स्वर्णिम बचपन-(सत्र-26)

मैं यायावर हूं–(सत्र-छब्बीसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

मुझे चक्‍करों में जाना पड़ेगा—चक्‍कर के भीतर चक्‍कर, चक्‍कर के भीतर चक्‍कर, क्योंकि जीवन ऐसा है। और खासकर मेरे लिए। पचास वर्षो में मैंने कम से कम पचास जीवन जी लिए है। जीने के अतिरिक्‍त मैंने और कुछ किया ही नहीं है? और लोगों को तो बहुत काम धंधे है, लेकिन मैं तो बचपन से ही यायावर रहा, कुछ नहीं करता था, सिर्फ जिया। जब तुम कुछ नहीं करते, सिर्फ जीते हो तो जीवन का आयाम बदल जाता है। यह सपाट नहीं चलता, उसमें गहराई आ जाती है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-26)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-25)

शब्‍दों की अभिव्‍यक्‍त–(सत्र–पच्चीसवां) 

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

मैं बर्ट्रेड रसल को उद्धृत की रहा था—इस उद्धरण से मेरी बात को पुष्टि होगी उसने कहा है कि देर-अबेर सब लोगों को मनोविश्लेषण की आवश्यकता होगी। क्‍योंकि तुम्‍हारी बात सुनने के लिए या तुम पर ध्‍यान  देने के लिए किसी को खोजना बहुत कठि‍न हो गया है।

और सब चाहते है कि उनकी और ध्‍यान दिया जाए। इसके लिए वे पैसे देने को भी तैयार है। कि‍ कोई मेरी बात को ध्यान से सुनें। भले ही सुनने वाले ने कानों में रूई डाल रखी हो। कोई मनोविश्लेषण दिन-रात मरीजों की बकवास को नहीं सुन सकता। फिर उसकी भी यही आवश्‍यकता है कि कोई दूसरा उसकी बातें सुने। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-25)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-24)

फ्रेंंडशिप या मित्रता से उंचा प्रेम:–(सत्र–चौबीसवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

में तुम्हें फ्रेंडशिप, मित्रता, प्रेम से ऊंची है। किसी ने पहले ऐसा नहीं कहा। और मैं यह भी कहता हूं कि फ्रेंडशिप,मैत्री, मित्रता से भी ऊंची है। किसी ने यह भी कहा। निश्चित ही मुझे यह समझाना पड़ेगा।

प्रेम कितना भी सुंदर हो, इस धरातल के ऊपर नहीं उठता। यह पेड़ की जड़ों के समान है। प्रेम अपनी अंतर्निहित विशेषताओं तथा अन्‍य अंशों—शरीर—के साथ धरती के उपर उठने की कोशिश करता है। तो लोग कहते है कि वह प्रेम में गिर गया। अंग्रेजी में कहा जाता है कि फॉलन इन लव। जहां त‍क मुझे मालूम है, सब भाषाओं में प्रेम के लिए इन्‍हीं शब्‍दों का प्रयोग होता है। इसके बारे में अनेक देशों के लोगों से पूछ ताछ कि है मैंने। मैंने सभी दुतावासों को पत्र लि‍ख कर पूछा कि क्‍या उनकी भाषा में भी प्रेम में उठना जैसा शब्‍दों का प्रयोग है। उन सबने कहां नहीं, ऐसे पागलों को कोन उत्तर देगा जो ये पूछ रहा है प्रेम में उठना जैसा मुहावरा है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-24)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-23)

  एकाकीपन या अकेलापन–(सत्र–तैइसवां) 

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

मैं तुम्‍हें बता रहा था एक विशेष संबंध के बारे में जो एक करीब नौ साल के बच्‍चे और शायद  पचास वर्ष के प्रौढ़ व्‍यक्ति में घटा। दानों की आयु में अंतर था, लेकिन प्रेम सब प्रकार की रुकावटों को पार कर जाता है। अगर चह पुरूष और स्‍त्री के बीच घट सकता है तो दूसरी इससे बड़ी क्‍या रूकावट और क्‍या हो सकती है। लेकिन इस संबंध को ‘प्रेम’ नहीं कहा जा सकता और यह था भी नहीं। मुझे अपना बेटा या पोता समझ कर भी प्रेम कर सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं था। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-23)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-22)

 शंभु बाबू से अंतिम बिदाई–(सत्र–बाईसवां) 

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

आज सुबह मैंने कार्ल‍ गुस्ताव जुंग के शब्‍द  सिन्‍क्रॉनिसिटी का उल्‍लेख किया था। मुझे वह आदमी अच्‍छा नहीं लगता, लेकिन उसने जिस नए शब्‍द को चालू किया वह मुझे बहुत पसंद है। उसके लिए तो उसकेा हर संभव श्रेय मिलना चाहिए। और किसी भी भाषा में सिन्‍क्रॉनिसिटी जैसे शब्‍द नहीं है। सब शब्‍द न किसी के द्वारा तो बराए ही गए है। इसलिए किसी शब्‍द के गढ़ने में कोई बुराई तो नहीं है। विशेषत: तब वह शब्‍द किसी ऐसे अनुभव को अभिव्‍यक्‍त करता हो जिसको सदियों से कोई नाम न दिया गया हो। केवल इस एक शब्‍द, सिन्‍क्रॉनिसिटी  के लिए जुंग को नोबल पुरस्‍कार मिलना चाहिए था। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-22)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-21)

 शंभु बाबू से भेट –(सत्र–इक्किसवां )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

ठीक है…..जिन सज्‍जन के बारे में मैं बात करने जा रहा हुँ, उन का पूरा नाम पंडित शंभु रत्न दुबे। हम उनको शंभु बाबू कहते थे। वे कवि थे, बहुत ही अनोखे, क्‍योंकि वे अपनी कविताओं को प्रकाशित नहीं करना चाहते थे। किसी कवि में ऐसा गुण बहुत ही दुर्लभ है। मैं सैकड़ों कवियों से मिला हूं, वे अपनी कविताओं को प्रकाशित करने के लिए इतने उत्सुक रहते है कि उनके लिए काव्य रचना गौण हो जाती है। किसी भी प्रकार से महत्‍वाकांक्षी लोगों को मैं राज‍नीतिज्ञ कहता हूं। और शंभु बाबू महत्‍वाकांक्षी नहीं थे। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-21)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-20)

स्‍कूल का प्रथम दिन और काना मास्‍टर–(सत्र–बीसवां )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

मैं अपने प्राइमरी स्‍कूल के हाथी-द्वार के सामने खड़ा था…..ओर उस फाटक ने मेरे जीवन में बहुत सह बातों को आरंभ किया। मैं वहां अकेला नहीं खड़ा था। मेरे पिता भी मेरे साथ खड़े थे। वह मुझे स्‍कूल में भरती कराने आए थे। उस बड़े फाटक को देखते ही मैंने उनसे कहा: ‘नहीं।’

अभी भी मुझे वह शब्‍द सुनाई देता है। एक छोटा बच्‍चा जो सब कुछ खो चुका है, मैं अभी भी उस छोटे बच्‍चे के चेहरे पर अंकित प्रश्‍न-चिह्न को देख सकता हूं—वह सोच रहा हे कि अब क्‍या होने बाला है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-20)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-19)

  पिता के घर में  –(सत्र–उन्नीसवां )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

नाना की मृत्‍यु के बाद मुझे फिर नानी से दूर रहना पडा, लेकिन मैं जल्दी ही अपने पिता के गांव वापस आ गया। मैं वापस आना तो नहीं चाहता था, लेकिन वह इस के ओ. के. की तरह था जो कि मैंने शुरूआत में कहा, नहीं के मैं ओ. के. कहना चाहता था। लेकिन में दूसरों की चिंता की उपेक्षा नहीं कर सकता। मेरे माता-पिता मुझे अपने मृत नाना के घर भेजने को तैयार नहीं थे। मेरी नानी भी मेरे साथ जाने को तैयार नहीं थी। और मैं सिर्फ सात साल का बच्‍चा था, मुझे इसमें कोई भविष्‍य नहीं दिखाई दे रहा था। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-19)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-18)

सेक्स या मृत्युय से मनोग्रस्त–(सत्र–अट्ठारवां) 

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

पूरब‍ मृत्यु से मनोग्रस्तय है और पश्चिम सेक्स से। पदार्थवादी को सेक्स से मनोग्रस्तथ होना ही चाहिए और आध्यातत्मिक को मृत्यु् से । और ये दोनों मनेाग्रस्तेताएं ही है। और किसी भी मनोग्रस्तएता के साथ जीवन जीना—पूर्वीय या पश्चिमी—न जीने के समान है, यह पूरे मौके को चूकता है। पूरव और पश्चिम एक ही सिक्केृ के दो पहलु है। और इसी प्रकार मृत्यु और सेक्सक है। सेक्स् ऊर्जा है—जीवन का आरंभ‍; और मृत्यु जीवन का चरम बिंदु है, पराकाष्ठा है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-18)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-17)

अजित सरस्‍वती मेरे महाकाश्यप है’–(सत्र-सत्रहवां ) 

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

पिछली रात अजित सरस्‍वती ने जो पहले शब्‍द मुझसे कहे, वे थे: ‘ओशो मुझे आशा नहीं थी कि मैं कभी भी ऐसा कर पाऊगा।’

जो लोग वहां उपस्थित थे उन्‍होंने सोचा कि वे कम्‍यून में आकर रहने की बात कर रहे है। एक प्रकार से यह भी सच था। क्‍योंकि मुझे याद है बीस वर्ष पहले जब‍ वे पहली बार मुझसे मिलने आए थे तब मुझसे कुछ मिनट मिलने कि लिए उनको अपनी पत्‍नी से इजाजत लेनी पड़ी थी। इसलिए जो उपस्थित थे स्‍वभावत: उन्‍होंने समझा होगा कि उन्‍हें इस‍ बात की आशा नहीं थी कि वे अपना काम-धाम और बीबी-बच्‍चों को छोड़ कर यहां आ जाएंगे—सब कुछ छोड़-छाड़ कर सिर्फ यहां मेरे साथ होने के लिए। इसी को सच्‍चा त्‍याग कहते है। लेकिन उनका यह अर्थ नहीं था। और मैं समझ गया। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-17)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-16)

नानी प्रथम शिष्‍या और बुद्धत्‍व-(सत्र-सौहलवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

संसार में छह बड़े धर्म है। इनको दो वर्गों में बटा जा सकता है। पहला वर्ग है: यहूदी, ईसार्इ, और इस्‍लाम धर्म है। ये एक ही जीवन में विश्‍वास करते है। तुम सिर्फ जीवन और मृत्‍यु के बीच हो—जन्‍म और मृत्‍यु के पार कुछ भी नहीं है—यह जीवन ही सब कुछ है। जब कि ये स्‍वर्ग, नरक और परमात्‍मा में विश्‍वास करते है। फिर भी ये इनको एक ही जीवन का अर्जन मानते है। दूसरे वर्ग के अंतर्गत हैं: हिंदू, जैन, और बौद्ध धर्म। वे पुनर्जन्‍म के सिद्धांत में विश्‍वास करते है। आदमी को तब तक बार-बार जन्‍म होता है। जब ते कि वो बुद्धत्‍व, एनलाइटेनमेंट, पाप्‍त नहीं कर लेता है, और तब यह चक्र रूक जाता है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-16)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-15)

मग्गा बाबा और मोज़ेज–(सत्र–पंद्रहवां )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

जब‍ मैं कमरे से बाहर जा रहा था तो तुम मुस्‍कुरा रहे थे। लेकिन तुम्‍हारी मुस्‍कुराहट में उदासी थी। मैं इसको नहीं भूल सका। जब कि मैं सब कुछ आसानी से भूल जाता है। लेकिन जब‍ कभी मैं कठोर हाता हूं तो मैं इसे नहीं भूल सकता। में दुनिया में सब‍को क्षमा कर सकता हूं, लेकिन अपने आप को नहीं कर सकता। शायद मेरे न सोने का यही कारण था। मेरी नींद तो सिर्फ एक पतली पर्त है। उसके नीचे मैं सदा जागता रहता हूं। इस झीनी सी पर्त  बड़ी आसानी से विचलित किया जा सकता है। लेकिन केवल मैं ही ऐसा कर सकता हूं कोई और नहीं। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-15)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-14)

नीत्‍शे और एडोल्‍फ हिटलर–(सत्र–चौदहवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

 त्‍वदीयं वस्‍तु गोविंदम्‍ा, तुभ्‍यमेव समर्पयेत। ‘हे प्रभु,’ यह जीवन जो तुमने मुझे दिया वह तुम्‍हें आभार सहि‍त वापस समर्पित करता हूं। ये मरते समय मेरे नाना के अंतिम शब्‍द थे।

हालांकि उन्‍होंने परमात्‍मा में कभी विश्‍वास नहीं किया और पे हिंदू नहीं थे। यह वाकय, सह सूत्र हिंदू सूत्र है। लेकिन भारत में सब चीजें घुल मिल गई है। विशेषकर अच्‍छी बातें। मरने से पहले अन्‍य बातों के बीच उन्‍होंने एक बात बार-बार कहीं, ‘चक्र को रोको।’ Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-14)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-13)

मैं पागल आदमी हूं –(सत्र–तैहरवां )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

मैं जीसस को नहीं भूल सकता। मैं उन्‍हें दुनिया के किसी भी ईसाई से कहीं अधिक याद करता हूं। जीसस कहते है, ‘धन्य भागी हैं वे’ जो छोटे बच्‍चे जैसे है, क्‍योंकि प्रभु का राज्‍य उनका है।

यहां पर जो याद रखने बाला सबसे अधिक महत्वपूर्ण शब्‍द है वह है क्‍योंकि। जीसस के उन सब वक्तव्य में से जो ‘जो धन्‍य भागी है से आरंभ होता है और समाप्‍त होता है, ‘प्रभु के राज्‍य ’ के साथ। उनमें से केवल यही एक वक्तव्य अनोखा है। क्‍योंकि शेष सब वक्तव्य क‍हते है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-13)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-12)

जीवक और देव गीत–(सत्र–बारहवां )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

बुद्ध का वैद्य, जीवक, सम्राट बिंब सार ने बुद्ध को दिया था। एक और बात है कि बिंब सार बुद्ध का संन्‍यासी नहीं था, वह केवल उनका हितैषी था, शुभ चिंतक था। उसने बुद्ध को जीवक क्‍यों दिया? जीवक बिंब सार का निजी वैद्य था, उस समय  का सबसे प्रसिद्ध, क्‍योंकि एक दूसरे राजा से उसकी प्रतियोगिता चल रही थी, जिसका नाम प्रेसनजित था। प्रसेनजित ले बुद्ध से कहा था, आपको जब‍ भी आवश्‍यकता हो, मेरा वैद्य आपकी सेवा में उपस्थित हो जाएगा। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-12)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-11)

भोपा का महल–(सत्र–ग्याहरवां )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

जिस गांव में मेरा जन्‍म हुआ था वह ब्रिटिश साम्राज्‍य का हिस्‍सा नहीं था। वह एक छोटी सी रियासत थी जिस पर एक मुसलमान बेगम शासन करता थी। अभी मैं उसे देख सकता हूं। बड़ी अजीब बात है, वह भी इंग्लैंड की महारानी जैसी ही सुंदर थी, बिलकुल वैसी ही सुन्‍दर। लेकिन एक अच्‍छी बात यह थी कि वह मुसलमान थी। लेकिन इंग्लैंड की महारानी मुसलमान नहीं थी। ऐसी औरतों को हमेशा मुसलमान होना चाहिए, क्‍योंकि उन्‍हें एक पर्दे के पीछे, बुरक़े में छिपे रहना होता है। वह बेगम कभी-कभी हमारे गांव आती थी। और उस गांव में केवल मेरा घर ही ऐसा थी जहां वह ठहर सकती थी। और इसके अतिरिक्‍त वह मेरी नानी को बहुत प्रेम करती थी। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-11)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-10)

बुद्धत्‍व  के भी पार –(सत्र–दसवां )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

मेरे पास एक नहीं बल्कि चार घोड़े थे। एक मेरा अपना था और तुम्‍हें मालूम है कि मैं कितना ‘फसी’ जिद्दी हूं, आज भी रॉल्‍स रॉयसेस में कोई दूसरा नहीं बैठ सकता। यह सिर्फ फसीनेस, जिद्दी पन है।  उस समय भी मैं ऐसा ही था। कोर्इ नहीं यहाँ तक कि मेरे नाना भी मेरे घोड़े पर सवार नहीं हो सकते थे। निश्चित ही मैं दूसरों के घोड़ों पर सबरा हो सकता था। दोनों मेरे नाना और नानी के पास एक-एक घोड़ा था। भारतीय गांव की  स्‍त्री का घुड़सवारी करना कुछ अजीब सा फासले पर मेरे पीछे-पीछे बंदूक लिए चलता था। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-10)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-09)

ऊँचे आकाश में निमंत्रण–(सत्र-नौवां)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

समय वापस नहीं जा सकता, लेकिन मन जा सकता है। ऐसा मन जो कभी कुछ भी भूल सकता एक ऐसे व्यतक्ति को देना जो स्व यं को ता अमन की स्थिति में पहुंच ही गया है साथ ही दूसरों को भी इससे छुटकारा पाने के लिए कह रहा है, कितना व्यसर्थ है। जहां तक मेरे मन का प्रश्ना है—या रखना कि मेरा मन, मैं नहीं—वह वैसा ही यंत्र है, जैसा यहां पर इस्तेनमाल किया जा रहा है। मेरे मन का अर्थ है सिर्फ एक मशीन, पर एक अच्छीय मशीन, जो ऐसे व्यरक्ति को दी गई है जो उसे फेंक देगा। इस लिए मैं कहता हूं कि यह कितनी बरबादी है। लेकिन मुझे कारण मालूम है। जब तक तुम्हाररे पास बढ़िया मन न हो तब तक उसे फेंक देने की समझ तुम्हाूरे भीतर नहीं हो सकती। जीवन विरोधाभासों से भर हुआ है। यह कोई बुरी बात नहीं है। इसके कारण जीवन अधिक रंगीन हो जाता है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-09)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-08)

विद्रोह धर्म की बुनियाद –(सत्र-आठवां )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

दुनिया में केवल जैन धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो आत्‍महत्‍या का आदर करता है। अब यह हैरान होने की तुम्‍हारी बारी है। निश्चित ही वे इसे आत्‍महत्‍या नहीं कहते। वे इसको सुंदर धार्मिक नाम देते है—संथारा। मैं इसके खिलाफ हूं। खासकर जिस ढंग से यह किया जाता है—यह बहुत ही क्रूर और हिंसात्‍मक है। यह आश्‍चर्य की तो बात है कि जो धर्म अहिंसा में विश्‍वास करता है। वह धर्म संथारा, आत्‍महत्‍या का उपदेश देता है। तुम इसको धार्मिक आत्‍म हत्‍या कह सकते हो। लेकिन आत्‍महत्‍या तो आत्‍महत्‍या ही है। नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता। आदमी तो मरता ही है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-08)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-07)

जैन मुनि से संवाल–(सत्र-सातवां )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

गुड़िया को मालूम है कि मैं नींद में बोलता हूं, लेकिन उसे यह नहीं मालूम कि मैं किससे बोलता हूं। सिर्फ मैं जानता हूं यह। बेचारी गुड़िया, मैं उससे बातें करता हुं और वह सोचती है और चिंता करती है कि क्‍यों बोल रहा हूं और किससे बोल रहा हूं। लेकिन उसे पता नहीं कि मैं इसी तरह उससे बातें करता हूं। नींद एक प्राकृतिक बेहोशी है। जीवन इतना कटु है कि हर आदमी को रात में कम से कम कुछ घंटे नींद की गोद में आराम करना पड़ता है। और उसको आश्‍चर्य होता है कि मैं सोता भी हूं या नहीं। उसके आश्‍चर्य को मैं समझ सकता हूं। पिछले पच्‍चीस सालों से भी अधिक समय से मैं सोया नहीं हूं। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-07)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-06)

नानी—नानी का प्रेम–(सत्र–छठवां )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

लेकिन दुर्भाग्‍य से ‘सैड’ शब्‍द से फिर उस जर्मन आदमी एकिड़ सैड कि याद आ गइ, है भगवान, उसे मैं जीवन में फिर कभी कुछ कहने वाला नहीं था। मैं उसकी पुस्‍तक से यह जानने की कोशिश कर रहा था कि उसको मुझमें ऐसा क्‍या गलत दिखाई दिया कि जिसके आधार पर वह यह कह रहा है कि मैं एनलाइटेंड नहीं हूं। उत्‍सुकता वश मैं यह देखना चाहता था कि उसने क्‍यों इस तरह का निष्‍कर्ष निकाला। और जो मुझे मालूम हुआ वह सचमुच हंसने जैसा है। मैं इल्युमिनटेड हूं, ऐसा मानने का उसका कारण यह है कि मैं जो कह रहा हूं वह निश्चित ही समस्‍त मानवता के लिए बहुत महत्‍वपूर्ण है। लेकिन मैं एनलाइटेंड नहीं हूं, ऐसा मानने का उसका कारण है मेरे बोलने का ढंग से मैं बोलता है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-06)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-05)

नमो अरिहंताणं–(सत्र–पांचवां  )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

जब बचपन में मैं अपने नाना के पास रहता था तो यही मेरा तरीका था, और फिर भी मैं सज़ा से पूरी तरह सुरक्षित था। उन्‍होंने कभी नहीं कहा कि यह करो और वह मत करो। इसके विपरीत उन्‍होंने अपने सबसे आज्ञाकारी नौकर भूरा के मेरी सेवा में मेरी सुरक्षा के लिए नियुक्‍त कर दिया। भूरा अपने साथ सदा एक बहुत पुरानी बंदूक रखता था। और थोड़ी दूरी पर मेरे साथ- साथ चलता था। लेकिन गांव वालों को डराने के लिए इतना काफी था। मुझे अपनी मनमानी करने का मौका देने के लिए इतना काफी था। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-05)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-04)

खजुराहो–(सत्र-चौथा )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

मैं तुमसे उस उस समय कि बात कर रहा था जब ज्‍योतिषी से मिला जो अब संन्‍यासी हो गया था। उस समय  मैं चौदह वर्ष का था और अपने दादा के साथ था। मेरे नाना अब नहीं रहे थे। उस वृद्ध भिक्षु, भूतपूर्व‍ ज्‍योतिषी ने मुझसे पूछा, ‘मैं धंधे से ज्‍योतिषी हूं, लेकिन शौक से मैं हाथ, पैर और माथे की रेखाएं इत्‍यादि‍ भी पढ़ता हुं। तुम यह कैसे बता सके कि मैं संन्‍यासी बनुगां, पहले मैंने सन्‍यास के बारे में सोचा भी नहीं था। तुम्‍हीं ने इसका बीज मेरे भीतर डाला और तब से मैं केवल संन्‍यास के बारे में ही सोचता हूं। तुमने ये कैसे किया।’ Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-04)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-03)

 ज्‍योतिषी की भविष्यवाणी–(सत्र—तीसरा )

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

बार-बार सुबह का चमत्‍कार…..सूरज और पेड़ । संसार बर्फ के फूल की तरह हैं: इसको तुम अपने हाथ में लो और यह पिघल जाता है—कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ गीले हाथ रह जाते है। लेकिन अगर तुम देखो, सिर्फ देखो, तो बर्फ का फूल भी उतना ही सुंदर है जितना संसार में कोई दूसरा फूल। और यह चमत्‍कार हर सुबह होता है, हर दोपहर, हर शाम, हर रात, चौबीस घंटे, दिन-रात होता है…..चमत्‍कार। और लोग परमात्‍मा को पूजने मंदिरों, मसजिदों और गिरजाघरों में जाते है। यह दुनिया मूर्खों से भरी हानि चाहिए—माफ करो, मूर्खों से नहीं वरन मूढ़ों से—असाध्‍य, इतने मंद बुद्धि लोगों से। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-03)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-02)

जन्‍म का चुनाव–(सत्र—दूसरा)

बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

सब लोग अपने सुनहरे बचपन बात करते हैं, पर कभी-कभार ही यह सच होता है। अधिकतर तो यह झूठ ही होता है। लेकिन जब बहुत लोग एक ही झूठ बोल रहे हों तो किसी को पता नहीं चलता कि यह झूठ है। कवि भी अपने सुनहरे बचपन के गीत गाते रहते हैं—उदाहरण के लिए वर्डसवर्थ—उसकी कवि‍ताएं अच्‍छी हैं, लेकिन सुनहरा बचपन बहुत ही दुर्लभ घटना हैं। साधारण से कारण से कि तुम इसे पाओगें कहां से। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-02)”

स्वर्णिम बचपन-(सत्र-01 )

ओशो का स्वर्णिम बचपन-(सत्र-पहला)

(एक बुद्ध पुरूष का विद्रोही बचपन….)

मुझे फिर उस छोटे से गांव की याद आ गई जहां मैं पैदा हुआ था। यह समझ में नहीं आता कि अस्तित्व ने मेरे जन्म के लिए उस छोटे से गांव को क्यों चुना? वह वैसा ही है जैसा होना चाहिए। वह गांव बहुत सुंदर था। मैंने दूर-दूर बहुत यात्रा की है, कई स्थान देखे हैं किंतु ऐसा सौंदर्य कहीं नहीं देखा। कोई भी चीज दोबारा नहीं मिलती। चीजें आती जाती हैं लेकिन दोबारा वैसा नहीं होता। मैं अभी भी उस छोटे से शांत गांव को देख सकता हूं- तालाब के पास थोड़ी सी झोपड़ियां और कुछ ऊंचे-ऊंचे पेड़ जिनके नीचे मैं खेलता था। गांव में कोई स्कूल नहीं था- यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि लगभग नौ वर्षों तक मैं अशिक्षित था और इन नौ वर्षों का यह समय व्यक्तित्व के निर्माण के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। Continue reading “स्वर्णिम बचपन-(सत्र-01 )”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-10)

जागो–नाचते हुए—दसवां प्रवचन

: दिनांक १० जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना.

प्रश्नसार:

1—जब से तुझे पाया, तेरी महफिल में दौड़ा आया।

तू ही जाने तू क्या पिलाता, हम तो जानें

तेरी महफिल में सबको मधु पिलाता,

जहां पक्षी भी गीत गाएं और पौधे भी लहराएं।

हम न जानें प्रभु-प्रार्थना, नहीं समझें स्वर्ग-नर्क की भाषा

अब हमें न कहीं जाना, न कुछ पाना,

हमें तो लगे यही संसार प्यारा!… Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-10)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-09)

सदगुरु की महिमा—नौवां प्रवचन

: दिनांक ९ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:

धीरजवंत अडिंग जितेंद्रिय निर्मल ज्ञान गहयौ दृढ़ आदू।

शील संतोष क्षमा जिनके घट लगी रहयौ सु अनाहद नादू।।

मेष न पक्ष निरंतर लक्ष जु और नहीं कछु वाद-विवादू।

ये सब लक्षन हैं जिन मांहि सु सुंदर कै उर है गुरु दादू।।

कोउक गौरव कौं गुरु थापत, कोउक दत्त दिगंबर आदू।

कोउक कंथर कोउ भरथथर कोउ कबीर जाऊ राखत नादू। Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-09)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-08)

पुकारो–और द्वार खुल जाएंगे—आठवां प्रवचन

: दिनांक ८ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—भगवान! गत एक महीने से कुछ विचित्र घट रहा है, ध्यान-मंदिर में आपके चित्र के नीचे आपको नमन व स्मरण करे ध्यान प्रारंभ करता हूं तो कुछ क्षणों में ही त्वचा शून्य हो जाती है, रक्त-संचालन बंद हो जाता है, श्वास रुक सी जाती है, घटे-डेढ़ घंटे पश्चात पूर्व-स्थिति आने में आधा घंटा लग जाता है। परंतु पूरे समय अद्वितीय आनंद और स्फूर्ति अनुभव होती है। कृपा करके करके मार्गदर्शन करें।

2—मेरे ख्वाबों के झरोखों को फूलों से सजानेवाले

तेरे ख्वाबों मेरा कहीं गुजारा है कि नहीं

पूछकर अपनी निगाहों से तू बता दे मुझको

मेरी रातों के मुकद्दर में कहीं सुबह है कि नहीं? Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-08)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-07)

हरि बोलौ हरि बोल—सातवां प्रवचन

: दिनांक ७ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:

बांकि बुराई छाड़ि सब, गांठि हृदै की खोल।

बेगि विलंब क्यों बनत है हरि बोलौ हरि बोल।।

हिरदै भीतर पैंठि करि अंतःकरण विरोल।

को तेरौ तू कौन को हरि बोलौ हरि बोल।।

तेरौ तेरे पास है अपनैं मांहि टटोल।

राई घटै न तिल बढ़ैं हरि बोलौ हरि बोल।।

सुंदरदास पुकारिकै कहत बजाए ढोल। Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-07)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-06)

जो है, परमात्मा है—छठवां प्रवचन

: दिनांक ६ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—परमात्मा कहां है?

2—हम तो खुदा के कभी कायल ही न थे, तुमको देखा खुदा याद आया।

3—ऐसा लगता है कि कुछ अंदर ही अंदर खाए जा रहा है, जिसकी वजह से उदासी और निराशा महसूस होती है।

4—संसार से रस तो कम हो रहा है और एक उदासी आ गयी है। जीवन में भी लगता है कि यह किनारा छूटता जा रहा है और उस किनारे की झलक भी नहीं मिली। और अकेलेपन से घबड़ाहट भी बहुत होती है और इस किनारे को पकड़ लेती हूं। प्रभु, मैं क्या करूं? कैसे यहां तक पहुंचूं?

5—क्या आप मुझे पागल बना कर ही छोड़ेंगे?

चूक-चूक मेरी, ठीक-ठीक तेरा! Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-06)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-05)

सुंदर सहजै चीन्हियां—पांचवां प्रवचन

: दिनांक 5 जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र:

हिंदू की हदि छाड़िकै, तजी तुरक की राह।

सुंदर सहजै चीन्हियां, एकै राम अलाह।।

मेरी मेरी करते हैं, देखहु नर की भोल।

फिरि पीछे पछिताहुगे (सु) हरि बोलौ हरि बोल।।

किए रुपइया इकठे, चौकूंटे अरु गोल।

रीते हाथिन वै गए (सु) हरि बोलौ हरि बोल।।

चहल-पहल सी देखिकै, मान्यौ बहुत अंदोल।

काल अचानक लै गयौ (सु) हरि बालौ हरि बोल। Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-05)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-04)

वन समस्या नहीं–वरदान है—प्रवचन-चौथा

: दिनांक 4 जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

पहला प्रश्न: मनुष्य की वस्तुतः अंतिम खोज क्या है?

अपनी ही खोज, अपने से ही पहचान। मनुष्य अकेला है सृष्टि में जिसे स्व-बोध है, जिसे इस बात का होश है कि मैं हूं। पशु हैं, पक्षी हैं, वृक्ष हैं–हैं तो जरूर, लेकिन अपने होने का उन्हें कोई बोध नहीं। होने का बोध नहीं है, इसलिए दूसरा प्रश्न असंभव है उठना कि मैं कौन हूं! हूं सच, पर कौन हूं? और जिसके जीवन में यह दूसरा प्रश्न नहीं उठा, वह पशु तो नहीं है, मनुष्य भी नहीं है। कहीं बीच में अटका रह गया–घर का न घाट का। उसके जीवन में पशु की शांति भी नहीं होगी और उसके जीवन में परमात्मा की शांति भी नहीं होगी। वैसा आदमी बीच में त्रिशुंक की तरह अटका, सदा अशांत होगा। Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-04)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-03)

तुम सदा एकरस, राम जी, राज जी—तीसरा प्रवचन

: दिनांक ३ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

तो पंडित आये, वेद भुलाये, षट करमाये, तृपताये।

जी संध्या गाये, पढ़ि उरझाये, रानाराये, ठगि खाये।।

अरु बड़े कहाये, गर्व न जाये, राम न पाये थाधेला।

दादू का चेला, भरम पछेला, सुंदर न्यारा ह्वै खेला।।

तौ ए मत हेरे, सब हिन केरे, गहिगहि गेरे बहुतेरे।

तब सतगुरु टेरे, कानन मेरे, जाते फेरे आ घेरे।। Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-03)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-02)

संसार अर्थात मूर्च्छा—दूसरा प्रवचन

दिनांक २ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्नसार:

1—ज्ञानी परमात्मा को परम नियम कहते हैं, और कहते हैं कि यह नियम अत्यंत न्यायपूर्ण और कठोर है। दूसरी ओर भक्त परमात्मा को परम प्रेम कहते हैं और परम कृपालु। इस बुनियादी दृष्टि-भेद पर कुछ कहने की कृपा करें।

2—कहते हैं कि खेल के भी नियम होते हैं। फिर यह कैसा कि प्रेम में कोई नियम न हो?

3–भगवान, प्रेम स्वीकार न हो तो…?

4—संसार में असफलता अनिवार्य क्यों है?

5–मैं महापापी हूं मुझे उबारें! Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-02)”

हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-01)

नीर बिनु मीन दुखी-प्रहला प्रवचन

दिनांक १ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

नीर बिनु मीन दुखी, छीर बिनु शिशु जैसे,

पीर जाके औषधि बिनु कैसे रहयो जात है।

चातक ज्यों स्वाति बूंद, चंद कौ चकोर जैसे,

चंदन की चाह करि सर्प अकुलात है।

निर्धन ज्यौं धन चाहे कामिनी को कंत चाहै,

ऐसी जाको चाह ताको कछु न सुहात है।

प्रेम कौ प्रभाव ऐसो, प्रेम तहां नेम कैसो,

सुंदर कहत यह प्रेम ही की बात है। Continue reading “हरि बोलौ हरि बोल-(प्रवचन-01)”

हरि बोलौ हरि बोल (सुंदर दास)-ओशो

हरि बोलौ हरि बोल (संत सुंदर दास)-ओशो

सुंदरदास के पदों पर दिनांक 1 जून से 10 जून, 1979 तक हुए भगवान श्री रजनीश आश्रम पूना में। दस अमृत प्रवचनों की प्रथम प्रवचनमाला।

आमुख

संत सुंदरदास दादू कि शिष्य थे। भगवान श्री का कहना है कि दादू ने बहुत लोग चेताये। दादू महागुरुओं में एक हैं। जिसने व्यक्ति दादू से जागे उतने भारतीय संतों में किसी ने नहीं जागे।

सुंदरदास पर उनके बालपन में ही दादू की कृपा हुई। दादू का सुंदरदास के गांव धौंसा में आना हुआ। सुंदरदास ने उस अपूर्व क्षण का जिक्र इन शब्दों में किया है–

दादू जी जब धौंसा आये

बालपन हम दरसन पाये।

तिनके चरननि नायौ माथा

उन दीयो मेरे सिर हाथा।

यह क्रांति का क्षण जब सुंदर के जीवन में आया तब वे सात वर्ष के ही थे। सात वर्ष! लोग हैं कि सत्तर वर्ष के हो जाते हैं तो भी संन्यासी नहीं होते। निश्चित ही अपूर्व प्रतिभा रही होगी; जो पत्थरों के बीच रोशन दीये की तरह मालूम पड़ रहा होगा।

सुंदरदास ने कहा है–

सुंदर सतगुरु आपनैं, किया अनुग्रह आइ।

मोह-निसा में सोवते, हमको लिया जगाइ।।

दादू ने देख ली होगी झलक। उठा लिया इस बच्चे को हीरे की तरह। और हीरे की तरह ही सुंदर को सम्हाला। इसलिए “सुंदर’ नाम दिया उसे। सुंदर ही रहा होगा बच्चा।

एक ही सौंदर्य है इस जगत में–परमात्मा की तलाश का सौंदर्य।

एक प्रसाद है इस जगत में–परमात्मा को पाने की आकांक्षा का प्रसाद।

धन्यभागी हैं वे–वे ही केवल सुंदर हैं–जिनकी आखों में परमात्मा की छवि बसती है।

तुम्हारी आंखें सुंदर नहीं होती हैं; तुम्हारी आंखों में कौन बसा है, उसमें सौंदर्य होता है।

तुम्हारा रूप-रंग सुंदर नहीं होता; तुम्हारे रूप-रंग में किसकी चाहत बसी है, वहीं सौंदर्य होता है।

और तुम्हें भी कभी-कभी लगा होगा कि परमात्मा की खोज में चलनेवाले आदमी में एक अपूर्व सौंदर्य प्रगट होने लगता है। उसके उठने-बैठने में, उसके बोलने में, उसके चुप होने में, उसकी आंख में, उसके हाथ के इशारों में–एक सौंदर्य प्रगट होने लगता है, जो इस जगत का नहीं है।

“हरि बोलौ हरि बोल’ में संकलित ये दस प्रवचन उस अपूर्व सौंदर्य की ओर आमंत्रण है–उन्हें जिनके हृदय में इसकी प्यास जगी है और जो इस प्यास के लिए अपने सारे जीवन को दांव पर लगा सकते हैं।

“सुंदरदास का हाथ पकड़ो। वे तुम्हें ले चलेंगे उस सरोवर के पास, जिसकी एक घूंट भी सदा को तृप्त कर जाती है।…लेकिन बस सरोवर के पास ले चलेंगे, सरोवर सामने कर देंगे। अंजुली तो तुम्हें बनानी पड़ेगी अपनी। झुकना तो तुम्हें ही पड़ेगा। पीना तो तुम्हें ही पड़ेगा।…लेकिन अगर सुंदर को समझा तो मार्ग में वे प्यास को भी जगाते चलेंगे। तुम्हारे भय सोये हुए चकोर को पुकारेंगे, जो चांद को देखने लगे। तुम्हारे भीतर सोये हुए चकोर को पुकारेंगे, जो चांद को देखने लगे। तुम्हारे भीतर सोये हुए चातक को जगाएंगे, जो स्वाति की बूंद के लिए तड़पने लगे। तुम्हें समझाएंगे कि तुम मछली की भांति हो जिसका सागर खो गया है और जो किनारे पर तड़प रही है।’

ओशो

हंसा तो मोती चुगैं-(प्रवचन-10)

अवल गरीबी अंग बसै—दसवां प्रवचन

दिनाक 20 मई, 1979; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र :

अवल गरीबी अंग बसै, सीतल सदा सुभाव।

पावस बुढ़ा परेम रा, जल सूं सींचो जाव।।

लागू है बोला गा।, घर घर माहीं दोखी।

गुंज कुण। सो किजिए, कुण है थासे सोखी।।

जोबन हा जब जतन हा, काया बड़ी बुढ़ाण।

सुकी लकड़ी न लुलै, किस बिध निकसे काण।।

लाय लगी घर आपणे, घट भीतर होली। Continue reading “हंसा तो मोती चुगैं-(प्रवचन-10)”

हंसा तो मोती चुगैं-(प्रवचन-09)

जागरण मुक्ति है—नौवां प्रवचन

दिनाक 19 मई 1979;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार :

*युनिवर्सिटी की अनेक डिग्रिया प्राप्त करने, राजनीति में सक्रिय रहने, तथा अनेक गुरुओं के भटकाव मैं मैंने अपनी सारी जिंदगी बरबाद कर दी। आपने करुणावश मुझे उन्नीस सौ इकहत्तर में संन्यास दिया। अब सत्तर वर्ष की उस देखकर आंसू बहाता हूं। बराबर आता हूं और सोचता हूं कि इस बार भगवान से बहुत कुछ पूछूंगा। लेकिन आपके पास आते ही प्रश्न खो जाते हैं। बुढ़ापे के कारण अंग शिथिल होता जा रहा है। भगवान, मेरे अंतर को समझकर आप ही मार्गदर्शन करें।  Continue reading “हंसा तो मोती चुगैं-(प्रवचन-09)”

हंसा तो मोती चुगैं-(प्रवचन-08)

शून्य होना सूत्र है—आठवां प्रवचन

दिनाक 18 मई, 1979; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍न सार :

*भगवान! बिहारी की एक अन्योक्ति है फूल्यो अनफूल्यो रहयो गंवई गांव गुलाब क्या भारत में आपके साथ भी यही हो रहा है? दूर दिगंत तक तो आपकी सुवास फैल रही है और भारत अछूता रहा जा रहा है!

*भगवान! मैं मोक्ष नहीं चाहता हूं मैं चाहता हूं कि बार -बार जीवन मिले। आप क्या कहते हैं?   

*भगवान! संन्यास लेने के बाद बहुत मिला-प्रेम, जीने का ढंग…। धन्यभागी हूं। परंतु कभी-कभी काफी घृणा से भर जाता हूं आपके प्रति। इतना कि गोली मार दूं। यह क्या है प्रभु, कुछ   समझ नहीं आता? Continue reading “हंसा तो मोती चुगैं-(प्रवचन-08)”

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