कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-10)

चांदनी को छू लिया है—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 30 सितम्‍बर, 1976;  श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

1— भगवान, जब मैं यहां आई तब बहुत अस्वस्थ थी। अब मैं जा रही हूं पूरी स्वस्थता पाकर। आपका प्रेम मुझ पर हमेशा ही बरसता रहता है, इसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं।

2—चूंकि हम अपनी व्‍यक्‍तिगत समस्‍याएं स्‍वयं हल नहीं कर पाते,क्‍या इस कारण लिया संन्‍यास उचित है?

3—मनुष्‍य के हित आपकी अथक चेष्‍टा देखकर में चकित रह जाता हूं। लेकिन लोग सो रहे है और सत्‍य जीना तो दूर सत्‍य सुनने को भी तैयार नहीं है।

4—क्‍या भक्‍त अकेले विश्‍वास के सहारे जी सकता है?

पहला प्रश्न:

भगवान, जब मैं यहां आई तब बहुत अस्वस्थ थी। अब मैं जा रही हूं पूरी स्वस्थता पाकर। आपका प्रेम मुझ पर हमेशा ही बरसता रहता है, इसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं।

दुलारी! अस्वस्थ मनुष्य मात्र है। जिन्हें हम साधारणतः स्वस्थ मानते हैं, वे भी स्वस्थ नहीं हैं। शरीर का स्वस्थ होना तो आसान, मनुष्य का स्वस्थ होना निश्चित ही कठिन है। और शरीर स्वस्थ हो भी जाए तो कुछ बनता नहीं, बिगड़ी बात नहीं बनती। बिगड़ी बात तो तभी बनती है जब मनुष्य स्वस्थ हो।

मनुष्य की अस्वस्थता से मेरा अर्थ क्या है? जब तक मनुष्य परमात्मा से टूटा—टूटा है, तब तक अस्वस्थ है। जैसे वृक्ष उखड़ा—उखड़ा हो जमीन से, तो बीमार होगा। जड़ें चाहिए भूमि में, तो ही रसधार वृक्ष में बहेगी जीवन की। मनुष्य भी एक वृक्ष है। और जब तक परमात्मा में उसकी जड़ें न हों…। परमात्मा यानी यह विराट अस्तित्व। इससे अलग—थलग होना बीमार होना है। इससे अलग—अलग जीना अस्वस्थ जीना है। इसके साथ समग्र रूप से लीन होकर जीना, तल्लीन होकर जीना स्वस्थ जीना है।

स्वस्थ शब्द को भी ख्याल करो, उसका अर्थ होता है—स्वयं में जो स्थित हो गया है। और स्वयं में वही स्थित है, जो परमात्मा में स्थित है। क्योंकि स्व और परमात्मा, आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं हैं। मनुष्य अलग है, यही हमारी भ्रांति है और यही हमारे विषाद का मूल है। इसी भ्रांति को अहंकार कहते हैं। मैं अलग हूं, बस इस भ्रांति पर सारी भ्रांतियां निर्मित होती हैं। मैं अलग हूं, तो मुझे अपने को बचाना है। मैं अलग हूं, तो मुझे लड़ना है, जीतना है, सिद्ध करना है स्वयं को। प्रमाण देना है जगत को कि मैं कुछ हूं, विशिष्ट हूं, अद्वितीय हूं। धन कमाना है, कि बड़े पद पर पहुंचना है; यश कमाना है, कि प्रसिद्धि। मगर मुझे कुछ साबित करना है कि मैं साधारण नहीं हूं, असाधारण हूं, दूसरों से ऊपर हूं; किसी भी कारण—ज्ञान के कारण, त्याग के कारण, धन के कारण, पद के कारण—लेकिन मैं दूसरों से ऊपर हूं।

महत्वाकांक्षा का जन्म होता है, इस बीमारी के कारण कि मैं अलग हूं। और जो महत्वाकांक्षा से ग्रस्त हो गया, ज्वरग्रस्त है और उसकी आत्मा में ज्वर है। उसकी आत्मा सड़ने लगेगी। उसकी आत्मा में घुन लग गया। अब कभी शांति न होगी। अब अशांति ही जीवन होगा। अब संताप और चिंता ही गहन होते जाएंगे। अब जीवन रोज—रोज नर्क की सीढ़ियां उतरेगा।

जिसने जाना कि मैं इस जगत के साथ एक हूं, भिन्नता छोड़ी। इस विराट के संगीत में एक अंग हो गया, एक स्वर हो गया। अपना छंद अलग न रखा। अपनी गति भिन्न न रखी। अपने को डुबा दिया सागर में! वही स्वस्थ हो जाता है। सागर में डूबने की यही कला मैं यहां सिखा रहा हूं दुलारी!

इसलिए मेरे पास बैठकर अगर स्वयं में स्थित होने की थोड़ी—सी प्रतीतियां तुम्हें हो जाएं, तो तुम धन्यभागी हो। फिर उन्हीं प्रतीतियों को गहरे करते जाना। फिर उन्हीं प्रतीतियों को संजोना, संवारना, फिर—फिर पुकारना। मेरे पास बैठकर जो स्वास्थ्य अनुभव हो, जो रस का स्वाद लगे, उसे यहीं मत छोड़ जाना, उसे साथ ले जाना। उसकी गूंज तुम्हारे भीतर गूंजती ही रहे। उठो तो उसमें उठना, बैठो तो उसमें बैठना। रात सोओ तो उसमें ही डूबना, सुबह जागो तो उसी में जागना। तो फिर कितनी ही दूरी हो मेरे और तुम्हारे बीच, सत्संग जारी रहेगा। भौतिक दूरी सत्संग में बाधा नहीं बन सकती।

और मैं दुलारी को जानता हूं, दूर रहकर भी सत्संग कर पाती है। हजार बाधाएं हैं। उसे यहां पहुंचना भी कठिन होता है। फिर भी किसी तरह पहुंच जाती है। परिवार है, समाज है, उनकी हजार बाधाएं हैं। लेकिन उन बाधाओं के पार भी, उसका सतत राग मेरे साथ जुड़ा है।

चांदनी को छू लिया है, हाय, मैंने क्या किया है

अब विसुध मन—प्राण मेरे, बीन—सा झंकृत हिया है

एक बार थोड़ा—सा स्वाद लगना शुरू हो जाए, तो हिया झंकृत हो उठता है! उसी झंकार को प्रार्थना कहते हैं, या पूजा, या अर्चना।

चांदनी को छू लिया है, हाय, मैंने क्या किया है

अब विसुध मन—प्राण मेरे, बीन—सा झंकृत हिया है

छू लिया मैंने शरद के

मेघ का, उजला किनारा

छू लिए नभ फूल, जैसे

छू लिया संसार सारा

मदिर मधुरस का कलश था या कि अमृत पी लिया है

चांदनी को छू लिया है, हाय, मैंने क्या किया है

स्निग्ध सम्मोहन, नयन का

मौन आमंत्रण विवश था

छू लिया अंगार मैंने

अब करूं क्या मन विवश था

मैं नहीं अपना, किरण के स्वप्न ने क्या कर दिया है

चांदनी को छू लिया है, हाय, मैंने क्या किया है

कांप कर चुप रह गई वह

शुभ्र बेले की कली सी

मुड़ गई हर बात मन की

एक अनजानी गली सी

एक क्षण में आज मैंने एक जीवन जी लिया है

चांदनी को छू लिया है, हाय, मैंने क्या किया है

मन डरेगा भी बहुत। इसीलिए तो लोग स्वस्थ होने से घबड़ाए हैं। लोगों ने अस्वस्थ होने को पकड़ रखा है। कहते जरूर हैं लोग कि हम शांत होना चाहते हैं, लेकिन अशांति को छोड़ते नहीं! कहते जरूर हैं लोग कि हम परमात्मा पाना चाहते हैं, लेकिन अहंकार को छोड़ते नहीं। कहते जरूर हैं लोग, हम प्रेम पाना चाहते हैं और देना और लेना चाहते हैं प्रेम, लेकिन वैमनस्य, ईष्या और क्रोध और हिंसा जोर से गठरी में बांधकर बैठे हैं! लोग कहते कुछ हैं, करते ठीक उल्टा हैं!

जिस दिन यह विरोधाभास तुम्हें दिखाई पड़ जाए, उस दिन जिस गठरी को तुमने अब तक संपत्ति मानकर सम्हाला है, उसे सागर में डुबा देना, तत्क्षण क्रांति होनी शुरू हो जाएगी। शांति को चाहने की जरूरत नहीं है, सिर्फ अशांति के बीज मत बोओ—पर्याप्त है। स्वास्थ्य अपने—आप घट जाता है। अस्वस्थ होने में हमारा बड़ा न्यस्त स्वार्थ है। हमने हजार कारणों से अस्वस्थ रहना चाहा है, इसलिए अस्वस्थ हैं। इस जगत में कोई भी मनुष्य किसी और के कारण अस्वस्थ नहीं है, अपने ही कारण अस्वस्थ है। बीमारी में हमारे स्वार्थ जुड़े हैं। बीमार आदमी को मिलती है सहानुभूति, संवेदना, सत्कार, सम्मान।

देखते हो, घर में बच्चा बीमार हो जाए, तो सारे घर के ध्यान का केंद्र हो जाता है। बचपन से ही हम गलत बात सिखा देते हैं। बच्चे को हमने बीमार रहने की कला सिखा दी। कौन नहीं चाहता कि सब मुझ पर ध्यान दें? कौन नहीं चाहता कि मैं सबकी आंखों का तारा हो जाऊं? और बच्चा जानता है, सबकी आंखों का तारा मैं तभी होता हूं, जब अस्वस्थ होता हूं, बीमार होता हूं, रुग्ण होता हूं। जब स्वस्थ होता हूं, किसी की आंख का तारा नहीं होता। बल्कि उलटी बात घटती है। बच्चा स्वस्थ होगा, ऊर्जा से भरा होगा, नाचेगा, कूदेगा, चीजें तोड़ देगा, झाड़ पर चढ़ेगा। जो देखो वही डांटेगा। जो देखो वही कहेगा: मत करो ऐसा, चुप रहो, शांत बैठो। सम्मान पाना दूर रहा, सहानुभूति पानी दूर रही। उत्सव में आशीष पाना दूर रहा, उत्सव में मिलती है निंदा। नाचता है तो सारा घर विपरीत हो जाता है, सारा परिवार—पड़ोस विपरीत हो जाता है। बीमार होकर पड़ रहता है, सारा घर अनुकूल हो जाता है।

हम एक गलत भाषा सिखा रहे हैं। हम बीमारी की राजनीति सिखा रहे हैं! हम यह कह रहे हैं कि जब तुम बीमार होओगे, हमारी सबकी सहानुभूति के पात्र होओगे। यह तो बड़ी रुग्ण प्रक्रिया हुई। जब बच्चा प्रसन्न हो, नाचता हो तब सहानुभूति देना, तो जीवन—भर प्रसन्न रहेगा, नाचेगा।

लेकिन नहीं, ऐसा नहीं होता। इस कारण एक बहुत बेहूदी घटना मनुष्य—जाति के इतिहास में घट गई। वह घटना क्या है, समझना! क्योंकि उसमें बहुत कुछ प्रत्येक के लिए कुंजियां छिपी हैं—बड़ी कुंजियां छिपी हैं! हर बच्चे को दुख में, पीड़ा में, बीमारी में, परेशानी में सहानुभूति मिलती है; उत्सव में, आनंद में, मंगल में, नाच में, गान में विरोध मिलता है। इससे बच्चे को धीरे—धीरे यह भाव होना शुरू हो जाता है पैदा कि सुख में कुछ भूल है और दुख में कुछ शुभ है। दुख ठीक है, सुख गलत है। दुख स्वीकृत है सभी को, सुख किसी को स्वीकार नहीं है।

इसी तर्क की गहन प्रक्रिया का अंतिम निष्कर्ष यह है कि परमात्मा को भी सुख स्वीकार नहीं हो सकता, दुख स्वीकार होगा। इसी से तुम्हारे साधु—संन्यासी स्वयं को दुख देने में लगे रहते हैं। उनकी धारणा यह है कि जब इस जगत के माता—पिता दुख में सहानुभूति करते थे, तो वह जो सबका पिता है, वह भी दुख में सहानुभूति करेगा। जब इस जगत के माता—पिता सुख में नाराज हो जाते थे—उछलता था, कूदता था, नाचता था, प्रसन्न होता था, तो विपरीत हो जाते थे—तो वह परम पिता भी सुख में विपरीत हो जाएगा। इस आधार पर सारे जगत के धर्म भ्रष्ट हो गए। इस आधार के कारण विषाद, उदासी, आत्महत्या, आत्मनिषेध—ये धर्म की सीढ़ियां बन गईं। अपने को सताओ!

तुम सोचते हो, जो आदमी काशी में कांटों की सेज बिछाकर उस पर लेटा है, वह क्या कह रहा है? यह छोटा बच्चा है। यह मूढ़ है। यह कोई ज्ञानी नहीं है, यह निपट मूढ़ है! यह उसी तर्क को फैला रहा है, कि देखो मैं कांटों पर लेटा हूं! अब तो हे परम पिता, अब तो मुझ पर ध्यान दो! अब तो आओ मेरे पास! अब और क्या चाहते हो? वह जो जैन मुनि उपवास कर रहा है, शरीर को गला रहा है, सता रहा है, वह क्या कह रहा है? वह यह कह रहा है कि अब तो अस्तित्व मेरे साथ सहानुभूति करे! अब और क्या चाहिए! अब कितना और करूं! ईसाइयों में फकीर हुए जो रोज सुबह उठकर अपने को कोड़े मारते थे। और जब तक उनका शरीर लहूलुहान न हो जाए। यही उनकी प्रार्थना थी। और जो जितना अपने शरीर को लहूलुहान कर लेता था, नीला—पीला कर लेता था, उतना ही बड़ा साधु समझा जाता था।

देखते हो इन पागलों को! विक्षिप्तों को! इनको पूजा गया है सदियों—सदियों में। तुम भी पूज रहे हो! इस देश में भी यही चल रहा है। यह तर्क बड़ा बचकाना है और बड़ा भ्रांत। परमात्मा उनसे प्रसन्न है जो प्रसन्न हैं। परमात्मा तुम्हारे माता—पिता की प्रतिकृति नहीं है। तुम्हारे माता—पिता तो उनके माता—पिता द्वारा निर्मित किए गए हैं। यही जाल जो तुमने सीख लिया है, उन्होंने भी सीखा है।

यह समाज पूरा का पूरा, सुखी आदमी को सत्कार नहीं देता। तुम्हारे घर में आग लग जाए, पूरा गांव सहानुभूति प्रगट करने आता है—आता है न? दुश्मन भी आते हैं। अपनों की तो बात ही क्या, पराए भी आते हैं। मित्रों की तो बात क्या, शत्रु भी आते हैं। सब सहानुभूति प्रगट करने आते हैं कि बहुत बुरा हुआ। चाहे दिल उनके भीतर प्रसन्न भी हो रहे हों, तो भी सहानुभूति प्रगट करने आते हैं—बहुत बुरा हुआ। तुम अचानक सारे गांव की सहानुभूति के केंद्र हो जाते हो।

तुम जरा एक बड़ा मकान बनाकर गांव में देखो! सारा गांव तुम्हारे विपरीत हो जाएगा। सारा गांव तुम्हारा दुश्मन हो जाएगा। क्योंकि सारे गांव की ईष्या को चोट पड़ जाएगी। तुम जरा सुंदर गांव में मकान बनाओ, सुंदर बगीचा लगाओ। तुम्हारे घर में बांसुरी बजे, वीणा की झंकार उठें। फिर देखें, कोई आए सहानुभूति प्रगट करने! मित्र भी पराए हो जाएंगे। शत्रु तो शत्रु रहेंगे ही, मित्र भी शत्रु हो जाएंगे। उनके भीतर भी ईष्या की आग जलेगी, जलन पैदा होगी। इसलिए हम सुखी आदमी को सम्मान नहीं दे पाते। इसलिए हम जीसस को सम्मान न दे पाए, सूली दे सके। हम महावीर को सम्मान न दे पाए, कानों में खीले ठोंक सके। हम सुकरात को सम्मान न दे पाए, जहर पिला सके।

तुम देखते हो, मेरे साथ इस देश में जो व्यवहार हो रहा है, उसका कुल कारण इतना है कि मैं उनकी सहानुभूति नहीं मांग रहा। इसका कुल कारण इतना है कि मैं उनकी सहानुभूति का पात्र नहीं हूं। मैं उनकी सहानुभूति का पात्र हो जाऊं, वे सब सम्मान से भर जाएंगे। लेकिन मैं प्रसन्न हूं, आनंदित हूं, रसमग्न हूं। मैं ईश्वर के ऐश्वर्य से मंडित हूं। कठिनाई है! मैं फूलों की सेज पर सो रहा हूं और वे केवल कांटों की सेज पर सोने वाले आदमी को ही सम्मान देने के आदी हो गए हैं। इसलिए उनका विरोध स्वाभाविक है। वे खुद रुग्ण हैं। उनका पूरा चित्त हजारों साल की बीमारियों से ग्रस्त है।

इस जगत ने आज तक आनंदित व्यक्ति को सम्मान नहीं दिया है। यह सिर्फ दुखी व्यक्तियों को सम्मान देता है। उनको त्यागी कहता है। उनको महात्मा कहता है। इस वृत्ति से सावधान होना, यह तुम्हारे भीतर समाज ने डाल दी है। तुम जब रूखे—सूखे वृक्ष हो जाओगे और तुम्हारे पत्ते झड़ जाएंगे और तुममें फूल न लगेंगे, तब यह समाज तुम्हें सम्मान देगा।

और मैं तुमसे कहता हूं: इस सम्मान को दो कौड़ी का समझकर छोड़ देना। चाहे यह सारा समाज तुम्हारा अपमान करे, लेकिन हरे—भरे होना, फूल खिलने देना। पक्षी तुम्हारा सम्मान करेंगे, चांदत्तारे तुम्हारा सम्मान करेंगे, सूरज तुम्हारा सम्मान करेगा, आकाश तुम्हारे सामने नतमस्तक होगा। छोड़ो फिक्र आदमियों की, आदमी तो बीमार है। आदमियों का यह समूह तो बहुत रुग्ण हो गया है। और यह एक दिन की बीमारी नहीं है—लंबी बीमारी है, हजारों—हजारों साल की बीमारी है। इसके बाहर कोई मुश्किल से छूट पाता है।

मनुष्य ने अपने दुख में बहुत स्वार्थ जोड़ लिए हैं। तुमने देखा, इसलिए लोग अपनी व्यथा की कहानियां खूब बढ़ा—चढ़ाकर कहते हैं। अपने दुख की बात लोगों को खूब बढ़ा—चढ़ाकर कहते हैं। इसीलिए कि दुख की बात जितनी ज्यादा करेंगे, उतना ही दूसरा आदमी पीठ थपथपाएगा, सहानुभूति देगा। लोग सहानुभूति के लिए दीवाने हैं, पागल हैं। और सहानुभूति से कुछ मिलने वाला नहीं है। क्या होगा सार अगर सारे लोग भी तुम्हारी तरफ ध्यान दे दें?

तुमने कहानी तो सुनी है न, कि एक गरीब औरत ने बामुश्किल आटा पीस—पीसकर सोने की चूड़ियां बनवाईं। चाहती थी कि कोई पूछे—कितने में लीं? कहां बनवाईं? कहां खरीदीं? मगर कोई पूछे ही न; सुख को तो कोई पूछता ही नहीं! घबड़ा गई, परेशान हो गई; बहुत खनकाती फिरी गांव में, मगर किसी ने पूछा ही नहीं। जिसने भी चूड़ियां देखीं, नजर फेर ली। आखिर उसने अपने झोपड़े में आग लगा दी। सारा गांव इकट्ठा हो गया। और वह छाती पीट—पीटकर, हाथ जोर से ऊंचे उठा—उठाकर रोने लगी—लुट गई, लुट गई! उस भीड़ में से किसी ने पूछा कि अरे, तू लुट गई यह तो ठीक, मगर सोने की चूड़ियां कब तूने बना लीं? तो उसने कहा: अगर पहले ही पूछा होता तो लुटती ही क्यों! यह आज झोपड़ा बच जाता, अगर पहले ही पूछा होता।

सहानुभूति की बड़ी आकांक्षा है—कोई पूछे, कोई दो मीठी बात करे। इससे सिर्फ तुम्हारे भीतर की दीनता प्रगट होती है, और कुछ भी नहीं। इससे सिर्फ तुम्हारे भीतर के घाव प्रगट होते हैं, और कुछ भी नहीं। सिर्फ दीनऱ्हीन आदमी सहानुभूति चाहता है। सहानुभूति एक तरह की सांत्वना है, एक तरह की मलहम—पट्टी है। घाव इससे मिटता नहीं, सिर्फ छिप जाता है। मैं तुम्हें घाव मिटाना सिखा रहा हूं।

और दुलारी तक पाठ पहुंच रहे हैं। उसका प्रश्न अर्थपूर्ण है। प्रश्न कम है, उसका निवेदन है। कहा: “जब मैं यहां आई थी तब बहुत अस्वस्थ थी।’

हूं ही मैं यहां इसलिए कि जो अस्वस्थ हैं, आएं। जो अपने से टूट गए हैं, आएं। ताकि मैं उन्हें उनसे ही जोड़ दूं।

“अब मैं जा रही हूं पूरी स्वस्थता पाकर।’

लेकिन ख्याल रखना, स्वास्थ्य का सम्मान नहीं होता। इसलिए स्वास्थ्य को सम्मान न मिले, तो परेशान मत होना। स्वास्थ्य को अपमान मिलता है। स्वास्थ्य को सिंहासन नहीं मिलता, सूली मिलती है! स्वास्थ्य की यही कीमत है; जो चुकाने को राजी होते हैं, जो यह सौदा करने को राजी होते हैं, उन्हीं को स्वास्थ्य मिलता है। मैं तुम्हें गीत दे रहा हूं। मैं तुम्हें नृत्य दे रहा हूं। मैं तुम्हें उत्सव दे रहा हूं। यह उत्सव कहीं भी समादृत नहीं हो सकता। मैं तुम्हें एक नई जीवन—ज्योति दे रहा हूं। जब तुम वापिस लौटोगे बुझे दीयों के पास, तो बुझे दीए नाराज होंगे, प्रसन्न नहीं होंगे। इसे बर्दाश्त न कर सकेंगे कि जो उन्हें नहीं हुआ है वह तुम्हें कैसे हो गया! और जिसे स्वास्थ्य का थोड़ा—सा भी अनुभव हुआ है, उसके भीतर एक गहन आकांक्षा पैदा होती है, अभीप्सा पैदा होती है और—और दूर के किनारे की यात्रा करने की। जब जरा—से संस्पर्श से इतना स्वास्थ्य और सुख अनुभव होता है, तो जब हम बिलकुल ही डूब जाएंगे, राई—रत्ती पीछे हम अपने को बचाएंगे नहीं, तब कितना होगा! अवर्णनीय है, अनिर्वचनीय है, अव्याख्य है!

आज लहरों का निमंत्रण पार से।

मूक नयनों का समर्पण प्यार से।

आज पूनम की किरण चंदन लुटाती,

भीगती रजनी मिलन के गीत गाती,

रूप दूना हो गया शृंगार से।

आज लहरों का निमंत्रण पार से।

कौन यह मन में गहरता जा रहा है,

स्वप्न सा बनकर लहरता जा रहा है,

भावना डूबी हुई आभार से।

आज लहरों का निमंत्रण पार से।

रेशमी अलकें जरा—सी झुक गई हैं,

कांपती पलकें जरा—सी रुक गई हैं,

आज भावों का विसर्जन भार से।

आज लहरों का निमंत्रण पार से।

प्रीत के मधुमास गाता गीत है,

हर तरफ ही प्यार का संगीत है,

गंध बेसुध हो गई अभिसार से।

आज लहरों का निमंत्रण पार से।

जैसे—जैसे रस उमगेगा, दूर का किनारा पुकारेगा—कहै वाजिद पुकार! वह दूर के किनारे की पुकार है। मैं पुकार रहा हूं तुम्हें दूसरे किनारे से, कि दुलारी बढ़ो! कि बढ़ती आओ! छोड़ना होगा यह किनारा। इस किनारे की बड़ी सुरक्षाएं हैं, वे भी छोड़नी होंगी। इस किनारे के अपने स्वार्थ हैं, सुविधाएं हैं, वे छोड़नी होंगी। और इस जगत में मेरे देखे, सबसे कठिन बात है—दुखों को छोड़ना, बीमारियों को छोड़ना, उदासियों को छोड़ना। सबसे कठिन बात है! आनंद को स्वीकार करना—सबसे कठिन बात है। क्योंकि दुख से तो हम बचपन से राजी हैं, दुख से तो हम बचपन से सहमत हैं। दुख को तो हमने स्वीकार कर लिया है कि यही जीवन का ढंग है।

और मैं तुमसे कहता हूं, दुख जीवन का ढंग नहीं, जीवन की विकृति है। दुख जीवन की स्वाभाविकता नहीं है। जीवन को न जीने के कारण दुख है। दुख है जीवन के लंगड़ेपन के कारण, जीवन के कारण नहीं। और लंगड़ेपन को तुमने सीख लिया है। हमें सब तरफ से बांध दिया गया है। छोटी—छोटी धारणाओं से बांध दिया गया है, व्यर्थ की धारणाओं से बांध दिया गया है।

एक व्यर्थ की धारणा हमें सिखा दी गई है कि तुम्हें दुखी होना ही पड़ेगा, क्योंकि पिछले जन्मों का कर्म तुम्हें भोगना है। यह धारणा अगर मन में बैठ गई कि मैं पिछले जन्मों के कर्मों को भोग रहा हूं, तो सुख का उपाय कहां है? इतने—इतने जन्म! कितने—कितने जन्म! चौरासी कोटि योनियां! इनमें कितने पाप किए होंगे, थोड़ा हिसाब तो लगाओ! इन सारे पापों का फल भोगना है। सुख हो कैसे सकता है! दुख स्वाभाविक मालूम होने लगेगा। ये आदमी को दुखी रखने की ईजादें हैं।

मैं तुमसे कहता हूं: कोई पाप नहीं किए हैं, कोई कर्म का फल नहीं भोगना है। तुम अभी जागे ही नहीं, तुम अभी हो ही नहीं, पाप क्या खाक करोगे! पाप बुद्ध कर सकते हैं। लेकिन बुद्ध पाप करते नहीं।

अकबर की सवारी निकलती थी और एक आदमी अपने मकान की मुंडेर पर चढ़ गया और गालियां बकने लगा। सम्राट को गालियां! तत्क्षण पकड़ लिया गया। दूसरे दिन दरबार में मौजूद किया गया। अकबर ने पूछा: तू पागल है! क्या कह रहा था? क्यों कह रहा था? उसने कहा मुझे क्षमा करें, मैंने कुछ कहा ही नहीं। मैंने शराब पी ली थी। मैं बेहोश था। मैं था ही नहीं! अगर आप मुझे दंड देंगे, तो ठीक नहीं होगा, अन्याय हो जाएगा। मैं शराब पीए था।

अकबर ने सोचा और उसने कहा: यह बात ठीक है; दोष शराब का था, दोष तेरा नहीं था। तू जा सकता है। मगर अब शराब मत पीना। शराब पीने का दोष तेरा था। शराब पीने के बाद जो कुछ तेरे मुंह से निकला, उसमें तेरा हाथ नहीं, यह बात सच है।

आज भी अदालत पागल आदमी को छोड़ देती है, अगर पागल सिद्ध हो जाए। क्यों? क्योंकि पागल आदमी का क्या दायित्व? किसी पागल ने किसी को गोली मार दी। अदालत क्षमा कर देती है, अगर सिद्ध हो जाए कि पागल है। क्योंकि पागल आदमी को क्या दोष देना, उसे होश ही नहीं है!

तुम होश में रहे हो? ये जो चौरासी कोटि योनियां जिनके संबंध में तुम शास्त्रों में पढ़ते हो, तुम होश में थे? तुम्हें एकाध की भी याद है? अगर तुम होश में थे, तो याद कहां है? तुम्हें एक बार भी तो याद नहीं आती कि तुम कभी वृक्ष थे, कि तुम कभी एक पक्षी थे, कि तुम कभी जंगल के सिंह थे। तुम्हें याद आती है कुछ? शास्त्र कहते हैं; तुम्हें याद नहीं। और तुम गुजरे हो चौरासी कोटि योनियों से।

तुम बेहोश थे, तुम मूर्च्छित थे। मूर्च्छा में जो भी किया गया, उसका क्या मूल्य है? परमात्मा अन्याय नहीं कर सकता। इस दुनिया की अदालतें भी इतना अन्याय नहीं करतीं, तो परमात्मा तो परम कृपालु है, वह तो महाकरुणावान है। सूफी कहते हैं—रहीम है, रहमान है, करुणा का स्रोत है। इस जगत की अदालतें, जिनको हम करुणा का स्रोत कह नहीं सकते, वे भी क्षमा कर देती हैं मूर्च्छित आदमी को।

मैं तुमसे कहता हूं बार—बार: तुम जागो, उसके बाद ही तुम्हारे कृत्यों का लेखा—जोखा हो सकता है। यह मैं एक अनूठी बात कह रहा हूं, जो तुमसे कभी नहीं कही गई है। मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं। मुझे चौरासी कोटि योनियों के पाप नहीं काटने पड़े और मैं उनके बाहर हो गया हूं। तुम भी हो सकते हो। तुम्हें भी काटने की झंझट में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। और काट तुम पाओगे नहीं, वह तो सिर्फ दुखी रहने का ढंग है। वह तो दुख को एक व्याख्या देने का ढंग है। वह तो दुख में भी अपने को राजी कर लेने की व्यवस्था, आयोजन है। क्या करें, अगर दुख है तो जन्मों—जन्मों के पापों के कारण है। जब कटेंगे पाप, जब फल मिलेगा, तब कभी सुख होगा—होगा आगे कभी।

ऐसा ही तुम पहले भी सोचते रहे, ऐसा ही तुम आज भी सोच रहे हो, ऐसा ही तुम कल भी सोचोगे, अगले जन्म में भी सोचोगे। जरा सोचो, फर्क क्या पड़ेगा? अगले जन्म में तुम कहोगे कि पिछले जन्मों के पापों का फल भोग रहा हूं। और अगले जन्म में भी तुम यही कहोगे। तुम सदा यही कहते रहोगे, तुम सदा यही कहते रहे हो। तुम दुख से बाहर कब होओगे? और तुम्हें किसी एक जन्म की याद नहीं है। तुम्हें—पिछले जन्मों की तो फिक्र छोड़ो—तुम्हें अभी भी याद नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो। तुम अभी भी होश में कहां हो? तुम्हारे पास होश का दीया कहां है?

सिर्फ बुद्ध—पुरुष अगर पाप करें, तो उत्तरदायी हो सकते हैं। मगर वे पाप करते नहीं, क्योंकि जाग्रत व्यक्ति कैसे पाप करे? अब तुम मेरी बात समझो। जाग्रत व्यक्ति कैसे पाप करे? और सोया व्यक्ति, मैं कहता हूं, कैसे पुण्य करे? जैसे अंधा आदमी तो टटोलेगा ही, ऐसा मूर्च्छित आदमी तो गलत करेगा ही। जैसे अंधा आदमी टेबल—कुर्सी से टकराएगा ही। दरवाजे से निकलने के पहले हजार बार उसका सिर दीवारों से टकराएगा; स्वाभाविक है। आंख वाला आदमी क्यों टकराए? आंख वाला आदमी दरवाजे से निकल जाता है। आंख वाले आदमी को दीवारें बीच में आती ही नहीं, न कुर्सियां, न टेबलें, कुछ भी बीच में नहीं आता। न वह टटोलता है, न वह पूछता है कि दरवाजा कहां है? सिर्फ दरवाजे से निकल जाता है। हां, आंख वाला आदमी अगर दीवार से टकराए, तो हम दोष दे सकते हैं, कि यह तुम क्या कर रहे हो? मगर आंख वाला टकराता नहीं। और जिसको हम दोष देते हैं, वह अंधा है।

एक अंधा आदमी एक रात अपने मित्र के घर से विदा हुआ। जब चलने लगा, तो अमावस की अंधेरी रात थी, मित्र ने कहा कि ऐसा करो, लालटेन लेते जाओ, रात बहुत अंधेरी है।

अंधा हंसने लगा, उसने कहा: यह भी खूब मजाक रही। मुझे तो दिन और रात सब बराबर है, लालटेन लेकर मैं क्या करूंगा? लालटेन होने से भी मुझे दिखाई पड़ने वाला नहीं। मुझे दिखाई ही पड़ता होता तो क्या कहना था। यह भी तुमने खूब मजाक किया! क्या मेरा व्यंग्य कर रहे हो—मुझ अंधे का? दया खाओ, व्यंग्य तो न करो।

लेकिन मित्र व्यंग्य नहीं कर रहा था। मित्र ने कहा, कि नहीं, व्यंग्य और मैं करूं? मैं तो इसलिए कह रहा हूं कि लालटेन हाथ में ले जाओ, यह तो मैं भी जानता हूं तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन तुम्हारे हाथ में लालटेन होगी तो कोई दूसरा तुमसे न टकराए, कम से कम इतना तो हो जाएगा। नहीं तो अंधेरे में कोई दूसरा टकरा जाए। तुम दूसरों को दिखाई पड़ते रहोगे, यह भी क्या कम है? लालटेन तो ले जाओ। यह तर्क जंचा, अंधे को भी जंचा, कि बात तो सच है, लालटेन हाथ में होगी कोई दूसरा मुझसे नहीं टकराएगा। यह भी कुछ कम नहीं है। पचास प्रतिशत तो सुरक्षा हो गई! चला लेकर।

मगर वहीं भूल हो गई, उसी तर्क में भूल हो गई। तर्क अक्सर ऐसी ही भ्रांतियों में ले जाते हैं। तर्क से लिए गए निष्कर्ष अक्सर भ्रांत होते हैं। दस कदम भी नहीं चल पाया था कि कोई आदमी आकर टकरा गया। अंधा तो बड़ा नाराज हुआ। चिल्लाया: क्या तुम भी अंधे हो! लालटेन नहीं दिखाई पड़ती? लालटेन ऊंची करके दिखाई। उस आदमी ने कहा कि सूरदास जी, क्षमा करें, आपकी लालटेन बुझ गई है।

अब अंधे की लालटेन बुझ जाए, तो उसे कैसे पता चले? और मैं कहता हूं, तर्क की बड़ी भ्रांति हो गई। अंधा अगर बिना लालटेन के चलता, तो अपनी लकड़ी ठोंककर चलता, आवाज करता चलता, पुकारता चलता—कि भाई मैं आ रहा हूं, ख्याल रखना! आज लालटेन के नशे में चल रहा था। उसने फिर लकड़ी भी नहीं पटकी, आवाज भी नहीं दी, और उपाय ही छोड़ दिए। जब लालटेन हाथ में है, तो अब क्या लकड़ी पटकनी और क्या आवाज देनी? आज अकड़ से चला। इसके पहले तो लकड़ी ठोंककर चलता था, ताकि लोगों को पता रहे कि अंधा आ रहा है। आज लकड़ी ठोंककर नहीं चला। तर्क ने बड़ी भ्रांति पैदा कर दी।

मूर्च्छित आदमी, तुम्हें जरा भी तो याद नहीं पिछले जन्मों की। पिछले जन्मों को तो छोड़ दो, पता नहीं हुए भी हों न हुए हों, कौन जाने? तुम्हें मां के गर्भ की याद है? नौ महीने की तुम्हें याद है जो तुमने मां के गर्भ में गुजारे? यह तो पक्का है कि नौ महीने मां के गर्भ में गुजारे। इसमें तो शक नहीं करेगा कोई, नास्तिक भी शक नहीं करेगा। लेकिन तुम्हें याद है? तुम्हें कुछ एकाध भी याद है? कुछ सुरत आती है? छोड़ो मां के गर्भ की भी, क्योंकि मां के गर्भ में बंद पड़े थे एक कोठरी में। लेकिन गर्भ से पैदा हुए, कोठरी के बाहर आए थे, तुम्हें जन्म के क्षण की याद है? तब तो आंखें खुली थीं न! कान भी खुल गए थे। देखा भी था, सुना भी होगा। तुम्हें याद है? कुछ याद नहीं। अगर तुम पीछे याददाश्त में लौटोगे, तो ज्यादा से ज्यादा चार साल की उम्र तक जा पाओगे। फिर चार साल बिलकुल खाली पड़े हैं। जन्म के दिन से लेकर चार वर्ष की उम्र तक कुछ भी याद नहीं आता—कोरे पड़े हैं। जब इस जीवन की यह हालत है, तो तुम्हें पिछले जन्मों की क्या याद!

और तुमने कितनी बार तय किया है कि अब क्रोध नहीं करेंगे, अब चाहे कुछ भी हो जाए, क्रोध नहीं करेंगे। और किसी ने गाली दे दी और क्रोध आ गया। तब तुम बिलकुल भूल गए हो—कितनी बार कसम खाई थी कि क्रोध न करेंगे। तुम्हारी याददाश्त का भरोसा क्या? क्रोध करके फिर पछताए हो।

मैं ऐसे लोगों को जानता हूं, जो रोज कसम खाकर सोते हैं रात कि कल सुबह तो ब्रह्ममुहूर्त में उठना है। अलार्म भी भर देते हैं। और खुद ही अलार्म को जोर से पटक देते हैं हाथ, बंद कर देते हैं। और फिर सुबह पछताते हैं। जब आठ बजे उठते हैं, फिर पछताते हैं, कि आज फिर भूल हो गई! कल फिर कोशिश करेंगे। यह वे जिंदगी भर से कर रहे हैं। यह भी उनकी आदत का हिस्सा हो गया है—अलार्म बजाना, बंद करना, फिर सुबह पछताना—यह सब उनकी शैली हो गई है। रोज रात तय करके सोना कि सुबह उठना है…।

क्या तुम्हारी याददाश्त है? जो आदमी सांझ तय करके सोता है कि सुबह उठना है, वही आदमी बिस्तर पर सुबह कहता है—छोड़ो भी, इतनी जल्दी क्या है? आज क्या, कल उठेंगे। वही आदमी दो घंटे बाद पछताता है, कि कैसा…फिर मैंने वही भूल कर दी!

तुम्हारा होश कितना है? तुम बिलकुल बेहोश हो। तुम जरा चेष्टा करो, रास्ते पर चलो और ख्याल रखो कि चलने का होश रहे कि मैं चल रहा हूं। मिनिट भी न बीत पाएगा कि होश खो जाएगा, तुम हजार दूसरी बातों में खो जाओगे। तब अचानक याद आएगी एक बार—अरे, मैं कहां चला गया! मैं क्या सोचने लगा!

जरा घड़ी—भर बैठ जाओ आंख बंद करके और कहो कि शांत बैठेंगे; विचार न करेंगे। क्षण—भर भी तो निर्विचार नहीं हो पाते हो। इतनी तो तुम्हारी अपने पर स्वामित्व की दशा है! अपने विचार को भी रोक नहीं पाते, कर्म को तुम क्या बदल पाओगे? विचार जैसी निर्जीव चीज, थोथी, कूड़ा—करकट जैसी, उसको भी नहीं रोक पाते! अगर कोई विचार तुम्हारे सिर में घूमने ही लगे, तुम उसको लाख हटाने की कोशिश करो, नहीं हटता। तुम्हारा वश कितना है!

ऐसी अवश दशा में तुम्हारे पिछले जन्मों के पाप तुम्हें दुख दे रहे हैं, तो फिर दुख से कोई छुटकारे का उपाय होने वाला नहीं है।

मैं तुमसे कहता हूं, पिछले जन्मों से दुखों का कोई लेना—देना नहीं है। दुख अगर किसी कारण हो रहा है, तो तुम मूर्च्छित हो अभी इस कारण दुख हो रहा है। मूर्च्छा दुख है। जागो! और जागने में कोई बाधा नहीं डाल रहा है सिवाय तुम्हारी अपनी मूर्च्छा की आदत के और मूर्च्छा के साथ तुम्हारे पुराने संबंधों के, कोई बाधा नहीं है।

लकीरें पड़ गई हैं, लीक पर चल रहे हो! दुखी होने की आदत हो गई है। भूल ही गए हो—मुस्कुराना कैसे? भूल ही गए हो—नाचना कैसे? बस उतनी ही याद दिलाना चाहता हूं।

मत लाओ बीच में ये सिद्धांत, अन्यथा तुम कभी आनंद को उपलब्ध न हो सकोगे। लेकिन खूब सिद्धांत हमने बनाए हैं! हम कहते हैं: पहले पुण्य करेंगे, फिर आनंद मिलेगा। और मैं तुमसे कहता हूं: आनंदित हो जाओ, तो तुम्हारे जीवन में पुण्य का कृत्य शुरू हो जाए। आनंद से पुण्य पैदा होता है। आनंद पुण्य का परिणाम नहीं है, पुण्य आनंद का परिणाम है।

तो दुलारी, स्वास्थ्य की थोड़ी—सी भनक तेरे कान में पड़ी है, इसको गहरा! दुख का जाल पकड़ना चाहेगा। दुख की पुरानी आदतें हमला बोलेंगी। सम्हालना अपने को। जगाए रखना अपने को। जागते रहो, तो सत्संग जारी है। सो जाओ, सत्संग खो जाता है।

दूसरा प्रश्न:

चूंकि हम अपनी व्यक्तिगत समस्याएं स्वयं हल नहीं कर पाते, क्या इस कारण लिया गया संन्यास उचित है?

मूल प्रश्न अंग्रेजी में है—इज इट फेअर टु टेक संन्यास, बिकाज यू कैननाट साल्व योर पर्सनल प्राब्लम्स?

पूछा है डाक्टर राजेंद्र आई. देसाई ने। डाक्टर देसाई, संन्यास का संबंध समस्याओं को हल करने से है ही नहीं। मैं समस्याएं हल नहीं करता। मैं व्यक्तिगत समस्याएं हल नहीं करता, मैं तो व्यक्ति को मिटाने का उपाय बताता हूं जिससे सारी समस्याएं पैदा होती हैं।

तुम कहते हो: चूंकि हम अपनी व्यक्तिगत समस्याएं स्वयं हल नहीं कर पाते…।

तुम तो पैदा करते हो, हल कैसे करोगे? तुम्हीं तो पैदा करने वाले हो, हल कैसे करोगे? तुम्हीं तो समस्या हो, हल कौन करेगा? स्व जाए, तो स्वयं से पैदा होने वाली समस्याएं जाएं। इसलिए तुम यह मत सोचना कि संन्यास कोई समस्याओं को हल करने की विधि है। हम तो जड़ काटते हैं, शाखाएं नहीं। पत्ते—पत्ते क्या काटना! और एक पत्ता काटो तो तीन निकल आते हैं। एक समस्या हल करो, तीन पैदा हो जाएंगी। यही रिवाज है। तुमने देखा न, वृक्ष को घना करना हो तो पत्ते काट देता है माली। क्यों? क्योंकि जानता है, वृक्ष क्रोध में आ जाएगा; एक पत्ता काटा, वृक्ष उत्तर में तीन पत्ते पैदा करता है। माली को हराने की चेष्टा शुरू हो जाती है—कि समझा क्या है तूने अपने को! एक शाखा काटो, तीन शाखाएं निकल आती हैं। वृक्ष घना होने लगता है। वृक्ष भी जवाब देता है, चुनौती अंगीकार कर लेता है।

अहंकार में समस्याएं लगती हैं, अहंकार के वृक्ष पर समस्याओं के पत्ते लगते हैं, शाखाएं—प्रशाखाएं ऊगती हैं। तुम एक समस्या हल करो, और तीन समस्याएं उसकी जगह खड़ी हो जाएंगी। तुम एक प्रश्न का उत्तर खोजो, और उसी उत्तर में से तीन नए प्रश्न खड़े हो जाएंगे। यही तो पूरे मनुष्य का इतिहास है। जाल छूटता नहीं, बढ़ता चला जाता है।

हम तो जड़ काटते हैं, हम तो मूल काटते हैं। हम कहते हैं, पत्ते—पत्ते क्या उलझना? और मजा यह है कि जड़ दिखाई नहीं पड़ती। वह भी वृक्ष की तरकीब है, क्योंकि दिखाई पड़े तो कोई काट दे। तो वृक्ष जड़ को छिपाकर रखता है, उसको जमीन में छिपाकर रखता है—अंधेरे में दबी रहती है जड़। पत्ते ऊपर भेज देता है, कोई डर नहीं—कट भी जाएंगे, लुट भी जाएंगे, पक्षी ले जाएंगे, जानवर चर लेंगे, आदमी छांट देंगे—कोई फिक्र नहीं। अगर जड़ें शेष हैं, तो फिर पत्ते निकल आएंगे। पत्ते मूल्यवान नहीं हैं। पत्तों का आना—जाना होता रहता है। पतझड़ में अपने—आप गिर जाएंगे, अगर किसी ने न भी छीने तो। वसंत में फिर पुनः अंकुरित हो जाएंगे। बस जड़ें बची रहनी चाहिए।

देखते हो, वृक्ष जड़ों को कैसे छिपाकर रखता है! किसी को पता ही नहीं होने देता। अगर तुम पूरा वृक्ष भी काट दो तो भी कोई फिक्र नहीं है वृक्ष को। जड़ें शेष हैं, तो नए अंकुर निकल आएंगे। ऐसी ही अवस्था तुम्हारी है। समस्याएं ऊपर हैं, समस्याओं की जड़ भीतर है। जड़ है—अहंकार।

संन्यास का अर्थ होता है—अहंकार का समर्पण। संन्यास का और क्या अर्थ है? संन्यास का इतना अर्थ है—मैं थक गया, अब मैं अपने मैं को छोड़ता हूं।

और डाक्टर देसाई को वही अड़चन हो रही है। संन्यास लेना चाहते होंगे, नहीं तो प्रश्न ही न उठता। डाक्टर हैं, पढ़े—लिखे हैं, सम्मानित हैं। सूरत के डाक्टर हैं, प्रसिद्ध हैं वहां, डरते होंगे—लोग देखेंगे गैरिक वस्त्रों में, कहेंगे कि एक अच्छा भला आदमी और पागल हुआ! मरीज भी संदिग्ध हो जाएंगे कि अब इनसे आपरेशन करवाना? क्या भरोसा संन्यासियों का! आपरेशन करते—करते कुंडलिनी ध्यान करने लगें! इनसे दवा लेनी? क्या भरोसा पागलों का! डर लगता होगा।

मैं डाक्टर देसाई की तकलीफ समझता हूं, डर लगता होगा। संन्यास का मन में भाव तो उठा है, नहीं तो प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन अब बचना भी चाहते हैं। और बचना इस ढंग से चाहते हैं, जिसमें सम्मान भी शेष रहे।

तो वे पूछ रहे हैं: चूंकि हम अपनी व्यक्तिगत समस्याएं स्वयं हल नहीं कर पाते, क्या इस कारण लिया गया संन्यास उचित है?

फिर संन्यास कब लोगे? जब सारी व्यक्तिगत समस्याएं हल कर लोगे तब! फिर संन्यास की जरूरत क्या होगी? यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई मरीज डाक्टर के पास तब जाए, जब स्वस्थ हो जाए। डाक्टर देसाई डाक्टर हैं, इसलिए यह उदाहरण ठीक होगा। कोई मरीज कहे कि क्या हम अपनी बीमारी खुद ठीक नहीं कर सकते, इसलिए डाक्टर के पास जाना उचित होगा? जाएंगे, जब बीमारी चली जाएगी। मगर तब जाने का अर्थ क्या होगा? क्या प्रयोजन होगा?

बुद्ध ने कहा है, मैं वैद्य हूं। नानक ने भी कहा है कि मैं चिकित्सक हूं। दुनिया के बड़े ज्ञानी वस्तुतः दार्शनिक नहीं हैं, चिकित्सक हैं। बुद्ध ने कहा है। मुझसे व्यर्थ के प्रश्न मत पूछो, अपनी मूल बीमारी कहो और इलाज लो। अपनी जड़ उघाड़ो और मुझे काट देने दो।

मैं भी चिकित्सक हूं। आखिर डाक्टरों को भी तो चिकित्सक की जरूरत पड़ती है न! समस्याएं हल करके आओगे, फिर तो कोई जरूरत न रह जाएगी।

भय क्या है? अहंकार बाधा डालता है। अहंकार कहता है, किसी के सामने जाकर अपनी समस्याएं प्रगट करना? छिपाए रहो भीतर, मत कहो किसी से। ऊपर एक मुखौटा लगाए रहो कि अपनी कोई समस्याएं नहीं हैं। ऊपर चाहे दूसरों को धोखा दे लो, भीतर तो समस्याएं हैं और तुम तो जलोगे उनकी आग में, तुम तो तड़पोगे उनकी आग में।

और अक्सर कुछ व्यवसाय ऐसे हैं—जैसे डाक्टर का व्यवसाय, मनोवैज्ञानिक का व्यवसाय, कि ये अपनी समस्याएं प्रगट नहीं कर सकते, क्योंकि ये दूसरों की समस्याएं हल करते हैं। इनको डर लगता है—अगर हम अपनी समस्याएं प्रगट करें, तो लोगों को पता न चल जाए कि ये तो खुद ही अभी परेशान हैं! अगर डाक्टर बीमार हो जाता है, तो खबर नहीं करना चाहता कि किसी को पता चले कि मैं बीमार हो गया हूं। क्योंकि बीमारों को अगर पता चल जाए कि डाक्टर खुद ही बीमार होता है, तो कहीं बीमार छिटक न जाएं। तो डाक्टर को छिपाना पड़ता है। अगर मनोवैज्ञानिक मानसिक रोग से ग्रस्त होता है, तो किसी को बता नहीं पाता, छिपाता है।

यह तुम्हें मालूम है, कि मनोवैज्ञानिक, किसी भी दूसरे व्यवसाय की बजाय दुगनी मात्रा में पागल होते हैं! और किसी भी व्यवसाय के मुकाबले दुगनी मात्रा में आत्महत्या करते हैं!

यह तो होना नहीं चाहिए। मनोवैज्ञानिक तो दूसरों को सुलझाने का उपाय करता है, जिनके मन गुत्थियां बन गए हैं। ये खुद ही दुगनी संख्या में आत्महत्या करें, यह बात तो शोभादायक नहीं मालूम होती! यह खुद ही दुगुनी मात्रा में पागल हों, यह बात तो ठीक नहीं मालूम होती।

लेकिन इसके पीछे कारण है। और कारण यही है कि मनोवैज्ञानिक बेचारा अपने दुख किससे कहे? और सब तो अपने दुख मनोवैज्ञानिक के पास ले आते हैं और उसके सिर में डाल आते हैं। वह सारे लोगों की चिंताएं लेकर विचार करता है। उसकी चिंताएं कौन ले? और डरता भी है कि अगर मैं अपनी चिंताएं प्रगट करूं, तो इसका परिणाम व्यवसाय पर बुरा होगा। इसलिए ऊपर से एक मुखौटा लगाए रखता है, मुस्कुराता रहता है। समस्याएं भीतर इकट्ठी होती जाती हैं, वह ऊपर मुस्कुराता रहता है। वह ऊपर से सलाहें देता रहता है उन्हीं समस्याओं के हल करने की, जो वह अपनी भी अभी हल नहीं कर पाया है।

यही भेद है एक मनोवैज्ञानिक में और एक सदगुरु में। सदगुरु वह है, जिसकी समस्याएं हल हो गईं। जिसकी अब कोई समस्या नहीं है। मनोवैज्ञानिक वह है, जिसकी अभी उतनी ही समस्याएं हैं जितनी मरीजों की। लेकिन उसने उधार ज्ञान इकट्ठा कर लिया है, उधार उत्तर इकट्ठे कर लिए हैं। उन उत्तरों के सहारे वह दूसरों को सहयोग देता है। और कभी—कभी अंधेरे में चलाए गए तीर भी लग जाते हैं, यह दूसरी बात। लग गया तो तीर, नहीं लगा तो तुक्का! कभी—कभी अंधेरे में चलाए तीर भी लग जाते हैं।

एक प्रदर्शनी भरी थी, उसमें मुल्ला नसरुद्दीन अपने शागिर्दों को लेकर प्रदर्शनी दिखाने ले गए। वहां कई स्टाल थे। एक स्टाल पर तीरंदाजी चल रही थी, लोग तीर चला रहे थे, दांव लगा रहे थे। रुपए लगाने पड़ते थे, और अगर तीर लग जाए तो उससे पांच गुने रुपए दुकानदार देता था। तीर न लगे तो तुम्हारे रुपए डूब गए। मुल्ला ने जाकर रुपए रखे, टोपी संभाली, प्रत्यंचा खींची, अपने शागिर्दों को कहा: गौर से देखो! सारे शिष्य खड़े हो गए, दुकानदार भी उत्सुक हुआ कि मामला क्या है? और मुल्ला शानदार आदमी मालूम पड़ता है—बुजुर्ग, और शिष्य भी हैं कोई दस—बीस साथ में, कोई पहुंचा हुआ पुरुष है।

उसने बड़ी शान—बान से तीर चलाया। और जो होना था वह हुआ। तीर पहुंचा ही नहीं वहां तक, लगने की तो बात दूर, बीच में ही गिर गया। भीड़ जो खड़ी थी, हंसने लगी। भीड़ इकट्ठी हो गई थी देखने। खूब लोग खिलखिलाकर हंसने लगे कि यह भी खूब रहा मामला। इतनी शान से आए—बड़ी टोपी वगैरह लगाकर और चूड़ीदार पजामा, अचकन, गांधी टोपी—इतनी शान से आए, इतने शिष्यों को लेकर आए और तीर वहां तक पहुंचा ही नहीं! लोग हंसे।

मुल्ला ने कहा: चुप नासमझो! अपने शिष्यों से कहा: सुनो, देखा, यह उस तीरंदाज का तीर है, जिसे अपने पर भरोसा नहीं।

सन्नाटा छा गया, कि मामला क्या है? यहां तो कोई शिक्षण चल रहा है! यह उस तीरंदाज का तीर है, जिसको अपने पर भरोसा नहीं है। चलाता जरूर है, लेकिन पहुंच ही नहीं पाता। दूसरा तीर उठाया, फिर टोपी सम्हाली, तीर चलाया; इस बार पूरी ताकत लगा दी। तीर पार निकल गया, निशान के ऊपर से पार निकल गया, लगा ही नहीं। फिर लोग हंसे।

उसने कहा: तुम नासमझो, चुप रहोगे कि नहीं! शिष्यों से कहा: सुनो, यह उस तीरंदाज का तीर है, जो जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास से भरा है।

अब तो लोग फिर सन्नाटे में आ गए, कि बात कुछ गहरी हो रही है! यह कोई तीर ही चलाने की बात नहीं हो रही। तीसरा तीर मुल्ला ने उठाया, संयोग की बात कि लग गया। दुकानदार के पास पहुंचा और कहा: पांच गुने पैसे! दुकानदार ने पैसे तो दे दिए पांच गुने और पूछा कि लेकिन अब इस तीसरे तीर के संबंध में कुछ कहो! उसने कहा: यह मुल्ला नसरुद्दीन का तीर है।

जो लग जाए वह तीर, जो नहीं लगे वह तुक्का! यह मुल्ला नसरुद्दीन का तीर है! अगर यह भी न लगता, तो वह कोई और बहाना खोजता। जब तक न लगता तब तक वह बहाने खोजता जाता।

यही मनोवैज्ञानिक कर रहा है। जब तक नहीं लगता, वह बहाने खोजता जाता है। इसलिए मनोविज्ञान की प्रक्रिया बड़ी लंबी चलती है। मनोविश्लेषण—तीन साल, पांच साल, सात साल…। और सच तो यह है कि मनोविश्लेषण कभी भी अंत पर नहीं आता। यह मुल्ला का तीर तो लग गया, मनोवैज्ञानिक का तीर कभी नहीं लगता। लेकिन मरीज थक जाता है, एक मनोवैज्ञानिक से दूसरे मनोवैज्ञानिक के पास चला जाता है। वहां थक जाता है, तो तीसरे के पास चला जाता है। ऐसे जिंदगी चुक जाती है। लेकिन अब तक पूरी पृथ्वी पर लाखों मनोवैज्ञानिक हैं, लेकिन एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो यह कह सके कि उसके मनोविज्ञान की सारी समस्याएं उन्होंने हल कर दी हैं। उनकी ही हल नहीं हुई हैं!

लेकिन मनोवैज्ञानिक कहां जाए? पश्चिम में तो सदगुरु जैसी घटना घटती नहीं। इसलिए मनोवैज्ञानिक को पूरब आना पड़ रहा है। तुम जानकर यह हैरान होओगे कि मेरे संन्यासियों में हजारों मनोवैज्ञानिक हैं, मनोचिकित्सक हैं। और उनके आने का कुल कारण इतना है कि वे थक गए हैं; दूसरों की समस्याएं कब तक हल करते रहें, अपनी अभी हल नहीं हुई हैं। अब उनको बात खलने लगी—हम खुद ही भ्रांत हैं, हम किसको समझा रहे हैं?

डाक्टर देसाई, तुम अपने को बचाना चाहते हो—अच्छे शब्दों के जाल में कि क्या यह संन्यास लेना उचित होगा? फिर कब उचित होगा? अभी औषधि की जरूरत है!

और तुम्हें अभी यह भी पक्का पता नहीं है कि तुम्हारी समस्या क्या है। समस्याएं समस्या नहीं हैं। समस्याएं तो पत्ते हैं, समस्या तो भीतर छिपी है, वह अहंकार है। और संन्यास उसी जड़ को काटने की प्रक्रिया है।

संन्यास का अर्थ होता है—समर्पण, किसी के चरणों में जाकर अपने को समर्पित कर देना। जिससे प्रेम हो जाए। जिसके भीतर थोड़ी—सी उसकी बांसुरी बजती सुनाई पड़ जाए। जिसके भीतर से थोड़ी—सी उसकी हवा की झलक मिलने लगे। जिसके पास उसके सौंदर्य का थोड़ा—सा आभास हो। बस, उसके चरणों में सब छोड़ देना। उस छोड़ने में क्रांति घट जाती है। क्योंकि उस छोड़ने में तुम्हारा अहंकार पहली दफा झुकता है। वही झुकना जड़ का कट जाना है।

हां, अगर न झुके, तो संन्यास से भी कुछ न होगा। संन्यास फिर ऊपर—ऊपर रह गया। वर्षा भी हो गई, मगर तुम भीगे नहीं। कुछ सार न हुआ। भीतर झुकना! तो समस्याओं की समस्या, सारी समस्याओं का मूल आधार विसर्जित हो जाता है।

डरो मत! संन्यास की आकांक्षा उठी हो, तो आने दो प्रभु को भीतर। उसने पुकारा है, इसलिए उठी होगी, डाक्टर देसाई! उसकी पुकार को समझो। उसकी पुकार में अपनी पुकार भी जोड़ दो।

सलिल—गीत उतरो हे! भू पर।

पावन रे! तुम ज्योति—किरण दो

कुहर—म्लान, मानव—उर—अम्बर।

प्रेम—अमिय से प्लावित तन—मन,

सजग तृप्ति—चेतन जग—जीवन,

करो भाव के मधुर रूप—मय,

चरण—शब्द से निज तुम सुंदर।

अखिल सृजन को विमल दृष्टि दो,

सरस! तप्त को समय—वृष्टि दो,

कण—कण के जीवन में, कल का

कंचन बन जागो हे! भास्वर!

मधु के मधु तुम आतप के बल,

पावस के स्वर हिमऱ्हासोज्ज्वल,

युगऱ्युग के अनुभव से भव का,

सुभग करो मग, मग के श्रम—हर।

समगुण, समरस, पूर्ण, कर्म—सम,

एक प्रगति अनुराग, अगम गम,

जन—जिह्वा—जगती पर विचरो—

यश के अग्र, व्यथा के अनुचर।

सलिल—गीत उतरो हे! भू पर।

पावन रे! तुम ज्योति—किरण दो

कुहर—म्लान, मानव—उर—अम्बर।

आदमी का हृदय बहुत अंधेरे से भरा है। पुकारो ज्योति को; वही पुकार है संन्यास। सीधे तुम परमात्मा को न पुकार सकोगे, क्योंकि उसका तुम्हें कोई अनुभव नहीं है। इसलिए किसी ऐसे आदमी से जुड़ जाओ, जिसे उसका अनुभव हो। उसके झरोखे से झांको।

गुरु तो एक झरोखा है। गुरु यानी गुरुद्वारा। वह तो द्वार है। उस द्वार से तुम झांको खुले आकाश को। तुम्हारा द्वार बंद है। गुरु के सान्निध्य में सरको, पास आओ, निकट आओ। इस निकट आने का प्राथमिक चरण संन्यास है।

संन्यास है दीक्षा इस बात की कि अब मैं पास आना चाहता हूं, कि मुझे और पास ले लो, कि मुझे निकट से निकट ले लो।

सलिल—गीत उतरो हे! भू पर।

पावन रे! तुम ज्योति—किरण दो

कुहर—म्लान, मानव—उर—अम्बर।

मेरा हृदय बहुत अंधेरे से भरा, बहुत कुहर—म्लान है, बहुत बदलियां भरी हैं—आओ, उतरो। मेरे भीतर शोरगुल ही शोरगुल है, भीड़—भाड़ है—उतरो गीत बनकर।

सलिल—गीत उतरो हे!

इस पुकार को सुनो, अनसुना न करो। संन्यास अगर समर्पण बन सके, तो महाक्रांति है।

समस्याएं मैं नहीं सुलझाता, जड़ काट देता हूं, समस्याएं अपने आप तिरोहित हो जाती हैं। किसी वृक्ष की जड़ काट दो; हां, कुछ दिन तक वृक्ष के पत्ते फिर भी हरे रहेंगे—बस कुछ दिन तक, फिर अपने—आप कुम्हला जाएंगे, गिर जाएंगे। नए अंकुर फिर न आएंगे। जल्दी ही ठूंठ खड़ा रह जाएगा। ऐसे ही मैं जड़ काटता हूं। समस्याओं को सुलझाने का कौन झंझट करे, एक—एक समस्याएं सुलझाओ। तो कब सुलझ पाएंगी? कैसे सुलझ पाएंगी? और तुम एक सुलझाओगे, तब तक तुम्हारा पुराना मन दस नई उलझा लेगा। यही तो तुम्हारी जिंदगी की कथा और व्यथा है—एक सुलझ नहीं पाती, दूसरी उलझ जाती है। अक्सर तो ऐसा हो जाता है कि एक को सुलझाने से बचने के लिए आदमी और बड़ी समस्या उलझा लेता है। क्योंकि जब बड़े दुख आ जाते हैं, छोटे दुख भूल जाते हैं।

एक मित्र हैं, अकेले हैं। उनको अकेले की समस्या है, एकाकीपन खलता है। दूसरे मित्र हैं, पत्नी है। उनकी यह समस्या है कि दो बर्तन खटकते हैं, झंझट होती है। तीसरे मित्र हैं, उन्होंने बच्चे पैदा कर लिए हैं। पहले अकेले थे, समस्या थी। लोगों ने कहा, दो हो जाओ, समस्या हल हो जाएगी। तो दो हो गए; समस्याएं दुगुनी हो गईं! फिर लोगों ने कहा: बाल—बच्चे होने चाहिए, तब समस्या हल होगी। अब बाल—बच्चे हो गए। समस्या तो हल नहीं हो रही, समस्याएं बढ़ रही हैं, अब बाल—बच्चों की समस्याएं हैं।

मगर इसमें एक लाभ है: जैसे—जैसे समस्या बड़ी होती जाती है, जैसे—जैसे समस्या का जाल उलझता जाता है, तुम अपने को भूलते चले जाते हो। तुम इतने व्यस्त हो जाते हो, फुरसत कहां? लोगों पर इतनी चिंताएं हो जाती हैं कि चिंतित होने की भी फुरसत नहीं बचती!

मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे एक दिन कह रहा था कि अगर आज कोई दुर्घटना घट जाए, तो मेरे पास तीन सप्ताह तो फुरसत ही नहीं है; पहले की ही समस्याएं इतनी खड़ी हैं। अगर आज कोई दुर्घटना घट जाए, तो मैं तीन सप्ताह तो ध्यान भी नहीं दे पाऊंगा उस पर। तीन सप्ताह के बाद! क्योंकि तीन सप्ताह तक के लिए तो पहले से ही क्यू लगा है, फुरसत किसे है?

छोटी समस्या को भुलाने के लिए लोग बड़ी समस्या खड़ी कर लेते हैं; जरा इस मन की चाल को देखना, पहचानना। इससे व्यस्तता बनी रहती है।

तुम जरा सोचो, अगर तुम्हारी सारी समस्याएं हल कर दी जाएं—अभी, इसी वक्त; एक जादू का डंडा फिराया जाए और तुम्हारी सारी समस्याएं हल कर दी जाएं, तुम एकदम किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े रह जाओगे। तुम कहोगे—अब क्या करें? अब कहां जाएं? तुम कहोगे कि लौटा दो मेरी समस्याएं, वापिस कर दो मेरी समस्याएं। अब मैं क्या करूंगा? मेरा सारा कृत्य छीन लिया। मेरे सारे जीवन का अर्थ छीन लिया! अब मेरे होने में सार क्या है? तुम एकदम पाओगे निस्सार हो गए! इसलिए लोग उलझाए चले जाते हैं। नई समस्याएं गढ़ते चले जाते हैं। रोते भी रहते हैं कि समस्याएं बहुत हैं और जड़ भी नहीं काटते।

डाक्टर देसाई, अगर आकांक्षा उठी है संन्यास की और जड़ काटने की, तो चूको मत। मन तो हजार तरकीबें बताएगा। यह तरकीब बड़ी सुंदर मन ने बताई, मन ने कहा कि अभी क्या संन्यास लेना, पहले समस्याएं हल कर लो! मन जानता है भलीभांति कि न होंगी समस्याएं हल, न होगा संन्यास! पहले समस्याएं हल कर लो—कितना सम्यक विचार मन ने दिया, कितना साफ—सुथरा! फिर आना गौरवपूर्वक संन्यास लेने। मगर फिर किसलिए? गौरवपूर्वक अस्पताल जाकर आपरेशन करवाओगे, जब बीमारी कोई भी नहीं! किसलिए? क्यों?

मगर ऐसा दिन कभी आएगा भी नहीं। जो मन यह सवाल उठा रहा है, यह मन नए—नए सवाल उठाए जाएगा। मन का सवाल उठाना स्वभाव है। मन नई उलझनें खड़ी कर लेता है, बड़ी उलझनें खड़ी कर लेता है। उन्हीं उलझनों में व्यस्त रहता है। व्यस्त रहने से ऐसा लगता है, हम कुछ कर रहे हैं।

अपनी समस्याएं अगर छोटी पड़ जाती हैं, तो लोग दूसरों की समस्याएं भी ले लेते हैं। पास—पड़ोसियों की सुलझाने लगते हैं। अपनी सुलझी नहीं है, सारे देश की सुलझाने लगते हैं, मनुष्य—जाति की सुलझाने लगते हैं। राजनीति ऐसा ही उपाय है। जिनकी अपनी समस्याएं नहीं सुलझीं हैं, वे दूसरों की समस्याएं सुलझा रहे हैं! इन उपद्रवियों के कारण समस्याएं और उलझ जाती हैं, सुलझना तो मुश्किल ही हो जाता है। अगर राजनीतिज्ञ एक सौ वर्ष के लिए शांत हो जाएं, तो निन्यानबे प्रतिशत समस्याएं तो एकदम सुलझ जाएं, क्योंकि उनको खड़ा करने वाला ही कोई न हो। जरा तुम सोचो, सारे दुनिया के राजनीतिज्ञ सौ साल के लिए तय कर लें कि चुप रहेंगे, नहीं चुनाव लड़ेंगे, समस्याएं अपने—आप विदा हो जाएंगी। क्योंकि ये ही खड़ी कर रहे हैं समस्याएं।

हिंदुस्तानी राजनीतिज्ञ पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ के लिए समस्या खड़ी कर रहा है। पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ हिंदुस्तानी राजनीतिज्ञ के लिए समस्या खड़ी कर रहा है। दक्षिण का राजनीतिज्ञ उत्तर के राजनीतिज्ञ के लिए समस्या खड़ी कर रहा है। उत्तर का राजनीतिज्ञ दक्षिण के लिए समस्या खड़ी कर रहा है। बस समस्याएं खड़ी कर रहे हैं, एक—दूसरे के लिए समस्याएं खड़ी कर रहे हैं! यह जाल तुम जरा गौर से देखो। अगर राजनीतिज्ञ सौ साल के लिए विदा ले लें, तो निन्यानबे प्रतिशत समस्याएं तो अपने—आप गिर जाएं। और जो एक प्रतिशत बचे वह हल की जा सकती है। इन सौ की वजह से, वह एक भी हल नहीं हो पा रही है।

मनुष्य—जाति खूब उलझ गई है। और उलझाव का बड़े से बड़ा कारण तो यही है कि बहुत—से सुलझाव करने वाले लोग मौजूद हैं, जो खुद भी सुलझे नहीं हैं। मगर उनको एक रस है, रस यही है कि वे दूसरों की बड़ी समस्याओं में उलझ जाते हैं, अपनी भूल जाते हैं। घर की छोटी—मोटी समस्याओं की कौन फिक्र करे? जब तुम प्रधानमंत्री हो जाओ, तो कौन फिक्र करे घर की छोटी—मोटी समस्याओं की? बड़ी समस्याएं सामने हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन राह से चला जा रहा था—बड़ा घिसटता, बड़ा खीझता, बड़ी गालियां बकता। मैंने पूछा: नसरुद्दीन, बात क्या है? तो उसने कहा: देखते नहीं, मेरे पैर सूजे जा रहे हैं, ये जूते छोटे हैं। मगर मैंने कहा: यह बात मैं पहले भी बहुत बार सुन चुका हूं। यह रोज का ही गोरखधंधा है। तुम दूसरे जूते क्यों नहीं खरीद लेते? ये दो नंबर छोटे जूते क्यों खरीदे? उसने कहा: यह मैं कभी नहीं करूंगा। आप समझे नहीं, यही जूते तो मेरे जीवन का सुख हैं। दिन—भर इनको गाली देता हूं, इससे चित्त लगा रहता है। एक काम बना रहता है। और फिर एक बड़ा मजा है कि जब घर लौटता हूं शाम को, थका—मांदा, इन जूतों से परेशान, और जब इनको खोलकर मैं फेंकता हूं और बिस्तर पर लेटता हूं, तो मैं कहता हूं—हे प्रभु! ऐसा आनंद आता है जूते निकालने से! अब ये जूते मैं छोड़ दूं तो वह आनंद भी गया। उतना ही आनंद है मेरे जीवन में, और मेरे जीवन में कोई आनंद भी नहीं है।

तुम्हारी जिंदगी में आनंद क्या है? तुम्हारे दुख की फांसी थोड़ी देर के लिए हल्की हो जाती है, बस वही आनंद है। तुम दुख छोड़ोगे कैसे? क्योंकि उस दुख के साथ ही तुम्हारा आनंद भी चला जाएगा। एक दिन पत्नी नहीं झगड़ती, बड़ा सुख मिलता है। मगर वह इसलिए मिल रहा है कि वह रोज झगड़ती है, ख्याल रखना। अगर झगड़ना ही छोड़ दे, तो सुख भी गया। फिर कैसा सुख? तुम्हारा सुख भी तुम्हारे दुख के बीच में से आता है, तुम्हारे दुख की ही उप—उत्पत्ति है।

आओ मेरे पास, मैं तुम्हारी जड़ काटूं। यही काम चल रहा है। और एक बार तुम्हारी जड़ कट जाए, एक बार तुम्हें होश आ जाए कि तुम नहीं हो, परमात्मा है। बस, हल आ गया। इसलिए हम उस दशा को समाधि कहते हैं, क्योंकि उस दशा में समाधान है।

तीसरा प्रश्न:

मनुष्य के हित आपकी अथक चेष्टा देखकर मैं चकित रह जाता हूं। लेकिन लोग सो रहे हैं और सत्य जीना तो दूर सत्य सुनने को भी तैयार नहीं हैं!

च्युत बोधिसत्व! मैं कोई ऐसा काम नहीं कर रहा हूं, जो मुझे थका रहा हो। अथक चेष्टा मत कहो। मैं थक ही नहीं रहा हूं। यह श्रम है ही नहीं, यह प्रेम है। मैं इसे करने में तुम्हारे ऊपर कोई कृपा नहीं कर रहा हूं। स्वांतः सुखाय रघुनाथ गाथा। मैं अपने मजे में रघुनाथ का गीत गा रहा हूं। तुम सुन लेते हो, यह गौण है। तुम न आओगे, तो वृक्षों को सुनाऊंगा, पक्षियों से बात कर लूंगा। तुम्हारा होना निमित्त मात्र है। मैं तुम पर कोई कृपा नहीं कर रहा हूं। तुम मुझे भूलकर भी धन्यवाद न देना। तुम भूलकर मेरा अनुग्रह कभी मानना मत। क्योंकि उसकी कोई जरूरत ही नहीं है। मैं अपनी मस्ती में गीत गा रहा हूं। तुमने सुन लिया, यह तुम्हारी कृपा है। तुमने स्वीकार कर लिया, तो मैं तुम्हारा अनुगृहीत हूं। चेष्टा जैसी कोई चीज ही नहीं है यहां। मैं कोई प्रयत्न नहीं कर रहा हूं। यह कोई प्रयास नहीं है। मैं किसी की सेवा नहीं कर रहा हूं।

सेवा शब्द ही मेरी दृष्टि में गंदा है। मैं तो अपने आनंद में मस्त हूं। मैं अपना गीत गा रहा हूं। तुम्हें प्रीतिकर लगता है, तुम आ जाते हो, सुन लेते हो। तुम सुन लेते हो, तुम पास बैठ जाते हो, मुझे गाने की सुविधा जुटा देते हो, मैं तुम्हारा अनुगृहीत हूं। न तो कोई अथक चेष्टा चल रही है, क्योंकि यह चेष्टा ही नहीं है, और थकने का कोई प्रश्न ही नहीं है। अथक चेष्टा तो वहां होती है, अच्युत, जहां लोग दूसरों की सेवा करते हैं कर्तव्य भाव से—करना है, सेवा करनी है। मैं क्यों तुम्हारी सेवा करूं? कोई क्यों तुम्हारी सेवा करे? सब अपने सुख में जीएं।

एक ईसाई मां अपने बच्चे को समझा रही थी कि बेटा, दूसरों की सेवा करना चाहिए। भगवान ने तुम्हें इसीलिए बनाया है कि तुम दूसरों की सेवा करो।

बेटा बुद्धिमान था, उस छोटे—से बच्चे ने—और छोटे बच्चे अक्सर ऐसी बातें पूछ लेते हैं कि बूढ़े जवाब न दे सकें—उस छोटे बच्चे ने कहा: यह तो मैं समझ गया कि मुझे इसलिए बनाया है कि दूसरों की सेवा करूं। दूसरों को किसलिए बनाया है? इसका भी उत्तर चाहिए।

मां जरा मुश्किल में पड़ी होगी, अब क्या कहे? अगर कहे, दूसरों को इसलिए बनाया है कि तुम सेवा करो, तो यह तो बड़ा अन्याय है, कि मुझको सेवा करने के लिए बनाया और उनको सेवा करवाने के लिए! यह तो मूल से अन्याय हो गया! अगर मां यह कहे कि दूसरों को इसलिए बनाया है कि वे तुम्हारी सेवा करें और तुम्हें इसलिए बनाया है कि तुम उनकी सेवा करो, तो बेटा कहेगा, अपनी—अपनी सब कर लें, क्यों फिजूल की झंझट खड़ी करनी!

मैं यही कह रहा हूं। इस दुनिया में बहुत हो चुकी दूसरों की सेवा, कुछ सार हाथ नहीं आया। दूसरों की सेवा के नाम पर बहुत थोथे धंधे चल चुके। सेवा के नाम पर सत्ताधिकारियों ने लोगों का शोषण किया है। जो भी सेवक बनकर आता है, आज नहीं कल सत्ताधिकारी हो जाता है। जो तुम्हारे पैर दबाने से शुरू करता है, एक दिन तुम्हारी गर्दन दबाएगा! जब तुम्हारे पैर दबाए तभी चेत जाना, अन्यथा पीछे बहुत देर हो जाती है। फिर चेतने से कुछ सार नहीं। क्यों करेगा कोई सेवा तुम्हारी? और सेवा करेगा, तो बदला मांगेगा; पुरस्कार चाहेगा।

मेरी दीक्षा यही है तुम्हें: अपने आनंद से जीयो। इतना ही पर्याप्त होगा कि तुम किसी दूसरे के आनंद में बाधा न बनो। इतना ही पर्याप्त होगा कि तुम अपने आनंद का नृत्य नाचो और अपना गीत गाओ। शायद तुम्हारे आनंद की तरंग दूसरों को भी लग जाए और वे भी आनंदित हो जाएं। शायद थोड़ी गुलाल तुमसे उड़े और वे भी लाल हो जाएं! थोड़ा रंग तुमसे छिटके और वे भी रंग जाएं। यह दूसरी बात है। तुमने सेवा की, ऐसा सोचना मत।

कोयल गाती है। तुम क्या सोचते हो कवियों की सेवा कर रही है, कि लिखो कविताएं, देखो मैं गा रही हूं! जागो कवियो! उठाओ अपनी कलमें, लिखो कविताएं! मैं आ गई सेवा करने को फिर। कि पपीहा पुकारता है, कि संतो जागो! कि देखो मैं पिय को पुकार रहा हूं, तुम भी पुकारो! मैं तुम्हारी सेवा करने आ गया। तुम इस जगत में देखते हो, कौन किसकी सेवा कर रहा है? कोयल गीत गा रही है—अपने आनंद से। पपीहा पुकार रहा है—अपने रस में विमुग्ध हो। फूल खिले हैं—अपने रस से। चांदत्तारे चलते—अपनी ऊर्जा से। तुम भी अपने में जीओ।

मैं तुम्हें सेवक नहीं बनाना चाहता। मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं, आप अपने संन्यासियों को क्यों नहीं कहते कि जनता की सेवा करें?

क्यों करें? क्यों किसी की कोई सेवा करे? और कितने दिन से सेवा चल रही है, हजारों साल हो गए, लाभ क्या है? मैं नहीं सिखाता सेवा करना। और इसका यह अर्थ नहीं है कि तुमसे सेवा नहीं होगी। ख्याल समझ लेना, भेद समझ लेना। सेवा तुमसे तभी होगी, जब तुम करोगे नहीं। जब तुम अपने आनंद में मग्न हो जाओगे। जब तुम जागोगे और तुम्हारा दीया जलेगा—तब तुमसे सेवा होगी। तुम्हारे बिना किए होगी। तुम्हारी चेष्टा से मुक्त होगी। तुम्हारा प्रयास नहीं होगा। तुम्हारे भीतर से परमात्मा बहेगा और कुछ घटनाएं घटेंगी, लेकिन तुम उनके कर्ता नहीं रहोगे—साक्षी मात्र।

तो मैं कोई सेवा नहीं कर रहा, कोई अथक चेष्टा नहीं कर रहा।

और तुम कहते हो, अच्युत, लोग सो रहे हैं; सत्य जीना तो दूर सत्य सुनने को भी तैयार नहीं।

उनकी मर्जी। उन पर नाराज भी मत होना। इतनी स्वतंत्रता तो होनी चाहिए कि कोई सत्य को सुनना चाहे तो सुने और सत्य को कोई जीना चाहे तो जीए। इतनी स्वतंत्रता परमात्मा ने दी है। ये स्वतंत्रता के दो पहलू हैं। अगर सत्य भी जबर्दस्ती थोपा जाता, तो सत्य न रह जाता। मनुष्य की गरिमा यही है कि स्वतंत्र है। चाहो तो मूर्च्छित रहो, सोए रहो, ओढ़ लो चादर और। तुम मालिक हो अपने। जब मेरी कोई नहीं सुनता तो तुम यह मत सोचना कि मैं खिन्न होता हूं या उदास होता हूं। मैं देखता हूं उसकी गरिमा, उसका गौरव, उसकी महिमा। परमात्मा ने उसे स्वतंत्रता दी है, सुनना चाहे सुने, न सुनना चाहे न सुने। अगर मुझे गाने की स्वतंत्रता दी है, तो कम से कम उसे सुनने या न सुनने की स्वतंत्रता तो दी ही है न! मैं कौन हूं जो मेरी बात सुने ही? ऐसी सुनने की कोई मजबूरी नहीं है। और फिर मेरी बात माने भी?

मगर तुम्हारे महात्मा यह करते रहे हैं। इसलिए तुम्हें यह ख्याल मेरे संबंध में भी आ जाते हैं। तुम्हारे महात्मा यह करते रहे हैं—हमारी सुनो, नहीं तो हम अनशन कर देंगे। बड़े मजे की बात है! महात्मा गांधी छोटी—छोटी चीजों पर आश्रम में अनशन कर देते थे।

ये अनशन हिंसात्मक हैं। इनमें कहां की अहिंसा है! कोई आदमी चाय पी ले आश्रम में, इतनी भी स्वतंत्रता नहीं। और तरकीब देखते हो, उसके सिर पर डंडा लेकर गांधी खड़े नहीं हो जाते, इसलिए हिंसा किसी को दिखाई भी नहीं पड़ेगी। मगर एक सूक्ष्म डंडा लेकर खड़े हो गए, जो कि ज्यादा घातक है, ज्यादा संघातक है, ज्यादा अमानवीय है। उन्होंने तीन दिन का उपवास कर दिया। अब वह कहते हैं कि मैं अपने को मार डालूंगा, अगर मेरी नहीं सुनोगे। इसको वह कहते हैं सत्याग्रह!

सब आग्रह असत्य के होते हैं, सत्य का कोई आग्रह होता ही नहीं। जहां आग्रह है वहां असत्य है। आग्रह क्यों? मैंने अपनी बात कही। तुम्हें सुननी थी सुन ली, नहीं सुननी थी नहीं सुनी; माननी थी मान ली, नहीं माननी थी नहीं मानी। तुम तुम्हारे मालिक, मैं मेरा मालिक। इतना ही क्या कम है कि तुम मौजूद थे, कि तुम आए थे। फिर सुना नहीं सुना, गुना नहीं गुना, जीए नहीं जीए, तुम्हारी मर्जी। मैं कोई अनशन नहीं करूंगा। अनशन तो हिंसा है। मैं तुम्हें दबाऊंगा नहीं। यह तो तुम्हें सताने का उपाय है।

अब तुम थोड़ा सोचो, कि अगर मैं अनशन कर दूं और कहूं कि तुम्हें ऐसा करना पड़ेगा, यह खाना पड़ेगा, वह पीना पड़ेगा, नहीं तो मैं उपवास करता हूं, तो तुम्हारे ऊपर मैं तुम्हारी छाती पर पत्थर रख रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि देखो तुम सिगरेट पीना नहीं छोड़ते और मैं मरने को तैयार हूं तुम्हारे लिए—जरा मेरी सेवा देखो! मैं अपनी जान दे रहा हूं तुम्हारे लिए और तुम सिगरेट पीना नहीं छोड़ सकते!

अब तुम में अगर थोड़ी भी ममता होगी, थोड़ा भी प्रेम होगा, थोड़ी भी दया होगी, तुम कहोगे कि यह भी क्या सिगरेट पीने के लिए किसी की जान जाए! तुम दबाव करोगे अपने पर। तुम कहोगे कि नहीं; मैं कसम खाता हूं अब कभी सिगरेट न पीऊंगा। मगर यह दबाव में ली गई कसम है; यह जबर्दस्ती है। यह तो बंधन हुआ। यह तो तुम्हारे ऊपर जंजीर डाल दी गई! यह मुक्ति नहीं है, यह मुक्ति का मार्ग नहीं है।

मैं तो कह देता अपनी बात; और मैं कहता रहूंगा। सुनने वाले सुन लेंगे, पीने वाले पी लेंगे, जीने वाले जी लेंगे—तुम्हारी मौज।

रवि—किरन के

शर—निकर शत,

यह हरिद्रा पीत,

नील अंबर में

सुशब्दायित हुआ

जिनका अमर संगीत,

जब बिखरने

फूट पड़ने

के लिए आतुर;

खिल रही

अरविंद सी

प्राची दिशा की

जब अरुण पांखुर;

तब कुहासे की चदरिया तान

तन, मन, प्राण पर इस ओर

सो रहे हो?

सोते रहो।

किंतु क्या रुक जाएगा

उगता हुआ नव भोर?

निश्चित नहीं;

भोर तो आकर रहेगा

इस धरा के

मौज भरते,

मुक्त अंबर में

विचरते,

पांखियों का

शोर तो छाकर रहेगा।

सुबह होती है, सूरज ऊगता। तुम सोए रहो चादर ओढ़कर, इससे कोई सूरज थोड़े ही रुक जाएगा। तुम पड़े रहो दबे अपने बिस्तर में; इससे पक्षियों के गीत थोड़े ही रुक जाएंगे। इससे पक्षी नाराज थोड़े ही हो जाएंगे। इससे सूरज उदास थोड़े ही हो जाएगा। कि सूरज कहेगा कि अब मैं सत्याग्रह करूंगा! कि मैं अनशन करता हूं! कि मैं आया, इतनी दूर से आया, कितनी अनंत की यात्रा करके आया, रात के अंधेरे को पार करके आया, पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर आया, और तुम सो रहे हो! पापी कहीं के! जागो, अन्यथा मैं लौट जाऊंगा, कि सिकोड़ लूंगा अपनी किरणें। सूरज ऐसा कुछ भी नहीं कहता।

सो रहे हो?

सोते रहो।

किंतु क्या रुक जाएगा

उगता हुआ नव भोर?

निश्चित नहीं;

भोर तो आकर रहेगा

इस धरा के

मौज भरते,

मुक्त अंबर में

विचरते,

पांखियों का

शोर तो छाकर रहेगा।

बस, ऐसा ही मेरा गीत है—पक्षियों का गीत जो सुबह होता है। ऐसी ही मेरी जीवन—दशा है—जैसे सूरज ऊगता। कोई देखे, कोई न देखे, इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता है। मैं कोई अथक चेष्टा नहीं कर रहा, अच्युत। मैं कोई सेवा नहीं कर रहा। मैं निपट अपने ढंग से जी रहा हूं। और यही मेरी देशना है: तुम भी निपट अपने ढंग से जीओ—अपनी महिमा में, अपनी स्वतंत्रता में। नहीं किसी के सेवक बनना, नहीं किसी को सेवक बनाना।

हां, और निश्चित तुमसे बहुत प्रकाश बहेगा, बहुत प्रेम जगेगा। तुमसे बहुतों का कल्याण होगा, मगर तुम किसी का कल्याण करने मत जाना। कल्याण करने वाले लोगों ने बड़ी हानि पहुंचा दी है।

मैंने सुना, चीन में एक मेला भरा। एक आदमी एक कुएं में गिर पड़ा; कुएं पर पाट नहीं थी। एक बौद्ध भिक्षु पास से निकला। वह आदमी भीतर से चिल्ला रहा है—मुझे बचाओ! मैं मर जाऊंगा, मुझे बचाओ! शोरगुल बहुत है; मेला, बाजार भरा है; कौन किसकी सुन रहा है! बौद्ध भिक्षु कुएं के पास से निकलता था; फिर ध्यान की उसे आदत भी थी, शांत होने का ढंग भी था। उसे सुनाई पड़ गई आवाज। उसने कुएं में झांककर देखा। जो डूबता था आदमी, बड़ा प्रसन्न हुआ, उसने कहा: आप आ गए, हे भिक्षु देवता, मुझे बचाओ! भिक्षु ने कहा: देखो, सुनो, यह जगत तो दुख है। बचकर भी क्या करोगे? भगवान बुद्ध नहीं कह गए—जन्म दुख है, जीवन दुख है, जरा दुख है, मृत्यु दुख है, सब दुख है! बचकर क्या करोगे? मरना तो पड़ेगा ही, आज मरे कि कल, सब बराबर है। फिर अपने कर्मों का फल भोग रहे हो। फल तो भोगने ही पड़ते हैं, नहीं तो कोई निस्तार नहीं है। मैं इतना ही तुम्हें कह सकता हूं, शांति से मरो।

यह तुम्हारे दर्शन—शास्त्रियों का निष्कर्ष है—चुपचाप मर जाओ!

भिक्षु तो अपने रास्ते पर चला गया। और ख्याल रखना, हंसना मत भिक्षु पर। उसने जो कहा, वही तुम्हारे कर्म के सिद्धांत का तार्किक निष्कर्ष है। उसके पीछे ही आया एक कन्फ्यूशी। कन्फ्यूशियस तो समाज की व्यवस्था, नियम, कानून, इनके रूपांतरण में विश्वास करता है। कन्फ्यूशी ने आवाज सुनी, उसने नीचे झांककर देखा। वह आदमी बोला कि बचाओ मुझे भाई, मैं मरा जा रहा हूं। अब ज्यादा देर टिक न सकूंगा, ठंड बहुत है, मेरे हाथ—पैर गले जा रहे हैं। उस कन्फ्यूशी ने कहा: तू घबड़ा मत, महात्मा कन्फ्यूशियस ने पहले ही कहा है कि हर कुएं पर पाट होनी चाहिए। इस कुएं पर पाट नहीं है, इसका फल यह हुआ कि तू मर रहा है। मत घबड़ा, सब कुओं पर पाट बंधवाकर रहेंगे। सारे देश में सुधार करवाकर रहेंगे। क्रांति करनी होगी तो क्रांति करेंगे, कानून बदलना पड़े तो कानून बदलेंगे, तू घबड़ा मत।

उसने कहा: वह तो होगा ठीक, मगर मेरा क्या होगा? मुझे बचाओ। मगर उस आदमी को तो अब इसकी फिक्र ही नहीं; एक—एक आदमियों की कौन फिक्र करे? वह तो जाकर बीच मंच में खड़ा हो गया और उसने लोगों को चिल्ला—चिल्लाकर कहना शुरू किया, कि सुनो भाइयो, देखो महात्मा कन्फ्यूशियस की बात सच सिद्ध हो रही है। उसने इस बात को एक उदाहरण बना लिया कि यह उदाहरण है—हर कुएं पर पाट होनी चाहिए। वह सामाजिक क्रांति में संलग्न हो गया।

पीछे से एक ईसाई फकीर आया, उसने जल्दी से अपने झोले में से रस्सी निकाली, रस्सी डाली। आदमी कुछ बोल ही नहीं पाया, उसके पहले रस्सी पहुंच गई उसके पास। वह आदमी तो कुछ सोच ही रहा था: बोलना भी कि नहीं बोलना, कहना भी कि नहीं कहना, कि चुपचाप मर ही जाने में सार है? कि बौद्ध भिक्षु ने शायद ठीक ही कहा, कोई निकालने वाला मिलने वाला नहीं है। वह कन्फ्यूशी गया, वह और शोरगुल मचा रहा है। वैसे मेरी कोई सुन लेता, तो अब सुन भी नहीं सकता—इतना शोरगुल मचा रहा है। तो वह सोच ही रहा था, कहना कि नहीं। मगर ईसाई ने तो तत्क्षण रस्सी डाल दी, उस आदमी को खींचा, कपड़ा उढ़ाया। उस आदमी ने कहा: धर्म तुम्हारा असली है। तुमने सेवा की।

उस ईसाई ने कहा: भाई, सेवा की बात मत करो। यह तो हमने इसलिए तुम्हें निकाला कि हमें स्वर्ग जाने की आकांक्षा है। और जीसस ने कहा है: जो सेवा करेगा वही मेवा पाएगा। इसीलिए तुम देखते हो, हम रस्सी साथ ही लेकर चलते हैं। झोले में ही रखी हुई थी, कि कहीं कोई गिरे, हम मौके की तलाश में रहते हैं। और यह कन्फ्यूशी ठीक बातें नहीं कह रहा है। अगर सब कुओं पर पाट हो जाएगी, तो लोग गिरेंगे कैसे? और अगर लोग गिरे नहीं, तो लोग बचाएंगे कैसे? सेवा करने वालों का क्या होगा? फिर मेवा कैसे मिलेगा? कुओं पर पाट की कोई जरूरत नहीं है। जिन पर हैं उनके भी अलग कर दो। सेवा फैलनी चाहिए। और तुम अपने बच्चों को भी समझा जाना कि ऐसे ही कुओं में गिरते रहें, क्योंकि हमारे बच्चे आएंगे, वे उनको निकालते रहेंगे। बिना सेवा के तो स्वर्ग मिल नहीं सकता!

तुम हंसो मत। मैंने स्वामी करपात्री की एक किताब पढ़ी, जिसमें उन्होंने लिखा है—समाजवाद, साम्यवाद नहीं आने चाहिए, क्योंकि अगर साम्यवाद आ जाएगा और सबमें धन का समान वितरण हो जाएगा, फिर दान का क्या होगा? न कोई देने वाला बचेगा, न कोई लेने वाला। और दान तो धर्मों का धर्म है। तो धर्म नष्ट हो जाएगा।

तर्क देखते हो! जब मैं करपात्री महाराज की किताब पढ़ रहा था, तो मुझे यह चीनी कहानी याद आई कि करपात्री को भी उसमें जोड़ देना चाहिए। वही तर्क! और कई को तर्क जंचता होगा, क्योंकि कई करपात्री को मानने वाले लोग भी हैं। जंचती होगी यह बात, कि ठीक है, अगर दान ही धर्म का सार है, अगर दान ही धर्म का मूल है, और संपत्ति बांट दी गई—कोई भिखारी न बचा—कोई मांगने वाला न रहा, फिर दान कैसे होगा? और दान नहीं होगा तो धर्म कैसे होगा?

ठीक कहा उस ईसाई फकीर ने कि भैया, गिरते रहना…बाल—बच्चों को भी समझा जाना, गिरते रहो। कुओं पर पाट बनाना मत। हमारे बाल—बच्चे भी हैं, आखिर उनको भी स्वर्ग जाना है। तुम गिरते रहोगे, तो हम सेवा करते रहेंगे। तुम कोढ़ी हो जाओगे, हम पैर दबाएंगे। तुम बीमार हो जाओगे, हम अस्पताल खोलेंगे। तुम यह संतति—निग्रह करने वालों की बात मत सुनना, तुम तो बच्चे पर बच्चे पैदा करना, ताकि हम स्कूल खोलें और उनको शिक्षा दें। नहीं हमारे स्वर्ग का क्या होगा?

मैं तुम्हें सेवा नहीं सिखाता। मैं तुम्हें अपने आनंद से जीना सिखाता हूं। हां, तुम्हारे आनंद से जीने में अगर कुछ घटे। अगर तुम कुएं के पास जाओ और किसी को गिरा हुआ देखो और तुम्हारा आनंद—भाव तुम्हें उसे निकालने के लिए कहे, अहेतुक, न स्वर्ग जाने की आकांक्षा, न अखबार में खबर छपवाने की आकांक्षा, न बड़े महावीर—चक्र मिल जाएं तुम्हें, महावीर—पदक मिल जाए, स्वर्ण—पदक मिले, सरकारी सम्मान मिले, कि सरकारी संत समझे जाओ—ऐसी कोई आकांक्षा। नहीं ऐसा कोई सवाल। बस उस गिरते डूबते आदमी को देखकर तुम्हारे प्राण ही रस्सी बन जाएं! तुम्हारा होना ही उसे बचाने को आतुर हो जाए। सेवा की दृष्टि से नहीं—जरा भी सेवा की दृष्टि से नहीं—सहज हो। और उसे बचाकर तुम अपने रास्ते पर चले जाओ। तुम उसका धन्यवाद भी मांगने की आकांक्षा न दिखाओ। तुम यह भी न कहो कि भई ख्याल रखना, मैंने तुम्हें बचाया, भूल मत जाना! इतनी भी आकांक्षा आ गई, तो तुमने आनंद से नहीं बचाया। और आनंद से जो बचाता है वह परमात्मा के हाथ का उपकरण हो जाता है।

भोर तो आकर रहेगा

रवि—किरन के

शर—निकर शत,

यह हरिद्रा पीत,

नील अंबर में

सुशब्दायित हुआ

जिनका अमर संगीत,

जब बिखरने

फूट पड़ने

के लिए आतुर;

खिल रही

अरविंद सी

प्राची दिशा की

जब अरुण पांखुर;

तब कुहासे की चदरिया तान

तन, मन, प्राण पर इस ओर

सो रहे हो?

सोते रहो।

किंतु क्या रुक जाएगा

उगता हुआ नव भोर?

निश्चित नहीं;

भोर तो आकर रहेगा

इस धरा के

मौज भरते,

मुक्त अंबर में

विचरते,

पांखियों का

शोर तो छाकर रहेगा।

आखिरी प्रश्न:

क्या भक्त अकेले विश्वास के सहारे जी सकता है?

विश्वास तो थोथी बात है, झूठी बात है। भक्त तो प्रेम के सहारे जीता है, विश्वास के सहारे नहीं। विश्वास की जरूरत तो उनको पड़ती है, जिनके जीवन में प्रेम नहीं है। भक्त को तो अस्तित्व को देखकर प्रेम उमगता है। हरे वृक्षों को देखकर आलिंगन करने की कामना जगती है। संगीत सुनकर संगीतमय हो जाने की अभीप्सा जगती है। तारों को देखकर तारों के साथ नाचने का मन होता है। भक्त को तो अस्तित्व के प्रति प्रेम जगा है। विश्वास की भक्त को जरूरत ही नहीं है। भक्त को तो श्रद्धा जगी है।

और श्रद्धा और विश्वास में बड़ा फर्क है। विश्वास होता है सिर का, श्रद्धा होती है हृदय की। विश्वास तो सिद्धांत का होता है। जैसे तुम हिंदू घर में पैदा हुए तो तुम्हारे विश्वास हिंदू हैं; इससे तुम भक्त नहीं हो गए। तुम मुसलमान घर में पैदा हुए तो तुम्हारे विश्वास मुसलमान हैं; इससे तुम भक्त नहीं हो गए। भक्त न तो हिंदू होता, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध—भक्त तो बस भक्त होता है; उतना होना पर्याप्त है; विशेषण रहित होता है।

भक्त को तो हृदय में श्रद्धा जगती है। भक्त तो विश्वासों से बिलकुल मुक्त होता है। विश्वास तो उधार होते हैं, दूसरों के दिए होते हैं—बासे होते हैं—उच्छिष्ट। श्रद्धा अपनी होती है।

इसलिए भक्त अनुभव मांगता है, भक्त अनुभव तलाशता है। भक्त को थोथे विश्वास तृप्त नहीं कर पाते। प्रश्न तुमने ठीक ही पूछा है, भक्त विश्वास के सहारे नहीं जी सकता। भक्त को तो विश्वास में सहारा दिखाई भी नहीं पड़ता।

छांह तो देते नहीं, मधुमास लेकर क्या करूंगी!

बांह तो देते नहीं, विश्वास लेकर क्या करूंगी!

टूटकर बिखरी हृदय की कुसुम—सी कोमल तपस्या,

स्वप्न झूठे हो गए हैं,

आरती के दीप का मधु—नेह चुकता जा रहा है,

फूल जूठे हो गए हैं,

आ गई थी द्वार पर तो साधना स्वीकार करते

अब कहां जाऊं बताओ!

तृप्ति तो देते नहीं, यह प्यास लेकर क्या करूंगी!

बांह तो देते नहीं, विश्वास लेकर क्या करूंगी!

आज धरती से गगन तक मिलन के क्षण सज रहे हैं,

चांदनी इठला रही है

स्वप्न—सी वंशी हृदय के मर्म गहरे कर रही है

गंध उड़ती जा रही है

मंजरित अमराइयों में, मदिर कोयल कूकती है

पर अधर मेरे जड़ित हैं

गीत तो देते नहीं, उच्छवास लेकर क्या करूंगी!

बांह तो देते नहीं, विश्वास लेकर क्या करूंगी!

डूबती है सांझ की अंतिम किरण—सी आस मेरी

और आकुल प्राण मेरे

किस क्षितिज की घाटियों में खो गए प्रतिध्वनित होकर

मौन, मधुमय गान मेरे,

चरण हारे पंथ चलते, मन उदास थका—थका सा,

कौन दे तुम बिन सहारा,

सांस तो देते नहीं, उल्लास लेकर क्या करूंगी!

बांह तो देते नहीं, विश्वास लेकर क्या करूंगी!

भक्ति तो प्रेम की ही पराकाष्ठा है। जैसे प्रेम विश्वास नहीं मांगता, बांह मांगता है। प्रेमी चाहता है—आलिंगन दो, भरोसे नहीं। आश्वासन नहीं, आलिंगन दो।

सांस तो देते नहीं, उल्लास लेकर क्या करूंगी!

बांह तो देते नहीं, विश्वास लेकर क्या करूंगी!

जैसे प्रेयसी मांगती है बांह, ऐसे भक्त मांगता है बांह। भक्त शब्दों से राजी नहीं होता, सिद्धांतों से राजी नहीं होता, शास्त्रों से राजी नहीं होता, भक्त अनुभव मांगता है। भक्त कहता है: आओ मेरी आंख के सामने। खोलो मेरे हृदय के द्वार। आओ हम गठबंधन में बंधें। आओ हम नेह को बांधें। आओ हम भांवर डालें। भक्त इससे कम में राजी नहीं है। जो इससे कम में राजी है, कभी भक्त न हो पाएगा।

भक्त की आकांक्षा परम की है, चरम की है, आत्यंतिक की है। भक्त तो भगवान हो जाना चाहता है, भगवान में लीन हो जाना चाहता है। इसलिए भक्त निरंतर उलझता है, झगड़ता है, शिकायत करता है, नाराज होता है, रूठता है। परमात्मा से उसकी सीधी—सीधी बात चलती है, जैसे प्रेमी की प्रेमी से चलती है। इसलिए तो भक्त पागल समझा जाता है। क्योंकि तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता परमात्मा—किससे बातें कर रहा है भक्त? किससे जूझता है? किससे रूठता है?

रामकृष्ण को ऐसे दिन आ जाते थे, जब वह ताला मार देते थे मंदिर में। दो—दो, चार—चार दिन मंदिर ही नहीं जाते थे, प्रार्थना ही नहीं करते थे। पीठ किए बैठे रहते मंदिर की तरफ। उनके शिष्य कहते कि परमहंस देव, प्रार्थना कब होगी? नहीं होगी, वे कहते। जब हमारी नहीं सुनी जाती, तो हम भी क्यों प्रार्थना करें? अब हम रूठ गए हैं, अब जब मनाए जाएंगे तब।

और कोई अज्ञात हाथ मनाता भी, कोई अज्ञात हाथ बुलाता भी। फिर कभी प्रार्थना ऐसी जमती कि दिन—दिन बीत जाता। सुबह से शुरू होती, सांझ आ जाती—भक्त आते और जाते, लोग आते और जाते—प्रार्थना बंद ही न होती, ऐसे रसमग्न हो जाते! वही आदमी जो कभी ताला मार देता, कभी ऐसा रसमग्न हो जाता! कभी जो रूठ जाता था, कभी मनाता भी था।

भक्त तो प्रेम को जानता है। प्रेम तो अनुभव है, विश्वास नहीं।

आने को कहकर भी, आए तुम मीत नहीं

ऐसी तो रीत नहीं, ऐसी तो रीत नहीं।

जिसके स्वर सुन पायल की गतियां रुक जाएं,

रतनारे नयनों के पलक उठें, झुक जाएं।

झीलों में पाल भरी नावों से सपन तिरें,

बिन पावस कजरारे बदरा से गगन घिरें।

जो मन प्राणों पर जादू बनकर छा जाएं,

आया इन अधरों पर, फिर वैसा गीत नहीं।

आने को कहकर भी, आए तुम मीत नहीं,

ऐसी तो रीत नहीं, ऐसी तो रीत नहीं।

सुरभित तो हैं कलियां, पर वैसी गंध नहीं,

लगता ज्यों मधुवन से, हो कुछ संबंध नहीं।

जाने क्यों मधुऋतु है रूठी अमराई से,

अपना ही आंगन क्यों वंचित शहनाई से?

फागुन के मदमाते गीत अधर भूल गए,

जाए फिर अब का भी सावन यूं बीत नहीं।

आने को कहकर भी, आए तुम मीत नहीं,

ऐसी तो रीत नहीं, ऐसी तो रीत नहीं।

तुम यदि आ पाओ तो, पतझर मधुमास बने,

माथे की रेखाएं, अधरों का हास बने।

पारस तुम, छू लूं यदि, तन कंचन बन जाए,

जीवन की हर परिभाषा, नूतन बन जाए।

आने को कहकर भी, आए तुम मीत नहीं,

ऐसी तो रीत नहीं, ऐसी तो रीत नहीं।

कितना भी समझाऊं, पर तेरी छाया बिन,

हो पाई है अब तक दर्पण से प्रीत नहीं।

आने को कहकर भी, आए तुम मीत नहीं,

ऐसी तो रीत नहीं, ऐसी तो रीत नहीं।

भक्त जूझता है, उलझता है, प्रेम के डोरे फेंकता परमात्मा पर। और उत्तर भी आते हैं। भक्त को ही उत्तर आते हैं, ज्ञानी तो रूखा—सूखा रह जाता है, शास्त्रों में ही डूबा रह जाता है। प्रेम की सरस धार बहती नहीं, प्रेम के फूल नहीं खिलते और न प्रेम के पक्षी चहचहाते हैं। भक्त का रास्ता तो बड़ा मधुर है, मधुसिक्त है। भक्त तो मधुशाला में पीता है रस उसका।

नहीं, भक्त विश्वास के सहारे न जीता है, न जी सकता है। भक्त तो अनुभव मांगता है। भक्त तो कहता है—आओ, आलिंगन में बंधो। और ऐसी घटना घटती है, ऐसी अपूर्व घटना घटती है। ऐसा क्षण आता है, जब भक्त का भगवान से मिलन होता है। उन्हीं क्षणों की याद तो तुम्हें दिला रहा हूं। मैं तुम्हें विश्वास नहीं देना चाहता, मैं तुम्हें बांह देना चाहता हूं।

छांह तो देते नहीं, मधुमास लेकर क्या करूंगी!

बांह तो देते नहीं, विश्वास लेकर क्या करूंगी!

विश्वास लेना भी मत, बांह ही लेनी है, छांह ही लेनी है।

तृप्ति तो देते नहीं, यह प्यास लेकर क्या करूंगी!

बांह तो देते नहीं, विश्वास लेकर क्या करूंगी!

विश्वास लेना भी नहीं। तृप्ति मांगना। छोटे से राजी भी मत हो जाना। खिलौनों से तृप्त मत हो जाना।

गीत तो देते नहीं, उच्छवास लेकर क्या करूंगी!

बांह तो देते नहीं, विश्वास लेकर क्या करूंगी!

गीत मांगना—जागता, जीता, तड़फता, श्वास लेता। गीत मांगना, कि तुम्हारा हृदय उपनिषद की गूंज बन जाए। गीत मांगना, कि तुम्हारे भीतर छिपा कबीर गुनगुना उठे। गीत मांगना, कि तुम्हारे भीतर पुकार उठे वाजिद! कहै वाजिद पुकार!

आज इतना ही।

समाप्‍त

कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-09)

सतगुरु शरणे आयक तामस त्यागिए—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 29 सितम्‍बर, 1976;  श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

खैर सरीखी और न दूजी वसत है।

मेल्हे बासण मांहि कहां मुंह कसत है।।

तूं जिन जाने जाय रहेगो ठाम रे।

हरि हां, माया दे वाजिद धणी के काम रे।।

मंगण आवत देख रहे मुहुं गोय रे।

जद्यपि है बहु दाम काम नहिं लोय रे।।

भूखे भोजन दियो न नागा कापरा।

हरि हां, बिन दिया वाजिद पावे कहा वापरा।।

जल में झीणा जीव थाह नहिं कोय रे।

बिन छाण्या जल पियां पाप बहु होय रे।।

काठै कपड़े छाण नीर कूं पीजिए।

हरि हां, वाजिद, जीवाणी जल मांहि जुगत सूं कीजिए।। Continue reading “कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-09)”

कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-08)

कुछ और ही मुकाम मेरी बंदगी का है—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 28 सितम्‍बर, 1976;   श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

1— आपने इतने ऊंचे, इतने अकल्पनीय शिखर दिखा दिए हैं कि उससे अपनी बौनी और लंगड़ी सामर्थ्य प्रगट हो गई। एक ओर उनके दिखने का आनंद है, तो दूसरी ओर तड़पने के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिखता! आप ही सम्हालिएगा! घुटन और छटपटाहट के क्षणों में अनुभव में आइएगा! आपकी अमृत की वर्षा करने वाली आंखें, मेरे अंतस में सदा कौंधती रहें।

आपकी आंखों का आकाश

सजल, श्यामल, सुंदर—सा पाश।

खोया मेरा मन खग नादान

सुध—बुध भूल, भटक अनजान!

2—विरह—अवस्‍था में भक्‍त दुःखी होता है या सुखी?

3—भक्‍त कि चाह क्‍या है—पुण्‍य, या ज्ञान, या स्‍वर्ग? Continue reading “कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-08)”

कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-07)

हंसा जाय अकेला—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 सितम्‍बर 1967;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

टेढ़ी पगड़ी बांध झरोखा झांकते।

ताता तुरग पिलाण चहूंटे हांकते।।

लारे चढ़ती फौज नगारा बाजते।

वाजिद, ये नर गए विलाय सिंह ज्यूं गाजते।।

दो—दो दीपक जोए सु मंदिर पोढ़ते।

नारी सेतीं नेह पलक नहीं छोड़ते।।

तेल फुलेल लगाए कि काया चाम की।

हरि हां, वाजिद, मर्द गर्द मिल गए दुहाई राम की।।

सिर पर लंबा केस चले गज चालसी।

हाथ गह्यां समसेर ढलकती ढाल सी।।

एता यह अभिमान कहां ठहराहिंगे।

हरि हां, वाजिद, ज्यूं तीतर कूं बाज झपट ले जाहिंगे।। Continue reading “कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-07)”

कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-06)

उतर आए अग्निपंखी सत्संग—सर के तीर—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 सितम्‍बर 1976;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—क्या आप संगीत, काव्य और सौंदर्य पर कुछ कहना चाहेंगे? अंततः सब कुछ परमात्मामय हो जाए, इसके लिए ये तीन बातें साधना हैं न?

2—मुझे लगता है, बेशक मैं आपसे दूर हूं, फिर भी आपके इतने करीब हूं, शायद ही कोई इतने करीब हो। न मैंने आपसे संन्‍यास लिया है, न ही आपके हस्‍तकमलों का आशीर्वाद।फिर भी ऐसी प्रतीति का कारण क्‍या है?

3—योग, ध्‍यान और अध्‍यात्‍म का वैज्ञानिक संबंध, इतनी प्‍यारी वाणी और आपका दर्शन कर मैं स्‍वयं को धन्‍यभागी स्‍वीकार करता हूं। फिर भी इतने प्‍यारे प्रभु का कुछ धार्मिक और राजनैतिक लोग विरोध क्‍यों करते है? मुझे यह विरोध अच्‍छा नहीं लगता, मैं क्‍या करूं? Continue reading “कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-06)”

कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-05)

साधां सेती नेह लगे तो लाइए—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 25 सितम्‍बर 1976;  श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

साधां सेती नेह लगे तो लाइए।

जे घर होवे हांण तहुं न छिटकाइए।।

जे नर मूरख जान सो तो मन में डरै।

हरि हां, वाजिद, सब कारज सिध होय कृपा जे वह करै।।

बेग करहु पुन दान बेर क्यूं बनत है।

दिवस घड़ी पल जाय जुरा सो गिनत है।।

मुख पर देहैं थाप सूंज सब लूटिहै।

हरि हां, जम जालिम सूं वाजिद, जीव नहिं छूटिहै।। Continue reading “कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-05)”

कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-04)

सहज—सोपान मुक्ति-मंदिर का—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 24 सितम्‍बर 1976;   श्री ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1— भगवान! बाईस सितंबर के टाइम्स ऑफ इंडिया में, इंदौर से प्रसारित एक समाचार में लिखा है कि भारत के प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने आचार्य रजनीश के स्त्री और यौन संबंधी विचारों के प्रति अपनी बलवान नापसंदगी जाहिर की और कहा कि एक मुक्ताचारी, परमिसिव समाज अंततः सर्वनाश को प्राप्त होता है। इस प्रसंग में उन्होंने कहा कि प्राचीन भारत में भी समाज एक बार मुक्ताचारी हुआ था, कलिंग काल में बने भुवनेश्वर और पुरी के मंदिर इस बात की खबर देते हैं। और यही कारण है कि कलिंग साम्राज्य समाप्त हो गया। भगवान, श्री मोरारजी देसाई के इस वक्तव्य पर कुछ कहने की कृपा करें।

2—जब सभी पहुंचे हुए पूर्ण—पुरूष परमात्‍मा की पुकार करते है, तभी मेरी समझ में नहीं आता कि पुकारने के लिए वे बचते है कहा? Continue reading “कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-04)”

कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-03)

पीव बस्या परदेस—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 23 सितम्‍बर 1976, श्री ओशो आश्रम, पूना।

सूत्र:

पीव बस्या परदेस कि जोगन मैं भई।

उनमनि मुद्रा धार फकीरी मैं लई।।

ढूंढया सब संसार कि अलख जगाइया।

हरि हां, वाजिद, वह सूरत वह पीव कहूं नहिं पाइया।।

जब तें कीनो गौन भौन नहिं भावही।

भई छमासी रैण नींद नहिं आवही।।

मीत तुम्हारी चीत रहत है जीव कूं।

हरि हां, वाजिद, वो दिन कैसो होइ मिलौं हरि पीव कूं।। Continue reading “कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-03)”

कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-02)

प्रार्थना के पंख—यात्रा शून्य शिखरों की—(प्रवचन—दूसरा)

प्रश्‍नसार:

1—भगवान! दुनिया के कोने-कोने से सारे संवेदनशील लोग आपके पास खिंचे चले आ रहे हैं। पर आश्चर्य होता है कि कृष्णमूर्ति, विनोबा, जयप्रकाश तथा कृपलानी जैसे साधु-पुरुषों तक आपकी आवाज क्यों नहीं पहुंच पाती है? वे क्यों नहीं अनुभव कर पाते हैं कि यहां पूना में वह व्यक्ति मौजूद है जिसके पास मनुष्यता की मूल व्याधि की औषधि है?

2—सभ्‍यता, संस्‍कृति और संगठित धर्म निन्‍यानबे प्रतिशत आचरण है, अनुकरण है,

फिर धर्म क्‍या है?

3—मेरी जिंदगी किसी के काम आ जाए

कौन जाने मौत का पैगाम आ जाये। Continue reading “कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-02)”

कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-01)

पंछी एक संदेस कहो उस पीव सूं—(प्रवचन—पहला)

सूत्र:

अरध नाम पाषाण तिरे नर लोइ रे।

तेरा नाम कह्यो कलि मांहिं न बूड़े कोइ रे।।

कर्म सुक्रति इकवार विलै हो जाहिंगे।

हरि हां, वाजिद, हस्ती के असवार न कूकर खाहिंगे।।

रामनाम की लूट फबी है जीव कूं।

निसवासर वाजिद सुमरता पीव कूं।।

यही बात परसिद्ध कहत सब गांव रे।

हरि हां, अधम अजामिल तिरयो नारायण—नांव रे।। Continue reading “कहै वाजिद पुकार-(प्रवचन-01)”

कहै वाजिद पुकार—ओशो

कहे वाजिद पुकार-ओशो 

(ओशो द्वारा वाजिद—वाणी पर दिए गए दस अमृत प्रवचनों का अप्रतिम संकलन।)

 वाजिद—यह नाम मुझे सदा से प्‍यादा रहा है—एक सीधे—सादे आदमी का नाम,गैर—पढ़े—लिखेआदमी का नाम; लेकिन जिसकी वाणी में प्रेम ऐसा भरा है जैसाकि मुश्‍किल से कभी औरों की वाणी में मिले। सरल आदमी की वाणी में ही एकसा प्रेम हो सकता है। सहज आदमी की वाणी में ही ऐसी पुकार, ऐसी प्रार्थना हो सकती है। पंडित की वाणी में बारीकी होती है, सूक्ष्‍मता होती है, सिद्धांत होता है। तर्क—विचार होता है, लेकिन प्रेम नहीं होता। प्रेम तो सरल—चित ह्रदय में ही खिलने वाला फूल है।

वाजिद बहुत सीधे—सादे आदमी है। Continue reading “कहै वाजिद पुकार—ओशो”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-10)

एकांत की गरिमा—दसवां प्रवचन

कहै कबीर मैं पूरा पाया—

प्रश्न-सार

  1. संत परमात्मा की खोज में समाज और परिवार का छोड़ने जंगल क्यों चले जाते हैं?
  2. आपके आश्रम में यदि कोई एक ही साधना पद्धति हो, तो क्या साधकों को ज्यादा सुविधा नहीं होगी?
  3. एक मस्ती छा रही है, लेकिन भय लगता है कि यह खो तो नहीं जाएगी?
  4. सती-प्रथा का आज क्या मूल्य है?
  5. जीवन का अर्थ क्या है?

Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-10)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-09)

मन लागो यार फकीरी में—नौवां प्रवचन

कहै कबीर मैैं पूरा पाया—

सूत्र :

मन लागो मेरा यार फकीरी में।

जो सुख पायो राम भजन में, सो सुख नाहिं अमीरी में।

भला बुरा सबको सुन लीजै, कर गुजरान गरीबी में।।

प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि बनी आइ सबूरी में।

हाथ में कूरी बगल में सोंटा, चारो दिसि जागीरी में।।

आखिरी यह तन खाक मिलेगा, कहा फिरत मगरूरी में।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहब मिले सबूरी में।।

समझ देख मन मीत पियरवा, आसिक होकर सोना क्या करे। Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-09)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-08)

प्रेम का अंतिम निखार-(परमात्मा)—आठवां प्रवचन

कहै कबीर मैं पूरा पाया—

प्रश्न-सार

  1. आप प्रेम को सर्वोपरि महिमा क्यों देते हैं?
  2. अदृश्य और अश्राव्य परमात्मा कैसे दृश्य और श्राव्य बनता है?
  3. कबीर–आप–बेबूझ हैं। बेबूझ में कैसे डूबें?
  4. चैथा प्रश्नः आपका मूल संदेश क्या है?
  5. मुझे आपका प्रेम है या नहीं इससे मुझे जरा भी आंच नहीं है।
  6. आखिरी प्रश्नः प्रार्थना यानी क्या?

Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-08)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-07)

प्रभु-प्रीति कठिनसातवां प्रवचन

कहै कबीर मैं पूरा  पाया—

 सूत्र :

साई से लगन कठिन है भाई।

जैसे पपीहा प्यासा बूंद का, पिया पिया रट लाई।।

प्यासे प्राण तरफै दिनराती, और नीर ना भाई।।

जैसे मिरगा सब्द-सनेही, सब्द सुनन को जाई।।

सब्द सुने और सत-प्राणदान दे, तनिको नाहिं डराई।

जैसे सती चढ़ी सत-ऊपर, पिया की राह मन भाई।।

पावक देखि डरै वह नाहीं, हंसते बैठे सदा माई।

छोड़ो तन अपने का आसा, निर्भय हवे गुन गाई। Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-07)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-06)

सदगुरु की महत्ताछठवां प्रवचन

कहै कबीर मैं पूरा पाया…

 प्रश्न-सार

  1. कबीर के इन दो विरोधाभासी वचनों पर आपका क्या कहना हैः

 राम ही मुक्ति के दाता हैं, सदगुरु तो केवल प्रभु-स्मरण जगाते हैं।

 हरि सुमिरै सो वार है, गुरु सुमिरै सो पार।

  1. मैं अपने दुखभरे अतीत को क्यों नहीं भूल पाता हूं?
  2. क्या ममता और मेरेपन के भाव के बिना प्रेम संभव है?
  3. संतों ने जीवन को दुखा की भांति क्यों निरूपित किया है? क्या यह दुखवाद उचित है?
  4. आप आश्रम दूसरी जगह ले जा रहे हैं, तो पूना छोड़ आपके साथ चलूं या यहीं रुक कर काम करूं?

Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-06)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-05)

क्या तेरा क्या मेरा-पांचवां प्रवचन

कहैै कबीर मैं पूरा पाया-

सूत्र :

रे यामै क्या मेरा क्या तेरा।

लाज न मरहिं कहत घर मेरा।।

चारि पहर निसि भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा।

जैसे बनिए हाट पसारा, सब जग कासो सिरजनहारा।।

ये ले जारे वे ले गाड़े, इन दुखिइनि दोेऊ घर छाड़े।

कहत कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम्ह विनसि रहेगा सोई।।

मन तू पार उतर कहं जैहौं।

आगे पंथी पंथ न कोई, कूच-मुकाम न पैहों।। Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-05)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-04)

चौथा –प्रवचन–आनंद पर आस्था-

कहै कबीर मैं पूरा पाया-

प्रश्न-सार

  1. सच में ही आनंद बरस रहा है, या मैं कल्पना और अतिशयोक्ति कर रहा हूं?
  2. मैं अकारण ही उदास क्यों रहता हूं?
  3. यह पूछूं कि वह पूछूं? आज पूछूं कि कल पूछूं?
  4. प्रभु-खोज कहां से शुरू करूं?

पहला प्रश्नः मुझ पर आनंद की वर्षा हो रही है, उसके लिए आपको धन्यवाद देने की इच्छा होती है। लेकिन पता नहीं है कि सच में आनंद बरसता है या मैं कल्पना कर रहा हूं या अतिशयोक्ति कर रहा हूं!

मनुष्य का मन बड़ा उपद्रवी है। दुख हो तो भरोसा करता है और आनंद हो तो संदेह करता है। दुख पर कभी संदेह नहीं आता कि कहीं यह कल्पना तो नहीं है! दुख को तो तुम एकदम मान लेते हो–बड़ी निष्ठा, बड़ी श्रद्धा से। मैंने आदमी ही नहीं देखा, जो दुख पर संदेह करता आता हो कि मैं बहुत दुखी हूं, मुझे संदेह होता है कि सच में मैं दुखी हूं कि मैं कल्पना कर रहा हूं! कोई ऐसा कहता नहीं कि कहीं मैं दुख के संबंध में अतिशयोक्ति तो नहीं कर रहा!

दुख को हम मान लेते हैं। दुख में हमारी बड़ी आस्था है। लेकिन जब आनंद की लहर आती है तो संदेह उठने शुरू होते हैं कि कहीं कल्पना न हो, कि कहीं सपना न होे, कि कहीं आत्मसम्मोहन न कर लिया हो। किसी भ्रांति में तो नहीं पड़ गया हूं! अतिशयोक्ति तो नहीं हो रही! पागल तो नही हो गया हूं! ऐसे हजार प्रश्न खड़े हो जाते हैं। इसमें झांकने की जरूरत है।

दुख को तुम मान लेते हो, क्योंकि दुख मन का स्वभाव है। आनंद को तो तुम नहीं मान पाते, क्योंकि आनंद मन का स्वभाव नहीं है। आनंद मन के पार है। दुख मन के भीतर है। दुख मन है। और आनंद अ-मन की दशा है। मन कैसे माने!

अंधेरा अंधेरे को मान लेता है, लेकिन रोशनी को कैसे माने! रोशनी बहुत बेबूझ है; किसी अज्ञात से आती है–कहां से आती है, पता नहीं। इतना तो तय है कि अंधेरे के भीतर से नहीं आती।

जो तुम्हारे मन में से पैदा होता है, जो पत्ते तुम्हारे मन में लगते हैं, वे तो स्वाभाविक मालूम होते हैं; क्योंकि मन से तुम्हारा तादात्म्य है और आत्मा से तुम्हारा तादात्म्य नहीं।

आनंद है आत्मा का स्वभाव। दुख है मन का स्वभाव।

तुम मन में रहने के आदी हो। आत्मा से तुम्हारी पहचान ही छूट गई! तो जब कभी अज्ञात से…। अज्ञात कहता हूं इसलिए, क्योंकि तुम्हें आत्मा का कोई बोध नहीं; जब किसी इस अनजान रास्ते से कोई किरण उतरती है–नाचती, घूंघर बजाती–मन चैंक कर कहता है कि यह कल्पना होनी चाहिए। क्योंकि मन ने जब भी सुख पाया है, तो सिर्फ कल्पना में ही पाया है। वस्तुतः तो कभी पाया नहीं।

यह बड़ा मकान दिखाई पड़ता है, यह मुझे मिल जाए तो बड़ा सुख होगा–ऐसी कल्पना में मन ने सुख पाया है। यह सुंदर स्त्री मुझे मिल जाए, यह सुंदर पुरुष मुझे मिल जाए, यह सुंदर बेटा मेरा हो, ये फूल मेरे बगीचे में खिलें, ऐसी मेरी प्रतिष्ठा हो, ऐसा मेरा नाम हो, यह पद मुझे मिले–ऐसी कल्पना में मन ने खूब सुख पाया–बस कल्पना में; आशा में; वासना में। जब वह मकान तुम्हें मिल जाएगा, तब मन को कोई सुख नहीं मिलता। जब उस स्त्री को तुम पा लोगे, तो मन को कोई सुख नहीं मिलता। मन सुख लेना जानता ही नहीं। मन सुख की भाषा से अपरिचित है।

तो मन ने केवल कल्पना में सुख पाया है; वस्तुतः यथार्थ में दुख पाया है।

इसलिए जब तुम्हारे जीवन में पहली आत्मा की किरण उतरेगी–नाचती, गुनगुनाती, आह्लाद से भरती, सुगंध को जगाती, हजार फूलों को खिलाती–जब तुम पर वसंत आएगा आनंद का, तो मन कहेगाः फिर कोई कल्पना हो रही है। जन्मों-जन्मों का यही अनुभव है मन का। मन कहेगाः मैं अतिशयोक्ति करे ले रहा हूं। मन कहेगाः यह हो नहीं सकता। ऐसा कभी हुआ है? यह कैसे हो सकता है?

दुख होता है, हुआ है; अनुभूत है, जाना-माना है, इतिहास है हमारा। और यह जो आनंद आ रहा है, इसे उस इतिहास का कोई संबंध नहीं जुड़ता। यह तुम्हारी आत्मकथा के बाहर से आ रही है बात। तुम्हारी आत्मकथा तो दुख और पीड़ा की है, संताप की है। तुम्हारी आत्मकथा तो नरक की है। और यह स्वर्ग उतरने लगा! जरूर तुम किसी सपने में खो गए हो, किसी नशे में पड़ गए हो, किसी दीवानेपन में उलझ गए हो।

मन की इस स्थिति को समझना।

और अगर तुमने मन की बात मान ली, तो जो आनंद उतर रहा है, वह सपना हो जाएगा, क्यांेकि तुम उसे स्वीकार न करोगे। द्वार आए मेहमान को वापस लौटा दोगे। जो आंनद उतर रहा था, वास्तविक था, वास्तविक हो सकता था–तुम्हारे जीवन की संपदा बन जाता। लेकिन तुम्हारा मन कहता हैः ‘कल्पना है; मैं नहीं मान सकता। ऐसा, और मुझे हो! नहीं-नहीं! असंभाव्य है। ऐसा अगर तुमने कहा और अगर तुमने इसमें ही अपने पैर रोके रखे, तो तुम द्वार न खोलोगे। अतिथि द्वार आया, लौट जाएगा। और फिर निश्चित ही सपना हो जाएगा। तब मन कहेगाः देखो, मैंने पहले ही कहा था! इसलिए मैं कहता हूं कि मन का बड़ा उपद्रव है। मन कहैगाः देखो, मैंने पहले ही कहा था सपना है; अब देखो? सपना हो गया।

मन ने कह कर ही सपना करवा दिया।

मन को तो सुख के साथ जीना आता नहीं। मन की मौज तो दुख है।

यह वक्तव्य विरोधाभासी लगे तो लगे, लेकिन ऐसा है कि मन सुखी होता है, जब दुखी होता है। और मन दुखी हो जाता है, जब सुख होता है।

मुझे अब जिंदगी बेकार-सी मालूम होती

कयामत हो गया है नशा-ए-गम का उतर जाना।

और जब दुख का नशा उतर जाता है तो मन मरने लगता है। ‘मुझे अब जिंदगी बेकार-सी मालूम होती!’ फिर जिंदगी में कुछ काम नहीं मालूम होता, अर्थ नहीं मालूम होता।

इसलिए तुम यह जान कर चकित होओगे कि जिनके पास जीवन में कुछ भी नहीं है, वे लोग धर्म की तरफ उत्सुक नहीं होते; क्योंकि अभी उनके मन को फैलने के काफी उपाय हैं। मकान नहीं है, मकान की कल्पना कर सकते हैं। पत्नी नहीं है, पत्नी की कल्पना कर सकते हैं। बच्चे नहीं, बच्चे की कल्पना कर सकते हैं। जितना नहीं है, उतनी कल्पना को सुविधा है। मन आशाएं बनाए रख सकता है।

लेकिन अगर यह सब तुम्हें मिल जाए जो तुम्हारा मन मांगता है, तब क्या करोगे? तब तो और आशा को जगह न रही, स्थान न रहा फैलने को। सब आशाएं पूरी हो गई, फिर क्या करोगे? सब दुख कट गए, फिर क्या करोगे?

मुझे अब जिंदगी बेकार-सी मालूम होती है।

कयामत हो गया है नशा-ए-गम का उतर जाना।

दुख का भी एक नशा है। जब वह उतर जाता है, तो एकदम ऐसा लगेगाः अब जीने में क्या सार? इसलिए लोग दुख को पकड़ते हैं। इधर कहे भी चले जाते हैं कि दुख से मुक्त होना है, उधर दुख को छोड़ते भी नहीं। इधर कहे चले जाते हैः कैसे दुख से छूटूं, और उधर नीचे जड़ें दुख में फैलाए चले जाते है। कहते हैंः क्रोध बुरा है, लेकिन छोड़ते नहीं। कहते हैंः मोह बुरा है, लेकिन छोड़ते नहीं। कहते हैंः ईष्र्या जलाती है आग की तरह–और क्या लपटें होंगी नरक की!–लेकिन छोड़ते नहीं। ये सब कहने की बातें हैं। तुम्हारे कहने पर कोई भरोसा कर ले, तो बड़ी मुश्किल मे पड़ जाएगा; क्याोंकि तुम जो कहते हो, उससे उलटा करते हो।

सुख के सूत्र बहुत सीधे-साफ हैं। लेकिन अड़चन यहां है कि दुख को पकड़ कर तुम रखना चाहते हो। यह भी एक काम है तुम्हारे मन के लिए कि दुख है, दुख से छुटकारा पाना है। तुम डरते हो कि कहीं छुटकारा हो ही न जाए, अन्यथा फिर क्या करूंगा! ऐसी तुम्हारी दशा है अभी।

पूछते होः ‘आनंद की वर्षा हो रही है। उसके लिए आपको धन्यवाद देने की इच्छा होती है।’

उसमें भी कंजूसी! इच्छा होती है; अभी दिया नहीं है धन्यवाद। सोच रहे हो! इच्छा होती है, दबा रहे होओगे। धन्यवाद देने में भी इतनी कृपणता!

मन धन्यवाद देना भी नहीं जानता। वह भी उसकी भाषा नहीं है। मन शिकायत करना जानता है। मन शिकायती है। क्योंकि शिकायत से भी दुख होता है। शिकायत से भी पीड़ा होती है। शिकायत से भी कांटा चुभता है। और जितनी तुम शिकायत करते हो, उतना दुख बढ़ता जाता है। जितना तुम धन्यवाद दोगे, उतना सुख बढ़ता जाएगा।

धन्यवाद का अर्थ हैः तुमने सुख को अंगीकार किया। तभी तो धन्यवाद दोगे न! अभी तो तुमने स्वीकार ही नहीं किया, धन्यवाद किस बात का! अभी तो तुम्हें शक ही है कि यह जो हो रहा है, सच भी है? अगर कल्पना ही है, तो फिर धन्यवाद क्या देना! अभी तो तय करना है कि सच है, तो फिर सोचेंगे।

सच भी हो, तब भी लोग धन्यवाद देने में बड़ी कृपणता करते हैं।

मैंने सुना है, अमरीका में एक बड़ी जौहरी की दुकान, सबसे बड़ी दुकान; उस दुकान के सौ वर्ष पूरे हो गए। तो उस दुकान के मालिकों ने तय किया था कि जो व्यक्ति भी कल सुबह पहला ग्राहक दुकान में प्रवेश करेगा, उसको लाख रुपये का हार भेंट करोंगे। सौ वर्ष दुकान के पूरे हो गए हैं; यह उन्होंने सौ वर्ष की पूर्ति पर समारोह मनाने का आयोजन किया, इससे समारोह शुरू होगा। जो भी पहला ग्राहक प्रविष्ट होगा….।

और दुकान के दरवाजे खुले और एक स्त्री बड़ी तेजी से भीतर प्रविष्ट हुई। उन्होंने बैंड-बाजे बजाए, सबने उसे घेर लिया-दुकान के सभी कार्यकर्ताओं ने। मालिक आया; उसके गले में लाख रुपये का हार पहनाया। मगर वह स्त्री वैसे ही खड़ी रही। समझाया उसे कि हमने यह तय किया था कि एक लाख रुपये का हार भेंट करेंगे, जो भी पहला ग्राहक आएगा; तुम धन्यभागी हो।

तब उन्होंने पूछा कि किसलिए आई हो? तो उसने कहा, ‘शिकायत दर्ज करने।’ अमरीका की बड़ी दुकानों पर शिकायत का रजिस्टर रखा रहता है। ‘शिकायत दर्ज करने’! और वह स्त्री लाख रुपये का हार पा कर भी शिकायत दर्ज करना न भूली। वह लाख रुपये का हार कुछ भी नहीं है!

जैसे ही वह उत्सव-समारोह पूरा हुआ, वह भागी और गई दफ्तर के अंदर और शिकायत के रजिस्टर में, उसे जो शिकायत लिखनी थी, वह लिखी। यह लाख रुपये की भेट भी उसे प्रसन्न न कर सकी! यह लाख रूपये की भेंट भी उसे धन्यवाद देने के लिए तैयार न कर सकी। शिकायत तो करनी ही है। शिकायत होगी कोई छोटी-मोटी। कभी कुछ गहना खरीदा होगा यां कुछ होगा, कुछ शिकायत की बात होगी।

मन शिकायत में पटु है। मन बड़ा वाचाल है शिकायत में।

जब तुम शिकायतें करने लगते हो, तब तुमने देखा कि तुम कितनी कुशलता से बोलते हो! लोगों के दुख सुनो। दुख की बात करते वक्त हर व्यक्ति वक्ता होता है; बड़ी कुशलता से बोलता है। दुख की चर्चा करते वक्त हर व्यक्ति कवि हो जाता है। बड़ी ठीक-ठीक उपमाएं खोजता है।

तुम लोगों का जरा दुख सुनो। घंटों लगा देते हैं! सुनाए ही चले जाते हैं; अंत नहीं आता। सुख में जबान एकदम लड़खड़ा जाती है।

अब तुम पूछते हो कि ‘धन्यवाद देने की इच्छा होती है!’…दबा रहे हो उसको क्या? धन्यवाद देने में इतनी कृपणता क्यों? धन्यवाद तुम्हारा क्या ले जाएगा? धन्यवाद में खोता क्या है? खोता कुछ भी नहीं, मिलता बहुत है। और शिकायत में खोता बहुत है, मिलता कुछ भी नहीं।

मगर तुम अपने दुश्मन हो। तुम काम ही ऐसा करते हो, जो अपने ही साथ घात है–आत्मघात है। इसमें पूछना क्या है? धन्यवाद दे दो! और चैंक कर तुम पाओगे कि जैसे ही धन्यवाद दिया, और आनंद उतरा। क्योंकि धन्यवाद देने का मतलब ही यह होता है कि तुमने, आनंद जो उतरा था, उसे स्वीकार किया–उसके सत्य को स्वीकार किया, उसकी प्रामाणिकता को अंगीकार किया। तभी तो धन्यवाद दे सके।

‘इच्छा होती है कि धन्यवाद दूं, लोकिन पता नहीं कि सच में आनंद बरसता है या कि कल्पना है या कि अतिशयोक्ति!’

अब इसका कैसे पता करोगे? आनंद बरस रहा है।

यह हवाई जहाज गुजर रहा है, यह आवाज सुनाई पड़ रही है (प्रवचन में इसी क्षण ऊपर से हवाई जहाज गुजरा) अब कैसे और पता करोगे कि यह कल्पना तो नहीं है? ये सूरज की किरणें वृक्षों को पार करके तुम तक आ रही हैं, अब कैसे और पता करोगे कि यह कल्पना तो नहीं है? ये पक्षियों के गीत तुम्हें सुनाई पड़ रहे हैं, अब और कैसे पता करोगे कि यह कल्पना तो नहीं है? और क्या उपाय है?

सिर में दर्द होता है, तो तुम जानते हो कि सिर में दर्द है। नासापुटों में फूलों की गंध भर जाती है, तो तुम जानते हो कि सुगंध ने तुम्हे घेरा है। देखते हो, आंख चांद-तारों से भर जाती है, तो जानते हो कि चांद-तारे हैं! और क्या उपाय है?

आनंद के साथ तुम और अतिरिक्त शर्तें क्यों बांधना चाहते हो? इतना काफी नहीं है कि आनंद बरस रहा है, ऐसा तुम्हें अनुभव हो रहा है? इस बरसते आनंद में डूबो। इस बरसते आनंद में पिघलो; खो जाओ। उठने दो अहोभाव को। नहीं तो कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि पहुंचते-पहुंचते आदमी चूक जाता है; करीब आते-आते रुक जाता है। कभी-कभी मंजिल पर एक कदम और, और मंजिल मिल जाती–और आदमी लौट पड़ता है।

मुखालिफ वक्त हो तो बन-बन बिगड़ता है।

सफीना जा पड़ा मझधार में टकरा के साहिल से।

कभी-कभी ऐसा हो जाता है, नाव किनारे से टकरा कर दूर निकल जाती है किनारे से और मझधार में जा कर डूब जाती है। किनारे से टकरा कर मझधार में पहुंच जाती है।

‘सफीना जा पड़ा मझधार में टकरा के साहिल से।’

किनारे पर हो, हिम्मत करो! मैं कहता हूंः हिम्मत करो आनंद को स्वीकार कर लेने की! बड़ी हिम्मत की जरूरत है, तो ही स्वीकार कर सकोगे।

दुख को तो कोई भी स्वीकार कर लेता है। दुख को स्वीकार करने में किसी हिम्मत की कोई जरूरत नहीं। आनंद को स्वीकार करना बड़ी हिम्मत की बात है, बड़े साहस की। क्यांेकि आनंद तुम्हारे अहंकार को मिटा देगा। क्यांेकि आनंद तुम्हारी अब तक की चली आई पुरानी धारा को तोड़ देगा। क्योंकि आनंद तुम्हारे अतीत को पोंछ देगा और एक नये जन्म और एक नये भविष्य की शुरुआत होगी। क्योंकि आनंद में मृत्यु है और पुनर्जन्म है।

हिम्मत करो। स्वीकार करो। आनंद ही बरस रहा है। और तुम धन्यभागी हो कि तुम पर प्रभु का प्रसाद हुआ है। अब इसे इन बातों में मत खो देना। नहीं तो पीछे पछताओगे।

मुखालिफ वक्त हो तो काम बन-बन कर बिगड़ता है

सफीना जा पड़ा मझधार में टकरा के साहिल से।

फिर बहुत पछताओगे, क्योंकि यह किनारा दुबारा मिले, न मिले! तुम कितने दूर निकल जाओ किनारे से, कौन जाने! आज तुम यहां मेरे साथ हो, आज तुम इस हवा में हो, आज ये चारों तरफ नाचते हुए प्रसन्न लोगों का समूह तुम्हें मिला है–फिर दुबारा मिले, न मिले! आज ध्यान का सरगम तुम्हारे भीतर बैठने लगा है; कौन जाने, कल भी ऐसा सौभाग्य हो, न हो! कल की प्रतीक्षा न करो; आज जो हो रहा है, इसे हृदय में भर लो। आलिंगन कर लो! मस्त हो उठो।

खोएगा क्या! समझ लो यही कि कल्पना थी।

कभी-कभी मैं हैरान होता हंू कि अगर यही बात मान ली जाए कि कल्पना है, तो भी कल्पना में सुखी होना ज्यादा बेहतर है, बजाय यथार्थ में दुखी होने के। हालांकि यह कल्पना नहीं है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि चलो यही मान लो कि कल्पना है, तो हर्ज क्या? थोड़ी देर को सुखी अगर कल्पना में भी हो लिए… इतना-सा विश्राम भी नहीं देना चाहते अपने को! दुखी होने की ऐसी जिद कर रखी है!

चलो, कल्पना ही सही, तो थोड़ी देर कल्पना में ही रस ले लो। आज जो कल्पना मंे है, शायद कल यथार्थ बन जाए। यद्यपि

दोहरा दूं कि कल्पना नहीं है। और तुम से यह भी कह दूं कि तुम्हारे सब दुख कल्पना हैं; और आनंद कल्पना नहीं है।

इसीलिए ज्ञानियों ने आनंद को स्वभाव कहा है। स्वभाव का मतलब होता हैः जो तुम्हारे भीतर पड़ा ही है। और दुख पर-भाव है। है नहीं तुम्हारे भीतर, माना हुआ है; तुम्हारी मान्यता है। किसी आदमी ने कुछ कहा, तुमने समझा कि अपमान हो गया और तुम

दुखी हो गए। कोई रास्ते पर खड़ा हंस रहा था और हो सकता है किसी और बात पर हंसता हो, तुम समझे कि तुम पर हंस रहा है और तुम दुखी हो गए।

दुख बाहर से आता है। आनंद भीतर से आता है। दुख दूसरों की तरफ से आता है। दुख संसार से आता है और आंनद स्वयं से। दुख कल्पना है, क्योंकि जो भी तुम बाहर से ले लेते हो, वह वस्तुतः तुम्हारा नहीं है। ये बाहर की दी गई गालियां भी पड़ी रह जाएगी, सम्मान भी पड़े रह जाएंगे। बाहर का कोई बहुत मूल्य नहीं है। बाहर–ज्यादा से ज्यादा तुम्हारी सतह को छूता है।

जैसे सागर पर लहरें उठती हैं, हवा के उत्तुंग वेग आते हंै और सागर में लहरें फैल जाती हैं–लेकिन सतह पर ही फैलती हैं लहरें। सागर गहराई में तो शून्य है, मौन है; वहां कोई तरंग नहीं है; वहां कोई हालचल नहीं है; वहां कोई परिवर्तन नहीं है। वहां शाश्वत का वास है। वहां समाधि की दशा है।

ऐस ही तुम्हारी हालत है। तुम्हारी आत्यंतिक गहराई में सब शांत है, सब मौन है, सब आनंद से भरा है। सिर्फ तुम्हारी सतह पर…। उस सतह का नाम ही मन है। वहीं बाहर के झंझावात आ जाते हैं, आंधियां आ जाती हैं और तुम्हें आंदोलित कर जाता है।

दुख उधार है। आनंद स्वयं का है।

आनंदित अगर कोई होना चाहे, तो अकेले में भी हो सकता है; दुखी होना चाहे, तो दूसरे की जरूरत है। इस बात को तुमने कभी खोजा कि दूसरे के बिना आदमी दुखी नहीं हो सकता। दूसरा चाहिए ही दुख के लिए।

तुम अपने दुखों की तलाश करना। तुम पाओगेः सब दुख दूसरे से जुड़े हैं। ऐसा कोई दुख नहीं है, जो दूसरे से न जुड़ा हो। कोई धोखा दे गया; किसी ने गाली दे दी; कोई तुम्हारे मन के अनुकूल न पड़ा; किसी ने ऐसा व्यवहार किया, जैसी अपेक्षा न थी–सब दुख दूसरे से जुड़े हैं। और आनंद का दूसरे से कोई संबंध नहीं है। आनंद स्व-स्फूर्त है। इसलिए हिमालय की गुफा में बैठा हुआ आदमी भी आनंदित हो सकता है। दुखी होना हो, तो बाजार में आना जरूरी है। वहां बैठे-बैठे दुखी नहीं हो सकता।

इसलिए लोग अगर जंगल में भागने लगे, तो अकारण नहीं। वह इसीलिए कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी; दूसरे को छोड़ कर भाग जाओ। दूसरा बचेगा ही नहीं, तो फिर कैसा दुख!

लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि दूसरे को छोड़ कर तुम भाग गए तो शायद दुखी तो तुम न होओ, यह तो हो सकता है; लेकिन आनंदित भी तुम न हो पाओगे। क्योंकि दूसरे को छोड़ कर भागे हो, तो दूसरे का डर तो बना ही हुआ है। और जिसको छोड़ कर भागे हो, उसकी तंरगें मन में घूमती रहेंगी। जिसको छोड़ कर आ गए हो, वह मन में खड़ा रहेगा।

तो अक्सर ऐसा हो जाएगा, जंगल में भाग गए आदमी को…

आज न कोई दूर न कोई पास है

फिर भी जाने क्यांे मन आज उदास है?

आज न सूनापन भी मुझसे बोलता

पात न पीपल पर भी कोई डोलता

ठिठकी-सी है वायु, थका-सा नीर है

सहमी-सहमी रात, चांद गंभीर है

गुप-चुप धरती, गुम-सुम सब आकाश है

फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?

आज शाम को झरी नहीं कोई कली

आज अंधेरी नहीं रही कोई गली

आज न कोई पंथी भटका राह में

जला पपीहा आज न प्रिय की चाह में

आज नहीं पतझार, नहीं मधुमास है।

फिर भी जाने क्यों मन आज उदास है?

आज अधूरा गीत न कोई रह गया

चुभने वाली बात न कोई कह गया

मिल कर कोई मीत आज छूटा नहीं

जुड़ कर कोई स्वप्न आज टूटा नहीं

आज न कोई दर्द न कोई प्यास है

फिर भी जाने क्यांे मन आज उदास है?

तो दुखी तो न रह जाओगे, अगर संसार से भाग गए–उदासी हो जाओगे।

संसार छोड़ कर भागने का प्रश्न नहीं है। वह तो नकारात्मक बात हुई। विधायक बात है–परमात्मा को अपने में निमंत्रित कर लेना। इसकी बजाय कि तुम हिमालय की गुफा में जाओ, हिमालय की गुफाओं को अपने हृदय में बसाओ। इसकी बजाय कि तुम हिमालय की शांति और शीतलता खोजो, हिमालय की शांति और शीतलता को अपने भीतर आमंत्रित करो, बुलाओ। वह तुम्हारे भीतर बसे। हिमालय तुम्हारे भीतर बस जाए; फिर तुम बाजार में रहो, व्यवसाय में रहो, भीड़-भाड़ में रहो–कोई अंतर न पड़ेगा।

आनंद निश्चित बरस रहा है, लेकिन इतना नया है कि तुम जो भी जानते हो, उससे उसका कोई तालमेल नहीं बैठता। तो चलो यही मान लो कि अभी कल्पना है। कल्पना भी मानो, मगर स्वीकार करो। कल्पना भी क्या बुरी! आनंद की कल्पना है। शायद यही आनंद की पदचाप हो, जो अभी पदचाप की तरह दूर सुनाई पड़ती है, वह धीरे-धीरे पास आती जाएगी। जो अभी स्वप्न है, कल सत्य हो सकता है। मगर सत्य करने के मार्ग पर पहली जरूरत है कि उसे तुम स्वीकार करो, अंगीकार करो। तो ही तुम्हारे भीतर बीजारोपण होगा। तो ही तुम बदलोगे।

लेकिन हमारी पुरानी समझ हमें गलत व्याख्याओं में ले जाती।

मैंने सुना है प्रेमिका बार-बार मुल्ला नसरुद्दीन से कह रही थीः ‘तुम डैडी से कहना कि तुम मुझसे विवाह करोगे।’ पर मुल्ला था कि चुप। ऐसा चुप कि जैसे न सुन सकता है, या कि बोल नहीं सकता, गूंगा है; बहरा है कि गंूगा है। अंत में प्रेमिका ने झल्ला कर कहाः ‘कहो न, डैडी से कहोगे, बेवफूक!’ इस पर मुल्ला खूब खुश हो गया और खुश होकर बोलाः ‘कहंूगा, जरूर कहूंगा!’ ‘क्या कहोगे?’–प्रेमिका उल्लासित हो कर बोली।

‘बेवफूक’–मुल्ला ने कहा। अपनी व्याख्या है। अपने चुनाव हैं।

आनंद बरस रहा है, उसे तो तुम नहीं स्वीकार कर रहे; तुम एक नयी चिंता पैदा कर रहे हो कि कहीं यह कल्पना तो नहीं है! तुम संदेह उठा रहे हो । संदेह के धुंए में खो जाएगा। संदेह का बादल जोर से घिर गया, तो यह रोशनी की किरण फिर दिखाई न पड़ेगी। सूरज ढंक जाता है बादलों में, तो यह तो चांद अभी बहुत छोटा-सा है, तुम्हारे भीतर जो उगा है आनंद का; संदेह के बादलों में छिप जाएगा। भरोसा करो।

और हर्ज क्या है? खो क्या जाएगा? आनंद पर भरोसा करने में खो क्या सकते हो? हर्ज क्या हो सकता है? दुख पर भरोसा मत करो। दुख पर भरोसा करने में सदा कुछ खोता है।

लेकिन दुख पर भरोसा करने को तुम सदा तैयार हो और आनंद पर भरोसा करने को कभी तैयार नहीं।

इधर यह बात रोज घटती है। यह प्रश्न तुम्हारा ही नहीं है, अनेकों का है। कोई न कोई रोज आ कर कहता है कि बड़ी शांति मिल रही है; मगर शक होता है कि यह सच है! कोई कभी आ कर कहता हैः बड़ी मस्ती छा रही है; मगर शक होता है कि कहीं मैं अपने को भुलावा तो नहीं दे रहा!

तुमने इतने भुलावे दिए हैं अब तक कि तुम्हें लगता है कि तुम शायद यह भुलावा भी अपने को दे लोगे। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि कोई आज तक अपने को आनंद का भुलावा नहीं दे सका। यह असंभव है।

आनंद का भुलावा हो ही नहीं सकता। क्योंकि जो भुलावा देने वाला मन है, उसमें आनंद होता ही नहीं। भुलावा देने वाला मन केवल नये-नये दुख खोजता है। भुलावा दुखों को खोजने की व्यवस्था है।

इसलिए डरो मत। भयभीत न होओ। पुराने मन को बीच में न आने दो। नया अतिथि आया है, उसे अंगीकार करो। उसे भीतर ले जाओ। उसे हृदय के सिंहासन पर विराजमान करो।

दूसरा प्रश्न: भी पहले से थोड़ा जुड़ा है, इसलिए साथ-साथ ले लें। पूछा हैः मैं अत्यंत उदास क्यों हूं, यद्यपि उदासी का कोई भी कारण नहीं है?’

शायद इसीलिए।

उदासी का कारण भी हो तो आदमी को समझ में आता है कि चलो कारण तो है; कम से कम कारण तो है, इसलिए उदास हूं। बहाना तो है। कोई पागल तो न कह सकेगा। बता सकता हूं कि पत्नी मर गई, कि बेटा जेल चला गया, कि दुकान डूब गई, दिवाला निकल गया।

तो उदासी में तर्क है। तर्क है तो तुम सुरक्षित हो। तुम यह कह सकते हो कि उदास होना बिलकुल स्वाभाविक है। कर भी क्या सकता हूं? तुम्हारी पत्नी मरती, तो तुम भी उदास होते। और तुम्हारी दुकान का दिवाला निकलता, तो तुम भी रोते। तो कोई मैं ही रो रहा हूं, ऐसा नहीं है।

तो तुम्हारे आंसुओं के लिए तुम तर्क दे सकते हो। सबसे बड़ी उदासी तो तब होती है, जब उदास होने का कोई कारण भी नहीं होता। तब बड़ी बेबूझ बात हो जाती है। तब तुम कह भी नहीं सकते कि क्यों उदास हूं। अपनी उदासी की रक्षा भी नहीं कर सकते। अपनी उदासी के लिए तर्क भी नहीं जुटा सकते। तब तुम बिलकुल असहाय हो जाते हो। ऐसा भी होता है।

ऐसे होने के पीछे कई कारण हैं। एकः तो हो सकता है कारण आज ना हो, लेकिन जिंदगी भर तुम उदास ही उदास रहे, तो

उदास होना तुम्हारी आदत हो गई। ऐसा बहुत बार हो जाता है कि क्रोधी आदमी को क्रोध की आदत हो जाती। फिर क्रोध का कारण न हो, तो भी उसको तो क्रोध करना ही है। वह तो बिना क्रोध किए नहीं रह सकता। वह तो कोई न कोई उपाय खोजेगा।

तुम सब ऐसे आदमियों को जानते हो, जो क्रोध के लिए उपाय खोजते रहते हैं। क्रोध भीतर है। अकारण करेंगे, तो पागल समझे जाएंगे। कोई कारण खोज लेना होता है। कोई भी कारण! तुम भी पीछे लौट कर सोचते हो, तो पाते होः कारण पर्याप्त नहीं था–इतने क्रोध के लिए पर्याप्त नहीं था। कारण में और क्रोध में कोई अनुपात नहीं था। तुम भी पीछे पछताते हो कि बात बड़ी छोटी थी!

मेरे पास आ जाता है कभी कोई व्यक्ति और कहता है, ‘बड़ा क्रोध हो गया। पत्नी की पिटाई कर दी; कि अपने बच्चे को पीट दिया। हालांकि इतनो क्रोध करने का कोई कारण न था।’

कारण पूछता हूं, तो कहता हैः ‘कारण न पूछिए। कहता है, कारण तो क्षुद्र था। ऐसा ही था, बेकार था; उसका कोई मतलब भी न था। बात-बात में से बात निकल गई।’

आदत…अगर तुम रोज-रोज क्रोध करते रहे हो, तो तुम्हें आज भी क्रोध की तलाश करनी पड़ेगी। क्रोध की भी तलफ लगती है। जैसे कोई सिगरेट पीता है, हुक्का पीता है, चुरूट पीता है, शराब पीता है–उसकी तलफ लगती है। एक घड़ी आ जाती है, जब उसे पीने के लिए मजबूर होना पड़ता है। हालांकि बात बिलकुल फिजूल हैः धूएं को भीतर ले जाता है, बाहर ले जाता है; किसी मतलब की नहीं है। लेकिन आदत हो गई है, छूटती नहीं।

ऐसे ही क्रोध की आदत हो जाती है। ऐसे ही उदास होने की आदत हो जाती है। थिर हो जाता है एक भाव। स्थायी भाव बन जाता है।

कभी-कभी उदास हो जाने को क्षमा किया जा सकता है। जिंदगी में हजार अड़चने हैं। आदमी कमजोर है। आदमी की सीमाएं हैं। समझ में आती है बातः कभी उदासी भी आ जाती है। कोई मर गया, तो उदास न होओगे तो क्या करोगे? जिस पर बड़ा भरोसा था, वह धोखा दे गया–उदासी स्वाभाविक है। जिसके साथ सोचा था कि जिंदगी भर साथ-साथ रह लेंगे, वह अचानक बीच में विदा हो गया–उदासी स्वाभाविक है। क्षमा की जा सकती है।

क्षणभुंगर भाव क्षमा किए जा सकते हैं। लेकिन धीरे-धीरे होता यह है कि जो क्षणभंगुर भाव है, वे स्थायी-भाव बन जाते हैं। आदमी उदास ही रहने लगता है। उदासी उसको स्वाभाविक हो जाती। उसको हंसते देखना बहुत कठिन है। वह हसंता भी है, तो उसकी हंसी में भी उदासी ही झरती है।

ऐसा ही कुछ हुआ होगा। तुम्हें उदासी का कारण दिखाई नहीं पड़ता–इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि जितने तुम अतीत के दिनों में उदास रहे हो, वे सब उदासियां इक्ट्ठी होती गई हैं। आज उनका ढेर लग गया है। उस ढेर का कोई भी कारण नहीं दिखाई पड़ता। एक-एक बूंद इकट्ठा करते-करते गागर भर गई है। तुमने तो एक-एक बूंद भरी थी, इसलिए गागर कैसे भर गई? गागर के भरे होने का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन कारण तो रहा होगा, क्योंकि इस जगत में अकारण कुछ भी नहीं–चाहे प्रत्यक्ष न हो।

ये दिल अब खराब है

ऐसा खराब कि बर्गे-मुर्सरत तो क्या इसमें खारे-अलम तक नहीं है

न जश्न-ए-बहारां,

न मातम खिजां का

ये दिल अब खराब है लेकिन हमेशा खराब नहीं था

खिले थे यहां फूल भी आरजू के

चुभे थे यहां खार भी जुस्तजू के

ये दिल अब खराब है लेकिन सदा बेनियाजे-बहारो-खिजां तो नहीं था

मैं वो आशिके-रंगो-बू हूं कि जिसने

लहू अपना सर्फे-बहारां किया था।

‘ये दिल अब खराब है!’ अब यह दिल बड़ा खराब हो गया, खंडहर हो गया, उदास हो गया, मरघट हो गया। ऐसा खराब कि बर्गे-मुर्सरत तो क्या, खुशी का पत्ता तो क्या, इसमें खारे-अलम तक नहीं है, दुख का कांटा भी नहीं है–ऐसा खाली हो गया।

दुख भी हो, तो आदमी इतना उदास नहीं होता। कम से कम कुछ तो रहता है करने को; व्यस्त रहने को कुछ तो रहता है हाथ में; उलझन तो रहती है, उपाय तो रहता है–उलझे रहो कहीं, अपने को भुलाए रहो। कभी ऐसी घड़ी आ जाती है कि उदास होने का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। सुखी होने की कोई नजर मिलती नहीं मालूम होती। सुख का कोई द्वार नहीं खुलता। दुख का कोई कारण नहीं दिखता। आदमी बिलकुल बीच में लटक कर रह जाता है–घर का, न घाट का।

न जश्न-ए-बहारां…अब न तो वसंत का कोई उत्सव है; न मातम खिजां का…और न पतझड़ का रोना है। ‘ये दिल अब खराब है, लेकिन हमेशा खराब नहीं था। खिले थे यहंा फूल भी आरजू के!’ कभी यहां वासनाओं के, इच्छाओं के, कामनाओं के फूल भी खिले थे। ‘चुभे थे यहां खार भी जुस्तजू के’…और जीवन के कांटे भी चुभे थे। ‘यह दिल खराब है, लेकिन सदा बेनियाजे-बहारों-खिजां तो नहीं था।’ आज ऐसा है, लेकिन सदा ऐसा नहीं था। ‘मैं वो आशिको-रंगो-बू हूं कि जिसने लहू अपना सर्फे-बहारां किया था।’ और मैं वह प्रेमी हूं, जिसने कभी वसंत पर अपने खून को न्योछावर किया था।

अतीत में झांकना होगा। तुम आज उदास हो, तो अतीत में देखना होगा। तुम्हारा अतीत उदासी को सघन करता गया है। बंूद-बूंद गागर ही नहीं भरती, सागर भी भर जाता है। तुम्हारा अतीत तुम्हारी रात को अंधेरा करता चला गया है। सब तारे छुप गए। आज अचानक कारण नहीं दिखाई पड़ता है, लेकिन कारण पीछे होंगे। तुम्हारी असफल वासनाएं, तुम्हारे वसंतों का पतझारों में बदल जाना, तुम्हारे प्रेम का घृणा में बदल जाना, मित्रों का शत्रु हो जाना–तुम्हारी आशाओं पर सब पानी फिर गया है।

लेकिन यह तुम्हारा ही नहीं है; जिसने पूछा है, उसका ही नहीं है यह मामला–सभी का यही है। एक न एक दिन सभी को ऐसी उदासी आती है। सिकंदरों को भी आती है। जो सब पा लेते हैं, उनको भी आती है। जो हारते हैं, उनको भी आती है। जो जीतते हैं, उनको भी आती है। क्योंकि जीतने पर पता चलता है कि जीतने में कुछ सार नहीं था। व्यर्थ ही मेहनत की। व्यर्थ दौड़े-धूपे। व्यर्थ आपा-धापी की। सब पा कर भी पता चलता है कि कुछ हाथ न लगा, हाथ खाली हैं! हाथ ही खाली नहीं हैं, हृदय भी खाली है। सारा जीवन ऐसे ही मरुस्थल में खो गया। तब एक उदासी घेरती है।

वैसी ही उदासी ने तुम्हें घेरा है। इस उदासी में एक तो तुम्हारा अतीत है। एक कारण खोजना जरूरी नहीं है। तुम्हारा सारा अतीत का इकट्ठा संस्कार उदास तुम्हें कर गया है।

और दूसरी बात, इस उदासी में अभी भी कहीं छिपी हुई भविष्य की आशा है। नहीं तो उदासी टूट जाए। यह तुम्हें समझना थोड़ा कठिन होगा। जब किसी आदमी को तुम निराश देखो, तो यह मत समझना कि उसने आशा छोड़ दी है।

निराश होने का मतलब ही यही होता है कि आशा अभी भी कायम है। हालांकि जिंदगी ने आशा के सब उपाय तोड़ दिए हैं; लेकिन आशा अभी भी कहीं कायम है; नहीं तो बिना आशा के निराश भी कैसे होओगे। जितनी बड़ी आशा होगी, उतनी बड़ी निराशा होती है–उसी अनुपात होती है। अगर किसी आदमी की सारी आशाएं ही छूट गईं, तो फिर निराशा भी नहीं हो सकती; फिर निराशा क्या!

उसी व्यक्ति को हम संन्यस्त कहते हैं, जिसने आशा करना ही छोड़ दिया। और आशा करना छोड़ा, तो आशा की जो छाया है–निराशा–वह भी विदा हो जाती है।

साधारण तर्क तो कहता है कि जब आशा टूटेगी, तो आदमी निराश हो जाएगा। लेकिन वह सच नहीं है। जीवन का अनुभव कुछ और कहता है। अगर आशा सच में ही टूट जाए, आशा का कोई एक धागा भी शेष न रह जाए–अखंड, अविच्छिन्न–तो तुम पाओगे निराशा भी उसी के साथ चली गई।

तुम कहते होः ‘मन उदास है, कारण दिखाई नहीं पड़ता’। तो तुम्हारे मन में अभी भी सुख को पाने की आशा है; अभी भी तुम इस संसार में कुछ बना लेना चाहते हो, कर लेना चाहते हो। हालांकि जिंदगी कहती हैः हो न पाएगा। तुम कर चुके बहुत बार। जो भी घर तुमने बनाए, गिर गए। जो भी मनसूबे तुमने बांधे, असफल हुए। जो भी नाव तुमने चलाई, वह तुमने डूबते देखी।

तुम्हारे जीवन भर का, अतीत भर का अनुभव कहता हैः कुछ हो नहीं सकता। लेकिन तुम्हारे हृदय में छिपी हुई वासना का बीज कहता हैः ‘कौन जाने इस बार करो, और हो जाए! निन्यानबे दफा हार गए हो, लेकिन सौवीं बार आदमी जीत जा सकता है।’

कहीं अभी भी वासना कुलबुला रही है। बहुत गहरे में दबी होगी, क्योंकि अतीत के अनुभव का ढेर लग गया। है उदासी का। लेकिन उस उदासी की राख में कहीं अभी भी वासना का अंगारा है।

रात आई है तो दिलेजार ने सोचा अक्सर

कौन आंखों में सिमट आएगा आंसू बन कर

किसकी जुल्फों के दरीचे से किरन फूटेगी

कब ये जंजीरे-गरां टूटेगी

जाने कब तक इस शबे-तन्हाई से जां छूटेगी।

आज की रात भी शायद न मुझे नींद आए

किसकी आहट है कि बढ़ने लगी दिल की धड़कन

कौन हमदर्द है कि तन्हाई के वीराने में

कौन महबूब है इस शब के सियह-खाने में

किसका पैकर है तसव्वुर के सनम-खाने में

जाने जां तुम हो कि अहसास का बहलावा है

नर्म झोंका है कि आहट है कि खामोशी है

हां, वही हसरत-ओ-मायूसी है।

‘रात आई है तो दिलेजार ने सोचा अक्सर’… रात आती है, तो रोता हुआ दिल सोचने लगता; हारा हुआ दिल फिर भरोसे जगाने लगता; थका-मांदा दिल फिर सपने देखने लगता। सोचता हैः कल सुबह होगी; कल फिर यात्रा पर निकलेंगे।

रोज सांझ, दिन भर की हार के बाद, तुम फिर अपने को जुड़ाने लगते हो, फिर इकट्ठा करने लगते हो। दिन तोड़ जाता है, रात तुम फिर अपने को जोड़ लेते हो। सुबह तुम उठ कर फिर चले बाजार।

रात आई है तो दिलेजार ने सोचा अक्सर

कौन आंखों मे सिमट आएगा आंसू बन कर

किसकी जुल्फों के दरीचे से किरन फूटेगी

और अगर दिन में नहीं मिल सका प्रेमी, नहीं मिल सकी प्रेयसी, नहीं मिल सका जो चाहा था–तो

आदमी सोचता हैः सपने में मिलन हो जाएगा।

कोई आखों में सिमट आएगा आंसू बन कर

किसकी जुलफों के दरीए से किरन फूटेगी

कब ये जंजीरे-गरां टूटेगी

जाने कब इस शबे-तन्हाई से जां छूटेगी

कब ये जंजीरे-गरां टूटेगी

जाने कब इस शबे-तन्हाई से जा छूटेगी

सोचने लगता है, हर हारा-थका आदमीः यह बोझिल जंजीर कब टूटेगी दुख की! और यह एकाकी रात कब तक एकाकी रहेगी! कब प्यारा मिलेगा! कब प्रिय से मिलन होगा?

और फिर जब तुम इस तरह की कामनाओं से भरते हो, तो मन में सपने उठने शुरू हो जाते है।

‘आज की रात भी शायद न मुझे नींद आए

किसकी आहट है कि बढ़ने लगी दिल की धड़कन!’

किसी की आहट नहीं है। कोई न आया है, न कोई आएगा। कोई कभी आता नहीं। तुम अकेले हो। तुम्हारा अकेलापन आत्यंतिक है। दूसरे की तलाश व्यर्थ है। दूसरा न मिलता है, न मिल सकता है।

कुछ भी जो पाया जा सकता है, वह तुम्हारे भीतर है। तुम अपने को ही पा लो, तो सब पा लिया।

‘किसकी आहट है कि बढ़ने लगी दिल की धड़कन!’ किसी की आहट से दिल की धड़कन नहीं बढ़ती है। दिल की धड़कन बढ़ती है, तो तुम आहट को सोचने लगते हो कि कोई आता होगा। कोई मिलने की उम्मीद बनती है।

कौन हमदर्द है कि तन्हाई के वीराने में

कौन महबूब है इस शब के सियह-खाने में!

–कौन प्यारा चला आ रहा है इस अंधेरी रात में! अंधेरा ही अंधेरा है, कोई प्यारा नहीं है।

लेकिन कभी-कभी जब तुम प्रतीक्षा में रत होते हो, तो राहगीर के पैरों की आवाज भी तुम्हें लगती हैः शायद प्यारा आ गया! हवा का झोंका द्वार को हिला जाता है, तुम सोचते होः शायद किसी ने थपकी दी, किसी ने द्वार खटखटाया! सूखे पत्ते रास्ते पर उड़ते है हवा में और खड़खड़ की आवाज होती है, तुम चैंक कर बैठ जाते हो कि शायद प्रेमी आ गया।

इंतजार, वासना से भरा इंतजार, उम्मीदों से भरा इंतजार–बड़ी कल्पनाएं, बड़ी कामनाएं करने लगता है।

कौन महबूब है इस शब के सियह-खाने में

किसका पैकर है तसव्वुर के सनम-खाने में

‘जाने जां, (हे प्रेयसी!) तुम हो कि अहसास का बहलावा है?’ तुम हो कि यह भी मन को बहलाने का एक ढंग है?

‘नर्म झोंका है, कि आहट है, कि खामोशी है?’ यह क्या है? हवा का झोंका है? तेरे पैरों की आवाज है? यह तेरे आने की आहट है कि या सिर्फ रात का सन्नाटा हैे, रात की खामोशी है?

‘हां, वही हसरत-ओ-मायूसी है।’ फिर वही आशा है मन में और फिर वही उदासी है। वही हसरत और मायूसी है।

आशा और निराशा साथ चलते हैं–एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; एक ही पक्षी के दो पंख। एक पंख गिर जाए, तो दूसरा भी व्यर्थ हो जाता है।

तुम उदास हो, तो निश्चित ही तुम्हारे भीतर कहीं अभी आशा का अंगारा दबा पड़ा है। अभी तुम सोचते होः इस जिंदगी से कुछ मिल सकता, अनुभव कहता हैः नहीं मिल सकता, लेकिन अनुभव पर अभिलाषा की जीत होती चली जाती है।

अतीत उदास बना रहा है और भविष्य में अभी भी सोचते होः शायद…शायद ऐसा हो जाए! असंभव भी तो होता है! चमत्कार भी तो घटते हैं।

इस आशा को जाने दो।

इस संसार में कोई चमत्कार नहीं होता। इस संसार में कभी कोई विजय नहीं मिलती। हार यहां भाग्य है। पराजय यहां नियति है। हारते हैं, वे हारते ही है; जीतते हैं, वे भी हारते हैं। असफल तो असफल होते ही हैं; सफल भी असफल होते हैं। इस संसार में हम जो भी करें, वह पानी पर किए गए हस्ताक्षरों से ज्यादा नहीं हैं; बन भी नहीं पाते और मिट जाते हैं।

आशा को पूरा विदा कर दो। और तुम अचानक पाओगेः उस विदाई में उदासी भी गई, निराशा भी गई। और तुम पाओगेः एक शांति उतरने लगी; कोलाहल मिटने लगा; दूसरे की इच्छा न रही। उसी में तुम अंतर्यात्रा शुरू करते हो। अपने भीतर आना हो, तो बाहर से सब आशा-निराशा छूट जानी चाहिए; नहीं तो आंखें भीतर कैसे मुड़ें? कान भीतर कैसे सुनें!

जब तक तुम्हारा मन कहता है, ‘बाहर चलो, कहीं चलो; शायद यहां नहीं मिला राज्य, वहां मिल जाए; शायद यहां सुख नहीं मिला तो वहां मिल जाए’–तब तक तुम भटकते ही रहोगे।

संसार का इतना ही अर्थ हैः बाहर की भटकन। और ध्यान का इतना ही अर्थ हैः बाहर की भटकन गई, तुम अपने भीतर आ गए; अपने घर में विराजे, विश्राम किया। उस विश्राम में ही तुम पाओगे आनंद।

तीसरा प्रश्नः कई बार सोचती हंू कि आपसे कुछ पूछूं, आपसे कुछ कहूं। सवाल उठते भी हैं, प्रश्न बनते भी हैं; लेकिन फिर सोचती हूंः ‘यह पूंछू कि वह पूछूूं? आज पूछंू कि कल पूछूं? आंखों-आंखों से कुछ पूछूं कि कोरा कागज ही भेजूं?’ फिर बात टल जाती है। घड़ी निकल जाती है। और मन की जिज्ञासा मौन प्रतीक्षा में बदल जाती है। अचानक आपके किसी प्रवचन में, किसी मीठी कथा के कथन में, कोई भूला प्रश्न याद आ जाता है, जो उत्तर बन कर मुस्कुराता है।

पहली बातः पूछो या न पूछो, उत्तर दिए जा रहे हैं। उत्तर मैं दे ही रहा हूं। अगर तुमने धैर्य रखा और न पूछा, तो भी उत्तर मिल जाएगा। अधैर्य किया, पूछा, तो भी उत्तर मिल जाएगा।

और मजे की बात यह है कि जब तुम प्रश्न पूछते हो तो जो उत्तर मैं देता हूं, उससे दूसरों को तो शायद उत्तर मिल जाए, तुम्हें शायद ही मिले। क्योंकि पूछने वाले का मन बड़ा तनाव से भरा होता है कि ‘मेरे प्रश्न का उत्तर दिया जा रहा है।’ वही अड़चन हो जाती है? वह डरा रहता है, घबड़ाया रहता है–मैं क्या कहूंगा? मैं चोट करूंगा? हिलाऊंगा, डुलाऊंगा, जगाऊंगा?–क्या करूंगा? फूल की तरह मेरा उत्तर आएगा कि पत्थर की तरह मेरा उत्तर आएगा?

जो पूछता है, वह बेचैन हो जाता है। वह तनाव से भर जाता है। ‘उसका’ उत्तर दिया जा रहा है! और अक्सर वह चूक जाता है। दूसरे शांति से सुन लेते हैं। उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है। प्रश्न तो उनका भी यही है। आदमियों के प्रश्नों में भेद क्या है! वही तो समस्याएं हैं। वही प्रश्न हैं। आदमी-आदमी में कहां बड़े फर्क हैं? अगर फर्क भी होते हैं, तो बहुत अनुपात के होते हैं। किसी को क्रोध ज्यादा है, किसी को काम ज्यादा है; किसी को लोभ ज्यादा है; किसी को मोह ज्यादा है। बस, अनुपात के भेद होते हैं। मात्रा के भेद होते हैं। मूलतः तो प्रश्न वही के वही हैं, क्यांेकि आदमी एक जैसे हैं। अज्ञान एक जैसा है। अंधेरा एक जैसा है। भटकन एक जैसी है।

और उत्तर भी कहां अलग-अलग हो सकते हैं! उत्तर भी एक ही है। प्रश्न तो बहुत होंगे; उत्तर एक ही है। सारे उत्तरों में एक ही आकांक्षा है कि तुम भीतर लौट जाओ; अपने भीतर आ जाओ। अपने को देख लो। अपने को पहचान लो।

यह ‘सुषमा’ ने पूछाः ‘कई बार सोचती हूं आपसे कुछ पूछूं, आपसे कुछ कहूं। सवाल उठते भी, प्रश्न बनते भी; फिर सोचती हूंः यह पूछूं, वह पूछंू? आज पूछूं, कल पूछूं? आंखों-आंखों से पूछूं कि कोरा कागज ही भेजूं?’

इसी में समय निकल जाता होगा। कोई चिंता न करो। उत्तर तो आ ही जाएगा। तुमने नहीं पूछा, तो भी आ जाएगा। मैं उत्तर दे ही रहा हूं। कोई और पूछ लेगा। किसी बहाने उत्तर आ जाएगा।

लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि मन की यह दशा कि इतना भी तय न कर पाए कि पूछूं कि न पूछूं–शुभ नहीं है। पूछना–तो पूछना। नहीं पूछना–तो नहीं पूछना। लेकिन मन की यह डांवाडोल स्थिति को सहारा नहीं देना चाहिए। मन हर चीज में डांवाडोल होता है; छोटी-छोटी चीज में डांवाडोल होता है।

अब क्या हर्जा है पूछ लिया तो? इसमें इतना सोचना क्या है? इतना समय सोचने में खराब क्यांे करना? मन की एक गलत आदत को इस तरह साथ मिलता है, सहयोग मिलता है। फिर मन धीरे-धीरे सोचने में असमर्थ ही हो जाता है। हर बात में विकल्प खड़े हो जाते हैं; ऐसा करूं, ऐसा करूं!

अब यह ‘सुषमा’ ने पूछा है; उसको विकल्प खड़ा हो जाता होगाः ‘आज यह साड़ी पहननी, कि यह साड़ी पहननी! आज यह खाना बनाना, कि यह खाना बनाना! ऐसे छोटे-छोटे विकल्प खड़े हो जाते हैं। और उन छोटे-छोटे विकल्पों में बहुत समय जाया होता है।

जिंदगी को सरल करो। और सरल करना हो, तो मन के विकल्पों को बहुत सहारा मत दो। और धीरे-धीरे मन के विकल्प गिरते चले जाएं, तो निर्विकल्प की दशा करीब आएगी। ये सब विकल्प हैंः ऐसा करूं, वैसा करूं! जो लगे करने जैसा, कर लेना। फिर उस पर और ज्यादा ऊहापोह मत करना।

फिर यह तो प्रश्न की ही बात है। कुछ हर्ज हुआ नहीं जा रहा है पूछा तो, नहीं पूछा तो, कुछ खोया नहीं जा रहा है। पूछना हो, पूछ लेना; नहीं पूछना हो, नहीं पूछ लेना। लेकिन यह डांवाडोल होते मन को सहारा मत देना। नहीं तो यह मन की जड़ आदत हो जाएगी।

लोग मेरे पास आ जाते हैं, वे कहते हैंः ‘संन्यास लें कि ना लें? ‘मैं उनसे कहता हूंः अगर मैं तुमसे कहूं–कुछ भी कहूं–तो तुम्हारा मन सोचेगाः ‘इनकी मानें कि न मानें?’ यही तो मन है–यह जो विकल्प खड़ा कर रहा है। यह फिर भी विकल्प खड़ा कर देगाः ‘आज लें, कल लें?’

आज जो भाव उठा हो, उसमें गुजरो, उसमें जाओ।

एक ही सूत्र मैं देना चाहता हूं–वह यह हैः अगर किसी को हानि न होती हो, तो उसे कर ही लो। उसमें क्या विचार करना है? शुभ करना हो, ता तत्क्षण कर लो। अशुभ करना हो, तो कल पर टालो। पाप को कल पर टालो, पुण्य आज कर लो।

लेकिन आदमी खूब उलटी खोपड़ी है। पाप करना हो, तो अभी कर लेता है! पुण्य करना हो तो कल; सोचता हैः कल कर लेंगे, परसों कर लेंगे। कोई तुम्हें गाली देता है, तो तुम यह नहीं सोचते कि इसको गाली का उत्तर दें कि न दें; कि आज दें कि कल दें। तुम तत्क्षण दे देते हो। तुम एक क्षण नहीं चूकते।

गलत को करने में हम बड़ी तत्परता दिखलाते हैं। दुनिया में निन्यानबे प्रतिशत गलत समाप्त हो जाए, अगर हम जरा-सा भी रुक जाएं।

डेल कारनेगी ने अपना एक संस्मरण लिखा है कि उसे एक पत्र मिला। डेल कारनेगी ने लिंकन के ऊपर एक व्याख्यान दिया था रेडियो पर और उसमें कुछ तारीख की भूल हो गई। तो लिंकन की भक्त किसी महिला ने उसे पत्र लिखा, खूब गालियां दीं–कि ‘तुम्हें जब तारीखों तक का पता नहीं है, तो तुमने यह जुर्रत कैसे की कि तुम रेडिओ पर व्याख्यान करने जाओ? पहले अपनी तारीखें ठीक करो। यह तो छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं। इतना भी तुम्हें पता नहीं है! तुम इसके लिए क्षमा मांगो–सामूहिक। यह लिंकन का अपमान है।’

ऐसा उसने कुछ-कुछ लिखा होगा। डेल कारनेगी भी गुस्से में आ गया पत्र को पढ़ कर। खून खौल गया। उसने भी उत्तर लिखा–उतना ही जहरीला। लेकिन रात हो गई थी। और उस वक्त तो नौकर भी जा चुका था, तो उसने सोचाः सुबह डाल देंगे। चिट्ठी रख कर टेबल पर, सो गया। गाली-गालौज जितनी देनी थी, वे उसने भी दे डाली। निशिं्चत, हलका मन हो कर सो गया। सुबह उठा, लिफाफे में बंद करते वक्त उसने फिर पत्र को पढ़ा। लगाः यह जरा ज्यादती है। बात तो स्त्री की ठीक ही है कि मुझसे भूल तो हुई है। बजाय क्षमा मांगने के मैं और उलटा नाराज हो रहा हूं!

पत्र उसने सरका कर रख दिया, दूसरा पत्र लिखा। दूसरा पत्र लिखते वक्त उसे खयाल आया कि अगर मैंने रात ही यह पत्र पोस्ट करवा दिया होता, अगर नौकर न गया होता, तो…? सुबह में इतना फर्क हो गया। उसने दोनों पत्र देखेः वह जमीन-आसमान का भेद है! तो उसने सोचाः यह दूसरा पत्र भी अभी नहीं डालूंगा। जल्दी तो कुछ है नहीं, सांझ को फिर एक दफा देखूंगा।

सांझ को देखा, तो तीसरा पत्र लिखा। अब तो बहुत फर्क हो गया। फिर तो उसे लगा कि अभी जल्दी क्या है; वह स्त्री कोई पागल नहीं हुई जा रही है मेरे पत्र के लिए! सात दिन रुका। रोज सुबह पढ़ता-बदलता; रोज शाम पढ़ता-बदलता। सातवें दिन जब वह निशिं्चत हो गया कि अब कुछ बदलने को नहीं बचा, लेकिन पत्र का पूरा रूप बदल गया। कहां वह घृणा और जहर से भरा पत्र था; कहां यह मैत्री और प्रेम से भरा पत्र हो गया।

इस पत्र में उसने लिखा था कि मैं अनुगृहीत हूं। और कभी अगर इस गांव आओ, मेरे गांव आओ, तो मेरे घर ठहरना। मिल कर मुझे खुशी होगी। मेरे ज्ञान में वर्धन होगा। लिंकन के संबंध में मैं ज्यादा नहीं जानता; और जानना चाहता हूं। और क्षमा मांगता हूं, जो भूल हो गई।

छह महिने बाद वह स्त्री उसके गांव आई। इस बीच पत्र-व्यवहार होता रहा। उसके घर ठहरी। और तुम हैरान होओगे कि हालत क्या हुई! वह उसकी पत्नी हो गई! ऐसे ही वह प्रेम में पड़ा। वह पहला पत्र… तो सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती थीं दो आदमियों के बीच की।

जब बुरा करना हो, तो थोड़ा ठहराना। कल कर लेना, परसों कर लेना। जल्दी क्या है!

गुरजिएफ का दादा मरा, तो उसने कहा गुरजिएफ से–वह छोटा ही था, नौ साल का था–कि तुझसे मेरी एक ही प्रार्थना और एक ही मेरी आज्ञा है; यही मेरी वसीयत है; मेरे पास देने को कुछ भी नहीं; लेकिन मेरे पिता जब मरे थे, मुझे दे गए थे, और उसने मुझे जीवन में बड़े सुख दिए और बड़े आनंद मैंने जीवन में पाए। तू भी याद रखना। तू अभी छोटा है, खूब याद कर ले, ताकि भूल न जाए।

तो गुरजिएफ ने याद कर लिया। दादा इतना ही कह गया था कि अगर कभी क्रोध आए तो जिस पर क्रोध आ जाए, उससे इतना कहना की मैं चैबीस घंटे बाद आ कर जबाब दूंगा। फिर चैबीस घंटे विचार कर लेना, फिर जबाब दे देना–जैसा भी देना हो।

गुरजिएफ ने लिखा है कि इस एक बात ने मेरी जिंदगी में क्रांति ला दी। क्योंकि चैबीस घंटे बाद जवाब देने जैसा ही न लगा। या तो ऐसा लगा कि उस आदमी ने ठीक ही कहा, तो मैं जा कर क्षमा मांग आया; या ऐसा लगा कि उस आदमी ने बिलकुल झूठ कहा है, तो झूठ के खिलाफ जबाब देने की जरूरत भी क्या है! चैबीस घंटे में वह जरूरत नहीं है।

शुभ करना हो, तो तत्क्षण कर लेना। ऐसा कुछ करना हो जिससे किसी की कोई हानि नहीं हो रही, तो एक क्षण भी सोचने की कोई जरूरत नहीं है।

अब तुम्हें प्रश्न पूछना हो, तो पूछ ही लेना। किसी की कोई हानि नहीं होगी; किसी को लाभ ही हो सकता है। तुम्हारे प्रश्न से शायद किसी को उत्तर मिल जाए। जब किसी दूसरे के प्रश्नों के उत्तर से तुम्हें उत्तर मिलता है, तो तुम्हारे प्रश्न के उत्तर से भी किसी कोे उत्तर मिल सकता है। कंजूसी क्या? पूछ ही लेना।

‘यह पूछंू कि वह पूछूं? आज पूछूं कि कल पूछूं?’

कोई रुकावट तो है नहीं। यह भी पूछो, वह भी पूछो। और आज भी पूछो और कल भी पूछो। कुछ ऐसा थोड़े ही है कि आज पूछ लिया, तो फिर कल नहीं पूछ सकते; यह पूछ लिया, तो वह नहीं पूछ सकते! पूछने की तुम्हें जैसी सुविधा है, दुनिया में शायद किसी को हो। तुम्हारे सारे प्रश्नों का स्वागत है। तुम्हें कुछ पूछना हो, तो पूछो। तुम्हें कुछ कहना हो, तो कहो।

मेरे तुम्हारे बीच संवाद चल रहा है। यह कोई विवाद नहीं है। इसलिए चिंता ही नहीं है।

तुम पूछते हो–जिज्ञासा से, मुमुक्षा से। जब भी मैं देखता हूं कि किसी ने विवाद की दृष्टि से पूछा है, उसका मैं उत्तर ही नहीं

देता हूं, क्योंकि विवादियों में मेरा कोई रस नहीं है।

जब मैं देखता हूंः किसी ने ज्ञान के कारण पूछा है, कि उसको ज्यादा ज्ञान सिर पर चढ़ा है–किसी ने जब इस तरह पूछा कि उसका प्रश्न ‘ज्ञान’ से आ रहा है, तो मैं उत्तर नहीं देता। उसके पास तो ज्ञान है ही, उसे उत्तर की और क्या जरूरत है? उसके पास उत्तर खुद ही है।

जब कोई इस तरह पूछता है कि उसे मालूम ही है, तब मैं उत्तर नहीं देता। लेकिन जब भी कोई इस तरह पूछता है कि उसे मालूम नहीं है, जानने की आतुरता है, प्यास है–तो फिर प्रश्न कैसा भी हो, मैं जरूर उत्तर देता हूं। आज उत्तर न दूं तो कल दूंगा; कल न दूं, तो परसों दूंगा। क्योंकि मैं प्रतीक्षा करता हूं–ठीक क्षण की। जब भी ठीक क्षण आ जाएगा, तुम्हारा प्रश्न उत्तर पाएगा।

पूछ लो, फिर मुझ पे छोड़ दो, फिर जल्दी भी मत करना। कुछ लोग पूछ लेते हैं, फिर वे दूसरे दिन से ही राह देखने लगते हैं। फिर उनको कुछ और सुनाई नहीं पड़ता। उनको अपने प्रश्न की फिक्र लगी रहती है–कि हमारे प्रश्न का उत्तर अभी तक नहीं दिया!

एक संन्यासिनी है–मुक्ता। नैरोबी से आई है। काफी पूछती है। और उसको मैं उत्तर देता नहीं। तो अब तो वह लिखलिख कर पत्र भेजने लगी है कि आप सबके उत्तर देते हैं, मेरे उत्तर क्यों नहीं देते? ‘मेरे’ प्रश्न का क्या?

धैर्य रखो। या तो समय अनुकूल न होगा, या तुम्हारी पात्रता न होगी; या तुमने जो पूछा है, उसका उत्तर पाने की अभी तुम्हें जरूरत न होगी; जब जरूरत होगी, तब मिल जाएगा।

‘आंखों-आंखों से कुछ पूछूं कि कोरा कागज ही भेजूं?’ कुछ भी तो करो। आंखों-आंखों से पूछना है, तो आंखों-आंखों से पूछो। कोरा कागज भेजना है, तो कोरा कागज भेजो। कुछ तो करो। ऐसे बैठे ही बैठे सोच-विचार में ही मत पड़ेे रहो। कुछ लोग होते हैं, ऐसे ही सोच-विचार में जीवन गंवा देते हैं।

मैंने सुना हैः एक गणितज्ञ को दूसरे महायुद्ध में युद्ध पर जाना पड़ा। सभी लोग सेना में भरती किए जा रहे थे, उसे भी जाना पड़ा। वह बड़ा विचारक था, दार्शनिक था। जो जनरल उसकी कवायद देखने गया, वह हैरान हुआ। जो कैप्टन उसे कवायद करवाता था, वह भी परेशान था, क्योंकि कहा जाए ‘लैफ्ट टर्न’, बाएं घूम–वह खड़ा ही रहे। सारी दुनिया बाएं घूम जाए, सारी रेजीमेंट बाएं घूम गई, वह वहीं खड़े हैं! उसका कैप्टन पूछे, ‘आप क्यांे खड़े है?’ वह कहेः ‘मैं सोच रहा हंू कि बाएं घूमूं कि नहीं?’ या घूमने से फायदा क्या? या फिर अभी थोड़ी देर में दाएं घूमना पड़ेगा, तो ये लोग घूम कर फिर दाएं आ जाएंगे; मैं वहीं खड़ा रहूं; इसमें हर्जा भी क्या है?’

कैप्टन बहुत परेशान हुआ। लेकिन वह प्रसिद्ध दार्शनिक था और गणितज्ञ था। एकदम उसको ऐसा कहा भी नहीं जा सकता था। उसका नाम था; ख्यातिलब्ध आदमी था। उसने जनरल को कहा कि आप कर देख लें, अब मैं क्या करूं इस आदमी के साथ! यह तो कोई छोटी आज्ञा भी मानने को राजी नहीं है! यह कहता है कि सोचता हूं, संगत होगी तो मानूंगा। और फिर मैं देखता हूं कि तुम थोड़ी

देर में बाएं घूम कह देते हो, तो फायदा ही क्या है? हम अपनी ही जगह खड़े रहे; लोग फिर अपने वापस उसी जगह आ गए। तो यह बाएं-दाएं घूमने में कुछ सार भी नहीं है।’ इस आदमी की वजह से दूसरे लोग भी कम सुनते हैं मेरी। वे कहते हैं, उससे कहिए! और यह आदमी प्रतिष्ठित है; मैं इसका अपमान भी नहीं करना चाहता।

जनरल ने देखा। उसने कहा कि इसको ऐसा करो कि मैस में भेज दो। चैके में काम करे कुछ; यह काम का नहीं है मिलिटरी में। क्योंकि यह दाएं-बाएं नहीं घूमता। कल इससे कहें, बंदूक चलाओ; यह कहे, ‘क्यों चलाएं? इसने हमारा क्या बिगाड़ा है? इस आदमी को हम क्यों मारें? इसकी पत्नी होगी, बच्चे होंगे। यह हम नहीं करने वाले।’ यह जब दाएंे-बाएं घूमने में झंझट है इसको, तो और तो आगे जाएगा कहां!

इसीलिए तो मिलिट्री में दायंे-बाएं घुमाते हैं। वह परीक्षा है और प्रशिक्षण है–जड़ बनाने का। तुम्हारा सोच-विचार खत्म हो जाए। बाएं घूम, दाएं घूम–घूमाते-घूमाते-घूमाते एक दिन कहा कि बंदूक चलाओ, तो तब तक आदमी खुद ही हो जाता है–मरने-मारने को तैयार। इतना दाएं-बायां घुमाते हैं कि उस आदमी की खोपड़ी में एकदम आग जलने लगती है। वह कहता है कि ‘ठीक, अब कुछ भी कर दो। एक मौका मिला है, अब चूको मत।’ और धीरे-धीरे उसकी बुध्दि और संवेदना क्षीण हो जाती है। फिर वह गोली चला देता है, बम गिरा देता है।

जिस आदमी ने हिरोशिमा पर बम गिराया, उससे जब दूसरे दिन सुबह पूछा, तो उसने कहाः ‘मैं रात निश्चिंतता से सोया, क्योंकि मैंने आज्ञा का पालन किया।’ एक लाख आदमी मर गए और यह आदमी रात निश्चिंतता से सोया। इसकी बुद्धि बिलकुल क्षीण हो गई। इसने एक भी बार रात यह नहीं सोचा कि एक लाख आदमी! मेरे बम गिराने से राख हो गए!

अपार पीड़ा झेली उन्होंने। नरक भी फीका है उस पीड़ा के सामने। छोटे बच्चे थे, निरीह बच्चे थे। गर्भ में थे बच्चे, वे भी जल कर राख हो गए! स्त्रियां थी, जिन्होंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। नागरिक थे। क्योंकि हिरोशिमा कोई मिलिटरी कैंप नहीं था–आम आदमियों की बस्ती थी। लेकिन इस आदमी को निशिं्चतता रहीं; रात आराम से सोया; काम पूरा कर आया! जो आज्ञा मिली थी, पूरी कर दी।

इस आदमी के साथ जो दूसरा आदमी बैठा था, जिसका जुम्मा था कि वह बताएगा, कब गिराया जाए, जो सिग्नल देगा बम गिराने का–वह आदमी नहीं सो सका रात भर। रात भर क्या, वह तीन महीने तक नहीं सो सका। वे जो लपटें उसने देखी थी, वह जो चीख-पुकार सुनी थी!–उसने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। उसके मन में यह घाव इतना गहरा लगा और उसे पता नहीं था कि यह जो आज्ञा दे रहा है, यह एटम बम गिरेगा। इसका उसे कुछ पता नहीं था कि यह जो आज्ञा दे रहा है, यह एटम बम गिरेगा। इसका उसे कुछ पता नहीं था। वह तो हमेशा ही साथ होता था, बम गिराने के लिए आज्ञा देता था। जैसे साधारण बम थे, उसने सोचा यह भी साधारण बम है। उसे कुछ पता ही नहीं था। उसे तो सिर्फ सिग्नल देना था कि यह ठीक जगह आ गई, अब बम गिरा दो।

बम में क्या है–साधारण बम है कि एटम बम है–इसे कुछ पता नहीं था। यह तो दूसरे दिन से उसे पता चला कि जो भयानक कांड़ हो गया है, उसमें मेरा भी हाथ है। वह बड़ा उद्विग्न हो गया। उसने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और अमरीका में प्रचार करने लगा जा-जा कर, गांव-गांव–अणुबम के विरोध में–अणु-बम पर पांबदी लगनी चाहिए। और उसकी बात का बल था, क्योंकि उस आदमी ने हिरोशिमा अपनी आंख से देखा था। नीचे उठती लपटें और चीख-पुकार और वह नरक! वह तांड़व नृत्य मृत्यु का! उसकी बात में बल था। सरकार थोड़ी भयभीत हुई। उसकी बात लोग सुनते थे, गौर से सुनते थे। सरकार ने एक आयोग नियुक्त किया बीस मनोवैज्ञानिकों का। और उन मनोवैज्ञानिकों के आयोग ने उस आदमी को पागल करार देकर पागलखानें में रख दिया।

अब यह बड़ी अजीब बात हुई! पहला आदमी पागल, मालूम होता है, जिसने एक लाख लोग मार ड़ाले और रात, कहता है, मैं निशिं्चत से सोया, क्योंकि आज्ञा पूरी कर दी। यह दूसरा आदमी पागल नहीं है, मगर सरकार इसको पागल घोषित करवाती है।

इस दुनिया में अगर तुम्हारे पास हृदय है, तोे तुम पागल समझे जाओगे। अगर तुम्हारे पास संवेदनशीलता है, तो तुम पागल समझे जाओगे। यह दुनिया बड़ी अजीब है। यहां पागल राजनेता बने बैठे हैं! यहां पागलों के गिरोह राजधानियों में अड़ड़ा जमाए बैठे हैं!

तो वह दार्शनिक आदमी था। ‘बाएं घूम, दाएं घूम’–सुनता नहीं था। कहताः सोचंूगा, विचारूंगा, फिर करूंगा। बिना सोचे-विचारे तो कोई कृत्य कैसे किया जाए!

उसे भेज दिया गया किचन में। जनरल उसके पीछे आया और उसने कहा, तुम एक छोटा सा काम करो। ये देखते हो मटर के

दाने; बड़े-बड़े एक तरफ कर दो छोटे-छोटे एक तरफ कर दो। दो ढेरी लगा दो।

दो घंटे बाद लौट कर आया देखा कि वह आदमी वहीं बैठा है–सिर पर हाथ लगाए। मटर के दाने वैसे ही एक ढेरी में पड़े हैं। जनरल ने पूछाः ‘अब यह क्या कर रहे हो? अभी तक कुछ शुरू नहीं किया! काम बहुत कठिन है?’

उसने कहाः ‘बहुत कठिन है। क्योंकि कुछ बड़े हैं, कुछ छोटे हैं, कुछ मझोल हैं। और मझोल को कहंा करना। इस तरफ–कि उस तरफ?’

ऐसे ही ‘सुषमा’ का प्रश्न हैः ‘आंखों-आंखों से पूछूं कि कोरा कागज भेजूं? यह पूछूं कि वह पूछूं? आज पूछूं कि कल पूछूं?

अगर किसी का अहित न होता हो, तो देर की कोई भी जरूरत नहीं है। और किसी का अहित होता हो, तो जितनी देर कर सको, उतनी जरूरत है। अगर बम गिराना हो, तो खूब सोचना कि गिराऊं कि न गिराऊं। मटर के दाने ही अगर करने हैं अलग, क्या फर्क पड़ता है कि एकाध मझोल इस तरफ चला गया कि उस तरफ चला गया!

निर्दोष कुछ कृत्य हो, तो देर की जरूरत नहीं है। निर्दोष कृत्य में चिंतन को लाने से देर होगी। दोषी कृत्य में चिंतन को ले आओ। दोष को करने पहले खूब सोचो; और तुम दोष से मुक्त हो जाओगे, क्योंकि कभी न कर पाओगे। और अगर तुमने पुण्य को करने के लिए बहुत सोचा-विचारा, तो तुम पुण्य से छूट जाओगे, तुम पुण्य कभी न कर पाओगे।

शबनमी पलकें उठा लूं या झुका लूं

रश्मियों में चांद की किसका निमंत्रण मिल रहा है

कौन है जो दूर हो कर भी किसी क ो छल रहा है

अनमिले वरदान की कुछ चाह ऐसी आ गई है

प्यार से तुमको बुला लूं या सजा लंू

शबनमी पलकें उठा लूं या झुका लंू!

कल्पनाओं में पलें अरमान मन को छटपटाते

चीर नभ का तम, सजीले मेघ रह-रह मुस्कराते

याद धुंधली पड़ गई है, आज फिर भी कसमसाती

दीप आशा का बुझा लूं या जला लूं

शबनमी पलकें उठा लूं झुका लूं!

जानती मैं भी नहीं, पर चाहती तुमको बताना

भोर की पलकें उनींदी देखती सपना सुहाना

मांग में सिंदूर भर उषा चली रवि को रिझाने

स्वप्न की हर बात कह दूं या छिपा लूं

शबनमी पलकें उठा लूं या झुका लंू!

नहीं, इसी सोच-विचार में ‘सुषमा’ उलझी खड़ी मत रहो। समय के ये क्षण बहुमूल्य हैं, जो तुमने मेरे पास बिताए। इनको व्यर्थ के विकल्पों में नष्ट मत करो। मेरे साथ निर्विकल्प हो कर रहो।

और निर्विकल्प होने का एक ही उपाय हैः शुभ हो–करने में देरी मत करना।

मन की यह डांवाड़ोलपन स्थिति को समाप्त करना है। और जिस दिन मन का डांवाड़ोलपन समाप्त हो जाता है, उसी दिन मन भी समाप्त हो जाता है। क्योंकि मन यानी डांवाड़ोलपन।

तुमने देखा, सागर में लहरें उठ रही हैं! बवंड़र है, तूफान है। फिर लहरें खो गई, शांत हो गई। फिर तुमसे कोई पूछे कि अब तूफान कहां है, तो क्या कहोगे? क्या तुम ऐसा कहोगे कि तूफान अब शांत हो गया है? यह बात ठीक नहीं होगी। तूफान अब नहीं ही है; शांत क्या हो गया है? तब था, अब नहीं है।

ऐसा ही मन हैः डांवाड़ोलपन, तरंगे, यह-वह, विकल्प, हजार-हजार विकल्प, हजार-हजार रास्ते! और आदमी ठिठका खड़ा है; कंप रहा हैः यह करूं, वह करूं! ऐसा ही मन है। जिस दिन तुम पाओगेः यह करने का डांवाड़ोलपन समाप्त हो गया उसी दिन मन भी समाप्त हो गया। फिर सागर है–तरंग रहित।

ऐसा समझोः मन तुम्हारी डांवाड़ोलपन दशा का नाम है; और आत्मा तुम्हारी शांत दशा का नाम है। तुम वही हो। जब डांवाड़ोल हो जाते हो, तो मन बन जाते हो। जब डांवाड़ोलपन चला जाता है, तो आत्मा बन जाते हो।

आत्मा और मन एक ही ऊर्जा की दो दशाए हैं।

लेकिन प्रश्न प्यारा है। चलो, इतना तो पूछा! यह भी पहली बार ही पूछा है। इस बार तो हिम्मत की। कुछ खास इसमें पूछा नहीं है, लेकिन पूछा तो! यह प्रश्न लिख कर तो भेजा!

प्रश्न प्रेमपूर्ण है।

अक्सर ऐसा होता है कि जिनकी बुद्धि बहुत-बहुत विचारो से भरी है, उन्हंे प्रश्न पूछना आसान होता है। लेकिन जब प्रश्न हृदय से उठते हैं, तो वे कठिन होते हैं। पहले तो वे बनते ही नहीं, ठीक-ठीक शब्दों में अंटते नहीं। शायद इसीलिए सुषमा सोचती होगीः आंख ही आंख से पूछूं, कि कोरा कागज भेज दूं? क्योंकि हृदय के प्रश्न भाषा में आते नहीं। प्रेम भाषा में नहीं आता। आता है, तो ऐसा लगता है–बहुत अधुरा आया। अंग-भंग हो जाता है। खंडित हो जाता है। किसी तरह भाषा में समा भी दो, तो ऐसा लगता हैः जो समाने चले थे, वह तो नहीं समाया; यह कुछ और हो गया। रूप बदल जाता है।

ऐसे ही जैसे तुम, अभी सूरज की रोशनी बरसती है, पक्षियों के गीत हैं, हवाओं में गंध है–इस सबको एक पेटी में बंद कर लो और घर ले जाओ और घर जा कर पेटी खोलो, वहां कुछ भी नहीं मिलेगाः न सूरज की किरणें, न पक्षियों के गीत, न हवा की सुवास; कुछ भी नहीं–खाली पेटी! हालांकि तुमने जब पेटी बंद की थी, तो सूरज की किरणें पड़ रही थी पेटी पर; हवा की गंध उड़ रही थी; पक्षियों के गीत हवा में थे; सब था; लेकिन जब पेटी बंद करके ले गए, तो पेटी में कुछ भी न आया।

शब्द ऐसे ही हैं; उनमें प्रेम नहीं बंध पाता। प्रेम बड़ा सूक्ष्म; शब्द बड़े स्थूल।

इसलिए भक्त रोता है; कह नहीं पाता। आंसू से कहता है। इसलिए भक्त नाचता है; कह नहीं पाता। नृत्य से कहता है। इसलिए भक्त बोलता नहीं; मौन हो जाता है। मौन से कहता है।

जो प्रेमी की पीड़ा है, वही भक्त की पीड़ा है–हजार गुनी हो कर।

तुम को बांध चुकी हूं मन में

संध्या की बेला यह सूनी

आकुलता बढ़ जाती दूनी

रवि भी बंधा हुआ है देखो

अपनी किरणों के बंधन में

तुम को बांध चुकी हूं मन में।

बैठ नीड़ में चोंच मिला कर

अपने उर में स्वर्ग बसा कर

पक्षी कहतेः जान गए हम

सुख से रहना इस जीवन में

तुमको बांध चुकी हूं मन में।

बांध तुम्हें क्या, मुक्त बनी मैं

पीड़ाओं की बनी धनी मैं

समझोगे तब, खो जाऊंगी

जब मैं अपने सुनेपन में

तुमको बांध चुकी हूं मन में!

प्रेम बांधता है–मनुष्य को मनुष्य से; सीमा से। तब भी भाषा असमर्थ हो जाती है–उस मिलन को भी प्रगट करने में असमर्थ हो जाती है। लेकिन जब कोई परमात्मा के प्रेम में पड़ता है, तब तो सीमा का असीम से मिलन होता है; सान्त का अनन्त से मिलन होता है। तब तो बात और मुश्किल हो जाती है।

तो कुछ हर्ज नहीं है, अगर कभी कोरा कागज भी भेज दो। मैं समझूंगा; मैं पढ़ लूंगा। और कुछ हर्ज नहीं है, अगर कभी आंखों-आंखों से कह दो। कुछ हर्ज नहीं है–कभी रो कर, कभी नाच कर, कभी गुनगुना कर कह दो। कुछ हर्ज नहीं है–कभी चुप रह कर कहो। मगर कहो। डांवाडोल मत होते रहो। निर्णायक बनो। निर्णय लेते-लेते, थिर होते-होते, मन एक दिन विसर्जित हो जाता है।

अखिरी प्रश्नः आपकी बातें सुनता हूं, तो प्रभु-खोज के विचार उठते हंै। लेकिन समझ नहीं पड़ता कि कहां से शुरू करूं!

कहीं से भी शुरू करो–शुरू करो। परमात्मा सब तरफ है। जहां से भी शुरू करोगे, उसी में शुरू होगा। कहां से शुरू करूं–इस प्रश्न में मत उलझो। क्योंकि परमात्मा तो एक तरह का वर्तुल है। इसलिए तो दुनिया में इतने धर्म हंै, क्योंकि इतनी शुरुआतें हो सकती हंै। दुनिया में तीन सौ धर्म हंै। दुनिया में तीन हजार भी धर्म हो सकते हंै, तीन लाख भी हो सकते हैं, तीन करोड़ भी हो सकते हैं। दुनिया में असल में उतने ही धर्म हो सकते हैं, जितने लोग हैं। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की शुरुआत दूसरे से थोड़ी भिन्न होगी। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति दुसरे से थोड़ा भिन्न है।

कहीं से भी शुरू करो। इस प्रश्न को बहुत मूल्य मत दो। मूल्य दो शुरू करने को। शुरू करो। और ध्यान रखो कि जब भी कोई शुरू करता है, तो भूल-चूक होती है! कहां से शुरू करूं–यह बहुत गणित का सवाल है। इसमें भय यही है कि कहीं गलत शुरुआत न हो जाए; कि कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए! कहां से शुरू करूं!

अगर बच्चा चलने के पहले यही पूछे कि कहां से शुरू करूं, कैसे शुरू करूं, कहीं गिर न जाऊं, घुटने में चोट न आ जाए, तो फिर बच्चा कभी चल नहीं पाएगा। उसे तो शुरू करना पड़ता है। सब खतरे मोल ले लेने पड़ते हैं। सब भय के बावजूद शुरू करना पड़ता है। एक दिन बच्चा उठ कर जब खड़ा होता है पहले दिन, तो असंभव लगता है कि चल पाएगा। अभी तक घसिटता रहा था, आज अचानक खड़ा हो गया।

मां कितनी खुश हो जाती है, जब बच्चा खड़ा होता है! हालांकि खतरे का दिन आया। अब गिरेगा। अब घुटने तोड़ेगा। अब लहू-लुहान होगा। सीढ़ियों से गिरेगा। अब खतरे की शुरुआत होती है। जब तक घसिटता था, खतरा कम था, सुरक्षा थी। मगर सुरक्षा में ही कब तक कैद रहोगे!

बच्चे को चलना पड़ेगा। खतरा मोल लेना पड़ेगा; अन्यथा लंगड़ा ही रह जाएगा। और कई बार गिरेगा…।

जब बच्चा पहली दफा बोलना शुरू करता है, तो तुतलाता ही है; कोई एकदम से सारी भाषा का मालिक तो नहीं हो जाएगा! कौन कब हुआ है! तुतलाएगा। भूले होंगी। कुछ का कुछ कहेगा; कुछ कहना चाहेगा, कुछ निकल जाएगा। लेकिन बच्चे हिम्मत करते हैं–तुतलाने की। इसलिए एक दिन बोल पाते हैं। तुतलाने की हिम्मत करते हैं, इसलिए एक दिन कालिदास और शेक्सपीयर भी पैदा हो पाते हैं। तुतलाने की कोशिश करते हैं, इसलिए एक दिन बुद्ध और क्राइस्ट भी पैदा हो पाते हैं।

तो तुम जब शुरू करोगे, तो यह तुतलाने जैसा होगा। इसमें तुम पूर्णता की अपेक्षा मत करना। यह तो अभी घसिटते थे,अब उठ कर खड़े हुए–खतरनाक है। भूल-चूक होने ही वाली है। भूल-चूक होगी ही। जो भूल-चूक से बचना चाहेगा, वह कभी चल न सकेगा, बोल न सकेगा। वह जी ही न सकेगा।

अक्सर ऐसा हो जाता है कि भूल-चूक से बचने वाले लोग वंचित ही रह जाते हैं–जीवन की संपदा से। दुनिया में एक ही भूल-चूक हैंः और वह भूल-चूक है, भूल-चूक से बचने कि अतिशय चेष्टा।

तुम पूछते होः ‘आपकी बाते सुनता हूं, तो प्रभु-खोज के विचार उठते हैं। लेकिन समझ नहीं पड़ता कि कहां से शुरू करूं।’

कहीं से भी शुरू करो। मस्जिद से शुरू करो, मंदिर से शुरू करो, गुरुद्वारे से शुरू करो, मूर्ति से शरू करो। कुरान-गीता, वेद-पुरान, कहीं से शुरू करो। नदी-पहाड़ पत्थर, किसी की पूजा से शुरू करो। मगर शुरू करो। अगर तुम मेरी सलाह मानना चाहते हो तो मैं कहूंगाः प्रकृति से शुरू करो। क्योंकि प्रकृति में ही परमात्मा छिपा है। वृक्षों-फूलों को देखो; चांद-तारों को देखो; नदी-सागरों को देखो। परमात्मा इन सब में छिपा है। यहीं तलाशो।

तो पहला परमात्मा का कदम प्रकृति से उठाओ। प्रकृति में दिख जाए, तो फिर सब जगह दिखाई पड़ने लगेगा।

अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि टेनीसन ने कहा है…एक फूल को देखा खिला हुआ और एक आश्चर्यजनक स्थिति में देखा खिला हुआ। एक पत्थरों की दीवाल में, जरा सी पत्थरों के बीच में संध थी, उसमें से फूल निकल आया था। चैंक कर खड़े हो गए टेनीसन और उन्होंने अपनी डायरी में लिखाः अगर मैं इस एक फूल को समझ लूं पूरा-पूरा, तो मुझे सारा अस्तित्व समझ में आ जाएगा। और परमात्मा की सारी लीला भी। एक फूल में सब छिपा है। एक फूल में!

सरेशाम फिर बाग में आ गया हूं

इसी मखजने-रंगो-बू की लगन में

की जिसने कभी रूह को ताजगी, कैफो-मस्ती की दौलत अता की

फजां को दिलोवेजी-ए-जाविदा दी

निगाहों को हुस्ने-तलब के नये जाविए

दिल को तहजीबे-जजबात दे कर

रिवायत से प्यार करना सिखाया

यहां कासनी ऊदे-ऊदे, गुलाबी, शहाबी

सभी फूल हैं

सब्जाजारों में जाएं तो बेले की खुशबू

फरावां-फरावां

कहीं मोतिए और चमेली की महकार राहत-बदामां

गुलाबों के तख्तों में हर दीदा-ओ-दील की तसकीं का सामा

यहां ढाक है

जिसके फूलों से मुगलों ने अपनी तस्वीर के रंग उभारे

उसी ढाक के रंग की दिलकशी से

‘बसावन’ ने, ‘दसवंत’ ने मुगल-ए-आजम के दरबार में दाद पाई

यहा एक बूढ़ा शजर भी है

जो जीस्त के खारजारों से तंग आ के गौतम बना

ज्ञान में महब है

सुबक गाम वादे-मुअत्तर के झोंकों से फरहां व शादां

हुजूमे गुलो-रंग पर तब्सिरे कर रहे हैं

सरेशाम फिर बाग में आ गया हूं

–शाम से ही, संध्या से ही बगीचे में आ गया हूं।

इसी मखजने-रंगो-बूकीलगन में

–यह रंग और सुंगध का खजाना मुझे खींच लाया है।

कि जिसने कभी रूह को ताजगी

कैफो-मस्ती की दौलत अता की

क्योंकि इसी से कभी-कभी जीवन में मस्ती आई; और इसी से कभी-कभी आनंद का स्वाद मिला; और इसी से कभी-कभी आत्मा की झलक मिली।

कि जिसने कभी रूह को ताजगी

कैफो-मस्ती की दौलत अता की

इसलिए तो कभी सागर को देखते-देखते ध्यान की झलक आ जाती है। कभी हिमालय पर शांत हरियाली को देखते-देखते तुम्हारे भीतर कुछ हरा हो जाता है। कभी गुलाब की पंखुड़ियों को खुलते देखते-देखते तुम्हारे भीतर कुछ खुल जाता है।

हम इस प्रकृति के हिस्से हैं। हम भी एक पौधे हैं। हमारी भी यहां जड़ें हैं। यह जमीन जितनी वृक्षों की है, उतनी हमारी है। ये वृक्ष जैसे जमीन से पैदा हुए, हम भी पैदा हुए हैं। सागर में जो जल लहरें ले रहा है, वही जल हमारे भीतर भी लहरें ले रहा है। वृक्षों में जो हरियाली है, वही हमारा जीवन भी है।

कि जिसने कभी रूह को ताजगी

कैफो-मस्ती की दौलत अता की

फजां को दिलावेजी-ए-जाविदां दी

और इस सौंदर्य को देखते हो–इसने प्रकृति को कैसे अमरता दी है। वृक्ष आते हैं, चले जाते हैं–हरियाली बनी रहती है; हरियाली अमर है। फूल आते हैं, चले जाते हैं–फुलवारी बनी रहती है; फुलवारी अमर है। आज एक पौधा है। कल दूसरा होगा, परसों तीसरा होगा–लेकिन तीनों किसी एक ही जीवन के अंग हैं। एक ही सिलसिला है। एक ही सातत्य है।

फजां को दिलावेजी-ए-जाविदां दी

निगाहों को हुस्ने-तलब के नये जाविए

और जिसने प्रकृति को देखा, उसी को देखने के नये कोण, नई दृष्टियां, नये दर्शन उपलब्ध होते हैं। ‘निगाहो को हुस्ने-तलब के नये जाविए।’ उसी को सौंदर्य को परखने की नई आंख मिलती है, नई कसौटियां मिलती हंै।

‘दिल को तहजीबे-जजबात दे कर।’…और उसी प्रकृति के माध्यम से भावना को सभ्यता मिलती है। जो लोग प्रकृति से अपरिचित हैं, उनकी भावना असभ्य होती है। जिसने कभी फूल खिलते नहीं देखा, वह आदमी अभी पूरा आदमी नहीं। और जिसने कभी पक्षियों के गीत शांति से बैठ कर नहीं सुने, और जो आदमियों की आवाज ही सुनता रहा है, वह आदमी नहीं। और जिसने कभी रात के चांद-तारोें से गुफ्तगु न की, वह आदमी आदमी नहीं; वह आदमी बहुत अधूरा है।

लंदन में कुछ वर्षों पहले एक गणना की गई–लंदन के बच्चों की। उनसे प्रश्न पूछे गए। जब मैंने गणना देखी, तो मेरा हृदय आंसुओं से भर आया। लंदन के दस लाख बच्चों ने यह कहा है कि उन्होंने गाय नहीं देखी, खेत नहीं देखे।

सीमेंट से पटी सड़कें जिंदगी की खबर नहीं देती, मौत की खबर देती हैं। सीमेंट के खड़े हुए आकाश छूते मकान, जहां से वृक्ष विदा हो गए हैं, वहां से परमात्मा भी विदा हो गया है।

मशीनें और आदमी की बनाई हुई चीजें कैसे तुम्हें परमात्मा की खबर दें! आदमी की बनाई चीजें आदमी को खबर देती हैं। कारें हैं, ट्रेने हंै, हवाई जहाज हैं, बड़े कल-कारखाने हैं, धुआं फेंकती हुई उनकी बड़ी चिमनियां हैं, बड़े ऊंचे मकान हैं, चैड़े सपाट सीमेंट के रास्ते हैं–इसमें तुम परमात्मा को कहां खोजोगे! इससे तुम्हें अगर परमात्मा के संबंध मे शक होने लगे, तो आश्चर्य क्या!

परमात्मा को खोजना हो, तो वहां खोजो, जहां चीजें बढ़ती हैं। बड़े से बड़ा मकान भी अपने-आप नहीं बढ़ता। उसमें जीवन नहीं है। और लंबे से लंबा रास्ता भी अपने-आप नहीं बढ़ता। उसमें जीवन नहीं है। एक बीज में ज्यादा छिपा है; जितना लंदन में, न्यूयार्क या बंबई में छिपा है, उससे ज्यादा एक छोटे से बीज में छिपा है, क्योंकि बीज बढ़ता है। बीज में जीवन छिपा है और जीवन में परमात्मा छिपा है।

‘दिल को तहजीबे जजबात दे कर।’…और जिस आदमी ने आदमी की बनाई चीजें देखीं, वह आदमी कठोर हो जाएगा। जिसने परमात्मा की कोमल बनाई चीजें देखीं, वह आदमी भावनाओं की दृष्टि से सभ्य हो जाएगा।

दिल का तहजीबे-जजबात दे कर

रिवायत से प्यार करना सिखाया

और जिसने प्रकृति को देखा, वही शाश्वतता को प्रेम कर पाएगा, क्योंकि वह देखेगाः यहां शाश्वत है। गुलाबों के फूल बहुत हुए और गए, लेकिन गुलाब का फूल बना है। कुछ फर्क नहीं पड़ता–एक फूल जाता है, दूसरा उसकी जगह भर देता है। परमात्मा का सृजन अनंत है।

यहां कासनी ऊदे-ऊदे गुलाबी, शहाबी

सभी फूूल हैं!

और इस प्रकृति को तुम देखोगे, तो तुम्हें समझ में आएगाः यहां कितने-कितने ढंग के फूल हैं! कितने रंग, कितने ढंग! कितने अद्वितीय! कहां गुलाब, कहां गेंदा, कहां कमल, कहां चंपा, कहां चमेली! सब कितने अलग! और सब में एक का ही वास है। और सब में एक की ही है सुवास है।

ऐसे ही लोग भी अलग-अलग हैं! ऐसे ही लोग भी भिन्न-भिन्न हैं। उनकी प्रार्थनाएं भी भिन्न-भिन्न होंगी। उनकी भावनाएं भी भिन्न-भिन्न होंगी।

प्रकृति को देखोगे, तो तुम्हें भिन्नता में एकता दिखाई पड़ेगी। और जिसको भिन्नता में एकता दिखाई पड़ गई, उसको मनुष्य का अन्तस्तल दिखाई पड़ गया।

यहां कासनी ऊदे-ऊदे, गुलाबी, शहाबी

सभी फूल हैं!

सब्जाजारों जाएं तो बेले की खुशबू

और अगर जरा भीतर घुसें तो बेले की मोहक, बेले की खुशबू! फरावां-फरावां…जैसे-जैसे पास जाओ वैसे-वैसे बढ़ती जाती है। फरावां-फरावां!

‘कहीं मोतिए, कहीं चमेली की महकार राहत-बदामां’…

कहीं मोतिए, कहीं चमेली की महकार, आनंददायी महकार!

‘गुलाबों के तख्तों में हर दीदा-ओ-दिल की तस्कीं का सामां’…

और हर फूल में, अगर तुम्हारे पास देखने की आंख हो, तो तुम्हारे दुखों को छीन लेने की सामथ्र्य है; तुम्हारी बेचैनी को छीन लेने की सामथ्र्य है।

‘गुलाबों के तख्तों में हर दीदा-ओ-दिल की तस्कीं का सामां’…

–नजर और दिल को संतुष्ट कर दे, ऐसा रहस्य, ऐसा जादू चारों तरफ छाया हुआ है। यहां ढाक है।

जिसके फूलों से मुगलों ने अपनी तस्वीर के रंग उभारे।

–वहां ढाक नाम का वृक्ष है, जिसके रंग मुगल चित्रकला में दिखाई पड़ंेगे।

उसी ढाक के रंग की दिलकशी से

‘बसावन’ ने, ‘दसवंत’ ने मुगले-ए-आजम के दरबार में दाद पाई।

ये दो चित्रकार थे अकबर के जमाने में–बसावन और दसवंत। उन्होंने ढाक के रंगों से ही चित्र रंगे हंै और बड़ी दाद पाई, बड़ी इज्जत पाई।

यहां एक बूढ़ा शजर भी है।

–यहां एक बूढ़ा वृक्ष भी है।

यहां एक बूढ़ा शजर भी है।

जो जीस्त के खारजारों से तंग आ के गौतम बना

–जो जिंदगी के दुखों, पीड़ाओं, कष्टों, जो जिंदगी के कांटों से बहुत परेशान हो कर गौतम बन गया है।

यहां एक बूढ़ा शजर भी है।

जो जीस्त के खारजारों से तंग आ के गौतम बना

ज्ञान में महब है।

जो अपने ध्यान में बैठा है। जो शांत हो गया है। जिसने बाहर से आंख बंद कर ली है। जो अपने भीतर डूब गया है।

यहां एक बूढ़ा शजर भी है।

जो जीस्त के खारजारों से तंग आ के गौतम बना

ज्ञान में महब है।

सुबह गान वादे-मुअत्तर के झोंकों से फरहां व शादां

हुजूमे गुलो-रंग पर तब्सिरे कर रहे हैं।

–और मंद गति से सुगंधित हवा आ रही है, प्रसन्न हवा आ रही है। और हवा फूलों के रंगों पर विचार-विमर्श कर रही है। हर फूल के पास थोड़ी देर ठहरती है, देखती है, रस लेती है; आगे बढ़ जाती है, सोचती है।

प्रकृति के पास जाओ।

तुम पूछते होः कहां से शुरू करें?

मैं कहता हूंः प्रकृति से शुरू करो। प्रकृति में डुबने लगो। एक घंटा तो कम से कम खोज ही लो, जो आदमियों से दूर, एक दूसरी भाषा में, एक दूसरे जगत में तुम्हें ले जाए।

आदमी जरूरत से ज्यादा आदमी से भर गया है। उससे छुटकारा चाहिए। थोड़ा दरवाजा खोलो। और प्रकृति श्रेष्ठतम है, जहां से राह बन सकती है। और जब प्रकृति को देखने की तुममें सामथ्र्य आ जाएगी, तो तुम अचानक पाओगेः परमात्मा दूर नहीं, यहीं छिपा है। यह सारा राग-रंग उसी का है। इस सबके पीछे उसी का हाथ है और इस सबके पीछे उसी केे प्राण की धड़कन है। उसी का हृदय धड़क रहा है।

आदमी में ही रहे, आदमी में ही उलझे रहे, तो चूकते चले जाओगे। आदमी को भूलो–बिसारो।

मैं तुमसे यह नहीं कहता हूं कि तुम सदा के लिए जंगल भाग जाओ। मैं तुमसे यह भी नहीं कहता हूं कि तुम सदा के लिए वृक्षों और पौधों के हो जाओ। वह भी गलती होगी। क्योंकि ऐसे तो जिस दिन तुम्हें समझ आएगी, तुम पाओगेः आदमी भी उसी की अभिव्यक्ति है। उसकी सबसे बड़ी अभिव्यक्ति आदमी है। फूलों में कुछ भी नहीं फूला है–आदमी में चैतन्य फूला है।

मगर शुरुआत करो–अ ब स से। आदमी को शायद तुम अभी समझ भी न पाओ। शुरुआत करो–तुतलाने से। फिर आदमी नाम के महाकाव्य को भी समझ पाओगे।

जिस दिन फूल में तुम्हें परमात्मा की छवि दिख जाएगी, उस दिन क्या तुम्हें लोगों की आंखों में परमात्मा नहीं दिखाई पड़ेगा? कौन फूल लोगों की आंखों से मुकाबला कर सकता है? जिस दिन तुम्हें फूलों में परमात्मा दिखाई पड़ेगा उस दिन मुस्कुराहट में किसी के ओठों पर तुम्हें परमात्मा नहीं दिखाई पड़ेगा? कौन फूल आदमी की मुस्कुराहट का मुकाबला कर सकता है? हां, फूल चटखते हैं और उनकी आवाजें होती हैं; लेकिन जब कोई आदमी हंसता है और जब फुलझड़ी झरती है हंसी की, तो कौन फुल उसका मुकाबला कर सकता है!

माना कि वृक्ष हरे हैं, और माना कि वृक्ष बड़े शांत हैं; मगर कौन आदमी की मस्ती और आदमी के जीवन और आदमी की उमंग और आदमी के उत्साह का मुकाबला कर सकता है!

यह सच है कि कभी तुम्हें बूढ़ा वृक्ष मिल जाए, जो अपने भीतर शांत बैठा है, मौन बैठा है, ध्यान में डूबा है। लेकिन गौतम बुद्ध का मुकाबला तो कोई भी वृक्ष न कर पाएगा–वह वृक्ष भी नहीं, जिसके नीचे बैठ कर गौतम बुद्ध बने।

मनुष्य की चेतना तो आत्यंतिक, आखिरी फूल है–जगत का, अस्तित्व का। इसलिए मैं यह नहीं कहता कि आदमी से सदा के लिए भाग जाओ। मैं यह कहता हंूः आदमी को जानना हो तो थोड़ी देर के लिए आदमी से मुक्त हो जाओः थोड़ी दूरी बनाओ; थोड़े वृक्षों से दोेस्ती करो; पशु-पौधों-पक्षियों से दोेस्ती करो। और तब तुम एक दिन जब आदमी पर लौट कर आओगे; और ये पक्षियों, पौधों, वृक्षों से जो तुम पाठ ले कर आओगे और तुम्हारा हृदय, तुम्हारी भावनाएं सभ्य हो गई होंगी; तुम किसी काव्य से, अभिनव काव्य से भरे जब आदमी को फिर से देखोगे, तब तुम पहचानोगे कि आदमी परमात्मा की प्रतिलिपि है।

प्रकृति से शुरू करो।

आज इतना ही।

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-03)

तीसरा–प्रवचन  –साधो, सब्द साधना कीजै

कहै कबीर मैं पूरा पाया

 

सूत्र

साधो, सब्द साधना कीजै।

जेही सब्द ते प्रकट भए सब, सोइ सब्द गहि लीजै।।

सब्द गुरु सब्द सुन सिख भए, सब्द सो बिरला बूझै।

सोई सिष्य सोई गुुरु महातम, जेही अन्तर गति सूझै।।

सब्दै वेद पुरान कहत हैं, सब्दै सब ठहरावै।

सब्दै सुर मुनि संत कहत हैं, सब्द भेद नहिं पावै।।

सब्दै सुन सुन भेष धरत हैं, सब्दै कहै अनुरागी।

खट-दरसन सब सब्द कहत हैं, सब्द कहै वैरागी।। Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-03)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-02)

दूसरा– प्रवचन–शून्य में छलांग

कहै कबीर मैं पूरा पाया

 

प्रश्न-सार

  1. मैं शून्य होता जा रहा हूं; अब क्या करूं?
  2. कबीर का धर्म-गुरु की तरह व्यापक प्रभाव क्यों नहीं पड़ा?
  3. दुख से मुक्ति कैसे मिले?
  4. गुरु-कृपा कब मिलेगी मुझे?

पहला प्रश्नः मैं शून्य होता जा रहा हूं; अब क्या करूं?

भई, अब किए कुछ भी न हो सकेगा! थोड़ी देरी कर दी। थोड़े समय पहले कहते, तो कुछ किया जा सकता था। शून्य होने लगे–फिर कुछ किया नहीं जा सकता। करने की जरूरत भी नहीं है। क्योंकि शून्य तो पूर्ण का द्वार है। Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-02)”

कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-01)

सावधान–पांडित्य से-पहला प्रवचन

दिनांक 21-09-1977 से 30-09-1077 तक, ओशो आश्रम पूना।

सूत्र

पंडित वाद बदंते झूठा।

राम कह्या दुनिया गति पावे, खांड कह्या मुख मीठा।।

पावक कह्या पांव ते दाझै, जल कहि तृषा बुझाई।

भोजन कह्या भूख जे भाजै, तो सब कोई तिरि जाई।।

नर के संग सुवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।

जो कबाहुं उड़ि जाय जंगल में, बहुरि न सुरतैं आनै।।

बिनु देखे बिनु अरस परस बिनु, नाम लिए का होई।

धन के कहे धनिक जो हो तो, निरधन रहत न कोई।। Continue reading “कहै कबीर मैं पूरा पाया-(प्रवचन-01)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-20)

सत्संग का संगीत—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांक 8 जून, 1975, प्रातः,  ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

प्रश्नसार :

1—आपकी भक्ति साधना में प्रार्थना का क्या स्थान होगा?

2–कबीर पर बोलते हुए आपने सत्संग पर बहुत जोर दिया। आज के परिप्रेक्ष्य में सत्संग पर कुछ और प्रकाश डालेंगे?

3—समर्पण कब होता है?

पहला प्रश्न :

संत कबीर पर बोलते हुए आपने भक्ति को बहुत-बहुत महिमा दी। लेकिन कबीर की भक्ति तो जगह-जगह प्रार्थना करती मालूम होती है। यथा–“आपै ही बहि जाएंगे जो नहिं पकरौ बांहि।” और आपने प्रार्थना को भी ध्यान बना दिया है। आपकी भक्ति-साधना में प्रार्थना का क्या स्थान होगा? Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-20)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-19)

सुरति करौ मेरे सांइयां—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

दिनांक 8 जून, 1975, प्रातः,ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

सारसूत्र :

सुरति करौ मेरे सांइयां, हम हैं भवजल मांहि।

आपे ही बहि जाएंगे, जे नहिं पकरौ बाहिं।।

अवगुण मेरे बापजी, बकस गरीब निवाज।

जे मैं पूत कपूत हों, तउ पिता को लाज।।

मन परतीत न प्रेम रस, ना कछु तन में ढंग।

ना जानौ उस पीव सो, क्यों कर रहसी रंग।।

मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कछु है सो तोर।

तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर।।  Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-19)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-18)

गंगा एक घाट अनेक—(प्रवचन—अट्ठारहवां)

दिनांक 8 जून, 1975, प्रातः,ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

प्रश्नसार :

1—जब आप पूना आए। तब यहां कुछ तोते थे; लेकिन अब एक वर्ष में ही न जाने कितने प्रकार के पक्षी यहां आ गए। क्या ये आपके कारण आ गए हैं? क्या आपका उनसे भी कोई विगत जन्म का वादा है?

2—आपसे प्रश्नों का समाधान तो मिलता है, पर समाधि घटित नहीं हो पा रही है। क्या करूं?

3—ज्ञानी का मार्ग भक्त के मार्ग से क्या सर्वथा भिन्न है? यदि होश हो तो प्रेम कैसे घटेगा?

4—कबीर किस गुरु के प्रसाद से आनंद विभोर हुए जा रहे हैं?

5—सत्य की उपलब्धि भीतर, फिर बाहर समर्पण पर इतना जोर क्यों? Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-18)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-17)

उनमनि चढ़ा गगन-रस पीवै—(प्रवचन—सत्रहवां)

दिनांक 7 जून, 1975, प्रातः, ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

सारसूत्र :

अवधू मेरा मन मतिवारा।

उनमनि चढ़ा गगन-रस पीवै, त्रिभुवन भया उजियारा।। 

गुड़ करि ग्यान ध्यान करि महुआ, व भाठी करि भारा। 

सुखमन नारी सहज समानी, पीवै पीवन हारा।। 

दोउ पुड़ जोड़ि चिंगाई भाठी, चुया महारस भारी। 

काम क्रोध दोइ किया बलीता, छूटि गई संसारी।। 

सुंनि मंडल में मंदला बाजै, तहि मेरा मन नाचै। 

गुरु प्रसादि अमृत फल पाया, सहजि सुषमना काछै।।

पूरा मिल्या तबै सुख उपज्यौ, तन की तपनि बुझानी। 

कहै कबीर भव-बंधन छूटै, जोतिहिं जोति समानी।। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-17)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-16)

सुरति का दीया—(प्रवचन—सोलहवां)

दिनांक 6 जून, 1975, प्रातः,  ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

प्रश्नसार:

1—ज्ञानी साथ साथ रोता और हंसता है। क्या देखकर रोता है और क्या देखकर हंसता है?

2—क्या हम सबकी मनःस्थितियों को देखकर भी आप कह सकते हैं “साधो सहज समाधि भली”?

3—आपके पास कभी-कभी अकारण सघन पीड़ा का अनुभव। यह क्या है?

4—कृपया बताएं, कि ऊंट किस करवट बैठे? Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-16)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-15)

आई ज्ञान की आंधी—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक 5 जून, 1975, प्रातः,  ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

सारसूत्र :

संतों भाई आई ज्ञान की आंधी रे।

भ्रम की टाटी सबै उड़ानी, माया रहै न बांधी।।

हिति-चत की द्वै थूनी गिरानी, मोह बलींदा तूटा।

त्रिस्ना छानि परी घर ऊपरि, कुबुधि का भांडा फूटा।।

जोग जुगति करि संतौ बांधी निरचू चुवै न पानी।

कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जानी।।

आंधी पीछे जो जल बूढ़ा, प्रेम हरी जन भीना।

कहै कबीर भान के प्रकटे उदित भया तम खीना।। Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-15)”

कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-14)

गुरु-शिष्य दो किनारे—(प्रवचन—चौदहावां)

दिनांक 4 जून, 1975, प्रातः, ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

प्रश्नसार :

1—सबके इतने सारे प्रश्न पाकर क्या आप धर्म-संकट में नहीं पड़ते?

2—न संदेह को बढ़ा सकता हूं; न श्रद्धा को शुद्ध कर सकता हूं; ऐसे में क्या करूं?

3—भाव और विचार में कब और कैसे सही-सही फर्क करें। मन में कई प्रश्न का उठना किंतु न पूछने का भाव।

4—जीवन में गहन पीड़ा का अनुभव। फिर भी वैराग्य का जन्म क्यों नहीं? Continue reading “कहै कबीर दिवाना-(प्रवचन-14)”

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