एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-20)

प्रेम की आखिरी मंजिल: बुद्धो से प्रेम—(प्रवचन—बीसवां)

पहला प्रश्‍न:

जिन भिक्षुओं ने बुद्ध की मूर्तियां बनायीं और बुद्ध-वचन के शास्त्र लिखे, क्या उन्होंने बुद्ध की आज्ञा मानी? क्या वे उनके आज्ञाकारी शिष्य थे?

बुद्ध की आज्ञा तो उन्होंने नहीं मानी, लेकिन मनुष्य पर बड़ी करुणा की। और बुद्ध की आज्ञा तोड़ने जैसी थी, जहां मनुष्य की करुणा का सवाल आ जाए। ऐसे उन्होंने बुद्ध की आता तोड़कर भी बुद्ध की आशा ही मानी। क्योंकि बुद्ध की सारी शिक्षा करुणा की है।

इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-20)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-19)

जागरण का तेल + प्रेम की बाती = परमात्मा का प्रकाश (प्रवचन—उन्‍नीसवां)

सारसूत्र:

चंदन कार वापि उप्पल अथ वस्सिकी।

एतेसं गंधजातान सीलगधो अनुत्‍तरो।।49।।

अणमत्तो अयं गंधो’ या यं तगरचंदनी।

यो च सीलवतं गंधों वाति देवेतु उत्तमो।।50।।

तेसं संपन्नसीलान अप्पमादविहारिनं।

सम्मदज्जा विमुत्‍तानं मारो मागं न विदति।।51।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-19)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-18)

प्रार्थना : प्रेम की पराकाष्ठा—(प्रवचन—अट्ठारवां)

पहला प्रश्न :

बुद्ध बातें करते हैं होश की, जागने की, और आप बीच-बीच में मस्ती, नशा, शराब और लीनता की बातें भी उठाया करते हैं। बुद्ध पर बोलते समय विपरीत की चर्चा क्यों आवश्यक है? कृपया समझाएं।

दृष्‍टि न हो, तो विपरीत दिखाई पड़ता है। दृष्टि हो, तो जस भी विपरीत दिखाई न पड़ेगा। जिसको बुद्ध होश कहते हैं, उसी को सूफियों ने बेहोशी कहा। जिसको बुद्ध अप्रमाद कहते हैं, उसी को भक्तों ने शराब कहा। बुद्ध के वचनों में और उमर खैयाम में इंचभर का फासला नहीं। बुद्ध ने जिसे मंदिर कहा है, उसी को उमर खैयाम ने मधुशाला कहा। बुद्ध तो समझे ही नहीं गए उमर खैयाम भी समझा नहीं गया। उमर खैयाम को लोगों ने समझा कि शराब की प्रशंसा कर रहा है। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-18)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-17)

प्रार्थना स्वयं मंजिल—(प्रवचन—सत्रहवां)

सारसूत्र:

न परेस विलोमनि न परेस कताकतं।

अत्‍तनो’ वअवेक्‍खेय्य कतानि अकतानि च।।44।।

यथापि रूचिरं पुष्‍फं वण्‍णवंतं अगंधकं।

एवं सुभाषिता वाचा अफला होति अकुब्‍बतो।।45।।

यथापि रूचिरं पप्‍फं वण्‍णवंतं सगंधकं।

एवं सुभाषिता वाचा सफला होती कुब्‍बतो।।46।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-17)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-16)

समझ और समाधि के अंतरसूत्र—(प्रवचन—सौहलवां)

पहला प्रश्न :

      महाकाश्यप उस दिन सुबह खिलखिलाकर न हंसा होता, तो भी क्या बुद्ध उसे मौन के प्रतीक फूल को देते?

प्रश्‍न पूछते समय थोड़ा सोचा भी करें कि प्रश्न का सार क्या है। यदि ऐसा हुआ होता! यदि वैसा हुआ होता! इन सारी बातों में क्यों व्यर्थ समय को व्यतीत करते हो?

महाकाश्यप न हंसा होता तो बुद्ध फूल देते या न देते, इससे तुम्हें क्या होगा? Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-16)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-15)

केवल शिष्य जीतेगा—(प्रवचन—पंद्रहवां)

सारसूत्र:

को इमं पठविं विजेस्सति यमलोकज्‍च इमं सदेवकं।

को धम्मपद सुदेसितं कुसलो पुप्‍फमिव पचेस्सति।।39।।

सेखो पठविं विजेस्सति यमलोकज्‍च इमं सदेवकं।

सेखो धम्मपद सुदेसित कुसलो पुप्‍फमिव पचेस्सतिा।।40।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-15)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-14)

अनंत छिपा है क्षण में—(प्रवचन—चौहदवां)

 पहला प्रश्न :

आप श्रद्धा, प्रेम, आनंद की चर्चा करते हैं, लेकिन आप शक्ति के बारे में क्यों नहीं समझाते? आजकल मुझमें असह्य शक्ति का आविर्भाव हो रहा है। यह क्या है और इस स्थिति में मुझे क्या रुख लेना चाहिए?

शक्‍ति की बात करनी जरूरी ही नहीं। जब शक्ति का आविर्भाव हो तो प्रेम में उसे बांटो, आनंद में उसे ढालो। उसे दोनों हाथ उलीचो।

शक्ति के आविर्भाव के बाद अगर उलीचा न, अगर बांटा न, अगर औरों को साझीदार न बनाया, अगर प्रेम के गीत न गाए, उत्सव पैदा न किया जीवन में, तो शक्ति बोझ बन जाएगी। तो शक्ति पत्थर की तरह छाती पर बैठ जाएगी। फिर शक्ति से समस्या उठेगी। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-14)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-13)

अंतर्बाती को उकसाना ही ध्यान—(प्रवचन—तेहरवां)

 सारसूत्र-

अनवस्‍सुतचित्‍तस्‍स अनन्‍वाहतचेतसो।

पुज्‍जपापपहीनस्‍स नत्‍थि जागरतो भयं।।34।।

कुम्‍भूपमं कायमिमं विदित्‍वा नगरूपमं चित्‍तमिदं ठपेत्‍वा।

योधेथ मारं पज्‍जायुधेन जितं च रक्‍खे अनिवेसनोसिया।।35।।

अचिरं वत’ यं कायो पठविं अधिसेस्‍सति।

छुद्धो अपेतविज्‍जाणो निरत्‍थं व कलिड्गरं।।36।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-13)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-12)

उठो. तलाश लाजिम है—(प्रवचन—बारहवां)

पहला प्रश्‍न:

       जीवन विरोधाभासी है, असंगतियों से भरा है, तो फिर तर्क, बुद्धि, व्यवस्था और अनुशासन का मार्ग बुद्ध ने क्यों बताया?

प्रश्‍न जीवन का नहीं है। प्रश्न तुम्हारे मन का है। जीवन को मोक्ष की तरफ नहीं जाना है। जीवन तो मोक्ष है। जीवन नहीं भटका है, जीवन नहीं भूला है। जीवन तो वहीं है जहां होना चाहिए। तुम भटके हो, तुम भूले हो। तुम्हारा मन तर्क की उलझन में है। और यात्रा तुम्हारे मन से शुरू होगी। कहां जाना है, यह सवाल नहीं है। कहां से शुरू करना है, यही सवाल है। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-12)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-11)

तथाता में है क्रांति—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

 सारसूत्र:

फन्दनं चपलं चितं दूरक्‍खं दुन्‍निवारयं।

उजुं करोति मेधावी व उसुकारो‘ व तेजनं।।29।।

वारिजो‘ व क्ले कित्तो ओकमोकत-उव्भतो।

परिफन्दतिदं चित्तं मारधेथ्यं पहातवे।।30।।

दुन्‍निग्‍गहस्‍स लहुनो यत्थकाम निपातिनो।

चित्‍तस्‍स दमथो साधु चितं दन्‍तं सुखावहं।।31।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-11)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(भाग-02)-ओशो

एस धम्‍मो सनंतनो–(भाग-02) -ओशो

(ओशो द्वारा भगवान बुद्ध की सुललित वाणी धम्‍मपद पर दिए गए दस अमृत प्रवचनों का संकलन)

जो गीत तुम्‍हारे भीतर अनगाया पडा है। उसे गाओ। जो वीणा तुम्‍हारे भीतर सोई हुई पड़ी है छेड़ो उसके तारों को। जो नाच तुम्‍हारे भीतर तैयार हो रहा है, उसे तुम बोझ की तरह मत ढोओ। उसे प्रगट हो जाने दो। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति अपने भीतर बुद्धत्‍व को लेकर चल रहा है। जब तक वह फूल न खिले,तब तक बेचैनी रहेगी, संताप रहेगा। वह फूल खिल जाए, निर्वाण है। सच्‍चिदानंद है, मोक्ष है। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(भाग-02)-ओशो”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-10)

देखा तो हर मुकाम तेरी रहगुजर में है—(प्रवचन—दसवां)

पहला प्रश्न:

भगवान, एक ही आरजू है कि इस खोपड़ी से कैसे मुक्ति हो जाए? आपकी शरण आया हूं।

पूछा है चिन्मय ने।

खोपड़ी से मुक्त होने का खयाल भी खोपड़ी का ही है। मुक्त होने की जब तक आकांक्षा है, तब तक मुक्ति संभव नहीं। क्योंकि आकांक्षा मात्र ही, आकांक्षा की अभीप्सा मन का ही जाल और खेल है। मन संसार ही नहीं बनाता, मन मोक्ष भी बनाता है। और जिसने यह जान लिया वही मुक्त हो गया। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-10)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-09)

यात्री, यात्रा, गंतव्य: तुम्हीं—(प्रवचन—नौवां)

सूत्र:

मा प्रमादमनुयुग्चेथ मा कामरतिसंथवं।

अप्पमत्तो हि झायंतो पप्पोति विपुलं सुखं।।24।।

पमादं अप्पमादेन यदा नुदति पंडितो।

पग्भपासादमारुयूह असोको सोकिनिं पजं।

पब्बतट्ठो‘ व भूमट्ठे धीरो बाले अवेक्खति।।25।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-09)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-08)

प्रेम है महामृत्यु—(प्रवचन—आठवां)

पहला प्रश्न:

दुनिया के ज्यादातर धर्मगुरुओं ने अपने स्त्री-पुरुष संन्यासियों को हो सके उतनी दूरी रखने के नियम दिए; पर आप हमेशा दोनों के प्रेम पर ही जोर देते हैं। क्या आप प्रेम का कुछ विधायक उपयोग करना चाहते हैं? या उसकी निरर्थकता का हमें अनुभव कराना चाहते हैं?

प्रेम को समझना जरूरी है।

जीवन की ऊर्जा या तो प्रेम बनती है, या भय बन जाती है। दुनिया के धर्मगुरुओं ने आदमी को भय के माध्यम से परमात्मा की तरफ लाने की चेष्टा की है। पर भय से भी कहीं कोई आना हुआ है? Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-08)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-07)

जागकर जीना अमृत में जीना है—(प्रवचन—सातवां)

सारसुत्र-

अप्पमादो अमतपदं पमादो मच्चुनो पदं।

अप्पमत्ता न मीयंति ये पमत्ता यथा मता।।18।।

एतं विसेसतो भ्त्वा अप्पमादम्हि पंडिता।

अप्पमादे पमोदंति अरियानं गोचरे रता।।19।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-07)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-06)

‘आज’ के गर्भाशय से ‘कल’ का जन्म—(प्रवचन—छठवां)

पहला प्रश्न:

आपने स्त्री के लिए प्रेम और पुरुष के लिए ध्यान का मार्ग बताया। मेरी तकलीफ यह है कि न प्रेम में पूरा डूब पाती हूं, न ध्यान में गहराई आती है। कृपया बताएं मेरे लिए मार्ग क्या है?

धर्म ज्योति ने पूछा है।

धर्मगुरुओं का डाला हुआ जहर बाधा बन रहा है। उस जहर से जब तक छुटकारा न हो, प्रेम तो असंभव है। क्योंकि प्रेम की सदा से निंदा की गयी है। प्रेम को सदा बंधन कहा गया है। और चूंकि प्रेम की निंदा की गयी है और प्रेम को बंधन कहा गया है, इसलिए स्त्री भी सदा अपमानित की गयी है। जब तक प्रेम स्वीकार न होगा तब तक स्त्री भी सम्मानित नहीं हो सकती, क्योंकि स्त्री का स्वभाव प्रेम है। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-06)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-05)

बुद्धपुरुष स्वयं प्रमाण है ईश्वर का—(प्रवचन—पांचवां)

सारसूत्र:

इध सोचति पेच्च सोचति पापकारी उभयत्थ सोचति।

सो सोचति सो विहग्भ्ति दिस्वा कम्मकिलिट्ठमत्तनो।।13।।

इध मोदति पेच्च मोदति कतपुग्भे उभयत्थ मोदति।

सो मोदति सो पमोदति दिस्वा कम्मविसुद्धिमत्तनो।।14।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-05)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-04)

अकंप चैतन्य ही ध्यान—(प्रवचन—चौथा)

पहला प्रश्न:

बुद्ध ने मन को जानने-समझने पर ही सारा जोर दिया लगता है। क्या मन से मनुष्य का निर्माण होता है? आत्मा-परमात्मा की सारी बातें क्या व्यर्थ हैं?

बातें व्यर्थ हैं। अनुभव व्यर्थ नहीं। आत्मा, परमात्मा, मोक्ष शब्द की भांति, विचार की भांति दो कौड़ी के हैं। अनुभव की भांति उनके अतिरिक्त और कोई जीवन नहीं। बुद्ध ने मोक्ष को व्यर्थ नहीं कहा है, मोक्ष की बातचीत को व्यर्थ कहा है। परमात्मा को व्यर्थ नहीं कहा है। लेकिन परमात्मा के संबंध में सिद्धांतों का जाल, शास्त्रों का जाल, उसको व्यर्थ कहा है। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-04)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-03)

ध्यानाच्छादित अंतर्लोक में राग को राह नहीं—(प्रवचन—तीसरा)

सुभानुपस्सिं विहरन्तं इन्द्रियेसु असंवुतं।

भोजनम्हि अमत्तग्भु कुसीतं हीनवीरियं।

तं वे पसहति मारो वातो रुक्खं‘ व दुब्बलं।।7।।

असुभानुपस्सिं विहरन्तं इन्द्रियेसु सुसंवुतं।

भोजनम्हि च मत्तग्भु सद्धं आरद्धवीरियं।

तं वे नप्पसहति मारो वातो सेलं‘ व पब्बतं।।8।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-03)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-02)

अस्तित्व की विरलतम घटना: सदगुरु–(प्रवचन–दूसरा) 

पहला प्रश्‍न—बुद्ध कहते है, वासना दुष्‍पूर है। उपनिषद कहते हैं, जिन्होंने भोगा उन्होंने ही त्यागा। आप कहते हैं, न भोगो न त्यागो वरन जागो। कृपया इन तीनों का अंतर्संबंध स्पष्ट करें।

अंतर्संबंध बिलकुल स्पष्ट है।

बुद्ध कहते हैं, वासना दुष्‍पूर है। बुद्ध वासना का स्वभाव कह रहे हैं। कोई कितना ही भरना चाहे, भर न पाएगा। इसलिए नहीं कि भरने की सामर्थ्य कम थी। भरने की सामर्थ्य कितनी ही हो, तो भी न भर पाएगा। ऐसे ही जैसे पेंदी टूटे हुए बर्तन में कोई पानी भरता हो। इससे कोई सामर्थ्य का सवाल नहीं है, पेंदी ही नहीं है तो बर्तन दुष्‍पूर है। न सामर्थ्य का सवाल है, न सुविधा का, न संपन्नता का। गरीब की इच्छाएं भी अधूरी रह जाती हैं, Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-02)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-01)

आत्मक्रांति का प्रथम सूत्र: अवैर–(प्रवचन–पहला)

मनो मृब्बड्गमा धम्मा मनो मनोमया।

मनसा चे पदुट्ठेन भासति वा करोति वा,

ततो नं दुक्‍खमन्‍वेति चक्कं‘ व बहतो पदं।।1।।

मनो पुब्‍बड्गमा धम्मा मनो मनोमया।

मनसा वे पसन्नेन भासति वा करोति बा,

ततो नं. मुनमन्‍वेति छाया‘ व अनपायिनी ।।2।। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-01)”

एस धम्‍मो सनंतनो-(भाग-01)-ओशो

एस धम्‍मो सनंतनो-(भाग–01) -ओशो 

(बुद्ध की सुललित वाणी धम्मपद पर दिए गए’ दस अमृत प्रवचनों का संकलन)

बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैं, हिमाच्छादित पर्वत और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे। पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है, उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम- भगवत्ता उपलब्ध की है, उतनी किसी और के माध्यम से नहीं। Continue reading “एस धम्‍मो सनंतनो-(भाग-01)-ओशो”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-91)

अनुभव ही भरोसा—प्रवचन—सौहलवां

दिनांक 10 फरवरी, 1977; ओशो  आश्रम, कोरेगांव पार्क, पूना।

जनमउवाच:

क्‍व प्रमाता प्रमाणं वा क्‍व प्रमेय क्‍व च प्रमा।

क्‍व न किंचित क्‍वा न किंचिद्वा सर्वदा विमलस्य मे।। 292।।

क्‍व विक्षेप: क्‍व चैकाग्रयं क्‍व निर्बोध क्‍व मूढुता।  

क्‍व हर्ष: क्‍व विषादो वा सर्वदा निस्कियस्थ मे।। 293।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-91)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-90)

सरलतम घटना: परमात्‍मा—प्रवचन—पंद्रहवां

दिनांक 9 फरवरी, 1977, ओशो आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न :

महागीता की इस अंतिम प्रश्नोत्तरी में कृपा करके श्रवणमात्र से होने वाली तत्काल—संबोधि, सड़न एनलाइटेनमेंट का राज फिर से कह दें। इस महाघटना के लिए पूर्वभूमिका के रूप में क्या तैयारी जरूरी है? क्या बिना किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तैयारी के तत्काल—संबोधि घटना संभव है?

फिर से पूछते हो। एक ही बात रोज कही जा रही है। एक ही बात को अनंत बार दोहराया जा रहा है। फिर पूछने से न सुन पाओगे। इतने बार दोहराकर समझ में नहीं आता। एक ही बार कहे जाने से समझ में आ सकती है। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-90)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-89)

सिद्धि के भी पार सिद्धि है—(प्रवचन—चौहदवां)

दिनांक 8 फरवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, पूना।

जनमउवाच:

क्‍व भूतानि क्‍व देहो वा क्वेंद्रियाणि क्‍व वा मन:।

क्‍व शून्यं क्‍व व नैराश्यं मतस्वरूपे निरंजने।। 285।।

क्‍व शास्त्र क्यात्मविज्ञानं क्‍व वा निर्विषयं मन:।

क्‍व तृप्ति: क्‍व वितृष्णत्व गतद्वंद्वस्थ मे सदा।। 286।।

क्‍व विछा क्‍व न वाउविद्या क्याहं क्येदं मम क्‍व वा।

क्‍व बध: क्‍व च वा मोक्ष: स्वरूपस्थ क्‍व रूपिता।। 287।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-89)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-88)

परमात्‍मा अनुमान नहीं, अनुभव है—प्रवचन—तैहरवां

दिनांक 7 फरवरी,1977; श्री ओशो आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न :

मैं कभी जीवन के शिखर पर अनुभव करता हूं। ऐसा लगता है कि सब कुछ, जीवन का सब रहस्य पाया हुआ ही है। लेकिन फिर किन्हीं क्षणों में बहुत घनी उदासी और असहायता भी अनुभव करता हूं —मेरी वास्तविक समस्या क्या है, यह मेरी पकड़ में नहीं आता है।

शिखर जब तक है, तब तक घाटियां भी होंगी। शिखर की आकांक्षा जब तक है, तब तक घाटियों का विषाद भी झेलना होगा। सुख को जिसने मांगा, उसने दुख को भी साथ में ही मांग लिया। और सुख जब आया तो उसकी छाया की तरह दुख भी भीतर आ गया। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-88)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-87)

पहुंचना हो तो रूको—प्रवचन—बाहरवां

दिनांक 6 फरवरी, 1977, ओशो आश्रम, पूना।

जनम उवाच:

तत्त्वविज्ञानसंदंशमादाय हदयोदरात्।

नानाविधपरामर्शशल्योद्धार: कृतो मया।। 277।।

क्‍व धर्म: क्‍व च वा काम: क्‍व चार्थ क्‍व विवेकिता।

क्‍व द्वैत क्‍व च वाउद्वैतं स्वमहिस्त्रि स्थितस्थ मे।। 278।।

क्‍व भूतं क्‍व भविष्यद्वा वर्तमानमयि क्‍व वा।

क्‍व श्तोः क्‍व च वा नित्य स्वमहिमि स्थितस्थ मे।। 279।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-87)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-86)

स्‍वानुभव और आचरण एक ही घटना—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

दिनांक 5 फरवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न :

‘अब मैं नाव्यो बहुत गोपाल’, भक्त ऐसा गाता है। क्या भक्त की भांति ज्ञानी भी गाता है?

गीत अनिवार्य है। नृत्य अनिवार्य है। क्योंकि अंतिम परिणति में उत्सव होगा ही। अगर अंतिम परिणति में उत्सव न हो तो फिर उत्सव कब होगा? गीत और नृत्य तो केवल उत्सव के सूचक हैं। जब वसंत आएगा और वृक्ष अपने पूरे उभार पर होगा, तो फूल खिलेंगे। गंध भी बिखरेगी। और जब दीप जलेगा तो ज्योति भी झरेगी। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-86)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-85)

चौथे की तलाश—प्रवचन—दसवां

दिनांक 4 फरवरी, 1977, ओशो आश्रम,कोरेगांवपार्क, पूना।

सूत्र:

सप्तोउपि न सषप्तौ च स्वम्मेउयि शयितो न च।

जागरेऽपि न जागर्ति धीरस्‍तृप्‍त: पदे पदे।। 270।।

ज्ञ: सचिन्तोउपि निश्चिन्त: सेन्द्रियोऽयि निरिन्द्रिय:।

सुबुद्विरपि निर्बुद्धि साहंकारोघ्नहंकृति:।। 271।।

न सुखी न च वा दुःखी न विरक्तो न संगवान्।

न मुमुक्षुर्न वा मुक्तो न किंचिन्न न किंचन।। 272।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-85)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-84)

मन मूर्च्‍छा है—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 3 फरवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

मैं साक्षीभाव को जगाने के लिए आत्मविश्लेषण, ‘इंट्रॉस्पेक्यानं करता हूं। क्या यह पहले कदम के रूप में सही है? कृपापूर्वक समझाएं।

त्मविश्लेषण तो विचार की प्रक्रिया है, और साक्षी है निर्विचार की दशा। विचार से निर्विचार के लिए कोई मार्ग नहीं जाता। विचार को छोड़ने से निर्विचार का अवतरण होता है। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-84)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-83)

मनुष्‍य, संसार व परमात्‍मा का संधिस्‍थल: ह्रदयग्रंथि-(प्रवचन-आठवां)

दिनांक 2 फरवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम पूना।

सारसूत्र :

निर्मम: शोभते धीर: समलोष्टाश्मकांचन:।

सुभिन्नहृदयग्रंथिर्विनिर्धूतरजस्तम:।। 264।।

सर्वत्रानवधानस्थ न किचिद्वासना हृदि।

मुक्तात्मनो विस्तृप्तस्थ तुलना केन जायते।। 265।।

जानन्नपि न जानाति पश्यन्नयि न पश्यति।

ब्रूवन्नपि न च ब्रूते कोऽन्यो निर्वासनाद्वते!। 266।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-83)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-82)

परम ज्ञान का अर्थ है परम अज्ञान—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 1 फरवरी, 1977, ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न :

मेरे नैना सावन— भादौ,

फिर भी मेरा मन प्यासा…….

न जब तक है तब तक प्यासा ही रहेगा। मन का होना ही प्यास है। अतृप्ति मन का स्वभाव है। मन कभी तृप्त हुआ, ऐसा सुना नहीं। मन कभी तृप्त होगा, ऐसा संभव नहीं। मन तृप्त नहीं हो सकता है। इसीलिए तो संसार में कोई तृप्ति नहीं है, क्योंकि संसार मन का फैलाव है। मन का विस्तार है। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-82)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-81)

अध्‍यात्‍म का सारसूत्र:  समत्‍व—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 31 जनवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, पूना।

अष्‍टावक्र उवाच।

न शांतं स्तौति निष्कामो न दुष्टमपि निंदति।

समदु:खसुखस्तुन्त: किंचित् कृत्यं न पश्यति ।। 258।।

धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मान न दिहुक्षति।

हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न व जीवति।। 259।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-81)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-80)

पूनम बन उतरो—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 30 जनवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न :

एक ही प्रश्न उठ रहा है हृदय में और वह भी पहली बार कि कौन है तू? क्या है, कहां पर है? अपने से पूरी—पूरी पहचान हो जाये ताकि एक जान हो जायें। तू तू न रहे, मैं मैं न रहूं। एक दूजे में खो जायें। और जब तक पहचान नहीं होती तब तक एक कैसे हो जायें? और उचित भी यही है कि तभी मैं आपके दरबार में आऊं। आने का मजा भी तभी रहेगा।

ऐसे अपने मन को धोखे मत देना। निरंतर आदमी बचने की नई—नई तरकीबें खोज लेता है। परमात्मा के द्वार में भी तुम तब जाओगे जब अपने को जान लोगे तो परमात्मा के द्वार में जाने की जरूरत क्या रह जायेगी? और यह अकड़ छोड़ो कि अपने को जानकर पहुंचेंगे, कुछ पात्रता लेकर पहुंचेंगे, कुछ योग्य बनकर पहुंचेंगे। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-80)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-79)

नि:स्‍वभाव योगी अनिर्वचनीय है—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 29 जनवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।

अष्‍टावक्र उवाच।

निरोधादीनि कर्माणि जहांति जडधीर्यदि।

मनोरथान् प्रलापांश्न कर्पुमाम्मोत्यतत्सणात्।। 251।।

मंद: श्रुत्वापि तद्वस्तु न जहांति विमूढताम्।

निर्विकल्पो बहिर्यत्नादन्तर्विषयलालस।। 252।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-79)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-78)

अक्षर से अक्षर की यात्रा—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 28 जनवरी, 1977; ओशो  आश्रम पूना।

पहला प्रश्न :

आपने एक कथा कही है, ‘स्वर्ग के रेस्टारेंट में एक बार जब लाओत्से, कस्फशियस और बद्ध आये तो कालसंदरी स्वर्णपात्र में लबालब जीवनरस भरकर लाई, पर बुद्ध ने जीवन दुख है कहकर जीवनरस से मुंह मोड़ लिया। कन्‍फ्यूशियस ने कहा कि जीवनरस ले ही आई हो तो लाओ, जरा चख लूं। और लाओत्से ने कहा कि जीवनरस को चखना क्या, पूरा पात्र ही ले आ, सभी पी लूं।’ अब इस रेस्टारेंट में अष्टावक्र भी आ गये है। वे कालसुंदरी से जीवनरस स्वीकार करेंगे या नहीं? कृपा करके कहिये।

ष्टावक्र की न पूछो! Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-78)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-77)

बुद्धि—पर्यन्‍त संसार है—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 27 जनवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, पूना।

अष्‍टावक्र उवाच।

भ्रमभूतमिदं सर्वं किचिन्नास्तीति निश्चयी।

अलक्यस्फुरण: शुद्ध: स्वभावेनैव शाम्यति।। 246।।

शद्धस्फुरणरूपस्थ दृश्यभावमयश्यत:।

क्य विधि: क्य च वैराग्‍यं क्य त्याग: क्य शमद्रेयि वा।। 247।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-77)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-76)

परंपरा और क्रांति—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 26 जनवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, कोरे गांव पार्क, पूना।

पहला प्रश्न :

आप क्रांतिकारी हैं, फिर आप परंपरागत प्राचीन शास्त्रों को क्यों पुनरुज्जीवित करने में लगे हैं?

क्‍यों कि सभी शास्त्र क्रांतिकारी हैं। शास्त्र परंपरागत होता ही नहीं। शास्त्र हो तो परंपरागत हो ही नहीं सकता। शास्त्र के आसपास परंपरा बन जाये भला, शास्त्र तो सदा परंपरा से मुक्त है। शास्त्र के पास परंपरा बन गई, उसे तोड़ा जा सकता है। शास्त्र को फिर—फिर मुक्त किया जा सकता है। शास्त्र कभी बासा नहीं होता, न पुराना होता है, न प्राचीन होता है। क्योंकि शास्त्र की घटना ही समय के बाहर की घटना है, समय के भीतर की नहीं। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-76)”

अष्‍टावक्र : महागीता (भाग-06) ओशो

अष्‍टावक्र : महागीता (भाग—छठवां) ओशो

(ओशो द्वारा अष्‍टावक्र—संहिता के 246 से 298 सूत्रों पर प्रश्‍नोत्‍तर सहित दिनांक 26 जनवरी से 10 फरवरी 1977 तक ओशो कम्‍यून इंटरनेशनल, पूना में दिए गए सोलह अमृत प्रवचनों का संकलन)

अष्‍टावक्र आज भी वैसे ही नित नूतन है, जैसे कभी रहे होंगे और सदा नित नूतन रहेंगे। यही तो शास्‍त्र की महीमा हे—शाश्‍वत, सनातन और फिर भी नित नूतन।

शास्‍त्र को फिर—फिर मुक्‍त किया जा सकता है। शास्‍त्र कभी बासा नहीं होता; न पुराना होता है। न प्राचीन होता है। क्‍योंकि शास्‍त्र की घटना ही समय के बाहर की घटना है, समय के भीतर की नहीं। Continue reading “अष्‍टावक्र : महागीता (भाग-06) ओशो”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-75)

मन का निस्तरण—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक 25 जनवरी, 1977;  श्री ओशो आश्रम, कोरे गांव पार्क पूना।

सूत्र:

सर्वारंभेषु निष्कामो यश्चरेद्बालवन्मुनि:।

न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रियमाणेऽपि कर्माणि।। 240।।

स एव धन्य आत्मज्ञ: सर्वभावेषु यः सम:।

पश्यन् श्रृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्निस्तर्षमानस:।। 241।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-75)”

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