाहिए। अभी हालतें उलटी हैं अगर आप लाख रुपया अपने घर में रख कर कुछ भी नहीं कमाते तो आपको कोई टैक्सेशन नहीं है और अगर आप डेढ़ लाख कमाते हैं तो आप पर टैक्सेशन हैं। अभी अगर वेल्थ को क्रिएट करते हैं तो आपको दंड देना पड़ता है टैक्सेशन के रूप में। अगर आप वेल्थ को रोक कर बैठ जाएं तो उसका कोई दंड नहीं है! Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-19)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-18)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

अठारहवां प्रवचन–प्रेम-विवाह: जातिवाद का अंत

हमारे यहां चूंकि जातिवाद का राजकरण है–जो हिंदू है, वह हिंदू को वोट देता है, जो मुस्लिम है वह मुस्लिम को वोट देता है। हमारे यहां बहुत कौमें हैं। आपके खयाल में इसको मिटाने के लिए क्या करना चाहिए?

दोत्तीन बातें करना चाहूंगा। एक तो जातीय दंगे को साधारण दंगा मानना शुरू करना चाहिए। उसे जातीय दंगा मानना नहीं चाहिए, साधारण दंगा मानना चाहिए। और जो हम साधारण दंगे के साथ व्यवहार करते हैं वही व्यवहार उस दंगे के साथ भी करना चाहिए, क्योंकि जातीय दंगा मानने से ही कठिनाइयां शुरू हो जाती हैं, इसलिए जातीय दंगा मानने की जरूरत नहीं है। जब एक लड़का एक लड़की को भगा कर ले जाता है, वह मुसलमान हो कि हिंदू, कि लड़की हिंदू है कि मुसलमान है–इस लड़के और लड़की के साथ वही व्यवहार किया जाना चाहिए, जो कोई लड़का किसी लड़का को भगा कर ले जाए, और हो। इसको जातीय मानने का कोई कारण नहीं है। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-18)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-17)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

सत्रहवां प्रवचन–असली अपराधी: राजनीतिज्ञ

आज तक आपने जो किया है, उसका मिशन क्या-क्या है–आपका उद्देश्य क्या है? महाबलेश्वर शिविर में मैं आ चुका हूं।

दोत्तीन बातें हैं। हमारे समाज की और हमारे देश की एक जड़ मनोदशा है, जहां चीजें ठहर गई हैं, बहुत समय से ठहर गई हैं। उनमें कोई गति नहीं रह गई। कोई दो ढाई हजार वर्ष से हम सिर्फ पुनरुक्ति कर रहे हैं। दो ढाई हजार वर्ष से हमने नये का स्वागत बंद कर दिया है, पुराने की ही पुनरुक्ति कर रहे हैं। तो मेरे काम का पहला हिस्सा पुराने की पुनरुक्ति को तोड़ता है। और पुराने की पुनरुक्ति का हमारा मन टूटे, तो ही हम नये के स्वागत के लिए तैयार हो सकते हैं, वह दूसरा हिस्सा है। तो पहला तो पुराने को पकड़ने की हमारी जो आकांक्षा है, और जो नये का भय है, ये दो हिस्से हैं। पुराने को तोड़ देने का और नये के स्वागत के लिए मार्ग खोलने का। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-17)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-16)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

सोलहवां प्रवचन–विध्वंस: सृजन का प्रारंभ

यह सवाल नहीं है। पहली बात तो यह कि मैं निपट एक व्यक्ति की भांति, जो मुझे ठीक लगता है वह में कहूं। न तो मेरी कोई संस्था है, न कोई संगठन। हां, कोई संगठन बना कर मेरी बात उसे ठीक लगती है और लोगों तक पहुंचाए, तो वैसा संगठन जीवन जागृति केंद्र है। वह उसका संगठन है, जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है और वे लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं। लेकिन मैं उस संगठन का हिस्सा नहीं हूं और उस संगठन का मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है, इसलिए वह संगठन रोज मुश्किल में है। क्योंकि कल मैंने कुछ कहा था, वह संगठन के लोगों को ठीक लगता था। आज कुछ कहता हूं, नहीं ठीक लगता है। वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। मेरी तो उनसे कोई शर्त नहीं है, उनसे मैं बंधा हुआ नहीं हूं, इसलिए जितनी प्रवृत्तियां चलती हैं, जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है, उनके द्वारा चलती हैं। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-16)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-15)

 देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

पंद्रहवां प्रवचन–भौतिक समृद्धि अध्यात्म का आधार

जो ठीक है और सच है वह मुझे कहना ही पड़ेगा। इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं। आखिर जो सत्य है, लोगों को उसके साथ आना पड़ेगा–चाहे वे आज दूर जाते हुए मालूम पड़ें। और लोग पास हैं इसलिए मैं असत्य नहीं बोल सकता। क्योंकि सच जब भी बोला जाएगा, तब भी प्राथमिक परिणाम उसका यही होगा कि लोग दूर भागेंगे। क्योंकि हजारों वर्षों की धारणा में वे पले हैं, उस पर चोट पड़ेगी। सत्य का हमेशा ही यही परिणाम हुआ है। सत्य हमेशा डिवास्टेंटिंग है। एक अर्थ है कि वह जो हमारी धारणा है उसको तो तोड़ डालेगा। और अगर धारणा तोड़ने से हम बचना चाहें तो हम सत्य नहीं बोल सकते। जान कर मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाह रहा हूं। डेलिब्रेटली मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाहता। लेकिन सत्य जितनी चोट पहुंचाता है उसमें मैं असमर्थ हूं, उतनी चोट पहुंचेगी। उसको बचा भी नहीं सकता हूं। फिर मैं कोई राजनीतिक नेता नहीं हूं कि मैं इसकी फिक्र करूं कि लोग मेरे पास आएं, कि मैं इसकी फिक्र करूं कि पब्लिक ओपिनियन क्या है? Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-15)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-14)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

चौदहवां प्रवचन–पूंजीवाद का दर्शन

इस वक्त तकलीफ यह है कि समाजवादी तो कह रहा है, और पूंजीवाद चुप है, वह सब देख रहा है। अपने घर में बैठ कर कह रहा है कि यह क्या हो रहा है। तब वह मर ही जाएगा, कोई उपाय नहीं है।

समाजवादी आपके पास आकर कहता नहीं है कि आप गलत बात कर रहे हैं?

मुझसे कोई आकर कहे तो मैं सदा तैयार हूं समझने को, अपनी बात समझाने को। अगर आप किसी बात को ठीक से कह रहे हैं और ठीक है बात, तो बहुत कठिनाई है एंटी सोशलिज्म की बात में। तो फिलासफी नहीं बना सकेंगे आप, इसलिए कहते हैं। जब तक आपके पास अपने आर्ग्युमेंट न हों…सोशलिज्म के पास अपने आर्ग्युमेंट हैं इसलिए आप परेशानी में पड़ जाते हैं। आपके पास आर्ग्युमेंट हैं इसलिए आप परेशानी में पड़ जाते हैं। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-14)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-13)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

तेरहवां प्रवचन–समाजवाद: पूंजीवाद का विकास

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मेरे खयाल में तो अगर कोई बात सत्य है, उपयोगी है, तो सत्य अपना माध्यम खोज ही लेता है। नहीं अखबार थे तब की दुनिया में, सत्य मरा नहीं। बुद्ध के लिए कोई अखबार नहीं था, महावीर के लिए कोई अखबार नहीं था, क्राइस्ट के लिए कोई अखबार नहीं था। तो भी क्राइस्ट मर नहीं गए। अगर बात में कुछ सच्चाई है, तो सत्य अपना माध्यम खोज लेगा। अखबार भी उसका माध्यम बन सकता है। लेकिन अखबार की वजह से कोई सत्य बचेगा, ऐसा नहीं है। या अखबार की वजह से कोई असत्य बहुत दिन तक रह सकता है, ऐसा भी नहीं है। माध्यम की वजह से कोई चीज नहीं बचती है, कोई चीज बचने योग्य हो, तो माध्यम मिल जाता है। अखबार भी मिल ही जाएगा। नहीं मिले, तो भी इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। हम जो कह रहे हैं, वह सत्य है, इसकी चिंता करनी चाहिए। अगर वह सत्य है तो माध्यम मिलेगा। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-13)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-12)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

बारहवां प्रवचन–समाजवाद का पहला कदम: पूंजीवाद

जैसे ही समाज में सुविधा बढ़ती है, सुख बढ़ता है, धन बढ़ता है, वैसे ही परेशानी बढ़ती है। जब आप भी सुखी थे तो आपमें भी परेशान आदमी पैदा हुआ है। हरे राम जो आप भज रहे थे, वह आपके सुखी समाज ने पैदा किया था, वह गरीब आदमी ने पैदा नहीं किया था। वह बुद्ध या महावीर जैसे अमीर घर के बेटे जाकर हरे राम कर रहे थे। एक गरीब आदमी इतना परेशान है कि और परेशान होने का उसे उपाय नहीं है। इसलिए यह जो आप सोचते हैं, एस्केपिज्म नहीं है, यह सुविधा है जो कि आपको…होता क्या है, कठिनाई क्या है, मुझे एक तकलीफ है, मुझे खाना नहीं मिल रहा, तो मेरा चौबीस घंटा तो खाना जुटाने में व्यतीत होता है। मुझे रहने को मकान नहीं है, तो मैं उसमें परेशान हूं, और मेरे सारे सपने इसके होते हैं कि मुझे खाना कैसे मिल जाए, मकान कैसे मिल जाता है, कपड़ा कैसे मिल जाए, एक औरत कैसे मिल जाए? Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-12)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-11)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

ग्यारहवां प्रवचन–गांधीवाद ही नहीं, वाद मात्र के विरोध में हूं

आपके प्रवचनों से जो सारा ही गुजरात में एक हलचल मच गई है। तो इसमें आप खुलासा कर सकते हैं?

किस संबंध में? कुछ एक-एक बात…

अगर गांधीजी के बारे में बोलेंगे और किसी व्यक्ति के बारे में बोलेंगे, तो आपको बोला है, इस गैर-संदिग्ध होगी यह। आज तो हमने सुना, तो उसमें कोई गैर-संदिग्ध नहीं होती है। न आपने गांधीजी की निंदा की है, न ही क्राइस्ट की। मगर यह गैर-संदिग्ध हो गई है सारे गुजरात में कि आपने गांधीजी की निंदा की या नेहरू जी की निंदा की, तो इसमें आप कुछ खुलासा कर सकते हैं? Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-11)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-10)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

दसवां प्रवचन–मेरी दृष्टि में रचनात्मक क्या है?

मेरे प्रिय आत्मन्!

बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। एक मित्र ने पूछा है कि मैं बोलता ही रहूंगा, कोई सेवा कार्य नहीं करूंगा, कोई रचनात्मक काम नहीं करूंगा, क्या मेरी दृष्टि में सिर्फ बोलते ही जाना पर्याप्त है?

इस बात को थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। पहली बात तो यह कि जो लोग सेवा को सचेत रूप से करते हैं, कांशसली, उन लोगों को मैं समाज के लिए अहितकर और खतरनाक मानता हूं। सेवा जीवन का सहज अंग हो छाया की तरह, वह हमारे प्रेम से सहज निकलती हो, तब तो ठीक; अन्यथा समाज-सेवक जितना समाज का अहित और नुकसान करते हैं, उतना कोई भी नहीं करता है। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-10)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-09)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

नौवां प्रवचन–गांधी का चिंतन अवैज्ञानिक है

…व्यवहार करते हैं। ये दोनों तरकीबें हैं। जिंदा आदमी को मार डालो और मरे हुए आदमी की पूजा करो। ये छूटने के रास्ते हैं, ये बचने के रास्ते हैं। फिर पूजा भी हम उसी की करते हैं जिसे हमने बहुत सताया हो। पूजा मानसिक रूप से पश्चात्ताप है। वह प्रायश्चित्त है। जिन लोगों को जीते जी हम सताते हैं, उनके मरने के बाद पूरा समाज उनकी पूजा करता है; ऐसे प्रायश्चित्त करता है। वह जो पीड़ा दी है, वह जो अपराध किया है, वह जो पाप है भीतर, उस पाप का प्रायश्चित्त चलता है, फिर हजारों साल तक पूजा चलती है। पूजा किए गए अपराध का प्रायश्चित्त है। लेकिन वह भी अपराध का ही दूसरा हिस्सा है। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-09)”

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