देख कबीरा रोया-(प्रवचन-08)

देख कबीरा रोया-राष्ट्रीय ओर सामाजिक

आठवां प्रवचन-विध्वंस: सृजन का प्रारंभ

यह सवाल नहीं है। पहली बात तो यह कि मैं निपट एक व्यक्ति की भांति, जो मुझे ठीक लगता है वह में कहूं। न तो मेरी कोई संस्था है, न कोई संगठन। हां, कोई संगठन बना कर मेरी बात उसे ठीक लगती है और लोगों तक पहुंचाए, तो वैसा संगठन जीवन जागृति केंद्र है। वह उसका संगठन है, जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है और वे लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं। लेकिन मैं उस संगठन का हिस्सा नहीं हूं और उस संगठन का मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है, इसलिए वह संगठन रोज मुश्किल में है। क्योंकि कल मैंने कुछ कहा था, वह संगठन के लोगों को ठीक लगता था। आज कुछ कहता हूं, नहीं ठीक लगता है। वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। मेरी तो उनसे कोई शर्त नहीं है, उनसे मैं बंधा हुआ नहीं हूं, इसलिए जितनी प्रवृत्तियां चलती हैं, जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है, उनके द्वारा चलती हैं। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-08)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-07)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

सातवां-प्रवचन-तोडने का एक उपक्रम

जो ठीक है और सच है वह मुझे कहना ही पड़ेगा। इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं। आखिर जो सत्य है, लोगों को उसके साथ आना पड़ेगा–चाहे वे आज दूर जाते हुए मालूम पड़ें। और लोग पास हैं इसलिए मैं असत्य नहीं बोल सकता। क्योंकि सच जब भी बोला जाएगा, तब भी प्राथमिक परिणाम उसका यही होगा कि लोग दूर भागेंगे। क्योंकि हजारों वर्षों की धारणा में वे पले हैं, उस पर चोट पड़ेगी। सत्य का हमेशा ही यही परिणाम हुआ है। सत्य हमेशा डिवास्टेंटिंग है। एक अर्थ है कि वह जो हमारी धारणा है उसको तो तोड़ डालेगा। और अगर धारणा तोड़ने से हम बचना चाहें तो हम सत्य नहीं बोल सकते। जान कर मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाह रहा हूं। डेलिब्रेटली मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाहता। लेकिन सत्य जितनी चोट पहुंचाता है उसमें मैं असमर्थ हूं, उतनी चोट पहुंचेगी। उसको बचा भी नहीं सकता हूं। फिर मैं कोई राजनीतिक नेता नहीं हूं कि मैं इसकी फिक्र करूं कि लोग मेरे पास आएं, कि मैं इसकी फिक्र करूं कि पब्लिक ओपिनियन क्या है? Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-07)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-06)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

छठवां-प्रवचन–तोड़ने का एक और उपक्रम

मेरे प्रिय आत्मन्!

मित्रों ने बहुत से प्रश्न से पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है: महापुरुषों की आलोचना की बजाय उचित होगा कि सृजनात्मक रूप से मैं क्या देखना चाहता हूं देश को, समाज को, उस संबंध में कहूं।

लेकिन आलोचना से इतने भयभीत होने की क्या बात है। क्या यह वैसा ही नहीं है हम कहें कि पुराने मकान को तोड़ने की बजाय नये मकान को बनाना ही उचित है? पुराने को तोड़े बिना नये को बनाया कब किसने है? और कैसे बना सकता है? विध्वंस भी रचना की प्रक्रिया का हिस्सा है। तोड़ना भी बनाने के लिए जरूरी हिस्सा है। अतीत की आलोचना भविष्य में गति करने का पहला चरण है और जो लोग अतीत की आलोचना से भयभीत होते हैं, वे वे ही लोग हैं जो भविष्य में जाने में सामर्थ्य भी नहीं दिखा सकते हैं। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-06)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-05)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

पांचवां-प्रवचन–अतीत के मरघट से मुक्ति

मेरे प्रिय आत्मन्!

आज ही एक पत्र में मुझे स्वामी आनंद का एक वक्तव्य पढ़ने को मिला। और बहुत आश्चर्य भी हुआ, बहुत हैरानी भी हुई। स्वामी आनंद से किसी ने पूछा कि मैं जो कुछ गांधीजी के संबंध में कह रहा हूं उसके संबंध में आपके क्या खयाल हैं? स्वामी आनंद ने तत्काल कहा, उस संबंध में मैं कुछ भी नहीं कहना चाहता हूं। शिष्टाचार वश शायद उनके मुंह से ऐसा निकल गया होगा, क्योंकि यह कहने के बाद वे रुके नहीं और जो कहना था वह कहा। ऊपर से ही कह दिया होगा कि कुछ नहीं कहना चाहता हूं, लेकिन भीतर आग उबल रही होगी वह पीछे से निकल आई, इससे रुकी नहीं। आश्चर्य लगा मुझे कि पहले कहते हैं कि कुछ भी नहीं कहना चाहता हूं और फिर जो कहते हैं! आदमी ऐसा ही झूठा और प्रवंचक है। शब्दों में कुछ है, भीतर कुछ है। कहता कुछ है, कहना कुछ और चाहता है। उन्होंने जो कहा वह और भी हैरानी का है। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-05)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-04)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

चौथा-प्रवचन–लकीरों से हट कर

मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि गांधीजी ने दरिद्रों को दरिद्रनारायण कहा, इससे उन्होंने दरिद्रता को कोई गौरव-मंडित नहीं किया है, कोई ग्लोरीफाई नहीं किया है।

शायद आपको पता न हो, दरिद्रनारायण शब्द गांधीजी की ईजाद है। हिंदुस्तान में एक शब्द चलता था, वह था लक्ष्मीनारायण। दरिद्रनारायण शब्द कभी नहीं चलता था, चलता था लक्ष्मीनारायण। मान्यता यह थी कि लक्ष्मी के पति ही नारायण हैं। ईश्वर को भी हम ईश्वर कहते हैं, ऐश्वर्य के कारण। वह शब्द भी ऐश्वर्य से बनता है। लक्ष्मी के पति जो हैं वह नारायण हैं। समृद्धनारायण, ऐसी हमारी धारणा थी। हजारों साल से वही धारणा थी। धारणा यह थी कि जिनके पास धन है उनके पास धन पुण्य के कारण है, परमात्मा की कृपा के कारण है। धन का एक महिमावान रूप था, धन गौरव-मंडित था, धन की ग्लोरी थी हजारों वर्षों से। दरिद्र दरिद्र था पाप के कारण, अपने पिछले जन्मों के पापों के कारण दरिद्र था। धनी धनी था अपने पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण। धन प्रतीक था उसके पुण्यवान होने का, दरिद्रता प्रतीक थी उसके पापी होने का। यह हमारी धारणा थी। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-04)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-03)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

तीसरा प्रवचन —एक और असहमति

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं और न ही मैंने अपने किसी पिछले जन्म में ऐसे कोई पाप किए हैं कि मुझे राजनीतिज्ञ होना पड़े। इसलिए राजनीतिज्ञ मुझसे परेशान न हों और चिंतित न हों। उन्हें घबड़ाने की और भयभीत होने की कोई भी जरूरत नहीं है। मैं उनका प्रतियोगी नहीं हूं, इसलिए अकारण मुझ पर रोष भी प्रकट करने में शक्ति जाया न करें। लेकिन एक बात जरूर कह देना चाहता हूं, हजारों वर्ष तक भारत के धार्मिक व्यक्ति ने जीवन के प्रति एक उपेक्षा का भाव ग्रहण किया था। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-03)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-02)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

दूसरा प्रवचन —संचेतना के ठोस आयाम

कुछ मित्रों ने कहा है कि गांधीजी यंत्र के विरोध में नहीं थे। और मैंने कल सांझ को कहा कि गांधीजी यंत्र, केंद्रीकरण विकसित तकनीक के विरोध में थे।

गांधीजी की उन्नीस सौ अठारह से लेकर उन्नीस सौ अड़तालीस तक की चिंतना को हम देखेंगे तो उसमें बहुत फर्क होता हुआ मालूम पड़ता है। वे बहुत सजग आब्जर्वर थे। वे रोज-रोज, जो उन्हें गलत दिखाई पड़ता, उसे छोड़ते, जो ठीक दिखाई पड़ता उसे स्वीकार करते हैं। धीरे-धीरे उनका यंत्र-विरोध कम हुआ था, लेकिन समाप्त नहीं हो गया था।

अगर वे जीवित रहते और बीस वर्ष, तो शायद उनका यंत्र-विरोध और भी नष्ट हो गया होता। Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-02)”

देख कबीरा रोया-(प्रवचन-01)

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

पहला प्रवचन —एक मृत महापुरुष का जन्म

मेरे प्रिय आत्मन्!

वेटिकन पोप अमेरिका गया हुआ था। हवाई जहाज से उतरने के पहले उसके मित्रों ने उससे कहा, एक बात ध्यान रखना, उतरते ही हवाई अड्डे पर पत्रकार कुछ पूछें तो थोड़ा सोच-समझ कर उत्तर देना। और “हां’ और “न’ में तो उत्तर देना ही नहीं। जहां तक बन सके, उत्तर देने से बचने की कोशिश करना; अन्यथा अमेरिका में आते ही परेशानी शुरू हो जाएगी।

पोप जैसे ही हवाई अड्डे पर उतरा, वैसे ही पत्रकारों ने उसे घेर लिया और एक पत्रकार ने उससे पूछा, वुड यू लाइक टु विजिट एनी न्युडिस्ट कैंप, वाइल इन न्यूयार्क? क्या तुम कोई दिगंबर क्लब, कोई न्युडिस्ट क्लब, कोई नग्न रहने वाले लोगों के क्लब में, न्यूयार्क में रहते समय जाना पसंद करोगे? Continue reading “देख कबीरा रोया-(प्रवचन-01)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-20)

‘मैं’ की मुक्ति नहीं, ‘मैं’ से मुक्ति—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांक 10 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

सदगुरु तोसोत्सु ने तीन रोधक (ईंततपमते) निर्मित किये। और उन्हें वे साधुओं से पार करवाते थे।

पहला रोधक: झेन का अध्ययन है। झेन के अध्ययन का उद्देश्य है, अपने ही सच्चे स्वभाव का दर्शन करना।

अब तुम्हारा सच्चा स्वभाव क्या है?

दूसरा: जब कोई अपने सच्चे स्वभाव को प्राप्त कर लेता है तब वह जन्म और मृत्यु से मुक्त हो जायेगा। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-20)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-19)

परिधि के विसर्जन से केंद्र में प्रवेश—(प्रवचन—उन्नीसवां)

दिनांक 9 अक्टूबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

सदगुरु जोशु उस जगह पर गए जहां एक भिक्षु ध्यान कर रहा था। उन्होंने भिक्षु से पूछा, ‘जो है, सो क्या है?’ ‘What is, is what?’

भिक्षु ने अपनी मुट्ठी उठाई।

जोशु ने उत्तर दिया, ‘जहाज वहां नहीं रह सकते जहां पानी बहुत उथला हो।’ और वे चले गए।

कुछ दिनों के बाद सदगुरु जोशु फिर उस भिक्षु के पास गए, और उन्होंने वही प्रश्न पूछा। भिक्षु ने पुराने ढंग से ही उत्तर दिया। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-19)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-18)

समर्पित हृदय में ही सत्य का अवतरण—(प्रवचन—अठारहवां)

दिनांक 8 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

सूफी सत्य के खोजी माने जाते हैं–उस सत्य के जो विषयगत हकीकत ९ठइरमबजपअम तमंसपजल० का ज्ञान होता है।      

एक अज्ञानी, लालची और प्रजापीड़क राजा ने निश्चय किया कि मैं इस सत्य को भी अपने अधिकार में ला कर रहूंगा। स्पेन के मुर्सिया नामक स्थान का स्वामी था वह और नाम था उसका रोडरिक। उसने यह भी तय किया कि तरागोना के सूफी उमर-अल-अलावी को यह सत्य बताने के लिए मजबूर किया जाये।

फलतः उमर को गिरफ्तार कर राज-दरबार में हाजिर किया गया। रोडरिक ने उनसे कहा, ‘मैंने निर्णय किया है कि जो सत्य आप जानते हैं उसे आप मुझे उन शब्दों में बता देंगे जिन्हें मैं समझ सकूं। और यदि ऐसा नहीं हुआ तो आपको अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ेगा।’ Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-18)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-17)

अतियों से बचकर मध्य में जीना प्रज्ञा है—(प्रवचन—सत्रहवां)

दिनांक 7 अक्टूबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान !

महान सुलतान महमूद एक दिन अपनी राजधानी गजनी की सड़कों पर घूम रहे थे। उन्होंने देखा कि एक गरीब भारिक पीठ पर भारी पत्थर का बोझ लिये दम तोड़ रहा है। उसकी हालत से द्रवीभूत होकर महमूद ने शाही ढंग से हुक्म दिया,  ‘ओ भारिक, उस पत्थर को नीचे गिरा दे।’

तुरंत ही आज्ञा का पालन हुआ। पर पत्थर उस रास्ते पर राहगीरों की बाधा बन कर बहुत वर्षों पड़ा रहा। अंत में अनेक नागरिकों ने बादशाह से प्रार्थना की कि वे उस पत्थर के हटाये जाने का हुक्म निकालें। प्रशासकीय बुद्धि से विचार कर सुलतान ने कहा, ‘जो हुक्म के द्वारा किया गया है, वह वैसे ही समान हुक्म से रद्द नहीं किया जा सकता। क्योंकि उससे लोग यही सोचेंगे कि शाही फरमान झक से प्रेरित होते हैं। पत्थर जहां है, वहीं रहेगा।’ Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-17)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-16)

धर्म का मूल रहस्य स्वभाव में जीना है—(प्रवचन—सोलहवां)

दिनांक 6 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

सेहेई के शिष्य सुईबी ने एक दिन अपने गुरु से पूछा, ‘गुरुदेव, धर्म का मूल रहस्य क्या है?’

सदगुरु ने कहा, ‘प्रतीक्षा करो। और जब हम दोनों के अतिरिक्त यहां कोई भी नहीं होगा, तब मैं तुम्हें बताऊंगा।’

और फिर उस दिन बहुत बार ऐसे मौके आये जब कि वे दो ही झोपड़े में थे और हर बार सुईबी ने अपने प्रश्न भी दुहराये, लेकिन वह अपना प्रश्न पूरा भी नहीं कर पाता था, कि सेहेई अपने होठों पर उंगली रख कर उसे चुप होने को इशारा कर देते थे। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-16)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-15)

संतत्व का लक्षण: सर्वत्र परमात्मा की प्रतीति—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक 5 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

संत रयोकान किसी पहाड़ की तलहटी में एक झोपड़े में रहते थे। अत्यंत ही सादा जीवन था उनका। एक संध्या एक चोर उनके झोपड़े में घुसा, लेकिन उसने देखा कि झोपड़े में तो कुछ भी नहीं है।

इस बीच संत झोपड़े पर वापस आए और उन्होंने चोर को निकलते देख लिया। उस चोर से उन्होंने कहा, ‘तुम लंबी यात्रा करके मुझसे मिलने आये, इसलिए तुम्हारा खाली हाथ लौटना उचित नहीं है। कृपा कर भेंट में मेरे अंगवस्त्र लिये जाओ।’

चोर तो बहुत हैरान रह गया। बहुत झेंप के साथ उसने कपड़े लिये और चुपचाप गायब हो गया। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-15)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-14)

प्रकृत और सहज होना ही परमात्मा के निकट होना—(प्रवचन—चौदहवां)

दिनांक 4 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

एक लंबी और थकान भरी यात्रा में, तीन मुसाफिर साथ हो लिये। उन्होंने अपने पाथेय से लेकर सुख-दुख, सबकी साझेदारी कर ली।

कई दिनों के बाद उन्हें मालूम हुआ कि अब उनके पास सिर्फ कौर भर रोटी और घूंट भर पानी बचा है और वे इस बात के लिये झगड़ने लगे कि यह पूरा भोजन किसको मिले? नहीं बात बनी, तो उन्होंने रोटी और पानी को बांटने की कोशिश की। फिर भी वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके।      

जब रात उतरी तब एक ने सो जाने का सुझाव दिया। तय किया कि जागने पर वह व्यक्ति निर्णय करेगा जो रात में सबसे बढ़िया स्वप्न देखेगा। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-14)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-13)

मृत्यु है जीवन का केंद्रीय तथ्य—(प्रवचन—तेरहवां)

दिनांक 3 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

किसी समय एक आदमी के पास बहुत से पशु-पक्षी थे। उसने सुना कि हजरत मूसा पशु-पक्षियों की भाषा समझते हैं। वह उनके पास गया और बहुत हठ करके उसने उनसे वह कला सीखी। तब से वह आदमी अपने पशु-पक्षियों की बातचीत सुनने लगा।

एक दिन मुर्गे ने कुत्ते से कहा कि घोड़ा शीघ्र ही मर जायेगा। यह सुनकर उस व्यक्ति ने घोड़े को बेच दिया ताकि हानि से वह बच जाये। कुछ दिनों के बाद उसने उसी मुर्गे को कुत्ते से कहते सुना कि जल्द ही खच्चर मरने वाला है। मालिक ने खच्चर को भी बेच दिया। फिर मुर्गे ने कहा कि अब गुलाम की मृत्यु होनेवाली है। और मालिक ने गुलाम को भी वैसे ही बेच डाला और बहुत खुश हुआ कि ज्ञान का इतना-इतना फल प्राप्त हो रहा है। तब एक दिन उसने मुर्गे को कुत्ते से कहते सुना कि यह आदमी खुद मर जानेवाला है। अब तो वह भय से कांपने लगा। वह दौड़ता हुआ मूसा के पास पहुंचा और पूछा कि अब मैं क्या करूं? Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-13)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-12)

मन से मुक्त होना ही मुक्ति है—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक 2 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

मात्सु साधना में था। वह अपने गुरु-आश्रम के एकांत झोपड़े में, अहर्निश मन को साधने का अभ्यास करता था। जो उससे मिलने भी जाते, उनकी ओर भी वह कभी ध्यान नहीं देता था।

उसके गुरु एक दिन उसके झोपड़े पर गये। मात्सु ने उनकी ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया। पर गुरु दिन भर वहीं बैठे रहे और एक ईंट को पत्थर पर घिसते रहे।

मात्सु से अंततः न रहा गया और उसने पूछा, ‘आप यह क्या कर रहे हैं?’ Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-12)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-11)

बुद्धि के अतिक्रमण से अद्वैत में प्रवेश—(प्रवचन—ग्यारहवां)

दिनांक 1 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

सदगुरु शुजान ने अपना छोटा डंडा उठाया और कहा:

‘अगर तुम इसे छोटा डंडा कहते हो, तो तुम इसके सत्य का विरोध करते हो। और अगर तुम इसे छोटा डंडा नहीं कहते हो, तो तुम इसके तथ्य को अस्वीकारते हो। अब कहो, तुम इसे क्या कहना पसंद करोगे?’

If you call it a short] you oppose its reality. And if you do not call it a short staff, you ignore the face.’

(‘टिलवन बंसस पजीवतज जिलवन वचचवेम पजे तमंसपजल् : दकपिलवन कव दवज बंसस पजीवतज जिलवन पहदवतम जीम बिज्’)

भगवान! झेनगुरु की इस पहेली में निहित अभिप्राय समझाने की अनुकंपा करें। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-11)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-10)

श्रद्धा की आंख से जीवित ज्योति की पहचान—(प्रवचन—दसवां) 

दिनांक 30 सितंबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

एक अंधेरी रात में किसी सुनसान सड़क पर दो आदमी मिले। पहले ने कहा: ‘मैं एक दूकान की खोज में हूं जिसे लोग दीये की दूकान कहते हैं।’

दूसरे ने कहा, ‘मैं यहां पास ही रहता हूं और तुम्हें उसका रास्ता बता सकता हूं।’

‘मैं खुद खोज लूंगा। मुझे रास्ता बता दिया गया है और उसे मैंने लिख भी लिया है।’ पहला आदमी बोला।

‘फिर तुम इस संबंध में बात ही क्यों करते हो?’ दूसरे ने पूछा। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-10)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-09)

सत्य और असत्य के बीच चार अंगुल का अंतर—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 29 सितंबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

किसी समय एक शहर था, जिसमें दो समानांतर गलियां थीं। एक दरवेश किसी दिन एक गली से दूसरी गली में जा पहुंचा और लोगों ने देखा कि उसकी आंखों में आंसू हैं।

‘दूसरी गली में कोई मर गया है,’ एक आदमी ने चीखकर कहा। और तुरंत ही पास के बच्चों ने उसकी बात को सिर पर उठा लिया। वास्तव में हुआ यह था कि दरवेश प्याज छील रहा था।

थोड़ी ही देर में बच्चों की आवाज पहली गली में पहुंच गई। और दोनों गलियों के सयाने इतने दुखी और भयभीत हुए कि उन्हें चीख-पुकार का कारण जानने की हिम्मत भी नहीं रही। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-09)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-08)

द्वैत के विसर्जन से एक-स्वरता का जन्म—(प्रवचन—आठवां) 

दिनांक 28 सितंबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

झेन सदगुरु बांकेई के विहार के पास ही एक अंधा आदमी रहता था। बांकेई की मृत्यु हुई, तब उस अंधे व्यक्ति ने अपने एक मित्र से कहा:

‘क्योंकि मैं अंधा हूं और किसी व्यक्ति के चेहरे का निरीक्षण नहीं कर सकता, इसलिये मुझे उसके चरित्र का निर्णय उसकी आवाज से ही करना होता है। आमतौर से जब मैं किसी को उसकी खुशी या सफलता के लिये दूसरे को बधाई देते सुनता हूं, तो उसमेंर् ईष्या की प्रच्छन्न ध्वनि भी सुनता हूं। और जब दूसरे की विपत्ति में शोक प्रकट किया जाता है, तब मैं उसके भीतर प्रसन्नता और संतोष भी सुनता हूं। मानो शोक प्रगट करनेवाला सचमुच खुश है कि उसकी अपनी दुनिया में कोई उपलब्धि होनेवाली है। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-08)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-07)

कृत्य नहीं, भाव है महत्वपूर्ण—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 सितंबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

सीरो विहार के सदगुरु होगेन, रात्रि-भोजन के पूर्व प्रवचन करने ही वाले थे कि उन्होंने देखा कि जो बांस की जाली ध्यान के लिए लटकायी गयी थी, वह अभी तक समेटी नहीं गयी है। उन्होंने उसकी ओर इशारा किया और तुरंत दो साधु सभा से उठकर उसे समेटने लगे।

उस प्रकृत क्षण का निरीक्षण करते हुए सदगुरु ने कहा: ‘पहले साधु की दशा तो अच्छी है, पर दूसरे की नहीं।’        

भगवान! इस झेन बोध-कथा का अभिप्राय बताने की कृपा करें।

स बोध कथा में प्रवेश के पूर्व कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-07)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-06)

प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाहिं—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 सितंबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

रूमी ने एक गीत में कहा है:

प्रेयसी के द्वार पर किसी ने दस्तक दी।

भीतर से आवाज आई, ‘कौन है?’

जो द्वार के बाहर खड़ा था उसने कहा, ‘मैं हूं।’

प्रत्युत्तर में उसे सुनाई पड़ा, ‘यह घर मैं और तू, दो को नहीं संभाल सकता।’ Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-06)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-05)

मृत्यु के सतत स्मरण से अमृत की उपलब्धि—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 25 सितंबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

एक दरवेश समुद्र-यात्रा पर था। परिपाटी के अनुसार सभी यात्री एक-एक कर उसके पास गये और उससे नेक सलाह मांगी। दरवेश ने सबको एक ही बात कही:

‘मृत्यु के प्रति होश रखो, जब तक मृत्यु को जान ही न लो।’ दरवेश-ध्यान का एक सूत्र था यह। लेकिन किसी मुसाफिर को भी यह बात रास नहीं आई।

थोड़ी देर बाद समुद्र में भयानक तूफान उठा। समूचे जहाज में त्राहि-त्राहि मच गई। नाविक और यात्री, सभी घुटनों पर झुक गये और ईश्वर से जहाज को बचाने की प्रार्थना करने लगे। लेकिन इस आतंक के बीच भी दरवेश अनुद्विग्न और शांत बैठा रहा। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-05)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-04)

मृत शब्दों से जीवित सत्य की प्राप्ति असंभव—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 24 सितंबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

एक घुमक्कड़ साधु ने एक बूढ़ी स्त्री से तैजान का रास्ता पूछा। तैजान एक प्रसिद्ध मंदिर है और समझा जाता है कि वहां पूजा करने से विवेक की उपलब्धि होती है।

बूढ़ी स्त्री ने कहा: ‘सीधे आगे चले जाओ।’

जब साधु कुछ दूर गया था तो बुढ़िया ने स्वयं से कहा: ‘यह भी एक साधारण मंदिर जाने वाला है।’

किसी ने यह बात जोशू से कह दी।

जोशू ने कहा: ‘रुको, जब तक मैं जांच-पड़ताल न कर लूं।’ Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-04)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-03)

समाज की उपेक्षा कर स्वयं में छिपे ध्यान-स्रोत की खोज करें—(प्रवचन—तीसरा)  

दिनांक 23 सितंबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

किसी पुराने समय में मूसा के गुरु खिद्र ने चेतावनी दी कि एक खास तारीख के बाद दुनिया के सारे पानी का गुण बदल जायेगा और उसे पीनेवाले पागल हो जायेंगे। केवल वे ही लोग सही-सलामत रहेंगे जो थोड़ा पानी अलग बचा कर रख लेंगे और उसे ही पीयेंगे।

केवल एक व्यक्ति ने खिद्र की चेतावनी पर ध्यान दिया। उसने थोड़ा पानी बचाकर रख लिया।

निश्चित तिथि के बाद वही हुआ जो खिद्र ने कहा था। और इस एक आदमी को छोड़ कर गांव के सभी लोग पागल हो गये। लेकिन जब उसने लोगों से बातचीत की, तब उसे पता चला कि सब उसे ही पागल समझते हैं। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-03)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-02)

अकंप चित्त में सत्य का उदय—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 22 सितंबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

दो साधु एक झंडे के बारे में विवाद कर रहे थे।

एक ने कहा: ‘झंडा डोल रहा है।’

दूसरे ने कहा: ‘हवा डोल रही है।’

तभी छठे कुलगुरु वहां से गुजर रहे थे।

उन्होंने कहा: ‘न हवा, न झंडा, मन डोल रहा है।’

भगवान! इस झेन लघुकथा का अर्थ क्या है?

स बोध कथा में प्रवेश के पहले मन के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी चाहिए। पहली बात, कितना ही तेज तूफान हो, सागर की सतह ही कंपित होती है, सागर का अंतस्तल नहीं। ऊपर आंधियां बहें, तो भी लहरें ही डोलती हैं। सागर का अंतस केंद्र बिना डोला ही रहता है। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-02)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-01)

 शरीर से तादात्म्य के कारण आत्मिक दीये के तले अँधेरा—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 21 सितंबर, 1974;  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

‘पथ के प्रदीप’ में आपका वचन है:

‘मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई मनुष्य का अपने प्रति ही अज्ञान है। दीये के नीचे जैसे अंधेरा होता है, वैसे ही मनुष्य उस सत्ता के प्रति अंधकार में होता है जो कि उसकी आत्मा है। हम स्वयं को ही नहीं जानते हैं। और तब यदि हमारा सारा जीवन ही गलत दिशाओं में चला जाता है, तो आश्चर्य करना व्यर्थ है।’

भगवान! मिट्टी के दीये तले अंधेरे का इकट्ठा होना तो कुछ समझ में आता है; लेकिन यह आत्मिक दीये के नीचे जो घना अंधकार है, उससे हम बिलकुल अपरिचित हैं। वह क्या है, क्यों है, और कैसे दूर हो सकता है, यह हमें विस्तार से समझाने की कृपा करें। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-01)”

दीया तले अंधेरा-(झेन कथा)-ओशो

दीया तले अँधेरा-

(ओशो द्वाराझेन और सूफी बोध कथाओं पर 21 सितंबर से 10 अक्‍टूबर, 1974 तक श्री रजनीश आश्रम, पूना में दिये गये बीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

 ह अंधेरा कब तक रहेगा? जब तक तुमने स्वयं को शरीर माना है, यह अंधेरा रहेगा। जब तक दीया है, तब तक अंधेरा रहेगा। ज्योति अकेली हो, फिर उसके नीचे कोई अंधेरा नहीं रहेगा। ज्योति सहारे से है। थोड़ी देर को सोचो, ज्योति मुक्त हो गई अकेली आकाश में, उसके चारों तरफ प्रकाश होगा। लेकिन ज्योति दीये के सहारे है। दीया तो ज्योति नहीं है। जितनी जगह दीया घेरेगा, उतनी तो अंधेरे में रहेगी। इसलिए बड़ी विरोधाभासी घटना घटती है। दीया सबको प्रकाशित कर देता है और खुद अंधेरे में डूबा रह जाता है। तुम सब को देख लेते हो, बस खुद ही का दर्शन नहीं हो पाता। तुम सबको समझ लेते हो, बस एक ही अनसमझा रह जाता है–वह तुम स्वयं हो। तुम सबकी सहायता कर देते हो, बस एक ही असहाय रह जाता है–वह भीतर। तुम चारों तरफ संपत्ति के ढेर लगा लेते हो, बस भीतर एक खालीपन, एक निर्धनता रह जाती है।…. Continue reading “दीया तले अंधेरा-(झेन कथा)-ओशो”

दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-10)

जैसा हूं, परम आनंदित हूं—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 10 अक्तूबर 1980;  श्री ओशो आश्रम, पूना

पहला प्रश्न:

भगवान, एक पत्रकार-परिषद में भारत के भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्री मोरारजी देसाई ने कहा है:”आचार्य रजनीश के आश्रम में आने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, क्योंकि आचार्य रजनीश का आंदोलन अत्यंत खतरनाक और घातक ही नहीं, वरन भारतीय धर्म और संस्कृति को बदनाम करने वाला भी है।’ श्री देसाई ने गुजरात के मुख्यमंत्री श्री माधवसिंह सोलंकी के इस वक्तव्य के विरुद्ध अपनी तीखी प्रतिक्रिया की है कि “किसी भी धार्मिक नेता को भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में कहीं भी आश्रम बनाने की स्वतंत्रता है’ और उन्होंने कहा कि “बुरे कामों को बढ़ावा देने के लिए इस स्वतंत्रता का उपयोग नहीं किया जा सकता है। मैंने तो अपने शासन-काल में आचार्य रजनीश की गतिविधियों की जांच की भी आदेश दिया था।’ श्री देसाई ने यह भी कहा कि “आचार्य रजनीश कभी भी कच्छ में अपना आश्रम स्थापित नहीं कर सकेंगे, यदि कच्छ की जनता इकट्ठी होकर उनका विरोध करने का साहस करे।’ Continue reading “दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-10)”

दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-09)

सतां हि सत्य—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 9 अक्तूबर 1980;  श्री ओशो आश्रम, पूना

पहला प्रश्न:

भगवान,

सत्यं परं परं सत्य।

सत्येन न स्वर्गाल्लोकाच च्यवन्ते कदाचन।

सतां हि सत्य।

तस्मात्सत्ये रमन्ते।

अर्थात सत्य परम है, सर्वोत्कृष्ट है, और जो परम है वह सत्य है। जो सत्य का आश्रय लेते हैं वे स्वर्ग से, आत्मोकर्ष की स्थिति से च्युत नहीं होते। सत्पुरुषों का स्वरूप ही सत्य है। इसलिए वे सदा सत्य में ही रमण करते हैं।

भगवान, श्वेताश्वतर उपनिषद के इस सूत्र को हमारे लिए विशद रूप से खोलने की अनुकंपा करें। Continue reading “दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-09)”

दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-08)

दर्शन तो एक आत्मिक संस्पर्श है—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 8 अक्तूबर 1980;  श्री ओशो आश्रम, पूना

पहला प्रश्न:

भगवान, छांदोग्य उपनिषद में एक सूत्र इस प्रकार है:

न पश्यो मृत्युं पश्यति न रोगं नोत दुखतां

सर्व ह पश्यः पश्यति सर्वमाप्नोति।

सर्वश इति।

अर्थात ज्ञानी न मृत्यु को देखता है, न रोग को और न दुख को; वह सबको आत्मरूप देखता है। और सब कुछ प्राप्त कर लेता है।

भगवान, आप तो गवाह हैं, क्या सच ही बुद्धपुरुष को मृत्यु, रोग और दुख में भी आत्मरूप ही दिखाई पड़ता है?

इस सूत्र पर हमें दिशाबोध देने की कृपा करें। Continue reading “दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-08)”

दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-07)

धर्म है मुक्ति का आरोहण—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 7 अक्तूबर 1980;  श्री ओशो आश्रम, पूना

पहला प्रश्न:

भगवान, यह सूत्र छान्दोग्य उपनिषद में उपलब्ध है:

“जो विशाल है, वही अमृत है। जो लधु है वह मर्त्य है। जो विशाल है, वही सुखरूप है। अल्प में सुख नहीं रहता। निस्संदेह विशाल ही सुख है। इसलिए विशाल का ही विशेष रूप से जानने की इच्छा करनी चाहिए।

मूलपाठ इस प्रकार है:

यो वै भूमा तदमृतम। अथ यदल्पं तन्मर्त्यम।

यो वै भूमा तत्सुख। नाल्पे सुख-मस्ति।

भूमैव सुख। भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्यः।।

भगवान, इस सूत्र को हमारे लिए सुस्पष्ट बनाने की कृपा करें। Continue reading “दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-07)”

दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-06)

गुहग्रंथिभ्यो विमुक्तोमृतो भवति—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 6 अक्तूबर 1980;  श्री ओशो आश्रम, पूना

पहला प्रश्न:

भगवान मुंडकोपनिषद का यह सूत्र कुछ अजीब लगता है। यह कहता है: जो उस परम ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है। उसके कुल में ब्रह्म को न जानने वाला पैदा नहीं होता। वह शोक से तर जाता है, पाप से तर जाता है, और हृदय की ग्रंथियों से मुक्त होकर अमृत बन जाता है।

श्लोक इस प्रकार है:

स यो ह वै तत परमं ब्रह्म वेद, ब्रह्मैस भवति।

नास्याब्रह्मवित कुले भवति।

तरति शोकं, तरति पाप्मानम

गुहाग्रंथिभ्यो विमुक्तोमृतो भवति।।

भगवान, हमें इस सूत्र का गूढ़ार्थ समझाने की अनुकंपा करें। Continue reading “दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-06)”

दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-05)

अल्लाह बेनियाज़ है—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 5 अक्तूबर 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न—

भगवान, कुरान की जो प्रार्थना है उसके तीन हिस्से हैं: पनाह, अलफातिहा और सूरत-इ-इखलास (मैत्री)। सूरत-इ-इखलास इस प्रकार है:

बिस्मिल्लाहिर् रहमानिर् रहीम।

कुल हुवल्लाहु अहद। अल्लाहुस्समद।

लम् यलिद, वलम् यूलद;

व लम् यकुल्लहू कुफवन् अहद्।।

अर्थ ऐसा है:

पहले ही पहल नाम लेता हूं अल्लाह का, जो निहायत रहमवाला मेहरबान है।

(ऐ पैगंबर, लोग तुम्हें खुदा का बेटा कहते हैं और तुमसे हाल खुदा का पूछते हैं, तो तुम उनसे) Continue reading “दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-05)”

दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-04)

संन्यास बोध की एक अवस्था है—(प्रवचन—चौथा)

 दिनांक 4 अक्तूबर 1980; श्री ओशो आश्रम, पूना

पहला प्रश्न:

भगवान, यह श्लोक भी मुंडकोपनिषद में है:

वेदांत विज्ञान सुनिश्चितार्था:

संन्यास योगाद यतय: शुद्ध-सत्वा:।

ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले

परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे।।

अर्थात वेदांत और विज्ञान (प्रकृति का ज्ञान) के द्वार जिन्होंने अच्छी तरह अर्थ का निश्चय कर लिया है और साथ ही संन्यास और योग के द्वारा जो शुद्ध स्वत्व वाले हो गये हैं, वे प्रयत्नवान ब्रह्मपरायण लोग मरने पर ब्रह्मलोक में पहुंच कर मुक्त हो जाते हैं। Continue reading “दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-04)”

दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-03)

स्वयं का सत्य ही मुक्त करता है—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 3 अक्तूबर 1980;–श्री ओशो आश्रम, पूना

पहला प्रश्न:

भगवान, शह श्लोक मुंडकोपनिषद का है:

सत्यं एक जयते नानृतम

सत्येन पन्था विततो देवयानः।

येनाक्रमन्ति ऋषियो ह्याप्तकामा

यत्र तत्र सत्सस्य परम निधानम।।

अर्थात सत्य की जय होती है, असत्य की नहीं। जिस मार्ग से आप्तकम ऋषिगण जाते हैं और जहां उस सत्य का परम निधान है, ऐसा देवों का वह मार्ग हमारे लिए सत्य के द्वारा ही खुलता है।

भगवान, क्या सत्य साध्य और साधन दोनों है? हमें दिशा बोध देने की अनुकंपा करें!

हजानंद! धर्म के सूत्रों के संबंध में एक प्राथमिक बात सदा स्मरण रखना: वे अंतर्यात्रा के सूत्र हैं, बहिर्यात्रा के नहीं। यह भूल जाए तो फिर सूत्रों की व्याख्या गलत हो जाती है। Continue reading “दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-03)”

दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-02)

यह मयकदा है—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 2 अक्तूबर 1980;  श्री ओशो आश्रम पूना

पहला प्रश्न:

भगवान, मुंडकोपनिषद में यह श्लोक आता है:

नायं आत्मा प्रवचने लभ्यो

न मेधया न बहुना श्रुतेन।

यं एवैष वृणुतं तेन लभ्यस

तस्यैष आत्मा विवृणुते स्वाम।।

अर्थात यह आत्मा वेदों के अध्ययन से नहीं मिलता, न मेधा की बारीकी या बहुत शास्त्र सुनने से मिलता है। यह आत्मा जिस व्यक्ति का वरण करता है उसीको इसकी प्राप्ति होती–आत्मा उसीको अपना स्वरूप दिखाता है।

भगवान, उपनिषद के इस सूत्र को हमारे लिए बोधगम्य बनाने की अनुकंपा करें।

हजानंद! यह सूत्र उन थोड़े-से सूत्रों में से एक है, जिनमें अमृत भरा है। जितना पीओ, उतना थोड़ा। Continue reading “दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-02)”

दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-01)

महल भया उजियार—(प्रवचन—पहला) 

1 अक्तूबर 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न:

भगवान, “दीपक बारा नाम का’, संत पलटू के इस सूत्र से आज एक नयी प्रवचन माला शुरू हो रही है। कृपया समझाएं कि यह नाम का दीपक क्या है और संत पलटू किस नाम का जिक्र कर रहे हैं?

चैतन्य कीर्ति!

पूरा सूत्र इस प्रकार है–

पलटू अंधियारी मिटी, बाती दीन्हीं बार।

दीपक बारा नाम का, महल भया उजियार।। Continue reading “दीपक बारा नाम का-(प्रवचन-01)”

दीपक बारा नाम का-(प्रश्नचर्चा)-ओशो

दीपक बार नाम का-ओशो

लटू अंधियारी मिटी, बाती दीन्हीं बार।

दीपक बारा नाम का, महल भया उजियार।।

मनुष्य जन्मता तो है, लेकिन जन्म के साथ जीवन नहीं मिलता। और जो जन्म को ही जीवन समझ लेते हैं, वे जीवन से चूक जाते हैं। जन्म केवल अवसर है जीवन को पाने का। बीज है, फूल नहीं। संभावना है, सत्य नहीं। एक अवसर है, चाहो तो जीवन मिल सकता है; न चाहो, तो खो जाएगा। प्रतिपल खोता ही है। जन्म एक पहलू, मृत्यु दूसरा पहलू। जीवन इन दोनों के पार है। जिसने जीवन को जाना, उसने यह भी जाना कि न तो कोई जन्म है और न कोई मृत्यु है।

साधारणतः लोग सोचते हैं, जीवन जन्म और मृत्यु के बीच जो है उसका नाम है। नहीं जीवन उसका नाम है जिसके मध्य में जन्म और मृत्यु बहुत बार घट चुके हैं, बहुत बार घटते रहेंगे। तब तक घटते रहेंगे जब तक तुम जीवन को पहचान न लो। जिस दिन पहचाना, जिस दिन प्रकाश हुआ, जिस दिन भीतर का दीया जला, जिस दिन अपने से मुलाकात हुई, फिर उसके बाद न कोई लौटना है, न कहीं आना, न कहीं जाना। फिर विराट से सम्मिलन है। Continue reading “दीपक बारा नाम का-(प्रश्नचर्चा)-ओशो”

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