असंभव क्रांति-(प्रवचन-02)

प्रवचन-दूसरा-(आत्मा के फूल)    असंभव क्रांति-(ओशो)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 19-10-1967 रात्रि

(अति-प्राचिन प्रवचन)

ज्ञान की कोई भिक्षा संभव नहीं हो सकती। ज्ञान भीख नहीं है। धन तो कोई भीख में मांग भी ले, क्योंकि धन बाहर है। लेकिन ज्ञान? ज्ञान स्थूल नहीं है, बाहर नहीं है, उसके कोई सिक्के नहीं हैं, उसे किसी से मांगा नहीं जा सकता। उसे तो जानना ही होता है। लेकिन आलस्य हमारा, प्रमाद हमारा, श्रम न करने की हमारी इच्छा, हमें इस बासे उधार ज्ञान को, जो कि ज्ञान नहीं है, इकट्ठा कर लेने के लिए तैयार कर देती है। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-02)”

असंभव क्रांति-(प्रवचन-01)

प्रवचन-पहला-(सत्य का द्वार)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 18-10-1967 रात्रि

(अति-प्राचिन प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्,

एक सम्राट एक दिन सुबह अपने बगीचे में निकला। निकलते ही उसके पैर में कांटा गड़ गया। बहुत पीड़ा उसे हुई। और उसने सारे साम्राज्य में जितने भी विचारशील लोग थे, उन्हें राजधानी आमंत्रित किया। और उन लोगों से कहा, ऐसी कोई आयोजना करो कि मेरे पैर में कांटा न गड़ पाए।

वे विचारशील लोग हजारों की संख्या में महीनों तक विचार करते रहे और अंततः उन्होंने यह निर्णय किया कि सारी पृथ्वी को चमड़े से ढांक दिया जाए, ताकि सम्राट के पैर में कांटा न गड़े। यह खबर पूरे राज्य में फैल गई। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-01)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-06)

छट्ठठा- प्रवचन-(नाचो–जीवन है नाच)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात शुरू करना चाहता हूं।

एक महानगरी में सौ मंजिल एक मकान के ऊपर सौवीं मंजिल से एक युवक कूद पड़ने की धमकी दे रहा था। उसने अपने द्वार, अपने कमरे के सब द्वार बंद कर रखे थे। बालकनी में खड़ा हुआ था। सौवीं मंजिल से कूदने के लिए तैयार, आत्महत्या करने को उत्सुक। उससे नीचे की मंजिल पर लोग खड़े होकर उससे प्रार्थना कर रहे थे कि आत्महत्या मत करो, रुक जाओ, ठहर जाओ, यह क्या पागलपन कर रहे हो? लेकिन वह किसी की सुनने को राजी नहीं था। तब एक बूढ़े आदमी ने उससे कहाः हमारी बात मत सुनो, लेकिन अपने मां-बाप का खयाल करो कि उन पर क्या गुजरेगी? उस युवक ने कहाः न मेरा पिता है, न मेरी मां है। वे दोनों मुझसे पहले ही चल बसे। बूढ़े ने देखा कि बात तो व्यर्थ हो गई। तो उसने कहाः कम से कम अपनी पत्नी का स्मरण करो, उस पर क्या बीतेगी? उस युवक ने कहाः मेरी कोई पत्नी नहीं, मैं अविवाहित हूं। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-06)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-05)

 

प्रवचन-पांचवां-(नाचो समग्रता है नाच)

पत्रकार-वार्ता, बंबई, दिनांक २१ सितंबर १९६८

धर्म हमारा सर्वग्राही नहीं है। वह जवान को आकर्षित ही नहीं करता है। जब आदमी मौत के करीब पहुंचने लगे तभी हमारा धर्म उसको आकर्षित करता है।इसका मतलब यही है कि धर्म हमारा मृत्योन्मुखी है। मृत्यु के पार का विचार करता है, जीवन का विचार नहीं करता है। तो जो लोग मृत्यु के पार जाने की तैयारी करने लगे वे उत्सुक हो जाते हैं। ठीक है उनको उत्सुक हो जाना। उसके लिए भी धर्म होना चाहिए। धर्म में मृत्यु के बाद का जीवन भी सम्मिलित है लेकिन इस पार का जीवन भी सम्मिलित है और उसकी कोई दृष्टि नहीं है। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-05)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-04)

 

प्रवचन-चौथा-(नाचो प्रेम है नाच)

 बड़ौदा, दिनांक ८ सितंबर, १९६८

दान मैत्री और प्रेम से निकलता है तो आपको पता भी नहीं चलता है कि आपने दान किया। यह आपको स्मरण नहीं आती कि आपने दान किया। बल्कि जिस आदमी दान स्वीकार किया, आप उसके प्रति अनुगृहीत होते हैं कि उसने स्वीकार कर लिया। लेकिन अब दान का मैं विरोध करता हूं, जब वह दान दिया जाता है तो अनुगृहीत वह होता है जिसने लिया। और देने वाला ऊपर होता है। और देने को पूरा बोध है कि मैंने दिया, और देने का पूरा रस है और आनंद। लेकिन प्रेम से जो दान प्रकट होता है वह इतना सहज है कि पता नहीं चलता कि दान मैंने किया। और जिसने लिया है, वह नीचा नहीं होता, वह ऊंचा हो जाता है। बल्कि अनुगृहीत देने वाला होता है, लेने वाला नहीं। इन दोनों में बुनियादी फर्क है। दान हम दोनों के लिए शब्द का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन दान उपयोग होता रहा है उसी तरह के दान के लिए, जिसका मैंने विरोध किया। प्रेम से जो दान प्रकट होगा, वह तो दान है ही। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-04)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-03)

 

प्रवचन-तीसरा-(नाचो जीवन है नाच)

बिड़ला क्रीड़ा केंद्र बंबई  दिनांक ७ मई, १९६७ सुबह

मेरे प्रिय आत्मन,

एक छोटी सी घटा से मैं अपनी आज की बात शुरू करना चाहता हूं,

एक महानगरी में, सौ मंजिल एक मकान के ऊपर, सौवीं मंजिल से एक युवक कूद पड़ने की धमकी दे रहा था। उसने अपने द्वार, अपने कमरे के सब द्वार बंद कर रखे थे। बालकनी में खड़ा था। सौवीं मंजिल से कूदने के लिए तैयार, आत्महत्या करने को। उसने नीचे की मंजिल पर खड़े होकर लोग उससे प्रार्थना कर रहे थे कि आत्महत्या मत करो, रुक जाओ, यह क्या पागलपन कर रहे हो? लेकिन वह किसी की सुनने को राजी नहीं। तब एक बूढ़े आदमी ने उससे कहा, हमारी बात मत सुनो, लेकिन अपने मां बाप का खयाल करो कि उन पर क्या गुजरेगी! Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-03)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-02)

 

प्रवचन-दूसरा-(नाचो धर्म है नाच)

मेरे प्रिय आत्मन,

अपना अनुभव ही सत्य है और इसके अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं है। जिस बोलने के साथ यह आग्रह होता है कि मैं कहता हूं, उस पर इसलिए विश्वास करो क्योंकि मैं कहता हूं। जिस बोलने के लिए श्रद्धा की मांग की जाती है–अंधी श्रद्धा की वह, बोलना उपदेश बन जाता है। मेरी न तो यह मांग है कि मैं कहता हूं उस पर आप विश्वास करें। मेरी तो मांग ही यही है कि उस पर भूलकर भी विश्वास न करें। न ही मेरा यह कहना है कि जो मैं कहता हूं वही सत्य है। इतना ही मेरा कहना है कि किसी के भी कहने के आधार पर सत्य को स्वीकार मत करना, और मेरे कहने के आधार पर भी नहीं। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-02)”

अमृत द्वार-(प्रवचन-01)

 

प्रवचन-पहला-(नाचो अहोभाव है नाच)

दिनांक १५ मार्च, १९६८ सुबह पूना।

मेरे प्रिय आत्मन,

एक नया मंदिर बन रहा था उस मार्ग से जाता हुआ एक यात्री उस नव निर्मित मंदिर को देखने के लिए रुक गया। अनेक मजदूर काम कर रहे थे। अनेक कारीगर काम कर रहे थे। न मालूम कितने पत्थर तोड़े जा रहे थे। एक पत्थर तोड़ने वाले मजदूर के पास वह यात्री रुका और उसने पूछा कि मेरे मित्र, तुम क्या कर रहे हो? उस पत्थर तोड़ते मजदूर ने क्रोध से अपने हथौड़े को रोका और उस यात्री की तरफ देखा और कहा, क्या अंधे हो! दिखाई नहीं पड़ता? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं। और वह वापस अपना पत्थर तोड़ने लगा। वह यात्री आगे बढ़ा और उसने एक दूसरे मजदूर को भी पूछा जो पत्थर तोड़ रहा था। उसने भी पूछा, क्या कर रहे हो? उस आदमी ने अत्यंत उदासी से आंखें ऊपर उठाई और कहा, कुछ नहीं कर रहा, रोटी-रोटी कमा रहा हूं। Continue reading “अमृत द्वार-(प्रवचन-01)”

अमृत की दशा-(प्रवचन-08)

प्रवचन—आठवां 

वह वस्तुतः जिसे हम जीवन जानते हैं, वह जीवन नहीं है। जिसे हम जीवन मान कर जी लेते हैं और मर भी जाते हैं, वह जीवन नहीं है। बहुत कम सौभाग्यशाली लोग हैं जो जीवन को अनुभव कर पाते हैं। जो जीवन को अनुभव कर लेते हैं, उनकी कोई मृत्यु नहीं है। और जब तक मृत्यु है, मृत्यु का भय है, और जब तक प्रतीत होता है कि मैं समाप्त हो जाऊंगा, मिट जाऊंगा, तब तक जानना कि अभी जीवन का कोई संधान, जीवन का कोई संपर्क, जीवन का कोई अनुभव नहीं उपलब्ध हुआ है।

एक छोटी सी कहानी से आज की चर्चा को मैं प्रारंभ करना चाहूंगा। बहुत बार उस कहानी को देश के कोने-कोने में अनेक-अनेक लोगों से कहा है। फिर भी मेरा मन नहीं भरता और मुझे लगता है उसमें कुछ बात है जो सभी को खयाल में आ जानी चाहिए। Continue reading “अमृत की दशा-(प्रवचन-08)”

अमृत की दशा-(प्रवचन-07)

प्रवचन—सातवां

कुछ प्रश्न हैं।

सबसे पहले, पूछा है कि धर्मशास्त्र इत्यादि पाखंड हैं, तो वेद-उपनिषद में जो बातें हैं, वे सत्य माननी चाहिए या नहीं?

शास्त्रों में जो है, उसे ही आप कभी नहीं पढ़ते हैं। शास्त्र में जो है, उसे नहीं; आप जो पढ़ सकते हैं, उसे ही पढ़ते हैं।

इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा।

यदि आप गीता को पढ़ते हैं, या उपनिषद को पढ़ते हैं, या बाइबिल को, या किसी और शास्त्र को, तो क्या आप सोचते हैं, जितने लोग पढ़ते हैं वे सब एक ही बात समझते हैं? निश्चित ही जितने लोग पढ़ते हैं, उतनी ही बातें समझते हैं। शास्त्र से जो आप समझते हैं, वह शास्त्र से नहीं, आपकी ही समझ से आता है। स्वाभाविक है। जितनी मेरी समझ है, जो मेरे संस्कार हैं, जो मेरी शिक्षा है, उसके माध्यम से ही मैं समझ सकूंगा। Continue reading “अमृत की दशा-(प्रवचन-07)”

अमृत की दशा-(प्रवचन-06)

प्रवचन–छटवां 

कोई मानसिक दासता और गुलामी न हो; कोई बंधे हुए रास्ते, बंधे हुए विचार और चित्त के ऊपर किसी भांति के चौखटे और जकड़न न हों, यह पहली शर्त मैंने कही, सत्य को जिसे खोजना हो उसके लिए। निश्चित ही जो स्वतंत्र नहीं है, वह सत्य को नहीं पा सकेगा। और परतंत्रता हमारी बहुत गहरी है। मैं उस परतंत्रता की बातें नहीं कर रहा हूं, जो राजनैतिक होती है, सामाजिक होती है, या आर्थिक होती है। मैं उस परतंत्रता की बात कर रहा हूं, जो मानसिक होती है। और जो मानसिक रूप से परतंत्र है, वह और चाहे कुछ भी उपलब्ध कर ले, जीवन में आनंद को और कृतार्थता को, आलोक को अनुभव नहीं कर सकेगा। यह मैंने कल कहा।

चित्त की स्वतंत्रता पहली भूमिका है। आज सुबह दूसरी भूमिका पर आपसे कुछ विचार करूं। दूसरी भूमिका है–चित्त की सरलता। Continue reading “अमृत की दशा-(प्रवचन-06)”

अमृत की दशा-(प्रवचन-05)

 प्रवचन–पांचवां 

मैं विचार में हूं–किस संबंध में आपसे बातें करूं। और बातें इतनी ज्यादा हैं और दुनिया इतनी बातों से भरी है कि संकोच होना बहुत स्वाभाविक है। बहुत विचार हैं, बहुत उपदेश हैं, सत्य के संबंध में बहुत से सिद्धांत हैं। यह डर लगता है कि कहीं मेरी बातें भी उस बोझ को और न बढ़ा दें, जो कि मनुष्य के ऊपर वैसे ही काफी है। बहुत संकोच अनुभव होता है। कुछ भी कहते समय डर लगता है कि कहीं वह बात आपके मन में बैठ न जाए। बहुत डर लगता है कि कहीं मेरी बात को आप पकड़ न लें। बहुत डर लगता है कि कहीं वह बात आपको प्रिय न लगने लगे; कहीं वह आपके मन में स्थान न बना ले। Continue reading “अमृत की दशा-(प्रवचन-05)”

अमृत की दशा-(प्रवचन-04)

 प्रवचन–चौथा 

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं अत्यंत आनंदित हूं कि जीवन के संबंध में और उसके परिवर्तन के लिए थोड़ी सी बातें आपसे कह सकूंगा। इसके पहले कि मैं कुछ बातें आपको कहूं, एक छोटी सी कहानी से चर्चा को प्रारंभ करूंगा।

एक बहुत अंधेरी रात में एक अंधा आदमी अपने एक मित्र के घर मिलने गया था। जब वह वापस लौटने लगा, तो रास्ता अंधेरा था और अकेला था। उसके मित्र ने कहा कि मैं एक लालटेन हाथ में दिए देता हूं ताकि रास्ते पर साथ दे। Continue reading “अमृत की दशा-(प्रवचन-04)”

अमृत की दशा-(प्रवचन-03)

 प्रवचन-तीसरा  

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से आज की चर्चा प्रारंभ करूंगा।

ऐसी ही एक सुबह की बात है। एक छोटे से झोपड़े में एक फकीर स्त्री का आवास था। सुबह जब सूरज निकलता था और रात समाप्त हो रही थी, तो वह फकीर स्त्री अपने उस झोपड़े के भीतर थी। एक यात्री उस दिन उसके घर मेहमान था। वह भी एक साधु, एक फकीर था। वह झोपड़े के बाहर आया और उसने देखा कि बहुत ही सुंदर प्रभात का जन्म हो रहा है। उसने देखा कि बहुत ही सुंदर प्रभात का जन्म हो रहा है और बहुत ही प्रकाशवान सूर्य उठ रहा है। इतनी सुंदर सुबह थी और पक्षियों का इतना मीठा संगीत था, इतनी शांत और शीतल हवाएं थीं कि उसने भीतर आवाज दी उस फकीर स्त्री को। उस स्त्री का नाम राबिया था। उस साधु ने चिल्ला कर कहा, राबिया, भीतर क्या कर रही हो, बाहर आओ! परमात्मा ने एक बहुत सुंदर सुबह को जन्म दिया है! Continue reading “अमृत की दशा-(प्रवचन-03)”

अमृत की दशा-(प्रवचन-02)

प्रवचन-दूसरा 

मेरे प्रिय आत्मन्!

आज की संध्या आपके बीच उपस्थित होकर मैं बहुत आनंदित हूं। एक छोटी सी कहानी से आज की चर्चा को मैं प्रारंभ करूंगा।

बहुत वर्ष हुए, एक साधु मरणशय्या पर था। उसकी मृत्यु निकट थी और उसको प्रेम करने वाले लोग उसके पास इकट्ठे हो गए थे। उस साधु की उम्र सौ वर्ष थी और पिछले पचास वर्षों से सैकड़ों लोगों ने उससे प्रार्थना की थी कि उसे जो अनुभव हुए हों, उन्हें वह एक शास्त्र में, एक किताब में लिख दे। हजारों लोगों ने उससे यह निवेदन किया था कि वह अपने आध्यात्मिक अनुभवों को, परमात्मा के संबंध में, सत्य के संबंध में उसे जो प्रतीतियां हुई हों, उन्हें एक ग्रंथ में लिख दे। लेकिन वह हमेशा इनकार करता रहा था। और आज सुबह उसने यह घोषणा की थी कि मैंने वह किताब लिख दी है जिसकी मुझसे हमेशा मांग की गई थी। और आज मैं अपने प्रधान शिष्य को उस किताब को भेंट कर दूंगा। Continue reading “अमृत की दशा-(प्रवचन-02)”

अमृत की दशा-(प्रवचन-01)

अमृत की दशा-(ओशो)  (ध्‍यान-साधना)  

प्रवचन-पहला

एक साधु के आश्रम में एक युवक बहुत समय से रहता था। फिर ऐसा संयोग आया कि युवक को आश्रम से विदा होना पड़ा। रात्रि का समय है, बाहर घना अंधेरा है। युवक ने कहा, रोशनी की कुछ व्यवस्था करने की कृपा करें।

उस साधु ने एक दीया जलाया, उस युवक के हाथ में दीया दिया, उसे सीढ़ियां उतारने के लिए खुद उसके साथ हो लिया। और जब वह सीढ़ियां पार कर चुका और आश्रम का द्वार भी पार कर चुका, तो उस साधु ने कहा कि अब मैं अलग हो जाऊं, क्योंकि इस जीवन के रास्ते पर बहुत दूर तक कोई किसी का साथ नहीं दे सकता है। Continue reading “अमृत की दशा-(प्रवचन-01)”

अनंत की पुकार-(प्रवचन-12)

 

प्रवचन-बारहवां-(काम के नये आयाम)

अहमदाबाद -अंतरंग वार्ताएं……

आप लोग सारी बात कर लें तो थोड़ा मेरे खयाल में आ जाए, तो मैं थोड़ी बात कर लूं।

एक विचार यह है कि जो आर्थिक तकलीफ हमें होती है यहां पर, आप बाहर में जहां-जहां प्रवचन करके आए हैं, वहां सब मित्रों को निवेदन हम करें कि वे सब थोड़ा-थोड़ा, जितना हो सके, सहयोग करें बंबई के केंद्र को।

अभी जो बहनजी ने बताया उसके ऊपर मैं एक सजेशन देना चाहूंगा कि जितने भी हमारे मित्र हैं या हमारे जो शुभेच्छु हैं, मेंबरशिप टाइप में एक फिक्स्ड एमाउंट रख दिया जाए कि एनुअली इतना देना पड़ेगा सबको। मेरे खयाल से यह बहुत कुछ हमको मदद दे सकेगा हमारी आर्थिक व्यवस्था को सुधारने में। अगर ग्यारह रुपये एनुअली भी रख दें हम तो कोई बड़ी चीज नहीं है देने की दृष्टि से। Continue reading “अनंत की पुकार-(प्रवचन-12)”

अनंत की पुकार-(प्रवचन-11)

 

प्रवचन-ग्याहरवां-(ध्यान-केंद्र: मनुष्य का मंगल)

अहमदाबाद  – अंतरंग बार्ताएं……

हमारा विचार है कि एक मेडिटेशन हॉल और एक गेस्ट हाउस बनाना है। तो मैं आपको यह पूछना चाहता हूं कि ऐसा हम लोग जो फंड इकट्ठा करने का सोच रहे हैं, जो पंद्रह लाख रुपये करीब का हमारा अंदाज है, वह करने का पक्का मकसद क्या है? और ऐसा करने से वह जीवन जागृति केंद्र, उस सब जगह से क्या फायदा है? उसके लिए कुछ समझाएं।

यह तो बड़ा कठिन सवाल पूछा।

आपने तो सभी कठिन सवालों के जवाब दिए हैं।

बहुत सी बातें हैं। एक तो, जैसी स्थिति में आज हम हैं ऐसी स्थिति में शायद दुबारा इस मुल्क का समाज कभी भी नहीं होगा। इतने संक्रमण की, ट्रांजिशन की हालत में हजारों-सैकड़ों वर्षों में एकाध बार समाज आता है–जब सारी चीजें बदल जाती हैं, जब सब पुराना नया हो जाता है। ये क्षण सौभाग्य भी बन सकते हैं और दुर्भाग्य भी। Continue reading “अनंत की पुकार-(प्रवचन-11)”

अनंत की पुकार-(प्रवचन-10)

प्रवचन-दसवां-(कार्यकर्ता का व्यक्तित्व)

अहमदाबाद-अंतरंंग वार्ताएं…… 

दोत्तीन बातें कहनी हैं। एक तो इस संबंध में थोड़ा समझना और विचारना जरूरी है। काम बड़ा हो और कार्यकर्ता उसमें उत्सुक हो काम करें, तो उन कार्यकर्ताओं में कुछ होना चाहिए, तो काम को आगे ले जा सकते हैं, नहीं तो नहीं ले जा सकते। वह कोई सामान्य संस्था हो, कोई सेवा-प्रसारी हो, कोई और तरह की सामाजिक संस्था हो, तो एक बात है। जिस तरह की बात लोगों में पहुंचानी है, तो हमारे पास जो कार्यकर्ता हों, उनमें उस तरह की कोई लक्षणा और उस तरह के कुछ गुण होने चाहिए। तो ही काम ठीक से पहुंचे, नहीं तो नहीं पहुंच सकता। Continue reading “अनंत की पुकार-(प्रवचन-10)”

अनंत की पुकार-(प्रवचन-09)

 

प्रवचन-नौवा-(धर्म की एक सामूहिक दृष्टि)

अहमदाबाााद-अंतरंग वार्ताएं…….

मेरे प्रिय आत्मन्!

इस देश के दुर्भाग्य की कथा बहुत लंबी है। समाज का जीवन, समाज की चेतना इतनी कुरूप, इतनी विकृत और विक्षिप्त हो गई है जिसका कोई हिसाब बताना भी कठिन है। और ऐसा भी मालूम पड़ता है कि हमारी संवेदनशीलता भी कम हो गई है, यह कुरूपता हमें दिखाई भी नहीं पड़ती। जीवन की यह विकृति भी हमें अनुभव नहीं होती। और आदमी रोज-रोज आदमियत खोता चला जाता है, उसका भी हमें कोई दर्शन नहीं होता।

ऐसा हो जाता है। लंबे समय तक किसी चीज से परिचित रहने पर मन उसके अनुभव करने की क्षमता, सेंसिटिविटी खो देता है। बल्कि उलटा भी हो जाता है; यह भी हो जाता है कि जिस चीज के हम आदी हो जाते हैं वह तो हमें दिखाई नहीं पड़ती, ठीक चीज हमें दिखाई पड़े तो वह भी हमें दिखाई पड़नी मुश्किल हो जाती है। Continue reading “अनंत की पुकार-(प्रवचन-09)”

अनंत की पुकार-(प्रवचन-08)

 

प्रवचन-आठवां-(रस और आनंद से जीने की कला)

अहमदाबाद -अंतरंग वार्ताएं……

मैं एक मैगजीन में आपके जीवन के बारे में, आपके जीवन-दर्शन के बारे में कुछ देना चाहती हूं।

तो जीवन का देगी कि जीवन-दर्शन का देना चाहिए।

दोनों साथ में!

जीवन का क्या मूल्य है? जीवन का कोई भी मूल्य नहीं है, दर्शन का ही मूल्य है।

आपने ही कल बताया कि जीवन से भागना नहीं चाहिए।

हां, तो क्या लिखना है, बोल, क्या बताना है?

मैं आपसे प्रश्न पूछ लेती हूं। Continue reading “अनंत की पुकार-(प्रवचन-08)”

अनंत की पुकार-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन -ध्यान-केंद्र के बहुआयाम

अहमदाबाद -अंतरगंवार्ताएं…..

वह जगह तो किसी भी कीमत पर छोड़ने जैसी नहीं है। हम तो अगर पचास लाख रुपया भी खर्च करें, तो वैसी जगह नहीं बना सकेंगे। दस एकड़ का कंपाउंड है। उसकी जो दीवाल है बनी हुई नौ फीट ऊंची, अपन बनाएं तो पांच लाख रुपये की तो सिर्फ उसकी कंपाउंड वॉल बनेगी। नौ फीट ऊंची पत्थर की दीवाल है। और वह करीब-करीब पंद्रह लाख में मिले तो बिल्कुल मुफ्त है। लेकिन यह सब तो उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना महत्व पूर्ण यह है कि वह  बंबई में होते हुए उसके भीतर जाते से ही आपको लगे नहीं कि बंबई में हैं..माथेरान में हैं। इतने बड़े दरख्त हैं, और इतनी शांत जगह है। Continue reading “अनंत की पुकार-(प्रवचन-07)”

अनंत की पुकार-(प्रवचन-06)

 

प्रवचन-छट्ठवां-(संगठन और धर्म)

अहमदाबाद,  अंतरंग वार्ताएं…….

सुबह मैंने आपकी बातें सुनीं। उस संबंध में पहली बात तो यह जान लेनी जरूरी है कि धर्म का कोई भी संगठन नहीं होता है; न हो सकता है। और धर्म के कोई भी संगठन बनाने का परिणाम धर्म को नष्ट करना ही होगा। धर्म नितांत वैयक्तिक बात है, एक-एक व्यक्ति के जीवन में घटित होती है; संगठन और भीड़ से उसका कोई भी संबंध नहीं है।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि और तरह के संगठन नहीं हो सकते हैं। सामाजिक संगठन हो सकते हैं, शैक्षणिक संगठन हो सकते हैं, नैतिक-सांस्कृतिक संगठन हो सकते हैं, राजनैतिक संगठन हो सकते हैं। सिर्फ धार्मिक संगठन नहीं हो सकता है। Continue reading “अनंत की पुकार-(प्रवचन-06)”

अनंत की पुकार-(प्रवचन-05)

 

प्रवचन-पांचवा-(अवधिगत संन्यास)

अहमदाबाद,  अंतरंग वार्ताएं…….

मेरे मन में इधर बहुत दिनों से एक बात निरंतर खयाल में आती है और वह यह कि सारी दुनिया से, आने वाले दिनों में, संन्यासी के समाप्त हो जाने की संभावना है। संन्यासी, आने वाले पचास वर्षों बाद, पृथ्वी पर नहीं बच सकेगा। वह संस्था विलीन हो जाएगी। उस संस्था के नीचे की ईंटें तो खिसका दी गई हैं, उसका मकान भी गिर जाएगा।

लेकिन संन्यास इतनी बहुमूल्य चीज है कि जिस दिन दुनिया से विलीन हो जाएगी उस दिन दुनिया का बहुत अहित हो जाएगा।

मेरे देखे, संन्यासी तो चला जाना चाहिए, संन्यास बच जाना चाहिए। और उसके लिए पीरियाडिकल संन्यास का, पीरियाडिकल रिनन्सिएशन का मेरे मन में खयाल है। वर्ष में, ऐसा कोई आदमी नहीं होना चाहिए, जो एकाध महीने के लिए संन्यास न ले ले। जीवन में तो कोई भी ऐसा आदमी नहीं होना चाहिए जो दो-चार बार संन्यासी न हो गया हो। Continue reading “अनंत की पुकार-(प्रवचन-05)”

अनंत की पुकार-(प्रवचन-04)

 

प्रवचन-चौथा-(“मैं’ की छाया है दुख)

अहमदाबाद अंतरंग वार्ताएं….

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक धर्मगुरु ने एक रात एक सपना देखा। सपने में उसने देखा कि वह स्वर्ग के द्वार पर पहुंच गया है। जीवन भर स्वर्ग की ही उसने बातें की थीं। और जीवन भर, स्वर्ग का रास्ता क्या है, वह लोगों को बताया था। वह निश्चिंत था कि जब मैं स्वर्ग के द्वार पर पहुंचूंगा तो स्वयं परमात्मा मेरे स्वागत को तैयार रहेंगे।

लेकिन वहां द्वार पर तो कोई भी नहीं था। द्वार खुला भी नहीं था, बंद था। और द्वार इतना बड़ा था कि उसके ओर-छोर को देख पाना संभव नहीं था। उस विशाल द्वार के समक्ष खड़े होकर वह एक छोटी सी चींटी की तरह मालूम होने लगा, इतना छोटा मालूम होने लगा। उसने बहुत द्वार को खटखटाया, लेकिन उस विशाल द्वार पर उस छोटे से आदमी की आवाजें भी पैदा हुईं या नहीं, इसका भी पता लगना कठिन था। Continue reading “अनंत की पुकार-(प्रवचन-04)”

अनंत की पुकार-(प्रवचन-03)

प्रवचन-तीसरा-(कार्यकर्ता की विशेष तैयारी)

अहमदाबाद,  अंतरंग वार्ताएं…..

मनुष्य के जीवन में, और विशेषकर इस देश के जीवन में, कोई सर्वांगीण क्रांति आ सके, उसके लिए साधनों के संबंध में दिन भर हमने बात की।

लेकिन साधन अत्यंत जड़, अत्यंत परिधि की बात है। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण और जरूरी वे मित्र हैं जो उस क्रांति को और आंदोलन को लोगों तक ले जाएंगे। उन मित्रों के संबंध में थोड़ी बात कर लेनी बहुत जरूरी होगी।

एक तो, जब भी किसी नये विचार को, किसी नई हवा को लोकमानस तक पहुंचाना हो, तब जो लोग पहुंचाना चाहते हैं उनकी एक विशेष मानसिक तैयारी अत्यंत जरूरी और आवश्यक है। यदि उनकी तैयारी नहीं है मानसिक, तो वे जो पहुंचाना चाहते हैं उसे तो नहीं पहुंचा पाएंगे, बल्कि हो सकता है उनके सारे प्रयत्न, जो वे नहीं चाहते थे, वैसा परिणाम ले आएं। Continue reading “अनंत की पुकार-(प्रवचन-03)”

अनंत की पुकार-(प्रवचन-02)

प्रवचन-दूसरा-(एक एक कदम)

अहमदाबाद, अंतरंग वर्ताएं..

कोई दो सौ वर्ष पहले, जापान में दो राज्यों में युद्ध छिड़ गया था। छोटा जो राज्य था, भयभीत था; हार जाना उसका निश्चित था। उसके पास सैनिकों की संख्या कम थी। थोड़ी कम नहीं थी, बहुत कम थी। दुश्मन के पास दस सैनिक थे, तो उसके पास एक सैनिक था। उस राज्य के सेनापतियों ने युद्ध पर जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह तो सीधी मूढ़ता होगी; हम अपने आदमियों को व्यर्थ ही कटवाने ले जाएं। हार तो निश्चित है।

और जब सेनापतियों ने इनकार कर दिया युद्ध पर जाने से…उन्होंने कहा कि यह हार निश्चित है, तो हम अपना मुंह पराजय की कालिख से पोतने जाने को तैयार नहीं; और अपने सैनिकों को भी व्यर्थ कटवाने के लिए हमारी मर्जी नहीं। मरने की बजाय हार जाना उचित है। मर कर भी हारना है, जीत की तो कोई संभावना मानी नहीं जा सकती। Continue reading “अनंत की पुकार-(प्रवचन-02)”

अनंत की पुकार-(प्रवचन-01)

प्रवचन-पहला-(ध्यान-केंद्र की भूमिका)

अहमदाबाद, अंतरंग वर्ताएं..

मेरे प्रिय आत्मन्!

कुछ बहुत जरूरी बातों पर विचार करने को हम यहां इकट्ठा हुए हैं। मेरे खयाल में नहीं थी यह बात कि जो मैं कह रहा हूं एक-एक व्यक्ति से, उसके प्रचार की भी कभी कोई जरूरत पड़ेगी। इस संबंध में सोचा भी नहीं था। मुझे जो आनंदपूर्ण प्रतीत होता है और लगता है कि किसी के काम आ सकेगा, वह मैं लोगों से, अब मेरी जितनी सामर्थ्य और शक्ति है उतना कहता हूं। लेकिन जैसे-जैसे मुझे ज्ञात हुआ और सैकड़ों लोगों के संपर्क में आने का मौका मिला, तो मुझे यह दिखाई पड़ना शुरू हुआ कि मेरी सीमाएं हैं; और मैं कितना ही चाहूं तो भी उन सारे लोगों तक अपनी बात नहीं पहुंचा सकता हूं जिनको उसकी जरूरत है। और जरूरत बहुत है, और बहुत लोगों को है। पूरा देश ही, पूरी पृथ्वी ही कुछ बातों के लिए अत्यंत गहरे रूप से प्यासी और पीड़ित है। Continue reading “अनंत की पुकार-(प्रवचन-01)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-40)

मिलन होता है—बीसवां प्रवचन

बीचवां प्रवचन,    30 मार्च1978;   श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍न सार :

1-प्रार्थना क्या है? और क्या प्रार्थना अपने ही लिए है?

2-अहंकार के पास भी कोई संजीवनी है क्या? जाने कहां से, कैसे और क्यों जी—जी आता है!

3-टी. यू. अंग्रेजी—विभागाध्यक्ष तथा शिवपुरी बाबा के कुछ शिष्यों के संदर्भ सहित नेपाल के    एक मित्र का भगवान से प्रश्न—प्रेम के साथ इतना गहरा भय क्यों जुड़ा रहता है?

4-भगवान! अब तैयार हूं। तारीख तेरह अप्रैल को मेरा इकसठवां जन्मदिन है—आपके चरणों में     संन्यस्त होने के लिए आ गिरूंगा।… आप ही मेरे शेष जीवन के एक मात्र आधार सदगुरु और   इष्टदेव हो!

5-भगवान! क्या इस प्यास का कभी अंत होगा जिसने मुझे दीवाना बना दिया है?… आह! किसे मैं अपने हृदय की बात बताऊं? मैं एकदम अजनबी और नितांत अकेला हूं! Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-40)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-39)

प्रेम ही मंदिर है—उन्नीसवा प्रवचन

उन्‍नीसवां प्रवचन ,   29 मार्च 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र :

अनन्यभकया तदबुद्धिर्बुद्धिलयादत्यन्तम्।। 96।।

आयुश्चिरयितरेषां तु हानिनास्पदत्वात्।। 97।।

संसृतिरेषाम् भक्ति: स्यान्नाज्ञानात् कारणसिद्धे:।। 98।।

त्रीण्येषां नेत्राणि शब्दलिगाक्षभेदादुद्रवत्।। 99।।

आविस्तिरोभावाकिकारा: स्युः क्रियाफलसयोगात्।। 100।।

अथातो भक्ति जिज्ञासा!

अब भक्ति की जिज्ञासा! Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-39)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-38)

जगत की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता–प्रेम : (प्रवचन—अठारहवां)

28 मार्च 1978;   श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍न सार :

1-वेदों में वर्णित होमापक्षी की कथा का आशय समझाने के लिए भगवान से निवेदन।

2-क्या कैवल्य में साक्षी भी प्रकाश के साथ समाहित हो जाता है?

3-हे भंते! मा शीला के मन में भाव उठा दीजिए न!…

4-अब हद से गुजर चुकी मुहब्बत तेरी! 

5-प्रार्थना है कि अब रंग चढ़ा दें!

6-संसार क्या है? Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-38)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-37)

ऊर्ध्वगति का आयाम है परमात्मा—सत्रहवां प्रवचन

सत्रहवां प्रवचन   27 मार्च 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र :

फलस्माद्वादरायणो दृष्टत्वात्।। 91।।

ब्यूत्कमदप्ययस्तथा दृष्टम्।। 92।।

तदैक्यं नानात्वकैत्वमुपाधियोगहानादादित्यवत्।। 93।।

पृथगिति चेन्नापरेणासम्बन्धात् प्रकाशानाम्।। 94।।

न विकारिणस्तु कारणविकारात्।। 95।।

‘फलम् अस्मात् वादरायण दृष्टत्वात्।। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-37)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-36)

मौजूदगी ही उसकी है—सोलहवां प्रवचन

सोलहवां प्रवचन    26 मार्च 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार :

1-संसार में ही परमात्मा के छिपे होने का प्रमाण क्या हो?

2-पूर्वजन्म के पाप या प्रारब्ध क्षणमात्र में कट जाते हैं या भोगने पड़ते हैं?

3-मैं पचपन वर्ष का। तीन बार विवाह हुआ और हर बार पत्नी की मृत्यु। अभी भी स्त्री के प्रति      मन ललचाता हूं। मैं क्या करू?

4-मैं शात हो रही हूं या उदास? कृपया मार्ग बताएं।

5-मैंने सब ध्यान बंद कर दिया है। कृपा कर इस दिशा में हमारा मार्गदर्शन करें।

6-यह संभावना भी तो है कि आप के जाने बाद आपका संन्यास धर्म एक वृहत संगठन का    रूप लेगा जिसमें पद—शृंखला और राजनीति भी प्रविष्ट हो जाएगी।

7-दूसरे व्यक्ति की उपस्थिति के समय, भोजन के समय ध्यान भूल— भूल जाता है।

8-पूरे समय ध्यान की स्थिति क्यों नहीं बनी रहती? Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-36)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-35)

सदगुरु शास्त्रों का पुनर्जन्म है—पंद्रहवां प्रवचन

पंद्रहवां प्रवचन    25 मार्च 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र :

तल्छक्तिर्माया उड्सामान्यात्।। 86 ।।

व्यापकत्वाद्वयाप्यानाम्।। 87 ।।

न प्राणिबुद्धिभ्योऽसम्भवात्।। 88 ।।

निर्मायोच्चावच श्रुतीश्च निर्मिमीते पितृवत्।। 89 ।।

मिश्रोपदेशान्नेति चेन्‍न स्वल्पत्वात्।। 90 ।। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-35)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-34)

जग़ारण है द्वार स्वर्ग का—चौदहवां प्रवचन

चौदहवां प्रवचन   24 मार्च 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 प्रश्‍न सार :

1–क्या धरती पर स्वर्ग उतारा जा सकता है? क्या इस बार हम कुछ नये की आशा संजो सकते हैं?

2–कान्हा! क्या होली नहीं खेलोगे?

3–कुंड़लिनी या सक्रिय ध्यान में ऊर्जा जाग्रत होने पर उसे नाचकर क्यों खत्म कर दिया जाता है?

4–क्या राजनीति अध्यात्म के विपरीत है?

5–एक ध्यान— अनुभव पर प्रकाश डालने हेतु भगवान से निवेदन। आपसे और आश्रम से मेरे    दूर रखे जाने में राज क्या है?

6–आपको सुन—सुनकर भक्ति का रोग लग गया है। अब धैर्य नहीं रखा जाता है। आकांक्षा  होती   है सब अभी हो जाए। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-34)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-33)

क्रांति और उत्कांति—तेरहवां प्रवचन

तेरहवां प्रवचन    23 मार्च 1978,   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र :

उत्कांतिस्मृतिवाक्यशेषाच्च।। 81।।

महापातकिनां त्वातौं।। 82।।

सैकान्तभावो गीतार्थप्रत्यभिज्ञानात्।। 83।।

परां कृत्वैव सर्वेषा तथाह्याह।। 84।।

भजनीयेनाद्वितीयमिदं कृष्णस्य तक्लरूपत्वात्।। 85।। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-33)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-32)

अभीप्सा व प्रतीक्षा की एक साथ पूर्णता—प्रार्थना की पूर्णता—बारहवां प्रवचन

दिनांक 22 मार्च 1978;    श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 प्रश्‍न सार :

 1–धर्म क्या है? और आप कैसा धर्म पृथ्वी पर लाना चाहते हैं?

 2–तेरे ही इशारे पर मैंने अपना पूरा प्यार उंडेल दिया। तुझमें उसीको और उसमें तेरे ही रूप    को देखती हूं। क्या मेरी आंखें धोखा खा रही हैं, प्रभु?

       3–आगरा से निकलनेवाले एक पत्र ‘रजनीश—प्रेम ‘ के बाबत एक मित्र का अजीब—सा प्रश्न!

 4–संन्यास लेने के संबंध में अनिर्णय में पडे एक मित्र की समस्या! Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-32)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-31)

पदार्थ: अणुशक्ति: :चेतना: प्रेमशक्ति—ग्‍यारहवां प्रवचन

 दिनांक 21 मार्च 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 सूत्र :

लध्वपि भक्ताधिकारे महत्वक्षेपकमपरसर्वहानात्।। 76।।

तक्मानत्वादनन्यधर्म: खले बालीवत्।। 77।।

अनिन्द्ययोन्यधिक्रियतेपारम्पर्यात् सामान्यवत्।। 78।।

अतोह्यविपक्कभावानामपि तल्लोके।।79 ।।

क्रमैकणत्युपपत्तेस्तु।। 80 ।। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-31)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-30)

धर्म है मनुष्य के गीत का प्रकट हो जाना—दसवां प्रवचन

दिनांक 20 मार्च 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 प्रश्‍न सार :

 1–कार्ल मार्क्स के एक प्रसिद्ध वचन पर प्रश्न।

 2–आपके पास बैठने से जितने शून्य व खाली होते हैं उतना ध्यान करने से नहीं होते हैं। फिर   भी क्या ध्यान की जरूरत है?

 3–आपको समझने में मुझसे बहुत भूल हुई। क्षमा मांगता हूं। आपकी देखना का सारसूत्र क्या   हैं?

 4–परमात्मा की सर्वव्यापकता पर एक मित्र का प्रश्न। स्वामी ब्रह्म वेदाaत के संबंध में प्रश्न। कुछ भी नया करने में भयभीत होता हूं। इस भय से मुक्त कैसे होऊं? Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-30)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-29)

भक्ति अकर्मण्यता नहीं, अकर्ताभाव है—नौवां प्रवचन :

दिनांक 19 मार्च 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 सूत्र :

सुकृतजत्वात् परहेतुभावाश्च क्रियासु श्रेयस्य:।।७१।।

गौणं त्रैविध्यमितरेण स्तुत्यर्थत्वात् साहचर्यम्।। ७२।।

बहिरन्तरस्थमुभयमवेष्टि सर्ववत्।।७३।।

भूयसामननुष्ठितिरिति चेदाप्रयाणमुपसंहारान्महत्स्वपि।। ७४।। 

स्मृतिकीत्यों: कथादेश्चातौ प्रायश्चित्‍तभावात्।। ७५।। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-29)”

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