देख कबीरा रोया-राष्ट्रीय ओर सामाजिक
आठवां प्रवचन-विध्वंस: सृजन का प्रारंभ
यह सवाल नहीं है। पहली बात तो यह कि मैं निपट एक व्यक्ति की भांति, जो मुझे ठीक लगता है वह में कहूं। न तो मेरी कोई संस्था है, न कोई संगठन। हां, कोई संगठन बना कर मेरी बात उसे ठीक लगती है और लोगों तक पहुंचाए, तो वैसा संगठन जीवन जागृति केंद्र है। वह उसका संगठन है, जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है और वे लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं। लेकिन मैं उस संगठन का हिस्सा नहीं हूं और उस संगठन का मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है, इसलिए वह संगठन रोज मुश्किल में है। क्योंकि कल मैंने कुछ कहा था, वह संगठन के लोगों को ठीक लगता था। आज कुछ कहता हूं, नहीं ठीक लगता है। वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। मेरी तो उनसे कोई शर्त नहीं है, उनसे मैं बंधा हुआ नहीं हूं, इसलिए जितनी प्रवृत्तियां चलती हैं, जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है, उनके द्वारा चलती हैं। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-08)”