पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-20)

प्रेम श्वास है आत्मा की—(प्रवचन—बीसवां)

प्रश्न-सार :

1—प्यारे भगवान! मैं रोऊं, गाऊं या मुस्कुराऊं, नौ साल दूर कैसे रह गई, समझ नहीं पाती हूं। अब पास आकर ऐसी दशा है कि हमेशा रोआं-रोआं कांपता रहता है, चाहे सोई रहूं या जागी रहूं। इस अवस्था पर आनंद भी अनुभव होता है और झुंझलाहट भी। कोई रास्ता दिखाने की कृपा करें।

2—जीवन के बंधनों से मुक्ति कैसे हो? आवागमन कैसे मिटे?

3—आप जब गांधी, विनोबा, अरविंद और विवेकानंद के विरोध में बोलते हैं, तो मुझे रंज होता है। वैसे ही जब कोई आपके विरोध में बोलता है तो मुझे रंज होता है। विनती है कि जैसे आप बुद्ध और महावीर को समझाने में सहायक होते हैं, वैसे ही श्री अरविंद को समझाने में सहायक हों।

4—आप कहते हैं–प्रेम है द्वार प्रभु का। मैंने भी कभी किसी को प्रेम किया था, लेकिन उसे पाने में असफल रहा। अब तो तीस वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन फिर किसी और को प्रेम न कर पाया। भगवान, क्या कभी मेरा उससे मिलन होगा? Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-20)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-19)

पद घुंघरू बांधी—(प्रवचन—उन्नीसवां) 

भक्ति: चाकर बनने की कला

सूत्र:

म्हानें चाकर राखोजी, म्हाने चाकर राखोजी।

चाकर रहसूं बाग लगासूं, नित उठ दरसन पासूं।

बिन्द्राबन की कुंज गलिन में, तेरी लीला गासूं।।

चाकरी में दरसन पाऊं, सुमिरण पाऊं खरची।

भाव—भगति जागीरी पाऊं, तीनों बातां सरसी।।

मोरमुकुट पीताम्बर सोहे, गल बैजंती माला।

बिन्द्राबन में धेनु चरावें, मोहन मुरली वाला।।

ऊंचे—ऊंचे महल चिनाऊं, बिच—बिच राखूं बारी। Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-19)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-18)

जीवन का रहस्य—मृत्यु में—(प्रवचन—अठारहवां)

प्रश्न—सार:

1—मैं असहाय हूं, मैं बेबस हूं! मैं क्या करूं?

2—मंसूर और सरमद के अफसाने पुराने हो गए।

3—ऐ रजनीश! मेरे लिए किस्सा नया तजवीज कर। क्या मेरी प्रार्थना सुनी जाएगी?

4—सुना है कि जिंदगी चार दिनों की होती है और मिलन पांचवें दिन होता है। तो क्या करूं?

5—परमात्मा कहां है और मैं उसे कैसे खोजूं? Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-18)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-17)

भक्ति का प्राण: प्रार्थना—(प्रवचन—सत्रहवां) 

सारसूत्र :

झुक आई बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की।

सावन में उमग्यो मेरा मनवा, भनक सुनी हरि आवन की।

उमड़—घुमड़ चहुं दिस से आए, दामण दमक झर लावन की।

नन्हीं—नन्हीं बुंदिया मेहा बरसे, सीतल पवन सुहावन की।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आनंद मंगल गावन की।

राणाजी, मैं सांवरे रंग राची।

सज सिंगार पद बांध घुंघरू, लोकलाज तजि नाची।

गई कुमति लहि साधु संगति, भक्ति रूप भई सांची। Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-17)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-16)

संन्यास है—दृष्टि का उपचार—(प्रवचन—सोलहवां)

प्रश्न—सार:

1—आप कहते हैं—संन्यासी को संसार छोड़ना आवश्यक नहीं। क्यों?

2—आप अपने संन्यासियों को संसार से अलग नहीं होने की सलाह देते हैं। फिर आपके प्रवचनों में संन्यासियों और संसारियों के बीच लक्ष्मण—रेखा क्यों बनती है?

3—मैं पूना के लिए यह निश्चय करके चला था कि अब की बार संन्यास लेकर लौटूंगा। किंतु यहां आपके सान्निध्य में होकर संन्यास का भाव ही विलीन हो गया। Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-16)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-15)

पद घुंघरू बांध—(प्रवचन—पंद्रहवां)  

हेरी! मैं तो दरद दिवानी

सूत्र:

हेरी! मैं तो दरद दिवानी, मेरो दरद न जाणे कोइ।

घायल की गति घायल जाणे, की जिन लाई होइ।

जौहरि की गति जौहरि जाणे, की जिन जौहर होइ।

सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस विधि होइ।

गगन मंडल पे सेज पिया की, किस विधि मिलना होइ। Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-15)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-14)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—चौदहवां)

समन्वय नहीं—साधना करो

प्रश्न—सार:

1—आप कहते हैं कि मनुष्य अपने लिए पूरी तरह जिम्मेवार है। और दूसरी ओर आप कहते हैं कि “समस्त‘ सब करता है। इन दो वक्तव्यों के बीच समन्वय कैसे हो?

2—संसार में एक आप ही हैं जिससे भय नहीं लगता था। पर इधर कुछ दिनों से आपसे भय लगने लगा है। यह क्या स्थिति है, प्रभु?

3—आपने कहा कि गीता के कृष्ण से मीरा का कोई संबंध नहीं। लेकिन मीरा तो कहती है मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई। तो यह गिरधर गोपाल कौन है? Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-14)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-13)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—तेरहवां) 

मीरा से पुकारना सीखो

सूत्र:

सखी, मेरी नींद नसानी हो।

पिय को पंथ निहारत सिगरी, रैन विहानी हो।

सब सखियन मिलि सीख दई, मन एक न मानी हो।

बिन देख्या कल नांहि पड़त, जिय ऐसी ठानी हो।

अंगि—अंगि व्याकुल भई, मुख पिय—पिय बानी हो।

अंतर वेदन विरह की, वह पीड़ न जानी हो।

ज्यूं चातक घन कूं रटै, मछरी जिमि पानी हो।

मीरा व्याकुल विरहिणी, सुध—बुध बिसरानी हो। Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-13)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-12)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—बारहवां)  

मनुष्य: अनखिला परमात्मा

प्रश्न—सार:

1—आपने कहा कि संसार से विमुख होते ही परमात्मा से सन्मुखता हो जाती है।

आखिर संसार कहां खत्म होता है और कहां परमात्मा शुरू होता है? इस रहस्य, पहेली पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।

2—आपने कहा—गदगद हो जाओ, तल्लीन हो जाओ, रसविभोर हो जाओ और जीवन को उत्सव ही उत्सव बना लो। लेकिन यह सब हो कैसे? मैं बड़ा निष्क्रिय सा अनुभव करता हूं। और अपने आप होश में कभी हुआ नहीं। बड़ी उलझन में हूं। कृपया समझाएं।

3—मनुष्य के जीवन में इतना द्वंद्व क्यों है? Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-12)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-11)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—ग्यारहवां)  

भक्ति: एक विराट प्यास

सूत्र:

म्हारो जनम—मरन को साथी, थानें नहिं बिसरूं दिन—राती।

तुम देख्यां बिन कल न पड़त है, जानत मेरी छाती।

ऊंची चढ़—चढ़ पंथ निहारूं, रोवै अखियां राती।

यो संसार सकल जग झूंठो, झूंठा कुल रा न्याती।

दोउ कर जोड़यां अरज करत हूं सुण लीजो मेरी बाती।

यो मन मेरो बड़ो हरामी, ज्यूं मदमातो हाथी।

सतगुरु हस्त धरयो सिर ऊपर, अंकुस दे समझाती।

पल—पल तेरा रूप निहारूं, हरि चरणां चित राती। Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-11)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-10)

पद घुंघरू बांध—(प्रवचन—दसवां) 

फूल खिलता है—अपनी निजता से

प्रश्न—सार

1—परंपरा में भी फूल खिलते हैं और परंपरा के कारण भी फूल खिलते हैं। व्यवस्था या परंपरा तो मिटेगी नहीं; इसलिए उसमें कभी—कभी जान डालनी पड़ती है।…?

2—मेरा मन न धन में लगता है न यश में लगता है, लेकिन मैं यह भी नहीं जानता हूं कि मेरा मन कहां लगेगा?…

3—मैं जो पा रहा हूं, उसे अपने प्रियजनों को भी देना चाहता हूं, लेकिन कोई लेने को तैयार नहीं।…?

4—आप जैसे महान दाता के होते हुए भी मेरा भिक्षापात्र क्यों नहीं भरता?… Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-10)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-09)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—नौवां)

राम नाम रस पीजै मनुआं

सूत्र:

कोई कहियौ रे प्रभु आवन की, आवन की, मनभावन की।

आप न आवै लिख नहिं भेजै, बांण पड़ी ललचावन की।

ए दोइ नैन कह्यौ नहिं मानै, नदिया बहै जैसे सावन की।

कहा करूं कछु बस नहिं मेरो, पांख नहिं उड़ जावन की।

मीरा कहै प्रभु कब रे मिलोगे, चेरी भइ हूं तेरे दामन की। Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-09)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-08)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—आठवां)

दमन नहीं—ऊर्ध्वगमन

प्रश्न—सार:

1—आमतौर से समझा जाता है कि धार्मिक बनने के लिए इंद्रियों को वश में रखना अनिवार्य है। आप कहते हैं कि इंद्रिय—दमन भक्ति का लक्षण नहीं।…?

2—कुछ दिनों से यहां प्रेम की ध्वनि सुन रहे थे, लेकिन आश्रम के वातावरण में वह कहीं भी सुनाई न पड़ती थी। वीणा के प्रत्युत्तर के बाद बाहर आनंद और प्रेम का अनोखा वातावरण छा गया। क्या कोई अपूर्व घटना घट गई या ये हमारी आंखों के गुण—दोष थे?

3—मैं आपके पास आया तो मेरी आंखें खुलीं, लेकिन तब से लोग मुझे अंधा कहने लगे।…?

4—“ललिता’ से “मीरा’ तक की यात्रा में साढ़े चार हजार साल का समय लग गया। भगवान, क्या प्रेम का मार्ग इतना ज्यादा कठिन और लंबा है? Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-08)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-07)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—सातवां)

मैंने राम रतन धन पायो

सूत्र:

मैंने राम रतन धन पायो।

वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, करि करिपा अपनायो।

जनम—जनम की पूंजी पाई, जग में समय खोवायो।

खरचै नहिं कोई चोर न लेवै, दिन दिन बधत सवायो।

सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तरि आयो।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरखि—हरखि जस गायो।। Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-07)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-06)

पद घुंघरू बाँध—(प्रवचन—छठवां)

श्रद्धा है द्वार प्रभु का

प्रश्न—सार:  

1—श्रद्धा क्या है?

2—जाने क्या पिलाया तूने, बड़ा मजा आया!

3—प्रवचन में आपका प्यार बरस रहा है; उससे भी कहीं अधिक मार पड़ रही है। अब मार की तिलमिलाहट सहन नहीं होती।

4—स्मृति और स्वप्न से मैं आपके पास कभी—कभी पहुंच जाती हूं। लेकिन इस जन्म के पति की मेहरबानी से मैं अभी तक आप तक नहीं पहुंच पाई। आपकी प्रेम—दीवानी होने के लिए मैं क्या करूं?

5—यह कैसा विद्यापीठ है आपका, जहां सिखाया जाता है कि दो और दो चार होते हैं; और चार नहीं होते, पांच भी हो सकते हैं! Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-06)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-05)

      पद घुंघरू बांध—(प्रवचन—पांचवां)  

पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे

सूत्र:

माई री मैं तो लियो गोबिन्दो मोल।

कोई कहै छाने कोई कहै चौड़े लियो री वजंता ढोल।

कोई कहै मुंहगो कोई कहै सुंहगो लियो री तराजू तोल।

कोई कहै कारो कोई कहै गोरो, लियो री अमोलिक मोल।

याही कूं सब लोग जाणत हैं, लियो री आंखी खोल।

मीरा को प्रभु दरसण दीज्यो, पूरब जनम के कौल। Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-05)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-04)

मृत्यु का वरण: अमृत का स्वाद—(प्रवचन—चौथा)

प्रश्न-सार

1—प्रवचन सुनते समय भीतर ऐसी खलबली मच जाती है कि जिसका हिसाब नहीं।…क्या प्राण लेकर ही रहेंगे?

2—भक्ति के शास्त्र और भक्ति के गीत में क्या फर्क है?

3—क्या पुराने शास्त्र और उनकी सिखावन पर्याप्त नहीं?

4—कई संत-महात्मा कहते हैं कि मीरा कृष्ण के सगुण रूप से बंधी रही, इसलिए परमपद को प्राप्त न हो सकी।…?

5—मैं हार गया, तब भार गया। मैं झुक गया तो रुक गया। अब आप मिले, प्रभु साथ करें।

6—मैं जो पा रहा हूं, उसे बांटना चाहता हूं। लेकिन शब्द नहीं जुड़ते। मैं क्या करूं? Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-04)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-03)

मैं तो गिरधर के घर जाऊं—(प्रवचन—तीसरा)

सूत्र:

मैं तो गिरधर के घर जाऊं।

गिरधर म्हारो सांचो प्रीतम देखत रूप लुभाऊं।

रैन पड़ै तब ही उठि जाऊं भोर भये उठि आऊं।

रैन-दिना बाके संग खेलूं ज्यूं त्यूं वाहि रिझाऊं।

जो पहिरावै सोई पहरूं, जो दे सोई खाऊं।

मेरी उनकी प्रीत पुराणी, उन बिन पल न रहाऊं।

जहां बैठावे तित ही बैठूं, बेचैं तो बिक जाऊं।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊं। Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-03)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-02)

समाधि की अभिव्यक्तियां—(प्रवचन—दूसरा)

प्रश्न-सार

1—न जाने वाली और आने-जाने वाली मस्ती क्या अलग-अलग हैं?

2—कभक्ति के मार्ग में साधु-संगति का इतना क्यों मूल्य है?

3—कई मनस्विद कहते हैं कि प्रेम मूलतः जैविक है, जो कि मनुष्य में दमन के कारण मानसिक हो जाता है।…?

4—भक्त की भाव-दशा के संबंध में कुछ कहें।

5—आप पूना पधारे, इसमें हमारी क्या पात्रता है? और आपके सामीप्य में मैं पूरा रूपांतरित नहीं हुआ, इसका पूरा का पूरा जिम्मा भी मेरा है। फिर भी जो आपने दिया है, वह बहुत है। मैं अनुगृहीत हूं।

6—क्या आप ईश्वर के होने का कोई प्रमाण दे सकते हैं? Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-02)”

पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-01)

प्रेम की झील में नौका-विहार—(प्रवचन—पहला)

सूत्र:

बसौ मेरे नैनन में नंदलाल।

मोहनी मूरत सांवरी सूरत, नैना बने बिसाल।

मोर मुकुट मकराकृति कुंडल, अरुण तिलक शोभे भाल।

अधर सुधारस मुरली राजति, उर वैजंति माल।

छुद्र घंटिका कटितट सोभित, नूपुर सबद रसाल।

मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बच्छल गोपाल। Continue reading “पद घुुंघरू बांध-(प्रवचन-01)”

पद घुंघरू बांध-(मीरा बाई)-ओशो

पद घुंघरू बाँध—(मीरा बाई)–ओशो

(ओशो द्वारा मीरा बाई के पदों पर दिये गये बीस अमृत प्रवचनों का अमुल्‍य संकलन)

प्रेम मीरा की इस झील में तुम्हें निमंत्रण देता हूं। मीरा नाव बन सकती है। मीरा के शब्द तुम्हें डूबने से बचा सकते हैं। उनके सहारे पर उस पार जा सकते हो।

मीरा तीर्थंकर है। उसका शास्त्र प्रेम का शास्त्र है। शायद शास्त्र कहना भी ठीक नहीं।

नारद ने भक्ति-सूत्र कहे; वह शास्त्र है। वहां तर्क है, व्यवस्था है, सूत्रबद्धता है। वहां भक्ति का दर्शन है। Continue reading “पद घुंघरू बांध-(मीरा बाई)-ओशो”

नेति-नेति-(प्रवचन-23)

नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो 

प्रवचन-तेइस्‍वां

अभी-अभी आपकी तरफ आने को घर से निकला। सूर्य का किरण-जाल चारों ओर फैल गया है और वृक्ष पक्षियों के गीतों से गूंज रहे हैं। मैं सुबह के इस संगीत में तल्लीन था कि अनायास ही मार्ग के किनारे खड़े सूर्यमुखी के फूलों पर दृष्टि गयी। सूर्य की ओर मुंह किये हुए, वे बड़े गवान्नत खड़े थे। उनकी शान देखने ही जैसी थी! उनके आनंद को मैंने अनुभव किया और उनकी अभीप्सा को भी पहचाना। मैं उनके साथ एक हो गया और पाया कि वे तो पृथ्वी के आकाश को पाने के स्वप्न में हैं। अंधकार को छोड़कर वे आलोक की यात्रा पर निकले हैं। मैं उनके साहस का गुणगान करता-करता ही यहां उपस्थित हुआ हूं और उनकी सफलता के लिए हजार-हजार प्रार्थनायें मेरे हृदय में घनीभूत हो गयी हैं। Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-23)”

नेति-नेति-(प्रवचन-22)

नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो  

प्रवचन-बाईस्‍वां

मेरे प्रिय आत्मन,

कर्म के योग पर आज थोड़ी बात करनी है।

बड़ी से बड़ी भ्रांति कर्म के साथ जुड़ी है। और इस भ्रांति का जुड़ना बहुत स्वाभाविक भी है।

मनुष्य के व्यक्तित्व को दो आयामों में बांटा जा सकता है। एक आयाम है–बीइंग का, होने का, आत्मा का। और दूसरा आयाम है–डूइंग का, करने का, कर्म का। एक तो मैं हूं। और एक वह मेरा जगत है, जहां से कुछ करता हूं।

लेकिन ध्यान रहे, करने के पहले “होना’ जरूरी है। और यह भी खयाल में ले लेना आवश्यक है कि सब करना, “होने’ से निकलता है। करना से “होना’ नहीं निकलता। करने के पहले मेरा “होना’ जरूरी है। लेकिन मेरे “होने’ के पहले करना जरूरी नहीं है। Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-22)”

नेति-नेति-(प्रवचन-21)

नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो 

प्रवचन-इक्‍कीसवां

मेरे प्रिय आत्मन,

मनुष्य के मन की बड़ी शक्ति है–भाव। लेकिन शक्ति बाहर जाने के लिए उपयोगी है, भीतर जाने के लिए बाधा। भाव के बड़े उपयोग है, लेकिन बड़े दुरुपयोग भी हैं।

गहरे अर्थों में भाव का मूल्य होता है–स्वप्न देखने की क्षमता। वह भावना है, जो हमारे भीतर स्वप्न निर्माण की प्रक्रिया है।

स्वप्न देखने के उपयोग हैं। स्वप्न देखने का सबसे बड़ा उपयोग तो यह है कि स्वप्न हमारी नींद को सुविधापूर्ण बनाता है, बाधा नहीं डालता। इसे थोड़ा समझना उपयोगी है। Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-21)”

नेति-नेति-(प्रवचन-20)

नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो 

प्रवचन-बीसवां

मेरे प्रिय आत्मन,

मनुष्य को खंडों में तोड़ना और फिर किसी एक खंड से सत्य को जानने की कोशिश करना, अखंड सत्य को जानने का द्वार नहीं बन सकता है।

अखंड को जानना हो तो अखंड मनुष्य ही जान सकता है।

न तो कर्म से जाना जा सकता है, क्योंकि कर्म मनुष्य का एक खंड है। न ज्ञान से जाना जा सकता है, क्योंकि ज्ञान भी मनुष्य का एक खंड है। और न भाव से जाना जा सकता है, भक्ति से, क्योंकि वह भी मनुष्य का एक खंड है। Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-20)”

नेति-नेति-(प्रवचन-19)

नेति-नेति-सत्य की खोज-ओशो 

प्रवचन-उन्‍नीसवां

मेरे प्रिय आत्मन,

अंधेरी रात हो तो सुबह की आशा होती है। आदमी भी एक अंधेरी रात है और उसमें भी सुबह की आशा की जा सकती है। कांटों से भरा हुआ पौधा हो तो उसमें भी फूल लगते हैं। आदमी भी कांटों से भरा हुआ एक पौधा है, उसमें भी फूल की आशा की जा सकती है। बीज हो तो अंकुरित हो सकता है, विकसित हो सकता है। आदमी भी एक बीज है और उसमें भी विकास के सपने देखे जा सकते हैं। Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-19)”

नेति-नेति-(प्रवचन-18)

नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो 

प्रवचन-अट्ठहरवां

एक मित्र ने पूछा है, यदि हम पूछें कि कौन हो तो पूछने वाला और प्रश्न दोनों एक ही तो हैं, अलग नहीं हैं। जो प्रश्न बनकर खड़ा है, वही तो उत्तर बनेगा। और तब कैसे कभी जाना जा सकता है कि मैं कौन हूं?

सच है यह बात। जो पूछ रहा है, वही उत्तर भी है। लेकिन पूछने के कारण उत्तर का पता नहीं चलता। पूछना है। पूछने से उत्तर नहीं मिलेगा, लेकिन पूछते रहें, पूछते रहें। पूछते जायें, फिर उत्तर व्यर्थ होते चले जायेंगे। अंततः जब कोई उत्तर नहीं बचेगा तो प्रश्न ही व्यर्थ हो जायेगा। और जब प्रश्न भी गिर जाता है–उत्तर तो मिलता ही नहीं! जब प्रश्न ही गिर जाता है और चित्त निष्प्रश्न होता है, तब हम उसे जान लेते हैं। यह प्रश्न भी पूछना है। और यह उत्तर भी है! Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-18)”

नेति-नेति-(प्रवचन-17)

नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो 

प्रवचन-सत्रहवां

जीवन में दो भ्रम हैं। दोनों ही सत्य मालूम होते हैं! एक भ्रम तो पदार्थ का है और दूसरा भ्रम अहंकार का है। एक भ्रम बाहर है, एक भ्रम भीतर है। दोनों भ्रम एक साथ ही जीते हैं और साथ ही मरते हैं–वे एक ही भ्रम के दो छोर हैं!

पदार्थ दिखाई पड़ता है और खयाल में भी नहीं आता कि ऐसा भी हो सकता है कि पदार्थ न हो। बहुत ठोस मालूम होता है। पदार्थ कितना ठोस है? Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-17)”

नेति-नेति-(प्रवचन-16)

प्रवचन-सौहलवां

नेति-नेति-(सत्‍य की खोज)

एक मित्र ने पूछा है कि क्रोध को हम जानते हैं, पहचानते हैं, लेकिन फिर भी क्रोध मिटता नहीं! और आपने कहा कि यदि हम देख लें, जान लें, पहचान लें, तो क्रोध मिट जाना चाहिए!

इस संबंध में दोत्तीन बातें समझ लें। पहली बात यह है कि क्रोध के विरोध में हमें इतनी बातें सिखायी गयी हैं कि उन विरोधी बातों के कारण क्रोध को हम कभी भी सरलता से देखने में समर्थ नहीं हो पाते।

जिससे हमारा विरोध है, उसे देखना मुश्किल हो जाता है। Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-16)”

नेति-नेति-(प्रवचन-15)

प्रवचन-पंद्रहवां

नेति-नेति-(सत्‍य की खोज)

मनुष्य का मन एक बोझ है–बोझ है अतीत का। लेकिन मनुष्य का मन एक तनाव भी है–भविष्य का। अतीत के बोझ को हटा देने के लिए कुछ बातें की हैं। भविष्य के तनाव से मुक्त हो जाना भी उतना ही आवश्यक है। भविष्य भी बहुत बड़े तनाव की तरह मनुष्य के मन पर सदा मौजूद है। भविष्य का तनाव बहुत रूपों में हमारे मन को पकड़े है।

एक तो, हम आज में जीते ही नहीं! हम सदा कल में जीते हैं! और कल में कोई भी नहीं जी सकता। जीना सदा आज में है, अभी में है। Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-15)”

नेति-नेति-(प्रवचन-14)

प्रवचन-चौदहवां

नेति-नेति-(सत्‍य की खोज)

एक मित्र ने पूछा है कि यदि मेरे कहे अनुसार प्रत्येक व्यक्ति निष्क्रिय ध्यान में चला जाये तो दुनिया का काम और क्रियाएं बंद हो जायेंगी और तब बहुत असुविधा होगी?

इस संबंध में पहली तो बात यह समझ लेनी जरूरी है कि क्रिया उतनी ही सफल और कुशल होती है, जितना व्यक्ति क्रिया में होता है। अक्रिया में जाने से क्रिया बंद नहीं होती, सिर्फर् कत्ता मिट जाता है, सिर्फ यह भाव मिट जाता है कि मैं करने वाला हूं। और इस भाव के मिटने से दुनिया में असुविधा न होगी, बहुत सुविधा होगी। इसी भाव के कारण दुनिया में बहुत असुविधा है। Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-14)”

नेति-नेति-(प्रवचन-13)

प्रवचन-तैरहवां

नेति-नेति-(सत्‍य की खोज)

मनुष्य की तरफ देखने पर एक बहुत ही आश्चर्यजनक तथ्य दिखाई पड़ता है–वह यह कि मनुष्य का पूरा व्यक्तित्व एक तनाव, एक खिंचाव, एक बोझ है। कौन-सा बोझ है मनुष्य के चित्त पर, किस पत्थर के नीचे आदमी दबा है? सिर्फ किरणों की तरफ देखें या वृक्षों के हरे पत्तों की तरफ या आकाश की तरफ आंखें उठायें–कहीं कोई बोझ नहीं है, सब जगह बोझहीनता है, कहीं कोई तनाव नहीं है। मनुष्य के मन पर एक तनाव है!

एक तेजी से दौड़ती हुई ट्रेन के भीतर एक आदमी बैठा हुआ था। जो भी उस आदमी के करीब से निकलता था, हैरानी से उसे देखता था। उसने काम ही ऐसा कर रखा था। वह अपना बिस्तर, अपनी पेटी अपने सिर पर रखे हुए था! कोई भी उससे पूछता कि क्या कर रहे हो मित्र? Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-13)”

नेति-नेति-(प्रवचन-12)

प्रवचन-बारहवां

नेति-नेति-(सत्‍य की खोज)

मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा राजमहल था। आधी रात उस राजमहल में आग लग गयी। आंख वाले लोग बाहर निकल गये। एक अंधा आदमी राजमहल में था। वह द्वार टटोलकर बाहर निकलने का मार्ग खोजने लगा। लेकिन सभी द्वार बंद थे, सिर्फ एक द्वार खुला था। बंद द्वारों के पास उसने हाथ फैलाकर खोजबीन की और वह आगे बढ़ गया। हर बंद द्वार पर उसने श्रम किया, लेकिन द्वार बंद थे। आग बढ़ती चली गयी और जीवन संकट में पड़ता चला गया। अंततः वह उस द्वार के निकट पहुंचा, जो खुला था। लेकिन दुर्भाग्य कि उस द्वार पर उसके सिर पर खुजली आ गयी! वह खुजलाने लगा और उस द्वार से आगे निकल गया और फिर वह बंद द्वारों पर भटकने लगा! Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-12)”

नेति-नेति-(प्रवचन-11)

नेति-नेति-(सत्‍य की खोज)

प्रवचन-ग्‍याहरवां

प्रिय आत्मन,

बहुत-से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।

एक मित्र ने पूछा है, आत्मा दिखाई नहीं देती है और जो नहीं दिखाई देती, उसका इतना महत्व क्यों माना जाता है? और आप भी उसी न दिखाई पड़ने वाली आत्मा की बात क्यों कर रहे हैं?

वृक्ष दिखाई पड़ता है, जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं; जड़ें जमीन के भीतर छिपी होती हैं। लेकिन इस कारण नहीं दिखाई पड़ने वाली जड़ों का मूल्य कम नहीं हो जाता है। बल्कि जो वृक्ष दिखाई पड़ता है, वह उन्हीं जड़ों पर निर्भर होता है, जो दिखाई नहीं पड़तीं। Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-11)”

नेति-नेति-(प्रवचन-10)

नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो 

प्रवचन-दसवां

प्रिय आत्मन,

सूर्य के प्रकाश में गिरनार के चमकते मंदिरों को देखकर मैं आया–अभी आया हूं। उन मंदिरों को देखकर मुझे खयाल आया, आत्मा के भी ऐसे ही गिरनार-शिखर हैं। आत्मा के उन शिखरों पर भी इनसे भी ज्यादा चमकते हुए मंदिर हैं। उन मंदिरों पर परमात्मा का और भी तीव्र प्रकाश है।

लेकिन हम तो बाहर के मंदिरों में ही भटके रह जाते हैं और भीतर के मंदिरों का कोई पता भी नहीं चल पाता! हम तो पत्थर के शिखरों पर ही यात्रा करते हुए जीवन गंवा देते हैं! चेतना के शिखरों का कोई अनुभव नहीं हो पाता! Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-10)”

नेति-नेति-(प्रवचन-09)

नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो 

प्रवचन-नौवां

मित्रों ने बहुत-से प्रश्न पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि मैं कहता हूं कि सत्य शब्दों में नहीं मिल सकता है, शास्त्रों से नहीं मिल सकता है, गुरुओं से नहीं मिल सकता है, तो फिर मैं क्यों बोलता हूं?

मेरे बोलने से भी सत्य नहीं मिल सकेगा। मेरे बोलने से भी सत्य नहीं मिलेगा, इसे ठीक से समझ लेना चाहिए। किसी के भी बोलने से सत्य नहीं मिल सकता है। एक कांटा पैर में लग गया हो तो दूसरे कांटे से लगे हुए कांटे को निकाला जा सकता है। लेकिन कांटे के निकल जाने पर दोनों कांटे एक जैसे व्यर्थ हो जाते हैं और फेंक देने के योग्य हो जाते हैं। Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-09)”

नेति-नेति-(प्रवचन-08)

नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो 

प्रवचन-आठवां

प्रिय आत्मन,

एक विस्तार बाहर है। आंखें बाहर देखती हैं, हाथ बाहर स्पर्श करते हैं, कान बाहर सुनते हैं।

एक विस्तार भीतर भी है, लेकिन न वहां आंख देखती है, न वहां हाथ स्पर्श करते हैं, न वहां कान सुनते हैं। शायद इसीलिए जो भीतर है, वह अनजाना, अपरिचित रह जाता है। या इसलिए भी कि वह इतने निकट है कि हमें दिखाई ही नहीं पड़ता। जो दूर है, वह दिखाई पड़ जाता है। जो निकट है, वह छिप जाता है! Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-08)”

नेति-नेति-(प्रवचन-07)

नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो 

प्रवचन-सातवां

प्रिय आत्मन,

एक सम्राट ने जंगल में गीत गाते एक पक्षी को बंदी बना दिया।

गीत गाना भी अपराध है, अगर आसपास के लोग गलत हों! उस पक्षी को पता भी न होगा कि गीत गाना भी परतंत्रता बन सकता है।

आकाश में उड़ने और वृक्षों पर बसेरा करने वाले उस पक्षी को सम्राट ने सोने के पिंजड़े में रखा था! उस पिंजड़े में हीरे-जवाहरात लगाये थे! करोड़ों रुपये का पिंजड़ा था वह! Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-07)”

नेति-नेति-(प्रवचन-06)

प्रवचन-छठवां

नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो 

पहले दिवस की चर्चा में जीवन के प्रति विस्मय-विमुग्ध भाव चाहिए, इस संबंध में थोड़ी-सी बात मैंने आपसे कही थी। दूसरे दिन की चर्चा में जीवन के प्रति रस-विभोर भाव चाहिए, इस संबंध में थोड़ी-सी बातें कहीं हैं। और आज तीसरी चर्चा में जीवन के प्रति प्रेम-निमग्न मन चाहिए, इस संबंध में कुछ आपसे कहूंगा। प्रेम तीसरा सूत्र है।

ज्ञान से जहां नहीं पहुंचता मनुष्य, वहां प्रेम से पहुंच जाता है।

लेकिन प्रेम का हमें कोई पता ही नहीं है। प्रेम के नाम से जो कुछ हम जानते हैं, वे सब झूठे सिक्के हैं। झूठे सिक्के इतने ज्यादा प्रचलित हैं कि असली सिक्कों को पहचानना ही कठिन हो गया है। Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-06)”

नेति-नेति-(प्रवचन-05)

प्रवचन-पांचवां

नेति-नेति-(सत्य की खोज)-ओशो 

जीवन-देवता के प्रति समर्पण का भाव, स्वीकार, सम्मान और श्रद्धा की मनःस्थिति के संबंध में सुबह थोड़ी-सी बातें मैंने कहीं हैं। उस संबंध में बहुत से प्रश्न आये हैं। उन पर अभी बात करनी है।

जीवन सदा से अस्वीकृत रहा है! जीवन की श्रद्धा और सम्मान के लिए न तो कभी कोई पुकार दी है, न कभी कोई आह्वान किया गया है। जीवन को छोड़ देने, जीवन से पलायन करने, जीवन को तोड़ देने और नष्ट कर देने की बहुत-बहुत चेष्टाएं जरूर की गयी हैं। या तो वे लोग पृथ्वी पर प्रभावी रहे हैं, जिन्होंने दूसरों के जीवन को नष्ट करने की कोशिश की है–राजनीतिज्ञ, सेनापति, युद्धखोर। या वे लोग जो दूसरों का जीवन नष्ट करने में नहीं लगे हैं, तो वे दूसरी प्रक्रिया में लग गये हैं, वे अपने ही जीवन को नष्ट करने का प्रयास करते रहे हैं–तथाकथित धार्मिक, तथाकथित साधु-संन्यासी। Continue reading “नेति-नेति-(प्रवचन-05)”

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