कृष्‍ण-स्‍मृति-(प्रवचन–02)

इहलौकिक जीवन के समग्र स्वीकार के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—दूसरा) 

दिनांक 26 सितंबर, 1970;  मनाली (कुलू)

“भगवान श्री, आपको श्रीकृष्ण पर बोलने की प्रेरणा कैसे व क्यों हुई? इस लंबी चर्चा का मूल आधार क्या है?’

सोचना हो, बोलना हो, समझना हो, तो कृष्ण से ज्यादा महत्वपूर्ण व्यक्ति खोजना मुश्किल है। ऐसा नहीं कि और महत्वपूर्ण व्यक्ति हुए हैं, लेकिन कृष्ण का महत्व अतीत के लिए कम और भविष्य के लिए ज्यादा है। सच ऐसा है कि कृष्ण अपने समय के कम से कम पांच हजार वर्ष पहले पैदा हुए। सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के पहले पैदा होते हैं, और सभी गैर-महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बाद पैदा होते हैं। बस महत्वपूर्ण और गैर-महत्वपूर्ण व्यक्ति में इतना ही फर्क है। और सभी साधारण व्यक्ति अपने समय के साथ पैदा होते हैं। Continue reading “कृष्‍ण-स्‍मृति-(प्रवचन–02)”

कृष्‍ण-स्‍मृति-(प्रवचन–01)

हंसते व जीवंत धर्म के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 20 जुलाई, 1970;   सी. सी. आई. चैंबर्सं, मुम्‍बई।

“कृष्ण के व्यक्तित्व में आज के युग के लिए क्या-क्या विशेषताएं हैं और उनके व्यक्तित्व का क्या महत्त्व हो सकता है? इस पर कुछ प्रकाश डालें?’

कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है। अनूठेपन की पहली बात तो यह है कि कृष्ण हुए तो अतीत में, लेकिन हैं भविष्य के। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं हो पाया कि कृष्ण का समसामयिक बन सके। अभी भी कृष्ण मनुष्य की समझ से बाहर हैं। भविष्य में ही यह संभव हो पाएगा कि कृष्ण को हम समझ पाएं।

इसके कुछ कारण हैं। Continue reading “कृष्‍ण-स्‍मृति-(प्रवचन–01)”

कृष्‍ण–स्‍मृति-(ओशो )

कृष्ण-स्मृति  –(ओशो)

(ओशो द्वारा कृष्ण के बहु-आयामी व्यक्तित्व पर दी गई 21 र्वात्ताओं एवं नव-संन्यास पर दिए गए एक विशेष प्रवचन का अप्रतिम संकलन। यही वह प्रवचनमाला है जिसके दौरान ओशो के साक्षित्व में संन्यास ने नए शिखरों को छूने के लिए उत्प्रेरणा ली और “नव संन्यास अंतर्राष्ट्रीय’ की संन्यास-दीक्षा का सूत्रपात हुआ।)

बसे बड़ा कारण तो यह है कि कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं। साधारणतः संत का लक्षण ही रोता हुआ होना है। जिंदगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले ही नाचते हुए वयक्ति हैं। हंसते हुए, गीत गाते हुए। अतीत का सारा धर्म दुखवादी था। कृष्ण को छोड़ दें तो अतीत का सारा धर्म उदास, आंसुओं से भरा हुआ था। हंसता हुआ धर्म मर गया है और पुराना ईश्वर, जिसे हम अब तक ईश्वर समझते थे, जो हमारी धारणा थी ईश्वर की, वह भी मर गई है। Continue reading “कृष्‍ण–स्‍मृति-(ओशो )”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-19)

पलटू फूला फूल–(प्रवचन–उन्‍नीसवां)

दिनांक 29 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

वृच्छा फरैं न आपको, नदी न अंचवै नीर।

परस्वारथ के कारने, संतन धरै सरीर।।

बड़े बड़ाई में भुले, छोटे हैं सिरदार।

पलटू मीठो कूप-जल, समुंद पड़ा है खार।।

हिरदे में तो कुटिल है, बोलै वचन रसाल।

पलटू वह केहि काम का, ज्यों नारुन-फल लाल।।

सब तीरथ में खोजिया, गहरी बुड़की मार।

पलटू जल के बीच में, किन पाया करतार।।

पलटू जहवां दो अमल, रैयत होय उजाड़।

इक घर में दस देवता, क्योंकर बसै बजार।। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-19)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-18)

कस्मै देवाय हविषा विधेम—(प्रवचन—अट्ठारवां)

दिनांक 28 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार

।–कविता को एक नई विधा, एक नया आयाम देने वाले श्री गिरजाकुमार माथुर, मेरे गांव अशोकनगर के निवासी हैं। इन दिनों भी वहीं रहते हैं। आप में उनकी रुचि है। कुछ किताबें भी पढ़ी हैं, टेप-प्रवचन में भी रुचि दिखाते हैं। कहते हैं–एक बार साक्षात्कार की उत्सुकता तो है, परंतु उनका व्यक्तित्व विवादास्पद होने के कारण घबड़ाता हूं। उचित समझें तो कुछ कहने की कृपा करें।

2—जीवन इतना उलटा-उलटा क्यों मालूम होता है? सभी कुछ अस्तव्यस्त है।

इसमें परमात्मा की क्या मर्जी है?

3—कोई दस हजार वर्ष पहले वेद के ऋषियों ने एक प्रश्न पूछा था–कस्मै देवाय हविषा विधेम? हम किस देव की स्तुति व उपासना करें? क्या यह प्रश्न आज भी प्रासंगिक नहीं है? क्या इस पर पुनः कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे? Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-18)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-17)

कारज धीरे होत है—(प्रवचन—सत्ररहवां)

दिनांक 27 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

सोई सिपाही मरद है, जग में पलटूदास।

मन मारै सिर गिरि पड़ै, तन की करै न आस।।

ना मैं किया न करि सकौं, साहिब करता मोर।

करत करावत आपु है, पलटू पलटू सोर।।

पलटू हरिजन मिलन को, चलि जइए इक धाप।

हरिजन आए घर महैं, तो आए हरि आप।।

वृच्छा बड़ परस्वारथी, फरैं और के काज।

भवसागर के तरन को, पलटू संत जहाज।। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-17)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-16)

एस धम्मो सनंतनो—(प्रवचन—सोलहवां)

दिनांक 26 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार :

1—मैं निपट अज्ञानी! जब भी आंख बंद की, महा-अंधकार ही दिखता है। क्या कभी प्रकाश की किरण भी पा सकूंगा?

2—आप कहते हैं कि कवि ऋषि के निकट है, लेकिन बड़ा आश्चर्य होता है कि इतने संवेदनशील हृदय वाले कवि-कलाकार भी, जो कि जीवन में सत्यम् शिवम् सुंदरम् की तलाश में निकले हैं, वे भी यहां आने से कतराते हैं! आप कहते हैं कि ध्यान संवेदनशीलता को और गहरा करता है। फिर इन कवि-कलाकारों का भय क्या है? क्या ध्यान और सृजन साथ-साथ संभव नहीं हैं?

3—मैं जब भी पूना आता था, पूज्य दद्दाजी का अनंत स्नेह मुझ पर बरसता था। वे चले गए। और आप भी जब प्रवचन और दर्शन से उठ कर वापस जाते हैं तो हृदय में टीस सी उठती है कि कहीं अगर इस सदगुरु का साथ छूट गया तो फिर हमारा क्या होगा? ऐसे बुद्ध सदगुरु तो सदियों में मिलते हैं। हम संन्यासियों पर फिर यह अमृत-वर्षा कौन करेगा? Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-16)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-15)

मूरख अबहूं चेत—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक 25 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

संत संत सब बड़े हैं, पलटू कोउ न छोट।

आतम दरसी मिहीं है, और चाउर सब मोट।।

पलटू ऐना संत है, सब देखैं तेहि माहिं।

टेढ़ सोझ मुंह आपना, ऐना टेढ़ा नाहिं।।

पलटू यहि संसार में, कोऊ नाहीं हीत।

सोऊ बैरी होत है, जाकौ दीजै प्रीत।।

जो दिन गया सो जान दे, मूरख अबहूं चेत।

कहता पलटूदास है, करिले हरि से हेत।।

पलटू नरत्तन जातु है, सुंदर सुभग सरीर।

सेवा कीजै साध की, भजि लीजै रघुवीर।।

पलटू ऐसी प्रीति करूं, ज्यों मजीठ को रंग।

टूक-टूक कपड़ा उड़ै, रंग न छोड़ै संग।। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-15)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-14)

अपना है क्या—लुटाओ—(प्रवचन—चौदहवां)

दिनांक 24 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार :

1—संसार में संसार का न होकर रहना ही संन्यास है। मुझे यह असंभव सा क्यों लगता है?

2–पूज्य दद्दाजी मुझे बचपन से ही अपना जान कर, उन्मुक्त स्नेह और प्रेरणा देते रहे हैं। ढेर सारी स्मृतियों के बीच उनका सबके प्रति अपनापन, बालवत प्रेम, सब कुछ लुटा देने की तत्परता और सारे वातावरण को आनंद से भर देने वाला रूप मेरे भीतर भरता गया, भरता गया। वे मुझसे रोज किसी न किसी बहाने कहते थे: अपना है क्या–लुटाओ! अपना है क्या–लुटाओ!

उनके इस प्यारे वचन का आशय कृपा करके हमें कहें।

3—आप अक्सर कहा करते हैं कि अस्तित्व को जो दोगे वही तुम पर वापस लौटेगा; प्रेम दोगे, प्रेम लौटेगा; घृणा दोगे, घृणा मिलेगी।

आप तो प्रेम की मूर्ति हैं, आप प्रेम ही हैं, प्रेम ही बांट रहे हैं; फिर भी आपको इतनी गालियां क्यों मिलती हैं? क्या उपरोक्त नियम सच नहीं है? Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-14)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-13)

ध्यान है मार्ग—(प्रवचन—तेरहवां)

दिनांक 23 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

माया तू जगत पियारी, वे हमरे काम की नाहिं।

द्वारे से दूर हो लंडी रे, पइठु न घर के माहिं।।

माया आपु खड़ी भई आगे, नैनन काजर लाए।

नाचै गावै भाव बतावै, मोतिन मांग भराए।।

रोवै माया खाय पछारा, तनिक न गाफिल पाऊं।

जब देखौं तब ज्ञान ध्यान में, कैसे मारि गिराऊं।।

रिद्धि-सिद्धि दोई कनक समानी, बिस्तु डिगन को भेजा।

तीन लोक में अमल तुम्हारा, यह घर लगै न तेजा।। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-13)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-12)

खाओ, पीओ और आनंद से रहो—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक 22 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

 प्रश्न—सार:

1—महाप्रयाण के कुछ दिनों पूर्व पूज्य दद्दाजी ने एक रात चर्चा करते हुए बताया कि वही है, और उसके अलावा कुछ और नहीं।

यह पूछने पर कि संसार को चलाने वाला कौन है? वे बोले, कोई नहीं। सब अपने आप चल रहा है। जो हो रहा है वह हो रहा है। कोई कुछ कर नहीं रहा है; सब हो रहा है।

कर्म के सिद्धांत से संबंधित प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा, वह सब बकवास है।

हमने पूछा, फिर हम क्या करें? वे बोले—खाओ, पीओ और आनंद से रहो। बस, इसके सिवाय संसार में कुछ और नहीं है।

कृपया उनकी इन उपदेशनाओं पर कुछ कहें।

2—धन और पद के संबंध में आपके क्या विचार हैं? Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-12)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-11)

मन बनिया बान न छोड़ै—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 21 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र:

मन बनिया बान न छोड़ै।।

पूरा बांट तरे खिसकावै, घटिया को टकटोलै।

पसंगा मांहै करि चतुराई, पूरा कबहुं न तौले।।

घर में वाके कुमति बनियाइन, सबहिन को झकझोलै।

लड़िका वाका महाहरामी, इमरित में विष घोलै।।

पांचतत्त का जामा पहिरे, एंठा-गुइंठा डोलै।

जनम-जनम का है अपराधी, कबहूं सांच न बोलै।।

जल में बनिया थल में बनिया, घट-घट बनिया बोलै। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-11)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-10)

प्रेम तुम्हारा धर्म हो—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 20 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार:

1—प्रार्थना क्या है?

2—आदरणीय दद्दाजी की मृत्यु पर आपने अपने संन्यासियों को कहा कि वे उत्सव मनाएं, नाचें। लेकिन इस उत्सव और नृत्य के होते हुए भी रह-रह कर आंसू पलकों को भिगोए दे रहे थे। दद्दाजी के चले जाने के बाद हृदय को अभी भी विश्वास नहीं कि वे चले गए हैं। लगता है कि वे यहीं हैं। उन्होंने हमें जो प्रेम दिया वह अकथ्य है।

3—देश की स्थिति रोज-रोज बिगड़ती जाती है। आप इस संबंध में कुछ क्यों नहीं कहते हैं?

4—मैं विवाह करूं या नहीं? और स्वयं की पसंदगी से करूं या कि घरवालों की इच्छा से? Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-10)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-09)

चलहु सखि वहि देस—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 19 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र:

चलहु सखी वहि देस, जहवां दिवस न रजनी।।

पाप पुन्न नहिं चांद सुरज नहिं, नहीं सजन नहीं सजनी।।

धरती आग पवन नहिं पानी, नहिं सूतै नहिं जगनी।।

लोक बेद जंगल नहिं बस्ती, नहिं संग्रह नहिं त्यगनी।।

पलटूदास गुरु नहिं चेला, एक राम रम रमनी।।

चित मोरा अलसाना, अब मोसे बोलि न जाई।।

देहरी लागै परबत मोको, आंगन भया है बिदेस।

पलक उघारत जुग सम बीते, बिसरि गया संदेस।। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-09)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-08)

प्रेम एकमात्र नाव है—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 18 सितम्‍बर सन् 1979;   ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार :

1—आपने कहा कि गणित या ज्ञान से उपजा वैराग्य झूठा है; प्रेमजनित वैराग्य ही वैराग्य है। लेकिन प्रेम तो राग लाता है; उससे वैराग्य कैसे फलित होगा?

2—आप कहते हैं कि जीवित बुद्ध ही तारते हैं। तब यह कैसी विडंबना है कि बुद्धों को जीते जी निंदा मिलती है और मरने पर पूजा? यह कैसा विधान है?

3—मैं परम आलसी हूं। क्या मैं भी परमात्मा को पा सकता हूं? Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-08)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-07)

साहिब से परदा न कीजै—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 17 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

बनत बनत बनि जाई, पड़ा रहै संत के द्वारे।।

तन मन धन सब अरपन कै कै, धका धनी के खाय।

मुरदा होय टरै नहिं टारै, लाख कहै समुझाय।

स्वान-बिरति पावै सोई खावै, रहै चरन लौ लाय।

पलटूदास काम बनि जावै, इतने पर ठहराय।।

मितऊ देहला न जगाए, निंदिया बैरिन भैली।।

की तो जागै रोगी, की चाकर की चोर।

की तो जागै संत बिरहिया, भजन गुरु कै होय।।

स्वारथ लाय सभै मिलि जागैं, बिन स्वारथ न कोय। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-07)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-06)

क्रांति की आधारशिलाएं—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 16 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार:

1—मेरा खयाल है कि आपके विचारों में, आपके दर्शन में वह सामर्थ्य है, जो इस देश को उसकी प्राचीन जड़ता और रूढ़ि से मुक्त करा कर उसे प्रगति के पथ पर आरूढ़ करा सकती है। लेकिन कठिनाई यह है कि यहां के बुद्धिवादी और पत्रकार आपको अछूत मानते हैं और आपके विचारों को व्यर्थ प्रलाप बताते हैं। इससे बड़ी निराशा होती है। कृपा कर मार्गदर्शन करें।

2—आप तो कहते हैं, हंसा तो मोती चुगै। लेकिन आज तो बात ही दूसरी है। आज का वक्त तो कहता है: हंस चुनेगा दाना घुन का, कौआ मोती खाएगा। और इसका साक्षात प्रमाण है तथाकथित पंडित-पुरोहितों को मिलने वाला आदर-सम्मान और आप जैसे मनीषी को मिलने वाली गालियां। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-06)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-05)

बैराग कठिन है—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 15 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

जनि कोई होवै बैरागी हो, बैराग कठिन है।।

जग की आसा करै न कबहूं, पानी पिवै न मांगी हो।

भूख पियास छुटै जब निंद्रा, जियत मरै तन त्यागी हो।।

जाके धर पर सीस न होवै, रहै प्रेम-लौ लागी।

पलटूदास बैराग कठिन है, दाग दाग पर दागी हो।।

अब तो मैं बैराग भरी, सोवत से मैं जागि परी।।

नैन बने गिरि के झरना ज्यों, मुख से निकरै हरी-हरी। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-05)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-04)

मौलिक धर्म—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 14 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

प्रश्न-सार :

1—बुनियादी रूप से आप धर्म के प्रस्तोता हैं–वह भी मौलिक धर्म के। आप स्वयं धर्म ही मालूम पड़ते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि अभी आपका सबसे ज्यादा विरोध धर्म-समाज ही कर रहा है! दो शंकराचार्यों के वक्तव्य उसके ताजा उदाहरण हैं। क्या इस पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?

2—मैं बुद्ध होकर मरना नहीं चाहती; मैं बुद्ध होकर जीना चाहती हूं।

3—आप कहते हैं कि जीवन में कुछ मिलता नहीं। फिर भी जीवन से मोह छूटता क्यों नहीं? समझ में बात आती है और फिर भी समझ में नहीं आती; समझ में आते-जाते छूट जाती है, चूक जाती है। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-04)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-03)

साजन-देश को जाना—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 13 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र:

जेकरे अंगने नौरंगिया, सो कैसे सोवै हो।

लहर-लहर बहु होय, सबद सुनि रोवै हो।।

जेकर पिय परदेस, नींद नहिं आवै हो।

चौंकि-चौंकि उठै जागि, सेज नहिं भावै हो।।

रैन-दिवस मारै बान, पपीहा बोलै हो।

पिय-पिय लावै सोर, सवति होई डोलै हो।।

बिरहिन रहै अकेल, सो कैसे कै जीवै हो।

जेकरे अमी कै चाह, जहर कस पीवै हो।।

अभरन देहु बहाय, बसन धै फारौ हो। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-03)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-02)

अमृत में प्रवेश—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 12 सितम्‍बर सन् 1979;  ओशो आश्रम पूना।

प्रश्न-सार :

1—कोई तीस वर्ष पूर्व, जबलपुर में, किसी पंडित के मोक्ष आदि विषयों पर विवाद करने पर दद्दाजी ने कहा था कि शास्त्र और सिद्धांत की आप जानें, मैं तो अपनी जानता हूं कि यह मेरा अंतिम जन्म है।

एक और अवसर पर कार्यवश वे काशी गए थे। किसी मुनि के सत्संग में पहुंचे। दद्दाजी को अजनबी पा प्रवचन के बाद मुनि ने पूछा, आज से पूर्व आपको यहां नहीं देखा!

कहा, हां, मैं यहां का नहीं हूं।

पूछा, आप कहां से आए हैं और यहां से कहां जाएंगे?

कहा, निगोद से आया हूं और मोक्ष जाऊंगा।

पांच वर्ष पूर्व हृदय का दौरा पड़ने पर, मां को चिंतित पाकर उन्होंने कहा था, चिंता न लो। अभी पांच वर्ष मेरा जीवन शेष है।

उनकी इन उद्घोषणाओं के रहस्य पर प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।

2—संत रज्जब, सुंदरो और दादू की मृत्यु की कहानी मेरे लिए बड़ी ही रोमांचक रही। परंतु मेरे गुरु और हमारे प्यारे दादा, जो मेरे मित्र भी थे, उनकी मृत्यु के समय की आंखों देखी घटना का अनुभव मेरे लिए उससे भी कहीं अधिक रोमांचकारी हुआ। इससे मेरी आंखें मधुर आंसुओं से भर जाती हैं। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-02)”

काहे होत अधीर-(प्रवचन-01)

पाती आई मोरे पीतम की—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 11 सितम्‍बर सन् 1979,  ओशो आश्रम पूना।

सूत्र:

पूरन ब्रह्म रहै घट में, सठ, तीरथ कानन खोजन जाई।

नैन दिए हरि—देखन को, पलटू सब में प्रभु देत दिखाई।।

कीट पतंग रहे परिपूरन, कहूं तिल एक न होत जुदा है।

ढूंढ़त अंध गरंथन में, लिखि कागद में कहूं राम लुका है।।

वृद्ध भए तन खासा, अब कब भजन करहुगे।।

बालापन बालक संग बीता, तरुन भए अभिमाना।

नखसिख सेती भई सफेदी, हरि का मरम न जाना।। Continue reading “काहे होत अधीर-(प्रवचन-01)”

काहे होत अधीर-(संत पलटूदास)-ओशो

काहे होत अधीर—(संत पलटूदास)  ओशो

ओशो द्वारा पूना में संत पलटूदास की वाणीपर दिए गये (11—09—1979 से 30—10—1979) उन्‍नीस अमृत प्रवचनों का संकलन।)

संतों का सारा संदेश इस एक छोटी सी बात में समा जाता है कि संसार सराय है। और जिसे यह बात समझ में आ गई कि संसार सराय है, फिर इस सराय को सजाने में, संवारने में, झगड़ने में, विवाद में, प्रतिस्पर्धा में, जलन में, ईष्या में, प्रतियोगिता में—नहीं उसका समय व्यय होगा। फिर सारी शक्ति तो पंख खोल कर उस अनंत यात्रा पर निकलने लगेगी, जहां शाश्वत घर है।

पलटूदास के ये गीत तुम्हारे कानों पर पवन बन जाएं, तुम्हारी आंखों पर सूरज, तुम्हारे कानों पर पंछी के गीत—इस आशा में इन पर चर्चा होगी। यह चर्चा कोई पांडित्य की चर्चा नहीं है। यह चर्चा पलटूदास के काव्य की चर्चा नहीं है, न उनकी भाषा की। यह चर्चा तो पलटूदास के उस संदेश की चर्चा है जो सभी संतों का है; नाम ही उनके अलग हैं। Continue reading “काहे होत अधीर-(संत पलटूदास)-ओशो”

कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-10)

मीन जायकर समुंद समानी–(प्रवचन–दसवां)

कानो सुनी सो झूठ सब-(संत दरिया दास)

दिनांक:२०. ७. १९७७,  श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्न सार:

1–संन्यास मनुष्य की संभावना है या नियति?

2–झूठ इतना प्रभावी क्यों हैं?

3–प्रार्थना सम्राट की तरह कैसे की जाए?

4–क्या प्रेम की जिज्ञासा ही अद्वैत प्रेम के अनुभव में परिणत होती है? Continue reading “कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-10)”

कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-09)

पारस परसा जानिए–(प्रवचन–नौवा  )

दिनांक १९.७.१९७७,  श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र-

पारस परसा जानिए, जो पलटे अंग अंग।

अंग अंग पलटे नहीं, तो है झूठा संग।।

पारस जाकर लाइए जाके अंग में आप।

क्या लावे पाषाण को घस-घस होए संताप।।

दरिया बिल्ली गुरु किया उज्वल बगु को देख।

जैसे को तैसा मिला ऐसा जक्त अरू भेख।।

साध स्वांग अस आंतरा जेता झूठ अरु सांच। Continue reading “कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-09)”

कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-08)

निहकपटी निरसंक रहि–(प्रवचन–आठवां)

दिनांक: १८.७.१९७७, श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्न-सार:

1–अगर कान से सुना सब झूठ है तो फिर सदगुरु के उपदेश का प्रयोजन क्या?

2–समझ जीवन में प्रामाणिकता कैसे लाए?

3–आपसे मुलाकात होने का अनुभव–सपना है या सच? Continue reading “कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-08)”

कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-07)

दरिया लच्छन साध का–(प्रवचन– सतावां)

दिनांक: १७.७.१९७७, श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र:

दरिया लच्छन साध का क्या गिरही क्या भेख।

निहकपटी निरसंक रहि बाहर भीतर एक।

सत सब्द सत गुरुमुखी मत गजंद-मुखदंत।

यह तो तोड़ै पौलगढ़ वह तोड़ै करम अनंत।

दांत रहै हस्ति बिना पौल न टूटे कोए।

कै कर थारै कामिनी कै खेलारां होए।

मतवादी जाने नहीं ततवादी की बात।

सूरज ऊगा उल्लुआ गिन अंधारी रात।। Continue reading “कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-07)”

कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-06)

शून्य-शिखर में गैब का चांदना–(प्रवचन — छट्ठवां)

दिनांक: १६.७.१९७७, श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्न सार:

1–हरि से लगे रहो रे भाई

2–अष्टावक्र, कृष्णमूर्ति और बोधिधर्म के दर्शन का नामकरण क्या करेंगे?

3–शून्य के शिखर में गैब का चांदना

4–ध्यान से उदभूत नशे को कैसे सम्हालें? Continue reading “कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-06)”

कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-05)

अनहद में बिसराम–(प्रवचन–पांचवां)

दिनांक: १५.७.१९७७, श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र:

रतन अमोलक परख कर रहा जौहरी थाक।

दरिया तहां कीमत नहीं उनमन भया अवाक।।

धरती गगन पवन नहीं पानी पावक चंद न सूर।

रात दिवस की गम नहीं जहां ब्रह्म रहा भरपूर।।

पाप पुण्य सुख दुख नहीं जहां कोई कर्म न काल।

जन दरिया जहां पड़त है हीरों की टकसाल।।

जीव जात से बीछड़ा धर पंचतत्त को भेख।

दरिया निज घर आइया पाया ब्रह्म अलेख।। Continue reading “कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-05)”

कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-03)

सूर न जाने कायरी–(प्रवचन: तीसरा)

दिनांक १३.७.१९७७  श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:

पंडित ग्यानी बहु मिले बेद ग्यान परबीन।

दरिया ऐसा न मिला रामनाम लवलीन।।

वक्ता स्रोता बहु मिले करते खैंचातान।

दरिया ऐसा न मिला जो सन्मुख झेले बान।।

दरिया सांचा सूरमा सहै सब्द की चोट

लागत ही भाजै भरम निकस जाए सब खोट।।

सबहि कटक सूरा नहीं कटक माहिं कोई सूर।

दरिया पड़े पतंग ज्यों जब बाजे रन तूर।। Continue reading “कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-03)”

कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-02)

रंजी सास्तर ग्यान की–(प्रवचन: दूसरा)

दिनांक १२.७. १९७७  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्न सार

1–गैर-पढ़े लिखे लोगों के मन पर शास्त्रों की धूल कैसे जमती है?

2–गुरु के निकट अपना हृदय खोलना इतना कठिन क्यों मालूम पड़ता है?

3–राम सदा कहत जाई, राम सदा बहत जाई?

4–क्या दादू की तरह आप भी सौ साल बाद की भविष्यवाणी करेंगे? Continue reading “कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-02)”

कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-01)

सतगुरु किया सुजान –(प्रवचन– पहला)

कानो सुनी सो झूठ सब-(संत दरिया)  ओशो 

दिनांक: ११.७.७७  श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:

जन दरिया हरि भक्ति की, गुरां बताई बाट।

भुला उजड़ जाए था, नरक पड़न के घाट।

नहिं था राम रहीम का, मैं मतिहीन अजान।

दरिया सुध-बुध ग्यान दे, सतगुरु किया सुजान।।

सतगुरु सब्दां मिट गया, दरिया संसय सोग।

औषध दे हरिनाम का तन मन किया निरोग।।

रंजी सास्तर ग्यान की, अंग रही लिपटाय।

सतगुरु एकहि सब्द से, दीन्ही तुरत उड़ाय।।

जैसे सतगुरु तुम करी, मुझसे कछू न होए।

विष-भांडे विष काढ़कर, दिया अमीरस मोए। Continue reading “कानो सुनी सो झूठ सब-(प्रवचन-01)”

का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-11)

 मूल में ही विश्राम है—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 10 अप्रैल,1978; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

माया रंग कुसुम्म महा देखन को नीको।   

मीठो दिन दुई चार, अंत लागत है फीको

कोटिन जतन रह्यो नहीं, एक अंग निज मूल।

ज्यों पतंग उड़ि जायगो, ज्यों माया काफूर।।

नाम के रंग मजीठ, लगै छूटै नहिं भाई।

लचपच रह्यो समाय, सार ता में अधिकाई।।

केती बार धुलाइए, दे दे करड़ा धोए।

ज्यों ज्यों भट्ठी पर दिए, त्यों त्यों उज्ज्वल होय।। Continue reading “का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-11)”

का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-10)

अथक श्रम चाहिए—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 9 अप्रैल, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—प्रवचन और दर्शन को छोड्कर आप सदा—सर्वदा अपने एकांत कमरे में रहते हैं। फिर भी आपको इतनी सारी सूचनाएं कहां से मिलती हैं? यू० जी० कृष्णमूर्ति से संबंधित प्रश्रों के उत्तर में आपने उनके बारे में उन सब खबरों की चर्चा की है, जो बहुचर्चित हैं। सी० आई० ए०, के० बी० जी० और सी० बी० आई० जैसी कोई गुह्य संस्था भी आपके पास है क्या?

2—आपने गायत्री मंत्र और नमोकार मंत्र के तोता—रटन की कहानी सुनायी। इस तोता—रटन को आप बंद करवाना चाहते हो। क्या यही गायत्री मंत्र है? क्या यही नमोकार मंत्र है?

3—आपका प्रवचन सुनते—सुनते कभी—कभी आंखें गीली हो जाती हैं और आंसू बह आते हैं। वैसा ही सक्रिय ध्यान में भी कभी—कभी होता है। दोनों स्थितियां आनंदपूर्ण लगती हैं। प्रार्थना और ध्यान, संकल्प और समर्पण दो अलग—अलग मार्ग में से कौन—सा मार्ग चितभंजन करेगा? Continue reading “का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-10)”

का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-09)

सत्‍संग की मधुशाला—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 7 अप्रैल, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

कहंवा से जीव आइल, कहंवा समाइल हो।

कहंवा कइल मुकाम, कहां लपटाइल हो।।

निरगुन से जिव आइल, सरगुन समाइल हो।

कायागढ़ कइल मुकाम, माया लपटाइल हो।।

एक बूंद से काया—महल उठावल हो।

बूंद पड़े गलि जाय, पाछे पछतावल हो।।

हंस कहै, भाई सरवर, हम उड़ि जाइब हो।

मोर तोर एतन दिदार, बहुरि नहिं पाइब हो।।

इहवां कोइ नहिं आपन, केहि संग बोलै हो।

बिच तरवर मैदान, अकेला हंस डोलै हो।। Continue reading “का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-09)”

का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-08)

चित की आठ अवस्‍थाएं—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 6 अप्रैल, 1978; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—श्री यू० जी० कृष्णमूर्ति समझाते हैं कि समस्त तीर्थएं——योग, ध्यान, संन्यास, गुरु—शिष्य संबंध और आध्यात्मिक विकास इत्यादि मनुष्य के मन के संगम हैं, मन के खेल मात्र हैं। और इन सब में खूब—खूब भटक कर अंत में आदमी के हाथ में एक पूर्ण असहाय दशा भर आती हौइन श्री थजी० कृष्णमूर्ति के संबंध में अनेकों के मन में तीर्थ के प्रति तीखी अनास्था का जन्म हुआ है। अनेक मित्रों ने मुझसे कहा है कि वे इस स्थिति पर आप से मार्ग—निर्देश चाहते हैं।

2—संत कबीर का एक पद है——हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको बारबार तू क्यों खोले। फिर अन्यत्र उनका दूसरा पद है——दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम। भगवान, ये विरोधाभासी लगनेवाले पद क्या तीर्थ और सिद्धि के भिन्न—भिन्न तलों पर लागू होते हैं। Continue reading “का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-08)”

का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-07)

प्रेम नाव है—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 6 अप्रैल, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

सतगुरु सरन में आइ, तो तामस त्यागिये।

ऊंच नीच कहि जाय, तो उठि नहिं लागिये।।

उठि बोलै रारै रार, सो जानो घींच है।

जेहि घट उपजै क्रोध, अधम अरु नीच है।।

माला वाके हाथ, कतरनी कांख में।

सूझै नाहिं आगि, दबी है राख में।।

अमृत वाके पास, रुचै नहिं रांड को।

स्वान को यही स्वभाव, गहै निज हाड़ को।। Continue reading “का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-07)”

का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-06)

सत्‍संग की कला: संन्‍यास—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 5 अप्रैल, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—क्या यह सच नहीं है कि ज्ञानोपलब्ध लोगों की अनुपस्थिति में—— और वे दुर्लभ लोग सदा नहीं होते——पंडित और पुरोहित ही धर्म की मशाल जलाए रखते हैं?

2—गुरु की निंदा सुनने का हमेशा निषेध किया गया है। ऐसा भी कहा गया है कि कोई गुरु की निंदा करे तो कान भी धो डालना चाहिए। भगवान, आपका प्रेमी तो कभी ही मिलता है; पर आपके निंदक तो हर जगह मिल जाते हैं। ऐसे मौकों पर हमें क्या करना चाहिए?

3—आपके सत्संग में रहकर बड़े ही आनंद का अनुभव हो रहा है और जीवन एक उत्सव नजर आ रहा है। लेकिन क्या इस क्षणभंगुर जीवन का आनंद भी क्षणभंगुर नहीं है?

4—तन्मयता से किया गया प्रत्येक कार्य साधना है। तो क्या जरूरी है कि परमात्मा की साधना के लिए संन्यास लिया जाए? Continue reading “का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-06)”

का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-05)

जीवन—ध्‍यान—मंदिर का सोपान—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 4 अप्रैल, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

हीरा जन्म न बारंबार, समुझि मन चेत हो।।

जैसे कटि पतंग पषान, भए पसु पच्छी।

जल तरंग जल माहि रहे, कच्छा औ मच्छी।।

अंग उघारे रहे सदा, कबहुं न पावै सुक्ख।

सत्य नाम जाने बिना, जनम जनम बड़ दुक्ख।।

सीतल पासा ढारि, दाव खेलो सम्हारी।

जीतौ पक्की सार, आव जनि जैहौ हारी।। Continue reading “का सोवै दिन रैन-(प्रवचन-05)”

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