सुन भई साधो-(प्रवचन-20)

उपलब्धि के अंतिम चरण—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांक: 20 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान।

कहिवे को सोभा नहीं, देखा ही परमान।।

एक कहौं तो है नहीं, दोय कहौं तो गारि।

है जैसा तैसा रहे, कहै कबीर विचारि।।

ज्यों तिल माहीं तेल है, चकमक माहीं आग।

तेरा साईं तुज्झ में, जागि सकै तो जाग।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-20)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-19)

प्रार्थना है उत्सव—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

दिनांक: 19 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

सुख में सुमिरन ना किया, दुख में कीया याद।

कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद।।

सुमिरन सुरत लगाइके, मुख ते कछू न बोल।

बाहर के पट देइकै, अंतर के पट खोल।।

माला कर कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-19)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-18)

शिष्यत्व महान क्रांति है—(प्रवचन—अट्ठारहवां)

दिनांक: 18 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

गूंगा हूवा बावला, बहरा हूवा कान।

पाऊं थैं पंगुल भया, सतगुरु मारया बान।।

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवैं परंत।

कहैं कबीर गुरु ग्यान थैं, एक आध उबरंत।।

पासा पकड़ा प्रेम का, सारी किया सरीर।

सतगुरु दाव बताइया, खेलै दास कबीर।।

कबिरा हिर के रुठते, गुरु के सरने जाय। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-18)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-17)

मन रे जागत रहिये भाई—(प्रवचन—सतरहवां)

दिनांक: 17 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होइ रे।

मैं कहता हौं आंखन देखी, तू कागद की लेखी रे।।

मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यो अरुझाई रे।

मैं कहता तू जागत रहियो, तू रहता है सोई रे।।

मैं कहता निरमोही रहियो, तू जाता है मोहि रे।

जुगन—जुगन समुझावत हारा, कहा न मानत कोई रे।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-17)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-16)

अभीप्सा की आग: अमृत की वर्षा–(प्रवचन–सोहलवां)

दिनांक: 16 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

मो को कहां ढूंढ़ो रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।

ना मैं बकरी ना मैं भेड़ी, ना मैं छुरी गंड़ास में।।

नहिं खाल में नहिं पोंछ में, ना हड्डी ना मांस में।

ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।।

ना तो कौनो क्रिया कर्म में, नहिं जोग बैराग में।

खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।।

मैं तो रहौं सहर के बाहर, मेरी पुरी मवास में।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, सब सांसों की सांस में।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-16)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-15)

धर्म और संप्रदाय में भेद—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक: 15 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

साधो देखो जग बौराना।

सांची कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।

हिंदू कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमाना।

आपस में दोउ लड़े मरतु हैं, मरम कोई नहिं जाना।।

बहुत मिले मोहि नेमी धरमी, प्रात करै असनाना।

आतम छोड़ि पखाने पूजैं, तिनका थोथा ग्याना।।

आसन मारि डिम्भ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-15)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-14)

विराम है द्वार राम का—(प्रवचन—चौहदवां)

दिनांक: 14 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

घर घर दीपक बरै, लखै नहिं अंध है।

लखत लखत लखि परै, कटै जमफंद है।।

कहन सुनन कछु नाहिं, नहिं कछु करन है।

जीते—जी मरि रहै, बहुरि नहिं मरन है।।

जोगी पड़े वियोग, कहैं घर दूर है।

पासहि बसत हजूर, तू चढ़त खजूर है।।

बाह्मन दिच्छा देत सो, घर घर घालिहै।

मूर सजीवन पास, तू पाहन पालिहै।।

ऐसन साहब कबीर, सलोना आप है।

नहीं जोग नहिं जाप, पुन्न नहिं पाप है।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-14)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-13)

मन के जाल हजार—(प्रवचन—तैरहवां)

दिनांक: 13 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

चलत कत टेढ़ौ रे।

नऊं दुवार नरक धरि मूंदै, तू दुरगंधि कौ बेढ़ौ रे।।

जे जारै तौ होइ भसम तन, रहित किरम उहिं खाई।

सूकर स्वान काग को भाखिन, तामै कहा भलाई।।

फूटै नैन हिरदै नाहिं सूझै, मति एकै नहिं जानी।

माया मोह ममता सूं बांध्यो, बूड़ि मुवौ बिन पानी।।

बारू के घरवा मैं बैठो, चेतत नहिं अयांना।

कहै कबीर एक राम भगति बिन, बूड़े बहुत सयांना।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-13)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-12)

धर्म कला है—मृत्यु की, अमृत की—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक: 12 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

जग सूं प्रीत न कीजिए,समझि मन मेरा।

स्वाद हेत लपटाइए, को निकसै सूरा।।

एक कनक अरु कामिनी, जग में दोइ फंदा।

इन पै जो न बंधावई, ताका मैं बंदा।।

देह धरै इन मांहि बास, कहु कैसे छूटै।

सीव भए ते ऊबरे, जीवत ते लूटै।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-12)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-11)

अंतयात्र्रा के मूल सूत्र—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक: 11 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

तेरा जन एकाध है कोई।

काम क्रोध अरु लोभ विवर्जित, हरिपद चीन्है सोई।।

राजस तामस सातिग तीन्यू, ये सब तेरी माया

चौथे पद को जे जन चीन्हैं, तिनहि परमपद पाया।।

अस्तुति निंदा आसा छाड़ै, तजै मान अभिमाना।

लोहा कंचन सम करि देखै, ते मूरति भगवाना।।

च्यंतै तो माधो च्यंतामणि, हरिपद रमै उदासा।

त्रिस्ना अरु अभिमान रहित हवै, कहै कबीर सो दासा।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-11)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-10)

मन मस्त हुआ तब क्यों बोले—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक: 20 नवंबर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना

सूत्र:

मस्त हुआ तब क्यों बोले।

हीरा पायो गांठ गठियायो, बारबार बाको क्यों खोले।

हलकी थी तब चढ़ी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोले।।

सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले।

हंसा पाये मानसरोवर, तालत्तलैया क्यों डोले।।

तेरा साहब है घर मांही, बाहर नैना क्यों खोले।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहब मिल गए तिल ओले।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-10)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-09)

रस गगन गुफा में गजर झरै—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक: 19 नवंबर 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना

सूत्र:

रस गगन गुफा में अगर झरै।

बिन बाजा झनकार उठे जहां, समुझि परै जब ध्यान धरै।।

बिना ताल जहं कंवल फुलाने, तेहि चढ़ि हंसा केलि करै।

बिन चंदा उजियारी दरसै, जहं तहं हंसा नजर परै।।

दसवें द्वार तारी लागी, अलख पुरुष जाको ध्यान धरै।

काल कराल निकट नहिं आवै, काम—क्रोध—मद—लोभ जरै।।

जुगत—जुगत की तृषा बुझानी कर्म—कर्म अध—व्याधि टरै।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, अमर होय कबहूं न मरै।।

धर्म है अमृत की खोज। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-09)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-08)

सुनो भाई साधो—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक: 18 नवंबर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना

सूत्र:

संतों जागत नींद न कीजै।

काल न खाय कलप नहि व्यापै, देह जरा नहि छीजै।।

उलट गंग समुद्र ही सौखे, ससिं ओ सूरहि ग्रासै।

नवग्रह मारि रोगिया बैठे, जल, मंह बिंब प्रगासै।।

बिनु चरनन को दहं दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै।

ससै उलटि सिंह कंह ग्रासै, ई अचरज को बूझै।।

औंधे घड़ नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-08)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-07)

घूंघट के पट खोल रे—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक: 17 नवंबर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना

सूत्र:

घूंघट का पट खोल रे, तो को पीव मिलेंगे।

घट घट में वह साईं रमता, कटुक वचन मत बोल रे।।

धन जोवन को गरब न कीजै, झूठा पचरंग बोल रे।

सुन्न महल में दियना बारिले, आसन सों मत डोल रे।।

जागू जुगुत सों रंगमहल में, पिय पायो अनमोल रे।

कह कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे।।

कबीर के पद पहले, कुछ बातें समझ लें। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-07)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-06)

भक्ति का मारग झीनी रे—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक: 16 नवंबर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना।

सूत्र:

भक्ति का मारग झीना रे।

नहिं अचाह नहिं चाहना, चरनन लौ लीना रे।

साधन के रसधार में रहै, निसदिन भीना रे।।

राम में श्रुत ऐसे बसै, जैसे जल मीना रे।

साईं सेवत में देइ सिर, कुछ विलय न कीना रे।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-06)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-05)

झीनी झीनी बिनी चदरिया—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक: 15 नवंबर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना

सूत्र:

झीनी झीनी बिनी चदरिया

काहे के ताना काहे के भरनी, कौन तार से बिनी चदरिया।

इंगला पिंगला ताना भरनी, सुषमन तार से बिनी चदरिया।।

आठ कंवल दस चरखा डोले, पांच तत्तगुन तिनी चदरिया।

सांई को सीयत मास दस लागै, ठोक ठोक के बिनी चदरिया।।

सोई चादर सुर न मुनि ओढ़ी, ओढ़ी के मैली किनी चदरिया।

दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-05)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-04)

गुरु कुम्हार सिष कुंभ है—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक: 14 नवंबर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना

सूत्र:

गुरु मानुष करि जानते, ते नर कहिए अंध।

महादुखी संसार में, आगे जम के बंध।।

तीन लोक नौ खंड में, गुरु ते बड़ा न कोय।

करता करै न करि सकै, गुरु करै सो होय।।

गुरु समान दाता नहिं, जाचक सिष समान।

तीन लोक की संपदा, सो गुरु दीन्हा दान।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-04)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-03)

अपन पौ आपु ही बिसरो—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक: 13 नवंबर, 1974;

श्री ओशो आश्रम, पूना.

सूत्र:

अपन पौ आपु ही बिसरो।

जैसे श्वान कांच मंदिर मह, भरमते भुंकि मरो।।

जौं केहरि बपु निरखि कूपजल, प्रतिमा देखि परो।

वैसे ही गज फटिक सिला पर, दसनन्हि आनि अरो।।

मरकट मूठि स्वाद नहिं बिहुरै, घर घर रटत फिरो।

कहहिं कबीर ललनि के सुगना, तोहि कवने पकड़ो।।

सूत्र में प्रवेश के पहले कुछ आधारभूत बातें समझ लेनी जरूरी है। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-03)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-02)

मन गोरख मन गोविन्दौ—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक: 12 नवंबर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना.

सूत्र:

मन माया तो एक है, माया मनहिं समाय।

तीन लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समुझाय।।

बेढ़ा दीन्हों खेत को, बेढ़ा खेतहि खाय।

तीन लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समुझाय।।

मन जानै सब बात, जानत ही औगुन करै।

काहे की कुसलात, कर दीपक कुंबै पड़ै।।

मन सागर मनसा लहरि, बूड़ै बहुत अचेतन।

कहहिं कबीर ते बांचि हैं, जिनके हृदय विवेक।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-02)”

सुन भई साधो-(प्रवचन-01)

माया महाठगिनी हम जानी—(प्रवचन—पहला)

दिनांक: 11 नवम्बर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना.

सूत्र:

माया महाठगिनी हम जानी।

निरगुन फांस लिए डोलै, बोलै मधुरी बानी।।

केसव के कमला होइ बैठी, सिव के भवन भवानी।

पंडा के मूरत होइ बैठी, तीरथ हू में पानी।।

जोगि के जोगिन होइ बैठी, राजा के घर रानी।

काहू के हीरा होइ बैठी, काहू के कौड़ी कानी।। Continue reading “सुन भई साधो-(प्रवचन-01)”

सुनो भई साधो-(कबीरदास)-ओशो

सुनो भई साधो—(कबीरदास)–ओशो

कबीर दास के अमृृृत वचनों पर फिर से एक बार ओशो के दिये गये बीस अमुुुुल्यप्रवचनों को संकलन, जो दिनांक 11-11-1974  से 20-11-1974 ओर 11 मार्च 1974 से 20 मार्च 1974 तक पूना आश्रम ।

बीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं, तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं, इसलिए गंवार के लिए भी आशा है; बे—पढ़े—लिखे हैं, इसलिए पढ़े—लिखे होने से सत्य का कोई भी संबंध नहीं है। जाति—पाति का कुछ ठिकाना नहीं कबीर की—शायद मुसलमान के घर पैदा हुए, हिंदू के घर बड़े हुए। इसलिए जाति—पाति से परमात्मा का कुछ लेना—देना नहीं है। Continue reading “सुनो भई साधो-(कबीरदास)-ओशो”

साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-10)

जरा-सी चिनगारी काफी है!—दसवां प्रवचन

२० जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

ऐसी भक्ति भरो प्राणों में, सब कीर्तन हो जाए

ऐसा उत्सव दो जीवन को, सब नर्तन हो जाए

मेरे जीवन के पादप को फूल नहीं मिल पाया

मैं हूं ऐसी लहर कि जिसको कूल नहीं कूल पाया

 कहते हैं देवत्व छिपा है पत्थर के प्राणों में

पर मेरे अंतर्मन का सौंदर्य नहीं खिल पाया Continue reading “साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-10)”

साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-09)

जो है, उसमें पूरे के पूरे लीन होना समाधि है—नौवां प्रवचन

१९ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

गुमनाम मंजिल दूर है सबेरा

कोई संगी न साथी मैं हूं अकेला

दुनिया की रीत क्या है? भला ऐसी चीज क्या है?

जिसके बिना यह नाव चलती नहीं।

उल्फत का गीत क्या है? जीवन संगीत क्या है?

जिसके बिना यह रात ढलती नहीं!

नदिया की धार कहे, एहसास जीने का मरता नहीं

अपनी अग्नि में जले, ऐसे तो प्यार कोई करता नहीं!

आप ही कहें, क्या कोई रास्ता नहीं? Continue reading “साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-09)”

साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-08)

प्रेम ही धर्म है—आठवां प्रवचन

१८ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम पूना

पहला प्रश्न: भगवान, जैन धर्म में अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद(सह-अस्तित्व) आदि सिद्धांतों का विशेष स्थान  है। लेकिन आज एक समाचार-पत्र में आपके संबंध में एक जैनमुनि, श्री भद्रगुप्त विजय जी का वक्तव्य पढ़ तो आश्चर्य हुआ। ये मुनिश्री आपके कच्छ-प्रवेश के विरोध में लोगों को सब कुछ बलिदान कर देने के लिए आह्वान कर रहे हैं, संगठित कर रहे हैं। अपरिग्रह माननेवालों को कच्छ प्रदेश पर परिग्रह क्यों? और उनके अनेकांतवाद में आपकी जीवनदृष्टि का विरोध क्यों क्या मुनिश्री का लोगों को इस तरह भड़काना शोभा देता है? Continue reading “साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-08)”

साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-07)

बोध क्रांति है—सातवां प्रवचन

१७ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम; पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

खामोश नजर टूटे दिल से हम अपनी कहानी कहते हैं:

बहते हैं आंसू बहते हैं!

कल तक इन सूनी आंखों में शबनम थी चांद-सितारे थे

ख्वाबों की गमकती कलियां थीं दिलकश रंगीन नजारे थे

पर अब हमको मालूम नहीं हम किस दुनिया में रहते हैं।

कृपा कर पता बताएं।

दीपक शर्मा! जीवन दो ढंग से जीया जा सकता है। एक ढंग तो है नींद का। वहां मीठे सपने हैं। पर सपने ही सपने हैं, जो टूटेंगे ही टूटेंगे। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, देर-अबेर की बात है। और जब टूटेंगे तो गहन उदासी छोड़ जाएंगे। जब टूटेंगे तो पतझड़ छा जाएगा। Continue reading “साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-07)”

साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-06)

प्रार्थना अंतिम पुरस्कार है—छठवां प्रवचन

१६ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

चमक-चमक कर हजार आफताब डूब गये

हम अपनी शामे-अलम को सहर बना न सके

कृपया, अब बताइये क्या करें?

अब्दुल कदीर!

चांदत्तारे तो ऊगेंगे, डूबेंगे; सूरज ऊगेगा, डूबेगा; इससे तुम्हारे अंतरात्मा की अंधकार नहीं मिट सकता है। बाहर का कोई प्रकाश भीतर के अंधकार को मिटाने में असमर्थ है। वह भरोसा ही छोड़ दो। वह भरोसा रखोगे तो भटकोगे। और वही हम सबका भरोसा है। वहीं हम चूक रहे हैं। Continue reading “साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-06)”

साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-05)

धर्म क्रांति है, अभ्यास नहीं—पांचवां प्रवचन

१५ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

ढूंढता हुआ तुम्हें पहुंचा कहां-कहां

न स्वर्ग ही कुछ बोलता न नर्क द्वार खोलता

हर आंख में मैं आंख डाल तसवीर तेरी टटोलता

पहुंच गया कहां-कहां

सांसों के फासले हैं या कि दूरियां ही दूरियां

न तुम ही कुछ हो बोलते मुख से जुबां न खोलते

चलता है कब तलक मुझे यूं सबके दिल टटोलते

तुम कहां और मैं कहां

ढूंढता हुआ तुम्हें पहुंच गया कहां-कहां

जमीं से मिल सका न पता आसमां लगा सका Continue reading “साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-05)”

साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-04)

प्रार्थना या ध्यान?—चौथा प्रवचन

१४ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,

तमसो मा ज्योतिर्गमय

असतो मा सदगमय

मृत्योर्माऽमृतं गमय

उपनिषद की इस प्रार्थना में मनुष्य की विकसित चेतना के अनुरूप क्या कुछ जोड़ा जा सकता है?

नरेंद्र बोधिसत्व, यह प्रार्थना अपूर्व है! पृथ्वी के किसी शास्त्र में, किसी समय में, किसी काल में इतनी अपूर्व प्रार्थना को जन्म नहीं मिला। इसमें पूरब की पूरी मनीषा सन्निहित है। जैसे हजारों गुलाब से बूंद भर इत्र निकले, ऐसी यह प्रार्थना है। प्रार्थना ही नहीं है,समस्त उपनिषदों का सार है। इसमें कुछ भी जोड़ना कठिन है। लेकिन फिर भी मनुष्य निरंतर गतिमान है, यह अजस्र धारा है मनुष्य की चेतना की, जिसका कोई पारावार नहीं है। Continue reading “साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-04)”

साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-03)

प्रेम बड़ा दांव है—तीसरा प्रवचन

१३ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, मैं कौन हूं, क्या हूं, कुछ पता नहीं। आपसे अपना पता पूछने आया हूं।

नारायण शंकर! यह पता तुम्हें कोई और नहीं दे सकता। न मैं, न कोई और। यह तो तुम्हें खुद ही अपने भीतर खोदना होगा। बाहर पूछते फिरोगे, भटकाव ही हाथ लगेगा। बहुत मिल जाएंगे पता देनेवाले। जगह-जगह बैठे हैं पता देनेवाले। बिना खोजे मिल जाते हैं। तलाश में ही बैठे हैं कि कोई मिल जाए पूछनेवाला। सलाह देने को लोग इतने उत्सुक हैं, ज्ञान थोपने को एक-दूसरे के ऊपर इतने आतुर हैं कि जिसका हिसाब नहीं। क्योंकि अहंकार को इससे ज्यादा मजा और किसी बात में नहीं आता। Continue reading “साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-03)”

साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-02)

ये फूल लपटें ला सकते हैं—दूसरा प्रवचन

१२ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, आपकी मधुशाला में ढाली जानेवाली शराब पी-पीकर मखमूर हो गया हूं। भगवान, प्यार करने वालों पर दुनिया तो जलती है मगर अपनी मधुशाला के दूसरे पियक्कड़ भी प्रेम के इतने विरोध में हैं–खासकर पचास प्रतिशत भारतीय, जो कि आज दस-बारह वर्षों से आपके साथ हैं। प्रभु, हमारे विदेशी मित्र तो प्यार करनेवालों को देखकर खुश होते हैं, मगर भारतीय सिर्फ जलते ही नहीं बल्कि अपराधजनक दृष्टि से देखते हैं और घंटों व्यंग्यपूर्ण बातचीत करते रहते हैं। यह जमात प्रेम का बस एक ही मतलब जानती है–“काम’। ऐसा क्यों, प्रभु? क्या प्रेम कर कोई और आयाम नहीं है, खासकर नर-नारी के संबंध में? Continue reading “साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-02)”

साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-01)

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

भगवान श्री रजनीश का पूर्ण मनुष्य—

“”…हसन ने कहा,” राबिया, तूने तो बात ही बदल दी, तूने तो मुझे बहुत झेंपाया। क्षमा कर, आता हूं, भीतर आता हूं, तू ही ठीक कहती है।’

और राबिया ने कहा,”बाहर तो सब माया है, भ्रम है, सत्य तो भीतर है।’

वहां मैं राजी नहीं हूं। बहार भी सत्य है, भीतर भी सत्य है। तुम्हारी नजर जहां पड़ जाए। तुम बाहर को देखोगे तो भीतर के सत्य से वंचित रह जाओगे। और तुम भीतर देखोगे तो तुम बाहर के सत्य से वंचित रह जाओगे। और अब तक यही हुआ। पूरब ने भीतर देखा, बाहर के सत्य से वंचित रह गया। इसलिए दीन है, दरिद्र है, भूखा है,प्यासा है, उदास है, क्षीण है। जैसे मरणशय्या पर पड़ा है। क्योंकि बाहर तो सब माया है। तो फिर कौन विज्ञान को जन्म दे? कौन उलझे माया में? और कौन खोजे माया के सत्यों को? और माया में सत्य हो कैसे सकते हैं? Continue reading “साहिब मिले साहिब भये-(प्रवचन-01)”

साधना-सूत्र-(प्रवचन-17)

अदृश्‍य का दर्शन—(प्रवचन—सत्‍तरहवां)

सूत्र:

लिखा है कि जो दिव्यता के द्वार तक पहुंच चुका है,

उसके लिए कोई भी नियम बनाया नहीं जा सकता

और न कोई पथ—प्रदर्शक ही उसके लिए हो सकता है!

फिर भी शिष्य को समझाने के लिए

इस अंतिम युद्ध का वर्णन इस प्रकार कर सकते हैं:

13—जो मूर्त नहीं है और अमूर्त भी नहीं है, उसका अवलंबन लो। Continue reading “साधना-सूत्र-(प्रवचन-17)”

साधना-सूत्र-(प्रवचन-16)

पूछो—अपने ही अंतरतम से—(प्रवचन—सोलहवां)

सूत्र:

12—पूछो अपने ही अंतरतम, उस एक से,

जीवन के परम रहस्य को,

जो कि उसने तुम्हारे लिए युगों से छिपा रखा है।

जीवात्मा की वासनाओं को

जीत लेने का बड़ा और कठिन कार्य युगों का है।

इसलिए उसके पुरस्कार को पाने की आशा तब तक मत करो,

जब तक युगों के अनुभव एकत्रित न हो जाएं।

जब इस बारहवें नियम को सीखने का समय आता है,

तब मानव मानवेतर (अतिमानव) अवस्था की डचोढी पर पहुंच जाता है। Continue reading “साधना-सूत्र-(प्रवचन-16)”

साधना-सूत्र-(प्रवचन-15)

पूछो—पवित्र पुरूषों से—(प्रवचन—पंद्रहवां)

सूत्र:

आंतरिक इंद्रियों को उपयोग में लाने की शक्ति प्राप्त करके,

बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीतकर,

जीवात्मा की इच्छाओं पर विजय पाकर और ज्ञान प्राप्त करके,

हे शिष्य,

वास्तव में मार्ग में प्रविष्ट होने के लिए तैयार हो जा।

मार्ग मिल गया है

उस पर चलने के लिए अपने को तैयार कर। Continue reading “साधना-सूत्र-(प्रवचन-15)”

साधना-सूत्र-(प्रवचन-14)

अंतरात्‍मा का सम्‍मान—(प्रवचन—चौहदवां)

सूत्र:

9—अपनी अंतरात्मा का पूर्णरूप से सम्मान करो।

 क्योंकि तुम्हारे हृदय के द्वारा वह प्रकाश प्राप्त होता है,

जो जीवन को आलोकित कर सकता है

और उसे तुम्हारी आंखों के समक्ष स्पष्ट कर सकता है।

समझने में कठिन केवल एक ही वस्तु है—

स्वयं तुम्हारा अपना हृदय।

जब तक व्यक्तित्व के बंधन ढीले नहीं होते,

तब तक आत्मा का गहन रहस्य खुलना आरंभ नहीं होता है। Continue reading “साधना-सूत्र-(प्रवचन-14)”

साधना-सूत्र-(प्रवचन-13)

जीवन का सम्‍मान—(प्रवचन—तैरहवां)

सूत्र:

7—समग्र जीवन का सम्‍मान करो, जो तुम्‍हें चारों और से घेरे हुए है।

अपने आसपास के निरंतर बदलने वाले

और चलायमान जीवन पर ध्‍यान दो,

क्‍योंकि वह मानवों के ह्रदय का ही बना है।

और ज्‍यों–ज्‍यों तुम उसकी बनावट और उसकी आशय समझोगे,

त्‍यों—त्‍यों क्रमश: तुम जीवन का विशालतर शब्‍द भी

पढ़ और समझ सकोगे। Continue reading “साधना-सूत्र-(प्रवचन-13)”

साधना-सूत्र-(प्रवचन-12)

स्‍वर—बद्धता का पाठ—(प्रवचन—बारहवां)

      सूत्र:

5—सुने गये स्वर—माधुर्य को अपनी स्मृति में अंकित करो।

 जब तक तुम केवल मानव हो,

तब तक उस महा—गीत के कुछ अंश ही तुम्हारे कानों तक पहुंचते हैं।

परंतु यदि तुम ध्यान देकर सुनते हो,

तो उन्हें ठीक—ठीक स्मरण रखो;

जिससे कि जो कुछ तुम तक पहुंचा है, वह खो न जाए।

और उससे उस रहस्य का आशय समझने का प्रयत्न करो,

जो रहस्य तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए है। एक समय आएगा, Continue reading “साधना-सूत्र-(प्रवचन-12)”

साधना-सूत्र-(प्रवचन-11)

जीवन का संगीत—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

सूत्र:

4—जीवन का संगीत सुनो।

उसे खोजो और पहले उसे अपने हृदय में ही सुनो।

आरंभ में तुम कदाचित कहोगे कि यहां गीत तो है नहीं,

मैं तो जब ढूंढता हूं तो केवल बेसुरा कोलाहल ही सुनाई देता है।

और अधिक गहरे ढूंढो,

यदि फिर भी तुम निष्फल रहो

तो ठहरो और भी अधिक गहरे में फिर ढूंढ़ों। Continue reading “साधना-सूत्र-(प्रवचन-11)”

साधना-सूत्र-(प्रवचन-10)

जीवन—संग्राम में साक्षीभाव—(प्रवचन—दसवां)

सूत्र:

1—भावी जीवन—संग्राम में साक्षीभाव रखो।

और यद्यपि तुम युद्ध करोगे, पर तुम योद्धा मत बनना।

वह तुम्हीं हो, फिर भी तुम सीमित हो और भूल कर सकते हो।

वह शाश्वत और निसंशय है।

वह शाश्वत सत्य है।

जब वह एक बार तुममें प्रविष्ट हो चुका और तुम्हारा योद्धा बन गया,

तो फिर वह तुम्हें कभी सर्वथा न त्याग देगा

और महाशांति के दिन वह तुमसे एकात्म हो जाएगा। Continue reading “साधना-सूत्र-(प्रवचन-10)”

साधना-सूत्र-(प्रवचन-09)

एकमात्र पथ—निर्देश—(प्रवचन—नौवां)

सूत्र:

नीरवता (साइलेंस) में से, जो स्वयं शांति है,

एक गूंजती हुई वाणी प्रकट होगी।

और वह वाणी कहेगी.

‘यह अच्छा नहीं है, काट तो तुम चुके, अब तुम्हें बोना चाहिए।’

यह वाणी स्वयं नीरवता ही है,

यह जानकर तुम उसके आदेश का पालन करोगे।

तुम जो अब शिष्य हो,

अपने पैरों पर खड़े रह सकते हो,

सुन सकते हो, देख सकते हो, बोल सकते हो। Continue reading “साधना-सूत्र-(प्रवचन-09)”

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