मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-20)

सरल, तुम अंजान आए—प्रवचन—बीसवां

दिनांक: 20 नवंबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

1—भगवान, दो नावों में पांव, नदिया कैसे होगी पार?

2—भगवान, ऐसे भाव उठते हैं कि कलम उठाती हूं तो समझ नहीं पाती—कैसे लिखूं क्या लिखूं? भीतर एक तूफान उठा है! इधर आती हूं तो एक अनोखी मस्ती छा जाती है। घर पर भी वही मस्ती छाई रहती है। लेकिन उससे बच्चों को ऐसा लगता है कि हमारे प्रति मां थोड़ी बेध्यान हो रही है। और मुझे यह खुद को भी कभी—कभी लगता है कि यह बच्चों के प्रति अन्याय हो रहा है; मेरी मस्ती बच्चों के लिए विघ्‍न नहीं बननी चाहिए। यह समझने पर भी उनको समग्रता से प्यार नहीं कर पाती हूं। इस हालत में बड़ी बेचैनी उठती है, तो मैं क्या करूं? मार्गदर्शन करने की कृपा करें। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-20)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-19)

उनमनि रहिबा—प्रवचन—उन्‍नीसवां

दिनांक: 19 नवंबर,1978; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

घटि घटि गोरख बाही क्यारी। जो निपजै सो होइ हमारी।

घटि घटि गोरख कहै कहाणी। काचै भांडै रहै न पाणी।।

घटि घटि गोरख फिरै निरूता। को घट जागे को घट का।

घटि घटि गोरख घटि घटि मीन। आपा परचै गुरमुषि चीन्ह।।

सुणि गुणवता सुणि बुधिवता, अनंत सिधां की वाणी।

सीस नवावत सतगुरु मिलिया, जागत रैन बिहाणी।।

उनमनि रहिबा भेद न कहिबा, पियबा नीझर पाणी।

लंका छाडि पलका जाइबा, तब गुरुमुष लेबा वाणी।। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-19)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-18)

उमड़ कर आ गए बादल—प्रवचन—अठारहवां

दिनांक: 18 नवंबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

1—मैं बचपन से ही धर्मों से घृणा करता था, फिर भी कुछ खोजने की अचेतन आकांक्षा दिल में थी। अस्तु, कई तीर्थस्थलों में भटका, किंतु सब असफल रहा। अचानक एक दिन आपकी किताब पढ़कर आपका दीवाना हो गया और फिर संन्यासी भी। अब मैं बुढ़ापे में भी अपने को युवा अनुभव करता हूं रोम—रोम आनंदित है। जिसकी खोज थी वह मिल रहा है, लेकिन ऊपरी शरीर बिलकुल मर—सा गया है। प्रभु, यह सब क्या है?

2—आप और श्री कृष्णमूर्ति जीवन में आदर्शों के बहुत विरोध में मालूम होते हैं। यह सच भी है कि आदर्शों के कारण जीवन में बहुत पाखंड पैदा हो जाता है। लेकिन यदि दूसरे छोर से इस पहलू पर विचार किया जाये तो यह खतरा खड़ा होता है कि आदर्शों की चुनौती के बिना जीवन में विकास असंभव हो जायेगा। मनुष्य और पशु में भेद नहीं रहेगा। तो क्या आदर्शों के चुनाव में भूल है? Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-18)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-17)

सबद भया उजियाला—प्रवचन—सत्रहवां

दिनांक: 17 नवंबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

ओम सबदहि सबदहि कूची, सबद भया उजियाला।

काटा सेती कांटा छे, कूची सेती ताला।।

सिद्ध मिलै तो साधिक निपजै, जब घटि होय उजाला।।

सबद हमारा षडूतर षाड़ा, रहणि हमारी सांची।

लेषै लिषी न कागद माडी, सो पत्री हम बांची।।

सबद बिंदी रे अवधू सबद बिंदी, थान—मान सब धंधा।

आतम मधै प्रमातमां दीषै, ज्यों जल मधे चंदा।। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-17)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-16)

नयन मधुर आज मेरे—प्रवचन—सोलहवां

दिनांक: 16 नवंबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

1—जो आपसे मिल रहा है, अहोभाग्य! ऊर्जा का उठना, फिर आगे आप सब कुछ जानते ही हैं।

 2—कृपया मार्गदर्शन करें।

3—मैं प्रार्थना को बैठता हूं तो रोने के सिवाय कुछ सूझता नहीं। मैं क्या करूं? बुद्धपुरुषों ने इतने धर्म क्यों पैदा किये हैं? Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-16)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-15)

सिधां माखण खाया—प्रवचन—पंद्रहवां

दिनांक: 15 नवंबर,1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

हिंदू आषै राम कौं, मुसलमान षुदाइ।

जोगी आषै अलख कौं, तहां राम अछै न षुदाइ।।

हिंदू ध्यावै देहुरा, मुसलमान मसीत।

जोगी ध्यावै परम पद, जहां देहुरा न मसीत।।

कोई न्यंदै कोई व्यंदै, कोई करै हमारी आसा।

गोरष कहै सुणो रे अवधू पंथ षरा उदासा।।

आस्था बैसिबा पका निरोधिबा, थीन मौन सब धंधा। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-15)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-14)

एक नया आकाश चाहिए—प्रवचन—चौदहवां

दिनांक: 14 नवंबर, 1978; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

1—मैं वर्षों से पूजा कर रहा हूं मगर हाथ कुछ नहीं आया। तीर्थ, व्रत, यात्रा सब ऊर चुका हूं पर निष्फल। क्या मैं ऐसे ही अकारण जीऊंगा और अकारण मर जाऊंगा?

2—संसार में सब क्षणभंगुर है, इसलिए पकड़े तो क्या पकड़े?

3—बंबई की किसी होटल के प्रांगण में स्थापित जैन तीर्थंकर की नग्न प्रतिमा को चड्डी पहनायी गई, ऐसा आपने बताया। मैं जानना चाहता हूं कि चड्डी पहनाने का कार्य किसने किया? Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-14)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-13)

मरिलै रे मन द्रोही—प्रवचन—तेहरवां

दिनांक: 13 नवंबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

अवधू मास भषत दया धरम का नास। मद पीवत तहां प्राण निरास।

भलि भषत ज्ञानं ध्यानं षोवंत। जम दरवारी ते प्राणी रोवंत।।

जीव क्या हतिये रे प्यंडधारी। मारिलै पंचभू मृगला।

चरै थारी बुधि बाड़ी। जोग का मूल है दया—दाण।।

कथत गोरख मुकति लै मानवा, मारिलै रे मन द्रोही।

जाके बप वरण मांस नहीं लोही।।

पावडिया पग फिलसै अवधू लोहै छीजत काया।

नागा द्वी आधारी, स्पा जोग न पाया।। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-13)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-12)

इहि पस्‍सिको—प्रवचन—बारहवां

दिनांक: 12 नवंबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पुना।

प्रश्‍न सार:

1—प्यारे प्रभु! कल प्रथम बार मैंने शिविर में विपस्सना ध्यान किया। इतनी उड़ान अनुभव हुई! कृपया विपस्सना के बारे में और प्रकाश डालें।

2—शरीर ही स्वस्थ नहीं है तो फिर शरीर के पार, फिर मन के पार कैसे जा सकूंगी? प्रभु, मैं बहुत निराश हो गयी हूं कुछ मार्गदर्शन करें।

3—विरह क्या है? Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-12)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-11)

खोल मन के नयन देखो—प्रवचन—ग्‍यारहवां

दिनांक: 11 नवंबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र:

कथनी कथै सो सिष बोलिये, वेद पढै सो नाती।

रहणी रहै सो गुरु हमारा, हम रहता का साथी।।

रहता हमारे गुरु बोलिये, हम रहता का चेला।

मन मानै तो संगि फिरै, निहतर फिरै अकेला।।

अवधू ऐसा ग्यान बिचारी, तामै झिलमिल जोति उजाली।

जहां जोग तहां रोग न व्यापै, ऐसा परषि गुरु करना।

तन मन सूं जे परचा नाही, तौ काहे कौ पचि मरनी।।

काल न मिट्या जंजाल न छूट्या, तप करि द्या न सूरा। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-11)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-10)

ध्‍यान का सुगमतम उपाय : संगीत—प्रवचन—दसवां

दिनांक: 10 अक्टूबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

1—शिष्य गुरु के साथ गद्दारी क्यों करते हैं? विजयानंद और महेश अभी आपके विरोध में कहते हैं। और एक संन्यासी चिन्मय ने करंट में लिखा है कि जब मेरे गुरु राजनीति के विरुद्ध बोलते हैं, तब वे धर्म से नीचे गिरते हैं; और साथ—साथ कि मैं जीवित शिष्य हूं इसलिए अपने गुरु के विरुद्ध कह सकता हूं।

2—श्रद्धा क्या है?

3—प्रेम की अग्नि—परीक्षा क्यों ली जाती है? Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-10)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-09)

सुधि—बुधि का विचार—प्रवचन—नौवां

9 अक्‍टूबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

सुणौ हो नरवै सुधि बुधि का विचार। पंच तत ले उतपनां सकल संसार।

पहलै आरंभ घट परचा करी निसपती। नरवै बोध कथंत श्री गोरषजती।।

    पहलै आरंभ छाड़ौ काम क्रोध अहंकार। मन माया विषै विकार।

       हंसा पकड़ि घात जिनि करौ। तृस्ना तजौ लोभ परहरौ।।

          छाड़ौ दद रहां निरदंद। तजौ अल्यंगन रहां अबंध।

       सहज जुगति ले आगा करौ। तन मन पवना दिढू करि धरौ।। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-09)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-08)

आओ चाँदनी को बिछाएं, ओढ़े—प्रवचन—आठवां

8 अक्‍टूबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

1—परमात्मा को अनिर्वचनीय क्यों कहा जाता है?

2—मैं विचारों से अत्यधिक पीड़ित था, तो एक साधु महाराज से ध्यान की विधि पूछ बैठा। उन्होंने राम—राम मंत्र को सतत स्मरण करने को कहा। उससे विचार तो चले गये हैं, पर अब राम—राम की रटंत बनी रहती है।

अब मैं उठते—बैठते राम—राम रटता रहता हूं और इसे रोकना भी चाहूं तो रोक नहीं पाता। इससे एक विक्षिप्त—सी दशा हो गयी है।

आप कुछ मार्गदर्शन दें। मैं इस मंत्र से छूटना चाहता हूं। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-08)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-07)

एकांत में रमो—प्रवचन—सातवां

दिनांक, 7 अक्‍टूबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

जोगी होइ परनिद्या झषै। मदमास अरु भागि जो भषै।

            इकोतर सै पुरिषा नरकहि जाई। सति सति भाषत श्री गोरषराई।।

            एकाएकी सिध नांउं, दोइ रमति ते साधवा।

            चारि पंच कुटंब नांउं, दस बीस ते लसकरा।।

            महमां धरि महमां कूं मेटै, सति का सबद बिचारी।

            नांन्हां होय जिनि सतगुर षोज्या, तिन सिर की पोट उतारी।। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-07)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-06)

साधना: समझ का प्रतिफल—प्रवचन—छठवां

दिनांक: 6 अक्‍टूबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, कोरेगांव पार्क,  पूना।

प्रश्‍न सार:

1—आपने गोरखनाथ जी को भारत के चार शीर्षस्थ प्रज्ञा—पुरुषों में रखा है।मगर आश्चर्य है कि ऐसे चोटी के महापुरुष के जन्म—स्थान और समय का भी पता नहीं है! ऐसा क्यों?

2—मैं सांसारिक अर्थों में सब भांति से सुखी हूं लेकिन फिर भी सुखी नहीं हूं। मेरे दुख का कारण भी समझ में आता नहीं। आप मार्गदर्शन दें। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-06)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-05)

मन में रहिणा—प्रवचन—पांचवां

दिनांक: 5अक्‍टूबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

            मन मैं रहिणा, भेद न कहिणा, बोलिबा अमृत—बाणी।

            आगिला अगनी होइबा अवधू तौ आपण होइबा पाणी।।

               गोरष कहै सुणहुरे अवधू जग में ऐसै रहणा।

            आषैं देषिबा काणैं सुणिबा, मुष थैं कछू न कहणा।।

             नाथ कहै तुम आपा राषौ हठ करि बाद न करणी। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-05)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-04)

अदेखि—देखिबा—प्रवचन—चौथा

दिनांक, 4अक्‍टूबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

01__विचार की ऊर्जा भाव में कैसे रूपांतरित होती है?

02__मैं प्रभु से कुछ मांगना चाहता हूं क्या मांग?

03__गोरखनाथ पंडितों के खिलाफ क्यों हैं?

04__एक ओर आप कहते हैं कि जो भी करो समग्रता से करो और दूसरी ओर आप कहते हैं कि किसी चीज की अति मत करो, मध्य में रहो। क्या इस विरोधाभास को दूर करने की अनुकंपा करेंगे? Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-04)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-03)

सहजै रहिबा—प्रवचन—तीसरा

दिनांक: 3 अक्‍टूबर, 1978; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

बकि न बोलिबा, ठबकि न चालिबा, धीरै धरिबा पांव।

            गरब न करिबा, सहजै रहिबा, भणत गोरष राव।।

          स्वामी बनषडि जाऊं तो पुध्या व्यापै नग्री जाऊं त माया।

         भरि—भरि षाऊं त बिद बियापै, क्यों सीझति जल व्यंद की काया।।

         धाये न षाइबा, भूखे न मरिबा, अहनिसि लेबा ब्रह्म—अननि का भेवं।

            हठ न करिबा, पड्या न रहिबा, यूं बोल्या गोरषदेव।।

            अति अहार यंद्री बल करै, नासै ग्यान मैथुन चित धरै। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-03)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-02)

अज्ञात की पुकार—प्रवचन—दूसरा

दिनांक: 2 अक्‍टूबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

प्रश्न– हर बार यहां आती हूं तो बिना संन्यास लिये चली जाती हूं। संन्यास का भाव तो कई बार मन में उठता है, लेकिन लेने का साहस नहीं जुटा पाती हूं। मैं डर जाती हूं। सोचती हूं : क्या इस मार्ग पर मैं आनंद से चल सकूंगी? या रास्ता आधा छोड्कर वापिस लौट आना पड़ेगा? छोड़ देती हूं संन्यास का भाव तो इस दुनिया में जहा मैं अब तक चल रही हूं चलना निरर्थक मालूम पड़ता है। मैं क्या करूं? मार्ग बताने की अनुकंपा करें।

प्रश्‍नतंत्र, वाममार्ग, अघोरपंथ, नाथपंथ जैसे नामों से लोग क्यों डरते हैं? इन मार्गों के सही विश्लेषण और सम्यक अभ्यास से क्या ऐसी संभावना नहीं है कि लोग फिर नये आयाम से इन्हें समझें और इनकी और उपेक्षा न करें? Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-02)”

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-01)

हंसिबा खेलिबा धरिबा ध्‍यानं—प्रवचन—पहला

(न जाने समझोगे या नहीं: मृत्‍यु बन सकती है द्वार अमृत का)

दिनांक: 1अक्‍टूबर, 1978;  श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र:

बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अगोचर ऐसा।

      गगन सिषर महिं बालक बोले ताका नांव धरहुगे कैसा।।

      हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं। अहनिसि कथिबा ब्रह्मगियानं।

      हंसै षेलै न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।।

      अहनिसि मन लै उनमन रहै, गम की छाडि अग की कहै। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-01)”

मराैै है जोगी मरौ-(बाबा गोरख नाथ) 

मरो है जोगी मरो–(बाबा गोरख नाथ)

(गोरख नाथ की अमृत वाणी पर ओशो के बीस अमृृृत प्रवचनों का अमुल्य संकलन, जो दिनांक 01-10-1978 से 10-10-1978 तक ओर दूूूूसरे   11-11-1978 से 20-11-1978 तक ओशो आश्रम पूना।)

(न जाने समझोगे या नहीं: मृत्‍यु बन सकती है द्वार अमृत का)

हाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन बारह लोग हैं—मेरी दृष्टि में—जो सबसे चमकते हुए सितारे हैं? मैंने उन्हें यह सूची दी : कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण, कृष्णमूर्ति। सुमित्रानंदन पंत ने आंखें बंद कर लीं, सोच में पड़ गये…। Continue reading “मराैै है जोगी मरौ-(बाबा गोरख नाथ) “

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-10)

आओ और डूबो—(प्रवचन—दसवां)

प्रश्न—सार:

 1—ओशो, संन्‍यास लेने के बाद वह याद आती है—

जू—जू दयारे—इश्‍क में बढ़ता गया।

तोमतें मिलती गई, रूसवाइयां मिलती गई।

2—ओशो, आज तक दो प्रकार के खोजी हुए है। जो अंतर्यात्रा पर गए उन्‍होंने बाह्म जगत से अपने संबंध न्‍यूनतम कर लिए। जो बहार की विजय—यात्राओं पर निकले उन्‍हें अंतर्जगत का कोई बोध ही नहीं रहा। आपने हमें जीनें का नया आयाम दिया है। दोनों दिशाओं में हम अपनी यात्रा पूरी करनी है। ध्‍यान और सत्‍संग से जो मौन और शांति के अंकुर निकलते है, बाहर की भागा—भागी में वे कुचल जाते है। फिर बाहर के संघर्षों में जिस रूगणता और राजनीति का हमें अभ्‍यास हो जाता है, अंतर्यात्रा में वे ही कड़ियां बन जाती है।

प्रभु, दिशा—बोध देने की अनुकंपा करे। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-10)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-09)

संगति के परताप महातम—(प्रवचन—नौंवां)

सूत्र:

अब कैसे छूटै नामरट लागी।

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग—अंग बास समानी।

प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनपहिं मिलत सुहागा।।

प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी। जग—जीवन राम मुरारी।। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-09)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-08)

सत्‍संग की मदिरा—(प्रवचन—आठवां)

प्रश्‍न—सार:

1—ओशो, सत्‍संग क्या है? मैं कैसे करूं सत्‍संग—अपके संग—ताकि इस बुझे दीये को भी लौ लगे?

 2—ओशो, आपका धर्म इतना  सरल क्यों है? इसी सरलता के कारण वह धर्म जैसा ना लग कम उत्सव मालूम होता है और अनेक लोगों को इसी कारण आप धार्मिक नहीं मालूम होते है। मैं स्‍वंय तो अपने से कहता हूं: उत्‍सव मुक्‍ति है, मुक्‍ति उत्‍सव है।

3—ओशो, मैं पहली बार पूना आया एवं आपके दर्शन किए। आनंद—विभोर हो गया। आश्रम का माहौल देख कर आंसू टपकने लगे। मैंने, सुना और महसूस किया: यह सूरज सारी धरा को प्रकाशवान कर रहा है। किंतु ओशो, पूना में अँधेरा पाया। कारण बताने की कृपा करें। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-08)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-07)

भगती ऐसी सुनहु रे भाई—(प्रवचन—सातवां)

सूत्र:

      भगती ऐसी सुनहु रे भाई। आई भगति तब गई बड़ाई।।

      कहा भयो नाचे अरू गाए, कहा भयो तप कीन्‍हें।।

      कहा भयो जे चरन पखारे, जौ लौ तत्‍व न चीन्‍हें।।

      कहा भयो जे मूंड मुंडायो, कहा तीर्थ ब्रत कीन्‍हें।।

      स्‍वामी दास भगत अरू सेवक, परमतत्‍व नहीं चीन्‍हें।। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-07)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-06)

आस्‍तिकता के स्‍वर—(प्रवचन—छठवां)

प्रश्‍न—सार:

1—ओशो, नास्‍तिक का क्या अर्थ है?

2—ओशो, शास्‍त्र — विदों का कहना है कि स्‍त्री–जाति के लिए वेदपाठ, गायत्री मंत्र श्रवण और ओम शब्‍द का उच्‍चारण वर्जित है। प्रभु, मेरे मुख से अनायास ही ओम का उच्‍चारण हो जाया करता है, खास कर नादब्रह्म ध्‍यान करते समय तो उच्‍चारण करना ही पड़ता है। तो मन में डर सा लगता है कि ऐसा क्‍यों कहा गया है। क्‍या स्‍त्री–जाति को ओम का उच्‍चार नहीं करना चाहिए? कृपा कर समझाने की दया करें। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-06)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-05)

गाइ—गाइ अब का कहि गाऊं—(प्रवचन—पाँचवाँ)

सूत्र:

गाइ—गाइ अब का कहि गाऊं।

गावनहर को निकट बताऊं।।

जब लगि है इहि तन की आसा, तब लगि करै पुकारा।।

जब मन मिल्‍यौ आस नहीं तन की, तब को गावनहारा।।

जब लगि नदी न समुंद समावै, तब लगि बढै हंकारा।।

जब मन मिल्‍यौ रामसागर सौ, तब यह मिटी पुकारा।।

जब लगि भगति मुकति की आसा, परमत्‍व सुनि गावै।। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-05)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-04)

मन माया है—(प्रवचन—चौथा)

प्रश्न—सार:

1—ओशो,   इस देश में आपका सर्वाधिक विरोध आपके काम, सेक्‍स संबंधी विचारों के गिर्द खड़ा  हुआ है। पंडित—पुरोहित विरोध करें, यह बात समझ में आती है, लेकिन सच्‍चाई यह है कि आधुनिक मनोविज्ञान से सुपरिचित सुधीजन भी यह स्‍वीकारने में घबड़ाते भी यह स्‍वीकारने में घबडाते है कि काम और राम जुड़े है। क्‍या इस संदर्भ में हमें स्‍पष्‍ट दिशा—बोध देने की कृपा करेंगे।

2—ओशो,  गुरु और सदगुरू दो अलग शब्‍’ होने का क्‍य’ कारण है, जब कि गुरु ही सदगुरू है’?

 3—ओशो,  मैं बड़ा संदेहग्रस्‍त क्‍या इससे छूटकारे का कोई उपाय है?

4—ओशो,  संत कहते है कि संसार माया है, फिर भी इतने लोग क्‍यों संसार में ही उलझे रहते है? Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-04)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-03)

क्‍या तू सोया जाग अयाना—(प्रवचन—तीसरा)

सूत्र:

जो दिन आवहि सो दिन जाही। करना कूच रहन थिरू नाही।।

संगु चलत है हम भी चलना। दूरि गवनु सिर ऊपरि मरना।।

क्‍या तू सोया जाब अयाना। तै जीवन जगि सचु करि जाना।।

जिनि दिया सु रिजकु अंबराबै। सब घट भीतरि हाटु चलावै।।

करि बंदिगी छांडि मैं मेरा। हिरदे नामु सम्‍हारि सबेरा।।

जनमु सिरानो पंथु न संवारा। सांझ परी दह दिसि अंधियारा। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-03)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-02)

जीवन एक रहस्‍य है—(प्रवचन—दूसरा)

प्रश्न—सार:

1— ओशो,  मैंने उन्‍हें देखा था खिले फूल की तरह

अस्‍तित्‍व की हवा के संग डोलत हुए

आनंद की सुगंध लुटाते हुए सदा

सब के दिलों में प्रेम का रस घोलत हुए

लवलीन हो गए थे वे परमात्‍मा—भाव में…….

2—ओशो,  दशहरे के दिन मेरी बेटी की शादी तय हुई थी। सब तैयारियां हो चुकी थी। कार्ड बांट दिए गए थे और लड़के ने तीन दिन पहले दूसरी लड़की से शादी कर ली। मैंने तो इस दुर्भाग्‍य के पीछे सौभाग्‍य ही देखा। मगर मेरी बेटी के लिए इसमें कौन सा रहस्‍य छिपा है?

3—ओशो,  आप जो कहते है वह न मो मैं समझता ही हूं और न सुनता ही हूं। मैं क्‍या करू? Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-02)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-01)

आग के फूल—(पहला प्रवचन)

सूत्र:

बिनु देखे उपजै नहि आसा। जो दीसै सो होई बिनासा।।

बरन सहित जो जापै नामु। सो जोगी केवस निहकामु।।

परचै राम रवै जो कोई। पारसु परसै ना दुबिधा होई।।

सो मुनि मन की दुबिधा खाइ। बिनु द्वारे त्रैलोक समाई।।

मन का सुभाव सब कोई करै। करता होई सु अनभे रहै।।

फल कारण फूली बनराइ। फलु लागा तब फूल बिलाई।।

ग्‍यानै कारन कर अभ्‍यासू। ग्‍यान भया तहं करमैं नासू।। Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(प्रवचन-01)”

मन ही पूजा मन ही धूप-(संत-रैदास)

मन ही पूजा मन ही धूप—(संत—रैदास)   ओशो

(दिनाांक  01-10-1979 से  10-10-1979 तक रैदास वाणी पर प्रश्‍नोत्‍तर सहित पुणे में ओशो द्वारा दिए गए दस अमृत प्रवचनो का अनुपन संकलन)

आमुख:

दमी को क्या हो गया है? आदमी के इस बगीचे में फूल खिलने बंद हो गए! मधुमास जैसे अब आता नहीं! जैसे मनुष्य का हृदय एक रेगिस्तान हो गया है, मरूद्यान भी नहीं कोई। हरे वृक्षों की छाया भी न रही। दूर के पंछी बसेरा करें, ऐसे वृक्ष भी न रहे। आकाश को देखने वाली आखें भी नहीं। अनाहत को सुनने वाले कान भी नहीं। मनुष्य को क्या हो गया है? Continue reading “मन ही पूजा मन ही धूप-(संत-रैदास)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-10)

एक क्षण पर्याप्त है—(प्रवचन—दसवां)

प्रश्न-सार :

1—प्राणायाम का अर्थ है: ऐसी विधि जिससे प्राणों का विस्तार हो, और प्रत्याहार है: मूल स्रोत की ओर वापस लौटना। पहले विस्तार, फिर वापसी–ऐसा क्यों?

2—स्वप्नावस्था में भी अकाम आ जाए, इसकी कीमिया पर कुछ उपदेश दें।

3—क्या पुण्य, धर्म, भगवान की कामना भी दुख में ही ले जाएगी?

4—प्रत्याहार–गंगा का गंगोत्री में और वृक्ष का बीज में  लौट जाना–क्या संभव है? Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-10)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-09)

दुख का दर्पण—(प्रवचन—नौवां)

सूत्र :

कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वाऽऽत्मानं भावय कोऽहम्।

आत्मज्ञानविहीना मूढ़ाः ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः।।

गेयं गीतानामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम्।

नेयं सज्जनसंगे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम्।।

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।

यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुग्चति पापाचरणम्।। Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-09)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-08)

संसार–एक पाठशाला—(प्रवचन—आठवां)

प्रश्न-सार

।–कृपया शंकर की संन्यास की घटना पर कुछ प्रकाश डालें।

2—मेरी प्रार्थना है कि आप मेरे घर पधारें, लेकिन इसी वेश में, क्योंकि मैं महामूढ़ हूं।

3—साधना के द्वारा ग्रंथि-विसर्जन के लिए हम क्या करें?

4—क्या संभव है कि आदमी का चित्त एक नवजात शिशु के चित्त की भांति हो जाए? Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-08)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-07)

परम-गीत की एक कड़ी—(प्रवचन—सातवां)

सूत्र :

भगवद्गीता किंचिदधीता गंगाजल लवकणिका पीता।

सकृदपि येन मुरारिसमर्चा क्रियते तस्य यमेन न चर्चा।।

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।

इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे।।

रथ्याकर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः। Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-07)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-06)

तर्क का सम्यक प्रयोग—(प्रवचन—छठवां)

प्रश्न-सार

1-  आपने बहुत बार कहा है कि तर्क और विवाद से कभी भी संवाद संभव नहीं होता; लेकिन शंकर ने विवाद और शास्त्रार्थ में सैकड़ों मनीषियों को पराजित किया। कृपया समझाएं कि शंकर का यह कैसा शास्त्रार्थ था?

2—जो कि मंजिल के करीब पहुंच चुका है, क्यों कर उसका पतन की खाई में गिरना संभव हो पाता है?

3—तथाकथित संन्यासी धर्म के नाम पर दुकानदारी करते हैं। और आपने अपने संन्यासियों को अपनी-अपनी दुकानें चालू रखने को कहा है। यह विरोधाभास है। कृपया इसे स्पष्ट करें। Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-06)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-05)

आशा का बंधन—(प्रवचन—पांचवां)

सूत्र :

जटिलो मुण्डी लुग्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः।

पश्यन्नपि च न पश्यति मूढ़ो ह्युदरनिमित्तं बहुकृतवेषः।।

अंगं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।

वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुग्चत्याशापिण्डम्।।

अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः।

करतलभिक्षस्तरुतलवासः तदपि न मुग्चत्याशापाशः।।

कुरुते गंगासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्। Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-05)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-04)

कदम कदम पर मंजिल—(प्रवचन—चौथा)

प्रश्न-सार

1—कहा जाता है कि शंकर हिंदू वेदांती थे और आपने कहा कि शंकर छिपे हुए बौद्ध हैं; इसे कृपया स्पष्ट करें।

2—शंकर और आप भजन करने को कहने के पहले हमें हर बार मूढ़ कह कर क्यों संबोधित करते हैं?

3—रेचन में केवल क्रोध,र् ईष्या, दुख आदि के नकारात्मक भाव ही बाहर आते हैं। क्यों?

4—कृपया डूबने तथा होश और बेहोशी की सीमा-रेखाओं को स्पष्ट करें।

5—क्या प्रार्थना की जगह भजन भी धन्यवाद ज्ञापन मात्र है? Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-04)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-03)

सत्संग से निस्संगता—(प्रवचन—तीसरा)

सूत्र :

का ते कांता कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः।

कस्य त्वं कः कुत आयातस्तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः।।

सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम्।

निर्मोहत्वे निश्चल चित्तं निश्चलचित्ते जीवनमुक्तिः।।

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।

क्षीणे वित्ते कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः।।

मा कुरु धनजनयौवनगर्वं हरति निमेषात्कालः सर्वम्। Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-03)”

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