कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-13)

पिया मिलन की आस—(प्रवचन—तेरहवां)

04 जून, 1975, प्रातः, ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

सूत्र :

आंखरिया झांई पड़ी, पंथ निहार निहार।

जीभड़िया छाला पड़ा, राम पुकारि पुकारि।।

इस तन का दीवा करौं, बाती मैल्यूं जीव। .

लोही सीचौं तेल ज्यूं, कब मुख देख्यौं पीव।।

सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।

नैन तो झरि लाइया, रहंट बहै निसुवार।

पपिहा ज्यों पिउ फिउ रटै, पिया मिलन की आस।।

कबीरा वैद बुलाइया, पकरि के देखो बांहि।

वैद न वेदन जानई, करक कलेजे मांहि।। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-13)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-12)

गुरु मृत्‍यु है—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक  03 जून, 19?5, प्रातः,  ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

प्रश्‍नसार :

 1—सूत्रों की अपेक्षा हमारे प्रश्नों के उत्तर में आपके प्रवचन अधिक अच्छे लगते हैं। ऐसा   क्यों?

 2—झटका क्यों, हलाल क्यों नहीं?

 3—शिक्षक देता है ज्ञान और गुरु देता है ध्यान। ध्यान देने का क्या अर्थ है?

 4—आपके सतत बोलने में मिटाने की कौन सी प्रक्रिया छिपी है?

 5—आपने कहा, शिष्य की जरूरत और स्थिति के अनुसार सदगुरु मार्गदर्शन करता है। आपके कथन में आस्था के बावजूद मार्गनिर्देशन के अभाव की प्रतीति।

 6—आशा से आकाश टंगा है। क्या आशा छोड़ने से आकाश गिर न जाएगा?

 7—क्या ब्राहमणों ने जातिगत पूर्वाग्रह के कारण कबीर को अस्वीकार कर दिया? Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-12)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-11)

करो सत्संग गुरुदेव से—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

01 जून, 1975, प्रातः,  ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

सूत्र :

गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै।

गुरुदेव बिन जीव की भला नाहिं।।

गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासै नहिं।

समझि विचार लै मन माहि।।

रहा बारीक गुरुदेव तें पाइये।

जनम अनेक की अटक खोलै।।

कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै।

जीव और सीव तब एक तोलै।।

करो सतसंग गुरुदेव से चरन गहि। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-11)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-10)

एक ज्योति संसारा—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 20 मई, 1975, प्रातः,  ओशो आश्रम, पूना

सूत्र :

हम तो एक एक करि जाना,

दोई कहै, तिनही को दोजख, जिन नाहिन पहचाना।

ऐकै पवन, एक ही पानी, एक ज्योति संसारा।

एक हि खाक घड़े सब भाड़े, एक ही सिरजनहारा।

जैसे बाढ़ी काष्ठ ही काटे, अगनि न काटै कोई।

सब घटि अंतर तू ही व्यापक, धरै सरूपे सोई।

माया मोहे अर्थ देखि करि काहे कू गरबाना।

निर्भय भया कछु नहीं व्यापै, कहै कबीर दीवाना।। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-10)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-09)

अंधे हरि बिना को तेरा—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 19 मई, 1975, प्रातः, श्री ओशो आश्रम, पूना

सूत्र :

अंधे हरि बिना को तेरा, कबन्सु कहत मेरी मेरा।

तति कुलाक्रम अभिमाना, झूठे भरमि कहा भुलाना।।

झूठे तन की कहा बड़ाई, जे निमिख माहि जर जाई।

जब लग मनहि विकारा, तब लग नहिं छूटे संसार।।

जब मन निर्मल करि जाना, तब निर्मल माहि समाना।

ब्रह्म अगनि ब्रह्म सोई, अब हरि बिना और न कोई।।

जब पाप पुण्य भ्रम जारि, तब भयो प्रकाश मुरारी।

कहे कबीर हरि ऐसा, जहां जैसा तहां तैसा।

भूले भरम मरे जिन कोई, राजा राम करे सो होई। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-09)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-08)

प्रीति लागी तुम नाम की—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 18 मई, 1975, प्रातः, ओशो आश्रम, पूना

सूत्र :

प्रीति लागी तुम नाम की, पल बिसरे नाही।

नजर करो अब मिहर की, मोहि मिलो गुसाई।।

बिरह सतावै मोहि को, जिव तड़फे मेरा।

तुम देखन की चाव है, प्रभु मिला सबेरा।

नैना तरसै दरस को, पल पलम न लागे।

दर्दबंद दीदार का, निसि बास जागे।।

जो अब कै प्रीतम मिलें, करूं निमिख न न्यारा।

अब कबीर गुरु पाइया, मिला प्राण पियारा। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-08)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-07)

बूझै बिरला कोई—(प्रवचन—सातवां)

 दिनांक 17 मई, 1975, प्रातः,  ओशो आश्रम, पूना

सूत्र :

अंबर बरसै धरती भीजै, यहु जाने सब कोई।

धरती बरसै अंबर भीजै, बूझै बिरला कोई।।

गावन हारा कदे न गावै, अनबोल्या नित गावै।

नटवर पेखि पेखना पेखै, अनहद बेन बजावै।।

कहनी रहनी निज तत जानै, यह सब अकथ कहानी।

धरती उलटि आकासहि ग्रासै, यहु परिसा की बाणी।।

बाज पियालै अमृत सौख्या, नदी नीर भरि राख्या।

कहै कबीर ते बिरला जोगी, धरणि महारस चाख्या।। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-07)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-06)

जोगी जग थैं न्यारा—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 16 मई, 1975, प्रापतः,  ओशो आश्रम, पूना

सूत्र :

वधू जोगी जग थैं न्यारा।

मुद्रा निरति सुरति करि सींगी नाद न षंडै धारा।।

बसै गगन में दुनि न देखे, चेतनि चौकी बैठा।

चढ़ि आकाश आसण नहिं छाड़ै, पीवै महारस मीठा।।

परगट कथा माहै जोगी, दिल मैं दरपन जोवै।

सहंस इकीस छह सै धागा, निश्चला नाकै पोवै।।

ब्रह्म अगनि में काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।

कहै कबीर सोई जोगेस्वर, सहज सुंनि लौ लागै।। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-06)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-05)

गगन मंडल घर कीजै—(प्रवचन—पांचवां)

15 मई, 1975, प्रात;,   श्री ओशो आश्रम, पूना

सूत्र:

अवधु, गगन मंडल घर कीजै।

अमृत झर सदा सुख उपजै, बंकनालि रस पीजै।

मूल बांधि सर गगन समाना, सुखमनि यों तन लागी।

काम क्रोध दोऊ भया पलीता, तहां जोगणी जागी।

मनवा आइ दरीबै बैठा, मगन भया रासि लागा।

कहै कबीर जिस संसा नाही, सबद अनाहद बागा।। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-05)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-04)

मन रे जागत रहिये भाई—(प्रवचन—चौथा)

14 मई, 1975, प्रातः,  श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र :

मन रे जागत रहिये भाई।

गाफिल होइ बसत मति खोवै।

चोर मुसै घर जाई।

षटचक्र की कनक कोठरी।

बस्त भाव है सोई।

ताला कुंजी कुलक के लागै।

उघड़त बार न होई।

पंच पहिरवा सोई गये हैं,

बसतैं जागण लागी,

जरा मरण व्यापै कछु नाही। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-04)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-03)

पाइबो रे पाइबो ब्रह्मज्ञान—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 13 मई, 1975, प्रातः,  श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र :

अब मैं पाइबो रे पाइबो रे ब्रह्मज्ञान।

सहज समाधें सुख में रहिबो, कौटि कलप विश्राम।

गुरु कृपाल कृपा जब कीन्ही, हिरदै कंवल विगासा।

भागा भ्रम दसों दिसि सू)या, परम ज्योति परगासा।

मतक उठया धनक कर लीये, काल अहेड़ी भागा।

उदया सूर निस किया पयाना, सोवत थें जब जागा।

अविगत अकल अनूपम देख्या, कहंता कहया न जाई।

सैन करे मन ही मन रहसे, गूंगे जान मिठाई। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-03)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-02)

भगति भजन हरिनाम—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 12 मई, 1975 प्रात;  श्री ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

पीछें लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।

आगे थे सदगुरु मिला, दीपक दिया हाथि।।

भगति भजन हरिनाम है, दूजा दुख अपार।

मनसा वाचा कर्मना कबीर सुमरिन सार।।

मेरा मन सुमरे राम कूं, मेरा मन राम ही आहि।

अब मन रामही व्है रहया सीस नवावें काहि।।

सब रग तंत रबाब तन, विरह बजावे नित।

और न कोई सुन सके कै सांई के चित्त।। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-02)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-01)

मैं ही इक बौराना—(प्रवचन—पहला)

11 मई, 1975 प्रात; , श्री ओशो आश्रम पूना

सूत्रसार :

जब मैं भूला रे भाई, मेरे सत गुरु जुगत लखाई।

किरिया करम अचार मैं छाड़ा, छाड़ा तीरथ नहाना।

सगरी दुनिया भई सुनायी, मैं ही इक बौराना।।

ना मैं जानूं सेवा बंदगी ना मैं घंट बजाई।

ना मैं मूरत धरि सिंहासन ना मैं पुहुप चढ़ाई।।

ना हरि रीझै जब तप कीन्हे ना काया के जारे।

ना हरि रीझै धोति छाड़े ना पांचों के मारे।।

दाया रखि धरम को पाले जगसूं रहै उदासी।

अपना सा जिव सबको जाने ताहि मिले अनिवासी।। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-01)”

कहै कबीर दिवाना-(कबीर दास)-ओशो

कहै कबीर दीवाना   (ओशो)

(‘कहै कबीर दीवाना’, एवं ‘मेरा मुझमें कुछ नहीं’ का संयुक्‍त संस्‍करण। दिनांक 11-05-1975 से 20-05-1975 तक पूना महाराष्ट्रर)

बीर अपने को खुद कहते है: कहे कबीर दीवाना।

एक—‘एक शब्‍द को सुनने की, समझने की कोशिश करो। क्‍योंकि कबीर जैसे दीवाने मुश्किल से मिलते है। अंगुलियों पर गिने जा सकते है। और उनकी दीवानगी ऐसी है कि तुम अपना अहोभाग्‍य समझना और उनकी सुराही की शराब से एक बूंद भी तुम्‍हारे कंठ में उतर जाए। अगर उनका पागल पन थोड़ा सा भी तुम्‍हें पकड़ ले, तुम भी कबीर जैसा नाच उठो और गा उठो, तो उससे बड़ा कोई धन्‍य भाग नहीं। वही परम सौभाग्‍य है। सौभाग्‍यशालियों को ही उपलब्‍ध होता है। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(कबीर दास)-ओशो”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-10)

दसवां –प्रवचन

अवधूत का अर्थ परंपरा का झूठ परख-बुद्धि प्रेम का त्याग आंसू की भाषा अशांति का स्वीकार पारलौकिक प्रेम

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना प्रातः दिनांक २० मई १९७७

प्रश्न-सार

1–अवधूत का क्या अर्थ है?

2–मलूकदास भक्त हो कर भी मूर्तिपूजा का मजाक क्यों उड़ाते हैं?

3–कन थोरे कांकर घने की परख-बुद्धि कैसे पायें?

4–प्रेम और त्याग में किसका महत्व बढ़कर है?

5–आपसे कैसे कहूं दिल की बात? आपको कैसे धन्यवाद दूं? आंसू बहते हैं!

6–जीवन में कोई अभिलाषा पूरी नहीं हुई; विषाद में डूबा हूं; अब मन कैसे शांत हो?

7–दूर जा रही हूं–पता नहीं कब आपके दर्शन हों! आशीष दें। Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-10)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-09)

नौवां –प्रवचन  उधार धर्म से मुक्ति

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक १९ मई, १९७७

सारसूत्र:

देवल पूजे कि देवता, की पूजे पाहाड़।

पूजन को जांता भला, जो पीस खाय संसार।।

मक्का, मदिना, द्वारका, बदरी अरु केदार।

बिना दया सब झूठ है, कहै मलूक विचार।।

सब कोउ साहेब बंदते, हिंदू मुसलमान।

साहेब तिसको बंदता, जिसका ठौर इमान।।

दया धर्म हिरदे बसै, बोले अमरित बैन।

तेई ऊंचे जानिए, जिसके नीचे नैन।। Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-09)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-08)

आठवां –प्रवचन

आध्यात्मिक पीड़ा निजता की खोज संन्यास और श्रद्धा अज्ञान का बोध

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक 18 मई, 1977;

प्रश्न-सार:

1–आपने मुझे घायल कर दिया है; मरहम-पट्टी कब होगी?

2–जीवन में इतनी उदासी और निराशा क्यों है?

3–मैंने संन्यास क्यों लिया है? श्रद्धा-भक्ति नहीं है, फिर भी बार-बार आपके पास क्यों आती हूं?

4–क्या समझ-देख कर आपने मुझ मूढ़ को आश्रम में स्थान दिया है? Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-08)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन–मिटने की कला: प्रेम  

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूक दास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रात; दिनांक 17 मई, 1977;

सारसूत्र:

सब बाजे हिरदे बजैं, प्रेम पखावज तार।

मंदिर ढूढ़त को फिरै, मिल्यो बजावनहार।।

करै पखावज प्रेम का, हृदय बजावै तार।

मनै नचावै मगर ह्वै, तिसका मता अपार।।

जो तेरे घट प्रेम है, तो कहि कहि न सुनाव।

अंतरजामी जानी है, अंतरगत का भाव।।

माला जपो न कर जपो, जिभ्या कहो न राम।

सुमिरन मेरा हरि करै, मैं पाया विसराम।।

जेती देखै आत्मा, तेते सालिगराम।

बोलनहारा पूजिए, पत्थर से क्या काम।। Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-07)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-06)

छठवां -प्रवचन

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

जीवंत अनुभूति प्रकृति और सदगुरु प्रेम की हार भक्त का निवेदन परमात्मा की प्यास भलाई का अहंकार

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक 16 मई, 1977

प्रश्न सार:

1–आध्यात्मिक अनुभूतियों को कैसे संजो कर रखा जाए?

2–प्रकृति सान्निध्य और गुरु सान्निध्य में क्या फर्क है?

3–परमात्मा को पाना मनुष्य की जीत है या हार?

4–भक्त क्या पाना चाहता है?

5–परमात्मा की खोज का साहस मुझमें क्यों नहीं है?

6–मैं भलाई करता हूं, लोग अनुग्रह क्यों नहीं मानते? Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-06)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-05)

प्रभु की अनुकंपा –पांचवां–प्रवचन

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक 15 मई, 1977

सारसूत्र:

मील कद करी थी भलाई जीया आप जान,

फील कद हुआ था मुरीद कहु किसका।।

गीव कद ज्ञान की किताब का किनारा छुआ,

ब्याध और बधिक तारा, क्या निसाफ तिसका।।

नाग केद माला लैके बंदगी करी थी बैठ,

मुझको भी लगा था अजामिल का हिसका।।

एतै बदराहों की तम बदी करी थी माफ,

मलूक अजाती पर एती करी रिस का।। Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-05)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन  –

भक्ति की शराब स्वभाव की उदघोषणा समानुभूति धारणा और भक्ति त्वरा और सातत्य जीवन-उत्सव

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रात;, दिनांक 14 मई 1977 ;

प्रश्न-सार:

1–भक्ति के लिए शराब की उपमा आप क्यों देते हैं?

2–मध्ययुगीन संत गरीब और पिछड़ें वर्ग से क्यों आये?

3–दूसरों के दुःख को अपना मानना कब संभव?

4–मिलन असंभव क्यों लगता है?

5–अनेक साधनाएं करके घटना क्यों नहीं घटी?

6–मृत्यु के रहते उदासी से कैसे मुक्त रहा जा सकता है? Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-04)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-03)

परमात्मा को रिझाना है-तीसरा प्रवचन:

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रात; दिनांक 13 मई, 1977;

सारसूत्र:

ना वह रिझै जप तप कीन्हें, ना आतम को जारे।

ना वह रीझै धोती टांगे, ना काया के पखारे।।

दया करै धरम मन राखै, घर में रहै उदासी।

अपना सा दुःख सब का जाने, ताहि मिलें अविनासी।।

सहै कुसब्द बादहू त्यागे, छांड़ै गर्व-गुमाना।

यही रीझ मेरे निरंकार की, कहत मलूक दिवाना।। Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-03)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

क्रांतिद्रष्टा संत गूंगी प्रार्थना काम पक जाए, तो राम नाचो–गाओ–डूबो प्रभु-मिलन

कन थोरे  कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः दिनांक 12 मई, 1977

प्रश्न-सार:

1-बाबा मलूकदास जैसे अलमस्त फकीरों की परंपरा क्यों नहीं बन पाती?

2-प्रार्थना में क्या कहें? प्रभु-कृपा कैसे उपलब्ध हो?

3-शरीर और मन के संबंध तृप्त नहीं करते, क्या करूं?

4-कुछ समझ में नहीं आता?

5जब खो ही गये, तो परमात्मा से मिलन कैसा? Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-02)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-01)

प्रवचन-पहला

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)  –ओशो

सारसूत्र:

दर्द दीवाने बावरे, अलमस्त फकीरा।

एक अकीदा लौ रहे, ऐसे मन धीरा।।

प्रेम पियाला पीवते, बिसरे सब साथी।

आठ पहर यों झूमत, मैगल माता हाथी।।

उनकी नजर न आवते, कोई राजा-रंक।

बंधन तोड़े मोह के, फिरते निहसंक।।

साहेब मिल साहेब भए, कुछ रही न तमाई।

कहैं मलूक तिस घर गए, जंह पवन न जाई।। Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-01)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-20)

नानक नदरी नदरि निहाल—(प्रवचन—बीसवां)

पउड़ी: 38

जतु पहारा धीरजु सुनिआरु। अहरणि मति वेदु हथीआरु।।

भउ खला अगनि तपताउ। भांडा भाउ अमृत तितु ढालि।।

घड़ीए सबदु सची टकसालु। जिन कउ नदरि करमु तिन कार।।

‘नानक’ नदरी नदरि निहाल।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-20)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-19)

सच खंडि वसै निरंकारु—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

पउड़ी: 37

करम खंड की वाणी जोरु। तिथै होरु न कोई होरु।।

तिथै जोध महाबल सूर। तिन महि राम रहिआ भरपूर।।

तिथै सीतो सीता महिमा माहि। ताके रूप न कथने जाहि।।

न ओहि मरहि न ठागे जाहि। जिनकै राम बसै मन माहि।।

तिथै भगत वसहि के लोअ। करहि अनंदु सचा मनि सोइ।।

सच खंडि वसै निरंकारु। करि करि वेखै नदरि निहाल।।

तिथै खंड मंडल बरमंड। जे को कथै त अंत न अंत।।

तिथै लोअ लोअ आकार। जिव जिव हुकमु तिवै तिव कार।।

वेखै विगसे करि वीचारु। ‘नानक’ कथना करड़ा सारु।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-19)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-18)

नानक अंतु न अंतु—(प्रवचन—अट्ठाहरवां) 

पउड़ी: 35

धरम खंड का एहो धरमु।

गिआन खंड का आखहु करमु।।

केते पवन पाणि वैसंतर केते कान महेस।

केते बरमे घाड़ति घड़िअहि रूप रंग के वेस।।

केतीआ करम भूमी मेर केते केते धू उपदेस।

केते इंद चंद सूर केते केते मंडल देस।।

केते सिध बुध नाथ केते केते देवी वेस।

केते देव दानव मुनि केते केते रतन समुंद।।

केतीआ खाणी केतीआ वाणी केते पात नरिंद।

केतीआ सुरती सेवक केते ‘नानक’ अंतु न अंतु।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-18)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-17)

करमी करमी होइ वीचारु—(प्रवचन—सतरहवां)

पउड़ी: 34

राती रुति थिति वार। पवन पानी अगनी पाताल।।

तिसु विचि धरती थापि रखी धरमसाल।

तिसु विचि जीअ जुगुति के रंग। तिनके नाम अनेक अनंत।।

करमी करमी होइ वीचारु। साचा आप साचा दरबारु।।

तिथै सोहनि पंच परवाणु। नदरी करमी पवै नीसाणु।।

कच पकाई ओथै पाइ। ‘नानक’ गाइआ जापै जाइ।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-17)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-16)

नानक उतमु नीचु न कोइ—(प्रवचन—सोलहवां)

पउड़ी: 32

इकदू जीभौ लख होहि लख होवहि लख बीस।

लखु लखु गेड़ा अखिअहि एक नामु जगदीस।।

एतु राहि पति पवड़ीआ चड़ीए होइ इकीस।

सुणि गला आकास की कीटा आई रीस।।

‘नानक’ नदरी पाईए कूड़ी कूड़ै ठीस।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-16)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-15)

जुग जुग एको वेसु—(प्रवचन—पंद्रहवां)

पउड़ी: 30

एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु।

इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीवाणु।।

जिव तिसु भावै तिवै चलावै जिव होवै फुरमाणु।

ओहु वेखै ओना नदरि न आवै बहुता एहु विडाणु।।

आदेसु तिसै आदेसु।।

आदि अनीलु अनादि अनाहतु जुग जुग एको वेसु।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-15)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-14)

आदेसु तिसै आदेसु—(प्रवचन—चौदहवां)

पउड़ी: 28

मुंदा संतोखु सरमु पतु झोली धिआन की करहि बिभूती।

किंथा कालु कुआरी काइआ जुगति डंडा परतीति।।

आई पंथी सगल जमाती मनि जीतै जगु जीत।।

आदेसु तिसै आदेसु।।

आदि अनीलु अनादि अनाहति। जुगु जुगु एको वेसु।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-14)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-13)

सोई सोई सदा सचु साहिबु—(प्रवचन—तेरहवां)

पउड़ी: 27

सो दरु केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब समाले।

बाजे नाद अनेक असंखा केते वावणहारे।।

केते राग परी सिउ कहीअनि केते गावणहारे।

गावहि तुहनो पउणु पाणी वैसंतरु गावे राजा धरम दुआरे।।

गावहि चितगुपतु लिखि जाणहि लिखि लिखि धरमु वीचारे।

गावहि ईसरु बरमा देवी सोहनि सदा सवारे।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-13)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-12)

आखि आखि रहे लिवलाइ—(प्रवचन—बारहवां)

पउड़ी: 26

अमुल गुण अमुल वापार। अमुल वापारीए अमुल भंडार।।

अमुल आवहि अमुल लै जाहि। अमुल भाव अमुला समाहि।।

अमुलु धरमु अमुलु दीवाणु। अमुलु तुलु अमुलु परवाणु।।

अमुलु बखसीस अमुलु नीसाणु। अमुलु करमु अमुलु फरमाणु।।

अमुलो अमुलु आखिया न जाइ। आखि आखि रहे लिवलाइ।।

आखहि वेद पाठ पुराण। आखहि पड़े करहि वखियाण।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-12)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-11)

ऊचे उपरि ऊचा नाउ—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

पउड़ी: 24

अंतु न सिफती कहणि न अंतु। अंतु न करणै देणि न अंतु।।

अंतु न वेखणि सुणणि न अंतु। अंतु न जापै किआ मनि मंतु।।

अंतु न जापै कीता आकारु। अंत न जापै पारावारु।।

अंत कारणि केते बिललाहि। ताके अंत न पाए जाहि।।

एहु अंत न जाणै कोइ। बहुता कहिऐ बहुता होइ।।

वडा साहिबु ऊचा थाउ। ऊचे उपरि ऊचा नाउ।।

एवडु ऊचा होवे कोइ। तिसु ऊचे कउ जाणै सोइ।।

जेवड आपि जाणै आपि आप। ‘नानक’ नदरी करमी दाति।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-11)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-10)

 आपे जाणै आपु—(प्रवचन—दसवां)

पउड़ी: 22

पाताला पाताल लख आगासा आगास।

ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहनि इक बात।।

सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इकु धातु।

लेखा होइ त लिखीऐ लेखै होइ विणासु।।

नानक बडा आखीए आपे जाणै आपु।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-10)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-09)

आपे बीजि आपे ही खाहु—(प्रवचन—नौवां)

पउड़ी: 20

भरीए हथु पैरु तनु देह। पाणी धोतै उतरसु खेह।।

मूत पलोती कपड़ होइ। दे साबूणु लईऐ ओहु धोइ।।

भरीऐ मति पापा के संगि। ओहु धोपै नावै कै रंगि।।

पुंनी पापी आखणु नाहि। करि करि करणा लिखि लै जाहु।।

आपे बीजि आपे ही खाहु। ‘नानक’ हुकमी आवहु जाहु।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-09)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-08)

जो तुधु भावै साई भलीकार—(प्रवचन—आठवां)

पउड़ी: 17 

असंख जप असंख भाउ। असंख पूजा असंख तप ताउ।।

असंख गरंथ मुखि वेद पाठ। असंख जोग मनि रहहि उदास।।

असंख भगत गुण गिआन वीचार। असंख सती असंख दातार।।

असंख सूर मुह भख सार। असंख मोनि लिव लाइ तार।।

कुदरति कवण कहा वीचारु। वारिआ न जावा एक बार।।

जो तुधु भावै साई भलीकार। तू सदा सलामति निरंकार।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-08)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-07)

पंचा का गुरु एकु धिआनु—(प्रवचन—सातवां)

पउड़ी: 16

पंच परमाण पंच परधान। पंचे पावहि दरगहि मानु।।

पंचे सोहहि दरि राजानु। पंचा का गुरु एकु धिआनु।।

जे को कहे करै वीचारू। करतै कै करणे नाही सुमारू।।

धौलु धरमु दइधा का पूतु। संतोष थापि रखिया जिनि सूति।।

जे को बूभै होवै सचिआरू। धवलै उपरि केता भारू।।

धरति होरू परै होरू होरू। तिसते भारू तले कवणु जोरू।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-07)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-06)

ऐसा नामु निरंजनु होइ—(प्रवचन—छठवां)

पउड़ी: 12

मंनै की गति कही न जाइ। जे को कहै पिछै पछुताइ।।

कागद कलम न लिखणहारू। मंनै का बहि करनि विचारू।।

ऐसा नामु निरंजनु होइ। जे को मंनि जाणै मनि कोइ।।

पउड़ी: 13

मंनै सुरति होवै मनि बुधि। मंनै सगल भवन की सुधि।।

मंनै मुहि चोटा न खाइ। मंनै जम के साथ न जाइ।।

ऐसा नामु निरंजनु होइ। जे को मंनि जाणै मनि कोइ।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-06)”

एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-05)

नानक भगता सदा विगासु—(प्रवचन—पांचवां)

पउड़ी: 8

सुणिऐ सिध पीर सुरि नाथ। सुणिऐ धरति धवल आकास।।

सुणिऐ दीप लोअ पाताल। सुणिऐ पोहि न सकै कालु।।

‘नानक’ भगता सदा विगासु। सुणिऐ दुख पाप का नासु।।

पउड़ी: 9

सुणिऐ ईसर बरमा इंदु। सुणिऐ मुख सालाहणु मंदु।।

सुणिऐ जोग जुगति तनि भेद। सुणिऐ सासत सिमृति वेद।।

‘नानक’ भगता सदा विगासु। सुणिऐ दुख पाप का नासु।। Continue reading “एक ओंकार सतनाम–(प्रवचन-05)”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें