अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-60)

प्रभु—मंदिर यह देहरी—प्रवचन—पंद्रहवां

दिनांक 10 दिसंबर, 1976;  श्री रजनीश आश्रम पूना।

पहला प्रश्न :

अष्टावक्र—गीता में जीवन—मुक्त की चर्चा कई बार हुई है। जीवन—मुक्त पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।

न जैसा है वैसी ही मृत्यु होगी। जो उस पार है वैसा ही इस पार होना पडेगा। जैसे तुम यहां हो वैसे ही वहां हो सकोगे। क्योंकि तुम एक सिलसिला हो, एक तारतम्य हो। ऐसा मत सोचना कि मृत्यु के इस पार तो अंधेरे में जीयोगे और मृत्यु के उस पार प्रकाश में। जो यहां नहीं हो सका, वह केवल शरीर छूट जाने से नहीं हो जायेगा। तुम तुम ही रहोगे। मौत से कुछ भेद नहीं पड़ता है। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-60)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-59)

साक्षी स्‍वाद है संन्‍यास का—प्रवचन—चौदहवां

दिनांक 9 दिसंबर, 1976 श्री रजनीश आश्रम, पूना।

अष्‍टावक्र उवाच:

क्व मोह: क्‍व न वा विश्वं क्‍व ध्यानं क्‍व मुक्तता।

सर्वसंकल्पसीमायां विश्रांतस्य महात्मन:।। 110।!

येन विश्वमिदं दुष्टं स नास्तीति करोति वै।

निर्वासन: किं कुस्ते यश्यब्रयि न यश्यति।। 111।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-59)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-58)

संन्‍यास—सहज होने की प्रक्रिया—प्रवचन—तैरहवां  

दिनांक 8 दिसंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

आपने संन्यास देते ही मुक्त करने की बात कही, लेकिन मुक्त होते ही संन्यासी का जीवन आमूल रूप से परिवर्तित क्यों नहीं हो पाता है? हालत ऐसी है कि संन्यास के बाद भी वह अपनी पुरानी मनोदशा में ही जीता है। कभी—कभी तो सामान्य सतह से भी नीचे गिर जाता है। मुक्ति का सुवास उसे तत्‍क्षण एक ईमानदार महामानव क्यों नहीं बना पाता? क्या इससे ‘संचित’ का संकेत नहीं मिलता कि सब कुछ पूर्व—कर्म से बंधा है, नीयत है? Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-58)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-57)

तथाता का सूत्र—सेतु है—प्रवचन—बारहवां

दिनांक 7 दिसंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

अष्‍टावक्र उवाच:

आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ व कल्पितौ।

निष्काम: किविजानाति किंब्रूते च करोति किम्।। 184।।

अयं सोउहमयं नाहमिति क्षीणा विकल्पना:।

सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णीभूतस्थ योगिनः।। 185।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-57)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-56)

आलसी शिरोमणि—प्रवचन—ग्‍यारहवां

दिनाक 6 दिसंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न :

बड़ी जहमतें उठायीं तेरी बंदगी के पीछे मेरी हर खुशी मिटी है तेरी हर खुशी के पीछे मैं कहा—कहा न भटका तेरी बकी के पीछे! अब आगे मैं क्या करूं, यह बताने की अनकंपा करें।

रने में भटकन है। फिर पूछते हो, आगे क्या करूं! तो मतलब हुआ : अभी भटकने से मन भरा नहीं। करना ही भटकाव है। साक्षी बनो, कर्ता न रहो।….. .तो फिर मेरे पास आ कर भी कहीं पहुंचे नहीं। फिर भटकोगे। किया कि भटके। करने में भटकन है। कर्ता होने में भटकन है। लेकिन मन बिना किये नहीं मानता। वह कहता है, अब कुछ बतायें, क्या करें? Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-56)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-55)

परमात्‍मा हमारा स्‍वभावसिद्ध अधिकार है—प्रवचन–दसवां

दिनांक 5 दिसंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्रसार:

अष्‍टावक्र उवाच:

यस्य बोधोदये तावक्यम्नवद्भवति भ्रम:।

तस्मै सुखैकरूयाय नम: शांताय तेजसे।। 177।।

अर्जयित्वाउखिलानार्थान् भोगानाम्मोति पुष्कलान्।

नहि सर्वयरित्यागमतरेण सखी भवेत।। 178।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-55)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-54)

साक्षी, ताओ और तथाता—प्रवचन—नौवां

दिनांक 4 दिसंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

अष्टावक्र के साक्षी, लाओत्सु के ताओ और आपकी तथाता में समता क्या है और भेद क्या है?

मता बहुत है, भेद बहुत थोड़ा।

लाओत्सु ने जिसे ताओ कहा है वह ठीक वही है जिसे वेदों में ऋत कहा है—ऋतंभरा, या जिसे बुद्ध ने धम्म, धर्म कहा; जो जीवन को चलाने वाला परम सिद्धात है, जो सब सिद्धातो का सिद्धात है, जो इस विराट विश्व के अंतरतम में छिपा हुआ सूत्र है। जैसे माला के मनके हैं और उनमें धागा पिरोया हुआ है; एक ही धागा सारे मनकों को संभाले हुए है। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-54)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-53)

धर्म अर्थात सन्‍नाटे की साधना—प्रवचन—आठवां

3 दिसंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र:

सानुरागां स्त्रियं दृष्ट्वां मृत्युं वा समुपस्थितम्।

अविह्वलमना स्वस्थो मुक्त एव महाशय:।। 170।।

सखे दुःखे नरे नार्यां संपत्सु च विपत्स च।

विशेषो नैव धीरस्थ सर्वत्र समदर्शिन:।। 171।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-53)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-52)

तू स्‍वयं मंदिर है—प्रवचन—सातवां

दिनांक 2 दिसंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

आपने कहा कि संसार के प्रति तृप्ति और परमात्मा के प्रति अतृप्ति होनी चाहिए। और आपने यह भी कहा कि कोई भी आकांक्षा न रहे; जो है उसका स्वीकार, उसका साक्षी—भाव रहे। इन दोनों वक्तव्यों के बीच जो विरोधाभास है, उसे स्पष्ट करने की अनकंपा करें।

विरोधाभास दिखता है, है नहीं। और दिखता इसलिए है कि तुम जो भाषा समझ सकते हो वह सत्य की भाषा नहीं। और सत्य की जो भाषा है वह तुम्हारी समझ में नहीं आती। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-52)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-51)

शून्‍य की वीणा: विराट के स्‍वर—प्रवचन—छठवां

दिनांक 1 दिसंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना।

अष्‍टावक्र उवाच–

कृतार्थोउनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधी कृती।

यश्यंच्छण्वमृशजिं घ्रन्नश्नब्रास्ते यथासुखम्।। 164।।

शून्य द्वष्टिर्वृथर चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि न।

न सहा न विरक्तिर्वा क्षीण संसार सागरे।। 165।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-51)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-50)

रसो वै स:–प्रवचन—पाँचवाँ

दिनांक 30 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

काम, क्रोध, लोभ, मोह क्या समय की ही छायाएं हैं? समय का सार क्या है? कृपा करके हमें समझायें।

मय को दो ढंग से सोचा जा सकता है। एक तो घड़ी का समय है, वह तो बाहर है। उससे तुम्हारा कुछ लेना— देना नहीं है। एक तुम्हारे भीतर समय है। उस भीतर के समय से घड़ी का कुछ लेना—देना नहीं है। तो जब भी मैं कहता हूं कि वासना समय है, कामना समय है, तृष्णा समय है—तो तुम घड़ी का समय मत समझना। तुम्हारे भीतर एक समय है। जब हम कहते हैं, बुद्ध और महावीर कालातीत हो गये, तो ऐसा नहीं है कि घड़ी चलती होती है तो उनके लिए बंद हो जाती है। घड़ी तो चलती रहती hऐ—भीतर की घड़ी बंद हो गयी। ध्यान में, समाधि में, भीतर का समय शून्य हो जाता है। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-50)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-49)

सहज ज्ञान का फल है तृप्‍ति—प्रवचन—चौथा

दिनांक 29 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

अष्‍टावक्र: उवाज:

तेन ज्ञानफलं प्राप्त योगाभ्यासफलं तथा।

तृप्त: स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु य:।। 157।।

न कदाचिज्जगत्यस्मिंस्तत्त्वज्ञो हन्त खिद्यति।

यत एकेन तेनेदं पूर्णं ब्रह्मांडमंडलम्।। 158।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-49)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-48)

प्रेम, करूणा, साक्षी और उत्‍सव—लीला—प्रवचन–तीसरा

दिनांक 28 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

क्राइस्ट का प्रेम, बुद्ध की करुणा, अष्टावक्र का साक्षी और आपकी उत्सव—लीला, इन चारों में क्या फर्क है? क्या ये अलग— अलग चार मार्ग हैं?

लग— अलग मार्ग नहीं, वरन एक ही घटना की चार सीढ़ियां हैं, एक ही द्वार की चार सीढ़ियां हैं।

क्राइस्ट ने जिसे प्रेम कहा है वह बुद्ध की ही करुणा है, थोड़े से भेद के साथ। वह बुद्ध की करुणा का ही पहला चरण है। क्राइस्ट का प्रेम ऐसा है जिसका तीर दूसरे की तरफ है। कोई दीन है, कोई दरिद्र है, कोई अंधा है, Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-48)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-47)

साक्षी आया, दुःख गया—प्रवचन—दूसरा

दिनांक 27 नवंबर, 1976;  श्री रजनीश आश्रम पूना।

अष्‍टावक्र उवाच।

हेयोयादेयता तावत्संसार विटपांकर:।

स्पृहा जीवति यावद्वै निर्विचार दशास्थदम्।। 152।।

प्रवृत्तौ जायते रागो निवृत्तौ द्वेष एव हि।

निर्द्वद्वो बालबद्धीमानेवमेव व्यवस्थित:।। 153।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-47)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-46)

खुदी को मिटा, खुदा देखते है—प्रवचन—एक

दिनांक 26 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

बोध की यात्रा में रस, विरस एवं स्व—रस क्या मात्र पड़ाव हैं? कृपा करके समझायें।

स पड़ाव नहीं है। रस तो गंतव्‍य है। इसके लिए उपनिषद कहते है। रसो वै सः! उस प्रभु का नाम रस है। रस—रूप! रस में तल्लीन हो जाना परम अवस्था है।

पूछने वाले ने पूछा है : रस, विरस और स्व—रस…। शायद जहां रस कहा है, पूछा है, वहा कहना चाहिए पर—रस। पर—रस पड़ाव है। फिर पर—रस से जब ऊब पैदा हो जाती है, तो विरस। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-46)”

अष्‍टावक्र: महागीता-(भाग-4)ओशो

अष्‍टावक्र:  महागीता—(भाग—चार) —ओशो

(ओशो द्वारा अष्‍टावक्र—संहिता के 152 से 196 सूत्रों पर प्रश्‍नोत्‍तर सहित दिनांक 26 नवंबंर से 10 दिसंबर 1976 तक ओशो कम्‍यून इंटरनेशनल, पूना में दिए गए पंद्रह अमृत प्रवचनों का संकलन।) 

अष्‍टावक्र कह रहे है: तुम शरीर से तो छूट ही जाओ, परमात्‍मा से भी छूटो। संसार की तो भाग—दौड़ छोड़ ही दो, मोक्ष की दौड़ भी मन में मत रखो। तृष्‍णा के समस्‍त रूपों को छोड़ दो। तृष्‍णा—मुक्‍त हो कर खड़े हो जाओ। Continue reading “अष्‍टावक्र: महागीता-(भाग-4)ओशो”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-45)

धर्म एक आग है—प्रवचन—पंद्रहवां

दिनांक 25 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूूूत्र::

आचक्ष्‍व श्रृणु वा तात नानाशास्त्रोण्यनेकश:।

तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाद्वते।। 146।।

भोगं कर्म समाधिं वा कुरु विज्ञ तथापि ते।

चित्तं निरस्तसर्वाशमत्यर्थं रोचयिष्यति।। 147।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-45)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-44)

शूल है प्रतिपल मुझे आग बढ़ाते—प्रवचन—चौदहवां

दिनांक 24 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना।

पहला प्रश्न :

आपके शिष्य वर्ग में जो अंतिम होगा, उसका क्या होगा?

सा ने कहा है. जो अंतिम होंगे, वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम हो जायेंगे। लेकिन अंतिम होना चाहिए। अंत में भी जो खड़ा होता है, जरूरी नहीं कि अंतिम हो। अंत में भी खड़े होने वाले के मन में प्रथम होने की चाह होती है। अगर प्रथम होने की चाह चली गई हो और अंतिम होने में राजीपन आ गया हो, स्वीकार, तथाता, तो जो ईसा ने कहा है, वही मैं तुमसे भी कहता हूं : जो अंतिम हैं वे प्रथम हो जायेंगे। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-44)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-43)

प्रभु की प्रथम आहट—निस्‍तब्‍धता में—प्रवचन—तैहरवां

दिनांक 23 नवंबर, 1976; रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र:

अष्‍टावक्र उवाच।

यत्‍वं पश्यसि तत्रैकस्लमेव प्रतिभाससे।

किं पृथक भासते स्वर्णात्कट कांगदनुपरम्।। 139।।

अयं सोउहमयं नाहं विभागमिति संत्यज।

सर्वमात्मेति निश्चित्य नि:संकल्य सुखी भव!! 140।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-43)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-42)

श्रद्या का क्षितिज: साक्षी का सूरज—प्रवचन—बारहवां

दिनांक 22 नवंबर, 1976 ओशो आश्रम पूना।

प्रश्न :

श्रद्धा और साक्षित्व में कोई आंतरिक संबंध है क्या? साक्षित्व तो आत्मा का स्वभाव है, क्या श्रद्धा भी? और क्या एक को उपलब्ध होने के लिए दूसरे का सहयोग जरूरी है?

श्रद्या का अर्थ है मन का गिर जाना। मन के बिना गिरे साक्षी न बन सकोगे। श्रद्धा का अर्थ है संदेह का गिर जाना। संदेह गिरा तो विचार के चलने का कोई उपाय न रहा। विचार चलता तभी तक है जब तक संदेह है। संदेह प्राण है विचार की प्रक्रिया का। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-42)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-41)

सहज है सत्‍य की उपलब्‍धि–प्रवचन—ग्‍यारहवां

दिनांक 21 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र:

अष्‍टावक्र उवाच:

श्रद्यत्‍स्‍व तात श्रघ्‍दत्‍स्‍व नात्र मोह कुस्थ्य भो:।

ज्ञानस्वरूपो भगवानात्मा त्वं प्रकृते पर:।। 133।।

गणै: संवेष्टितो देहस्तिष्ठत्यायाति याति च।

आत्मा न गंता नागता किमेनमनुशोचति।। 134।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-41)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-40)

धर्म अर्थात उत्‍सव—प्रवचन—दसवां

 दिनांक 20 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

आपने बताया कि प्रेम के द्वारा सत्य को उपलब्ध हुआ जा सकता है। कृपया बताएं क्या इसके लिए ध्यान जरूरी है?

फिर प्रेम का तुम अर्थ ही न समझे। फिर प्रेम से कुछ और समझ गए। बिना ध्यान के प्रेम तो संभव ही नहीं है। प्रेम भी ध्यान का एक ढंग है। फिर तुमने प्रेम से कुछ अपना ही अर्थ ले लिया। तुम्हारे प्रेम से अगर सत्य मिलता होता तो मिल ही गया होता। तुम्हारा प्रेम तो तुम कर ही रहे हो; पत्नी से, बच्चे से, पिता से, मां से, मित्रों से। ऐसा प्रेम तो तुमने जन्म—जन्म किया है। ऐसे प्रेम से सत्य मिलता होता तो मिल ही गया होता। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-40)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-39)

विषयों में विरसता मोक्ष है—प्रवचन—नौवां

दिनांक 19, नवंबर; 1976 श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र सार:

यथातथोयदेशेन कृतार्थ: सत्त्वबुद्धिमान्।

आजीवमयि जिज्ञासु: परस्तत्र विमुह्यति!। 126।।

मोक्षो विषयवैरस्यं बधो वैषयिको रस:।

एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु।। 127।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-39)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-38)

जागते—जागते जाग आती है—प्रवचन—आठवां

दिनांक 18 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

आपने शास्त्र—पाठ की महिमा बताई। लेकिन ऐसे कुछ लोग मुझे मिले हैं जिन्हें गीता या रामायण कंठस्थ है और जो प्राय: नित्य उसका पाठ करते हैं, लेकिन उनके जीवन में गीता या रामायण की सुगंध नहीं। तो क्या पाठ और पाठ में फर्क है? और सम्यक पाठ कैसे हो?

निश्चय ही पाठ और पाठ में फर्क है। यंत्रवत दोहरा लेना पाठ नहीं। कंठस्थ कर लेना पाठ नहीं। हृदयस्थ हो जाये तो ही पाठ। और हृदय तक पहुंचाना हो तो अत्यंत जागरूकता से ही यह घटना घट सकती है। कंठस्थ कर लेना तो जागने से बचने का उपाय है। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-38)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-37)

जगत उल्‍लास है परमात्‍मा का—प्रवचन—सातवां

दिनांक 17 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।

सूत्र सार :

जनक उवाच।

प्रकृत्या शून्यचित्तो य: प्रमादादभावभावन:।

निद्रितो बोधित इव क्षीणसंसरणे हि सः।। 122।।

क्‍व धनानि क्‍व मित्राणि क्‍व मे विषयदस्यव:।

क्‍व शास्त्र क्‍व च विज्ञानं यदा मे गलिता स्पृहा।। 123।।

विज्ञाते साक्षिपुरुषे परमात्मनि चेश्वरे।

नैराश्ये बंधमोक्षे च न चिंता मुक्तये मम।। 124।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-37)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-36)

संन्‍यास: अभिनव का स्‍वागत—प्रवचन—छटवां

दिनांक 16 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

क्या प्रेम के द्वारा सत्य को उपलब्ध हुआ जा सकता है?

प्रेम और सत्‍य दो घटनाएं नहीं हैं, एक ही घटना के दो पहलू है। सत्‍य को पा लो तो प्रेम प्रगट हो जाता है। प्रेम को पा लो तो सत्य का साक्षात हो जाता है। या तो सत्य की खोज पर निकलो; मंजिल पर पहुंच कर पाओगे, प्रेम के मंदिर में भी प्रवेश हो गया। खोजने निकले थे सत्य, मिल गया प्रेम भी साथ—साथ। या प्रेम की यात्रा करो। प्रेम के मंदिर पर पहुंचते ही सत्य भी मिल जाएगा। वे साथ—साथ हैं। प्रेम और सत्य परमात्मा के दो नाम हैं। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-36)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-35)

अचुनाव में अतिक्रमण—प्रवचन पांचवां

 दिनांक 15 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र:

जनक उवाच

अकिंचनभवं स्वास्थ्य कौयीनत्वेऽपि दुर्लभम्।

त्यागदाने विहायास्मादहमासे यथासुखम्।। 115।।

कुत्रायि खेद: कायस्थ जिह्वा कुत्रायि खिद्यते)

मन: कुत्रापि तत्त्वक्ला पुरुषार्थे स्थित: सुखम्।। 116।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-35)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-34)

धार्मिक जीवन—सहज, सरल, सत्‍य–प्रवचन—चौथा

दिनांक 14 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

एक ओर आप साधकों को ध्यान —साधना के लिए प्रेरित करते हैं और दूसरी ओर कहते हैं कि सब ध्यान—साधनाएं गोरखधंधा हैं। इससे साधक दुविधा में फंस जाता है। वह कैसे निर्णय करे कि उसके लिए क्या उचित है?

ब तक दुविधा हो तब तक गोरख धंधे में रहना पड़े। जब तक दुविधा हो तब तक ध्यान करना पड़े। दुविधा को मिटाने का ही उपाय है ध्यान। दुविधा का अर्थ है:  मन दो हिस्सों में बंटा है। मन के दो हिस्सों को करीब लाने की विधि है ध्यान। जहां मन एक हुआ, वहीं मन समाप्त हुआ। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-34)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-33)

हर जगह जीवन विकल है—प्रवचन—तीसरा

 दिनांक 13 नवंबर 1976, श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

कायकृत्यासह: पूर्व ततो वाग्विस्तरासह।

अद्य चितासह स्तस्मादेवमेवाहमास्थित:।। 107।।

प्रीत्यभावेन शब्दादेरद्वश्यत्वेन चात्यनः।

विक्षेयैकाग्रहदय श्वमेवाहमास्थित।। 108।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-33)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-32)

प्राण की यह बीन बजना चाहती है—प्रवचन—दूसरा

दिनांक 12 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

आपने हमें संन्यास दिया, लेकिन कोई मंत्र नहीं बताया। पुराने ढब के संन्यासी मिल जाते हैं तो वे पूछते हैं, तुम्हारा गुरुमंत्र क्या है?

मंत्र तो मन का ही खेल है। मंत्र शब्द का भी यहीं अर्थ है, मन का जाल, मन का फैलाव। मंत्र से मुक्त होना है, क्योंकि मन से मुक्त होना है। मन न रहेगा तो मंत्र को सम्हालोगे कहां? और अगर मंत्र को सम्हालना है तो मन को बचाये रखना होगा। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-32)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-31)

अष्‍टावक्र महागीता—(भाग—3)  ओशो

(ओशो द्वारा अष्‍टावक्र—संहिता के 99—151 सूत्रों पर प्रश्‍नोत्‍तर सहित दिनांक 11 से 25 नवंबर 1976 तक ओशो कम्‍यून इंटरनेशनल, पूना में दिए गए पंद्रह अमृत प्रवचनों का संकलन।)

मनुष्‍य है एक अजनबी—प्रवचन—एक

दिनांक 11 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र:

भावाभावविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी।

निर्विकारो गतक्लेश सुखेनैवोयशाम्मति।। 99।।

ईश्वर: सर्वनिर्माता नेहान्य हील निश्चयी।

अंतर्गलित सर्वाश: शांत: क्यायि न सज्जते।। 100।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-31)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-30)

संन्‍यास बांसुरी है साक्षी—भाव की–(प्रवचन-पंद्रहवां)

 दिनांक: 10 अक्‍टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्नसार:

पहला प्रश्न : आपने बताया कि जब अष्टावक्र मां के गर्भ में थे, उनके पिता ने उन्हें शाप दिया, जिसकी वजह से उनका शरीर आठ जगहों से आड़ा—तिरछा हो गया। भगवान, इस आठ का क्या रहस्य है? वे अठारह जगह से भी टेढ़े—मेढ़े हो सकते थे और अष्टावक्र कहलाते। यह आठ का ही आंकड़ा क्यों?

यह आठ आंकड़ा अर्थपूर्ण है। ये छोटी—छोटी कहानियां गहरे सांकेतिक अर्थ लिए हैं। इन्हें तुम इतिहास मत समझना। इनका तथ्य से बहुत कम संबंध है। इनका तो भीतर के रहस्यों से संबंध है। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-30)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-29)

ध्‍यान अर्थात उपराम—प्रवचन—चौदहवां

दिनांक: 9 अक्‍टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

अष्टावक्र उवाच।

विहाय वैरिणं काममर्थं चानर्थसंकुलम्।

धर्ममष्येतयोर्हेतुं सर्वत्रानादरं कुरु ।। 91।।

स्वप्तेन्द्रजालवत् पश्य दिनानि त्रीणि पैल वा।

मित्रक्षेत्रधना गारदारदायादिसम्पद ।।92 ।।

यत्र यत्र भवेतृष्णा संसार विद्धि तत्र वै।

प्रौढ़वैराग्यमाश्रित्य वीततृष्ण: सुखी भव ।। 93।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-29)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-28)

बोध से जीयो—सिद्धांत से नहीं—प्रवचन—तैहरवां

 दिनांक: 8 अक्‍टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

अष्टावक्र ने कहा कि महर्षियों, साधुओं और योगियों के अनेक मत हैं—ऐसा देख कर निर्वेद को प्राप्त हुआ कौन मनुष्य शांति को नहीं प्राप्त होता है? कहीं इसलिए ही तो नहीं आप एक साथ सबके रोल— महर्षि, साधु और योगो के; अष्टावक्र, बुद्ध, पतंजलि और चैतन्य तक के रोल—पूरा कर रहे हैं, ताकि हम निवेंद को प्राप्त हों?

निश्चय ही ऐसा ही है। जिससे मुक्त होना हो, उसे जानना जरूरी है। जाने बिना कोई मुक्त नहीं होता। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-28)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-27)

वासना संसार है, बोध मुक्‍ति है—प्रवचन—बारहवां

दिनांक: 7 अक्‍टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

अष्टावक्र उवाच:

कृताकृते न द्वंद्वानि कदा शांतानि कस्य वा।

एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाभ्रव त्यागपरोऽव्रती ।। 83।।

कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात्।

जीवितेच्छा बुभुक्षा व बुभुत्सोयशमं गताः ।। 84।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-27)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-26)

स्‍वतंत्रता की झील मर्यादा के कमल—प्रवचन—ग्‍यारहवां

दिनांक: 6 अक्‍टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

भारतीय मनीषा ने आत्मज्ञानी को सर्वतंत्र स्वतंत्र कहा है। और आप उस कोटिहीन कोटि में हैं। लेकिन मुझे आश्चर्य होता है कि उस परम स्वतंत्रता से इतना सुंदर अनुशासन और गहन दायित्व कैसे फलित होता है!

सा प्रश्न स्वाभाविक है। क्योंकि साधारणत: तो मनुष्य अथक चेष्टा करके भी जीवन में अनुशासन नहीं ला पाता। सतत अभ्यास के बावजूद भी दायित्व आंनदपूर्ण नहीं हो पाता। दायित्व में भीतर कहीं पीड़ा बनी रहती है। जो भी हमें कर्तव्य जैसा मालूम पड़ता है, उसमें ही बंधन दिखाई पड़ता है। और जहां बंधन है, वहां प्रतिरोध है। और जहां बंधन है, वहां से मुक्त होने की आकांक्षा है। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-26)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-25)

दृश्य स्वप्न है, द्रष्टा सत्य है-प्रवचन–दसवां

 दिनांक: 5 अक्‍टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

तदा अधो यदा चित्तं किंचिद्वाच्छति शोचति।

किंचिन्मुज्‍चति गृहणाति किंचिड़ष्यति कुप्‍यति।। 71।।

तदा मक्तिर्यदा चित्तं न वांछति न शोचति।

मज्‍चति न गृहणाति न हष्यति न कथ्यति।। 72।।

तदा अधो यदा चित्तं सक्तं कास्वपि दृष्टिषु।

तदा मोक्षो यदा चितंसक्तं सर्व द्वष्टिषु।। 73।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-25)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-24)

कितनी लधु अंजुलि हमारी—प्रवचन—नौवां

दिनांक: 4 अक्‍टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

आपने कहा कि सब आदर्श गलत हैं। लेकिन क्या अपने गंतव्य को, अपनी नियति को पाने का आदर्श भी उतना ही गलत है?

दर्श गलत है; किस बात को पाने का आदर्श है, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। आदर्श का अर्थ है : भविष्य में होगा। आदर्श का अर्थ है : कल होगा। आदर्श का अर्थ है. आज उपलब्ध नहीं है। आदर्श स्थगन है—भविष्य के लिए। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-24)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-23)

दृष्‍टि ही सृष्‍टि है—प्रवचन—आठवां

 दिनांक: 3 अक्‍टूबर, 1976;  श्री रजनीश आश्रम पूना।

   सारसूत्र:

जनक उवाच।

मथ्यनन्तमहाम्मोधौ विश्वयोत ड़तस्तत:!

भ्रमति स्वान्तवातेन न ममास्लसहिध्याता।। 74।।

मय्यनन्तमहाम्मोधौ जगद्वीचि स्वभावत:।

उदेतु वास्तमायातु न मे वृद्धिर्न न क्षति:।। 75।।

मय्यनन्तमहाम्मोधौ विश्व नाम विकल्पना।

अतिशान्तो निराकार एतदेवाहमास्थित:।। 76।। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-23)”

अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-22)

एकटि नमस्‍कारे प्रभु एकटि नमस्‍कारे!—प्रवचन—सातवां

दिनांक: 2 अक्‍टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

कपिल ऋषि के सांख्य—दर्शन, अष्टावक्र की महागीता और कृष्णमूर्ति की देशना में क्या देश—काल अनुसार अभिव्यक्ति का ही भेद है? कृपा करके समझाइये!

त्य तो कालातीत है, देशातीत है। सत्‍य को तो देश और काल से कोई संबंध नहीं। सत्य तो शाश्वत है; समय की सीमा के बाहर है। लेकिन अभिव्यक्ति कालातीत नहीं है, देशातीत नहीं है। अभिव्यक्ति समय के भीतर है; सत्य समय के बाहर है। जो जाना जाता है, वह तो समय में नहीं जाना जाता; लेकिन जो कहा जाता है, वह समय में कहा जाता है। जो जाना जाता है, वह तो नितांत एकांत में; वहां तो कोई दूसरा नहीं होता। लेकिन जो कहा जाता है, वह तो दूसरे से ही कहा जाता है। Continue reading “अष्‍टावक्र महागीता-(प्रवचन-22)”

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