प्रभु—मंदिर का चौथा द्वार: उपेक्षा—(प्रवचन—सातवां)
दिनांक 3 दिसम्बर, 1968; रात्री
ध्यान—शिविर नारगोल।
प्रभु के मंदिर के चौथे द्वार पर हम खड़े हो गए हैं। उस द्वार पर लिखा है उपेक्षा, इनडिफरेंस। करुणा, मैत्री और मुदिता के बाद जो द्वार पार करना होता है साधक को, वह द्वार है उपेक्षा। और बड़ी कठिनाई होगी यह समझने में कि करुणा, मैत्री और मुदिता सीख लेने के बाद उपेक्षा का, इनडिफरेंस का क्या अर्थ हो सकता है?
परमात्मा की दिशा में जो गतिमान होना चाहते हैं, उन्हें निश्चित ही परमात्मा से विरोधी, जो कुछ है उसके प्रति उपेक्षा का भाव ग्रहण करना होता है। सत्य की दिशा में जो जाना चाहते हैं उन्हें जो असत्य है उसके प्रति उपेक्षा का भाव ग्रहण करना होता है। सार की जो खोज में लगे हैं, असार के प्रति उन्हें उपेक्षा दिखानी पड़ती है। Continue reading “प्रभु की पगडंडियां-(प्रवचन-07)”